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________________ क्रियाओं के द्वारा होता है। उसके बाद व्यक्ति रिक्त हो जाता है। शक्तियों से रिक्त होने का दूसरा माध्यम है कि उनको पैदा ही न होने दिया जाये। व्रत, उपवास, निराहार आदि द्वारा इन पर रोक लगाई जा सकती है किन्तु इससे भी व्यक्ति में रिक्तता ही आयेगी, अत: काम की क्रियाओं द्वारा शक्ति को रिक्त करना अथवा उनको पनपने ही न देना, इन दोनों स्थितियों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। आध्यात्मिक उपलब्धि दोनों से ही नहीं होती। अतः जैन साधकों का कथन है कि ब्रह्मचर्य का अर्थ होना चाहिए ब्रह्म अर्थात् परमात्मा जैसा आचरण। परमात्मा का आचरण निरन्तर स्व विकास एवं उसको निर्मल बनाने में होता है। अतः व्यक्ति में जो शक्तियां हैं उनका बहाव बाहर की तरफ न करके अन्दर की ओर किया जाये तो ब्रह्मपने की उपलब्धि हो सकती है। यही अकाम की साधना है। इससे जन्म-मृत्यु से छुटकारा मिल सकता है। पाँचवें व्रत अपरिग्रह के सम्बध में जैन साधकों की दृष्टि एकदम निर्मल है। दूसरों की वस्तुओं के हम इसलिए स्वामी होना चाहते हैं, क्योंकि हम असुरक्षा में जीते हैं । हमें निरन्तर यह भय लगा रहता है कि इस वस्तु के न होने पर, इस नौकर या अंगरक्षक के न होने पर, इस महल या सवारी के न होने पर मेरा जीवन दुभर हो जायेगा। इसलिए इन सबका संग्रह होता है। दूसरी बात इसमें यह है कि व्यक्ति अपने सुख के सिवाय दूसरे को सुखी नहीं देख सकता। जो देखते हैं वे दूसरों को दूसरा नहीं मानते। इस कारण वस्तुओं का संग्रह करते समय दूसरे का हक छिनने का भी ध्यान नहीं रहता है और ध्यान रहता है तो भी उसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहती है। इस कारण उन समस्त वस्तुओं में जिनमें व्यक्ति की सुरक्षा व सुविधा जुड़ी हुई होती है, व्यक्ति का ममत्व हो जाता है। यह ममत्व भाव ही अथवा मूर्छा का विकास ही परिग्रह है। जैन साधकों का सोचना है कि मात्र बाह्य वस्तुओं के व्यवहार को सीमित कर देना या त्याग देना अपरिग्रह के भाव को नहीं ला सकता । इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी आत्मा की शक्ति को पहचाने। उसकी पूर्णता से परिचित हो तो वह व्यर्थ की वस्तुओं से अपने को पूर्ण नहीं बनायेगा। जब वह स्वयं का मालिक बन जायेगा तो अन्य वस्तुओं व व्यक्तियों के मालिक बनने की उसे आवश्यकता नहीं रहेगी, अत: अपरिग्रह होने का अर्थ अभय की प्राप्ति, निर्भय व्यक्ति का संग्रह स्वयमेव सबके लिए वितरित हो जाता है। ___ इस प्रकार जैन साधकों ने इन पाँच व्रतों के मूल में एक सुचिंतित आध्यात्मिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है। आत्मज्ञान की निर्मलता को इनके साधने का साधन माना 8 - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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