SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह कैसी विडम्बना है कि हम जैनेतर भाइयों के साथ तो हर प्रकार का समन्वय और वैचारिक साम्य स्थापित करके साथ उठ-बैठ लेते हैं, हँस-बोल लेते हैं किन्तु अपने ही जैन कुल में जन्म लेने वाले सभी भाइयों के साथ इसलिए उठ बैठ नहीं पाते, क्योंकि वे अलग पंथ या विचारों के हैं । इस सन्दर्भ में पूजनीय आचार्य श्री विद्यानन्दजी मुनिराज का यह संदेश हम सभी के लिए मार्ग-दर्शक सिद्ध हो सकता है- मत ठुकराओ, गले लगाओ, धर्म सिखाओ । सारांश के रूप में हम यह मान सकते हैं कि षडावश्यक और बारह व्रतों को पालकर भी यदि हम सामाजिक समरसता स्थापित नहीं कर पाते हैं, अनुदारवादिता और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का भी अभाव नहीं कर पाते हैं तो श्रावकाचार पर प्रश्नचिन्ह उभर जाता है। शास्त्र अपने स्थान पर बिल्कुल सही हैं, उनके अनुसार सम्यक्त्व से रहित कोई भी व्रत - अनुष्ठान इत्यादि मोक्ष मार्ग के लिए व्यर्थ हैं, वे उन्हें बाल तप की संज्ञा देते हैं, आज सम्यक्त्व के अभाव में भी श्रावकाचार यत्किंञ्चित् पाला जा रहा है । उसके पीछे भी मुख्य कारण या तो धार्मिक भावुकता है या फिर स्वास्थ्य का दृष्टिकोण | मुक्ति की प्रबल आकांक्षा लुप्तप्राय है । ऐसे समय में आचार मीमांसा अपनी युगानुकूल व्याख्या मांग रही हो तब हमें बहुत सावधानी पूर्वक आगे कदम बढ़ाने चाहिए और निम्न बातों का अनिवार्य रूप से ध्यान रखना चहिए1. हमारी नई व्याख्या लीक से हटे लेकिन भटके नहीं । 2. 3. 4. आचार मीमांसा में यथाशक्ति पालन की स्वतंत्रता स्वच्छन्दता में नहीं बदले। मूलधारा से टूटने की कीमत पर कोई विधान नहीं बने । हमारी व्याख्या व्यावहारिक ज्यादा हो । नयी व्याख्या को स्वीकारने को विवश न किया जाये । 62 5. 6. पुरानी व्याख्या और उनका अनुसरण करने वाले का पूरा सम्मान और उनके प्रति श्रद्धा हो । अन्त में प्राकृत भाषा की निम्न सूक्ति से अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा - " जं सक्कइतं कीरइ जं ण सक्कइ तहेव सद्दहणं - अर्थात् जो शक्य हो वो करें और जो अशक्य हो, उसकी श्रद्धा करें।" Jain Education International व्याख्याता, जैन दर्शन विभाग, दर्शन संकाय श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली- 110 016 For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 129 www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy