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स्वामिकुन्दकुन्दाचार्य रचित अष्टपाहुड़।
भाषावचनिकाकारस्व० पं० जयचन्द्रजी छावड़ा।
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मुनि श्री अनंतकीर्ति ग्रंथमालाका ५ वां पुष्प ।
वीतरागाय नमः ।
अष्टपाहुड भाषा वचनिका सहित ।
प्रकाशक
मुनि श्री अनंतकीर्ति ग्रंथमाला समिति.
प्रथमावृत्ति १००० ]
भाषा कर्ता
पं. जयचंदजी छावड़ा
[ वसंत, वीर-सं. २४५०
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प्रकाशक
राजमलजी वडजात्या मंत्री, मुनि श्री अनंतकीर्ति ग्रन्थमाला समिति ।
प्रिन्टर मंगेशराव कुळकर्णी
कर्नाटक स्टीम प्रेस । ४३४ ठाकुरद्वार बम्बई
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भूमिका।
अनेक आनंदधाम अतिरमणीय इस पवित्र भारतीय वसुंधरामें स्वयं अहिं. सात्मक तथा संतोष कर जीती है राग द्वेष परिणति जिनने ऐसे धर्मामृत पोषक अगणनीय ऋषिगणगणनीय भगवत् कुन्दकुन्दाचार्यका शासन साक्षात्तीर्थेश पूज्य श्री १००८ भगवान् वर्द्धमान जिनके समान ही आज इस कलिकाल नाम पंचम कालमै मान्यगणना रूप परिणत हो रहा है क्योंकि उनके अमूल्य स्मृतिबोधक ग्रंथराज आज भी उनकी उस शान्तिस्राविणी दिव्य भव्य, तथा लोकान्त चिदानन्द प्रापयित्री पावना मूर्तिको प्रत्यक्ष भासुरीय आभामें नयन विषय कर रहे हैं।
यद्यपि इस दिगम्बर जैन समाजमें आत्मविज्ञान कर्मविज्ञान तथा तत्साधक अनेक करणात्मक ऐसे ग्रंथराज हैं कि जिनके अंशमात्र ज्ञानसे ही आज कल धुरंधर विद्वत् श्रेणिकी गणना प्राप्त हो जाती है इसी सबब यदि अगाधतामें रत्नाकर इनका प्रतिस्पर्धी हो तो विशेष अतिशयोक्ति न होगी क्यों कि गुणरत्न समुद्ररत्नवत् इनमें भी भरे हैं। और वे बड़े ही प्रज्ञाशील कर्मशूरको प्राप्त हो सकते हैं । इसी कारण इनका रचयिता यदि ब्रह्मदेव सर्वज्ञके अनुरूप हो तो वह अंशकतामें सत्यही है । क्यों कि हमारे जैसेके लिये तो यहां भी वही वात है। अतएव इनकी वाणी साक्षात् तीर्थेशकी वाणी और ये साक्षात्तीर्थेशके समानही हमारे लिये हितावह हैं । इनके विषयमें तथा इनकी सर्वज्ञ परंपरागत कृतिके विषयमें यदि किसीकी आक्षेप विक्षेपता होगी वह केवल अगाधजल-आभात्मक मृगतृष्णाके समानही उसके लिये होगी। स्वामी कुंदकुंद सरीखे ग्रंथकार तथा उनके ग्रंथमें कहीं भी ऐसा अंश नहीं है कि जिसमें किसीका आक्षेप विक्षेप हो क्योंकि उनकी ग्रंथशैली आध्यात्म प्रधानता से मुनि मार्गानुशासिनी है फिर भी यहां सर्वत्र इस प्रकारका गुंठन है कि किसी भी प्रतिपक्षी तथा परीक्षकको आदिसे अंततक कहीं भी ऐसा अंश न मिलेगा कि जिसमें आक्षेप विक्षेपको जगह हो । इसीलिये इनको प्रधान तथा पूज्य प्रमाण कोटीमें भगवान् महावीर तथा गौतमगणीके तुल्य माना है क्योंकि शास्त्रकी आदिमें शास्त्र वांचने वाले मंगला
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चरण में 'मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गोतमो गणी मंगलं कुंदकुंदाद्यो जैनधम्मोस्तु मंगलं ' यह पाठ हमेशह ही पढ़ते हैं।
इसीसे पता लगता है कि स्वामी कुन्दकुन्दाचार्यका आसन इस दिगम्बर जैन समाजमें कितना ऊंचा है ये आचार्य मूलसंघके बड़ेही प्राभाविक आचार्य माने गये हैं अतएव हमारे प्रधानवर्ग मूलसंघके साथ कुन्दकुन्दानायमें आज मी अपनेको प्रगट कर धन्य मानते हैं, वास्तवमें देखा जाय तो जो कुन्दकुन्दानाय है वही मूलसंघ है फिर भी मूलसंघकी असलियत कहाँ है यह प्रगट करनेके लिये कुंद. कुंदआनायको प्रधान माना है और इसी हेतुसे मूलसंघके साथ जो कुंदकुंदआम्नायके लिखने बोलने की शैली है वह योग्य भी है क्योंकि मूलसंघता कुंदकुंदाम्नायमें ही प्रधानतासे मानी जाती है । और इसकी प्रसिद्धि दिगम्बर प्रमुख समाजमें सर्वत्र ही है । अतः किसीके विवाद और संदेहको यहां जगह नहीं है ।
श्रीश्रुतसागरसूरिने इनके षट्पाहुड ग्रंथकी संस्कृत टीकाके प्रत्येक पाहुडके अंतमें इनके पांच नाम लिखे हैं जो कि वे इस प्रकार हैं-श्री पद्मानंदिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचायलाचार्यगृद्धपृच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन, इससे यह पता लगता है कि तत्वार्थ सूत्रके कर्ता श्री उमास्वामी और ये एक ही व्यक्ति हों। क्योंकि तत्वार्थ-मोक्षशास्त्र के दशाध्यायके अन्तमें भी तत्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितं। वंदे गणीन्द्रसंज्ञातमुमास्वामिमुनीश्वरं; इसश्लोकमें भी गृद्धपिच्छ ऐसा उमास्वामीजीका विशेषण दिया है इससे तथा विदेहक्षेत्रमें भगवान् श्री१००८ सीमंधरस्वामीद्वारा संबोधित होनेकी कथामेंभी गृद्धपिच्छका विषय आता है तथा कुछ एक विद्वान् द्वारा उमास्वामीजीकी
१ दिगम्बरजैन नामक पत्रके वर्ष १४ वां वीर सं २४४७ वि. सं. १९७७ सन् १९२१ इसवी के पं. नंदलालजी ईडर ( चावली-आगरा ) द्वारा भेजे गये आचार्योंकी पावली और इतिहास नामक लेखकी टिप्पणीस्थ नं.ग की ईडर भंडार वाली पट्टावली में भी कुंदकुंद के पांच नामका श्लोक इस प्रकार मिलता है।
पट्टावली ग. आचार्यकुंदकुंदाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः। एलाचार्यो गृद्धपृच्छः पद्मनंदीति तन्नुतिः॥५॥
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कथाभी वैसीही सुनी जाती है जैसी कि गृद्धपिच्छके विषयमें कुन्दकुन्दाचार्य की है। और कुंदकुंदाचार्य सीमंधर स्वामीसे संबोधित हुए इस विषय में भी श्रीश्रुतसागरसूरिने लिखा है कि — सीमंधरस्वामिशानसंबोधितभव्यजनेन, इस से हम कुछ संदिग्ध होते हैं कि शायद दोनों व्यक्ति एकही हों परंतु जबतक कोई पुष्ट प्रमाण न मिलै तबतक हम संदिग्धावस्था में रहने के सिवाय और कर ही क्या सकते हैं । यदि कहीं कुंदकुंदके नामों में उमास्वामि नामभी होता तब तो फिर सन्देहको भी स्थान न मिलता फिरभी इतना जरूर है कि इनका कोइ न कोइ गुरु शिष्यपनेका सम्बध परस्पर में अवश्य होगा ।
गृद्धपृच्छ कुंदकुंद हों या उमास्वामि हों दोंनोंका ही यशोगान इस दि० जैन समाजमें पूर्ण रीति से बड़ी भक्ति तथा श्रद्धासे जुदे २ नाम द्वारा गाया जाता है। तथा गृद्धपृच्छ नामसे भी किसी किसी ग्रंथकर्ताने अपनी आन्तरिक भक्ति प्रदर्शित की है जैसे कि वादिराज सूरिने अपने पार्श्वचरित्र ग्रंथमें सब आचार्यों से प्रथम गृद्धपृच्छस्वामीका क्या ही अपूर्व शब्दोंमें गुणानुवाद पूर्वक नमस्कार किया है
अतुच्छ गुणसंपातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तं । पक्षीकुर्वति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ॥ १ ॥
जो प्रधान २ गुणों का आश्रय दाता है तथा मोक्ष जानेके इच्छुक उड़नेवाले पक्षियोंके पांखकी तरह जिसका आश्रय लेते हैं उस गृद्धपृच्छको मैं नमस्कार करता हूं ।
कुंदकुंदके विषयमें भाषाटीकाकार पंडित जयचंद्रजी छावड़ा तथा पं० वृंदावनदासजी वगैरः अनेक विद्वानोंने भी बहुत से अभ्यर्थनीय वाक्योंसे स्तुतिगान
१ जासके मुखारविंदतें प्रकाश भासवृंद स्यादवादजैनवैन इंदु कुंदकुंदसे । तासके अभ्यासतें विकाश भेदज्ञान होत, मूढ सो लखे नहीं कुबुद्धि कुंदकुंदसे ॥ देत हैं अशीस शीसनाय इंदु चंद जाहि, मोह - मार-खंड मारतंड कुंदकुंदसे । विशुद्धिबुद्धिवृद्धिदा प्रसिद्ध ऋद्धिसिद्धिदा हुए न, हैं न, होहिं गे, मुनिंद कुंदकुंदसे ॥
कविवर वृन्दावनदासजी.
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किया है जो कि अद्यावधि उसी रूपमें प्रवाहित होकर चला आरहा है। वह स्वामीजीके अलौकिक पांडित्य तथा उनकी पवित्र आत्मपरिणति का ही प्रभाव है स्वामीकुन्दकुन्दाचार्यने अवतरित होकर इस भारतभूमिको किस समय भूषित तथा पवित्रित किया इस विषयका निश्चितरूपसे अभीतक किसी विद्वान्ने निर्णय नहीं किया क्योंकि कितने ही विद्वानोंने सिर्फ अन्दाजेसे इनको विक्रमकी पांचवी
और कितनेही विद्वानोंने तीसरी शताब्दिका होना लिखा है तथा बहुतसे विद्वानोंने इनको विक्रमकी प्रथम शताब्दिमें होना निश्चित किया है और इस मत परही प्रायःप्रधान विद्वानोंका झुकाव है । संभव है कि यही निश्चित रूपमें परिणत हो। परंतु मेरा दिल इनको विक्रमकी पहली शताब्दिसे भी बहुत पहलेका कबूल करता है कारण कि स्वामीजीने जितने ग्रंथ बनाये हैं उन किसीमें भी द्वादशानुप्रेक्षाके अंतमें नाममात्रके सिवाय आपना परिचय नहीं दिया है परंतु बोध पाहुडके अंतमें नंबर ६१ की एक यह गाथा उपलब्ध है
सद्दवियारो भूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य महाबाहुस्स॥
बोधपाहुड़ ॥ ६१ ॥ मुझे इस गाथाका अर्थ गाथाकी शब्द रचनासे ऐसा भी प्रतीत होता है।
जं-यत् जिणे-जिनेन, कहिय-कथितं, सो-तत्, भासासुत्तेसु-भाषासूत्रेषु ( भाषारूपपरिणतद्वादशांगशास्त्रेषु ), सद्दवियारोभूओ-शब्दविकारो भूतः ( शब्दविकाररूपपरिणतः ) भद्दबाहुस्स-भद्रबाहोः सीसेणय-शिष्येनापि । तह-तथा, णायं-ज्ञातं, कहियं-कथित्तं ।
जो जिनेन्द्रदेवने कहा है वही द्वादशांगमें शब्दविकारसे परिणत हुआ है और भद्रबाहुके शिष्यने उसी प्रकार जाना है तथा कहा है। ___ इस गाथा मैं जिन भद्रबाहुका कथन आया है वे भद्रबाहु कोन हैं, इसका निश्चय करनेके लिये उनके आगेकी नं ६२ की गाथा इस प्रकार है ।
बारस अंगवियाणं चउदस पुवंग विउल वित्थरणं । सुयणाणि भहबाहू गमयगुरू भयवओ जयओ ॥
बोधपाहुड़ ॥ ६२॥ द्वादशाङ्गके ज्ञाता तथा चौदह पूर्वांगका विस्तार रूपमें प्रसार करनेवाले गमकगुरू श्रुतज्ञानी भगवान भद्रबाहु जयवंते रहो।
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इन दोनों गाथाओंके पढ़नेसे पाठकोंको अच्छी तरह विदित होगा कि ये बोध पाहुडकी गाथायें श्रुतकेवली भद्रबाहुके शिष्यकी कृति है। और ये अष्ट पाहुड ग्रंथ निर्विवाद अवस्थामें कुंदकुंदस्वामीजीके बनाये हुए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वामी कुंदकुंद श्रुतकेवलीभद्रबाहुके शिष्य थे ऐसी अवस्थामें कुंदकुंदका समय विक्रमसे बहुत पहलेका पड़ता है।
परंतु इस गाथाका अर्थ मान्यवर श्री श्रुतसागर सूरिने दूसरेही प्रकार किया है और उसीके आधार पर जयपुरनिवासी पं. जयचंद्रजी छावड़ाने भी किया है इससे हम पूर्ण रूपमें यह निश्चय नहीं लिख सकते कि स्वामीजीका समय विक्रम शताब्दिसे पहलेका होगा क्योंकि श्रुतसागर सूरिने जो अर्थ लिखा है वह किसी विशेष पट्टावली वगैरःके आधारसे लिखा होगा दुसरे वे एक प्रमाणीक तथा प्रतिभाशाली विद्वान् थे इस वजह उनके अर्थको अमान्य ठहराया जाय यह इस तुच्छ लेखकी शक्तिसे बाह्य है । फिर भी मुझे उस गाथाका जो अर्थ सूझा है वह स्पष्टतासे ऊपर लिखदिया है विद्वान् पाठक इसका समुचित विचार कर स्वामीजीके समय निर्णयकी गहरी गवेषणामें उतरकर समाजकी एक खास त्रुटिको पूरा करेंगे।
भगवत्कुन्दकुन्दस्वामीके बनाये हुये ग्रंथोंमें समयसार १ प्रवचनसार २ पंचास्तिकाय ३ नियमसार ४ रयणसार ५ अष्टपाहुड ६ द्वादशानुप्रेक्षा ७ ये सात ग्रंथ देखनेमें आते हैं और ये सभी ग्रंथ छप भी गये हैं । अष्टपाहुडमें षट्पाहुडके ऊपर संस्कृत टीका श्री श्रुतसागरजीसूरिकी है जोकि बहुतही मनोज्ञ है जिसमें ग्रंथका भाव बहुतही अच्छी तरहसे दर्शित किया है और वह माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रंथमालाके षट् प्राभृतादिसंग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है। इस अष्टपाहुडग्रंथके ऊपर पं० जयचंद्रजी छावड़ा जयपुर निवासीकृत दूसरी देशभाषामय वचनिका है जिसमें कि षट्पाहुड तक श्री श्रुतसागरसूरिकी टीकाका आश्रय है
और दूसरे पाहुडों की उनने खुद लिखी है जिसका कि वर्णन उन्होंने खुद अपनी प्रशस्तिमें लिखा है और वह प्रशस्ति इस ग्रंथके अंतमें उनकी ज्यों की त्यौं लगादी है उससे पाठक विशेषज्ञान इस विषयमें कर सकेंगे। पंडित जयचंद्रजी छावड़ाके विषयमें हम-इस संस्थासे प्रकाशित प्रमेय रत्नमाला तथा आप्तमीमांसाकी भूमिकामें पहले लिखचुके हैं वहांसे पाठक उनके संबंधका कुछ विशेष परिचय कर सकते हैं । आप १९०० शताब्दीके एक प्रतिभाशाली विद्वान् थे
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जिनका कि इस दिगम्बर समाजमें आज भी वैसाही आदर होता है जैसा कि प्रसिद्ध विद्वान् टोडरमलजीका होता है। पं० टोडरमलजीने थोड़े ही समयमें अपनी प्रतिभा शालिनी अलौकि बुद्धि से इस दि. जैन समाजका वह कल्याण किया है कि जिसका प्रतिफल स्वरूप यशोगान यह समाज आज तक गा रहा है। उसी प्रकार टोडरमलजीके समकक्ष पंडित जयचंद्रजीका भी समाजके ऊपर वैसाही उपकार है इसीसे समाजकी दृष्टिमें ये भी मान्य हैं । पंडित जयचंद्रजीका पांडित्य हरएक विषयमें अपूर्व ही था यह उनकी ग्रंथरूप कृति से पाठकों को स्वयमेव ही विदितहो सकता है । तथा ये निरपेक्ष परोपकाररत ऐसे विद्वान थे कि जिनकी बरावरीका उस समय जयपुर भरमें किसी धर्मका भी वैसा कोई विद्वान् नहीं था। तथा भाषा सर्वार्थसिद्धिकी प्रशस्ति पढ़ने से मालूमहोता है कि आपके पुत्र नंदलालजी भी बड़े विद्वान थे। उनकी प्रेरणासे तथा भव्य जनोंकी विशेष प्रेरणा से ही उन्होंने सर्वार्थसिद्धि वगैरः ग्रंथोंकी देशभाषामय वचनिका लिखी है । आपके विषयमें वृद्ध पुरुषों द्वारा आज तक भी एक प्रसिद्ध कहावत सुनने में आती है कि एक समय जयपुर नगरमें शास्त्रार्थी अन्यधर्मी एक वड़ा विद्वान् जयपुरनगरके विद्वानोंको शास्त्रार्थ में जीतनेकी इच्छा से आया था उस समय उस विद्वान् से शास्त्रार्थ करनेके लिये जयपुरनिवासी कोई भी विद्वान् उसके सन्मुख नहीं गया, ऐसी हालतमें नगरके विद्वानोंकी तथा नगरकी विद्व. त्ताके विना अकीर्ति न हो जाय इस हेतु से तथा राज्यकी कीर्ति वांच्छक नगरके विद्वान् पंच तथा राज्य कर्मचारी वर्गने पं. जयचंद्रजी छावड़ासे जाकर सविनय निवेदन किया था कि इस विद्वान्को शास्त्रार्थ में आपही जीत सकते हैं अतः इस नगरकी प्रतिष्ठा आप परही निर्भर है इसलिये शास्त्रार्थ करनेके निमित्त आप पधारे अन्यथा नगरकी बड़ीबदनामी होगी कि बड़े बड़े पंडितोंकी खानि इस विशाल नगरको एक परदेशी विद्वान् जीतगया । इस बातको सुनकर पंडित जयचंद्रजी छावड़ाने जवाब दिया कि मैं तो जयपराजयकी अपेक्षासे शास्त्रार्थ करने किसीसे जाता नहीं फिर भी आपलोगोंका ऐसाही आग्रह है तो मेरे इस पुत्र नंदलालको ले जाइये यह उससे शास्त्रार्थ कर सकेगा। इस पर राजी हो कर सब लोग पं. नंदलालजीको ले गये और पं. नंदलालजीने शास्त्रार्थ कर विदेशी विद्वान्को पराजित किया उसके प्रतिफल राज्य तथा नगरपंचकी तरफ से पं. नंदनलालजी को कुछ उपाधि मिली थी उसके विषयमें पं. जयचंद्र. जीने अवश्य कर्तव्य में उपकार मान कर उसका प्रतिफल स्वरूप ले ना मानों
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अवश्य कर्तव्य तथा उपकारको नीचे गिराना है, इत्यादि वाक्य कह कर उस पदवीको वापिस करा दिया था।
इस कथानकसे पूरी तौर पता चलता है कि आप तथा आपके पुत्र कितने बड़े विद्वान् थे और आप ऐहिक आकांक्षासे कितने निर्पक्ष थे। आपके पिताका नाम मोतीरामजी था जातिके खंडेलवाल श्रावक थे तथा छावड़ा गोत्र में आपका जन्म हुआ था आपकी जिस समय ११ वर्षकी अवस्था थी उस समय से जैन धर्मकी तरफ आपका विशेष चित्त आकर्षित हुआ। आप तेरह पंथके अनुयायी थे। तथा आप परकृत उपकारको विशेष मानते थे इसलिये आप में कृतज्ञता भी भरपूर थी क्यों कि पं. बंशीधरजी पं. टोडरमलजी पं. दौलतरामजी त्यागी रायमल्लजी व्रती मायारामजी वगैरःकी कृति तथा इनका उपकार रूप वखान आपने बड़ेही मनोज्ञ शब्दोंमें किया है। आपने गोमठसार, लब्धि सार, क्षपणासार, समयसार, अध्यात्मसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, राजवार्तिक श्लोकवार्तिक, अष्ट सहस्री, परीक्षामुख प्रमुख अनेक ग्रंथोंका पठन तथा मनन किया था जिनका कि सब विषयक खुलासा भाषा सर्वार्थसिद्धि वगैरःकी प्रशस्ति 'पढ़नेसे हो जाता है।
आपने जो जो अनुवादरूप ग्रंथ कृति की है उसका खुलासा हम प्रमेय रत्नमाला की भूमिकामें कर ही चुके हैं। सर्वार्थसिद्धि वगैरःके समान आपने इस अष्टपाहुडमें भी बहुत ही भव्य प्रयास किया है। आपने अति कठिन प्रथोंका भी सीधी हृदयग्राही भाषामें अनुवाद कर एक बहुत बड़ी समाजकी त्रुटिको पूरा किया है। इस कारण आपके विषयमें समाजका आभारी होना योग्य ही है।
यह पाहुड ग्रंथ यथा नाम तथा विषयसे आठ अंशोंमें विभक्त है जैसे कि दर्शन पाहुडमें-दर्शन विषयक कथन, सूत्र पाहुडमें-सूत्र ( शास्त्र ) संबंधी कथन, 'इत्यादि । पंडितजीने इस ग्रंथकी टीकाकी समाप्ति विक्रम सम्वत् १८६७ भाद्रपद सुदि १३ को की है-जैसाकि आपने इस ग्रंथकी प्रशस्तिमें लिखा है
सवंत्सर दश आठ सत सतसठि विक्रमराय। मास भाद्रपद शुक्ल तिथि तेरसि पूरन थाय ।। पंडितजीके ग्रंथों में आदि तथा अंतके मंगलाचरणसे पता लगता है कि आप 'परम आस्तिक तथा देव गुरु शास्त्र में पूर्ण भक्ति रखते थे। सत्यतो यह है कि जहां आस्तिकता तथा भक्ति है वहां सर्वकी उपकार की बुद्धि भी है यही वात
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उक्त पंडितजीमें थी इसलिये उनमें भी ऐसी उपकी बुद्धि तथा अन्य मान्य गुण थे। इसीसे आप हमारे तथा सब समाजके मान्य हैं अब हम आकांक्षा करते हैं कि आप शीघ्रही अनंत तथा अक्षय सुखके अनंत काल भोगी हों। इस ग्रंथकी भूमिकाके साथ भी हमने पाठकोंके सुभीते के लिये गाथा तथा विषय सूची भी लगादी है। अव अन्तिम हमारा निवेदन है कि अल्पज्ञता वश इस भूमिका तथा ग्रंथ संशोधन में हमारी बहुतसी त्रुटि रह गई होंगी जिसका आप सुज्ञ मार्जन कर हमें क्षमा करेंगे।
मिती मगसिरसुदि ८ सं. १९८० विक्रम. ता. १५-१२-१९२३ ईसवीसन ।
विनीत रामप्रसाद जैन,
... बम्बई।
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श्रीवीतरागाय नमः।
नियमावली मुनि श्रीअनन्तकीर्ति ग्रंथमाला । १ यह ग्रन्थमाला श्री अनन्तकीर्ति मुनिकी स्मृतिमें स्थापित हुई है जो कि दक्षिण कनड़ाके निवासी दिगम्बर साधु चारित्रके तत्व ज्ञानपूर्वक पालनेवाले थे और जिनका देहत्याग श्री गो० दि० जैन सिद्धान्त विद्यालय मुरैना ( गवालियर ) में हुआ था।
२ इस ग्रन्थमाला द्वारा दिगम्बर जैन संस्कृत व प्राकृत ग्रन्थ भाषाटीका सहित तथा भाषाके ग्रन्थ प्रबंधकारिणी कमेटीकी सम्मतिसे प्रकाशित होंगे।
३ इस ग्रन्थमालामें जितने ग्रन्थ प्रकाशित होंगे उनका मूल्य लागत मात्र रक्खा जायगा लागतमें ग्रन्थ सम्पादन कराई संशोधन कराई छपाई जिल्द बंधाई आदिके सिवाय आफिस खर्च भाड़ा और कमीशन भी सामिल समझा जायगा।
४ जो कोई इस ग्रन्थमालामें रु. १००) व अधिक एकदम प्रदान करेंगे उनको ग्रन्थमालाके सब ग्रन्थ विना न्योछावरके भेट किये जायगे यदि कोई धर्मात्मा किसी ग्रन्थकी तैयारी कराई में जो खर्च पड़े वह सब देवेंगे तो ग्रन्थके साथ उनका जीवन चरित्र तथा फोटो भी उनकी इच्छानुसार प्रकाशित किया जायगा यदि कमती सहायता देंगे तो उनका नाम अवश्य सहायकोंमें प्रगट किया जायगा इस ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित सब ग्रन्थ भारतके प्रान्तीय सरकारी पुस्तकालयोंमें व म्यूजियमोंकी लायबेरियोंमें व प्रसिद्ध २ विद्वानों व त्यागियों के भेटस्वरूप भेजे जायंगे जिन विद्वानोंकी संख्या २५ से अधिक न होगी।
५ परदेशकी भी प्रसिद्ध लायब्रेरियों व विद्वानोंको भी महत्वपूर्ण ग्रन्थ मंत्री भेट स्वरूपमें भेज सकेंगे जिनकी संख्या २५ से अधिक न होगी ।
६ इस ग्रन्थमालाका सर्व कार्य एक प्रबंधकारिणी सभा करेगी जिसके सभासद ११ व कोरम ५ का रहेगा इसमें एक सभापति एक कोषाध्यक्ष एक मंत्री तथा एक उपमंत्री रहेंगे।
७ इस कमेटीके प्रस्ताव मंत्री यथा संभव प्रत्यक्ष व परोक्ष रूपसे स्वीकृत करावेंगे।
८ इस ग्रन्थमालाके वार्षिक खर्चका बजट बन जायगा उससे अधिक केवल १००) मंत्री सभापतिकी सम्मतिसे खर्च कर सकेंगे।
९ इस ग्रन्थमालाका वर्ष वीर सम्वत्से प्रारम्भ होगा तथा दिवाली तककी रिपोर्ट व हिसाब आडीटरका जचा हुआ मुद्रित कराके प्रति वर्ष प्रगट किया जायगा।
१० इस नियमावलीमें नियम नं. १-२-३ के सिवाय शेषके परिवर्तनादिपर विचार करते समय कमसे कम ७ महाशयोंकी उपस्थिति आवश्यक होगी।
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श्री दि० जैन मुनि अनंतकीर्तिग्रंथमालाके मुख्यसहायक
महाशय । २२०२) सेठ गुरुमुखरायजी सुखानंदजी-बम्बई.
११०१) मुनिमहाराजके आहार दान समय. . ११०१) यात्रार्थ आये हुए दिल्ली के संघके समय. ११०१) से. हुकमचंदजी जगाधरमलजी-दिल्ली. ११०१) से. उम्मेदसिंहजी मुसद्दीलालजी-अमृतसर. ५०१) श्री जैनग्रंथरत्नाकरकार्यालय-बम्बई. ४११) श्री धर्मपत्नी लाला रायबहादुर हजारीलालजी-दानापुर. २५१) से. नाथारंगजी वाले-बम्बई. . २०१) से. चुन्नीलाल हेमचंदजी-बम्बई. १०१) साहु सुमतिप्रसादजी-नजीवाबाद. १०१) लाला जुगलकिशोरजी-हिसार. १०१) श्री जैनधर्मवर्धिनी सभा-बम्बई । १०१) राजमलजी बड़जात्या-बम्बई । १०१) से. बैजनाथजी सरावगी-हाथरस । १०१) से. कस्तूरचंद वेचरदासजी-बम्बई । १०१) लाला जैनेन्द्रकिशोरजी-आगरा।
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॥श्री॥
विषयसूची।
विषय.
दर्शनपाहुड। भाषाकारकृत मंगलाचरण, देशभाषा लिखनेकी प्रतिज्ञा। .... ... १ भाषा वचनिका वनानेका प्रयोजन तथा लघुताके साथ प्रतिज्ञा, व मंगल। २ कुंदकुंदस्वामिकृत भगवानको नमस्कार, तथा दर्शनमार्ग लिखनेको सूचना। ३ धर्मकी जड़ सम्यग्दर्शन है, उसके विना वंदनकी पात्रता भी नहीं। ... ४ भाषावचनिका कृत दर्शन तथा धर्मका स्वरूप। ... .... दर्शनके भेद तथा भेदोंका विवेचन। .... .... दर्शनके उद्बोधक चिन्ह । .... .... सम्यक्त्वके आठगुण, और आठगुणोंका प्रशमादि चिन्हों में अन्तभव।... १० सम्यक्त्वके आठ अंग। ... सम्यग्दर्शनके विना बाह्य चारित्र मोक्षका कारण नहीं। ... सम्यक्त्वके विना ज्ञान तथा तप भी कार्यकारी नहीं। ... सम्यक्त्व विना सर्व ही निष्फल है तथा उसके सद्भावमें सर्वही सफल है... कर्मरजनाशक सम्यग्दर्शनकी शक्ति जल-प्रवाहके समान है। जो दर्शनादित्रयमें भ्रष्ट हैं वे कैसे हैं। ... भ्रष्ट पुरुष ही आप भ्रष्ट होकर धर्मधारकों के निंदक होते हैं। जो जिनदर्शनसे भ्रष्ट हैं वे मूल से ही भ्रष्ट हैं और वे सिद्धिको भी प्राप्त नहीं कर सकते।
... ... ... ... २२ जिन दर्शन ही मोक्षमार्गका प्रधान साधक रूप मूल है। ... दर्शन भ्रष्ट होकर भी दर्शन धारकों से अपनी विनय चाहते हैं वे दुर्गतिके।
पात्र हैं। ... ... ... ... ... २४ लज्जादिके भयसे दर्शन भ्रष्टका विनय करै हैं वह भी उसीके समान
( भ्रष्ट ) है। ... ... ... ... ... २५
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विषय. दर्शनकी ( मतकी ) हस्ति कहां पर कैसे है। कल्याण तथा अकल्याणका निश्चयायक सम्यग्दर्शन ही है । कल्याण अकल्याणके जाननेका फल। ... ... जिन वचन ही सम्यक्त्वके कारण होनेसे दुःखके नाशक हैं। जिनागमोक्त दर्शन ( मत ) के भेषोंका वर्णन । सम्यग्दृष्टीका लक्षण। .... ... ... .... निश्चय व्यवहार भेदात्मक सम्यक्त्वका स्वरूप ।.... ... रत्नत्रयमें भी मोक्षसोपानकी प्रथम श्रेणि (पेरि) सम्यग्दर्शनही है अत ___ एव श्रेष्ठ रत्न है तथा धारण करने योग्य है। .... ... ३२ विशेष न हो सके तो जिनोक्त पदार्थ श्रद्धान ही करना चाहिये क्यों कि वह
जिनोक्त सम्यक्त्व है। ... ... जो दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप, विनय, इन पंचात्मकतारूप हैं वे वंदना
योग्य हैं तथा गुणधारकोंके गुणानुवाद रूप हैं। ... ... ३३ यथा जात दिगम्बर स्वरूपको देखकर मत्सर भावसे जो विनयादि नहीं ___ करै है वह मिथ्या दृष्टि है। नहीं वंदना करने योग्य कोन । वंदना करने योग्य कोन । मोक्षमें कारण क्या है। ... गुणों में उत्तरोत्तर श्रेष्ठपना। ज्ञानादि गुणचतुष्ककी प्राप्ति में ही निस्संदेह जीव सिद्ध है । सुरासुरवंद्य अमूल्य रत्न सम्यग्दर्शन ही है। ... सम्यक्त्वका माहात्म्य । स्थावर प्रतिमा अथवा केवल ज्ञानस्थ अवस्था। जंगम प्रतिमा अथवा कर्म देहादि नाशके अनंतर निर्वाण प्राप्ति ।
सूत्र पाहुड सूत्रस्थ प्रमाणीकता तथा उपादेयता। ... भव्य( त्व ) फलप्राप्तिमें ही सूत्र मार्गकी उपादेयता
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विषय. देशभाषाकारनिर्दिष्ट अन्य ग्रंथानुसार आचार्य परंपरा । द्वादशांग तथा अंगवाह्य श्रुतका वर्णन । ... दृष्टान्त द्वारा भवनाशकसूत्रज्ञानप्राप्तिका वर्णन । ... सूत्रस्थ पदार्थोंका वर्णन और उसका जाननेवाला सम्यग्दृष्टी। ... व्यवहार परमार्थ भेदद्वयरूप सूत्रका ज्ञाता मलका नाशकर सुखको पाता
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टीकाद्वारा निश्चय व्यवहार नयवर्णित व्यवहार परमार्थ सूत्रका कथन। सूत्रके अर्थ व पदसे भ्रष्ट है वह मिथ्यादृष्टि है । हरिहरतुल्यभी जो जिनसूत्रसे विमुख है उसकी सिद्धि नहीं । ... उत्कृष्टि शक्तिधारक संघनायक मुनि भी यदि जिनसूत्रसे विमुख है तो वह
मिथ्यादृष्टि ही है। ... ... जिनसूत्रमें प्रतिपादित ऐसा मोक्षमार्ग और अन्य अमार्ग। सारंभ परिगृहसे विरक्त हुआ जिनसूत्रकथित संयमधारक सुरासुरादिकर
वंदनीक है। .... अनेक शक्तिसहित परीषहोंके जीतनेवालेही कर्मका क्षय तथा निर्जरा ___ करते हैं वे वंदन योग्य हैं।
.... .... .... इच्छाकार करने योग्य कोन। .... .... . इच्छाकार योग्य श्रावकका स्वरूप .... अन्य अनेक धर्माचरण होने पर भी इच्छाकारके अर्थसे अज्ञ है उसको भी सिद्धि नहीं।
... इच्छाकार विषयक दृढ उपदेश । ... जिनसूत्रके जाननेवाले मुनियोंके स्वरूपका वर्णन। यथाजात रूपतामें अल्पपरिग्रहग्रहणसे भी क्या दोष होता है उसका कथन जिनसूत्रोक्त मुनिअवस्था परिग्रह रहित ही है परिग्रहसत्तामें निंद्य है। ... प्रथम वेष मुनिका है तथा जिन प्रवचनमें ऐसे मुनि वंदना योग्य हैं।... दुसरा उत्कृष्ट वेष श्रावकका है। .... तीसरा वेष स्त्रीका है ।
.... ... .... ... वस्त्रधारकोंके मोक्ष नहीं, चाहे वह तीर्थकर भी क्यों न हो मोक्ष नग्न . ( दिगम्बर ) अवस्थामें ही है। ...
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विषय. स्त्रियोंके नग्न दिगम्बर दीक्षाके अवरोधक कारण । सम्यक्त्वसहित चारित्र धारक स्त्री शुद्ध है पाप रहित है। स्त्रियोंके ध्यानको सिद्धि भी नहीं। जिन सूत्रोक्त मार्गानुगामी ग्राह्यपदार्थो में से भी अल्प प्रमाण ग्रहण करें हैं तथा जो सर्व इच्छाओंसे रहित हैं वे सर्व दुःख रहित हैं। ...
चारित्र पाहुड नमस्कृति तथा चारित्र पाहुड लिखनेकी प्रतिज्ञा। ... सम्यग्दर्शनादित्रयका अर्थ । ... ... ... ... ज्ञानादिभावत्रयकी शुद्धिके अर्थ दो प्रकारका चारित्र।
... चारित्रके सम्यक्त्व-चरण संयम-चरण भेद। ... सम्यक्त्व-चरणके शंकादिमलोंके त्यागनिमित्त उपदेश। ... अष्ट अंगोंके नाम। .... ... ... ... निःशंकित आदि अष्टगुणविशुद्ध जिनसम्यक्त्वका आचरण सम्यक्त्व
चरण चारित्र है और वह मोक्षके स्थानके लिये है। ... ... सम्यक्त्वचरण चारित्र पूर्वक संयमचरण चारित्र शीघ्र ही मोक्षका कारण है। सम्यक्त्वचरण चारित्र से भ्रष्ट संयमचरणधारी भी मोक्षको नहीं प्राप्त करता।
... सम्यक्त्वचरणके चिन्ह। . सम्यक्त्व त्याग के चिन्ह । ... ... उत्साह भावनादि होने पर सम्यक्त्वका त्याग नहीं हो सकता है। मिथ्यात्वादित्रय त्यागने का उपदेश । विशुद्धध्यानके लिये विशेष उपदेश। ... मिथ्यामार्गमें प्रवर्तीने वाले दोष । चारित्रदोषको मार्जन करनेवाले गुण । ... मोहरहित दर्शनादित्रय मोक्षके कारण हैं। ... संक्षेपतासे सम्यक्त्वका महात्म्य। ... ... संयमाचरणके भेद और भेदोंका संक्षेपतासे वर्णन । सागारसंयमाचरणके ११ स्थान अथात् ग्यारह प्रतिमा। ...
