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इन लक्षणों से हमें ज्ञात होता है कि उस युग में विभिन्न मनोवृत्ति वाले श्रावक होते थे। किन्तु यहाँ ध्यान देने वाली एक प्रमुख बात यह है कि उक्त चारों भेदों में श्रावक का साधु के प्रति आचरण ही प्रमुख रूप से वर्णित है। साधु गुरु पद पर विराजमान होने से गुरु के प्रति जैसा भाव रखा जायेगा वैसा ही जीवन निर्मित होगा, ऐसा इसके पीछे. कारण रहा होगा या जैन-धर्म में श्रावक को श्रमणोपासक माना गया है, अत: श्रमण के प्रति जैसी मनोवृत्ति होगी वैसा ही जीवन निर्मित होगा। प्रस्तुत आगम ग्रन्थ में श्रावक के चार अन्य भेद भी बताये गये हैं, यथा
१. दर्पण सदृश - दर्पण जैसा अर्थात् साधु के उपदेश को यथावत् ग्रहण करके विचलित न होने वाला।
२. पताका सदृश - हवा की दिशा में उड़ने वाली पताका की तरह सतत चंचल चित्त वाला।
३. स्थाणु सदृश - जिस प्रकार शुष्क निरर्थक स्थाणु कभी चलित नहीं होता. उसी प्रकार गुरु के उपदेश से भी जिसका मन प्रतिबोधित न होने वाला |
४. खर कंटक सदृश - जिस प्रकार खर कंटक तीक्ष्ण है और दूसरों को भी पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार जो अपने दुराग्रह से चलित न होकर साधु को भी पीड़ा देने वाला श्रावका
उक्त चारों प्रकारों में केवल प्रथम दर्पण सदृश को छोड़कर अन्य तीनों प्रकार के श्रावक त्याज्य ही हैं। जो स्वयं दोषयुक्त परिणाम वाले हैं और दूसरों को पीड़ा देने वाले होते हैं । यहाँ भी देखा जाए तो आदर्श श्रावक की अपेक्षा नामधारी श्रावक को इंगित करने वाले दृष्टांत अधिक हैं, इसीलिए आगम के टीका ग्रन्थों में निक्षेप के आधार पर श्रावक के चार भेदों का वर्णन मिलता है -
१. नाम श्रावक - किसी व्यक्ति का नाम श्रावक हो तो वह संज्ञा वाचक - नामधारी व्यक्ति को नाम श्रावक कहा जाएगा।
२.स्थापना श्रावक - पुस्तक या चित्र में किसी श्रावक विशेष का चित्र या श्रावक की पाषाण प्रतिमा को स्थापना श्रावक कहा जाएगा।
३. द्रव्य श्रावक - जिन्होंने केवल आजीविका के लिए या पद प्रतिष्ठा के लिए श्रावक वेष को धारण किया हो, उसे द्रव्य श्रावक कहा जाएगा।
४. भाव श्रावक - शास्त्र में वर्णित सभी प्रकार के श्रावकों के गुणों से युक्त एवं देव, गुरु, धर्म की आराधना करने वाले को भाव श्रावक माना गया है।
इन चारों भेदों से ज्ञात हो जाता है कि वर्तमान काल में द्रव्य श्रावक की संख्या
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 -
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