________________
अन्य कुछ नहीं है। उसके आधार पर श्रावकों में दरार डाली जा रही है और लोगों के मन में यह बात बिठाई जा रही है कि हम ही केवल सच्चे गुरु हैं और हम जो कह रहे हैं, वह वीतराग की वाणी है। सम्यक्त्व के यथार्थ रूप से अनभिज्ञ हम गुरुडमवाद के दल-दल में फंसते चले जा रहे हैं।
आज वीतरागता के प्रति हमारी श्रद्धा कितनी जर्जर हो चुकी है इसका प्रमाण यही है कि आज सामान्य मुनिजनों, आचार्यों से लेकर गृहस्थ उपासक तक के लिए सभी लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए वीतराग की निष्काम भक्ति को भूलकर तीर्थंकर या देवी देवताओं के स्थान पर पद्मावती, चक्रेश्वरी, भोमियां जी, घन्टाकर्ण महावीर और नाकोड़ा भैरव अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। हमारे अधिकांश साधु-साध्वी ही नहीं, आचार्य तक यज्ञों और देवियों की साधना में लगे हुए हैं। वीतरागता के उपासक इस धर्म में आज तन्त्र-मंत्र व जादू टोना सभी कुछ प्रविष्ट होते जा रहे हैं । वीतरागता के साधक कहे जाने वाले मुनि जन भी अपनी चमत्कार-शक्ति का बड़े गौरव के साथ बखान करते हैं। जिस धर्म की उत्पत्ति लौकिक मूढताओं और अन्ध-श्रद्धाओं को समाप्त करने के लिए हुई हो, वही आज अन्ध-विश्वासों में आकण्ठ डूबता जा रहा है । हमारी आस्थाएं वीतरागता के साथ न जुड़कर लौकिक-एषणाओं की पूर्ति के लिए जुड़ रही हैं। आज महावीर के पालने की अपेक्षा लक्ष्मी जी का स्वप्न मंहगा बिकता है। अगर हमारी आस्थाएं धर्म के नाम पर लौकिक एषणाओं की पूर्ति तक ही सीमित है तब फिर हमारा वीतराग के उपासक होने का दावा करना व्यर्थ है। आज जब हम गृहस्थ धर्म की प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं, हमें इस यथार्थ स्थिति को समझ लेना होगा। जीवन में या साधना के क्षेत्र में सम्यक् श्रद्धा की कितनी आवश्यकता है? यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है, किन्तु श्रद्धा के नाम पर अन्धविश्वासों का दुश्चक्र हम पर हावी होता जा रहा है, उससे कैसे बचा जाये? आज का महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । वस्तुतः इस सबका मूल कारण यह है कि आज श्रावक वर्ग को धर्म के यथार्थ रूप का कोई बोध नहीं रह गया है। हमारी श्रद्धा समझपूर्वक स्थिर नहीं हो रही है, श्रद्धा का तत्त्व व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास कर सकता है। लेकिन वह तभी सम्भव है जब श्रद्धासम्मत हो और हमारी विवेक की आंखें खुली हो। आज हम उस उक्ति को भूल गये हैं, जिसमें कहा गया है कि 'पण्णा समिक्खा धम्मो' अर्थात् धर्म के स्वरूप की प्रज्ञा के द्वारा समीक्षा करो। गृहस्थ धर्म की साधना की आधार-भूमि- कषाय जय
श्रावक धर्म और उनकी प्रासंगिकता की चर्चा करते समय हमें श्रावक आचार के मूलभूत नियमों की वर्तमान युग में क्या उपयोगिता है ? इस पर विचार कर लेना होगा ।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005
-
-
27
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org