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विषय
सागारसंयमचरणका कथन । पंच अणुव्रतका स्वरूप । तीन गुण व्रतोंका स्वरूप । शिक्षाव्रतके चार भेद । यतिधर्मप्रतिपादनकी प्रतिज्ञा । यतिधर्मकी सामिग्री । पंचेन्द्रियसंवरणका स्वरूप ।
पांचव्रतों का स्वरूप ।
पंचवतोंको महाव्रत संज्ञा किस कारणसे है ।
अहिंसाव्रतकी पांच भावना ।
सत्यत्रतकी ५ भावना । अचौर्यव्रतकी भावना | ब्रह्मचर्यकी भावना | अपरिग्रह - महाव्रतकी ५ भावना । संयमशुद्धिकी कारण पंच समिति । ज्ञानका लक्षण तथा आत्माही ज्ञान स्वरूप है । मोक्षमार्गस्वरूप श्रेष्ठ ज्ञानीका लक्षण । परमश्रद्धापूर्वक - रत्नत्रयका ज्ञाताही मोक्षका भागी है । निश्चय चारित्ररूप ज्ञानके धारक सिद्ध होते हैं । ... इष्ट अनिष्ट के साधक गुणदोषका ज्ञान श्रेष्ठ ज्ञानसेही होता है सम्यग्ज्ञान सहित चारित्रका धारक शीघ्र ही अनुपम सुखको प्राप्त होता है । संक्षेपतासे चारित्रका कथन । चारित्र पाहुडकी भावनाका फल तथा भावनाका उपदेश ।... बोध पाहुड आचार्यकी स्तुति और ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा । आयतन आदि ११ स्थलोंके नाम ।
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आयतनत्रयका लक्षण । • टीकाकारकृत आयतनका अर्थ तथा इनसे विपरीत अन्यमत
स्वीकृतका निषेध |
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पत्र
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. १२३ ... १२३
. १२४ ... १२४
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... १२६
... १२६
... १२७
विषय चैत्यग्रहका कथन । जंगमथावर रूप जिनप्रतिमाका निरूपण । दर्शनका स्वरूप । जिनबिंबका निरूपण। ... जिनमुद्राका स्वरूप । ... ज्ञानका निरूपण। दृष्टान्तद्वारा ज्ञानका दृढीकरण। ... विनयसंयुक्तज्ञानीके मोक्षकी प्राप्ति होती है। ... मतिज्ञानादि द्वारा मोक्षलक्ष्यसिद्धिमें बाण आदि दृष्टान्तका कथन देवका स्वरूप।... ... ... धर्म, दीक्षा, और देवका स्वरूप । ... ... तीर्थका स्वरूप। ... अरहंतका स्वरूप। ... नामकी प्रधानतासे गुणोंद्वारा अरहंतका कथन ।... दोषोंके अभावद्वारा ज्ञानमूर्ति अरहंतका कथन।... गुणस्थानादि पंच प्रकारसे अरहंतकी स्थापना पंच प्रकार है। गुणस्थानस्थापनासे अरहंतका निरूपण। ... मार्गणाद्वारा अरहंतका निरूपण। ... पर्याप्तिद्वारा अरहंतका कथन। ... प्राणोंद्वारा अरहंतका कथन। - ... जीवस्थानद्वारा अरहंतका निरूपण । ... द्रव्यकी प्रधानताद्वारा अरहंतका निरूपण । ... भावकी प्रधानतासे अरहंतका निरूपण । अरहंतके भावका विशेष विवेचन । .... ... प्रव्रज्या ( दीक्षा ) कैसे स्थानपर निर्वाहित होती है
तथा उसका धारकपात्र कैसा होता है। ... दीक्षाका अंतरंग स्वरूप तथा दीक्षाविषयविशेषकथन । दीक्षाका बाह्य स्वरूप । तथा विशेषकथन । ... प्रव्रज्याका संक्षिप्त कथन ।
... १२९ ... १३०
... १३२ ... १३३ ... १३४ ... १३५
. १३८ ... १३९
... १४२
... १४४ ... १४५
... १५३
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विषय
पत्र
बोधपाहुड (षट्जीवहितंकर ) का संक्षिप्त कथन। ... सर्वज्ञप्रणीत तथा पूर्वाचार्यपरंपरागत-अर्थका प्रतिपादन .
भद्रबाहुश्रुतकेबलिके शिष्यने किया है ऐसा कथन । श्रुतिकेबलि भद्रबाहुकी स्तुति। ... ... ...
भावपाहुड जिनसिद्धसाधुवंदन तथा भावपाहुड कहनेकी सूचना । ... ... १६१ द्रव्यभावरूपलिंगमें गुणदोषोंका उत्पादक भावलिंगही परमार्थ है। ... बाह्यपरिग्रहका त्याग भी अंतरंगपरिग्रहके त्यागमेंही सफल है। ... करोडोंभव तप करने परभी भावके विना सिद्धि नहीं। ... ... १६५ भावके विना ( अशुद्ध परिणतिमें ) बाह्य त्याग कार्यकारी नहीं। ... १६५ मोक्षमार्ग में प्रधान भावही है अन्य अनेक लिंग धारनेसे सिद्धि नहीं। ... १६६ अनादि कालसे अनंतानंत संसारमें भावरहित बाह्यलिंग अनंतवार छोड़े तथा ग्रहण किये हैं। ...
... १६६ भावके विना सासांरिक अनेक दुक्खोंको प्राप्त हुआ है इसलिये जिनोक्त
भावनाकी भावना करो। नर्कगतिके दुक्खोंका वर्णन। ... तिर्यंच-गतिके दुक्खोंका वर्णन। ...
... ... ... १६८ मनुष्यगतिके दुक्खोंका कथन। ... ... ... ... १६९ देवगतिके दुक्खोंका निरूपण। ... द्रव्यलिंगी कंदी आदि पांच अशुभ भावनाके निमित्तसे नीच देव होता है। १७० कुभावनारूप भाव कारणोंसे अनेकवार अनंतकाल पार्श्वस्थ भावना
भाकर दुखी हुआ। ... ... ... ... ... १७१ हीनदेव होकर महर्द्धिकदेवोंकी विभूति देखकर मानसिक दुःख हुआ। ... १७१ मदमत्त अशुभभावनायुक्त अनेक वार कुदेव हुआ। ... ... १७२ गर्भजन्य दुःखों का वर्णन।... ... ... ... ... १७३ जन्म धारण कर अनंतानंत वार इतनी माताओंका दूध पीया कि जिसकी
तुलना समुद्रजलसे भी अधिक है। ... ... ... १७३
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... १७९
विषय
पत्र अनंत वार मरणसे माताओंके अश्रूओंकी तुलना समुद्र जलसे अधिक है। १७४ अनंत जन्मके नख तथा केशोंकी राशि भी मेरुसे अधिक है। ... १७४ जल थल आदि अनेक तीन भुवनके स्थानोंमें बहुत वार निवास किया। १७५ जगतके समस्त पुद्गलोंको अनंतवार भोगा तो भी तृप्ति नहीं हुई। ... १७५ तीन भुवन संबंधी समस्त जल पीया तौ भी प्यास न शान्त हुई। ... १७६ अनंत भवसागर अनेक शरीर धारण किये जिनका कि प्रमाण भी नहीं। १७६ विषादि द्वारा मरणकर अनेकवार अपमृत्युजन्य तीव्र दुःख पाये। ... १७७ निगोदके दुःखोंका वर्णन। ...
... १७८ क्षुद्र भवोंका कथन । ... ... ... रत्नत्रय धारण करनेका उपदेश। ...
... १७९ रत्नत्रयका सामान्य लक्षण । ...
... १८. जन्म मरण नाशक सुमरणका उपदेश ।
... १८. टीकाकार वर्णित १७ सुमरणोंके भेद तथा सर्वके लक्षण । ... ... १८१ द्रव्य श्रमणका त्रिलोकीमें ऐसा कोई भी परमाणु मात्र क्षेत्र नहीं जहां
कि जन्म मरणको प्राप्त नहीं हुआ भावलिंगके विना बाह्य
जिनलिंग प्राप्तिमें भी अनंत काल दुःख सहे। ... ... १८४ पुलकी प्रधानतासे भ्रमण। ...
... १८५ क्षेत्रकी प्रधानतासे भ्रमण और शरीरके रोग प्रमाणकी अपेक्षासे
दुःखका वर्णन। ... . अपवित्र गर्भ-निवासकी अपेक्षा दुःखका वर्णन । ... ... १८७ बाल्य अवस्था संबंधि वर्णन। .... ...
... १८८ शरीरसंबंधि अशुचित्वका विचार। ...
... १८९ कुटम्बसे छूटना वास्तविक छूटना नहीं किंतु भावसे
छूटनाही वास्तविक छूटना है। ... मुनि बाहुबलीजीके समान भावशुद्धिके विना बहुत कालपर्यंत सिद्धि न भई। ... ...
... १९० मुनि पिंगलका उदाहरण तथा टीकाकार वर्णित कथा। ... वशिष्ट मुनिका उदाहरण और कथा।... भावके विना चौरासी योनियोंमें भ्रमण ।
... १८६
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...१९४
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पत्र
... १९५ ... १९६
. १९८
... १९९
. २००
. २०१
विषय भावसेही लिंगी होता है द्रव्यसे नहीं। ... बाहु मुनिका दृष्टान्त और कथा । ... .. द्वीपायन मुनिका उदाहरण और कथा। भावशुद्धिकी सिद्धिमें शिवकुमार नाम मुनिका दृष्टान्त तथा कथा। भावशुद्धि विना विद्वत्ताभी कार्यकारी नहीं उसमें उदाहरण___ अभव्यसेन मुनि। ... ... ... विद्वत्ता विना भी भावशुद्धि कार्यकारिणी है उसका दृष्टान्त-शिवभूति
तथा शिवभूतिकी कथा। ... नमत्वकी सार्थकता भावसेही है। ... ... भावके विना कोरा नग्नत्व कार्यकारी नहीं। .. भावलिंगका लक्षण । ... ... भावलिंगीके परिणामोंका वर्णन। ... मोक्षकी इच्छामें भावशुद्ध आत्माका चितवन । ... आत्म चितवन भी निजभाव सहित कार्यकारी है। सर्वज्ञ प्रतिपादित जीवका स्वरूप। ... ... जिसने जीवका अस्तित्व अंगीकार किया है उसीके सिद्धि है। जीवका स्वरूप वचन गम्य न होने पर भी अनुभव गम्य है। पंच प्रकार ज्ञान भी भावनाका फल है। ... ... भाव विना पठन श्रवण कार्यकारी नहीं। ... बाह्य नग्नपने करि ही सिद्धि होय तो तिर्यंचआदि सभी नग्न हैं। भाव विना केवल नग्नपना निष्फलही है। ... पापमलिन कोरा नममुनि अपयशका ही पात्र है। भावलिंगी होनेका उपदेश । भावरहित कोरा नममुनि निर्गुण निष्फल। ... जिनोक्त समाधि बोधि द्रव्यलिंगीके नहीं। ... भावलिंग धारणकर द्रव्यलिंग धारण करना ही मार्ग है। शुद्धभाव मोक्षका कारण अशुद्धभाव संसारका कारण । भावके फलका माहात्म्य । ... भावोंके भेद और उनके लक्षण। ... ... ...
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... २०२ ... २०४ ... २०४
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... २११
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विषय
जिनशासनका माहात्म्य | दर्शन विशुद्धि आदि भाव शुद्धि तीर्थकर प्रकृतिकी भी कारण है । विशुद्धिनिमित्त आचरणका उपदेश ।
जिनलिंगका स्वरूप |
जिनधर्मकी महिमा |
प्रवृत्ति निवृत्तिरूप धर्मका कथन ।
पुण्य प्रधानताकर भोगका निमित्त है कर्मक्षयका नहीं मोक्षका कारण आत्मीक स्वभावरूप धर्मही है
...
...
आल्मीक शुद्ध परिणति के विना अन्य समस्त पुण्य परिणति
सिद्ध
हैं । आत्मस्वरूपका श्रद्धान तथा ज्ञान मोक्षका साधक है ऐसा उपदेश । बाह्य हिंसादि क्रिया विना सिर्फ अशुद्धभाव भी सप्तम नरकका
कारण है उसमें उदाहरण - तंदुल मत्स्यकी कथा । भावविना बाह्य परिग्रहका त्याग निष्फल है । भावशुद्धि निमित्तक उपदेश ।
...
भावशुद्धिका फल | भावशुद्धि के निमित्त परीषहोंके जीतनेका उपदेश । परीषह विजेता उपसर्गों से विचलित नहीं होता उसमें दृष्टान्त । भावशुद्धि निमित्त भावनाओं का उपदेश ।
भावशुद्धि में ज्ञानाभ्यासका उपदेश ।
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भावशुद्धि के निमित्त ब्रह्मचर्यके अभ्यासका कथन । भावसहित चार आराधनाको प्राप्त करता है भावरहित संसार में
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भ्रमण कर है ।
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भाव तथा द्रव्यके फलका विशेष ।
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अशुद्ध भावसेही दोष दूषित आहार किया फिर उसीसे दुर्गति दुःख सहे । सचित्त त्यागका उपदेश । ...
पंचप्रकार विनय पालनका उपदेश । वैनृत्यका उपदेश ।
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विषय
लगे हुए दोषोंको गुरुके सन्मुख प्रकाशित करनेका उपदेश क्षमाका उपदेश ।
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क्षमाका फल । ...
क्षमाके द्वारा पूर्व संचित कोधके नाशका उपदेश ।
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दीक्षाकाल आदिकी भावनाका उपदेश ।
भावशुद्धि पूर्वक ही चार प्रकारका बाह्य लिंग कार्यकारी है ।
भाव विना आहारादि चारि संज्ञाके परवश होकर अनादिकाल संसार
भ्रमण होता है ।
भावशुद्धि पूर्वक बाह्य उत्तर गुणोंकी प्रवृतिका उपदेश ।
तत्वकी भावनाका उपदेश ।
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तत्वभावना विना मोक्ष नही ।
पापपुण्यरूपबंध तथा मोक्षका कारण भावही है ।
पापबंध के कारणों का कथन |
पुण्यबंध के कारणोंका कथन ।
भावना सामान्यका कथन ।
उत्तरभेदसहित शीलव्रत भावनेका उपदेश । टीकाकारद्वारा वर्णित शीलके अठारह हजार भेद तथा चौरासी लाख
उत्तर गुणों का वर्णन ।
धर्मध्यान शुक्लध्यानके धारण तथा आर्तरौद्रके त्यागका उपदेश | भवनाशक ध्यान भावश्रमणके ही है ।
ध्यानस्थितिमें दृष्टान्त । पंचगुरूके ध्यावनेका उपदेश ।
ज्ञानपूर्वक भावना मोक्षका कारण है ।
भावलिंगीके संसारपरिभ्रमणका अभाव होता है ।
...
भाव धारण करनेका उपदेश तथा भावलिंगी उत्तमोत्तम पद तथा । उत्तमोत्तम सुखको प्राप्त करता है ।
...
भावश्रमणको नमस्कार ।
देवादि ऋद्धि भी भावश्रमणको मोहित नही करतीं तो फिर अन्य संसारके सुख क्या मोहित कर सकते हैं ।
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विषय जबतक जरारोगादिका आक्रमण न हो तबतक आत्मकल्याण करो। ... अहिंसाधर्मका उपदेश। ... चार प्रकारके मिथ्यात्वियोंके भेदोंका वर्णन । ... अभव्य विषयक कथन । ... मिथ्यात्व दुर्गतिका निमित्त है। ..
... ... २६५ तीनसै त्रेसठि प्रकारके पाखंडियोंके मतको छुड़ानेका और जिनमतमें
प्रवृत्त करनेका उपदेश। सम्यग्दर्शनविना जीव चलते हुए मुरदेके समान है।
२६७ सम्यक्त्वकी उत्कृष्टता। ... ... ... सम्यग्दर्शनसहित लिंगकी प्रशंसा। ... ... दर्शनरत्नके धारण करनेका आदेश । ... ...
... २६९ असाधारण धर्मों द्वारा जीवका विशेष वर्णन । ...
... २७० जिनभावना परिणत जीव घातिकर्मका नाश करै है।
....२७२ घातिकर्मका नाश अनंत चतुष्टयका कारण है। ... ... कर्मरहित आत्मा ही परमात्मा है उसके कुछ एक नाम । ... ... २७४ देवसे उत्तम बोधिकी प्रार्थना। ... ... ...
... २७५ जो भक्तिभावसे अरहंतको नमस्कार करते वे शीघ्र ही संसार
वेलिका नाश करते हैं। ... ... जलस्थित कमलपत्रके समान सम्यग्दृष्टी विषयकषायोंसे अलिप्त है। ... भावलिंग विशिष्ट व्यलिंगी मुनि कोरा द्रव्यलिंगी है और श्रावकसे
भी नीचा है। धीर वीर कोन। ... ... ... धन्य कोन। ... ... ... ... ... ... २७९ मुनिमहिमाका वर्णन। ...
... ... ... ... २७९ मुनि सामर्थ्यका वर्णन। ... मूलोत्तर-गुण-सहित मुनि जिनमत आकाशमें तारागण सहित पूर्ण
चद्र समान है। ..... ..... ... ... .... विशुद्धभावके धारक ही तीर्थकर चक्री आदिके पद तथा सुख प्राप्त करें हैं। २८१ विशुद्ध भाव धारक ही मोक्ष सुखको प्राप्त होते हैं। शुद्धभावनिमित्त आचार्यकृत सिद्ध परमेष्ठीकी प्रार्थना। ...
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विषय
चार पुरुषार्थ तथा अन्य व्यापार सर्व भावमें ही परिस्थित हैं
ऐसा संक्षिप्त वर्णन |
भाव प्राभृतके पढ़ने सुनने मननकरनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है
ऐसा उपदेश । तथा पंडित जयचंद्रजी कृत ग्रंथका देशभाषामें सार ॥ २८४
मोक्षपाहुड |
मंगलनिमित्त देवको नमस्कार ।
देव नमस्कृति पूर्वक मोक्षपाहुड लिखनेकी प्रतिज्ञा । परमात्मा के ज्ञाता योगीको मोक्ष प्राप्ति ।
आत्मा के तीन भेद |
...
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आत्मत्रयका स्वरूप ।
परमात्माका विशेष स्वरूप ।
हरात्माको छोड़कर परमात्माको ध्यानेका उपदेश ।
- बहिरात्माका विशेष कथन । -मोक्ष प्राप्ति किसके है । ...
बंधमोक्षके कारणका कथन ।
- कैसा हुआ मुनि कर्मका नाश करै है । कैसा हुआ कर्मका वध कर है ।
गति और दुर्गति कारण ।
परद्रव्यका कथन ।
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स्वद्रव्यका कथन ।
निर्वाणकी प्राप्ति किस द्रव्यके ध्यानसे होती है । ... जो मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसे स्वर्ग प्राप्ति सुलभ है ।
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इसमें दृष्टान्त। ...
स्वर्गमोक्ष के कारण |
परमात्मस्वरूप प्राप्ति के कारण और उस विषयका दृष्टान्त । ... तद्वारा श्रेष्ट अश्रेष्ठका वर्णन |
- आत्मध्यानकी विधि ।
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ध्यानावस्था में मौनका हेतुपूर्वक कथन । योगीका कार्य ।...
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विषय कोन कहां सोता तथा जगता है। ... ज्ञानी-योगीका कर्तव्य। ... ... ... ध्यान अध्ययनका उपदेश। ... आराधक तथा आराधनकी विधिके फलका कथन । आत्मा कैसा है। ... योगीको रत्नत्रयकी आराधनासे क्या होता है। ... आत्मामें रत्नत्रयका सद्भाव कैसैं । ... प्रकारान्तरसे रत्नत्रयका कथन। ... सम्यग्दर्शनका प्राधान्य । ... .. समाग्ज्ञानका स्वरूप। ... सम्यक् चरित्रका लक्षण । ... ... ... परमपदको प्राप्त करनेवाला कैसा हुआ होता है। कैसा हुआ आत्माका ध्यान करै है। ... ... कैसा हुआ उत्तम सुखको प्राप्त करता है। ... कैसा हुआ मोक्षसुखको प्राप्त नहीं करता। ... जिनमुद्रा क्या है। ... ... परमात्माके ध्यानसे योगीके क्या विशेषता होती है। चारित्रविषयक विशेष कथन । - ... जीवके विशुद्ध अशुद्ध कथनमें दृष्टान्त। . सम्यक्तसहित सरागी योगी कैसा। ... कर्मक्षयकी अपेक्षा अज्ञानी तपस्वीसे ज्ञानी तपस्वीमें विशेषता। अज्ञानी ज्ञानीका लक्षण । ... ऐसे लिंगग्रहणसे क्या सुख। ... सांख्यादि अज्ञानी क्यों तथा जैनमें ज्ञानित्व किस कारणसे।... ज्ञानतपकी संयुक्तता मोक्षकी साधक है पृथक २ नहीं। ... स्वरूपाचारण चारित्रसे भ्रष्ट कोंन । ... ज्ञानभावना कैसी कार्यकारी है। ... ... किनको जीतकर निज आत्माका ध्यान करना । ... ध्येय आत्मा कैसा। ...
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विषय उत्तरोत्तर दुःखसे किनकी प्राप्ति होती है। ...
... ३३३ जब तक विषयोंमें प्रवृत्ति है तब तक आत्मज्ञानकी प्राप्ति नहीं । ... ३३१ कैसा हुआ संसारमें भ्रमण करै है। ...
... ३३२. चतुर्गतिका नाश कोंन करते है। ... अज्ञानी विषयक विशेष कथन। ... वास्तविक मोक्षप्राप्ति कोंन करते हैं ।...
... ३३४ कैसा राग संसारका कारण है। ... सम भावसे चारित्र। ... ... ध्यान योगके समयके निषेधक कैसे हैं ।
... ३३६ पंचमकालमें धर्म ध्यान नहीं मानें है वे अज्ञानी हैं। इस समय भी रत्नत्रय शुद्धिपूर्वक आत्मध्यान इंद्रादि फलका दाता है।... मोक्षमार्गसे च्युत कोंन। ... ..
... ३३९ मोक्षमार्गी मुनि कैसे होते है। .. मोक्षप्रापक भावना। ... ...
... ३४१ फिर मोक्षमार्गी कैसे । ...
... ३४१ निश्चयात्मक ध्यानका लक्षण तथा फल । पापरहित कैसा योगी होता है। . ...
... ३४३ श्रावकोंका प्रधानकर्तव्य निश्चलसम्यक्त्व प्राप्ति तथा उसका ... ध्यान और ध्यानका फल। ... जो सम्यक्त्वको मलिन नहीं करते वे कैसे कहे जाते हैं। ...
३४६ सम्यक्त्वका लक्षण। सम्यक्त्व किसके है। ... मिथ्या दृष्टिका लक्षण । ... मिथ्याकी मान्यता सम्यग्दृष्टीके नहीं । तथा दोनोंका परस्पर
विपरीत धर्म। ... कैसा हुआ मिथ्या दृष्टि संसारमें भ्रमें है। मिथ्यात्वी लिंगीकी निरर्थकता। ... ... जिनलिंगका विरोधक कोंन । आत्मस्वभावसे विपरीतका सभी व्यर्थ है। ...
३४२
سد
س
३४४
س
३४७.
... ३४७.
४८.
Www
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________________
पत्र
विषय ऐसा साधु मोक्षकी प्राप्ति करता है। ... ...
... ३५५ देहस्थ आत्मा कैसा जानने योग्य है।
.. ३५६ 'पंचपरमेष्टी आत्मामें ही हैं अतः वही शरण है।
... ३५६ चारों आराधना आत्माहीमें हैं अतः वही शरण हैं । मोक्ष पाहुड पढ़ने सुननेका फल। ... ...
... ३५० टीकाकारकृत मोक्षपाहुडका सार रूप कथन । ... ग्रंथके अलावा टीकाकारकृत पंच नमस्कार मंत्र विषयक विशेष वर्णन। ३६२
३६७
३७२
लिंगपाहुड। अरहंतोंको नमस्कार पूर्वक लिंग पाहुड वनानेकी प्रतिज्ञा । ... भावधर्मही वास्तविक लिंग प्रधान है। पापमोहित दुर्बुद्धि नारदके समान लिंगकी हंसी करैं हैं। ... ३६९ लिंग धारणकर कुक्रिया करें हैं वे तिर्यंच हैं। ...
३७० ऐसा तिर्यंच योनि है मुनि नहीं। ... ... ... लिंगरूपमें खोटी क्रिया करनेवाला नरकगामी है। लिंगरूपमें अब्रह्मका सेवनेवाला संसारमें भ्रमण करता है। ... कौनसा लिंगी अनंत संसारी है। ... किस कर्मका करनेवाला लिंगी नरकगामी है। ...
३७२ फिर कैसा हुआ तिर्यंच योनि है। ... ... कैसा जिनमार्गी श्रमण नहीं हो सकता। ... चोरके समान कोनसा मुनि कहा जाता है। ... लिंगरूपमें कैसी क्रियायें तिर्यंचताकी द्योतक हैं। भावरहित श्रमण नहीं है। ... ... स्त्रियोंका संसर्ग विशेष रखनेवाला श्रमण नहीं पार्श्वस्थसे भी गिरा है। पुंश्चलीके घर भोजन तथा उसकी प्रशंसा करनेवाला ज्ञान भाव रहित है श्रमण नहीं। ... ... ...
.. ... ३८० लिंगपाहुड धारण करनेका तथा रक्षा करनेका फल ... ... ३८१
३७५
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१७
م
साहा ।
...
...
...
.
... ३८८
.
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و
... ३९१
३९१:
विषय
पत्र शील पाहुड। महावीर स्वामीको नमस्कार और शीलपाहुड लिखनेकी प्रतिज्ञा ... ३८३ शील और ज्ञान परस्पर विरोध रहित हैं। शीलके विना ज्ञान भी नहीं। ३८४ ज्ञान होनेपर भी ज्ञान भावना विषय विरक्ति उत्तरोत्तर कठिन है ... ३८६ जबतक विषयोंमें प्रवृत्ति नहीं तबतक ज्ञान नहीं तथा कर्मोंका
नाश भी नहीं। ... कैसा आचरण निरर्थक है।...
... ३८७. महाफलका देनेवाला कैसा आचरण होता है। ... कैसे हुए संसारमें भ्रमें हैं। ...
... ३८८ ज्ञानप्राप्ति पूर्वक कैसे आचरण संसारका नाश करते
... ३८९ ज्ञानद्वारा शुद्धिमें सुवर्णका दृष्टान्त । ...
... ३८९ विषयोंमें आसक्ति किस दोषसे है। ... निर्वाण कैसे होती है। ... ... नियमसे मोक्षप्राप्ति किसके है। ... किनका ज्ञान निरर्थक है कैसे पुरुष आराधना रहित होते हैं ।... किनका मनुष्यजन्म निरर्थक है। ... शास्त्रोंका ज्ञान होने पर भी शील ही उत्तम है। शील मंडित देवोंके भी प्रिय होते हैं। मनुष्यत्व किनका सुजीवित है। ... शीलका परिवार। ... ... तपादिक सव शीलही है । ... ... विषयरूपी विष ही प्रबल विष है। ... विषयासक्त हुआ किस फलको प्राप्त होता है। ... शीलवान् तुषके समान विषयोंका त्याग करता है। अंगके सुंदर अवयवोंसे भी शील ही सुंदर है। ...
४००. मूढ तथा विषयी संसारमेंही भ्रमण करें हैं। ...
... ४०१ कर्मबंध कर्मनाशक गुण सब गुणोंकी शोभा शीलसे है। मोक्षका शोध करनेवालेही शोध्य हैं। ... ...
... ३९२
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४०३.
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१८
विषय
शीलके विना ज्ञान कार्यकारी नहीं उसका सोदाहरण वर्णन ।
- नारकी जीवोंको भी शील अर्हदूविभूतिसे भूषित करता है उसमें वर्द्धमान जिनका दृष्टांत ।
- मोक्षमें मुख्य कारण शील ।
अनिके समान पंचाचार कर्मका नाश करते हैं।
"कैसे हुए सिद्ध गतिको प्राप्त करते हैं ।
शीलवान महात्माका जन्मवृक्ष गुणोंसे विस्तारित होता है. । ... किसके द्वारा कोंन बोधिकी प्राप्ति करता है ।
- कैसे हुए मोक्षसुखको पाते हैं ।
टीकाकारकृत शील पाहुडका सार । टीकाकार की प्रशस्ति ।
...
...
आराधना कैसे गुण प्रगट करती है । ज्ञान वही है जो सम्यक्त्व और शीलसहित है ।
इति ।
...
...
...
:
...
...
...
...
...
700
...
पत्र
૪૦૪
४०५
४०६
४०६
४०७
४०७
४०८
४०९
४१०
४११
४१२
४१४
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निवेदन । इस ग्रंथका निर्माण समाजके उस महात्मा व्यक्ति द्वारा हुआ है कि जिसके नामोच्चारणसेही आत्मा भव्य पवित्रतारूप सुगंधसे सुवासित हो जाता है। ऐसे महात्माका कुछ परिचय पाठकोंको इस ग्रंथकी भूमिकासे होगा। उन्ही महात्माके घड़े भरे हुए समुद्रकी कहावतको चरितार्थ करनेवाले इस अमूल्य ग्रंथराज अष्टपाहुडको लागत मात्र अल्पमूल्यमें प्रदान करनेके लिये जो इस-मुनि श्री अनंतकीर्ति ग्रंथमाला, नाम समितिने प्रयास किया है वह सिर्फ आपकी भव्य नैष्ठय तथा पवित्र आदर्श चर्या-निमित्त ही है । तथा संस्थाने जो इससे पहले ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं तथा प्रकाशित करैगी उसका भी उद्देश्य वही पवित्र आदर्शता है। जिसको कि प्राप्त करना हमारा एक स्वाभाविक कर्तव्य है। उसके इस निमित्तको यथासाध्य कायम रखनेके लिये मंत्री महोदय तथा समति यथाशक्ति प्रयत्नशील है और आशा करता हूं कि आप भी इस प्रयत्नमें भरकस रूपसे सहायक हों जिससे कि अबाधित कार्यसिद्धि हो । इस ग्रन्थका संशोधन, जो किया गया है उसमें अल्पज्ञतासे बहुतसी त्रुटियां होंगी उसके लिये विज्ञ पाठक क्षमा प्रदान करेंगे।
इस ग्रंथके साथ भूमिका, विषय-सूची तथा गाथा-सूची भी पाठकों के सुभीते लिये लगादी है उसमें भी प्रमादजन्य बहुतसी त्रुटियोंकी संभावना है । अतः यहां भी विज्ञपाठकोंसे वैसाही क्षमार्थ निवेदन है । पं. इन्द्रलालजी शास्त्री जयपुरका कापीरूप कार्य सराहनीय है आपने गाथाके पाठभेदको टिप्पणीमें लगा कर बहुत कुछ सुभीता कर दिया है। मुंबई वसंत पंचमी)
रामप्रसाद जैन
बम्बई,
निवेदक
१९८०
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श्री अष्टपाहुडकी अकारआदि - अनुक्रमसे गाथासूची
प्र. सं.
गाथा
अ
अइ सोहण जोएणं अक्खाणि बाहिरप्पा
...
* अन्नाई दसय दुण्णय
अच्णं पि चेदा अज्जवि तिरियणसुद्धा
अण्णा अण्णतं
अण्णं च वसिह मुणी अणे कुमरमरणं अपरिग्गह सुम अप्पा अप्पम्म रओ अप्पा अप्पम्म रओ
अप्पा चरित्तवंतो
अप्पा झायंताणं
...
अप्पा णाऊण णरा
अणुणे म
अमराण वंदियाणं असाण भायणेण य
अरसमरूवमगंधं
अरहंतभासि यत्थं
अरहंतेण सुदिनं
अरहंते सुहभत्ती
Progreat four अवरो विदव्वसमणो
अवसेसा जे लिंगी असियस किरियवाई असुई हत्थे य
...
...
380
...
200
...
...
...
...
...
...
4
...
...
...
३०२
२९१
गाथा
अस्संजदं ण वंदे
अह पुण अप्पाणिच्छदि
अह पुण अप्पाणिच्छदि
आ
१९८
३२६ | आगंतुक माणसियं ३३८ आदसहावादण्णं
८९
आदाखु मज्झणाणे १९२ | आदेहि कम्मगंठी १८० आयदणं चेदहरं १०३ आरुहवि अंतरप्पा १८० | आहारभयपरिग्गह २२१ | आहारासणणिद्दाजयं ३३० | आहारो य सरीरो ३३४ आसवहेदू य तहा
...
भाव ६४ इयमिच्छत्तावासे
२६२ इय लिंगपाहुडमिण १७३ इरियाभासा एसण
::
***
::
...
...
...
३३२
९९
इच्छायार महत्थं ३४ | इड्डिमतुलं वि उव्विय...
२१० इम घाइकम्ममुक्को
२०६ इय उवएसं सारं
४४ | इयजाणि ऊण जोई ११२ इय गाउं गुणदोसं
४११ इय णाऊण खमागुण... ३५६ इय तिरियमणुयजम्मे... १९६
...
008
...
660
B
948
...
...
***
...
...
...
...
100
...
...
...
...
...
930
288
पृ.सं.
३५
६६
२२२
१६९
२९९
२०३
४०२
११२
२९२
२३९
३३०
१३५
३२४
६५
२५८
२७५
३१३
३०८
२६९
६६७
१७७
२८४
२६६
३८१
१०४
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________________
गाथा
सहचरि
वेण्णा
उच्छाहभावणासं उच्छाहभावणासं
उत्तममज्झिम
4
...
...
...
...
उत्थरइ जाण जरओ...
उद्धद्धमज्झलोए उदधीवरदण - भरिदो उप्पडदि पदि धावदि
उवसग्गपरिसह सहा उवसमखमदमजुत्ता
...
ए
एण कारण य
एएण कारण य
एए तिणि विभावा एए तिणि विभावा .. एएहिं लक्खवर्णेहिं य
एकेकेगुलित्राही एगो मे सासदो अप्पा एगं जिणस्सरूवं
...
एरिस गुणेहिं दव्वं
एवं आयत्तण गुण एवं चि णाऊणय एवं जिणपण्णत्तं एवं जिणपण्णत्तं एवं जिणेहिं कहियं एवं बहुप्पयारं एवं सहिओ मुणिवर...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
9:0
पू. सं.
६२
३२३
८८
८९
१४५
गाथा
एवं सावयधम्मं
एवं संखेवेण य
कत्ता भाइ अमुतो
कलहं वादं जूआ
कल्लाण परं परया
काऊण मुकार काऊ णमोकारं
७९ | कुमकुमुद संसा ९२ केवलिजिणपण्णत्तं
::
...
क
८६ | कोहभयहास लोहा १८६ | कंदप्पमाइयाओ
२०३
कंदप्पा इय वट्टइ
२९ | कंद मूलं वयं
१३७
१५३ खणणुत्ता वणवालण
८१ खयरामरमणुयकरं
...
२५९
३४१
४०२ | काल अणंतो जीवो
३७६ किं काहदि बहिकम्मं...
१५१
किं जंपिग बहुणा
१४८ किं पुण गच्छर मोहं...
किंबहुणा भण ६६ कुच्छिय देवं धम्मं २२२ कुच्छियधम्मम्मि रओ
...
...
...
...
...
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ख
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...
...
३२
ग
३५८ गइ इंदियं च काये
३६४ | गसियाई पुग्गलाई
४०६
३७९ गहि ऊणय सम्मत्तं
...
...
हि उज्झियाई मुणिवर
...
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...
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...
३
३६७
... १८४
...
...
...
...
...
...
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...
प्र. सं.
९९
१०८
⠀⠀⠀⠀
२७०
३७१
४०
३५३
३४५
२५८
३४५
३४८
२६५
३९३
१९८
१०२
१७०
३७५
२३३
१६८
२१३
१३४
१७५
१७६ ३४४
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________________
पृ. सं.
:::::::::
.. ३२१
३
गाथा
पृ. सं. गाथा गाहेण अप्पगाहा ... ... ७५ जलथलसिहिपवणंवर ... १७५ गिण्हदि अदत्तदाणं ... ... जस्सपरिग्गहगहणं ... ... गिरिगंथमोहमुक्का ...
जह कचणं विसुद्धं ... ... . ३८९ गुणगणमणिमालाए ...
| जहजायरूव रूवं ... ... गुणगण-विहूसियंगो ... ३५४ | जह जाय रूव सरिसा ... ६८ गुणठाणमग्गणेहिं य ...
जह ण विलहदि हु लक्खं ... १२४
जह तारायण चंदो ... ... चडविअविकहासत्तो .... ... जह तारायण सहियं ... चउसठिचमरमहिओ
जह दीवो गम्भहरे ... ... चक्कहररामकेसव ...
जह पत्थरोण भिजइ चरणं हवइ सधम्मो
जह फणिराओ सोहइ .. २६८ चरिया वरिया वदसमदि
जह फलिहमणिविसुद्धो चारित्तसमारूढो ...
जह मूलम्मि विणछे ... ... चित्ता सोही ण तेसिं...
जह मूलाओ खंधो ... ... चेइय बंधं मोक्खो ...
जह रयणाणं पवरं ... ... चोराग राउराण य ...
जह विसय लुद्ध विसदो
जह वीयमि य दहे ... ... २५५ छज्जीवछडायदणं ... ... जह सलिलेण ण लिप्पड़ छत्तीसं तिणि सया ... ... | जाए विसय विरतो ... ...
... ४०५ छहदच णवपयत्था
जाणइ भावं परमं ... ... छायास दोस दूसिय... .... २३२ जावणभावहि तचं ...
जिण णाण दिछि सुद्धं जह जाय रूव सरिसा
जिणबिंबं णाणमयं जह णाणेण विसोहो ... ... जिणमग्गे पव्वज्जा ... ... जा सणेण सुद्धा ... ... जिणमुई सिद्धिसुहं ... ...
.. ३१९ जइ फुलंगंधमयं ... ... जिणवयणमोसहमिणं जा विसय लोल एहिं ... जिणिवयण गहिद सारा ... जरवाहि जम्ममरणं ... ... १ जिणवरचरणंबुझह ... ... जरवाहि दुक्खरहियं ... १३७
| जिणवरमएण जोई ... ...
.
२१८
..३९८
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... २६२
८०
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८४
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و
७४
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८
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________________
WORM
5
5
5
गाथा
पृ. सं. । गाथा जीवविमुक्को सवओ ...
जो सुत्तो ववहारे ... ... जीवाजीवविभत्ती ... ... १०५ जो संजमेसु सहिओ... ... ६३ जीवाजीवविहत्ती ...
जं किंचिकयंदोसं ... जीवाणममयदानं ... ... २६१ ज चरदि सुद्धचरणं ... ... ११७ जीवादीसदहणं .. ...
जं जाणइ तं गाणं ... जीवो जिणपण्णत्तो ...
जं जाणइ तं गाणं ... जे के वि दव्व सवणा
जं जाणिऊण जोई ... जे झायति सदव्वं ...
जं जाणिऊण जोई ... जेण रागो परे दवे ...
जं णिम्मलं सुधम्मं ... जे इंसणेसु भठाणाणे ...
जं मया दिस्सदे रूवं... ... जे दंसणेसु भट्टा ...
जं सकइ तं कीरइ ... ... जे पावमोहियमई ...
जं सूत्तं जिणउत्तं ... ... जे वि पडतिचतेसिं ... ... जे पुण विसयविरत्ता ... ... ३३३ | झायहि धम्मं सुकं ... जे पंचचेलसत्ता ...
सायहि पंच वि गुरवे ... जे राय संग जुत्ता ... जे वावीस परीसह ...
णग्गतणं अकज्जं ... ... जेसिं जीव सहावो ... ... २०६ | णग्गो पावइ दुक्खं ... ... २०९ जो इच्छइ णिस्सरिदुं... | णचदि गायदि तावं ... जो कम्मजादमइओ ... ... णमिऊण जिणवरिंदे ... जो कोडिएण जिप्पड़
| णमिऊण य तं देवं ... ... जो को वि धम्मसीलो
ण मुयइ पयडि अभव्वो जो जाइ जोयणसंय .
गरऐसु वेयणाओ ... ... जो जीवो. भावतो ...
णव णोकसायवग्गं ... ... जो जोडेदि विवाहं ...
णवविहबंभ पयडहि ... ... जो देहे हिरवेक्खो . ...
णविएहिं जं णविजइ ... जो पाव मोहिदमदी ... ... ३६९ णवि देहो वंदिजह ... ... जो पुण परदव्वरओ ... ... २९७ | गवि सिजइ वत्थधरो... ... जो रयणत्तयजुत्तो ... .. ३१६ । णाणगुषहि विहीणा ...
