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________________ जाता है। धर्म की शाश्वत घोषणाओं को वह परिवर्तन नहीं करना चाहता और उसका लोक व्यवहार क्षण-क्षण में परिवर्तन हो रहा है। जब आस-पास का वातावरण परिवर्तन रूपी विकास की सारी सीमाएं पार कर रहा हो तब हम शाश्वत घोषणाओं को वैसा ही सुरक्षित रखकर उन्हें शिरोधार्य करके इस परिवर्तन के दौर में दौड़ लगायें -यह कहाँ तक व कैसे सम्भव है ? इस विचार पर दो प्रकार के लोग सामने आते हैं- एक वो जो यह कहकर पल्ला झाड़ देते हैं कि हम तो दौड़ लगायेंगे अगर सिद्धांत या आचार हमारी दौड़ के अनुरूप हो तो, हमारी दौड़ में बाधक न बन रहे हो तो। हमें उन आचार संहिताओं और सिद्धांतों को लेकर चलने में कोई बाधा नहीं है और दूसरे वे जो यह कहते हैं कि यदि यह आचार संहिताएं हमारी दौड़ को सुगम बनाने की बजाय बाधक बनाती हैं तो हम सिद्धांत छोड़ देंगे किन्तु दौड़ नहीं छोड़ेंगे। आधुनिक समस्या : वर्तमान समय में हम दो प्रकार की विचारधाराओं से ग्रसित हैं। एक पारम्परिक विचार धारा और दूसरी विकासवादी विचार धारा। हमारे मन में यह अन्तर्द्वन्द्व हमेशा चलता रहता है कि जैन संस्कृति को हम पारम्परिक और विकासवादी इन दोनों धाराओं के साथ संतुलन बिठाये हुए कैसे गति प्रदान करें? हम परम्परा से नहीं कट सकते,क्योंकि हमारी सम्पूर्ण विरासत पारम्परिक है। हम विकासवाद से भी अछूते नहीं रह सकते, क्योंकि हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर उत्तर आधुनिकता की ओर बढ़ता हुआ ज्ञान, विज्ञान और धन सम्पदा से सुसज्जित वर्तमान युग हावी है। हमें इसके सामने भी अपनी संस्कृति, सिद्धांतों और संस्कारों की प्रासंगिकता सिद्ध करनी है। यह हमारी आधुनिक समस्या है जिसका समाधान हमें ग्रन्थों में नहीं मिल पा रहा है । इसका समाधान हमारे स्वयं के विवेक से सम्भव है। परम्परा और विकास की समस्या:- निश्चित रूप से परम्परा और विकास के अन्तर्सम्बन्ध समस्याग्रस्त हैं। हम जैन सिद्धांतों को आधुनिक सन्दर्भो में प्रासंगिक होने का भले ही कितना ही दावा करते हों किन्तु सच यह है कि आधुनिक पीढ़ी को हम यह समझाने में असफल हो रहे हैं कि गाय और भैंस के स्तनों में मशीन लगाकर जबरन निकाले गये डेयरी का दूध मांसाहार है अथवा नहीं, क्योंकि पाश्चात्य देशों में वो सब Non-Vegiterian ही कहा जाता है जो Animal product होता है। अब वो चाहे दूध, दही, घी ही क्यों न हो। छने हुए पानी को उबालकर पीना, उसमें लोंग इत्यादि डालकर तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 | - 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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