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________________ तो जीवन से वही प्रकट होगा जो भीतर है। अतः जैन साधकों की दृष्टि में सत्यव्रत के पालन का अर्थ अन्तस् की यथावत् प्रस्तुति है, जहाँ कपट का, द्वन्द का सर्वथा अभाव होता है। __ अचौर्यव्रत के सम्बध में जैन साधकों ने बड़ी गहरी बात कही है। उनका अनुभव है कि परत्व के कारण ही व्यक्ति हिंसा करता है। हिंसात्मक वह न दीखे, इसलिए वह झूठ बोलता है तथा असत्य में जीने के कारण वह अपने और पर की पहिचान को भूल जाता है। इसलिये जो वस्तुएँ उसकी नहीं है और न उसका साथ देने वाली है , उनका भी वह संग्रह करने लगता है। जब परिग्रह की लालसा तीव्र हो जाती है तो वह चोरी पर उतर जाता है। अतः परिग्रह का जो विकृत रूप है वह चोरी का जन्म दाता है। इस कारण अचौर्य का अर्थ किसी की वस्तु बिना आज्ञा ग्रहण न करना मात्र नहीं अपितु स्व एवं पर के भेद को समझना भी है। ___ अचौर्यव्रत का पालन करना गहन अध्यात्म से भी सम्बन्धित है। जैन साधकों का सोचना बिल्कुल सत्य है कि दूसरे की वस्तु को अपनी बना लेना चोरी है। इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि हम इस समझ को जागृत करें कि हम बहुत पुराने चोर हैं। जन्म-जन्मान्तरों से हम शरीर को अपना मानते हुए चले आ रहे हैं। अपने साथ रखते हैं, मनमाना उसका उपयोग करते हैं । अतः यदि अचौर्यव्रत का पालन करना है तो सर्वप्रथम यह समझ में आ जाना चाहिए कि मेरी आत्मा अलग और शरीर अलग है। शरीर के ऊपर से अपने स्वामित्व को हटाना ही अचौर्य में प्रवेश करना होगा। शरीर से स्वामित्व हटते ही अन्य वस्तुओं की चोरी करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। इसी प्रकार अचौर्य का अर्थ है कि हमारे व्यक्तित्व में जो कुछ भी पराया है, दूसरों का आचरण व दूसरों के विचार उन सभी से मुक्ति ले लेना। प्राय: हम कभी किसी के व्यक्तित्व को ओढ़ते हैं तो कभी किसी के विचार द्वारा अपने को प्रकट करते हैं। यह इसलिये होता है कि हम स्वयं को नहीं पहचान पाते, अपनी शक्ति से परिचित नहीं हो पाते। अतः अचौर्य व्रत के पालन का अर्थ है-स्वयं में लौटना, क्योंकि हो सकता है कि कभी समृद्धि इतनी अधिक हो जाए कि वस्तुओं की चोरी की आवश्यकता ही न रहे। लेकिन तब भी अज्ञानवश पर पदार्थों की चोरी होती रहेगी। अतः आन्तरिक चोरी से बचना ही अचौर्य है जो निजी व्यक्तित्व के प्रकाशन से ही सम्भव है। ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में भी जैन साधकों की धारणा अध्यात्म से जुड़ी हुई है। वे मानते हैं कि शरीर में अनेक प्रकार की शक्तियाँ होती हैं जिनका निष्कासन मैथुन आदि तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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