: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :
.
२८९
२६४
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________________
१२२
२५७
... २२६
:: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :
.. १७६
गाथा
पृ. सं.। गाथा णाणमयविमलसीयल ... २५५ तववयगुणेहिं सुद्धो ... ... १२२ णाणमयं अप्पाणं ... ... २८८ तववयगुणेहिं सुद्धा ... णाणम्मि दंसणम्मि य
वविवरोओबंधइं ... णाणस्स णस्थि दोसो ...
तस्सयकरह पणामं ... णाणावरणादीहिं ...
तामणणज्जइ अप्पा ... णाणी सिवपरमेहि ...
तावण जाणदि गाणं ... णाणेण दंसणेणइ ....
तित्थयरगणहराइं ... णाणेण दंसणेणइ
तित्थयरभासियत्थं ... णाणं चरित्तसुद्धं
तिपयारो सो अप्पा ... णाणं चरित्रहीणं ...
तिलतुसमण्णणिमत्त ... णाणं झाणं जोओ ...
तिहितिणि धरवि णिचं णाणं णरस्स सारो ... ...
तिहुयणसलिलं सयलं... णाणं णाऊण णरा ...
तुसमासं घोसंतो ... ...
। १९९ गाणं दसणसम्मं ...
तुहमरणे दुक्खेणं ... १७४ णागं पुरिसस्स हबदि...
ते धण्णा ताण णमो णाणे ठवणे हि य संदब्वे
ते धण्णा सुकयत्था ... ... णिग्गंथ मोहमुका ...
ते धीरवीरपुरिसा ... ... णिग्गंथा णिस्संगा ...
| ते मे तिहुवणमहिया णिचेल पाणिपत्त
ते याला तिणिसया ... णिच्छयणयस्स एवं ...
तेरहमे गुणठाणे .... १३३ णिण्णेहा णिलोहा ... ते राया वियसयला ... जिंदाए य पसंसाए ...
ते वियभणामिहं जे ... ... णिय देहसरिस्सं ...
तं चेव गुणविसुद्धं ... ... णिय सत्तिए महाजस णिरुवमचलमखोह ... ... ११८ थूले तसकायवहे .. णिस्संकियणिकंखिय ... ...
| दढसंजममुद्दाए ... ... तचरई सम्मत्तं ... ... ३१२ | दम्वेणसयलणग्गा ... तवरहियं जं गाणं ... ... ३२७ । दसदसदोसुपरीसह ... ... २२७
*
r
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... २८२
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त
२०९
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________________
१८८
९७
२११
३६८
१२६
गाथा सं. गाथा
पृ. सं. दसपाणापजत्ती ... ... १३७ | दसणसुद्धो सुद्धो ... ... ३१२ दसविहपाणाहारो
दंसेइ मोक्खमग्गं ... ... दिक्खाकालाईयं दियसंगठियमसणं
| घणघण्णवत्थदारणं ... ... दिसिविदिसिमाणपढमं
धण्णाते भयवंता ... ... २७९ दुइयंच उत्तलिंगं
धम्मम्मि णिप्पवासो... ... दुक्खे णज्जड अप्पा ... ... ३३१
धम्मेण होइ लिंगं ... ... दुक्खेणे यदि णाणं ...
धम्मो दयाविसुद्धो ... ... दुज्जणवयणचडकं ...
घुवसिद्धी तित्थयरो ... ... दुकम्मरहियं ... दुविहं पि गंथ चायं ...
पडिदेस सयलपुग्गल... ...
. १८५ दुविहं संजमचरणं ...
षढिएणवि किं कीरइ... देवगुरुम्मि य भत्तो ...
पयडहिं जिणवरलिंग... ... २११ देवगुरुणं भत्ता ...
पयलियमाणकसाओ... ... २१५ वाणगुणविहूई ... ... १७१
परदन्वरओ वज्झदि... ... देहादि चत्तसंगो ...
परदव्वादो दुग्गइ ... ... देहादि संगरहिओ ...
परमप्पयज्झायंतो ... . ३२० दंडणणयर सयलं
परमाणपमाणं वा ... ३३३ दसणअणंतणाणं
परिणामम्मि असुद्धे ... दसण अणंतणाणे १३० | पव्वजसंगचाए ... दसणणाणचरिते
पव्वजहीग गहिणं ... दसणणाणचरिते
३७२ | पसुमहिलसंठसंगं ... दसणणाण चरित्ते
३७४ पाऊणणाण सलिलं ... । १०६ दसणणाण चरित्ते ... दसणणाण चरितं ...
पाओ पहदभाओ दसणणाणावरणं
पाणिव हेहि महाजस ... २६१ दंसणभटाभट्टा
पावं खवइ असेसं ... दंसणमूलो धम्मो ... ...
पावंति भाबसवणा ... ... दसणवयसामाई ... ... ९४ पावं हवइ असेसं ... ...
२९८
र २०१
.... १९५
:::::::::::::::::
२७८
, १५१
२२६
.. १०६
.. २३१
२४४
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________________
गाथा
पात्थ भावणाओ
पामंडी तिणसया
पित्तंतमुत्त फेफस
पीओसि थणच्छीरं
पुंछलीघर जो भुंजइ पुरिसायरो अप्पा
पुरिसेण विसहियाए पुरुषोपि जो सत्तो.. पुयादिसु वय सहियं. पंचमहव्वयजुत्ता पंचमहत्रय्वय जुत्तो
"
पंचविहचेलचायं पंच वि इंदियपाणा पंचसु महत्र्वदेसु य पंचेद्रियसंवरणं पंचे णुव्वयाई
बलसोक्खणाणदंसण बहिरत्थे फुरियमण बहुसत्थ अत्थजाणे
बाहिर लिंगेण जुदो बाहिरसयणत्तावण बाहिरसंगविमुक बुद्धं जं बोहंतो बंधोरिओ संतो
भरहे दुस्समकाले भव्वजणवोहणस्थं
...
...
...
...
...
...
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...
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...
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...
पू. सं. १७१
२६६ भाव रहिएणसउरिस
१८७ | भावरहिओ ण सिज्झइ
१७३ भावविमुत्तो मुत्तो ३८० | भावविसुद्धिणिमित्तं ३४३ भावसमणो ण धीरो ४०१ भावसमणोविपावर
गाथा भवसायरे अनंते
...
५४ | भावसहिदो य मुणिणो २१९ भावहि अणुपेक्खाओ
१४२ | भावहि पढमं तचं ३०९ भावहि पंच पयारं ७१ भावेण होइ गो २१७ |भावेण होइ णग्गो
१३६ भावेण होइलिंगी
३३७ भावेहि भावसुद्धं
...
११५
३७७ | मणुयभवे पंचेर्दिय ममत्तं परिवज्जामि
...
३३७ मयमायकोहर हिओ १०५ मयरायदोसमोहो
...
...
९९
"
९५ | भावो वि दिव्वसिवसु भावो हि पढमं लिंग ....
२७३ भावं तिविहपयारं
२९३ |भीसणणरयगईए
१११ भंज इंदिय सेणं ३२९
२४०
쇠
...
...
...
मधुहं जस्स विरं ...
३५१ | मच्छो विसालि सित्थो
मणवयणकायदव्वा
...
...
...
...
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पू. सं.
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गाथा
पृ. सं.। गाथा मयराय दोसरहिओ ... ... १३८ | विसऐसु मोहिदाणं ... मलरहिओकलचत्तो ... ... २९२ | वीरविसालणयणं ... महिलालोयणपुवर ...
वेरग्गपरोसाहू महुपिंगो णाम मुणी ... माया वेल्लि असेसा ...
| सचित्तभत्तयाणं ... ... मिच्छतछण्णइट्ठी ...
सत्तसु गरयावासे ... मिच्छत्त तह कसाया...
सत्तं मित्तेणसमा ... मिच्छत्तं अण्णाणं ...
सद्दवरओ स सवणो ... मिच्छाइठी जो सो ...
सद्दवियारो हुओ ... मिच्छाणाणेसु रओ ...
सद्दहदि य पत्तेदि य ... ... २२० मिच्छादसणमग्गे ...
सपरज्झवसाएणं ... ... २९४ मूलगुणं छित्तूणय ... | सपरा जंगम देहा ... ... ११७ मोहमयगारवेहिं ...
सपरा वेक्ख लिंग ... ... मंसहि सुक्क सो णिय ...
सम्मगुण मिच्छदोसो
सम्मत्त चरणभट्टा ... रयणत्तये अलद्धे ...
सम्मत्त चरण सुद्धा .... रयणतयमाराहं ...
सम्मत्तणाण दंसण ... रयणतयंपि जोई ...
... १९ रागो करेदिणिचं ...
सम्मत्तणाण रहिओ ... रूवसिरिगन्विदाणं ...
सम्मत्तरयण भट्टा ...
सम्मत्त विरहयाणं ... लडूण य मणुयत्तं ...
सम्मत्त सलिलपवहो ... लावण्णसीलकुसलो ...
सम्मत्ता दोणाणं ... लिंगइत्थीण हवदि ... ... सम्मत्तं जो झावहि ... लिंगम्मि य इत्थीणं ...
सम्मत्तं सण्णाणं ....
सम्मदंसण पस्सदि (इ) ... वहेसु य खंडेसु य ... ... ४०० वायरछंदवइसे ... ... ३९४ | सम्माइटी सावण ... ... वारि एकम्मि य जम्मे ... ३९८ सम्मूहदि रक्खेदि य ... ... ३७०
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१८
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८
गाथा
पृ. सं. । . गाथा सयलजणवोहणत्थं ... ... १११ सुण्णायार णिवासो ... सव्वगुणकम्मखीणा ... ... ४१० सुत्तत्थपयविणछो ... सव्वष्णुसव्वदरसी ... ... सुत्तत्थं जिणभणियं ...... सव्वविरहो विभावइ ... सुतम्मिजाणमाणो ... सवसा सस्थं तित्थं ...
सुतम्मि जं सुदिहें ... सव्वासवणिरोहेण ...
सुरणिलयेसुरच्छा ... सव्वेकसायमुत्तं ...
सुहजोएण सुहावं सव्वे वि य परिहीणा... | सुहेण भाविदं गाणं ... सहजुप्पण्णं रूवं ...
सेयासेय विदण्णू ... सामाइयं च पढमं ... ...
सेवय चउविहलिंगं ... ... साहंति ज महल्ला ...
सोणत्थितं पएसो ... ... सिद्धो सुद्धो आदा ...
सोणत्थि दव्व सयणो सिद्धं जस्स सदत्थं ...
सो देवो जो अत्थं ... सिवमजरामरलिंग ...
सांखिजमिसंखिजगुणं सिसुकाले य अयाणे ... | संग तवेण सन्चो ... ... सीलगुणमंडिदाणं ... ... ३९५ | संजम संजुत्तस्स य ... ... सीलस्स य णाणस्स सीलं सहस्सहारस
हरिहरतुल्लो वि णरो ... सीलं तदो विसुद्धं ... | हिमजलणसलिलगुरुयर सीलं रक्खंताणं ... | हिंसा रहिए धम्मे ... सुण्णहरे तरुहिले
हिंसाविरइ अहिंसा ... सुणहाण गहाण य ... ... ४०३ | होऊण दिद्वचरित्तो ...
.१२६
.
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क्रय्य पुस्तकें
किंमत
मूलाचार भाषाटीकासहित अमितगतिश्रावकाचार- भा. टी. प्रमेयरत्नमालाआसमीमांसा
१॥
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| नमः सिद्धेभ्यः ।
अथ अष्टपाहुड ग्रंथकी पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
देशभाषामय वचनिका ।
( दोहा . )
श्रीमत वीरजिनेशरवि मिध्यातम हरतार | विधनहरन मंगलकरन वंदूं वृषकरतार ॥ १ ॥ वानी बंं हितकरी जिन मुखन भतें गाजि । गणधर गणश्रुतभूझरी वृंदवर्णपद साजि || २ || गुरु गौतम बंद सुविधि संयमतपधर और । जिनितैं पंचमकाल मैं वरत्यो जिनमत दौर || ३॥ कुन्दकुन्द मुनिकूं नम्रं कुमतध्वांतहर भान पाहुड ग्रंथ रचे जिनहिं प्राकृत वचन महान ॥ ४ ॥ तिनिमैं कई प्रसिद्ध लखि करूं सुगम सुविचार | देशक निकामय लिखूं भव्यजीवहितधार ॥ ५ ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
ऐसें मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करि श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृतगाथावंध पाहुडग्रंथ हैं तिनिमैंसूं केईकनिकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है; —
तहां प्रयोजन ऐसा है जो इस हुंडावसर्पिणी काल विषै मोक्षमार्गकूं अन्यथा प्ररूपण करनहारे अनेक मत प्रवर्त्ते हैं तहां भी इस पंचमका - मैं केवली श्रुतकेबलीका व्युच्छेद होनेतैं जिनमतमैं भी जड व जीवनिके निमित्त करि परंपरामार्गकूं उल्लंघि बुद्धिकल्पित मत श्वेताम्बर आदिक भये हैं, तिनिका निराकरण करि यथार्थ स्वरूप स्थापनेकै अर्थि दिगंबर आम्नाय मूलसंघमैं आचार्य भये तिनिनैं सर्वज्ञकी परंपराका अव्युच्छेदरूप प्ररूपणा के अनेक ग्रंथ रचे हैं, तिनिमैं दिगंबर संप्रदाय मूलसंघ नंदिआम्नाय सरस्वतीं गच्छ मैं श्रीकुन्दकुन्द मुनि भये तिनि पाहुड ग्रंथ रचे तिनिकूं संस्कृतभाषा प्राभृतनाम कहिये, ते प्राकृत गाथाबंध हैं सो कालदोषतें जीवनिकी बुद्धि मंद होय है सो अर्थ समझ्या जाता नांही, तातैं देशभाषामय वचनिका होय तौ सर्व ही वांचें अर्थ समझैं श्रद्धान दृढ़ होय, यह प्रयोजन विचारि वचनिका लिखिये है, अन्य किछू ख्याति बड़ाई लाभका प्रयोजन है नांही । यातें 1 भव्यजीव ताकूं वांचि अर्थ समझि चित्तमैं धारण करि यथार्थमतका बाह्यलिंग तथा तत्वार्थका दृढ़ श्रद्धान करियो । यामैं किछु बुद्धिकी मंदता तथा प्रमादके वशर्तें अर्थ अन्यथा लिखूं तौ बड़े बुद्धिवान मूल ग्रंथ देखि शुद्धकर वांचियो, मोकूं अल्पबुद्धि जानि क्षमा कीजियो । अब इहां प्रथम ही दर्शनपाहुडकी वचनिका लिखिये है;( दोहा )
२
श्रीअरहंतकं मन वच तन इकतान । मिथ्याभाव निवारि करें सुदर्शन ज्ञान ||
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका |
अब ग्रंथकर्त्ता श्री कुन्दकुन्द आचार्य ग्रंथकी आदि विषै ग्रंथकी उत्पत्ति अर ताका ज्ञानकूं कारण जो परंपरा गुरुका प्रवाह ताकूं मंगलकै अर्थि नमस्कार करें हैं;
गाथा -काऊ णमुकारं जिणवरवसहस्स वडमाणस्स । दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण ॥ १॥ छाया - कृत्वा नमस्कारं जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य । दर्शनमार्ग वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन ॥ १ ॥
--
याका देशभाषामय अर्थ — आचार्य कहैं हैं जो मैं जिनवर वृषभ ऐसा जो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव बहुरि वर्द्धमान नाम अंतिम तीर्थंकर ताहि नमस्कार करि अर दर्शन कहिये मत ताका मार्ग जो है · ताहि यथा अनुक्रम संक्षेपकरि कहूंगा । भावार्थ -- इहां जिनवर वृषभ ऐसा विशेषण है, ताका ऐसा अर्थ है जो जिन ऐसा शब्दका तौ यह अर्थ है— जो कर्म शत्रुकूं जीतै सो जिन, सो सम्यदृष्टी अत्रतीसूं गाय कर्मकी गुणश्रेणीरूप निर्जरा करनेवाले सर्वही जिन हैं, तिनमें वर कहिये श्रेष्ठ, ऐसे जिनवर नाम गणधर आदिक मुनिनिकूं कहिये, तिनमैं वृषभ कहिये प्रधान ऐसे भगवान तीर्थकर परमदेव हैं । तिनिमैं आदि तौ श्री ऋषभदेव भए, अर इस पंचमकालकी आदि अर चतुर्थकालके अन्त में अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमानस्वामी भये तिनिका विशेषण भया । बहुरि जिनवर वृषभ ऐसे सर्वही तीर्थकर भये, तिनिकूं नमस्कार भया, तहां वर्द्धमान ऐसा विशेषण सर्वहीका जाननां, सर्व ही अन्तरंग वाह्य लक्ष्मीकरि वर्द्धमान हैं । अथवा जिनवर वृषभ शब्द करि तौ आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव लेने अर बर्द्धमान शब्दकरि अन्तिम तीर्थंकर • लेने, ऐसैं आदि अंत तीर्थंकरकूं नमस्कार करनेतैं मध्यकेकूं नमस्कार
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___पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
सामर्थ्यतें जाननां । बहुरि तीर्थकर सर्वज्ञ वीत रागकू तौ परमगुरु कहिये, अर इनिकी परिपाटीतैं चले आए गौतमादिक मुनि भये तिनिका नाम जिनवर वृषभ इस विशेषणमैं जनाया तिनिकू अपरगुरु कहिये; ऐसे परापर गुरुका प्रवाह जाननां ते शास्त्रकी उत्पत्ति तथा ज्ञान• कारण हैं । तिनिकू ग्रंथकी आदिवि नमस्कार किया ॥१॥ ____ आणु धर्मका मूल दर्शन है तातें दर्शन” रहित होय ताकू नहीं वंदनां, ऐसे करें हैं;गाथा-दंसणमूलो धम्मो उवइहो जिणवरेहि सिस्साणं ।
तं सोऊण सकण्णे देसणहीणो ण वंदिब्बो ॥२॥ छाया-दर्शनमूलो धर्मः उपदिष्टः जिनवरैः शिष्याणाम् ।
तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः॥२॥ अर्थ-जिनवर जे सर्वज्ञदेव तिन. शिष्य जे गणधर आदिक तिनिकू धर्म उपदेश्या है सो कैसा उपदेश्या है, दर्शन है मूल जाका ऐसा धर्म उपदेश्या है । सो मूल कहां कहिए—जैसैं मन्दिरकै नींव अथवा वृक्षकै जड़ तैसैं धर्मका मूल दर्शन है । तातें आचार्य उपदेश करें हैं जो हे सकर्णा ! कहिये पंडित सतपुरुषहौ ! तिस सर्वज्ञके कहे दर्शन मूल रूप धर्मकू अपनें काननिविर्षे सुनिकरि, अर जो दर्शनकरि रहित है सो बंदिबे योग्य नाही है, दर्शनहींन• मति बंदौ । जाके दर्शन नाही ताकै धर्म भी नाही, मूल बिना वृक्षकै स्कंध शाखा पुष्प फलादिक कहांतें होय, तारौं यह उपदेश है-जाकै धर्म नाही तिसतै धर्मकी प्राप्ति नाही, ताकू धर्मनिमित्त काहेळू बन्दिए, ऐसा. जाननां।
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
अब इहां धर्मका तथा दर्शनका स्वरूप जान्या चाहिये, सो स्वरूप तौ संक्षेपकरि ग्रंथकार ही आगैं कहसी तथापि किक अन्य ग्रंथनिकै अनुसार इहां भी लिखिए है;-तहां 'धर्म' ऐसा शब्दका अर्थ यह, जो आत्माकू संसार नै उद्धार सुखस्थानविर्षे स्थापै सो धर्म है। बहुरि दर्शन नाम देखनेंका है । ऐसैं धर्मकी मूर्ति देखनेंमें आवै सो दर्शन है सो प्रसिद्धतामैं जामैं धर्मका ग्रहण होय ऐसा मतकू 'दर्शन' ऐसा नाम कहिए है । सो लोकमैं धर्मकी तथा दर्शनकी सामान्य पण मान्यता तौ सर्वकै है परन्तु सर्वज्ञ विना यथार्थ स्वरूपका जानना होय नाही, अर छद्मस्थ प्राणी अपनी बुद्धि” अनेक स्वरूप कल्पनां करि अन्यथा स्वरूप स्थापि तिसकी प्रवृत्ति करैं हैं । सो जिनमत सर्वज्ञकी परंपरायतें प्रवर्ते है सो यामैं यथार्थ स्वरूपका प्ररूपण है । तहां धर्म निश्चय व्यवहार करि दोय प्रकार करि साध्या है । ताकी च्यार प्रकार प्ररूपणा है—प्रथम तौ वस्तुस्वभाव, तथा उत्तम क्षमादिक दश प्रकार, तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप, तथा जीवनिकी रक्षारूप, ऐसैं च्यार प्रकार है । तहां निश्चय करि साधिए तब तो सर्वमैं एक ही प्रकार है जारौं वस्तुस्वभाव कहनेंतें जो जीवनामा वस्तुका परमार्थरूप दर्शन ज्ञान परिणाममयी चेतना है, सो यहु चेतना सर्व विकारनितें रहित शुद्धस्वभाव रूप परिणमै सो ही याका धर्म है । बहुरि उत्तमक्षमादिक दश प्रकार कहनेंतें क्रोधादिककषायरूप आत्मा न होय अपने स्वभावमैं स्थिर होय सो ही धर्म है, यह भी शुद्धचेतनारूपही भया । बहुरि दर्शन ज्ञान चारित्र कहनेंतें तीनूं एक ज्ञानचेतनाहीके परिणाम हैं, सो ही ज्ञानस्वभावरूप धर्म है। बहुरि जीवनिकी रक्षा कहनेंतै जीवकैं आप तथा परकै क्रोधादि कषायनिके वश” पर्यायका विनाशरूप मरण तथा दुःख संक्लेश परिणाम न करनां ऐसा अपना स्वभाव, सो
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित-- ही धर्म है। एसैं शुद्ध द्रव्यार्थिक रूप निश्चय नय करि साध्या हुवा धर्म एकही प्रकार है । बहुरि व्यवहारनय है सो पर्यायाश्रित है सो यह भेदरूप है, सो याकरि विचारिए तब जीवके पर्यायरूप परिणाम अनेक प्रकार हैं तातें धर्म भी अनेक प्रकार करि वर्णन किया है। तहां एकदेशकू प्रयोजनके वश” सर्वदेश करि कहिए सो व्यवहार है । बहुरि अन्य वस्तुवि अन्यका आरोपण अन्यके निमित्त तथा प्रयोजनके वशतें करिये सो भी व्यवहार है । तहां वस्तुस्वभाव कहनेमैं तौ जे निर्विकार चेत नाके शुद्ध परिणामके साधकरूप मंदकषायरूप शुद्ध परिणाम हैं तथा बाह्य क्रिया हैं ते सर्वही व्यवहारधर्मकरि कहिये है। वहीर तैसैंही रत्नत्रय कहनेंतें स्वरूपके भेद दर्शन ज्ञान चारित्र तथा तिनिके कारण वाह्यक्रियादिक हैं ते सर्वही व्यवहारधर्मकरि कहिए है । तथा तैसैंही जीवनिकी दया कहनेतें क्रोधादि कषाय मंद होनेंतें अपने वा परके मरण दुःख क्लेश आदि न करना, तिसके साधक बाह्यक्रियादिक ते सर्वही धर्मकरि कहिए हैं। ऐसे निश्चय व्यवहार नय करि साध्या हुवा जिनमतमैं धर्म कहिए है। तहां एक स्वरूप अनेकस्वरूप कहने” स्याद्वादकरि विरोध नाही आवै है, कथंचित् विवक्षारौं सर्व प्रमाणसिद्ध है । बहुरि ऐसे धर्मका मूल दर्शन कह्या सो ऐसे धर्मका श्रद्धा प्रतीति रुचि सहित आचरण करना सो ही दर्शन है, यह धर्मकी मूर्ति है, याहीकू मत कहिए सो यह ही धर्मका मूल है । बहुरि ऐसे धर्मकी पहलै श्रद्धा प्रतीति रुचि न होय तौ धर्मका आचरण भी न होय, जैसे वृक्षकै मूल विना स्कंधादिक न होय तैसैं सो दर्शनकू धर्मका मूल कहना युक्त है । सो ऐसे दर्शनका जैसैं सिद्धांतनिमैं वर्णन है तैसैं किळूक लिखिए है। - तहां अन्तरंग सम्यग्दर्शन है सो तौ जीवका भाव है सो निश्चयकरि उपाधि” रहित शुद्धजीवका साक्षात् अनुभव होनां ऐसा एक
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका । प्रकार है । सो ऐसा अनुभव अनादिकालतें मिथ्यादर्शन नामा कर्मके उदयतें अन्यथा होय रह्या है । या मिथ्यात्वकी सादि मिथ्यादृष्टीकै तीन प्रकृति सत्तामैं होय है—मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति ऐसैं । अर याकी सहकारिणी अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ भेदकरि च्यार कषाय नामा प्रकृति हैं । ऐसैं ये सात प्रकृति ही सम्यग्दर्शनके घात करनेवाली हैं; सो इनि सातनिका उपशम भये पहले तो इस जीवकै उपशम सम्यक्त्व होय है । इनि प्रकृतिनिके उपशम होनेके बाह्य कारण सामान्यकरि द्रव्य क्षेत्र काल भाव हैं, तिनिमैं प्रधान द्रव्यमैं तौ साक्षात् तीर्थकरका देखना आदिक हैं, क्षेत्रमैं प्रधान समवसरणादिक हैं, कालमैं अर्द्ध पुद्गल परावर्त्तन संसारका भ्रमण बाकी रहै सो, भावमैं अधःप्रवृत्त करण आदिक हैं । बहुरि विशेषकरि अनेक हैं, तिनिमैं केईकनिकै तौ अरहंतके बिंबका देखना है, अर केईकनिकैं जिनेन्द्रके कल्याण आदिकी महिमाका देखना है, केईकनिकै जातिस्मरण है, अर केईकनिकै वेदनाका अनुभव है, अर केईकनिकैं धर्मश्रवण है, अर केईकनिकैं देवनिकी ऋद्धिका देखना है, इत्यादिक बाह्य कारणनितें मिथ्यात्वकर्मका उपशम भये उपशमसम्यक्त्व होय है । बहुरि इनि सात प्रकृ. तिनिमैं छहका तौ उपशम अथवा क्षय होय अर एक सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होय तब क्षयोपशम सम्यक्त्व होय है, इस प्रकृतिके उदयतें किछू अतीचार मल लागै । बहुरि इनि सात प्रकृतिनिका सत्तामैसूं नाश होय तब क्षायिक सम्यक्त्व होय है । सो ऐसे उपशम आदिक भये जीवका परिणाम भेदकरि तीन प्रकार होय है, ते परिणाम होंय सो अतिसूक्ष्म हैं केवलज्ञानगम्य हैं जातै इनि प्रकृतिनिका द्रव्य पुद्गल परमाणूनिके स्कंध हैं ते अतिसूक्ष्म हैं, अर तिनिमैं फल देनेकी शक्तिरूप अनुभाग है सो अतिसूक्ष्म है सो छद्मस्थके ज्ञान गम्य नाही। अर इनिका
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
marnamannaamanama......
उपशमादिक होते जीवके परिणाम भी सम्यक्त्वरूप होय ते भी अतिसूक्ष्म हैं ते भी केवलज्ञानगम्य हैं । तथापि किछू छद्मस्थके ज्ञानमैं आवनें योग्य जीवका परिणाम होय हैं ते ताके जनावनेंके बाह्यचिह्न हैं तिनिकी परीक्षाकरि निश्चय करनेका व्यवहार है, ऐसैं नहीं होय तौ छद्मस्थ व्यवहारी जीवकै सम्यक्त्वका निश्चय नहीं होय तब आस्तिक्यका अभाव ठहरै, व्यवहारका लोप होय यह बडा दोष आवै । तातें बाह्य चिह्ननिका आगम अनुमान स्वानुभवतें परीक्षाकरि निश्चय करनां ।
ते चिह्न कौन, सो लिखिये है;-तहां मुख्य चिह्नतो यह है जो उपाधिरहित शुद्ध ज्ञान चेतनास्वरूप आत्माकी अनुभूति है सो यद्यीप यह अनुभूति ज्ञानका विशेष है तथापि सम्यक्त्व भये यह होय है तातें याकू बाह्यचिह्न कहिए है । ज्ञान है सो आपका आपकैं स्वसंवेदनरूप है ताका रागादि विकाररहित शुद्ध ज्ञानमात्रका आपकै आस्वाद होय " जो यह शुद्धज्ञान है सो मैं हूं अर ज्ञानमैं रागादि विकार हैं ते कर्मके निमित्तौं उपजै हैं ते मेरा रूप नाही हैं। ऐसैं भेदज्ञान करि ज्ञानमात्रका आस्वादकू ज्ञानकी अनुभूति कहिये यह ही आत्मा अनुभूति है शुद्धनयका यहही विषय है । ऐसी अनुभूतिौं शुद्धनयकै द्वारै ऐसा भी श्रद्धान होय है जो सर्व कर्मजनित रागादिक भावतें रहित अनंत चतुष्टय मेरा रूप है, अन्य भाव सर्व संयोग जनित हैं, ऐसी आत्माकी अनुभूति सो सम्यक्त्वका मुख्यचिह्न है । यह मिथ्यात्व अनंतानुबंधीका अभावकरि सम्यक्त्व होय ताका चिह्न है, सो चिह्नकू ही सम्यक्त्व कहनां यह व्यवहार है । बहुरि याकी परीक्षा सर्वज्ञके आगमकरि तथा अनुमानकरि तथा स्वानुभव प्रत्यक्षकरि इनि प्रमाणनिकरि कीजिये है । बहुरि याही• निश्चय तत्वार्थश्रद्धान भी कहिए है । तहां आपकैं तो आपका स्वसंवेदनकू प्रधानकार होय है, अर परकै परकी
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
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परीक्षा परके वचन कायकी क्रियाकी परीक्षारौं अंतरंगमें भयेकी परीक्षा होय है, यह व्यवहार है, परमार्थ सर्वज्ञ जानैं है । व्यवहारी जीवकै सर्वज्ञनैं भी व्यवहारहीका शरणां उपदेश्या है । केई कहैं हैं जो सम्यक्त्व तौ केवलीगम्य है यातैं आपकैं सम्यक्त्व भयेका निश्चय नहीं होय ता” आपकू सम्यग्दृष्टी नहीं माननां ? । सो ऐसैं सर्वथा एकान्त करि कहनां तौ मिथ्या दृष्टि है, सर्वथा ऐसें कहे व्यवहारका लोप होय, सर्व मुनि श्रावककी प्रवृत्ति मिथ्यात्वसहित ठहरै । तब सर्वही मिथ्यादृष्टी आपकू मानें तब व्यवहार काहेका रह्या, तातै परीक्षा भये पीछ यह श्रद्धान नाही राखणां जो मैं मिथ्यादृष्टीहीहूं, मिथ्यादृष्टी तौ अन्यमतीकू कहिए है तब तिस समान आप भी ठहरै, तातें सर्वथा एकान्तपक्ष ग्रहण नहीं करनां । बहुरि तत्त्वार्थका श्रद्धान है सो बाह्य चिह्न हैं, तहां तत्त्वार्थ तौ जीव अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष ऐसैं सात हैं, बहुरि इनिमैं पुण्य पापका विशेष करिए तब नव पदार्थ होय हैं, सो इनिकी श्रद्धा कहिये इनिकै सन्मुख बुद्धि अरु रुचि कहिए इनि रूप अपना भाव करना बहुरि प्रतीति कहिये जैसैं सर्वज्ञ भाषे तैसैं ही हैं ऐसैं अंगीकार करना, बहुरि इनिका आचरणरूप क्रिया, ऐसैं श्रद्धानादिक होनां सो सम्यक्त्वका बाह्य चिह्न है । बहुरि प्रशम संवेग अनुकंपा आस्तिक्य ये सम्यक्त्वके बाह्य चिह्न हैं । तहां अनंतानुबंधी क्रोधादिक कषायका उदयका अभाव सो प्रशम है; ताका बाह्य चिह्न ऐसा-जो सर्वथा एकान्त तत्वार्थके कहनेवाले जे अन्यमत जिनका श्रद्धान तथा वाह्यभेष तावि सत्यार्थपणांका अभिमान करनां तथा पर्यायनिविर्षे एकान्ततै आत्मबुद्धिकरि अभिमान तथा प्रीति करनी ये अनंतानुबंधीका कार्य है, सो ये जाकै न होय तथा अपनां काहू. बुरा किया ताका घात करना आदि विकारबुद्धि मिथ्यादृष्टिकी ज्यौं आपकै
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१०
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
नहीं उपजै । अर ऐसैं विचारै जो मेरा बुरा करनेवाला मेरा परिणामकार मैं वांध्याथा जो कर्म, सो है, अन्य तौ निमित्तमात्र हैं, ऐसी बुद्धि आपकै उपजै, ऐसे मंदकषाय होय । अर अनंतानुबंधीविना अन्य चारित्रमोहकी प्रकृतिनिके उदयतें आरंभादिक क्रियामैं हिंसादिक होय है तिनिकू भी भला नहीं जानैं है यारौं तिससैं प्रशमका अभाव नहीं कहिए । बहुरि धर्मविपैं अर धर्मका फलविौं परम उत्साह होय सो संवेग है, तथा साधर्मीनितें अनुराग तथा परमेष्ठीनिविर्षे प्रीति सो भी संवेगही है । अर इस धर्मवि अर धर्मका फलविर्षे अनुरागकू अभिलाष न कहनां जाते अभिलाष तौ इन्द्रियनिके विषयनिविर्षे चाह होय ताकू कहिये है, अपनां स्वरूपकी प्राप्तिविर्षे अनुरागकू अभिलाष नहीं कहिये । बहुरि इस संवेगहीमैं निर्वेद भी भया जानना जातै अपने स्वरूपरूप धर्मकी प्राप्तिवि अनुराग भया तब अन्यत्र सर्वही अभिलाषका त्याग भया सर्व परद्रव्यानसू वैराग्य भया, सो ही निर्वेद है । बहुरि सर्व प्राणीनिविर्षे उपकारकी बुद्धि तथा मैत्रीभाव सो अनुकंपा है तथा माध्यस्थ्यभाव होय तारौं सम्यग्दृष्टिकैं शल्य नांही है काहूसू वैरभाव न होय है, सुख दुःख मरण जीवन आपकै परकरि अर परकै आपकरि नांही श्रद्धे हैं। बहुरि जो परविर्षे अनुकंपा है सो आपहीविर्षे अनुकंपा है जाते परका बुरा करनां विचारै तब अपनें कषायभावतें अपनां बुरा स्वयमेव भया, परका बुरा न बिचारै तब अपनें कषायभाव न भये तब अपनी अनुकंपाही भई । बहुरि जीव आदि पदार्थनिविर्षे अस्तित्वभाव सो आस्तिक्यभाव है सो जीव आदिका स्वरूप सर्वज्ञके आगमतें जानि तिनिविर्षे ऐसी बुद्धि होय जो ये जैसैं सर्वज्ञ भाषे तैसैंही हैं अन्यथा नांही है, ऐसा अस्तिक्यभाव होय है । ऐसें ये सम्यक्त्वके बाह्य चिह्न हैं।
बहुरि सम्यक्त्वके आठ गुण हैं;-संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्दा, उपशम, भाक्ति, वात्सल्य, अनुकंपा । सो ये प्रशमादिक च्यार हीमैं
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
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आगये । संवेगमैं तौ निर्वेद, वात्सल्य, अर भक्ति ये आगये । बहु प्रशममैं निन्दा गर्दा आगई ।
बहुरि सम्पग्दर्शनके आठ अंग कहे हैं तिनिकूं लक्षण भी कहिये गुण भी कहिये, तिनिके नाम — निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य, प्रभावना ऐसें
आठ ।
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तहां शंकानाम संशयका भी है अर भयका भी है । तहां धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य कालाणुद्रव्य परमाणु इत्यादि तौ सूक्ष्म वस्तु हैं, बहुरि द्वीप समुद्र मेरु पर्वत आदि दूरवर्ती पदार्थ हैं, बहुरि तीर्थकर चक्रवर्ती आदि अंतरित पदार्थ हैं; ते सर्वज्ञके आगमविपैं जैसे कहे हैं तैसें हैं कि नाही हैं ? अथवा सर्वज्ञदेव वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक का है सो सत्य है कि असत्य है? ऐसैं संदेह करनां सो शंका कहिये । यह न हो तौ ताकूं निःशंकित अंग कहिये । बहुरि यहु शंका होय है सो मिध्यात्वकर्मके उदयतें होय है, ताका परविषै आत्मबुद्धि होना कार्य है । सो यह परविषै आत्मबुद्धि है सो पर्यायबुद्धि है, यह पर्यायबुद्धि भय भी उपजावै है । शंका नाम भयका भी है, ताके सात भेद हैं; — इस लोकका भय, परलोकका भय, मरणका भय, अन्नरक्षाका भय, अगुप्तिभय, वेदनाका भय, अकस्मात् भय । ऐसैं. ये भय होय तब जानिये याकै मिध्यात्वकर्मका उदय है; सम्यग्दृष्टि भये ये होय नांही । इहां प्रश्न- जो भय प्रकृतिका उदय तौ आठमा गुणस्थान तांई है ताके निमित्ततैं सम्यग्दृष्टीकैं भय होय ही है, भयका अभाव कैसैं ? ताका समाधान :- - जो यद्यपि सम्यग्दृष्टी चारित्रमोहके भेदरूप भयप्रकृतिके उदय भय होय है तथापि ताकूं निर्भय ही कहिये जाते याकै कर्मके उदयका स्वामीपणां नांही है अर परद्रव्यतैं अपनां द्रव्यत्वभावका नाश नहीं मानें है,
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१२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितपर्यायका स्वभाव विनाशीक मानें है, तातैं भय होतें भी निर्भय ही कहिये । भय होते ताका इलाज भागनां इत्यादि करै है, तहां वर्तमानकी पीडा नहीं सही जाय तारौं इलाज करै है यह निबलाईका दोष है। ऐसैं संदेह अर भयरहित सम्यग्दृष्टी होय ताकै निःशंकित अंग होय है ॥ १॥ ___ बहुरि कांक्षा नाम भोगनिकी इच्छा अभिलाषका है । तहां पूर्व किये भोग तिनिकी वांछा तथा तिनि भोगनिकी मुख्य क्रिया विर्षे वांछा तथा कर्म अर कर्मके फलविर्षे वांछा तथा मिथ्यादृष्टीनिकै भोगनिकी प्राप्ति देखि तिनिकू अपनें मनमैं भला जाननां, अथवा इंद्रियनिकू नहीं रुचै ऐसे विषयनिवि उद्वेग होनां; ये भोगाभिलाषके चिह्न हैं। सो यह भोगाभिलाष मिथ्यात्वकर्मके उदयतें होय है । सो यह जाकै नहीं होय सो निःकांक्षित अंगयुक्त सम्यग्दृष्टी होय है । यह सम्यग्दृष्टी यद्यपि शुभक्रिया व्रतादिक आचरण करै है ताका फल शुभकर्मबंध है ताकू भी नांही वांछ है व्रतादिकळू स्वरूपके साधक जानि आचरै है कर्मके फलकी वांछा नाही करै है । ऐसें नि:कांक्षित अंग है ॥ २ ॥ ___ बहुरि आपविौं अपने गुणकी महंतताकी बुद्धिकरि आपकू श्रेष्ठ मांनि परविर्षे हीनताकी बुद्धि होय ताकू विचिकित्सा कहिये, यह जाकै नहीं होय सो निर्विचिकित्सा अंगयुक्त सम्यदृष्टी होय है । याके चिह्न ऐसैं-जो कोई पुरुष पापके उदयतें दुःखी होय, असाताके उदयतें ग्लानियुक्त शरीर होय ताविर्षे ग्लानिबुद्धि नहीं करै । ऐसी बुद्धि नहीं करै-जो मैं संपदावान हूं सुन्दरशरीरवान हूं, यह दीन रांक मेरी बराबरी नाही करि सकै । उलटा ऐसैं विचारै जो प्राणीनिकै कर्मउदयतें विचित्र अनेक अवस्था होय है, मेरे कर्मका उदय ऐसा आवै तब मैं भी ऐसा ही होजाऊं । ऐसें विचारतें निर्विचिकित्सा अंग होय है ॥३॥
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बहुरि अतत्वविर्षे तत्वपणांका श्रद्धान सो मूढदृष्टि है। ऐसे मूढदृष्टि जाके नहीं होय सो अमूढदृष्टि है। तहां मिथ्यादृष्टीनिकरि खोटे हेतु दृष्टांतकरि साध्या पदार्थ है सो सम्यग्दृष्टीकू प्रीति नांही उपजा है। बहुरि लौकिक रूढी अनेक प्रकार है सो यह निःसार है, निःसार पुरुषनिकरि ही आचरिए है, अनिष्ट फलकी देनहारी हैं तथा निष्फल है तथा जाका खोटा फल है तथा ताका किळू हेतु नाही ताका किळू अर्थ नाही, जो किळू लोक रूढ़ि चलिपड़े सो लोक आदरिले फेरि ताका त्यजनां कठिन होय जाय इत्यादि लोकरूढि हैं । बहुरि अदेवविर्षे तौ देवबुद्धि अधर्मविषै धर्मबुद्धि, अगुरुविर्षे गुरुबुद्धि इत्यादि देवादिक मूढता हैं सो यह कल्याणकारी नाही । सदोष देवकू देव माननां, बहुरि तिनिके निमित्त हिंसादिकरि अधर्मकू धर्म माननां, बहुरि खोटा आचारवान शल्यवान परिग्रहवान सम्यक्त्वव्रतरहित• गुरु माननां इत्यादि मूढ़ दृष्टिके चिह्न हैं । अब इहां देव धर्म गुरु कैसै होय तिनिका स्वरूप जान्या चाहिये, सो ही कहिये है--तहां रागादिक दोष अर ज्ञानावरणादिक कर्म सो ही आवरण, ये दोज जाकै नांही सो देव है; ताकै केवलज्ञान केवलदर्शन अनंतसुख अनतर्वार्य ये अनंतचतुष्टय होय हैं । सो सामान्य तौ देव ऐसा एक है अर विशेषकरि अरहंत सिद्ध ऐसे दोय भेद हैं, बहुरि इनिके नामभेदके भेदकरि भेद करिये तब हजारां नाम हैं । बहुरि गुणभेद करिए तब अनंत गुण हैं। तहां परम
औदारिक देह विर्षे तिष्टया घातियाकर्मरहित अनंतचतुष्टयसहित धर्मका उपदेश करनहारा ऐसा तो अरहंत देव है । बहुरि पुद्गलमयी देहसूरहित लोकके शिखर निष्ठया सम्यक्त्वादिक अष्टगुणमंडित अष्टकर्मरहित ऐसा सिद्ध देव है, इनिके अनेक नाम हैं-अरहंत, जिन, सिद्ध, परमात्मा, महादेव, शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, हरि, बुद्ध, सर्वज्ञ, वीतराग परमात्मा.
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१४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितइत्यादि अर्थसहित अनेक नाम हैं; ऐसा तौ देव जाननां । बहुरि गुरु भी अर्थ थकी विचाीरये तो अरहंत देवही है जानैं मोक्षमार्गका उपदेश करनहारा अरहंतही है साक्षात् मोक्षमार्ग यहही प्रवर्तीवै है, बहुरि अरहंतकै पीछे छद्मस्थ ज्ञानके धारक तिनिहीका निग्रंथ दिगंबर रूप धारनेवाले मुनि हैं ते गुरु हैं जातें अरहंतका एकदेशशुद्धपणां सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका तिनिकै पाइये सोही संवर निर्जरा मोक्षके कारण हैं तातें अरहंतकी ज्यों एकदेशपणे निर्दोष हैं ते मुनि भी गुरु हैं, मोक्षमार्गके उपदेश करनहारे हैं । बहुरि ऐसा मुनिपणां सामान्यकरि एकप्रकार है, बहुरि विशेषकरि सो ही तीन प्रकार है-आचार्य, उपाध्याय, साधु । ऐसे यह पदवीका विशेष है, तिनिकै मुनिपणांकी क्रिया एकही है, बाह्य लिंग भी समान है, पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्ति ऐसैं तेरह प्रकारका चारित्र भी समानही है, तप भी शक्तिसारू समानही है, साम्यभाव भी समान है, मूलगुण उत्तरगुण भी समान हैं, परीषह उपसर्गनिका सहना भी समान है, आहार आदिकी विधि भी समान है, चर्या स्थान आसन आदि भी समान हैं, मोक्षमार्गका साधनां सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र भी समान हैं । ध्याता ध्यान ध्येयपणां भी समान है, ज्ञाता ज्ञान ज्ञेयपणां भी समान है, च्यार आराधनांका आराधना क्रोधादिक कषायनिका जीतनां इत्यादि मुनिनिकी प्रवृत्ति है सो सर्व समान है। इहां विशेष यहु है-जो आचार्य है सो तौ पंच आचार अन्यकू अंगीकार करावै है, बहुरि अन्यकू दोष लागै ताका प्रायश्चित्तकी विधि बतावै है, धर्मोपदेश दीक्षा शिक्षा दे सो तौ आचार्य होय है सो ऐसा आचार्य गुरु वंदने योग्य है । बहुरि उपाध्याय है सो वादित्व वाग्मित्व कवित्व गमकत्व ये च्यार विद्या हैं तिनिमैं प्रवीण होय हैं, इस विर्षे शास्त्रका अभ्यास प्रधान कारण है आप शास्त्र पढ़े अन्यकू पढ़ावै, ऐसा उपाध्याय गुरु बंदने
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योग्य है, याकै अन्य मुनित्रत मूलगुण उत्तरगुणकी क्रिया आचार्यसमान ही होय है । बहुरि साधु है सो रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गकूं साधै सो साधु है या दीक्षा शिक्षा उपदेशादिक देनेंकी प्रधानता नांही अपने स्वरूपके साधनविर्षै ही तत्पर होय हैं, निग्रंथ दिगंबर मुनिकी प्रवृत्ति जैसी जिनागममैं वर्णन करी है तैसी सर्वही होय है; ऐसा साधु वंदनेयोग्य है । अन्यलिंगी भेषी व्रतादिकतैं रहित परिग्रहवान विषयनिमैं आसक्त गुरु नाम धरावें ते वंदनेयोग्य नांहीं हैं । इस पंचकालमै भेषी जिनमत मैं भी भये हैं ते श्वेतांबर, यापनीयसंघ, गोपुच्छपिच्छसंघ, नि: पिच्छसंघ, द्राविड़संघ आदि लेय अनेक भये हैं सो ये सर्वही वंदनेयोग्य नांही हैं। मूलसंघ, नग्न'दिगंबर, अड्ढाईस मूलगुणनिके धारक, मयूरपिच्छक कमंडलु दयाका अर शौचका उपकरण धारें यथोक्तविधि आहार करनेवाले गुरु वंदनेयोग्य हैं जातैं तीर्थंकर देव दीक्षा धारें हैं तब ऐसाही रूप धारें हैं अन्य भेष नांही धारें हैं, याहीकूं जिनदर्शन कहिए है । बहुरि धर्म जाकूं कहिए जो जीवकूं संसार के दुःखरूप नीचा पदतैं मोक्षका सुखरूप ऊंचा पदमैं "धारै, ऐसा धर्म मुनिश्रावकके भेदकरि दर्शन ज्ञान चारित्रात्मक एकदेश सर्वदेशरूप निश्चय व्यवहार करि दोय प्रकार कया है ताका मूल सम्यग्दर्शन है या बिनां धर्मकी उत्पत्ति नांही है । ऐसें देव गुरु धर्म विषै अर लोकविषै यथार्थ दृष्टि होय अर मूढता नहीं होय सो अमूढ दृष्टि अंग है ॥ ४ ॥
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बहुरि अपने आत्माकी शक्तिका बधावना सो उपबृंहण अंग है सो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका अपनां पौरुषकरि बधावनां सो ही उपबृंहण है। याकूं उपगूहन भी कहिये है, तहां ऐसा अर्थ जाननां जो स्वयंसिद्ध जिनमार्ग है ताकै बालकके तथा असमर्थ जनके आश्रयतैं जो न्यूनता होय ताकूं अपनी बुद्धितैं गोप्यकरि दूरिही करै सो उपगूहन अंग है ॥ ५ ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
बहुरि धर्मः जो च्युत होता होय ताकू दृढ करनां सो स्थितीकरण अंग है सो जो आप कर्मके उदयके वश” कदाचित् श्रद्धानौं तथा क्रिया आचारसे छूटै तो आपकू फेरि पौरुष करि श्रद्धानमैं दृढ करना । बहुरि तैसैं ही अन्य धर्मात्मा धर्मत च्युत होता होय तौ ताकू उपदेशादिक करि धर्म विर्षे स्थापनां, ऐसैं स्थितीकरण अंग होय है ॥ ६ ॥
बहुरि अरहंत सिद्ध तथा तिनिके बिंब तथा चैत्यालय तथा चतु. विधसंघ तथा शास्त्र इनिवि दासपणां होय जैसैं स्वामीका भत्य दास होय तैसैं, सो वात्सल्य अंग है । तहां धर्मके स्थानकनिकै उपसर्गादिक आवै ताकू अपनी शक्तिसारू मेंटै अपनी शक्ति• छिपावै नांही, यह धर्मरौं अतिप्रीति होय तब होय है ॥ ७ ॥
बहुरि धर्मका उद्योत करनां सो प्रभावना अंग है । तहां अपने आत्माका रत्नत्रयकरिं उद्योत करनां अर दान तप पूजा विधानकरि तथा विद्या अतिशय चमत्कारादिककरि जिनधर्मका उद्योत करनां, ऐसे प्रभावना अंग होय है ॥ ८॥
ऐसें ये आठ अंग सम्यक्त्वके हैं जाके ये प्रकट होय ताकै जानिये सम्यक्त्व है । इहां प्रश्न-जो ये सम्यक्त्वके चिह्न कहे तैसैंही मिथ्यादृष्टीक भी देखें तब सम्यक् मिथ्याका विभाग कैसे होय ? । ताका समाधान-जो जैसैं सम्यक्त्वीकै होथ तैसैं तौ मिथ्यात्वीकै कभीही नहीं होय है तौ हू अपरीक्षककू समान दीखें तहां परीक्षा किये भेद जान्या जाय है । बहुरि परीक्षाविपैं अपना स्वानुभव प्रधान है सर्वज्ञके आगममैं जैसा आत्माका अनुभव होना कह्या है तैसा आपके होय तब ताके होतें अपनी वचन कायकी प्रवृत्ति भी तिस अनुसार होय है, तिस प्रवृत्तिके अनुसार अन्यकी भी वचन कायकी प्रवृत्ति पहचानिये
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१७ है, ऐसैं परीक्षा किये विभाग होय है । बहुरि यह व्यवहार मार्ग है, सो व्यवहारी छद्मस्थ जीवनिकै अपने ज्ञानकै अनुसार प्रवृत्ति है, यथार्थ सर्वज्ञदेव जानैं हैं, व्यवहारीकू सर्वज्ञदेव व्यवहारहीका आश्रय बताया है । यह अंतरंग सम्यक्त्वभावरूप सम्यक्त्व है सो ही सम्यग्दर्शन है, बहुरि बाह्यदर्शन व्रत समिति गुप्तिरूप चारित्र अर तपसहित अट्ठाईस मूल्यगुणसहित नग्न दिगंबर मुद्रा याकी मूर्ति है ताकू जिन दर्शन कहिये । ऐसें धर्मका मूल सम्यग्दर्शन जानि जे सम्यग्दर्शनरहित हैं तिनिका वंदना पूजनां निषेध्या है, सो भव्य जीवनिकू यह उपदेश अंगीकार करने योग्य है ॥ २॥ __ आगैं अंतरंग सम्यग्दर्शनविना बाह्य चारित्रनै निर्वाण नाही है, ऐसैं कहैं हैं;गाथा-दंसणभट्टा भट्टा सणभट्टस्स पत्थि णिव्वाणं ।
सिझंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति ॥ ३ ॥ छाया-दर्शनभ्रष्टाः भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् ।
सिध्यन्ति चारित्रभ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टाः न सिध्यन्ति ॥३॥ अर्थ-जे पुरुष दर्शनतें भ्रष्ट हैं ते भ्रष्ट हैं जे दर्शन भ्रष्ट हैं तिनिकै निर्वाण नाही होय है जातें यह प्रसिद्ध है जे चारित्रते भ्रष्ट हैं ते तौ सिद्धिकू प्राप्त होय हैं अर दर्शन भ्रष्ट हैं ते सिद्धिकू प्राप्त नाही होय हैं॥ ___भावार्थ-जे जिनमतकी श्रद्धातें भ्रष्ट हैं तिनिकू भ्रष्ट कहिये अर श्रद्धातें भ्रष्ट नांही है अर कदाचित् चारित्रभ्रष्ट कर्मके उदयतें भये हैं तिनिकू भ्रष्ट नहीं कहिये जातें जो दर्शनतें भ्रष्ट है ताकै निर्वाणकी प्राप्ति नांही होय है, जे चारित्रौं भ्रष्ट होय हैं अर श्रद्धानदृढ रहै हैं
अ.व. २
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तिनिकै तौ शीघ्रही फेरि चारित्रका ग्रहण होय है मोक्ष होय है, बहुरि दर्शन श्रद्धाः भ्रष्ट होय तिनिकै फेरि चारित्रका ग्रहण कठिन होय है तातें निर्वाणकी प्राप्ति दुर्लभ होय है, जैसैं वृक्षका स्कंधादिक कटि जाय अर मूल वण्या रहै तौ स्कंधादिक शीघ्रही फेरि होय फल लागै, अर मूल उपडि जाय तब स्कंधादिक कैसे होय; तैसैं धर्मका मूल दर्शन जाननां ॥ ३ ॥ ___ भागें सम्यग्दर्शन” भ्रष्ट हैं अर शास्त्रनिकू बहोत प्रकार जानहैं तो हू संसारमैं भ्रमै हैं, ऐसें ज्ञानौं भी दर्शन• अधिक कहैं हैं;गाथा-सम्मत्तरयणभट्टा जाणंता वहुविहाई सत्थाई ।
आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥४॥ छाया-सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टाः जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि ।
आराधनाविरहिताः भ्रमति तत्रैव तत्रैव ॥४॥ अर्थ-जे पुरुष सम्यक्त्वरूप रत्नकरि भ्रष्ट हैं अर बहुत प्रकारके शास्त्रनिकू जानें हैं तौऊ ते आराधनाकरि रहित भये संते जिस संसारविही भ्रमैं हैं । दोय वार कहनेंतें बहुत भ्रमणां जनाया हैं॥
भावार्थ-जे जिनमतकी श्रद्धातें भ्रष्ट हैं अर शब्द न्याय छंद अलंकार आदि अनेक प्रकारके शास्त्रनिकू जानैं हैं तो हू सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तपरूप आराधनां तिनिकै नांही होय है यातें कुमरणकरि चतुर्गतिरूप संसारविर्षे ही भ्रमण करें हैं मोक्ष नाही पावै हैं जाते सम्यक्त्व विना ज्ञान• आराधना नाम नहीं कहिये ॥ ४ ॥
आगें कहैं हैं, तप हू करै अर सम्यक्त्वरहित होय तौ तिनिकै स्वरूपका लाभ नहीं होय;
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गाथा-सम्मत्तविरहिया णं सुदृ वि उग्गं तवं चरंता णं ।
___ण लहंति वोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥५॥ छाया-सम्यक्त्वविरहिता णं सुष्टु अपि उग्रं तपः चरंतो णं ।
न लभन्ते बोधिलाभ अपि वर्षसहस्रकोटिभिः ॥५॥ अर्थ:-जे पुरुष सम्यक्त्वकरि विरहित हैं ते सुष्ठु कहिये भले प्रकार उग्र तपकू आचरते हैं तोऊ ते बोधि कहिये सम्यग्दर्शनज्ञानधारित्रमयी अपनां स्वरूप ताका लाभकू नाही पावैं हैं, जो हजार कोडि वर्ष ताई तप करै तौऊ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होय । इहां गाथामैं 'ण' ऐसा शब्द दोय जायगां है सो प्राकृतमैं अव्यय है, याका अर्थ वाक्यका अलंकार है ॥
भावार्थ-सम्यक्त्व विना हजार कोडि वर्ष तप करै तौऊ मोक्षमार्गकी प्राप्ति नाही । इहां हजार कोडि कहनेतें एतेही वर्ष नहीं जाननें, कालका बहुतपणां जणाया है । तप मनुष्यपर्यायहीमैं होय है तातें मनुष्यकालभी थोडा है तातें तप कहनेंतें ये भी वर्ष बहुतही कहिये ॥५॥ __ आगें ऐसैं पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व विना चारित्र तप निष्फल कहे, अब सम्यक्त्वसहित सर्वही प्रवृत्ति सफल है ऐसैं कहैं हैं;गाथा-सम्मत्तणाणदंसणवलवीरियवड़माण जे सव्वे ।
कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेण ॥६॥ छाया-सम्यक्त्वज्ञानदर्शनवलवीर्यवर्द्धमानाः ये सर्वे ।
कलिकलुषपापरहिताः वरज्ञानिनः भवंति अचिरेण ॥ अर्थ-जे पुरुष सन्यक्त्व ज्ञान दर्शन बल वीर्य इनि करि पर्द्धमान हैं भर कलिकलुषपाप कहिए इस पंचमकालके मलिन पापकार
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
रहित हैं ते सर्व ही थोडे ही कालमैं वरज्ञानी कहिये केवल ज्ञानी हो हैं ॥
भावार्थ — इस पंचमकालमैं जड वक्र जीवनिके निमित्त करि यथार्थ मार्ग अपभ्रंश भया है तिसकी वासना रहित भये जे जीव यथार्थ जिनमार्ग के श्रद्धानरूप सम्यक्त्वसहित ज्ञान दर्शन अपना पराक्रम बलकूं न छिपाय करिअर अपनां वीर्य जो शक्ति ताकरि वर्द्धमान भये संते प्रवर्तें हैं ते थोडे ही कालमैं केवलज्ञानी होय मोक्ष पावें हैं ॥ ६ ॥
आगैं कहैं हैं, जो सम्यक्त्वरूप जलका प्रवाह आत्माकै कर्मरज नांही लागनें दे है;
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गाथा –सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्टए जस्स । कम्मं वालयवरणं बंधुच्चिय णास तस्स ॥ ७ ॥ छाया - सम्यक्त्व सलिलप्रवाहः नित्यं हृदये प्रवर्त्तते यस्य । कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य ॥ ७ ॥
अर्थ —जा पुरुषका हृदयकै विषै सम्यक्त्वरूप जलका प्रवाह निरन्तर प्रवर्त्ते है तापुरुषकै कर्म सो ही भया वालूरजका आवरण सो नांही लागै है, बहुरि ताकै पूर्वै लग्या कर्मका बंध सो भी नाशकूं प्राप्त होय है ॥
भावार्थ सम्यक्त्व सहित पुरुषकै कर्मके उदयतैं भये जे रागादिक भाव तिनिका स्वामीपणां नांही है तातैं कषायनिकी तीव्र कलुषतातें रहित परिणाम उज्ज्वल होय हैं, ताकूं जलकी उपमा है । जैसैं जलका प्रवाह जहां निरन्तर वहै तहां बालू रेत रज लागै नांही जैसैं सम्यक्त्ववान जीव कर्मके उदयकूं भोगता भी कर्म नांही लिपै है । अर वाह्य व्यवहार अपेक्षा ऐसा भी भावार्थ जाननां - जाकै निरंतर हृदय मैं
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२१ सम्यक्त्वरूप जलप्रवाह वहै है सो सम्यक्त्ववान पुरुष इस कलिकाल - संबंधी वासना जो कुदेव कुशास्त्र कुगुरु इनके नमस्कारादिरूप अतीचाररूप रज भी नांही लगावै है, अर ताकै मिथ्यात्व संबंधी प्रकृतिनिका आगामी वंध भी नांही होय है ॥ ७ ॥
आर्गै कहैं हैं, जे दर्शनभ्रष्ट हैं अर ज्ञान चारित्रतैं भी भ्रष्ट हैं ते आप तौ भ्रष्ट हैं ही परन्तु अन्यकूं भ्रष्ट करें हैं, यह अनर्थ है, - गाथा - जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य ।
एदे भट्ट वि भट्टा सेसं पि जणं विणासंति ॥ ८ ॥ छाया - ये दर्शनेषु भ्रष्टाः ज्ञाने भ्रष्टाः चारित्रभ्रष्टाः च ।
एते भ्रष्टात् अपि भ्रष्टाः शेषं अपि जनं विनाशयति ॥
अर्थ — जे पुरुष दर्शनविषै भ्रष्ट हैं बहुरि ज्ञान चारित्र भी भ्रष्ट हैं ते पुरुष भ्रष्टनिविषै भी विशेष भ्रष्ट हैं। केई तौ दर्शनसहित हैं अर ज्ञान चारित्र जिनके नांही है, बहुरि केई अंतरंग दर्शनतें भ्रष्ट हैं तौऊ ज्ञान चारित्र नीकैं पालै हैं, अर जे दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीननितें भ्रष्ट हैं ते तौ अत्यंत भ्रष्ट हैं, ते आपतौ भ्रष्ट हैं ही परन्तु शेष कहिये आप सिवाय अन्य जन हैं तिनिकूं भी नष्ट करें हैं ॥
भावार्थ — इहां सामान्य वचन है तातैं ऐसा भी आशय सूचै है जो सत्यार्थ श्रद्धान ज्ञान चारित्र तौ दूरिही रहौ जो अपने मतकी श्रद्धा ज्ञान आचरणतैं भी भ्रष्ट हैं ते तौ निरर्गल स्वेच्छाचारी हैं ते आप भ्रष्ट हैं तैसें ही अन्य लोककूं उपदेशादिक करि भ्रष्ट करे हैं तथा तिनिकी प्रवृत्ति देखि स्वयमेव लोक भ्रष्ट होय हैं तातैं ऐसे तीव्रकषायी निषिद्ध हैं तिनकी संगति करनां भी उचित नांहीं ॥ ८॥
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२२ पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित___ आण: कहैं है, जो ऐसे धष्ट पुरुष आप भ्रष्ट हैं ते धर्मात्मा पुरुषनिकू दोष लगाय भ्रष्ट बता₹ हैं;गाथा-जो कोवि धम्मसीलो संजमतवणियमजोयगुणधारी।
तस्स य दोस कहंता भग्गा भग्गत्तणं दिति ॥९॥ छाया-यः कोऽपि धर्मशीलः संयमतपोनियमयोगगुणधारी ।
तस्य च दोषान् कथयंतः भग्ना भग्नत्वं ददति ॥९॥ अर्थ-जो कोई पुरुष धर्मशील कहिये अपनां स्वरूपरूप धर्म साधनेंका जाका स्वभाव है तथा संयम कहिये इन्द्रिय मनका निग्रह षट् कायके जीवनिकी रक्षा, अर तप कहिये बाह्य आभ्यंतर भेदकरि बारह प्रकार तप, नियम कहिये आवश्यक आदि नित्य कर्म, योग कहिए समाधि ध्यान तथा वर्षाकाल आदि कालयोग, गुण कहिये मूलगुण उत्तरगुण, इनिका धारनेवाला है ता केई मततै भ्रष्ट जीव दोषनिका आरोपण करि कहैं हैं—जो ये भ्रष्ट हैं दोषनिसहित हैं ते पापात्मा जीव आप भ्रष्ट हैं तातें अपना अभिमान पोषनेकू अन्य धर्मात्मा पुरुपनिकू भ्रष्टपणां दे हैं ॥ ___ भावार्थ-पापीनिका ऐसा ही स्वभाव होय है जो आप पापी है तैसैं ही धर्मात्मामैं दोष बताय आप समान किया चाहै है, ऐसे पापीनिकी संगति नहीं करनी ॥९॥
आगें कहैं हैं जो दर्शनभ्रष्ट है सो मूलभ्रष्ट है ताकै फलकी प्राप्ति नाही;गाथा-जह मूलम्मि विणहे दुमस्स परिवार णत्थि परवड़ी।
तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणहा ण सिझंति ॥१०॥
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
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छाया-यथा मूले विनष्टे द्रुमस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः।
तथा जिनदर्शनभ्रष्टाः मूलविनष्टाः न सिद्धयन्ति ॥१०॥ - अर्थ--जैसैं वृक्षका मूल विनष्ट होते संत ताके परिवार कहिये स्कंध शाखा पत्र पुष्प फल ताकी वृद्धि नहीं होय है तैसें जे जिनदर्शनौं भ्रष्ट हैं बाह्य तौ निग्रंथ लिंग नग्न दिगंबर यथाजातरूप मूलगुणका धारण मयूरपुच्छिकापीछी अर कमंडलु धारनां यथाविधि दोष टालि शुद्ध खडा भोजन करना इत्यादि बाह्य शुद्ध भेष धारनां अर अंतरंग जीवादि षट् द्रव्य नव पदार्थ सप्त तत्वका यथार्थ श्रद्धान तथा भेदविज्ञानकरि आत्मस्वरूपका अनुभवन ऐसा जो दर्शन मत तातै बाह्य हैं ते मूलविनष्ट हैं तिनिकै सिद्धि नांही होय है, मोक्षफलकू नाही पावै
- आगें कहैं हैं, जो जिनदर्शन है सो ही मूल मोक्षमार्ग है;गाथा-जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होइ ।
तह जिणदंसण मूलो णिहिटो मोक्खमग्गस्स ॥११॥ छाया-यथा मूलात् स्कंधः शाखापरिवारः बहुगुणः भवति ।
तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य ॥ ११ ॥ अर्थ-जैसैं वृक्षकै मूलतें स्कंध होय है, सो कैसाक स्कंध होय है-शाखा आदि परिवार बहुत हैं गुण जाकै, इहां गुण शब्द बहुतका वाचक है तैसैं ही मोक्षमार्गका मूल जिनदर्शन गणधर देवादिक. कह्या है ॥ ___ भावार्थ-इहां जिनदर्शन कहिये जो भगवान तीर्थकरपरमदेवदर्शन ग्रहण किया सो ही उपदेश्या सो ऐसा मूलसंघ है अट्ठाईस मूलगुणसहित कया है । पंच महाव्रत, पंच समिति, षट् आवश्यक पांच इंद्रियनिका वश करनां, स्नान न करना, वस्त्रादिकका त्याग, दिगम्बर
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२४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितमुद्रा, केशलौंच करना, एक बार भोजन करना, खडा भोजन करना, दंतधावन न करनां ये अट्ठाईस मूलगुण हैं । बहुरि छियालीस दोष टालि आहार करनां सो एषणा समितिमैं आगया । ईर्यापथ सोधि चालनां सो ईर्यासमितिमैं आय गया । अर दयाका उपकरण तौ मोर पुच्छकी पींछी अर शौचका उपकरण कमंडलुका धारण ऐसा तौ बाह्य भेष है । बहुरि अंतरंग जीवादिक षट् द्रव्य पंचास्ति काय सप्त तत्त्व नव पदार्थनिकू यथोक्त जानि श्रद्धान करनां अर भेदविज्ञानकरि अपनां आत्मस्वरूपका चितवन करनां अनुभव करनां, ऐसा दर्शन जो मत सो मूलसंघका है । ऐसा जिनदर्शन है सो मोक्षमार्गका मूल है, इस मूलतें मोक्षमार्गकी सर्व प्रवृत्ति सफल होय है । बहुरि जे इसौं भ्रष्ट भये हैं ते इस पंचमकालके दोष. जैनाभास भये हैं, ते श्वेतांबर द्राविड यापनीय गोपुच्छपिच्छ निपिच्छ पांच संघ भये हैं तिनि. सूत्र सिद्धांत अपभ्रंश किये हैं बाह्य भेष पलटि विगाड्या है आचरण जिनूंनै ते जिनमतके मूलसंघतै भ्रष्ट हैं तिनिकै मोक्षमार्गकी प्राप्ति नाही है । मोक्षमार्गकी प्राप्ति मूलसंघके श्रद्धान ज्ञान आचरणहीतें है ऐसा नियम जाननां ॥ ११॥ ___ आगें कहैं हैं जो, जे यथार्थ दर्शन” भ्रष्ट हैं अर दर्शनके धारकनितें आप विनय कराया चाहै है ते दुर्गति पावै हैं;गाथा-जे दंसणेसु भहा पाए पाडंति दंसणधराणं ।
ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ॥१२॥
१ मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें इस गाथाका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है जिसका यह अर्थ है कि "जो दर्शन भ्रष्ट पुरुष दर्शन धारियोंके चरणों में नहीं गिरते है"
"जे दंषणेषु भठ्ठा पाए न पंडंति दसणधराणं "उत्तरार्द्ध समान है।
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
छाया-ये दर्शनेषु भ्रष्टाः पादयोः पातयंति दर्शनधरान् ।
ते भवंति लल्लमकाः बोधिः पुनः दुर्लभा तेषाम् ॥१२ अर्थ-जे पुरुष दर्शनविर्षे भ्रष्ट हैं अर अन्य जे दर्शनके धारक हैं तिनिकू अपने पगनि पडाबैं हैं नमस्कारादि करावै हैं ते परभव विर्षे लूला मूका होय हैं अर तिनिकै वोधि कहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति सो दुर्लभ होय है ॥ १२ ॥ ___ भावार्थ-जे दर्शनभ्रष्ट हैं ते मिथ्यादृष्टी हैं अर दर्शनके धारक हैं ते सम्यद्गुष्टी हैं, सो मिथ्यादृष्टी होय करि सम्यद्गुष्टीनि” नमस्कार चाहैं हैं ते तीव्र मिथ्यात्वके उदयसहित हैं ते परभववि लूला मूका होय हैं, भावार्थ-एकेंद्रिय होय हैं तिनिकै पग नाही ते परमार्थतें लूला मूका हैं ऐसे एकेंद्रियस्थावर होय निगोदमैं वास करैं हैं तहां अनंतकाल रहैं हैं, तिनिकै दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति दुर्लभ होय है, मिथ्यात्वका फल निगोदही कह्या है । इस पंचम कालमैं मिथ्या मतके आचार्य बनि लोकनि विनयादिक पूजा चाहें हैं तिनिकै जानिये है कि त्रसराशिका काल पूरा हुआ अब एकेंद्रिय होय निगोदमैं वास करेंगे, ऐसैं जान्या जाय है ॥ १२ ॥ __ आगै कहैं है जो जे दर्शनभ्रष्ट हैं तिनिकै लज्जादिकतैं भी पगां पडै हैं ते भी तिनि सारिखे ही हैं;-- गाथा-जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जगारवभयेण ।
तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ॥१३॥ संस्कृत-येऽपि पतन्ति च तेषां जानतः लज्जागारवभयेन ।
तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्यमानानाम् ॥ _ अर्थ-जे पुरुष दर्शनसहित हैं ते भी दर्शनभ्रष्ट हैं तिनिकू मिथ्यादृष्टी जानते संते भी तिनिके पगां पड़ें हैं तिनिका लज्जा भयगारव करि
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
विनयादि करें हैं तिनिकै भी बोधि कहिके दर्शन ज्ञान चरित्र ताकी प्राप्ति नांही है जातैं ते भी पाप जो मिथ्यात्व ताकी अनुमोदन करते हैं, करनां करावनां अनुमोदनां करनां समान कया है । इहां लज्जा तौ ऐसैंजो हम काहूका विनय नांहीं करेंगे तौ लोक कहेंगे ये उद्धत है मानी हैं ता हमकं तौ सर्वका साधन करनां, ऐसें लज्जाकरि दर्शनभ्रष्टका भी विनयादिक करे । बहुरि भय ऐसैं - जो ये राज्यमान्य है तथा मंत्र विद्यादिककी सामर्थ्ययुक्त है याका विनय नहीं करेंगे तो कछू हमारे ऊपरि उपद्रव करेगा, ऐसें भय करि विनय करै । बहुरि गारव तीन प्रकार कया है; रसगारव ऋद्धिगारव सातगाव । तहां रसगाव तो ऐसा जो मिष्ट इष्ट पुष्ट भोजनादि मिलिबो करै तब ताकरि प्रमादी रहै । बहुरि ऋद्धिगारव ऐसा जो कछू तपके प्रभाव आदिकर ऋद्धिकी प्राप्ति होय ताका गौरव आय जाय, ताकरि उद्धत प्रमादी रहै । बहुरि सातगौरव ऐसा जो शरीर नीरोग होय कछू क्लेशका कारण नहीं आवै तब सुखियापणां आय जाय, ताकरि मग्न रहै । इत्यादिक गारवभाव मस्ता
तैं किछू भले बुरेका विचार नहीं करै तब दर्शनभ्रष्टका भी विनय करबा लगिजाय इत्यादि निमित्त दर्शनभ्रष्टका विनय करें तौ यामैं मिध्यात्वकी अनुमोदना आवै ताकूं भला जानैं तब आप भी ता समान भया तब ताकै बोधि काहेकी कहिये ? ऐसें जाननां ॥ १३ ॥
गाथा - दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएस संजमो ठादि । पाणम्मि करणसुद्धे उभसणे दंसणं होई ॥ १४ ॥ संस्कृत - द्विविधः अपि ग्रंथत्यागः त्रिषु अपि योगेषु संयमः
तिष्ठति ।
ज्ञाने करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति ॥ १४ ॥
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
अर्थ-जहां बाह्य आभ्यंतर भेदकरि दोय प्रकार परिग्रहका त्याग होय अर मन वचन काय ऐसें तीनूं योगनिविर्षे संयम तिष्ठै बहुरि कृत कारित अनुमोदना ऐसें तीन करण जामें शुद्ध होय ऐसा ज्ञान होय बहुरि निर्दोष जामैं कृत कारित अनुमोदना आपका नहीं लागै ऐसा खडा पाणिपात्र आहार करै, ऐसें मूर्तिमंत दर्शन होय है ॥
भावार्थ-इहां दर्शन नाम मतका है तहां बाह्य भेष शुद्ध दीखै सो दर्शन सो ही ताके अंतरंग भावकू जनावै, तहां बाह्य परिग्रह तौ धनधान्यादिक अर अन्तरंग परिग्रह मिथ्यात्व कषायादिक सो जहां नहीं होय यथाजात दिगंबर मूर्ति होय, बहुरि इन्द्रिय मनका वश करनां त्रस थावर जीवनिकी दया करनी ऐसा संयम मन वचन काय करि शुद्ध पालनां जहां होय, अर ज्ञान विर्षे विकार करना करावनां अनुमोदनां ऐसें तीन करणनिकरि विकार नहीं होय, अर निर्दोष पाणिपात्र खडा. रहि भोजन करनां, ऐसे दर्शनकी मूर्ति है सो जिनदेवका मत है सो ही वंदने पूजने योग्य है, अन्य पाखंड भेष वंदनें पूजने योग्य नाही हैं ॥१४॥ __आगें कहैं हैं जो इस सम्यग्दर्शनते ही कल्याण अकल्याणका निश्चय होय है;गाथा-सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी ।
उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ॥ १५ ॥ संस्कृत-सम्यक्त्वात् ज्ञानं ज्ञानात् सर्वभावोपलब्धिः ।
उपलब्धपदार्थे पुनः श्रेयोऽश्रेयो विजानाति॥१५॥ अर्थ-सम्यक्त्वनै तौ ज्ञान सम्यक् होय है, बहुरि सम्यक् ज्ञानते सर्व पदार्थनिकी उपलब्धि कहिये प्राप्ति तथा जानना होय है, बहुरि
उपल
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
पदार्थनिकी उपलब्धि होतैं श्रेय कहिये कल्याण अर अश्रेय कहिये अकल्याण इनि दोऊनिकूं जानिये हैं ॥
भावार्थ — सम्यग्दर्शन विना ज्ञानकूं मिथ्याज्ञान कया है तातैं सम्यग्दर्शन भये ही सम्यग्ज्ञान होय है अर सम्यग्ज्ञानतैं जीव आदि पदार्थनिका स्वरूप यथार्थ जानिये है, बहुरि जब पदार्थनिका यथार्थ "स्वरूप जानिये तब भला बुरा मार्ग जानिये है । ऐसें मार्गके जाननें मैं भी सम्यग्दर्शनही प्रधान है ॥ १५ ॥
आगैं कल्याण अकल्याणकूं जानें कहा होय है, सो कहैं हैं ;गाथा - सेयासेयविदण्हू उध्दुददुस्सील सीलवंतो वि ।
सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ॥ १६॥ संस्कृत - श्रेयोऽयवेत्ता उद्धृतदुःशीलः शीलवानपि ।
शीलफलेनाभ्युदयं ततः पुनः लभते निर्वाणम् १६ अर्थ — कल्याण अर अकल्याण मार्गका जाननेवाला पुरुष है सो * उद्धददुस्सील' कहिये उडाया है मिथ्यात्वस्वभाव जाने ऐसा होय है, बहुरि ' सीलवंतो वि ' कहिये सम्यक् स्वभावयुक्त भी होय है, बहुरि तिस सम्यक् स्वभावका फलकरि अभ्युदय पावै है तीर्थकर आदि पद पावै है, बहुरि अभ्युदय भये पीछे निर्वाणकूं पावै है |
भावार्थ - भला बुरा मार्ग जानैं तब अनादि संसारत लगाय मिथ्याभावरूप प्रकृति है सो पलटि सम्यक्स्वभावस्वरूप प्रकृति होय, ति प्रकृतितैं विशिष्ट पुण्य बांधै तब अभ्युदयरूप पदवी तीर्थंकर · आदिकी पाय निर्वाण पावै है ॥ १६ ॥
आगैं हैं हैं जो ऐसा सम्यक्त्व जिनवचनतैं पाइये है तातैं ते ही सर्व दुःख हरण हारे हैं; -
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
गाथा-जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं ।
जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥१७॥ संस्कृत-जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम् ।
जरामरणव्याधिहरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम्॥१७॥ अर्थ-यह जिनवचन है सो औषध है, सो कैसा औषध है विषय जो इंद्रियनिके विषय तिनतें मान्या सुख ताका विरेचन कहिये दूरि करन हारा है, बहुरि कैसा है--अमृतभूत कहिये अमृतसारिखा है याहीतैं जरा मरण रूप रोग ताका हरन हारा है, बहुरि सर्व दुःखनिका क्षय करन हारा है ॥
भावार्थ-या संसारवि प्राणी विषयसुख, सेवै है तिसतै कर्म वंधैं हैं तिसौं जन्म जरा मरणरूप रोगनिकरि पीडित होय है, तहां जिनवचनरूप औषध ऐसा है जो विषयसुखरौं अरुचि उपजाय तिसका विरेचन करै है । जैसैं गरिष्ट आहारतें मल वधै तब ज्वर आदि रोग उपजै तब ताके विरेचनकू हरडै आदिक औषधि उपकारी होय तैसैं है । सो विषयनितें वैराग्य होय तब कर्मबंध नहीं होय तब जन्म जरा मरण रोग नहीं होय तब संसारका दुःखका अभाव होय । ऐसैं जिनवचनकू. अमृत सारिखे जांनि अंगीकार करनें ॥ १७ ॥ ___ आगैं जिनवचनविर्षे दर्शनका लिंग जो भेष सो कै प्रकार कह्या है, सो कहैं हैं;गाथा—एगं जिणस्स रूवं बीयं उकिडसावयाणं तु ।
अवरहियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि ॥१८ संस्कृत--एक जिनस्य रूपं द्वितीयं उत्कृष्टश्रावकाणां तु ।
अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थ पुनः लिंगदर्शनं नास्ति ।।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ — दर्शनविषै एक तौ जिनका स्वरूप है सो जैसा लिंग जिनदेव धाय सो लिंग है, बहुरि दूजा उत्कृष्ट श्रावकनिका लिंग है, 'बहुरि तीजा 'अवरट्ठिय' कहिये जघन्य पद विषै स्थित ऐसी आर्यिका - निका लिंग है, बहुरि चौथा लिंग दर्शन विषै नांही है ॥
भावार्थ — जनमत विषै तीन ही लिंग कहिये भेष कहैं हैं । एक तौ यथाजातरूप जिनदेव धान्य सो है, बहुरि दूजा उत्कृष्ट श्रावक ग्यारमी प्रतिमा धारकका है, बहुरि तीजा स्त्री आर्यिका होय ताका है, बहुरि चौथा अन्य प्रकारका भष जिनमत मैं नांही है जे मानें हैं ते मूलसंघ बाह्य हैं ॥ १८ ॥
आगें हैं हैं - ऐसा बाह्य लिंग होय ताकै अंतरंग श्रद्धान ऐसा होय है सो सम्यग्दृष्टी है;—-
गाथा - छह दब्ब णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सहिही मुणेव्व ॥ १९ ॥ संस्कृत - षट् द्रव्याणि नव पदार्थाः पंचास्तिकायाः सप्त तत्वानि निर्दिष्टानि ।
श्रद्दधाति तेषां रूपं सः सदृष्टिः ज्ञातव्यः ॥ १९ ॥
अर्थ — छह द्रव्य नव पदार्थ पांच अस्तिकाय सप्त तत्व ये जिनवचनमैं कहे हैं तिनिका स्वरूपकूं जो श्रद्धान करै सो सम्यग्दृष्टी जाननां ॥ १९॥
भावार्थ-जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल ये तो छह द्रव्य हैं, बहुरि जीव अजीव अश्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य पाप ये नव पदार्थ हैं, छह द्रव्य काल बिना पंचास्तिकाय हैं । पुण्य पाप विना - नव पदार्थ सप्त तत्व हैं । इनिका संक्षेप स्वरूप ऐसा - जो जीवन तै
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
३१ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm चेतनास्वरूप है सो चेतना दर्शनज्ञानमयी है; पुद्गल स्पर्श रस गंध वर्ण गुणमयी मूर्तीक है, याके परमाणु अर स्कंध ऐसैं दोय भेद हैं; बहुरि स्कंधके भेद शब्द बंध सूक्ष्म स्थूल संस्थान भेद तम छाया आतप उद्योत इत्यादि अनेक प्रकार है; धर्मद्रव्य प्रधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य ये एक एक हैं अमूर्तीक हैं निष्किय है, अर कालाणुअसंख्यात द्रव्य है । काल विना पांच द्रव्यनिकै बहुप्रदेशीपणां है यातें पांच अस्तिकाय हैं काल द्रव्य बहुप्रदेशी नांहीं तातें अस्तिकाय नाहीं; इत्यादिक इनिका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी टीकातें जाननां । बहुरि एक तौ जीव पदार्थ है अर अजीव पदार्थ पांच हैं, बहुरि जीवकै कर्मबंध योग्य पुद्गल होय सो आश्रव है बहुरि कर्म बंधै सो बंध है, वहुरि आश्रव रुकै सो संवर है, कर्मबंध झड़े सो निर्जरा है संपूर्ण कर्मका नाश होय सो मोक्ष है जीवनिकू सुखका निमित्त सो पुण्य है, बहुरि दुःखका निमित्त सो पाप है; ऐसैं सप्त तत्व नव पदार्थ हैं । इनिका आगमकै अनुसार स्वरूप जानि श्रद्धान करै सो सम्यग्दृष्टी होय है ॥ १९ ॥ ___ आगें व्यवहार निश्चय करि सम्यक्त्व दोय प्रकार करि करें हैं;
गाथा-जीवादी सद्दहणं सम्मत्त जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥ २० ॥ संस्कृत-जीवादीनां श्रद्धानं सम्यक्त्वं जिनवरैः प्रज्ञप्तम् ।
व्यवहारात् निश्चयतः आत्मैव भवति सम्यक्त्वम् ॥ अर्थ-जीव आदि कहे ज पदार्थ तिनिका श्रद्धान सो तो व्यवहारसम्यक्त्व जिनभगवान कह्या हैं, बहुरि निश्चयनैं अपनां आत्माहीका श्रद्धान सो सम्यक्त्व है ॥ २० ॥
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३२ पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
भावार्थ-तत्वार्थका श्रद्धान सो तो व्यवहार” सम्यक्त्व है, बहुरि अपना आत्मस्वरूपका अनुभव करि तिसकी श्रद्धा प्रतीति रुचि आचरण सो निश्चयतें सम्यक्त्व है, सो यह सम्यक्त्व आत्मा” जुदा वस्तु नाही है आत्माहीका परिणाम है सो आत्माही है । ऐसे सम्यक्त्व. अर आत्मा एकही वस्तुहै यह निश्चयका आशय जाननां ॥ २ ॥
आगैं कहैं हैं जो यह सम्यग्दर्शन है सो सर्व गुणनिमैं सार है ताहि धारण करो;गाथा-एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥२१॥ संस्कृत--एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन ।
__सारं गुणरत्नत्रये सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥२१॥ ___ अर्थ-ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर देवनैं कह्या दर्शन है सो गुणनिवि अर दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीन रत्ननिविौं सार है उत्तम है, बहुरि मोक्षमंदिरके चढ़नेकू प्रथम पैडी है, सो आचार्य कहैं हैं हे भव्य जीव हो ! तुम याकू अंतरंग भावकरि धारण करो, बाह्य क्रियादिक करि धारण किया तौ परमार्थ नाहीं अंतरंगकी रुचिकरि धारण मोक्षका कारण है ॥ २१॥ ___ आगैं हैं हैं जो श्रद्धान करै ताहीकै सम्यक्त्व होय है;गाथा-जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सकेइ तं च सद्दहणं ।
केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ॥ २२ ॥ संस्कृत-यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य
च श्रद्धानम् । केवलिजिनैः भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥२२॥
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका। . अर्थ-जो करने... समर्थ हूजे सो तौ कीजिये बहुरि जो करनैकू नहीं समर्थ हूजिये सो श्रद्धिए जातें केवली भगवान. श्रद्धान करनेवालैक सम्यक्त्व कह्याहै ॥ २२ ॥
भावार्थ-इहां आशय ऐसा है जो कोऊ कहै सम्यक्त्व भये पीछे तौ सर्व परद्रव्य संसारकू हेय जानियेहे सो जाकू हेय जानें ताकं छोड़े मुनि होय चारित्र आचरै तब सम्यक्त्व भया जानिये, ताका समाधानरूप यह गाथा है जो सर्व परद्रव्यकू हेय जानि निज स्वरूपकू उपादेय जान्यां श्रद्धान किया तब मिथ्याभावतौ मिट्या परंतु चारित्रमोहकर्मका उदय प्रबल होय जेतें चारित्र अंगीकार करनेकी सामर्थ्य नहीं होय तेतै जेती सामर्थ्य होय तेता तो करै तिस सिवायका श्रद्धानकरै, ऐसें श्रद्धान करनेवालाहीकै भगवान सम्यक्त्व कह्या है ॥२२॥ ___ आगैं कहैं हैं, जो ऐसैं दर्शन ज्ञान चारित्र विर्षे तिष्ठें है ते वंदिवे योग्य हैं;गाथा-दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था ।
एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ॥२३॥ संस्कृत-दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनये नित्यकालसुप्रस्वस्थाः।
___ एते तु वन्दनीया ये गुणवादिनः गुणधराणाम् २३ __ अर्थः-दर्शन ज्ञान चारित्र तथा तप विनय इनिवि जे भले प्रकार तिष्ठं है ते प्रशस्तहैं सराहने योग्य है अथवा भलै प्रकार स्वस्थ हैं लीन हैं, बहुरि गणधर आचार्य हैं तिनिके गुणानुवाद करनेवाले हैं ते वन्दने योग्य हैं । अन्य जे दर्शनादिक रौं भ्रष्ट हैं अर. गुणवाननितें मत्सरभाव राखि विनयरूप नहीं प्रवर्ते हैं ते वन्दिवेयोग्य नाहींहैं ॥२३॥
अ. व. ३
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित__ आगें कहैं हैं जो याथाजात रूप• देखि मत्सरभाव करि वन्दना नहीं करें हैं ते मिथ्या दृष्टी ही हैं;गाथा-सहजुप्पण्णं रूवं दहूं जो मण्णएण मच्छरिओ।
सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइडी हवइ एसो ॥२४॥ संस्कृत-सहजोत्पन्न रूपं दृष्ट्वा यः मन्यते न मत्सरी ।
सः संयमप्रतिपन्नः मिथ्यादृष्टिः भवति एषः॥२४॥ अर्थ-जो सहजोत्पन्न यथाजात रूपकू देखि करि न माने है तिसका विनय सत्कार प्रीति नाहीं करैहै अर मत्सरभाव करै है सो संयमप्रतिपन्न है दीक्षाग्रहण करी है तौऊ प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टीहै ॥ २४ ॥ ___ भावार्थ-जो यथाजातरूपकू देखि मत्सरभावकरि ताका विनय नहीं करै तौ जानिये याकै इस रूपकी श्रद्धा रुचि नाहीं ऐसे श्रद्धा रुचि विना तौ मिथ्यादृष्टीही होय । इहां आशय ऐसा जो श्वेतांबरादिक भये ते दिगम्बररूप” मत्सरभाव राखें अर तिसका विनय नहीं करें तिनिका निषेध है ॥२४॥ ___ आगें याहीकू दृढ करें हैं;गाथा-अमराण वंदियाणं रूवं दहण सीलसहियाणं ।
जे गारवं करंति य सम्मत्तविवजिया होंति ॥२५॥ संस्कृत-अमरैः वंदितानां रूपं दृष्ट्वा शीलसहितानाम् ।
ये गौरवं कुर्वन्ति च सम्यक्त्वविवर्जिताः भवंति ॥ अर्थ-शीलकरि सहित देवनिकरि वंदनेयोग्य जो जिनेश्वर देवका यथाजात रूपकू देखिकरि गौरव करें हैं विनयादिक नहीं करें हैं ते सम्यक्त्वकरि वर्जित हैं ।
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भावार्थ-जा रूपकू आणिमादिक ऋद्धिनिके धारी देवभी पगां पड़ें ताकू देखि मत्सरभावकरि नहीं वंदै हैं तिनिकै सम्यक्त्व काहेका ? ते सम्यक्त्व” रहितही हैं ॥२५॥
आगैं कहैं हैं जो असंयमी वंदवे योग्य नहीं हैं;गाथा-अस्संजदं ण वंदे वच्छविहीणोवि तो ण वंदिज्ज ।
दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि २६ छाया-असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्येत । द्वौ अपि भवतः समानौ एकः अपि न संयतः
भवति ॥२६॥ अर्थ-असंयमीकू नाही वंदिये बहुरि भावसंयम नहीं होय अर वाह्य वस्त्ररहित होय सो भी वंदिबे योग्य नाही जाते ये दोऊ ही संयमरहित समान हैं, इनिभै एकभी संयमी नाही ॥ __ भावार्थ-जो गृहस्थ भेष धाया है सो तौ असंयमी है ही, बहुरि जो बाह्य नग्नरूप धारण किया अर अंतरंग भावसंयम नाही हैं तो वह भी असंयमीही है, तातें ये दोऊही असंयमी है, तातैं दोऊ ही वंदवे योग्य नाहीं । इहां आशय ऐसा है जो ऐसै मति जानियो-जो आचार्य यथाजातरूपकू दर्शन कहते आ. हैं सो केवल नग्नरूपही यथाजातरूप होगा, जातें आचार्य तो बाह्य अभ्यंतर सर्व परिग्रहसूं रहित होय ताकू यथाजातरूप कहै हैं । अभ्यंतर भावसंयम विना बाह्य नग्न भये तो किछू संयमी होयह नांही ऐसैं जानानां । इहां कोई पूछे-बाह्य भेष शुद्ध होय आचार निर्दोष पालताकै अभ्यंतर भावमैं कपट होय ताका निश्चय कैसे होय, तथा सूक्ष्म भाव केवलीगम्यहैं, मिथ्यात्व होय ताका निश्चय कैसे होय, निश्चयविना वंदनेकी कहा रीति ? ताका समाधान
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ऐसा जो कपटका जेतें निश्चय नहीं होय तेते आचार शुद्ध देखि वंदै तामैं दोष नाही, अर कपटका कोई कारणनै निश्चय होजाय तब नहीं वंदै, बहुरि केवलीगम्य मिथ्यात्वकी व्यवहारमैं चर्चा नाही छद्मस्थके ज्ञान गम्यकी चर्चा है । जो अपने ज्ञानका विषयही नाही ताका वाध निर्वाध करनेका व्यवहार नाही सर्वज्ञ भगवानकी भी यह ही आज्ञाहै, व्यवहारी जीवकू व्यवहारकाही शरणहै ॥ २६ ॥
आज इसही अर्थकू दृढ़ करता संता कहैं हैं;गाथा—णवि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य
जाइसंजुत्तो। को वंदमि गुणहीणोण हु सवणो णेय सावओ होइ ॥२७॥ संस्कृत-नापि देहो वंद्यते नापि च कुलं नापिच जातिसंयुक्तः । ___ के वंद्यते गुणहीनः न खलु श्रमणः नैव श्रावकः भवति २७
अर्थ-देहकू भी नांही वंदियेहै बहुीर कुलकू भी नांही वंदियेहै बहुरि जातियुक्तकू भी नांही वंदियेहै जातें गुणरहित होय ताकू कौन वंदे गुण विना प्रकट मुनि नहीं श्रावक भी नाहीं है ॥ ___ भावार्थ-लोकमैं भी ऐसा न्याय है जो गुणहीन होय ताकू कोऊ श्रेष्ठ मानें नाहीं, देह रूपवान होय तो कहा, कुल बडा होय तौ कहा, जाति बड़ी होय तौ कहा, जातें मोक्षमार्गमैं तौ दर्शन ज्ञान चारित्र गुण हैं इनिविनां जाति कुल रूप आदिक वंदनीक नाही हैं, इनि तैं मुनिश्रावकपणां आवै नांही, मुनिश्रावकपणां तौ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तें होय है, तातै इनिके धारक हैं तेही वंदिवे योग्य हैं जाति कुल आदि वंदिवे योग्य नाही हैं ॥ २७ ।।
आगैं कहैं हैं जे तप आदिकरि संयुक्त हैं नितिकू वंदू हूं; १ 'कं वन्देगुणहोनं' षट्पाहुडमें ऐसी है।
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका।
गाथा-वंदमि तंवसावण्णा सीलं च गुणं च वंभचेरं च ।
सिद्धिगमणं च तेसिं संम्मत्तेण सुद्धभावेण ॥ २७ ॥ संस्कृत-वन्दे तपःश्रमणान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्य च।
___सिद्विगमनं च तेषां सम्यक्त्वेन शुद्धभावेन ॥२७॥ अर्थ-आचार्य कहैं हैं जो-जे तपकरि सहित श्रमणपणां धारै हैं तिनिकू तथा तिनिके शीलकू बहुरि तिनिके गुणकू बहुरि ब्रह्मचर्यकू मैं सम्यक्त्वसहित शुद्धभावकार वंदूंहूं जातै तिनिकै तिनि गुणनिकरि सम्यक्त्वसहित शुद्धभावकरि सिद्धि कहिये मोक्ष ता प्रति गमन होय है । ___ भावार्थ-पहलैं कह्या जो-देहादिक वंदिवे योग्य नाही, गुण वंदिवे योग्य हैं। अब इहां गुणसहितकू वंदना करी है तहां जे तप धारि गृहस्थपणां छोड़ि मुनि भये हैं तिनिकू तथा तिनिके शीलगुण ब्रह्मचर्य सम्यक्त्व सहित शुद्धभावकरि संयुक्त होय तिनिकू वंदना करी है। तहां शीलशब्दकरि तौ उत्तरगुण लेना, बहुरि गुणशब्दकरि मूलगुण लेने, बहुरि ब्रह्मचर्य शब्दकरि आत्मस्वरूपविर्षं लीनपणां लेनां ॥ २८॥ ___ आगैं कोई आशंका करै जो संयमी वंदने योग्य कह्या तौ समवसरणादि विभूति सहित तीर्थकर ते वंदिवे योग्य हैं कि नाही ताका समाधानकू गाथा कहैं हैं-जो तीर्थकर परमदेव हैं ते सम्यक्त्वसहित तपके माहात्म्यकरि तीर्थकर पदवी पाहैं सोभी बंदिबे योग्य हैं; गाथा-चउसहिचमरसहिओ चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो।
अणवरबहुसत्तहिओ कम्मक्खयकारणणिमित्तो ॥२९॥ १ 'तवसमण्णा, छाया-( तपःसमापन्नात् ) 'तवसउण्णा' 'तवसमाणं' येतीन पाठ मुद्रित पदप्राभृतकी पुस्तक तथा उसकी टिप्पणीमें हैं । २ 'सम्मत्तेणेव' ऐसा पाठ होनेसे पादभंग नहीं होता।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितसंस्कृत-चतुःषष्टिचमरसहितः चतुर्विंशद्भिरतिशयैः संयुक्तः।
अनवरतबहुसत्त्वहितः कर्मक्षयकारणनिमित्तः॥२९॥ ___ अर्थ-जो चौसठि चमरनिकरि सहित हैं, बहुरि चौंतीस अतिशयनिकरि सहित हैं, बहुरि निरन्तर बहुत प्राणीनिका हित जाकरि होय है, ऐसे उपदेशके दाताहैं बहुार कर्मका क्षयका कारण हैं ऐसे तीर्थकर परमदेव हैं ते वंदिवे योग्य हैं । __ भावार्थ-इहां चौसठि चमर चौतसि अतिशय सहित विशेषणनि कार तो तीर्थकरका-प्रभुत्व जनाया है, अर प्राणीनिका हित करनां अर कर्मका क्षयका कारण विशेषण" परका उपकारकरनहारापणां जनाया है, इनि दोऊही कारणनितै जगत मैं वंदवे पूजवे योग्य हैं । यातै ऐसा भ्रम नहीं करना जो तीर्थकर कैसैं पूज्य हैं, ये तीर्थकर सर्वज्ञ वीतराग हैं । तिनिकै समवसरणादिक विभूति रचि इन्द्रादिक भक्तजन महिमा करें हैं । इनिकै कळू प्रयोजन नाही है आप दिगंबरताकू धारें
अंतरीख तिष्ठं हैं, ऐसा जाननां ॥ २९॥ ___ आरौं मोक्ष काहे नैं होय है सो कहैं हैं;गाथा-णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण ।
चउहि पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिहो ॥३०॥ संस्कृतः--ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण संयमगुणेन ।
चतुर्णामपि समायोगे मोक्षः जिनशासने दृष्टः॥३०॥ अर्थ-ज्ञान करि दर्शनकार तपकरि अर चारित्रकरि इनि च्यारनिका समायोग होतें जो संयमगुण होय ताकरि जिनशासनवि मोक्ष होना कह्या है ॥ ३०॥
१ 'अणुचरबहुसत्तहिओ' (अनुचरबहुसत्वहितः) मुद्रित पदप्राभृतमें यह पाठ है । २ 'निमित्ते' मुद्रित षट्प्राभृतमें ऐसा पाठ है
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
आरौं इनि ज्ञान आदिकै उत्तरोत्तर सारपणां कहैं हैं;गाथा--णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं ।
सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ॥ ३१ ।। संस्कृत--ज्ञानं नरस्य सारः सारः अपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम्
सम्यक्त्वात् चरणं चरणात् भवति निर्वाणम् ॥३१॥ अर्थ-प्रथम तौ या पुरुष के ज्ञान सार है जाते ज्ञान सर्व हेय उपादेय जानें जाय हैं, बहुरि या पुरुषकै सम्यक्त्व निश्चय करि सार है जाते सम्यक्त्व विना ज्ञान मिथ्या नाम पावै है, सम्यक्त्वनै चारित्र होय है जातै सम्यक्त्व विना चारित्र भी मिथ्याही है, बहुरि चारित्र तैं निवाण होय है ॥ ___ भावार्थ-चारित्र नैं निर्वाण होय है अर चारित्र ज्ञानपूर्वक सत्यार्थ होय है अर ज्ञान सम्यक्त्वपूर्वक सत्यार्थ होय है ऐसे विचार किये सम्यक्त्व कै सारपणां आया । यातैं पहलै तौ सम्यक्त्व सारहै पीॐ ज्ञान चारित्र सार हैं । पहलें ज्ञान पदार्थनिळू जानिये हैं या पहलें ज्ञान सार है तौऊ सम्यक्त्व विना ताकाभी सारपणां नाही, ऐसा जाननां ॥३२॥ __ आगैं इसही अर्थकू दृढ़ करैं हैं; -- गाथा—णाणम्मि दंसणम्मि य तवेग चरिएण सम्मसहिएण।
चोण्हं पि समाजोगे सिद्धाजीवाण सन्देहो ॥३२॥ संस्कृत-ज्ञाने दर्शनेच तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन ।
चतुर्णामपि समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः ॥३१॥ · अर्थ-ज्ञान होते दर्शन होतें सम्यक्त्वसहित तपकरि चारित्र कार इनि च्यारनिका समायोग होते जीव सिद्ध भये हैं, यामैं संदेह नाही है ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ- पूर्वै जे सिद्ध भये हैं ते सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप इनि च्यारनिके संयोगहीतें भये हैं यह जिनवचन है, या मैं संदेह नांही ॥ ३२ ॥
आगैं हैं हैं जो लोक विषै सम्यग्दर्शनरूप रत्न अमोलक है जो देव दानवनिकरि पूज्य है; -
गाथा -कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं । सम्मर्द्दसणरयणं अग्वेदि सुरासुरे लोए ॥ ३३ ॥ संस्कृत - कल्याणपरंपरया लभते जीवाः विशुद्धसम्यक्त्वम् । सम्यग्दर्शन रत्नं अर्ध्यते सुरासुरे लोके ॥ ३३ ॥
अर्थ — जीव हैं ते विशुद्ध सम्यक्त्व है ताहि कल्याणकी परंपरा सहित पार्श्वे हैं तातैं सम्यग्दर्शन रत्न है सो इस सुर असुरनि करि भन्या लोकविषै पूज्य है ॥
भावार्थ - विशुद्ध कहिये पच्चीस मलदोषनिकरि रहित निरतिचार सम्यक्त्वतैं कल्याणकी परंपरा कहिये तीर्थकर पदवी पावै है सो यातैं यह सम्यक्त्व रत्न सर्व लोक देव दानव मनुष्यनिकरि पूज्य होय है । तीर्थंकर प्रकृतिके बंधके कारण सोलह कारण भावना कही हैं तिर्निमैं पहले दर्शनविशुद्धि है सो ही प्रधान है, ये ही विनयादिक पंदरह भावनानिका कारण है, यातैं सम्यग्दर्शनकै ही प्रधानपणां है ॥ ३३ ॥
आगें कहैं हैं जो उत्तमगोत्र सहित मनुष्यपणांकूं पाय सम्यक्त्व पाय मोक्ष पावै है यह सम्यक्त्वका माहात्म्य है;
गाथा - लङ्गूणय मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गुत्तेण ।
४०
लक्षूण य सम्मत्तं अंक्खयसुक्खं च मोक्खं च ॥ ३४ ॥
१ 'द' मुद्रित प्रतिमें ऐसा पाठ है ।
२ 'अक्खयसोक्खं लहदि मोक्खं च मुद्रितप्रतिकी टिपण्णीमें ऐसा पाठ भी है।
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
४१
संस्कृत-लब्ध्वा च मनुजत्त्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण ।
लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षयसुखं च मोक्षं च ॥३४॥ अर्थ-उत्तमगोत्र सहित मनुष्यपणां प्रत्यक्ष पाय करि अर तहां सम्यक्त्व पाय करि अविनाशी सुखरूप केवलज्ञान पावें हैं, बहुरि तिस सुखसहित मोक्ष पावैं हैं ।
भावार्थ-यह सर्व सम्यक्त्वका माहात्म्य है ॥ ३४ ॥
आरौं प्रश्न उपजै हैं जो सम्यक्त्वके प्रभावतैं मोक्ष पावैं हैं सो तत्काल ही पावें हैं कि किछू अवस्थान भी हैं हैं ? ताके समाधानरूप गाथा कहैं हैं;गाथा-विहरदि जाव जिणिंदो सहसहसुलक्खणेहिं संजुत्तो।
चउतीसअइसयजुदो सा पडिमाथावरा भणिया ॥३५॥ संस्कृत-विहरति यावत् जिनेंद्रः सहस्त्राष्टसुलक्षणैः संयुक्तः ।
चतुस्त्रिंशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा भणिता।३५ अर्थ- केवलज्ञान भये पीछे जिनेन्द्र भगवान जेसे इस लोकमैं आर्यखंडमैं विहार करें तेरौं तिनिकी सो प्रतिमा कहिये शरीर सहित प्रतिबिंब तिसकू 'थावर प्रतिमा' ऐसा नाम कहिये। सो कैसे हैं जिनेन्द्र एकहजार आठ लक्षणनि करि संयुक्त है। तहां श्रीवृक्ष कू आदि लेय एकसौ आठतो लक्षण होयहैं । बहुरि तिल मुसकू आदिलेय नवसै व्यंजन होयहैं । बहुरि चौतास अतिशयमैं दश तौ जन्मतें ही लिये उपजैहैं;-निस्वेदता १ निर्मलता २ श्वेतरुधिरता ३ समचतुरस्र सस्थान ४ वज्रवृषभ नाराच संहनन ५ सुरूपता ६ सुगंधता ७ सुलक्षणता ८ अतुलवीर्य ९ हितमित वचन १० ऐसैं दश । बहुरि घातिया कर्म क्षय भये दश होय ;- शतयोजन सुभिक्षता १ आकाशगमन २ प्राणि.
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
वधको अभाव ३ कवलाहारको अभाव ४ उपसर्गको अभाव ५ चतुमुखपणौं ६ सर्व विद्याप्रभुत्व ७ छायारहितत्व ८ लोचननिस्पंदनरहितत्व ९ केश नखवृद्धिरहितत्व १० ऐसैं दश । बहुरि देवनिकरि भये चौदह;सकलार्द्धमागधी भाषा १ सर्वजीव मैत्रीभाव २ सर्वऋतुफलपुष्पप्रादुर्भाव ३ आदर्शसदृश पृथ्वी होय ४ मंद सुगंध पवन चलै ५ सर्व लोकमैं आनंद वत्तै ६ भूमिकंटकादिरहित होय ७ देव गंधोदक वृष्टि करै ८ विहार होय तब पदकमल तलैं देव सुवर्णमयी कमल रचे ९ भूमि धान्यनिष्पत्तिसहित होय १० दिशा आकाश निर्मल होय ११ देवनिका आह्वानन शब्द होय १२ धर्म चक्र आणें चलै १३ अष्ट मंगल द्रव्य होय १४ ऐसैं चौदह । सर्व मिलि चौतीस भये । बहुरि अष्ट प्रातिहार्य होय, तिनिके नाम;-अशोकवृक्ष १ पुष्पवृष्टि २ दिव्यध्वनि ३ चामर ४ सिंहासन ५ छत्र ६ भामंडल ७ दुंदुभिवादित्र ८ ऐसैं आठ । ऐसे अतिशयनिसहित अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुख अनंतवीर्य सहित. तीर्थकर परमदेव जेते जीवनिके संबोधन निमित्त विहार करते विराज तेरौं स्थावर प्रतिमा कहिये । ऐसें स्थावर प्रतिमा कहने” तीर्थकरकै केवलज्ञान भये पीछे अवस्थान जनाया है । अर धातु पाषाणकी प्रतिमा रचि स्थापिये है सो याका व्यवहार है ॥ ३५॥ __ आरौं कर्म नाश करि मोक्ष प्राप्त होय हैं ऐसैं कहै हैं;गाथा-वारसविहतवजुत्ता कम्मं खविऊण विहिवलेण स्सं ।
वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ॥३६॥ संस्कृत-द्वादशविधतपोयुक्ताः कर्म क्षपयित्वा विधिबलेण
स्वीयम् । व्युत्सर्गत्यक्तदेहा निर्वाणमनुत्तरं प्राप्ताः ॥३६॥
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अष्टपाहुडभाषा वचनिका।
४३. __ अर्थ-जे बारह प्रकार तप करि संयुक्त भये संते विधिके बल करि अपने कर्म• क्षिपाय करि 'वोसट्टचत्तदेहा' कहिये न्यारा करि. छोड्या है देह ज्यां ऐसे भये ते अनुत्तर कहिये जाते परै अन्य अवस्था नांही ऐसी निर्वाण अवस्थाकू प्राप्त होय हैं ।
भावार्थ-जे तपकरि केवलज्ञान उपाय जेरौं विहार करें तेरौं अव-. स्थान रहैं पीछै द्रव्य क्षेत्रकाल भावकी सामग्रीरूप विधिके बलकरि कर्म क्षिपाय व्युत्सर्गकरि देहकू छोड़ि निर्वाणकू प्राप्त होय हैं । इहां आशय ऐसा जो निर्वाणकू प्राप्त होय तब लोककै शिखर जाय तिष्ठै है तहां गमनविर्षे एक समय लागै तिस काल जंगम प्रतिमा कहिये । ऐसैं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकरि मोक्षकी प्राप्ति होय है तहां सम्यग्दर्शन प्रधान है। इस पाहुडमैं सम्यग्दर्शनका प्रधानपणांका व्याख्यान किया ॥३६॥
सवैया छंद। मोक्ष उपाय कह्यो जिनराज जु सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रा। तामधि सम्यग्दर्शन मुख्य भये निज बोध फलै सुचरित्रा।
जे नर आगम जानि करै पहचानि यथावत मित्रा । घाति क्षिपाय रु केवल पाय अघाति हने लहि मोक्ष पवित्रा ॥१॥
दोहा। नमूं देव गुरु धर्मकू जिन आगमकू मानि ।
जा प्रसाद पायो अमल सम्यग्दर्शन जानि ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित अष्टप्राभृतमें प्रथम दर्शनप्राभृत. और तिसकी जयचन्द्र छावड़ाकृतदेशभाषामयवचनिका
समाप्त ॥१॥
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श्रीः
अथ सूत्रपाहुड ।
(२)
(दोहा) वीर जिनेश्वर नमू गौतम गणधर लार ।
काल पंचमा आदिमैं भए सूत्रकरतार ॥१॥ ऐसें मंगलकरि श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकृत प्राकृत गाथा वंध सूत्रपाहुड है ताकी देशभाषामय वचनिका लिखिए है;
तहां प्रथमही श्रीकुन्दकुन्द आचार्य सूत्रकी महिमागर्भित सूत्रका स्वरूप जनाएँ हैं;गाथा-अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं ।
सुत्तत्थमगाणत्थं सवणा साहंति परमत्थं ॥ १॥ संस्कृत-अर्हद्भाषितार्थ गणधरदेवैः ग्रथितं सम्यक् ।
सूत्रार्थमार्गणार्थ श्रमणाः साधयंति परमार्थम् ॥१॥ अर्थ-जो गणधर देवनि- सम्यक् प्रकार पूर्वापरविरोधरहित गूंथ्या रच्या जो सूत्र है, सो कैसाक है सूत्र-सूत्रका जो किछू अर्थ है ताका मार्गण कहिये हेरनां जाननां सो है प्रयोजन जामैं, ऐसे सूत्र करि श्रमण कहिये मुनि हैं ते परमार्थं कहिये उत्कृष्ट अर्थ प्रयोजन जो
१ मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें दूसरा चारित्रपाहुड है।
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अष्टपाहुडमें पाहुडकी भाषावचनिका । ४५ अविनाशी मोक्ष ताहि साधै है । इहां गाथामैं सूत्र ऐसा विशेष्य पदन कह्या तौऊ विशेषणनिकी सामर्थ्यतें लिया है। ___ भावार्थ-जो अरहंत सर्वज्ञ करि भाषित है अर गणधर देवनिकार अक्षर पद वाक्यमयी गूंथ्या है अर सूत्रके अर्थका जाननेकाही है अर्थ प्रयोजन जामैं ऐसा सूत्र करि मुनि परमार्थ जो मोक्ष ताहि साधै है । अन्य जे अक्षपाद जैमिनि कपिल सुगत आदि छद्मस्थनिकरि रचे कल्पित सूत्र हैं तिनिकरि परमार्थकी सिद्धि नांही है, ऐसा आशय जाननां ॥१॥ ___ आनें कहै है जो ऐसा सूत्रका अर्थ आचार्यनिकी परंपरा करि वत्त तिसकू जानि मोक्षमार्ग• साधै है सो भव्य है;गाथा-सुत्तम्मि जं सुदि आइरियपरंपरेण मग्गेण ।
___णाऊण दुविह सुत्तं वट्टइ सिवमग्ग जो भव्वो ॥२॥ संस्कृत-सूत्रे यत् सुदृष्टं आचार्यपरंपरेण मार्गेण ।
ज्ञात्वा द्विविधं सूत्रं वर्तते शिवमार्गे यः भव्यः॥२॥ __ अर्थ-जो सर्वज्ञभाषित सूत्रविषै जो किछू भलै प्रकार कह्या है. ताकू आचार्यनिकी परंपरारूप मार्ग करि दोय प्रकार सूत्रकू शब्द थकी अर्थ थकी जानि अर मोक्षमार्गविर्षे प्रवत्तै है सो भव्यजीव है मोक्ष. पावने योग्य है। ___ भावार्थ--इहां कोई कहै-अरहंतका भाष्या अर गणधर देवनिका गूंथ्या सूत्र तौ द्वादशांगरूप हैं ते तौ अवार कालमैं दीखें नाही तब परमार्थरूप मोक्षमार्ग कैसैं सधै, ताका समाधानकू यह गाथा हैजो अरहंतभाषित गणधर गूंथित सूत्रमैं जो उपदेश है तिसकू आचार्यनिकी परंपराकरि जानिये है, तिसकू शब्द अर्थ करि जानि जो मोक्षमार्ग
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
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साधै है सो मोक्ष होने योग्य भव्य है । इहां फेरि कोऊ पूछै—जो आचार्यनिकी परंपरा कहा ? तहां अन्य ग्रंथनिमैं आचार्यनिकी परंपरा कही है, सो ऐसैं है;__ श्रीवर्द्धमान तीर्थकर सर्वज्ञ देव पीछे तीन तौ केवलज्ञानी भये; गौतम १ सुधर्म २ जंबू ३ । बहुरि तापी0 पांच श्रुतकेवली भये तिनिकू द्वादशांग सूत्रका ज्ञान भया,-विष्णु १ नंदिमित्र २ अपराजित ३ गोवर्द्धन ४ भद्रबाहु ५ । तिनिपीछे दश पूर्वनिके पाठी ग्यारह भये; विशाख १ प्रौष्ठिल २ क्षत्रिय ३ जयसेन ४ नागसेन ५ सिद्धार्थ ६ धृतिषेण ७ विजय ८ बुद्धिल ९ गंगदेव १० धर्मसेन ११ । तिनि पीठे पांच ग्यारह अंगनिके धारक भये; नक्षत्र १ जयपाल २ पांडु ३ ध्रुवसेन ४ कंस ५ । बहुरि तिनि पीछे एक अंगके धारक च्यार भये; सुभद्र १ यशोभद्र २ भद्रबाहु ३ लोहाचार्य ४ । इनि पीछे एक अंगके पूर्ण ज्ञानीकी तौ व्युच्छित्ति भई अर अंगका एकदेश अर्थके ज्ञानी आचार्य भये तिनिमैं केतेकनिके नाम;-अर्हद्वलि, माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत, भूतवलि, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, नेमिचन्द्र इत्यादि । बहुरि तिनि पीछे तिनिकी परिपाटीमैं आचार्य भये तिनि” अर्थका व्युच्छेद नहीं भया, ऐसे दिगंबरनिके संप्रदायमैं प्ररूपणा यथार्थ है । बहुरि अन्य श्वेताम्बरादिक वर्द्धमानस्वामी” परंपरा मिलावै है सो कल्पित है जातें भद्रबाहु स्वामी पीछे केई मुनिकालमैं भ्रष्ट भये ते अर्द्धफालक कहाये तिनिकी संप्रदायमैं श्वेताम्बर भये, तिनिमैं देवगणनामा साधु तिनिकी संप्रदायम भया है तानैं सूत्र रचे हैं सो तिनिमें शिथिलाचार पोषनेकुं कल्पित कथा तथा कल्पित आचरणकी कथनी करी है सो प्रमाणभूत नाहीं है। पंचमकालमैं जैनाभासनिकै शिथिलाचारकी बाहुल्यता है सो
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
युक्त है इस काल में सांचा मोक्षमार्गकी विरलता है तातें शिथिलाचारीनिकै सांचा मोक्षमार्ग कहां तै होय ऐसा जाननां ।
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अब इहां कछूक द्वादशांगसूत्र तथा अंगवाह्यश्रुतका वर्णन लिखिये है;—तहां तीर्थकरके मुखतैं उपजी जो सर्व भाषामय दिव्यध्वनि तांकूं सुनकर च्यार ज्ञान सप्तऋद्धिके घारक गणघर देवनि अक्षर पदमय सूत्ररचना करी । तहां सूत्रदोय प्रकार है; - एक अंग दूसरा अंगवाद्य । तिनके अपुनरुक्त अक्षरनिकी संख्या वीस अंकनि प्रमाण है ते अंक एक घाटि इकट्ठी प्रमाण हैं । ते अंक - १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ एते अक्षर हैं । तिनिके पद करिये तब एक मध्यपदके अक्षर सौलास चौतीस कोडि तियासीलाख सात हजार आठसै अठ्यासी कहे हैं तिनिका भाग दिये एकसौ वारह कोडि तियासीलाख अठावन हजार पांच इतनें पावैं येते पदहैं ते तौ बारह अंगरूप सूत्रके पद हैं। अर अवशेष वीस अंकनिमैं अक्षर रहे ते अंगवाह्य सूत्र कहिये, ते आठ कोडि एक लाख आठ हजार एकसौ पिचहत्तर अक्षर हैं तिनि अक्षरनिमैं चौदह प्रकीर्णकरूप सूत्ररचना है ।
अब इन द्वादशांगरूप सूत्ररचनाके नाम अर पद संख्या लिखिए है; - तहां प्रथम अंग आचारांग है तामैं मुनीश्वर निके आचारका निरूपण है ताके पद अठारह हजार हैं । बहुरि दूसरा सूत्रकृत अंग है ताविषै ज्ञानका विनय आदिक अथवा धर्मक्रिया मैं स्वमत परमतकी क्रियाका विशेषका निरूपण है याके पद छत्तीस हजार हैं । बहुरि तीसरा स्थान अंग है ताविषै पदार्थनिका एक आदि स्थाननिका निरूपण है जैसे जीव सामान्य करि एकप्रकार विशेषकरि दोय प्रकार तीन प्रकार इत्यादि ऐसैं स्थान कहे हैं याके पद वियालीस हजार हैं । बहुरि चौथा सममाय अंग है याविषै जीवादिक छह द्रव्यनिका द्रव्य क्षेत्र
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४८
पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
कालादि करि वर्णन है याके पद एक लाख चौसठि हजार हैं । पांचमां व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है याविषै जीवके अस्ति नास्ति आदिक साठि हजार प्रश्न गणाधरदेव तीर्थकरकै निकट किये तिनिका वर्णन है पाके पद दोय लाख अठाईस हजार हैं । बहुरि छठा ज्ञातृधर्मकथा नामा अंग है यामैं तीर्थकरनिके धर्मकी कथा जीवादिक पदार्थनिका स्वभावका वर्णन तथा गणधरके प्रश्ननिका उत्तरका वर्णन है याके पद पांच लाख छप्पन हजार हैं। बहुरि सातवां उपासकाध्ययननाम अंग है याविषै ग्यारह प्रतिमा आदि श्रावकका आचारका वर्णन है याके पद ग्यारह लाख सत्तर हजार हैं। बहुरि आठमां अंतकृतदशांगनामा अंग है याविषं एक एक तीर्थकरकै वा दशदश अंतकृत केवली भये तिनिका वर्णन है याके पद तेईस लाख अठाईस हजार हैं । बहुरि नवमां अनुत्तरोपपादकनामा अंग है याविर्षे एक एक तीर्थकरकै वारै दशदश महामुनि घोर उपसर्ग सहि अनुत्तर विमाननिमैं उपजे तिनिका वर्णन है याके पद बाणवै लाख चवालीस हजार हैं । बहुरि दशमां प्रश्न व्याकरणनाम अंग है याविर्षे अतीत अनागत कालसंबंधी शुभाशुभका प्रश्न कोई करै ताका उत्तर यथार्थ कहनेका उपायका वर्णन है तथा आक्षेपणी विक्षेपणी संवेदनी निर्वेदनी इनि च्यार कथानिका भी या अंगमैं वर्णन है याके पद तिराण3 लाख सोलह हजार हैं । बहुरि ग्यारमां विपाकसूत्र नामा अंग है याविर्षे कर्मका उदयका तीव्र मंद अनुभागका द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा लिये वर्णन है याके पद एक कोडि चौरासी लाख हैं । ऐसैं ग्यारह अंग हैं तिनिके पदनिकी संख्याका जोड़ दिये च्यार कोडि पंदरह लाख दोय हजार पद होय हैं । बहुरि बारमां दृष्टिवादनामा अंग है ताविर्षे मिथ्यादर्शनसंबंधी तीनसै तरेसठि कुवाद हैं तिनिका वर्णन है
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका। ४९ याके पद एक सौ आठ कोडि अडसठि लाख छप्पनहजार पांच पद हैं। या बारमा अंगका पांच अधिकार हैं;-परिकर्म १ सूत्र २ प्रथमानुयोग ३ पूर्वगत ४ चूलिका ५ ऐसैं । तहां परिकर्मवि गणितके करण सूत्र हैं ताके पांच भेद हैं;-तहां चन्द्रप्रज्ञप्ति प्रथम है तामैं चन्द्रमाका गमनादिक परिवार वृद्धि हानि ग्रह आदिका वर्णन है याके पद छत्तीस लाख पांच हजार हैं । बहुरि दूजा सूर्यप्रज्ञप्ति है यामैं सूर्यकी ऋद्धि परिवार गमन आदिका वर्णन है याके पद पांच लाख तीन हजार हैं। बहुरि तीजा जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति है यामैं जंबूद्वीपसंबंधी मेरु गिरि क्षेत्र कुलाचल आदिका वर्णन है याकै पद तीन लाख पचीस हजार है । बहुरि चौथा द्वीपसागरप्रज्ञप्ति है यामैं द्वीपसागरका स्वरूप तथा तहां तिष्ठे ज्योतिषी व्यंतर भवनवासी देवनिके आवास तथा तहां तिष्ठै जिनमंदिरनिका वर्णन है याके पद बावन लाख छत्तीस हजार हैं । बहुरि पांचमां व्याख्याप्रज्ञप्ति है याविषै जीव अजीव पदार्थनिका प्रमाणका वर्णन है याके पद चौरासी लाख छत्तीस हजार हैं। ऐसैं परिकर्मके पांच भेदनिके पद जोड़े एक कोडि इक्यासी लाख पांच हजार हैं। बहुरि बारमा अंगका दूजा भेद सूत्र नाम है ताविर्षे मिथ्यादर्शनसंबंधी तीनसै तरेसठि कुवाद हैं तिनिकी पूर्वपक्ष लेकरि तिनिका जीव पदार्थपरि लगावनां आदि वर्णन है याके भेद अठ्यासी लाख हैं । बहुरि बारमां अंगका तीजा भेद प्रथमानुयोग है या विर्षे प्रथम जीवकू उपदेशयोग्य तीर्थकर आदि तरेसठि शलाका पुरुषनिका वर्णन है याके पद पांच हजार हैं । बहुरि बारमां अंगका चौथा भेद पूर्वगत है, ताके चौदह भेद हैं तहां प्रथम उत्पाद नामा है ताविर्षे जीव आदि वस्तुनिकै उत्पाद व्यय ध्रौव्य आदि अनेक धर्मनिकी अपेक्षा भेद वर्णन है याके पद एक कोडि हैं । बहुरि दूजा अग्रायणीनाम पूर्व है याविर्षे सातसै सुनय दुर्नयका अर षद्रव्य
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५० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितसप्त तत्व नव पदार्थनिका वर्णन है याके छिनवै लाख पद हैं । बहुरि तीजा वीर्यानुवादनाम पूर्व है याविर्षे षट्र द्रव्यनिकी शक्तिरूप वीर्यका वर्णन है याके पद सत्तीर लाख हैं । बहुरि चौथा अस्तिनास्ति प्रवादनामा पूर्व है या विर्षे जीवादिक वस्तुका स्वरूप द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा अस्ति पररूप द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा नास्ति आदि अनेक धर्मनिवि विधि निषेध करि सप्तभंगकरि कथंचित् विरोध मेटनें रूप मुख्य गौण करि वर्णन है याके पद साठि लाख हैं । बहुरि ज्ञानप्रवादनामा पांचमां पूर्व है यामैं ज्ञानके भेदनिका स्वरूप संख्या विषय फल आदिका वर्णन है याके पद एक घाटि कोडि हैं । बहुरि छठा सत्यप्रवादनामा पूर्व है या विर्षे सत्य असत्य आदिक वचननिकी अनेक प्रकार प्रवृत्ति है ताका वर्णन है याके पद एक कोडि छह हैं । बहुरि सातमां आत्मप्रवादनामा पूर्व है याविर्षे आत्मा जो जीव पदार्थ है ताका कर्ता भोक्ता आदि अनेक धर्मनिका निश्चय व्यवहार नय अपेक्षा वर्णन है याके पद छव्वीस कोडि हैं । बहुरि कर्मप्रवाद नामा आठमा पूर्व है याविर्षे ज्ञानावरण आदि आठ कर्मनिका बंध सत्व उदय उदीरणपणा आदिका तथा क्रियारूप कर्मनिका वर्णन है याके पद एक कोडि अस्सी लाख हैं। बहुरि प्रत्याख्याननामा नवमां पूर्व है यामैं पापके त्यागका अनेक प्रकार करि वर्णन है याके पद चौरासी लाख हैं। बहुरि दशमां विद्यानुवादनामा पूर्व है यामैं सातसै क्षुद्रविद्या अर पांचसै महाविद्या इनिका स्वरूप साधन मंत्रादिक अर सिद्ध भये इनिका फलका वर्णन है तथा अष्टांग निमित्त ज्ञानका वर्णन है याके पदः एक कोडि दश लाख हैं बहुरि कल्याणवादनामा ग्यारवां पूर्व है यामैं तीर्थकर चक्रवर्ती आदिके गर्भ आदिकल्याणका उत्सव तथा तिसके कारण षोडश भावनादिके तपश्चरणादिक तथा चन्द्रमा सूर्या
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
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५१ दिकके गमनविशेष आदिकका वर्णन है याके पद छबीस कोडि हैं बहुरि प्राणवादनामा बारमां पूर्व है यामैं आठ प्रकार वैद्यक तथा भूतादिक व्याधि दूर करनेके मंत्रादिक तथा विष दूर करनेके उपाय तथा स्वरोदय आदिका वर्णन है याके तेरह कोडि पद हैं । बहुरि क्रियाविशालनामा तेरमां पूर्व है या मैं संगीतशास्त्र छंद अलंकारादिक तथा चौसठि कला, गर्भाधानादि चौरासी क्रिया, सम्यग्दर्शन आदि एकसौ आठ क्रिया, देववंदनादि पच्चीस क्रिया, नित्य नैमित्तिक क्रिया इत्यादिका वर्णन है, याके पाद नव कोडि हैं । चौदमां त्रिलोकविंदुसार नामा पूर्व है या विषै तीन लोकका स्वरूप अर बीजगणितका स्वरूप तथा मोक्षका स्वरूप तथा मोक्षकी कारणभूत क्रियाका स्वरूप इत्यादिका वर्णन है याके पाद बारह कोडि पचास लाख हैं । ऐसें चौदह पूर्व हैं, इनके सर्व पदनिका जोड़ पिच्याणकै कोडि पचास लाख है । बहुरि बारमां अंगका पांचमां भेद चूळिका है ताके पांच भेद हैं तिनिके पद दोय कोडि नव लाख निवासी हजार दोयसै हैं । तहां जलगता चूलिका मैं जलका स्तंभन करनां जलमैं गमन करना । अग्निगता चूलि - कामैं अग्निस्तंभन करनां अग्निमैं प्रवेश करनां अग्निका भक्षण करनां इत्यादिके कारणभूत मंत्र तंत्रादिकका प्ररूपण है, याके पद दोय कोडि नवलाख निवासी हजार दोयसैं हैं । एते एते ही पद अन्य च्यार चूलि - काके जाननें । बहुरि दूजी स्थलगता चूलिका है यात्रि मेरुपति भूमि इत्यादि विषै प्रवेश करनां शीघ्र गमन करनां इत्यादि क्रिया के कारण मंत्र तंत्र तपश्चरणादिकका प्ररूपण है । बहुरि तीजी मायागता चूलिका है ता मैं मायामयी इंद्रजाल विक्रियाके कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरणादिका प्ररूपण है । बहुरि चौथी रूपगता चूलिका है या मैं सिंह हाथी घोडा बैल हरिण इत्यादि अनेकप्रकार रूप पलटि लेनां ताके कारणभूत मंत्र
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
तंत्र तपश्चरण आदिका प्ररूपणा है, तथा चित्राम काष्ठलेपादिकका लक्षण वर्णन है तथा धातु रसायनका निरूपण है । बहुरि पांचमी आकाशगता चूलिका है यामैं आकाशविर्षे गमनादिकके कारणभूत मंत्र यंत्र तंत्रादिकका प्ररूपण है। ऐसैं बारमां अंग है। या प्रकार तौ बारह अंग सूत्र हैं। __ बहुरि अंगबाह्य श्रुतके चौदह प्रकीर्णक हैं । तिनिमैं प्रथम प्रकीर्णक सामायिक नामा है, ताविर्षे नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव भेदकरि छह प्रकार इत्यादिक सामायिकका विशेषकरि वर्णन है । बहुरि दूजा चतुर्विशतिस्तव नाम प्रकीर्णक है ताविर्षे चौवीस तीर्थकरनिकी महिमाका वर्णन है । बहुरि तीजा वंदनानाम प्रकीर्णक है तामैं एक तीर्थकरकै आश्रय वंदना स्तुतिका वर्णन है । बहुरि चौथा प्रतिक्रमणनामा प्रकीर्णक हैं तामें सात प्रकारके प्रतिक्रमणका वर्णन है। बहुरि पांचमां वैनयिकनाम प्रकीर्णक है तामैं पंच प्रकारके विनयका वर्णन है। बहुरि छठा कृतिकर्मनामा प्रकीर्णक है तामैं अरहंत आदिककी वंदनाकी क्रियाका वर्णन है। बहुरि सातमा दशवैकालिकनामा प्रकीर्णक है तिसविर्षे मुनिका आचार आहारकी शुद्धता आदिका वर्णन है । बहुरि आठमां उत्तराध्ययननामा प्रकीर्णक है ताविर्षे परीषह उपसर्गका सहनेका विधान वर्णन है । बहुरि नवमां कल्पव्यवहार नामा प्रकीर्णक है तामैं मुनिके योग्य आचरण अर अयोग्य सेवनके प्रायश्चित तिनिका वर्णन है। बहुरि दशमां कल्पाकल्प नाम प्रकीर्णक है ताविषै मुनिकू यह योग्य है यह अयोग्य है ऐसा द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा वर्णन है । बहुरि ग्यारमां महाकल्पनामा प्रकीर्णक है तामैं जिनकल्पी मुनिकै प्रतिमायोग त्रिकालयोगका प्ररूपण. है तथा स्थविरकल्पी मुनिनिकी प्रवृत्तिका वर्णन है । बहुरि बारमा
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
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पुंडरीकनाम प्रकीर्णक है ताविषै च्यार प्रकारके देवनिविषै उपजनेके कारणनिका वर्णन है । बहुरि तेरमां महापुंडरीकनाम प्रकीर्णक है ताविषै इन्द्रादिकवडी ऋद्धिके धारक देवनिके उपजने के कारणनिका प्ररूपण है ! बहुरि चौदमां निषिद्धिकानामा प्रकीर्णक है ताविषै अनेक प्रकार दोष की शुद्धतानिमित्त प्रायश्चित्तानिका प्ररूपण है, यह प्रायश्चित्त शास्त्र है, याका निसितिका ऐसा भी नाम है । ऐसें अंगवाह्य श्रुत चौदह प्रकार है ।
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बहुरि पूर्वनिकी उत्पत्ति पर्यायसमास ज्ञानतैं लगाय पूर्वज्ञानपर्यन्त वीस भेद हैं तिनिका विशेष वर्णन है सो श्रुतज्ञानका वर्णन गोमट्टसार नाम ग्रंथ मैं विस्तार करि है तहांतैं जाननां ॥ २ ॥
आगे कहैं हैं जो सूत्रविषै प्रवीण है सो संसारका नाश करै है; - गाथा - सुत्तम्मि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि । सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि ॥ ३॥ संस्कृत - सूत्रे ज्ञायमानः भवस्य भवनाशनं च सः करोति । सूची यथा असूत्रा नश्यति सूत्रेण सह नापि ॥ ३ ॥
अर्थ — जो पुरुष सूत्रविषै जाणमान है प्रवीण है सो संसार के उपजनें का नाश करे है बहुरि जैसैं लोहकी सूई है सो सूत्र कहिये डोरा तिस विना होय तौ नष्ट होजाय अर डोरासहित होय तौ नष्ट नहीं हो यह दृष्टांत है ॥
भावार्थ — सूत्रका ज्ञाता होय सो संसारका नाश करे है बहुरि ऐसें है -- जो सूई डोरासहित होय तौ दृष्टिगोचर होय पावै कदाचित् ही नष्ट नहीं हो अर डोरा विना होय तौ दीखै नांही नष्ट होय जाय तैसें जाननां ॥ ३ ॥
१ 'सुत्तंहि' । ? 'सूत्रंहि, ' षट्पाहुडमें ऐसा पाठ है ।
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५४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित__ आगैं सूईके दृष्टान्तका दार्टान्त कहैं हैं;गाथा-पुरिसो विजो ससुत्तोण विणासइ सो गओ वि संसारे ।
सच्चेयणपञ्चक्खं णासदितं सो अदिस्समाणो वि ॥४॥ संस्कृत-पुरुषोऽपि यः ससूत्रःन विनश्यति स गतोऽपि संसारे
सच्चेतनप्रत्यक्षेण नाशयति तं सः अदृश्यमानोऽपि॥४॥ अर्थ—जैसैं सूत्रसहित सूई नष्ट नहीं होय तैसैं सो पुरुष भी संसारमैं गत होय रह्या है अपना रूप आपके दृष्टिगोचर नाही है तौऊ सूत्रसहित होय सूत्रका ज्ञाता होय तो ताकै आत्मा सत्तारूप चैतन्य चमत्कारमयी स्वसंवेदनकरि प्रत्यक्ष अनुभवमैं आवै है यारौं गत नाही है नष्ट नहीं भया है, सो जिस संसारमैं गत है तिस संसारका नाश करै है।
भावार्थ- यद्यपि आत्मा इन्द्रियगोचर नाही हे तौऊ सूत्रके ज्ञाताकै स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करि अनुभव गोचर है सो सूत्रका ज्ञाता संसारका नाश करै है आप प्रकट होय है याः सूईका दृष्टांत युक्त है ॥ ४ ॥ ___ आरौं सूत्रमैं अर्थ कहा है सो कहैं हैं,गाथों-सूत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं ।
हेयाहेयं चःतहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्टी ॥ ५ ॥ संस्कृत-सूत्रार्थ जिनभणितं जीवाजीवादिबहुविधमर्थम् ।
हेयाहेयं च तथा यो जानति स हि सदृष्टिः ॥५॥ अर्थ-सूत्रका अर्थ है सो जिन सर्वज्ञ देव करि कह्या है बहुरि सूत्रविधैं अर्थ है सो जीव अजीव आदि बहुत प्रकार है तथा हेय कहिये त्यागने योग्य पुद्गलादिक अर अहेय कहिये त्यागने योग्य नाही ऐसा आत्मा सो याकू जानैं सो प्रगट सम्यग्दृष्टी है ।
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका।
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___ भावार्थ-सर्वज्ञके भाषे सूत्र विर्षे जीवादिक नव पदार्थ अर इनिमैं हेय उपादेय ऐसैं बहुत प्रकार करि व्याख्यान है ताकू जानैं सो श्रद्धानवान सम्यग्दृष्टी होय है ॥ ५॥
आगैं कहै हैं जो जिनभाषित सूत्र है सो व्यवहार परमार्थरूप दोय प्रकार है ताकू जानि योगीश्वर शुद्ध भाव करि सुखकू पावैं हैं;गाथा-जं सूत्तं जिणउत्तं वबहारो तह य जाण परमत्थो ।
तं जाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मलपुंजं ॥ ६॥ संस्कृत-यत्सूत्रं जिनोक्तं व्यवहारं तथा च ज्ञानीहि परमार्थम् ।
तत् ज्ञात्वा योगी लभते सुखं क्षिपते मलपुंज ॥६॥ अर्थ-जो जिन भाषित सूत्र है सो व्यवहार रूप है तथा परमार्थ रूप है ताकू योगीश्वर जानि सुख पावै है बहुरि मलपुंज कहिये द्रव्य कर्म भाव कर्म नोकर्म ताहि क्षेपै है । ___ भावार्थ-जिन सूत्रकू व्यवहार परमार्थ रूप यथार्थ जानि योगीश्वर मुनि है सो कर्मका नाश करि अविनाशी सुखरूप मोक्षकं पावै है। तहां परमार्थ कहिए निश्चय अर व्यवहार इनिका संक्षेप स्वरूप ऐसा जो-जिन आगमकी व्याख्या च्यार अनुयोगरूप शास्त्रनिमैं दोय प्रकार सिद्ध है एक आगमरूप, दूजी अध्यात्मरूप । तहां सामान्य विशेष करि सर्व पदार्थनिका प्ररूपण करिये है सो तौ आगमरूप है। बहुरि जहां एक आत्माहीकै आश्रय निरूपण करिये सो अध्यात्म है । तथा अहेतुमत् अर हेतुमत् ऐसैं भी दोय प्रकार है; तहां जो सर्वज्ञकी आज्ञाही करि केवल प्रमाणता मानिये सो तो अहेतुमत् है । अर जहां प्रमाण नयनि करि वस्तुकी निर्वाध सिद्धि जामैं करि मानिये सो हेतुमत् है । ऐसें दोय प्रकार आगममैं निश्चय
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५६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितव्यवहारकरि व्याख्यान ऐसैं है, सो किछू लिखिए हैं;-तहां जब आगमरूप सर्व पदार्थनिका व्याख्यानपरि लगाइये तब तौ वस्तुका स्वरूप सामान्य विशेषरूप अनंतधर्मस्वरूप है सो ज्ञानगम्य है, तिनिमैं सामान्यरूप तौ निश्चयनयका विषय है, अर विशेष रूप जे ते हैं तिनिकू भेदरूपकरि न्यारे न्यारे कहै सो व्यवहारनयका विषय है ताकू द्रव्यपर्याय स्वरूप भी कहिये । तहां जिस वस्तुकू विवक्षित करि साधिये ताके द्रव्य क्षेत्र काल भावकार जो कि सामान्य विशेषरूप वस्तुका सर्वस्व होय सो तौ निश्चय व्यवहार करि कह्या है तैसैं सधै है, बहुरि तिस वस्तुकै किछू अन्य वस्तुके संयोगरूप अवस्था होय तिसकू तिस वस्तुरूप कहनां सो भी व्यवहार है ताळू उपचार ऐसा भी नाम कहिये । याका उदाहरण ऐसा-जैसे एक विवक्षित घटनामा वस्तु परि लगाइये तब जिस घटका द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप सामान्यविशेषरूप जेता सर्वस्व है ते ता कह्या तैसैं निश्चय व्यवहार कार कहनां सो तौ निश्चय व्यवहार है; अर घटकै किछू अन्य वस्तुका लेप करि तिस घटकू तिस नाम करि कहनां तथा अन्य पटादि विषै घटका आरोपण करि घट कहना सो भी व्यवहार है । तहां व्यवहारका दोय आश्रय हैं; एक प्रयोजन, दूजा निमित्त । तहां प्रयोजन साधनेंकू काहू वस्तुकू घट कहनां सो तो प्रयोजनाश्रित है बहुरि काहू अन्य वस्तुके निमित्ततें घटमैं अवस्था भई ताकू घटरूप कहनां सो निमित्ताश्रित है । ऐसैं विवक्षित सर्व जीव अजीव वस्तुनिपरि लगावनां । बहुरि जब एक आत्माहीकू प्रधान करि लगावनां सो अध्यात्म है। तहां जीव सामान्यकुं भी आत्मा कहिये है । अर जो जीव अपनां सर्व जीवनि” भिन्न अनुभव करै ताकू भी आत्मा कहिये है, तहां जब आपकू सर्वते न्यारा अनुभव करि आपापरि निश्चय लगाइये
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका। ५७ तब ऐसैं जो आप अनादि अनंत अविनाशी सर्व अन्य द्रव्यनितें भिन्न एक सामान्य विशेषरूप अनंतधर्मा द्रव्य पर्यायात्मक जीवनामा शुद्ध वस्तु है, सो कैसाक है-शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी चेतनास्वरूप असाधारण धर्मकू लिये अनंत शक्तिका धारक है तामैं सामान्य भेद चेतना अनंत शक्तिका समूह सो द्रव्य है। बहुरि अनंत ज्ञान दर्शन सुख वर्यि ये तो चेतनाके विशेष हैं ते तो गुण हैं अर अगुरुलघु गुणकै द्वारै षट्स्थान पतित हानि वृद्धिरूप परिणमता जीवकै त्रिकालात्मक अनंत पर्याय हैं । ऐसा शुद्ध जीव नामा वस्तु सर्वज्ञ देख्या जैसा आगममैं प्रसिद्ध है सो तो एक अभेद रूप शुद्ध निश्चय नयका विषय भूत जीवै है इस दृष्टि करि अनुभव कीजे जब तौ ऐसा है। अर अनंत धर्मनिमैं भेदरूप कोई एक धर्मकू लेकरि कहनां सो व्यवहार है बहुरि आत्म वस्तुकै अनादिही पुद्गल कर्मका संयोग है ताकै निमित्तविकार भावकी उत्पत्ति है ताके निमित्तौं रागद्वेष रूप विकार होय हैं ताकू विभाव परणति कहिये है, तिस करि फेरि आगामी कर्मकाबंध होय है। ऐसैं अनादि निमित्त नैमित्तिक भाव करि चतुर्गति रूप संसारका भ्रमणरूप प्रवृत्ति होय है तहां जिस गतिकू प्राप्त होय तैसाही जीव नाम कहावै है तथा जैसा रागादिक भाव होय तैसा नाम कहावै बहुरि जब द्रव्यक्षेत्र काल भावकी बाह्य अंतरंग सामग्रीका निमित्त करि अपना शुद्धस्वरूप शुद्धनिश्चयनयका विषय स्वरूप आपकू जानि श्रद्धान करै, अर कर्म संयोगकू अर तिसके निमित्ततें अपने भाव होय हैं तिनिका यथार्थ स्वरूप जानैं तब भेदज्ञान होय तब परभावनितें विरक्त होय तब तिनिका मेंटनेका उपाय सर्वज्ञके आगमतें यथार्थ समाझ ताकू अंगीकार करै तब अपने स्वभावमैं स्थिर होय अनंत चतुष्टय प्रगट होय सर्व कर्मका क्षय करि लोकके शिख
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
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विराजै तब मुक्त भया कहावै तां सिद्ध भी कहिये । ऐसें जेती संसारकी अवस्था अर यह मुक्त अवस्था ऐसैं भेदरूप आत्माकूं: निरूपै है सो भी व्यवहारनयका विषय है, याकूं अध्यात्म शास्त्रमैं अभूतार्थ असत्यार्थ नाम कहि करि वर्णन किया है जातैं शुद्ध आत्मा मैं संयोगजनित अवस्था होय सो तौ असत्यार्थही है, किछू शुद्ध वस्तुका तौं यह स्वभाव नांही तातैं असत्यही है । बहुरि जो निमित्त अवस्था भई सो भी आत्माहीका परिणाम है सो जो आत्माका परिणाम है सो आत्माहीमैं है तातैं कथंचित् याकूं सत्य भी कहिये परन्तु जेतैं भेदज्ञान नहीं होय तेतैंही यह दृष्टि है, भेदज्ञान भये जैसे है तैसें जानें है । बहुरि जे द्रव्यरूप पुद्गलकर्म हैं ते आत्मा तैं न्यारे हैं ही तिनितैं शरीरादिका संयोग है सो आत्मातैं प्रगट ही भिन्न हैं, तिनिकूं आत्माके कहिये हैं सो यह व्यवहार प्रसिद्ध है ही, याकूं असत्यार्थ कहिये उपचार कहिये । इहां कर्मके संयोगजनित भाव हैं ते सर्व निमित्ताश्रित व्यवहारका विषय हैं अर उपदेश अपेक्षा याकूं प्रयोजनाश्रित भी कहिये ऐसैं निश्चय व्यवहारका संक्षेप है । तहां सम्यग्दI र्शन ज्ञान चारित्रकं मोक्षमार्ग कह्या तहां ऐसें समझनां जो ये तीनूं एक आत्माहीके भाव हैं, ऐसैं तिनिका स्वरूप आत्माहीका अनुभव होय सो तौ निश्चय मोक्षमार्ग है तामैं भी जेतैं अनुभवकी साक्षात् पूर्णता नांही होय तेतैं एकदेशरूप होय ताकूं कथंचित् सर्वदेशरूप कहिकरि कहनां सो तौ व्यवहार है अर एकदेश नामकरि कहनां सो निश्चय है । बहुरि दर्शन ज्ञान चारित्रकूं भेदरूप कहि मोक्षमार्ग कहिये तथा इनिके बाह्य परद्रव्य स्वरूप द्रव्य क्षेत्र काल भाव निमित्त हैं तिनिकूं दर्शना ज्ञान चारित्र नाम करि कहिये सो व्यवहार है । देव गुरुशास्त्रकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन कहिये जीवादिक तत्वनिकी श्रद्धाकूं सम्यग्दर्शन कहिये ।
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका। ५९. शास्त्रके ज्ञान कहिये जीवादिक पदार्थनिके ज्ञानकू ज्ञान कहिये इत्यादि। तथा पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्तिरूप प्रवृत्तिकू चारित्र कहिये। तथा बारह प्रकार तपकू तप कहिये । ऐसें भेदरूप तथा परद्रव्यके आलं-- बनरूप प्रवृत्ति हैं ते सर्व अध्यात्मशास्त्र अपेक्षा व्यवहार नामकरि कहिये हैं जातें वस्तुका एकदेशकू वस्तु कहनां सो भी व्यवहार है, अर परद्रव्यका आलंबनरूप प्रवृत्तिकू तिस वस्तुके नामकरि कहनां सो भी व्यवहार है । वहुरि अध्यात्मशास्त्रमैं ऐसैं भी वर्णन है जो वस्तु अनंतधर्मरूप है सो सामान्य विशेषकरि तथा द्रव्यपर्यायकरि वर्णन कीजिए है तहां द्रव्यमात्र कहनां तथा पर्यायमात्र कहनां सो व्यवहारका विषय है । बहुरि द्रव्यका भी तथा पर्यायका भी निषेध करि वचन अगोचर कहनां सो निश्चयनयका विषय है । बहुरि द्रव्यरूप है सो ही पर्याय रूप है ऐसैं दोऊहीकू प्रधान करि कहनां सो प्रमाणका विषय है, याका उदाहरण ऐसा जैसैं जीवकू चैतन्य रूप नित्य एक अस्तिरूप इत्यादि अभेदमात्र कहनां सो तौ द्रव्यार्थिकनयका विषय है अर ज्ञानदर्शनरूप अनित्य अनेक नास्तित्वरूप इत्यादि भेदरूप कहनां सो पर्यायार्थिक नयका विषय है । अर दोऊ ही प्रकारकै प्रधानताका निषेधमात्र वचन अगोचर कहनां सो निश्चयनयका विषय है । अर दोऊ ही प्रकारकू प्रधान करि कहनां प्रमाणका विषय है इत्यादि । ऐसें निश्चय व्यवहारका सामान्य संक्षेप स्वरूप है ताकू जानि जैसैं आगम अध्यात्म शास्त्रनिमैं विशेष करि वर्णन होय ताकू सूक्ष्मदृष्टिकरि जाननां जिनमत अनेकांतस्वरूप स्याद्वाद है, अर नयनिकै आश्रय कथनी है तहां नयनिकै परस्पर विरोध है ताकू स्याद्वाद मेंटै है, ताका विरोधका तथा अविरोधका स्वरूप नीकै जाननां, सो यथार्थ तौ गुरु आम्नायही” होय परन्तु गुरुका निमित्त इस कालमैं विरला होय गया तातें अपना ज्ञानका वल चालैं जेतें विशेष
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
समझिवो ही करनां किछु ज्ञानका लेश पाय उद्धत नहीं होना, अबार इस कालमैं अल्पज्ञानी बहुत हैं यातें तिनितैं किछू अधिक अभ्यास कर तिनिमैं महंत बणि उद्धत भये मद आवै तब ज्ञान थकित होय जाय अर विशेष समझनेकी अभिलाष नहीं रहै तब विपर्यय होय यद्वा तद्वा कहै तब अन्य जीवनिकै विपर्यय श्रद्धान होय तब आपकै अपराधका प्रसंग आवै; तातैं शास्त्रकूं समुद्र जानि अल्पज्ञरूप ही अपनां भाव राखनां तातैं विशेष समझनेंकी अभिलाषा बनी रहे तातैं ज्ञानकी वृद्धि होय है, अर अल्पज्ञानीनिमैं बैंठि महंत बुद्धि राखै तब अपना पाया ज्ञान भी नष्ट होय है, ऐसैं जाननां; अर निश्चय व्यवहाररूप आगमकी कथनी समझ करि ताका श्रद्धान करि यथाशक्ति आचरण करनां इस काल मैं गुरुसंप्रदायविनां महंत नहीं वणनौ जिन आज्ञा नहीं लोपणीं । -कई कहैं हैं - हम तौ परीक्षा करि जिनमतकूं मानेंगें ते वृथा वर्के हैंस्वल्पबुद्धीका ज्ञान परीक्षा करने लायक नांहीं. आज्ञाकूं प्रधान राखि वर्णै जेती परीक्षा करनें में दोष नांही, केवल परीक्षाही कूं प्रधान राखनें मैं जिनमत तैं च्युत होय जाय तौ बड़ा दोष आवै तातैं जिनिकै अपने हित अहित पर दृष्टि हैं ते तो ऐसैं जानौं । अर जिनिकं अल्पज्ञानीनिमै महंत वणि अपने मान लोभ बढाई विषय कषाय पोषने होय तिनिकी कथा नाहीं, ते तो जैसे अपने विषय कषाय पोषेंगे तैसें करेंगे तिनिकूं मोक्षमार्गका उपदेश लागै नांही, विपर्यस्तकं काहेका उपदेश ? ऐसैं जाननां ॥ ६ ॥
आगे कहै है जो सूत्रके अर्थ पदतें भ्रष्ट है ताकूं मिध्यादृष्टी जाननां;
गाथा - सूत्तत्थपयविणट्ठो मिच्छादिठ्ठी हु सो मुणेयब्बो । खेडे विण कायव्वं पाणिप्पत्तं सचेलस्स ॥ ७ ॥
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका । ६१ संस्कृत-सूत्रार्थपदविनष्टः मिथ्यादृष्टिः हि सः ज्ञातव्यः।
खेलेऽपि न कर्त्तव्यं पाणिपात्रं सचेलस्य ॥७॥ अर्थ-जो सूत्रका अर्थ अर पद है विनष्ट जाकै ऐसा है सो प्रगट मिथ्यादृष्टी है याहीतैं जो सचेल है वस्त्रसहित है ताकू 'खेडे वि' कहिये हास्य कुतूहलविौं भी पाणिपात्र कहिये हस्तरूपपात्रकरि आहारदान है सो नहीं करना । __भावार्थ--सूत्रविर्षे मुनिका रूप नग्न दिगंबर कह्या है अर जो ऐसे सूत्रके अर्थ करि तथा अक्षररूप पद जाकै विनष्ट हैं तथा आप वस्त्र धारि मुनि कहावै है सो जिन आज्ञातें भ्रष्ट भया प्रगट मिथ्यादृष्टी है यातें वस्त्रसहित• हास्य कुतूहलकरि भी पाणिपात्र कहिये आहारदान नहीं करनां । तथा ऐसा भी अर्थ होय है जो ऐसे मिथ्यादृष्टीकू पाणिपात्र आहार लेनां योग्य नाही ऐसा भेष हास्य कुतूहलकरि भी धारणां योग्य नाही, जो वस्त्रसहित रहनां अर पाणिपात्र भोजन करनां ऐसैं तौ क्रीडामात्र भी नहीं करनां ॥ ७ ॥ ___ आगें कहै है जो जिनसूत्रतें भ्रष्ट है सो हरि हरादिकतुल्य है तोऊ मोक्ष नहीं पायें है;गाथा-हरिहरतुल्लो वि गरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी ।
तह वि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो॥८॥ संस्कृत-हरिहरल्योऽपि नरः स्वर्ग गच्छति एति भवकोटिः।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः॥८॥ अर्थ-जे नर सूत्रका अर्थ पदतै भ्रष्ट हैं सो हरि कहिये नारायण हर कहिये रुद्र इनि तुल्य भी होय अनेक ऋद्धिकरि युक्त होय तौहू सिद्धि कहिये मोक्ष ताकू प्राप्त नहीं होय । जो कदाचित् दानपूजादिक
१ पाणिपात्रे, ऐसा भी पाठ है।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितकरि पुण्य उपजाय स्वर्ग जाय तौहू तहां चय करि कोट्यां भव लेय संसारहीमैं रहै है, ऐसैं जिनागममैं कह्या है।
भावार्थ--श्वेतांबरादिक ऐसैं कहैं हैं-जो गृहस्थ आदि वस्त्रसहित हैं तिनिकै भी मोक्ष होय है ऐसैं सूत्रमैं कह्या है ताका इस गाथामैं निषेधका आशय है-जो हरिहरादिक बडी सामर्थ्यके धारक भी हैं तौऊ वस्त्रसहित तौ मोक्ष नाही पावें है । श्वेतांवरां सूत्र कल्पित बनाये हैं तिनिमैं यह लिखी है सो प्रमाणभूत नांही है, ते श्वेतांबर जिनसूत्रके अर्थ पद” च्युत भये हैं ऐसें जाननां ॥ ८॥
आगैं हैं है—जो जिनसूत्र च्युत भये हैं ते स्वच्छंद भये प्रवर्त हैं ते मिथ्यादृष्टी हैं;गाथा-उकिसीहचरियं बहुपरियम्मो य गरुय भारो य ।
जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छंदि होदि मिच्छत्तं ॥९॥ संस्कृत-उत्कृष्टसिंहचरितः बहुपरिकर्माच गुरुभारश्च ।
__यः विहरति स्वच्छंदं पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम्।।९॥ ___ अर्थ-जो मुनि होय करि उत्कृष्ट सिंहवत् निर्भय भया आचरण करै बहुरि बहुत परिकर्म कहिये तपश्चरणादिक्रियाविशेषनिकरि युक्त है बहुरि गुरुके भार कहिये बड़ा पदस्थरूप है संघ नायक कहावै है अर जिनसूत्रतै च्युत भया स्वच्छंद प्रवत्र्ते है तो वह पापहीकू प्राप्त होय है बहुरि मिथ्यात्वकू प्राप्त होय है।
भावार्थ-जो धर्मकी नायकी लेकरि निर्भय होय तपश्चरणादिक करि बडा कहाय अपनां संप्रदाय चलावै है जिनसूत्रः च्युत होय स्वेच्छाचारी प्रवत्र्ते है तो सो पापी मिथ्यादृष्टी ही है ताका प्रसंग भी श्रेष्ठ नाही ॥९॥
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
आगैं कहै है जो जिनसूत्रमैं ऐसा मोक्षमार्ग कया है, गाथा - णिच्चेलपाणिपत्तं उवहं परमजिणवरिंदेहिं । एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ॥ १० ॥ संस्कृत — निवेलपाणिपात्रं उपदिष्टं परमजिनवरेन्द्रैः । एकोऽपि मोक्षमार्गः शेषाश्च अमार्गाः सर्वे ॥ १० ॥
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अर्थ — जो निश्चल कहिये वस्त्ररहित दिगंबर मुद्रास्वरूप अर पाणि'पात्र कहिये हाथ जाके पात्र ऐसा खड़ा रहि आहार करनां ऐसा एक अद्वितीय मोक्षमार्ग तीर्थकर परमदेव जिनेंद्रनें उपदेश्या है, इस शिवाय अन्यरीति हैं ते सर्व अमार्ग हैं ।
भावार्थ — जे मृगचर्म वृक्षके वक्कल कपास पट्ट दुकूल रोमवस्त्र टाटके तृणके वस्त्र इत्यादिक राखि आपकूं मोक्षमार्गी माने हैं तथा इस कालमें जिनसूत्रतैं च्युत भये हैं तिननें अपनी इच्छातें अनेक भेष चलाये हैं केई श्वेत वस्त्र राखेँ हैं केई रक्तवस्त्र केई पीले वस्त्र केई टाटके वस्त्र केई घास के वस्त्र केई रोमके वस्त्र इत्यादिक राखै हैं तिनिकै मोक्षमार्ग नांही जातै जिनसूत्रमैं तौ एक नग्न दिगंबर स्वरूप पाणिपात्र भोजन करनां ऐसा मोक्ष मार्ग कया है, अन्य सर्व भेष मोक्षमार्ग नहीं अर जे मानैं हैं ते मिथ्यादृष्टी हैं ॥ १० ॥
आगैं दिगंबर मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति कहै हैं;
गाथा - जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि सो होड़ वंदणीओ ससुरासुरमाणु से लोए || ११ ॥ संस्कृत - यः संयमेषु सहितः आरंभपरिग्रहेषु विरतः अपि । सः भवति वंदनीयः ससुरासुरमानुषे लोके ॥ ११॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
__ अर्थ-जो दिगंबर मुद्राका धारक मुनि इन्द्रिय मनका वश करना छह कायके जीवनिकी दया करनां ऐसैं संयम करि तौ सहित होय बहुरि आरंभ कहिये गृहस्थके जे ते आरंभ हैं तिन” अर बाह्य अभ्यंतर परि. ग्रह” विरक्त होय तिनिमैं नहीं प्रवत्र्त तथा आदि शब्द करि ब्रह्मचर्य आदि करि युक्त होय सो देव दानव करि सहित मनुष्यलोक विर्षे वंदने योग्य है अन्य भेषी परिग्रह आरंभादि करि युक्त पाखंडी वंदिवे योग्य नाही है ॥ ११ ॥ ___ आणु फेरि तिनिकी प्रवृत्तिका विशेष कहै है;गाथा-जे बावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता ।
ते होंदि वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू ॥१२॥ संस्कृत-ये द्वाविंशतिपरीषहान् सहते शक्तिशतैः संयुक्ताः।
ते भवंति वंदनीयाः कर्मक्षयनिर्जरासाधवः ॥ १२ ॥ अर्थ-जे साधु मुनि अपनी शक्तिके सैंकडानिकरि युक्त भये संते क्षुधा तृषादिक बाईस परीषहनिकू सहैं हैं ते साधु वंदनेयोग्य हैं, कैसे हैं ते-कर्मनिका क्षयरूप तिनिकी निर्जरा तावि प्रवीण हैं। ___ भावार्थ-जे बडी शक्तिके धारक साधु हैं ते परीषहनिळू सहैं हैं परीषह आये अपने पदतै च्युत नाही होय हैं तिनिकैं कर्मनिकी निर्जरा होय है ते वंदने योग्य हैं ॥ १२ ॥ ___ आगैं कहै है जो दिगंबर मुद्रा सिवाय कोई वस्त्र धारे सम्यग्दर्शन ज्ञानकरि युक्त होंय ते इच्छाकार करनेयोग्य हैं;गाथा-अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेणसम्म संजुत्ता ।
चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय ॥ १ 'होति' षट्पाहुड में ऐसा हैं।
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
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संस्कृत- अवशेषा ये लिंगिनः दर्शनज्ञानेन सम्यक् संयुक्ता । चेलेन च परिगृहीताः ते भणिता इच्छाकारयोग्याः ॥ १३
अर्थ — दिगंबर मुद्रासिवायं अवशेष जे लिंगी हैं भेषकर संयुक्त अर सम्यक्त्वसहित दर्शन ज्ञान करि संयुक्त हैं अर वस्त्र करि परिगृहीत हैं वस्त्र धारें हैं ते इच्छाकार करने योग्य हैं |
भावार्थ — जे सम्यग्दर्शन ज्ञान करि संयुक्त हैं अर उत्कृष्ट श्रावकका भेष धारैं हैं एक वस्त्रमात्र परिग्रह राखेँ हैं सो इच्छाकार करनें योग्य हैं तातैं " इच्छामि " ऐसा कहिये है। ताका अर्थ- जो मैं तुमकूं इच्छ्रं हूं चाहूंहूं ऐसा ' इच्छामि' शब्दका अर्थ है । ऐसैं इच्छाकार करना जिनसूत्रमैं कह्या है ॥ १३ ॥
आगैं इच्छाकार योग्य श्रावकका स्वरूप कहैं हैं;गाथा - इच्छायारमहत्थं सुत्तठिणो जो हु छंडए कम्मं । ठाणे हियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होइ ॥ १४ ॥ संस्कृत — इच्छाकारमहार्थं सूत्रस्थितः यः स्फुटं त्यजति कर्म । स्थाने स्थितसम्यक्त्वः परलोकसुखंकरः भवति १४
अर्थ – जो पुरुष जिनसूत्रविषै तिष्ठता संता इच्छाकार शब्दका महान प्रधान अर्थ है ताहि जानै है बहुरि स्थान जो श्रावक के भेदरूप प्रतिमा तिनिमैं तिष्ठया सम्यक्त्वसहित वर्त्तता आरंभ आदि कर्मानिकूं छोड़ै है सो परलोकविषै सुख करनेवाला होय है ॥
भावार्थ — उत्कृष्ट श्रावककूं इच्छाकार करिये है सो इच्छाकारका जो प्रधान अर्थ है ताकूं जाने है अर सूत्र अनुसार सम्यक्त्वसहित आरंभादिक छोड़ि उत्कृष्ट श्रावक होय सो परलोकविषै स्वर्गका सुख पावै है ॥ १४ ॥
अ० व० ५
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पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित
आगें कहैं हैं जो इच्छाकारका प्रधान अर्थकूं नाहीं जाने है अर अन्यधर्मका आचरण करे है सो सिद्धिकूं नांहीं पावै है; - गाथा -- अह पुण अप्पा गिच्छदि धम्माई करेड़ गिरव सेसाई । तह विणावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥ १५ ॥ संस्कृतः - अथ पुनः आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवशेषान् तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः १५
अर्थ — 'अथ पुनः' शब्दका ऐसा अर्थ जो — पहली गाथा मैं कह्याथा जो इच्छाकारका प्रधान अर्थ जानें सो आचरण करि स्वर्गसुख पावै, सो अब फेरि कहै है जो - इच्छाकारका प्रधान अर्थ आत्माका चाहनाहै अपने स्वरूपविषै रुचि करना है सो याकूं जो नांही इष्ट करे है अर अन्य धर्म के समस्त आचरण करें है तौउ सिद्धि कहिये मोक्षकूं नहीं पावै हैं बहुरि ताकूं संसारविषै ही तिष्ठनेवाला कला है |
भावार्थ — इच्छाकारका प्रधान अर्थ आपका चाहनां है सो जाकै अपनें स्वरूपकी रुचिरूप सम्यक्त्व नांही ताकै स मुनि श्रावक के - आचरणरूप प्रवृत्ति मोक्षका कारण नांही ॥ १५ ॥
आइसही अर्थ दृढ़कर उपदेश करे है
गाथा - एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेइ मोक्खं तं जाणिज्जइ पत्तेण ॥ १६ ॥ संस्कृत - एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन ।
येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ १६ ॥
अर्थ —— कह्या जो आत्माकूं इष्ट न करै है ताकै सिद्धि नहीं है तिसही कारण करि हे भव्यजीव हौ ! तुम तिस आत्माकूं श्रद्धौताका
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
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श्रद्धान करो मन वचन काय करि स्वरूपविौं रुचिं करो तिस कारण करि मोक्षकू पावो बहुरि जिस करि मोक्ष पाइए तिसकू प्रयत्न कहिये सर्व प्रकार उद्यमकरि जानिये ।।
भावार्थ-जिसकरि मोक्ष पाइये तिसहीका जाननां श्रद्धान करना यह प्रधान उपदेश है अन्य आडंबर करि कहा प्रयोजन ? ऐसैं जाननां ॥ १६ ॥ __ आगें कहै है जे जिनसूत्रके जाननेवाले मुनि हैं तिनिका स्वरूप फेरि दृढ करनेंकू कहै है;गाथा-वालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणां ।
मुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्मि ॥१७॥ संस्कृत-वालाग्रकोटिमात्रं परिग्रहग्रहणं न भवति साधूनाम् ।
भुंजीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एकस्थाने १७ ॥ अर्थ-वालके अग्रभागकी कोटि कहिये अणी तिसमात्र भी परिग्रहका ग्रहण साधुकै नहीं होय है, इहां आशंका है जो परिग्रह कभी नहीं है तो आहार कैसे करै है! ताका समाधान करै हैआहार करै है सो पाणिपात्र कहिये करपात्र जो अपने हाथही मैं भोजन करै है सो भी अन्यका दिया प्राशुक अन्न मात्र ले हैं सो भी एकस्थान ले हैं बार बार नहीं ले हैं अर अन्य अन्य स्थानमैं नहीं ले
भावार्थ-जो मुनि आहार ही परका दिया प्रासुक योग्य अन्नमात्र निर्दोष एकवार दिनमैं अपने हाथकरि ले है तौ अन्य परिग्रह काहेर्नू ग्रहण करै नहीं ग्रहण करै, जिनसूत्रमैं ऐसे मुनि कहै हैं ॥ १७ ॥
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'६८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित__आगैं कहै है अल्पपरिग्रह ग्रहण करै तामैं दोष कहा ? ताकू दोष दिखावै है;गाथा-जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्तेसु ।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ॥१८॥ संस्कृत-यथाजातरूपसदृशः तिलतुषमात्रं न गृह्णाति हस्तयोः।
यदि लाति अल्पबहुकं ततः पुनः याति निगोदम्।।१८॥ अर्थ—मुनि है सो यथाजातरूप है जैसैं जन्मता बालक नग्नरूप होय है तैसा नग्नरूप दिगंबर मुद्राका धारक है सो अपने हाथविर्षे तिलके तुषमात्र भी किछू ग्रहण नहीं करै है, बहुरि जो किछू अल्प बहुत लेवै ग्रहण करै तौ वो मुनि ग्रहण करने निगोदमैं जाय है । ___ भावार्थ-मुनि यथाजातरूप दिगंबर निग्रंथकू कहैं हैं सो ऐसा होय करि भी किछू परिग्रह राखै तौ जानिये इनिकै जिनसूत्रकी श्रद्धा नाही मिथ्यादृष्टी है या मिथ्यात्वका फल निगोदही है, कदाचित् किछू तपश्चरणादिक करै तौ ताकरि शुभकर्म बांधि स्वर्गादिक पावै तौ भी फेरि एकेंद्रिय होय संसार ही मैं भ्रमण करै है।
इहां प्रश्न—जो, मुनिकै शरीर है आहार करे है कमंडलु पीछी पुस्तक राखै है, इहां तिल तुषमात्र भी राखनां न कह्या, सो कैसे ? - ताका समाधान-जो, मिथ्यात्वसहित रागभावसूं अपणाय अपनां विषय कषाय पोषनकू राखै ताकू परिग्रह कहिये है तिस निमित्त किछू अल्प बहुत राखनां निषेध्या है अर केवल संयमके निमित्तका तौ सर्वथा निषेध नाही । शरीर है सो तो आयुपर्यन्त छोड्या छूट नाही याका तौ ममत्वही छूटै सो निषेध्या ही है। बहुरि जे तैं शरीर है ते तैं आहार नहीं
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका। ६९ करे तो सामर्थ्यही नहीं होय तब संयम नहीं सधै तातै किछू योग्य आहार विधिपूर्वक शरीरसूं रागरहित भये संते लेकरि शरीरकू खड़ा राखि संयम साधै है । बहुरि कमंडलु बाह्य शौचका उपकरण है जो नहीं राखै तौ मलमूत्रकी अशुचिताकरि पंच परमेष्ठीकी भक्ति वंदना कैसे करै अर लोकनिंद्य होय । बहुरि पीछी दयाका उपकरण है जो नहीं राखै तौ जीवनिसहित भूमि आदिकी प्रति लेखना काहेरौं करै । बहुरि पुस्तक है सो ज्ञानका उपकरण है जो नहीं राखै तौ पठन पाठन कैसे होय । बहुरि इनि उपकरणनिका राखनां भी ममत्वपूर्वक नाही है तिनितें रागभाव नांही है । बहुरि आहार विहार पठन पाठनकी क्रियायुक्त जेतें रहै तेरौं केवलज्ञान भी नांही उपजै है तिनि सर्व क्रियानिकू छोडि शरीरका भी सर्वथा ममत्व छोडि ध्यान अवस्था लेकरि तिष्ठै अपनां स्वरूपमैं लीन होय तब परम निग्रंथ अवस्था होय है तब श्रेणाकू प्राप्त भये मुनिराजकैं केवलज्ञान उपजै है अन्य क्रियासहित होय तेतैं केवलज्ञान नाही उपजै है ऐसा निग्रंथपणां मोक्षमार्ग जिनसूत्रमैं कह्या है। __ श्वेतांबर कहै है जो भवथिति पूरी भये सर्व अवस्थामैं केवलज्ञान उपजै है सो यह कहनां मिथ्या है, जिनसूत्रका यह वचन नांही तिनि श्वेतांबरनि. कल्पित सूत्र बनाये हैं तिनिमैं लिखी होगी । बहुरि इहां श्वेतांबर कहै जो तुमनें कह्या सो तो उत्सगमार्ग है, बहुरि अपवादमार्गमैं वस्त्रादिक उपकरण राखनां कह्या है जैसे तुम धर्मोपकरण कहे तैसैंही वस्त्रादिक भी धर्मोपकरण हैं जैसैं क्षुधाकी बाधा आहारतें मेटि संयम साधिये है तैसे ही शीत आदिकी बाधा वस्त्र आदितै मेटि संयम साधिये यामैं विशेष कहा ? ता• कहिये जो यामैं तो बडे दोष आवे हैं, तथा कोई कहैं कामविकार उपजै तब स्त्रीसेवन करै तौ यामैं कहा विशेष ? सो ऐसैं कहनां युक्त नाही । क्षुधाकी बाधा तो आहारतें मेटनां युक्त है आहारविना देह अशक्त
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७० पंडित जयचंद्रजी छावडा विरचितहोय है तथा छूटि जाय तो अपघातका दोष आवे, अर शीत आदिकी बाधा तो अल्प है सो यह तौ ज्ञानाभ्यास आदिके साधने ही मिटि जाय है। अपवादमार्ग कह्या सो जामैं मुनिपद रहै ऐसी क्रिया करनां तो अपवादमार्ग है अर जिस परिग्रह तथा जिस क्रिया” मुनिपद भ्रष्ट होय गृहस्थवत हो जाय सो तौ अपवादमार्ग है नांही । दिगंबर मुद्रा धारि कमंडलु पीछी सहित आहार विहार उपदेशादिकमैं प्रवत्तै सो अपवादमार्ग है अर सर्व प्रवृत्तिकू छोड़ ध्यानस्थ होय शुद्धोपयोगमैं लीन होय सो उत्सर्गमार्ग कया है। ऐसा मुनिपद आपतै सधता न जानि काहे• शिथिलाचार पोषणां, मुनिपदकी सामर्थ्य न होय तो श्रावकधर्म ही पालनों परंपराकरि याहीतै सिद्धि होयगी। जिनसूत्रकी यथार्थ श्रद्धा राखे सिद्धि है या विनां अन्य क्रिया सर्व ही संसारमार्ग है मोक्षमार्ग नाही, ऐसें जाननां ॥ १८ ॥ ___ आगें इस ही अर्थका समर्थन करै है;--- गाथा-जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स ।
सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो॥१९॥ संस्कृत-यस्य परिग्रहग्रहणं अल्पं बहुकं च भवति लिंगस्य ।
सः गर्यः जिनवचने परिग्रहरहितः निरागारः॥१९॥ ___ अर्थ:--जाके मतमैं लिंग जो भेष ताके परिग्रहका अल्प तथा बहुत ग्रहणपणां कह्या है सो मत तथा तिसका श्रद्धावान पुरुष गर्हित है निंदायोग्य है जातें जिनवचनविर्षे परिग्रह रहित है सो निरागार हे निर्दोष मुनि है, ऐसैं कह्या है ।।
भावार्थ:--श्वेतांबरादिकके कल्पित सूत्रनिमैं भेषमैं अल्प बहुत परिग्रहका ग्रहण कह्या है सो सिद्धान्त तथा ताके श्रद्धानी निंद्य हैं। जिनवचनविर्षे परिग्रह रहितळू ही निर्दोष मुनि कह्या है ॥१९॥
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका । ७ आगै कहै है जिनवचनविर्षे ऐसा मुनि वंदने योग्य कह्या है;गाथाः--पंचमहन्वयजुत्तो तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होइ ।
णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जोय ॥२०॥ संकृतः-पंचमहाव्रतयुक्तःतिसृभिःगुप्तिभिः यःस संयतो भवति
निग्रंथमोक्षमार्गः सभवति हि वन्दनीयः च ॥२०॥ अर्थ--जो मुनि पंच महाव्रतकरि युक्त होय अर तीन गुप्तिकरि संयुक्त हाये सो संयत है संयमवान है बहुरि निग्रंथ मोक्षमार्ग है बहुरि सो ही प्रगटपणें निश्चयकरि वंदने योग्य है ॥ ___ भावार्थ-अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अर अपरिग्रह इनि पांच महाव्रतनि करि सहित होय बहुरि मन वचन कायरूप तीन गुप्तिनि करि सहित होय सो संयमी है सो निग्रंथ स्वरूप है सो ही वंदने योग्य है। जो कछू अल्प बहुत परिग्रह राखै सो महाव्रती संयमी नाही यह मोक्षमार्ग नांही अर गृहस्थवत् भी नांही है ॥ २० ॥
आगैं कहै है जो पूर्वोक्त तो एक भेष मुनिका कह्या, अब दूसरा भेद उत्कृष्ट श्रावकका ऐसा कह्याहै;गाथा-दुइयं च उत्त लिंगं उकिटं अवरसावयाणं च ।
भिक्खं भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण ॥ २१ ॥ संस्कृत-द्वितीयं चोक्तं लिंगं उत्कृष्टं अवरश्रावकाणां च।
भिक्षां भ्रमति पात्रे समितिभाषया मौनेन ॥ २१ ॥ अर्थः-द्वितीय कहिये दूसरा लिंग कहिये भेष उत्कृष्ट श्रावक कहिये जो गृहस्थ नाही ऐसा उत्कृष्ट श्रावक ताका कह्या है सो उत्कृष्ट श्रावक ग्यारमी प्रतिमाका धारक है सो भ्रमकरि भिक्षाकरि भोजन करै, बहुरि पत्ते
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७२
पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचितकहिये पात्रमैं भोजन करै तथा हाथमैं करै बहुरि समितिरूप प्रवर्त्तता भाषासमितिरूप बोलै अथवा मौनकरि प्रवत्र्ते ॥
भावार्थ:-एक तौ मुनिका यथाजातरूप कह्या बहुरि दूसरा यह उत्कृष्ट श्रावकका कह्या सो ग्यारमी प्रतिमाका धारक उत्कृष्ट श्रावक है सो एक वस्त्र तथा कोपीन मात्र धारे है बहुरि भिक्षा भोजन करै है बहुरि पात्रमैं भी भोजन करै करपात्रमैं भी करे बहुरि समितिरूप वचन भी कहै अथवा मौन भी राखै ऐसा दूसरा भेष है ॥ २१ ॥ ___ आज तीसरा लिंग स्त्रीका कहै है;गाथा-लिंगं इत्थीण हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि ।
अजिय वि एकवत्था वत्थावरणेण मुंजेइ ॥ २२ ॥ संस्कृत-लिंगं स्त्रीणां भवति भुक्ते पिंडं स्वेककाले ।
आयो अपि एकवस्त्रा वस्त्रावरणेन भुंक्ते ॥ २३ ॥ अर्थ-लिंगहै सो स्त्रीनिका ऐसाहै-एक कालविौं तौ भोजन करै वारंवार भोजन नहीं करै बहुरि आर्यिका भी होय तौ एकवस्त्र धारै बहुरि भोजन करतें भी वस्त्रके आवरणसहित करै नग्न नहीं होय ।
भावार्थ--स्त्री आर्यिका भी होय अर क्षुल्लका भी होय सो दोऊ ही भोजनतौ दिनमैं एकवारही करै आर्यिका होय सो एक वस्त्र धारेही भोजन करै नग्न नहीं होय । ऐसा तीसरा स्त्रीका लिंग है ॥ २२॥
आनें कहैहै-वस्त्रधारककै मोक्ष नाही, मोक्षमार्ग नग्नपणांही है;-- गाथा-ण विसिज्झइ वत्थधरोजिणसासण जइ विहोइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ संस्कृत–नापि सिध्यति वस्त्रधरः जिनशासने यद्यपि भवति
तीर्थकरः।
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका । ७३
नमः विमोक्षमार्गः शेषा उन्मार्गकाः सर्वे ॥ २३ ॥ अर्थ-जिनशासनविर्षे ऐसा कह्या है जो वस्त्रका धरनेवाला सीझै नांही मोक्ष नाही पावैहै जो तीर्थकरभी होय तौ जेते गृहस्थ रहै तेरौं मोक्ष न पावै, दीक्षा लेय दिगंबर रूप धारै तब मोक्ष पावै जातें नग्नपणां है सो ही मोक्षमार्ग है अब शेष कहिये बाकी सर्व लिंग उन्मार्ग हैं ॥२३॥
भावार्थ-श्वेतांबर आदिक वस्त्रधारीकैभी मोक्ष होनां कहै है सो मिथ्या है यह जिनमत नाही ॥ २३ ॥ ___ आगें स्त्रीनिकू दीक्षा नाही ताका कारण कहैहै;गाथा-लिंगम्मि य इस्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु ।
भणिओ सुहमो काओ तासिं कह होइ पव्वज्जा । संस्कृत-लिंगे च स्त्रीणां स्तनांतरे नाभिकक्षदेशेषु ।
भणितः सूक्ष्मः कायः तासां कथं भवति प्रवज्या॥२४॥ अर्थ-स्त्रीनिके लिंग कहिये योनि जा वि तथा स्तनांतर कहिये दोऊ कुचनिके मध्यप्रदेशवि तथा कक्ष कहिये दोऊ कांखनिविर्षे नाभिविर्षे सूक्ष्मकाय कहिये दृष्टिके अगोचर जीव कहे हैं सो ऐसी स्त्रीनिकै प्रव्रज्या कहिये .दीक्षा कैसे होय ॥
भावार्थ-स्त्रीनिकै योनि स्तन कांख नाभि विर्षे पंचेंद्रियजीवनिकी उत्पत्ति निरंतर कहीहै तिनिकै महाव्रतरूप दीक्षा कैसै होय । बहुरि महाव्रत कहे हैं सो उपचार करि कहे हैं परमार्थ नाही, स्त्री आपनां साम
खंकी हद्दवू पहुंचि व्रत धरै है तिस अपेक्षा उपचारतें महाव्रत कहे है ॥ २४ ॥
(१) लिखित वचनिका प्रतियों में अर्थ और भावार्थ दोनोंही स्थानों में 'नाभि' का जिक्र नहीं कियाहै सो गाथाके अनुसार होना युक्त समझ लिखाहै ।
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७४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___आगे कहे है जो स्त्री भी दर्शनकरि शुद्ध होयतौ पापरहित है भली है गाथा—जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता ।
घोरं चरिय चरितं इत्थीसु ण पावयाँ भणिया॥२५॥ संस्कृत-यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता ।
घोरं चरित्वा चरित्रं स्त्रीषु न पापका भणिता ॥२५॥ अर्थ-स्त्रीनि विर्षे जो स्त्री, दर्शन कहिये यथार्थ जिनमतकी श्रद्धा करि शुद्ध है सोभी मार्गकरि संयुक्त कही है जो घोर चारित्र तीव्र तपश्चरणादिक आचरणकरि पाप” रहित होय हैं तातैं पापयुक्त न कहिये ॥ ___ भावार्थ-स्त्रीनि विषै जो स्त्री सम्यक्त्वकरि सहित होय अर तपश्चरण करै तौ पापरहित होय स्वर्ग• प्राप्त होय है तातै प्रशंसायोग्य है अर स्त्रीपर्यायतैं मोक्ष नाहीं ॥ २५ ॥
आगैं कहै है जो स्त्रीनिकै ध्यानकी सिद्धिभी नही है:------ गाथा-चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण ।
विजदि मासा तेसिं इत्थीसु ण संकया झाणा ॥२६॥ संस्कृत-चित्ताशोधि न तेषां शिथिलः भावः तथा स्वमावेन ।
विद्यते मासा तेषां स्त्रीषु न शंकया ध्यानम् ॥२६॥ __ अर्थ—तिनि स्त्रीनिकै चित्तकी शुद्धिता नांही है तैसेंही स्वभावही करि तिनि कै ढीला भाव है शिथिल परिणाम है बहुरि, तिनि के मासा कहिये मासमासमैं रुधिरका स्राव विद्यमान है ताकी शंका रहै है ताकरि स्त्रीनिविर्षे ध्यान नांही है ॥
भावार्थ--ध्यान होय है सो चित्त शुद्ध होय दृढ परिणाम होय काहू तरहकी शंका न होय तब होय है सो स्त्रीनिके तीही कारण नाहीं
(१) मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें इस पदकी संस्कृत 'प्रव्रज्या' कीहै श्रीयुत सागर सूरिने भी 'प्रव्रज्या' ही लिखी है।
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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
७५.
तब ध्यान कैसैं होय अर ध्यान विनां केवलज्ञान कैसे उपजै अर केवलज्ञानविना मोक्ष नाही, श्वेतांबरादिक मोक्ष कहैं हैं सो मिथ्या है ॥ २६ ॥ आगैं सूत्रपाहुडकूं समाप्त करे है सो सामान्यकरि सुखका कारण; कहै है;—
गाथा - गाहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेलअत्थेग |
इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाई ||२७|| संस्कृत - ग्राह्येण अल्पग्राद्याः समुद्रसलिले स्वचेलार्थेन ।
इच्छा येम्यः निवृत्ताः तेषां निवृत्तानि सर्वदुखःखानि । अर्थ:- - जो मुनि ग्राह्य कहिये ग्रहण करनेयोग्य वस्तु आहार आदिक तिनिकरि तौ अल्पग्राह्य हैं थोरा ग्रहण करे है जैसे कोऊ पुरुष बहुत जलतैं भय जो समुद्र ता विषै अपने वस्त्र के प्रक्षालने के धोने मात्र जल ग्रहण करै तैसें बहुरि जिनि मुनिनिकै इच्छा निवृत्त भई तिनि कैं सर्व दुःख निवृत्त भये ॥
भावार्थ:— जगतमैं यह प्रसिद्ध है जो जिनकैं संतोष है ते सुखी हैं इस न्यायकरि यह सिद्ध भया जो मुनिनिकै इच्छाकी निवृत्त भई है तिनिकै संसारके विषयसंबंधी इच्छा किंचितमात्र भी नांही है देहतें भी विरक्त हैं तातैं परम संतोषी हैं, अर आहारादि किछू ग्रहण योग्य हैं तिनिमैं भी अल्पकं ग्रहण करें हैं तातैं ते परमसंतोषी हैं ते परम सुखी हैं, यह जिनसूत्रके श्रद्धानका फल है अन्यसूत्र मैं यथार्थ निवृत्तिका प्ररूपण नांही तातैं कल्याणके सुखके अर्थनिकूं जिनसूत्रका सेवन निरंतर . करनां योग्य है ॥ २७ ॥
ऐसें सूत्रपाहुडकूं पूर्ण किया ।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
छप्पया
जिनवरकी ध्वनि मेधध्वानसम मुखरौं गरजै गणधरके श्रुति भूमि वरषि अक्षर पद सरजै । सकल तत्व पराकास करै जगताप निवारै हेय अहेय विधान लोक नीकै मन धारै ॥ विधि पुण्यपाप अरु लोककी मुनि श्रावक आचरन फुनि । करि स्वपरभेद निर्णय सकल कर्म नाशि शिव लहत मुनि ॥१॥
दोहा।। वर्द्धमान जिनके वचन वरतें पंचमकाल । भव्य पाय शिवमग लहै न, तास गुणमाल ॥२॥
इति पं. जयचन्द्रछावडाकृत देशभाषावनिका सहित श्रीकुन्दकु
दन्स्वामि विरचित सूत्रप्राहुड समाप्त ॥२॥
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श्रीः॥ अथ चारित्रपाहुड।
-:०:
(३)
दोहा। वीतराग सर्वज्ञ जिन वंदं मन वच काय । चारित धर्म वखानियो सांचो मोक्षउपाय ॥१॥ कुन्दकुन्दमुनिराजकृत चारितपाहुड ग्रंथ ।
प्राकृत गाथावंधकी करूं वचनिका पंथ ॥ २॥ . ऐसे मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करि अर अब चारित्रपाहुड प्राकृत गाथाबधकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है;--तहां श्री कुन्दकुन्द आचार्य प्रथम ही मंगलकै अर्थ इष्टदेवकू नमस्कार कार चारित्रपाहुडकी कहनेंकी प्रतिज्ञा करें हैं;गाथा-सव्वण्हु सव्वदंसी णिम्मोहा वीयराय परमेही ।
वंदित्तु तिजगवंदा अरहंता भव्वजीवेहि ॥ १॥ णाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहिकारणं तेसि ।
मुक्खाराहणहेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे ॥२॥ युग्मम् । संस्कृत-सर्वज्ञान् सर्वदर्शिनः निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिनः।
वंदित्वा त्रिजगद्वंदितान् अर्हतः भव्यजीवैः ॥१॥ ज्ञानं दर्शनं सम्यक चारित्रं शुद्धिकारणं तेषाम् । मोक्षाराधनहेतुं चारित्रं प्राभृतं वक्ष्ये ॥२॥ युग्मम् ।।
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७८
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ-आचार्य कहैहै जो मैं अरहंत परमष्टीकू बंदिकरि चारित्रपाहुड है ताहि कहूंगा, कैसे हैं अरहंत परमेष्ठी-अरहंत ऐसा प्राकृत अक्षर अपेक्षा तौ ऐसा अर्थ-अकार आदि अक्षर करि तौ अरि ऐसा तो मोहकर्म, बहुरि रकार आदि अक्षर अपेक्षा रज ऐसा ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म बहुरि तिसही रकारकरि रहस्य ऐसा अंतराय कर्म ऐसे च्यार घातिकर्म तिनिकू हंत कहिए हननां घातनां जाकै भया ऐसा अरहंत है। बहुरि संस्कृत अपेक्षा 'अहं' ऐसा पूजा अर्थ विर्षे धातु है ताका ‘अर्हत्' ऐसा निपजै तब पूजायोग्य होय ताकू अर्हत् कहिये सो भव्यजीवनिकरि पूज्य है । बहुरि परमेष्ठी कहने परम कहिये उत्कृष्ट इष्ट कहिये पूज्य होय सो परमेष्ठी कहिये, अथवा परम जो उत्कृष्ट पद ताविर्षे तिष्टै ऐसा होय सो परमेष्टी । ऐसा इंद्रादिकरि पूज्य अरहंत परमेष्टी है । बहुरि कैसे हैं सर्वज्ञ हैं सर्व लोकालोकस्वरूप चराचर पदार्थानकू प्रत्यक्ष जानैं सो सर्वज्ञ है । बहुरि कैसे हैं-सर्वदर्शी कहिये सर्व पदार्थनिके देखनेवाले हैं । बहुरि कैसे हैं निर्मोह हैं मोहनीयनामा कर्मकी प्रधान प्रकृति मिथ्यात्व है ताकरि रहित हैं । बहुरि कैसे हैं-वीतराग हैं विशेषकरि जाकै राग दूरभया होय सो वीतराग, सो जिनके चारित्रमोहकर्मका उदयतें होय ऐसा रागद्वेषभी नांही है। बहुरि कैसे हैं-त्रिजगद्वंद्य हैं तीन जगतके प्राणी तथा तिनिके स्वामी इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती तिनिकरि बंदिवे योग्य हैं। ऐसैं अरहंत पदकू विशेष्यकरि अन्य पद विशेषण करि अर्थ किया है । बहुरि सर्वज्ञ पदकू विशेष्यकरि अन्यपद विशेषण करिये ऐसे भी अर्थ होय है तहां अरहंत भव्यजीवनिकरि पूज्य हैं ऐसा विशेषण होय है । बहुरि चारित्र कैसा है-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चरित्र ये तीन आत्माके परिणाम है तिनिकै शुद्धताका कारण है चारित्र अंगीकार भये सम्यग्दर्शनादि परिणाम निर्दोष होय हैं। बहुरि कैसा है चारित्र-माक्षके आराधनका
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका। ७९ कारण है ऐसा चारित्र है ताका पाहुड कहिये प्रामृत ग्रंथ कहूंगा, ऐसैं आचार्य मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करी है ॥ १-२॥
आगैं सम्यग्दर्शनादि तीन भावनिका स्वरूप कहें हैं;गाथा—जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं ।
णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ॥३॥ संस्कृत-यज्जानाति तत् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितम् ।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रं ॥३॥ अर्थ---जो जानैं सो ज्ञान है बहुरि जो देखै सो दर्शन है ऐसैं कह्या है बहुरि ज्ञान अर दर्शनका समायोग” चारित्र होय है ॥ ___ भावार्थ--जानैं सो तौ ज्ञान अर देखै श्रद्धान होय सो दर्शन अर दोऊ एकरूप होय थिर होनां चारित्र है ॥३॥ ___ कहै है--जो तीन भाव जीवके हैं तिनिकी शुद्धताकै अर्थि चारित्र दोय प्रकार कह्या है;-- गाथा-एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया ।
तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं ॥४॥ संस्कृत-एते त्रयोऽपि भावाः भवंति जीवस्य अक्षयाः अमेयाः।
त्रयणामपि शोधनार्थे जिनभणितं द्विविधं चारित्रम् ॥ अर्थ—ये ज्ञान आदिक तीन भाव कहे ते अक्षय अर अनंत जीवके भाव हैं इनिके सोधनेंकै अर्थि जिनदेव दोय प्रकार चारित्र कह्या है ॥
भावार्थ-जाननां देखनां आचरण करनां ये तीन भाव जीवके अक्षयानंत हैं, अक्षय कहिये जाका नाश नहीं, अमेय कहिये अनंत, जाका . (१) मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें यह गाथा ४ के नंबरकी है।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितपार नाही, सर्व लोकालोककू जाननेवाला ज्ञान है ऐसाही दर्शन है ऐसाही चरित्र है तथापि धातिकर्मके निमित्त अशुद्ध हैं ज्ञान दर्शन चारित्ररूप हैं तातै श्रीजिनदेव तिनिके शुद्ध करनें• इनिका चारित्र आचरण करना दोय प्रकार कह्या है ॥ ४ ॥
आगें दोय प्रकार कह्या सो कहैं हैं;गाथा-जिणणागदिटिसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ।
विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ॥ ५ ॥ संस्कृत-जिनज्ञानदृष्टिशुद्धं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् ।
द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि ॥५॥ अर्थ-प्रथम तौ सम्यक्त्वका आचरणस्वरूप चारित्र है सो कैसा हैजिनदेवका ज्ञान दर्शन श्रद्धान ताकार किया हुवा शुद्ध है, बहुरि दूसरा संयमका आचरणस्वरूप चारित्र है सोभी जिनदेवका [न करि दिखाया हुवा शुद्ध है ॥
भावार्थ--चारित्र दोय प्रकार कह्या तहां प्रथम तौ सम्यक्त्वका आचरण कह्या सो जो सर्वज्ञका आगममैं तत्वार्थका स्वरूप कह्या ताकू यथार्थ जानि श्रद्धान करनां अर ताके शंकादि अतीचार मल दोष कहे तिनिका परिहार कारि शुद्ध करनां अर ताके निःशंकितादि गुणनिका प्रगट होनां सो सम्यक्त्वचरणचारित्र है, बहुरि जो महाव्रत आदि अंगीकार कार सर्वज्ञके आगममैं कमा तैसा संयमका आचरण करनां अर ताके अतीचार आदि दोषनिका दूरि करनां सो संयमचरण चारित्र है, ऐसैं संक्षेपकार स्वरूप कया ॥ ५॥ ___ आगैं सम्यक्त्वचरण चारित्रके मल दोषनिका परिहार करि आचरण करनां ऐसैं कहै है;
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका। ८१ गाथा—एवं चिय णाऊण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाइ ।
परिहरि सम्मत्तमला जिणमणिया तिविहजोएण॥६॥ संस्कृत-एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन् ।
परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान् त्रिविधयोगेन॥६ अर्थ—ऐसैं पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्रकू जानि अर मिथ्यात्व कर्मके उदयतै भये जे शंकादिक दोष ते सम्यक्त्वके अशुद्ध करनेवाले मल हैं ते जिनदेवनैं कहे हैं तिनिकू मन वचन कायकरि भये जे तीन प्रकार योग तिनिकरि छोडनें ॥ ___ भावार्थ- सम्यक्त्वका चरण चरित्र शंकादिदोष सम्यक्त्वके मल हैं तिनिळू त्यागे शुद्ध होय हैं यारौं तिनिका त्याग करनेका उपदेश जिनदेवनैं किया है । ते दोष कहा ? सो कहिये है; जो जिनवचन वि. वस्तुका स्वरूप कह्या ताविौं संशय करना सौ तौ शंका है, याके होतेंसप्तभयके निमित्त” स्वरूप” चिंगि जाय सो भी शंका है। बहुरि भोगनिका अभिलाष सो कांक्षा है याके होतें भोगनिकै अर्थि स्वरूप” भ्रष्ट होय है। बहुरि वस्तुका स्वरूप कहिये धर्मवि. ग्लानि करनां जुगुप्सा है याके होते धर्मात्मा पुरुषनिकै पूर्व कर्मके उदयतें बाह्य मलिनता दखि मततै चिगि जानां होय है। बहुरि देव गुरु धम तथा लौकिक कार्यनिविर्षे मूढता कहिये यथार्थ स्वरूप न जाननां सो मूढ दृष्टि है याके होते अन्य लौकिक माने जो सरागीदेव हिंसाधर्म सग्रंथगुरु तथा लोकनिनैं बिना विचारे माने जे अनेक क्रियाविशेष तिनि” विभवादिककी प्राप्तिकै आर्थि प्रवृति करने यथार्थ मतौं भ्रष्ट होय है बहुरि धर्मात्मा पुरुषनिविर्षे कर्मके उदयतें किछु दोष उपज्या दखि तिनिकी अवज्ञा करनी सो अनुपगृहन है, याके होतें धर्मर्ते
अ० व०६
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
छूटि जाना होय है बहुरि धर्मात्मा पुरुषनिकुं कर्मके उदयके वश” धर्मः चिगते देखि तिनिकी थिरता न करनी सो अस्थितीकरण है याके होतें जानिये याकै धर्मः अनुराग नहीं अर अनुराग न होनां सो सम्यक्त्व मैं दोष है। बहुरि धर्मात्मा पुरुषनितें विशेष प्रीति न करनां सो अवात्सल्य है याके होते सम्यक्त्वका अभाव प्रगट सूचै है। वहुरि धर्मका माहात्म्य शक्तिसारूं प्रगट न करनां सो अप्रभावना है याकै होतें जानिये याके धर्मका महात्म्यकी श्रद्धा प्रगट न भई। ऐसैं ये आठ दोष सम्यक्त्वके मिथ्यात्वके उदयतें होंय है, जहां ये तीव्र होंय तहां तौ मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय जनावै है सम्यक्त्वका अभाव जनावै है, अर जहां किछु मंद अतीचार रूप होय तौ सम्यक्त्व प्रकृति नामा मिथ्यात्वकी प्रकृतिके उदयतें होय ते अतीचार कहिये तहां क्षायोपशमिक सम्यक्त्वका सद्भाव होय है; परमार्थ विचारिये तव अतीचार त्यागनेही योग्य हैं । बहुरि इनिके होते अन्यभी मल प्रगट होय हैं तहां तीन तौ मूढता; देवमूढता, पाखंडमूढता, लोकमूढता । तहां देवमूढता तो ऐसैं जहां किछु वरकी वांछाकरि सरागीदेवनिकी उपासना करनां तिनिकी पाषाणादिविर्षे स्थापनाकरि पूजनां । बहुरि पाखंडमूढता ऐसैंजहां ग्रंथ आरंभ हिंसादिक सहित पाखंडीभेषी तिनिका सत्कार पुरस्कारादिक करनां । बहुरि लोकमूढता ऐसैं जहां अन्यमतीनिके उपदेश तथा स्वयमेव विना विचारे किछु प्रवृत्ति करने लगि जाय जैसैं सूर्यकू अर्घ देनां, ग्रहणविर्षे स्नान करना, संक्रांतिविधैं दान करना, अग्निका सत्कार करना, देहली घर कूवा पूजनां, गऊके पूंछ• नमस्कार करनां, गऊका मूत्रकू पीवनां रत्न घोडा आदि वाहन पृथ्वी वृक्ष शस्त्र पर्वत आदिकका सेवन पूजन करनां, नदी समुद्र
आदिकू तीर्थ मानि तिनिमैं स्नान करना, पर्वत” पडनां अग्निमैं प्रवेश करनां इत्यादि जाननां। बहुरि छह अनायतन हैं-कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र
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अष्टपाहुडमें चारिपात्रहुडकी भाषावचनिका । ८३ अर इनके भक्त ऐसैं छह; इनिकू धर्मके ठिकानें जानि इनिकी मन करि प्रशंसा करनां वचनकरि सराहना करना काय करि वंदनां करनां, ये धर्मके ठिकाने नांही तारौं इनि• अनायतन कहे । बहुरि जाति लाभ कुल रूप तप बल विद्या ऐश्वर्य इनिका गर्व करनां ऐसैं आठ मद हैं; तहां जाति तौ मातापक्ष है, अर लाभ धनादिक कर्मके उदयके आश्रय हैं, कुल पितापक्ष है, रूप कर्मउदयाश्रित है, तप अपना स्वरूप साधनकू है बल कर्म उदयाश्रित है; विद्याकर्मके क्षयोपशमाश्रित है ऐश्वर्य कर्मोदयाश्रित है; इनिका गर्व कहा! परद्रव्यके निमित्त होय ताका गर्व करनां सो सम्यक्त्वका अभाव जनावै है अथवा मलिनता करै है। ऐसैं ये पच्चीस सम्यक्त्वके मल दोष हैं तिनिकू त्यागे सम्यक्त्व शुद्ध होय है, सो ही सम्यक्त्वाचरणचारित्रका अंग है ॥ ६॥ ___ आगै शंकादि दोष दूरि भये आठ अंग सम्यत्क्वके प्रगट होय हैं तिनिकू कहै है;गाथा-णिस्संकिय णिकंखिय णिव्विदिगिंछा अमूढदिट्टी य।
उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावण य ते अह ॥७॥ संस्कृत-निःशंकितं निःकांक्षितं निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टी च। उपगृहनं स्थितीकरणं वात्सल्यं प्रभावना च ते
अष्टौ ॥ ७॥ अर्थ-निःशंकित निःकांक्षित निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टी उपगृहन स्थितीकरण वात्सल्य प्रभावना ऐसैं आठ अंग हैं ॥
भावार्थ-ये आठ अंग पहिलैं कहे जे शंकादि दोष तिनिके अभावतें प्रगट होय हैं, तिनिके उदाहरण पुराणनिमैं हैं तिनिकी कथातें जाननें । निःशंकितका तौ अंजन चौरका उदाहरण है जानै जिनवचनविर्षे शंका
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८४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितन करी निर्भय होय छींकेकी लड़ काटि मंत्र सिद्ध किया । बहुरि निःकांक्षितका सीता अनंतमती सुतारा आदिका उदाहरण है जिनि. भोगनिकै अर्थि धर्म न छोड्या । बहुरि निर्विचिकित्साका उद्दायनराजाका उदाहरण है जानै मुनिका शरीर अपवित्र दोखि ग्लानि न करी । बहुरि अमूढदृष्टीका रेवतीराणीका उदाहरण है जानैं विद्याधर अनेक महिमा दिखाई तौऊ श्रद्धान” शिथिल न भई। बहुरि उपगृहनका जिनेंद्रभक्तसेठका उदाहरण है जा चोर ब्रह्मचर्यभेषकरि छत्र चोऱ्या ताकू ब्रह्मचर्यपदकी निंदा होती जानि ताका दोष छिपाया । बहुरि स्थितीकरणका वारिषेणका उदाहरण है जानै पुष्पदंत ब्राह्मणकू सुनिपदतै शिथिल भया जानि दृढ किया । बहुरि वात्सल्यका विष्णुकुमारका उदाहरण है जानें अकंपन आदि मुनिनिका उपसर्ग निवारण किया । बहुरि प्रभावना विर्षे वज्रकुमार मुनिका उदाहरण है जाने विद्याधरका सहाय पाय धर्म की प्रभावना करी । ऐसें आठ अंग प्रगट भये सम्यक्त्वचरण चारित्र संभव है जैसैं शरीरमैं हाथ पग होंय तैसैं सम्यक्त्वके अंग है, ये न होंय तौ विकलांग होय ॥ ७ ॥ _ आज कहै है जो ऐसैं पहला सम्यक्त्वाचरण चारित्र होय है,गाथा-तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय ।
जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ॥ ८ ॥ संस्कृत- तच्चैव गुणविशुद्धं जिनसम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय ।
तत् चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम्॥८॥ अर्थ-तत् कहिये सो जिनसम्यक्त्व कहिये अरहंत जिनदेवकी श्रद्धा निःशकित आदि गुणनिकरि विशुद्ध होय ताहि यथार्थज्ञान करि सहित आचरण करै सो प्रथम सम्यक्त्वचरणचारित्र है सो मोक्षस्थानकै अर्थि होय है ॥
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । . ८५ भावार्थ-सर्वज्ञके भाषे तत्वार्थकी श्रद्धा निःशंकित गुणनिकरि सहित पचीस मल दोषनिकरि रहित ज्ञानवान आचरण करै ताकू सम्यक्त्वचरण चारित्र कहिये सो यह मोक्षकी प्राप्तिकै अर्थि होय है जानैं मोक्षमार्गमैं पहलैं सम्यग्दर्शन कह्या है तातें मोक्षमार्गमैं प्रधान यह ही है ॥५॥
आनें कहै है जो ऐसा सम्यत्क्वचरणचारित्रकू अंगीकार करि जो संयमचरण चारित्रकू अंगीकार करै तौ शीघ्रही निर्वाणकू पावै;गाथा-सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा।
णाणी अमूढदिट्टी अचिरे पावंति णिव्वाणं ॥९॥ संस्कृत-सम्यक्त्वचरणशुद्धाः संयमचरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धाः।
ज्ञानिनः अमुढदृष्टयः अचिरं प्राप्नुवंति निर्वाणम् ॥९॥ अर्थ-जे ज्ञानी भये संते अमूढदृष्टी होय करि अर सम्यत्क्व चरण चारित्रकार शुद्ध होय हैं अर जो संयमचरण चारित्रकरि सम्यक प्रकार शुद्ध होय तौ शीघ्रही निर्वाणकू प्राप्त होय हैं ॥
भावार्थ—जो पदार्थनिका यथार्थज्ञानकरि मूढदृष्टिरहित विशुद्ध सम्यग्दृष्टी होयकरि सम्यक्चारित्रस्वरूप संयम आचरै तौ शीघ्रही मोक्षकू पावै संयम अंगीकार भये स्वरूपका साधनरूप एकाग्र धर्मध्यानके बलतें सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानरूप होय श्रेणी चढि अंतर्मुहूर्त मैं केवलज्ञान उपजाय अघातिकर्मका नाशकरि मोक्ष पावै है, सो यह सम्यत्क्वचरणचारित्रकाही माहात्म्य है ॥९॥ - आगैं कहै है—जो, सम्यक्त्वके आचरणकरि भ्रष्टहैं ते संयमका आचरण करैं हैं तौऊ मोक्ष नांहीं पावैं हैं;
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितगाथा--सम्मत्तचरणभहा संजमचरणं चरति जे वि णरा ।
अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं ॥१०॥ संस्कृत--सम्यक्त्वचरणभ्रष्टाः संयमचरणं चरन्ति येऽपि नराः।
___अज्ञानज्ञानमूढाः तथाऽपि न प्राप्नुवंति निवोणम्॥१० अर्थ---जे पुरुष सम्यक्त्वचरण चारित्रकरि भ्रष्ट हैं अर संयम आचरण करें हैं तोऊ ते अज्ञानकरि मूढदृष्टी भये संते निर्वाणकू नाहीं पावै हैं ।
भावार्थ--सम्यक्त्वचरणचारित्रविना संयमचरणचारित्र निर्वाणका कारण नाही है जाते सम्यग्ज्ञान विना तौ ज्ञान मिथ्या कहावै है सो ऐसे सम्यक्त्वविना चारित्रकै मिथ्यापणां आवै है ॥ १० ॥
आगें प्रश्न उपजैहै जो ऐसा सम्यक्त्वचरणचारित्रके चिह्न कहा है तिनिकरि तिसकू जानिये ताका उत्तररूप गाथामैं सम्यत्कके चिह्न कहैं हैं;-- गाथा-वच्छल्यं विणएण य अणुकंपाए सुदाणदच्छाए ।
मग्गगुणसंसणाए अवगृहणरक्खणाए य ॥ ११ ॥ एएहि लक्खणेहिं य लक्खिजइ अन्जवेहिं भावहिं।
जीवो आराहतो जिणसम्मत्तं अमोहेण ॥ १२ ॥ संस्कृत-वात्सल्यं विनयेन च अनुकंपया सुदानदक्षया ।
मार्गगुणशंसनया उपगृहनं रक्षणेन च ॥ ११ ॥ एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आर्जवैः भावैः । जीवः आराधयन् जिनसम्यक्त्वं अमोहेन ॥ १२ ॥
१-मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें यह गाथा ही नहीं है, वचनिकाकी तीनों प्रतियों में है।
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । ८७ अर्थ-जिनदेवकी श्रद्धा सम्यक्त्व ताकू मोह कहिये मिथ्यात्त्व ताकरि रहित आराधता जीव है सो एते लक्षण कहिये चिह्न तिनिकार लखिये है जानिये है--प्रथम तौ धर्मात्मा पुरुषनिकै जाकै वात्सल्यभाव होय जैसैं तत्कालकी प्रसूतिवान गऊकै वच्छातूं प्रीति होय तैसी धर्मात्मातूं प्रीति होय, एक तौ ये चिह्न है। बहुरि सम्यत्वादि गुणनिकरि अधिक होय ताका विनय सत्कारादिक जाकै अधिक होय; ऐसा विनय, एक ये चिह्न है । बहुरि दुखी प्राणी देखि करुणा भावस्वरूप अनुकंपा जाकै होय, एक ये चिह्न है; बहुरि अनुकंपा कैसी होय भलै प्रकार दानकरि योग्य होय । बहुरि निग्रंथस्वरूप मोक्षमार्गकी प्रशंसाकार सहित होय, एक ये चिह्न है; जो मार्गकी प्रशंसा न करता होय तौ जानिये याकै मार्गकी दृढ श्रद्धा नाही । बहुरि धर्मात्मा पुरुषनिकै कर्मके उदय तें दोष उपजै ताकू विख्यात न करै ऐसा उपगूहन भाव होय, एक ये चिह्न है । बहार धर्मात्माकू मार्ग तैं चिगता जानि तिसकी थिरता करै ऐसा रक्षण नाम चिह्न है याकू स्थितीकरणभी कहिये । बहुरि इनि सर्व चिह्ननिका, सत्यार्थ करनेवाला एक आर्जवभाव है जाते निष्कपट परिणामतें ये सर्व चिह्न प्रगट होय है सत्यार्थ होय है, एते लक्षणनिकार सम्यग्दृष्टीकू जानिये है ॥ ___ भावार्थ-सम्यंत्वभाव मिथ्यात्वकर्मके अभावतें जीवनिका निजभाव प्रगट होय है सो वह भाव तौ सूक्ष्म है छद्मस्थज्ञान गोचर नाही, अर ताके बाह्य चिह्न सम्यग्दृष्टी के प्रगट होय है तिनिकार सम्यत्व भया जानिये है । ते वासल्य आदि भाव कहे ते आपकै तौ आपके अनुभव गोचर होय है अर अन्यके ताकी वचन कायकी क्रिया तें जानिये है, तिनिकी परीक्षा जैसैं आपके क्रियाविशेष तैं होय है तैसैं अन्यकीभी क्रियाविशेष तैं परीक्षा होय है, ऐसा व्यवहार है; जो ऐसा न
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.८८ पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचितहोय तौ सम्यत्व व्यवहार मार्गका लोप होय तातै व्यवहारी प्राणीकू व्यवहारहीका आश्रय कह्या है परमार्थ सर्वज्ञ जानै है ॥ ११-१२ ॥
आगें कहै है जो ऐसे कारणनिकरि सहित होय तौ सम्यक्व छोडै है, गाथा—उच्छाहभावणासं पसंससेवा कुदंसणे सद्धा।
आण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं ॥१३॥ संस्कृत-उत्साहभावनाशं प्रशंसासेवा कुदर्शने श्रद्धा ।
अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहााति जिनसम्यक्त्वम् ॥१३॥ अर्थ-कुदर्शन कहिये नैयायिक वैशेषिक सांख्यमत मीमांसकमत वेदान्तमत बौद्धमत चार्वाकमत शून्यवादके मत इनिके भष तथा तिनिके भाषे पदार्थ बहुरि श्वेतांबरादिक जैनाभास इनिकै विधैं श्रद्धा तथा उत्साहभावना तथा प्रशंसा तथा इनिकी उपासना सेवा करता पुरुष है सो जिनमतकी श्रद्धारूप सम्यत्त्ववकू छोडै है, कैसा है कुदर्शन अज्ञान अर मिथ्यात्वका मार्ग है ॥ __ भावार्थ--अनादिकालतें मिथ्यात्वकर्मके उदयतें यह जीव संसारमैं भ्रमै है सो काई भाग्यके उदय जिनमार्गकी श्रद्धा भई होय अर मिथ्यामतके प्रसंगकरि मिथ्यामतकै विषै किछु कारण” उत्साह भावना प्रशंसा सेवा श्रद्धा उपजै तो सम्यत्त्ववका अभाव होय जाय जातें जिनमत सिवाय अन्यमत है तिनिमैं छद्मस्थ अज्ञानीनि करि प्ररूप्या मिथ्या पदार्थ तथा मिथ्याप्रवृत्तिरूप मार्ग है ताकी श्रद्धा आवै तब जिनमतकी श्रद्धा जाती रहै तातै मिथ्यादृष्टीनिका संसर्गही न करना, ऐसा भावार्थ जाननां ॥ १३ ॥
आगैं कहै है जो ये ही उत्साह भावनादिक कहे ते सुदर्शन विर्षे होय तो जिनमतकी श्रद्धारूप सम्यक्त्वकू न छोडै है;
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
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गाथा-उच्छाहभावणासं पसंससेवा सुदंसणे सद्धा ।
ण जहदि जिणसम्मत्तं कुव्वतो णाणमग्गेण ॥ १४॥ संस्कृत-उत्साहभावनाशं प्रशंसासेवाः सुदर्शने श्रद्धा ।
न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण ॥१४॥ अर्थ—सुदर्शन कहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप सम्यक् मार्ग तावि उत्साहभावना कहिये ग्रहण करनेका उत्साह अर वारंवार तिवनरूप भाव बहुरि प्रशंसा कहिये मन वचन कायकरि भला जानि स्तुति करनां सेवा कहिये उपासना पूजनादिक करना बहुरि श्रद्धा करनी ऐसैं ज्ञानमार्गकरि यथार्थ जानि करता पुरुष है सो जिनमतकी श्रद्धारूप सम्यक्त्व है ताहि न छोडै है ॥ ___ भावार्थ-जिनमतविर्षे उत्साह भावना प्रशंसा सेवा श्रद्धा जाकै होय सो सम्यक्त्व” च्युत न होय है ॥ १४ ॥
आण अज्ञान मिथ्यात्व कुचारित्र त्यागका उपदेश करै है;गाथा-अण्णाणं मिच्छत्तं वजहि णाणे विसुद्धसम्मत्ते ।
अह मोहं सारंभ परिहर धम्मे अहिंसाए ॥ १५ ॥ संस्कृत-अज्ञानं मिथ्यात्वं वर्जय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे ।
अथ मोहं सारम्भं परिहर धर्मे अहिंसायाम् ॥१५॥ अर्थः-आचार्य कहै हैं जो हे भव्य ! तू ज्ञानके होते तो अज्ञानकू वर्जि त्यागकरि, बहुरि विशुद्ध सम्यक्त्वेक होते मिथ्यात्वकू त्यागकरि, बहुरि अहिंसालक्षण धर्मके होते आरंभसहित मोहकू परिहरि ॥ __ भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति भये फेरि मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्रवि मति प्रवत्तौं, ऐसा उपदेश है ॥ १५ ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
आगें फेरि उपदेश करें हैं:
गाथा - पव्वञ्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे । हो सुविसुद्ध जाणं णिमो वीरायते ॥ १६ ॥ संस्कृत - - प्रव्रज्यायां संगत्यागे प्रवर्त्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे । भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे ॥ १६ ॥
अर्थ — हे भव्य ! तू संग कहिये परिग्रहका त्याग जामैं होय ऐसी दीक्षा ग्रहण करि बहुरि भलै प्रकार संयमस्वरूपभाव होतैं सम्यक् प्रकार तप विषै प्रवर्त्तन करि जातैं तेरै मोहरहित वीतरागपणा हो निर्मल धर्म शुक्ल ध्यान होय ॥
भावार्थ — निग्रंथ होय दीक्षा ले संयमभावकरि भलै प्रकार तपविषै प्रवर्त्तं तब संसारका मोह दूरि होय वीततरागपणां होय तब निर्मल धर्मध्यान शुक्लध्यान होय है ऐसें ध्यानतैं केवलज्ञान उपजाय मोक्ष प्राप्त होय है तातैं ऐसा उपदेश है ॥ १६ ॥
आमैं है है जो ये जीव अज्ञान अर मिथ्यात्वके दोष करि मिथ्यामार्गविषै प्रवर्त्ते है:
गाथा - मिच्छादंसणमग्गे मलिणे अण्णाण मोहदोसेहिं ।
वज्झति मूढजीवा मिच्छत्ता बुद्धिउदएण ॥ १७ ॥ संस्कृत - मिथ्यादर्शनमार्गे मलिने अज्ञानमोहदोषैः ।
वध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वा बुद्धयुदयेन ॥ १७ ॥
अर्थ-मूढ जीव हैं ते अज्ञान अर मोह कहिये मिथ्यात्व इनके दोष -- निकरि मलिन जो मिथ्यादर्शन कहिये कुमतका मार्ग ताविषै मिथ्यात्व अर अबुद्धि कहिये अज्ञान तिनिके उदयकार प्रवर्ते है ॥
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । ९१ भावार्थ-ये मूढजीव मिथ्यात्व अर अज्ञानके उदयकरि मिथ्यामार्गविर्षे प्रवर्ते है जातें मिथ्यात्व अज्ञानका नाश करनां यह उपदेशहै ॥१७॥ ___ आगैं कहै है जो सम्यग्दर्शन ज्ञान श्रद्धानकरि चारित्रके दोष दूरि होयहैं;गाथा-संम्मदंसण पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया ।
सम्मेण य सद्दहदि परिहरदि चरित्तजे दोसे ॥१८॥ संस्कृत-सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति च परिहरति चारित्रजान्
दोषान् ॥ १८ ॥ अर्थ—यह आत्मा सम्यग्दर्शन करि तौ सत्तामात्र वस्तुकू देखै है बहुरि सम्यगज्ञानकरि द्रव्य अर पर्यायनिकू जानैं है बहुरि सम्यक्त्वकार द्रव्य पर्याय स्वरूप सत्तामयी वस्तुका श्रद्धान करै है, बहुरि ऐसे देखनां जाननां श्रद्धान होय तब चारित्र कहिये आचरण ताविौं उपजे जे दोष तिनिकू छोडै है ॥ __ भावार्थ-वस्तुका स्वरूप द्रव्य पर्यायात्मक सत्ता स्वरूप है सो जैसा है तैसा देखै जानें श्रद्धान करै तब आचरण शुद्ध करे सो सर्वज्ञके आगम” वस्तुका निश्चयकरि आचरण करनां । तहां वस्तु है सो द्रव्य पर्याय स्वरूप है । तहां द्रव्यका सत्तालक्षण है तथा गुणपर्यायवानकू द्रव्य कहिये । बहुरि पर्याय है सो दोय प्रकार है; सहवर्ती, अर क्रमवर्ती । तहां सहवर्ती• गुण कहिये है, क्रमवर्तीकू पर्याय कहिये है। तहां द्रव्य सामान्यकरि एक है तौऊ विशेषकरि छह हैं; जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ऐसैं । तहां जीवकै दर्शनमयी चेतना तौ गुण है अर मति आदिक ज्ञान अर क्रोध मान माया लोभ आदि तथा नर नारक
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
आदि विभाव पर्याय हैं, स्वभावपर्याय अगुरुलघु गुणकै द्वारै हानि वृद्धिका परिणमन है। बहुरि पुद्गल द्रव्यकै स्पर्श रस गंध वर्णरूप मूर्तीकपणां तौ गुण है स्पर्श रस गंध वर्णका भेदरूप परिणमन तथा अणुनै स्कंधरूप होनां तथा शब्दबंध आदिरूप होना इत्यादि पर्याय हैं । बहुरि धर्म अधर्म द्रव्यकै गतिहेतुत्व स्थितिहेतुत्वपणां तौ गुण है अर इस गुणके जीव पुद्गलके गति स्थितिके भेदनितें भेद होय ते पर्याय हैं, तथा अगुरुलधु गुणकै द्वारै हानि वृद्धिका परिणमन होय सो स्वभाव पर्याय है । बहुरि आकाशकै अवगाहना गुण है अर जीव पुद्गल आदिके निमित्त” प्रदेश भेद कल्पिये ते पर्याय हैं, तथा हानिवृद्धिका परिणमन सो स्वभाव पर्याय है। बहुरि काल द्रव्यकै वर्त्तना तौ गुण है अर जीव पुद्गलके निमित्ततें समय आदिकल्पना है सो पर्याय है याकू व्यवहार कालभी कहिये है, बहुरि हानि वृद्धिका परिणमन सो स्वभाव पर्याय है। इत्यादि इनिका स्वरूप जिन आगम तैं जानि देखनां जाननां श्रद्धान करना, यातें चारित्र शुद्ध होय है। विना ज्ञान श्रद्धान आचरण शुद्ध नांही होय है, ऐसें जाननां ॥ १८ ॥ ___ आगें कहै है जो ये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीन भाव हैं ते मोहरहित जीवकै होय हैं इनिळू आचस्ता शीघ्र मोक्ष पावै है;-- गाथा--एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स ।
नियगुणमाराहंतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ ॥१९॥ संस्कृत-एते त्रयो पि भावाः भवंति जीवस्स मोहरहितस्य।
निजगुणमाराधयन् अचिरेण अपि कर्म परिहरति॥१९॥ अर्थ-ये पूवोक्त सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीन भाव हैं ते निश्चय करि मोह कहिये मिथ्यात्व ताकरि रहित होय तिस जीवकै होय हैं तब
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
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यह जीव अपना निजगुण जो शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी चेतना ताकू आरा-. धता संता थोरेही कालमैं कर्मका नाश करै है ॥ ___ भावार्थ-निजगुणका ध्यान शीघ्रही केवलज्ञान उपजाय मोक्ष पावै हैं ॥ १९॥ ___ आगें इस सम्यक्त्वचरणचारित्रके कथनकुं संकोचै है;गाथा--संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसोरिमेरुमत्ता णं ।
सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा ॥ २० ॥ संस्कृत-संख्येयामसंख्येयगुणां संसारिमेरुमात्रां णं।
सम्यत्क्वमनुचरंतः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः॥२०॥ __ अर्थ—सम्यत्वकू आचरण करते धीर पुरुष हैं ते संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी कर्मनिकी निर्जरा करें हैं, बहुरि कर्मनिके उदयतें भया संसारका दुःख ताका नाश करें हैं, कैसे हैं कर्म; संसारी जीवनिका मेरु कहिये मर्यादा मात्र है, सिद्ध भये पीछे कर्म नाही है । ___ भावार्थ-इस सम्यत्वके आचरण भये प्रथमकालमैं तौ गुणश्रेणी निर्जरा होय है सो तौ असंख्यातके गुणकाररूप है बहुरि पीछे जेतें संयमका आचरण न होय तेरौं गुणश्रेणी निर्जरा न होय तहां संख्यातका गुणकाररूप होय है तारौं संख्यातगुण अर असंख्यातगुण ऐसैं दोऊ वचन कहे, बहुरि कर्म तो संसार अवस्था है जेतें हैं तिनिमैं दुःखका कारण मोह कर्म है तिसमैं मिथ्यात्व कर्म प्रधान है सो सम्यक्त्व भये मिथ्यात्वका तो अभावही भया अर चारित्रमोह दुःखका कारणहै सो
(१) मुद्रित सटीकसंस्कृत प्रतिमें 'संसारिमेरुमता' इसके स्थानमें 'सासारि मेरुमित्ता ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'सर्षपमेरुमात्रां इस प्रकार है ।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
येह जेतें है तेतैं ताकी निर्जरा करे हे ऐसैं अनुक्रमतें दुःख क्षय होय है । संयमाचरण भये सर्व दुःखका क्षय होय ही गा, इहां सम्यक्त्वका माहात्म्य ऐसा है सो सम्यक्त्वाचरण भये संयमाचरण भी शीघ्र ही होय है, यातें सम्यक्त्वकूं मोक्षमार्गमैं प्रधान जानि याहीका वर्णन पहले किया है ॥२०॥ आगैं संयमाचरण चारित्रकूं कहै है ;
गाथा - दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं ।
सायारं सग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं ॥ २१ ॥ संस्कृत - द्विविधं संयमचरणं सागारं तथा भवेत् निरागारं । सागारं सग्रन्थे परिग्रहाद्रहिते खलु निरागारम् ॥ २१ ॥
अर्थ ——संयमचरण चारित्र है सो दोय प्रकार है सागार तथा निरागार ऐसैं, तहां सागारतौ परिग्रहसहित श्रावक होय है बहुरि निरागार परिग्रहतैं रहित मुनिकैं होय है यह निश्चय है ॥ २१ ॥ आगे सागार संयमाचरणं कहै है,
गाथा - दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । भारंभ परिग्गह अणुमण उद्दि देसविरदो य ॥ २२ ॥ संस्कृत - दर्शनं व्रतं सामायिकं प्रोषधं सचितं रात्रिभुक्तिश्च । ब्रह्म आरंभः परिग्रहः अनुमतिः उद्दिष्ट देशविरतश्च ॥
अर्थ — दर्शन, व्रत, सामायिक; अर प्रोषघ आदिका नामका एक देश है अर नाम ऐसैं कहनां प्रोषधउपवास सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग उद्दिष्टत्याग, ऐस ग्यारा प्रकार देशविरत है ॥
भावार्थ - ये सागार संयमाचरणके ग्यारह स्थान हैं इनिकं प्रति- मा भी कहिये ॥ २२ ॥
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका। आरौं इनि स्थाननिविर्षे संयमका आचरण कौन प्रकार है सो कहै है। गाथा-पंचेव णुव्वयाइं गुणब्बयाई हवंति तह तिण्णि ।
सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥२३॥ संस्कृत-पंचैव अणुव्रतानि गुणव्रतानि भवंति तथा त्रीणि ।
शिक्षात्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारम् ॥२३॥ अर्थ-अणुव्रत पांच गुणव्रत तीन शिक्षाव्रत च्यार ऐसैं बारह प्रकार करि संयमचरण चारित्र है सो सागार है, ग्रंथसहित श्रावककै होय है तारौं सागार कह्या है।
इहां प्रश्न-जो यह बारह प्रकार तो व्रतके कहे अर पहलैं गाथामैं ग्यारह नाम कहे तिनिमैं प्रथम दर्शन नाम कह्या तामैं ये व्रत कैसे होय है । ताका समाधान ऐसा जो अणुव्रत ऐसा नाम किंचित् व्रतका है सो पंच अणुव्रतमैं किंचित् इहांभी होय है तारौं दर्शन प्रतिमाका धारकभी अणुव्रती ही है, याका नाम दर्शनही कह्या तहां ऐसा नाम जाननां जो याकै केवल सम्यक्त्वही होय है अर अव्रती है अणुव्रत नाही याकै अणुव्रत अतीचारसहित होय है तातें व्रतीनाम न कह्या दूजी प्रतिमामैं अणुव्रत अतीचाररहित पालै तातें व्रतनाम कह्या है, इहां सम्यक्त्वकै अतीचार टाले है सम्यक्त्वही प्रधान है तारौं दर्शनप्रतिमा नाम है। अन्य ग्रंथनिमैं याका स्वरूप ऐसैं कह्या है जो आठ मूलगुण पालै सात व्यसन त्याग सम्यक्त्व अतीचाररहित शुद्ध जाकै होय सो दर्शन प्रतिमाका धारक है तहां पांच उदंवरफल अर मद्य मांस सहत इनि आठनिका त्याग करै सो आठ मूलगुण हैं । अथवा कोई ग्रंथमैं ऐसे कया है जो पांच अणुव्रत 'पालै अर मद्य मांस मधु इनिका त्याग करै ऐसैं आठ मूलगुण हैं, सो यामैं विरोध नहीं है विवक्षाका भेद है। पांच उदंबरफल अर तीन मकारका
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचितत्याग कहने जिनि वस्तुनिमैं साक्षात् त्रस दी ते सर्वही वस्तु भक्षण नही करै ! देवादिक निमित्त तथा औषधादिकनिमित्त इत्यादि कारणनितें दीखता त्रस जीवनिका घात न करे, ऐसा आशय है, सो यामैं तौ अहिंसा अणुव्रत आया । अर सात व्यसनके त्यागमैं झूठका अर चोरीका अर परस्त्रीका त्याग आया अर व्यसनहीके त्यागमैं अन्याय परधन परस्त्रीका ग्रहण नाही, यामैं अतिलोभका त्यागतें परिग्रहका घटावनां आया, ऐसैं पांच अणुव्रत आचैं हैं । इनिके अतीचार टलै नांही तातै अणुव्रती नाम न पावै । ऐसैं दर्शन प्रतिमाका धारकभी अणुव्रती है तातें देशविरत सागारसंयमचरण चारित्रमैं याकूभी गिण्या है ॥ २३ ॥ ___ आगें पांच अणुव्रतका स्वरूप कहै है;गाथा-थूले तसकायवहे थूले मोषे अदत्तथूले य ।
परिहारो परमहिला परग्गहारंभ परिमाणं ॥ २४ ॥ संस्कृत-स्थूले त्रसकायवधे स्थूलायां मृषायां अदत्तस्थूले च ।
परिहारः परमहिलायां परिग्रहारंमपरिमाणम् ॥२४॥ अर्थ-थूल जो त्रसकायका घात, थूलमृशा कहिये असत्य, थूल अदत्ता कहिये परका न दिया धन, परमहिला कहिये परकी स्त्री इनिका तौ परिहार कहिये त्याग; बहुरि परिग्रह अर आरंभ का परिमाण ऐसैं पांच अणुव्रत हैं । ___ भावार्थ-इहां थूल कहनेमैं ऐसा अर्थ जाननां-जामैं अपनां मरण होय परका मरण होय अपनां घर विगडै परका घर विगडै राजका दंडयोग्य होय पंचनिकै दंडयोग्य होय ऐसैं मोटे अन्यायरूप पापकार्य जाननें,
१ मुद्रित सटीकसंस्कृतप्रतिमें ‘अदत्तथूले' के स्थान में 'तितेक्खथूले ' ऐसा पाठ है तथा 'परमहिला' इसके स्थान में 'परमपिम्मे' ऐसा पाठ है।
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । ९७ ऐसे स्थूल पाप राजादिकके भयतें न करे सो व्रत नाही इनिकू तीव्रकषायके निमित्त तीव्रकर्मबंधके निमित्त जांनि स्वयमेव न करनेके भावरूप त्याग होय सो व्रत है। तथा याके ग्यारह स्थानक कहे तिनिमैं ऊपरि ऊपरि त्याग वधता जाय है सो याकी उत्कृष्टता ताई ऐसा है जो जिनि कार्यनिमैं त्रस जीवनिकू बाधा होय ऐसे सर्वही कार्य टि जाय हैं तातें सामान्य ऐसा नाम कह्या है जो त्रसहिंसाका त्यागी देशव्रती होय है। याका विशेष कथन अन्य ग्रंथनितें जाननां ॥ २४ ॥
आगें तीन गुणव्रतानकू कहै है;गाथा दिसिविदिसिमाण पढमं अणत्थदंडस्स वजणं विदियं ।
भोगोपभागपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥२५॥ संस्कृत-दिग्विदिग्मानं प्रथमं अनर्थदंडस्य वर्जनं द्वितीयम् ।
भोगोपभोगपरिमाणं इमान्येव गुणव्रतानि त्रीणि॥२५॥ __ अर्थ-दिशा विदिशाविषै गमनका परिमाण सो प्रथम गुणव्रत है बहुरि अनर्थदंडका वर्जनां सो द्वितीय गुणव्रत है बहुरि भोग उपभोगका परिमाण सो तीसरा गुणव्रत है ऐसैं ये तीन गुणव्रत हैं । __ भावार्थ-इहां गुण शब्द तौ उपकारका वाचक है ये अणुव्रतनिळू उपकार करें हैं। बहुरि दिशा विदिशा कहिये पूर्वदिशा आदिकहैं तिनिविषै गमन करनेकी मर्याद करै। बहुरि अनर्थदंड कहिये जिनि कार्यनिमैं अपना प्रयोजन न सधै ऐसे जे पापकार्य तिनिकू न करै । इहां कोई पूछ-प्रयोजन विना तौ कोईभी जीव कार्य न करै है सो कि प्रयोजन विचार ही करै है अनर्थदंड कहा ?। ताका समाधान-सम्यग्दृष्टी श्रावक होय सो प्रयोजन अपने पद योग्य विचारै है, पद सिवाय सो अनर्थ, अर पापी पुरुषनिकै तौ सर्व ही पाप प्रयोजन हैं तिनिकी कहा
अ० व० ७
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
कथा । बहुरि भोग कहनेमैं भोजनादिक उपभोग कहनेमैं स्त्री वस्त्र आभूषण वाहनादिकनिका परिमाण करै । ऐसें जाननां ॥ २५॥ ___ आगें च्यार शिक्षाव्रतनिकू कहै है;गाथा-सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं ।
तइयं च अतिहिपुजं चउत्थ सल्लंहणा अंते ॥ २६ ॥ संस्कृत-सामाइकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधः भणितः।
तृतीयं च अतिथिपूजा चतुर्थ सल्खना अन्ते ॥२६॥ ___ अर्थ--सामायिक तो पहला शिक्षाव्रत है तेसैं ही दूजा प्रोषध व्रत है तीजा अथितिका पूजन है चौथा अन्तसमय सल्लेखना व्रत है । ___ भावार्थ--इहां शिक्षा शब्दकरि तौ ऐसा अर्थ सूचै है जो आगामी मुनिव्रत है ताकी शिक्षा इनिमैं है जो मुनि होगा तब ऐसैं रहना होगा। तहां सामायिक कहने तैं तौ राग द्वेषका त्यागकरि सर्व गृहारंभसंबंधी क्रियाते निवृत्ति करि एकान्त स्थानक बैठि प्रभात मध्याह्न अपराह्न किछू कालकी मर्यादकरि अपनां स्वरूपका चितवन तथा पंचपरमेष्ठीकी भक्तिका पाठ पढ़ना तिनिकी वंदना करनी इत्यादि विधान करनां सामायिक जाननां । बहुरि तैसेंही प्रोषध कहिये आ3 चौदसि पर्वनिविर्षे प्रतिज्ञा लेकरि धर्मकार्यनिमैं प्रवर्तनां सो प्रोषध है । बहुरि अतिथि कहिये मुनि तिनिका पूजन करना आहारदान करनां सो अतिथिपूजन है । बहुरि अंतसमयविर्षे कायका अर कषायका कृश करनां समाधिमरण करनां सो अंतसल्लेखना है; ऐसैं च्यार शिक्षाव्रत हैं॥ ___ इहां प्रश्न—जो तत्त्वार्थसूत्रमैं तो तीन गुणव्रतमैं देशव्रत कह्या अर भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रतमैं कह्या अर सलंखनां न्यारा कह्या सो कैसे ?
ताका समाधान--जो यह विवक्षाका भेद है इहां देशव्रत दिव्रतमैं गर्भित है अर सल्लेखना शिक्षाव्रतमैं कह्याहै, किछू विरोध है नाहीं ॥२६॥
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका। ९९ ___ आगैं कहै है संयमचरण चारित्रवि ऐसें तौ श्रावक धर्म कह्या अब यतिधर्मकू कहै हैगाथा-एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं ।
सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिकलं वोच्छे ॥ २७ ॥ संस्कृत-एवं श्रावकधर्म संयमचरणं उपदेशितं सकलम् ।
शुद्धं संयमचरणं यतिधर्म निष्कलं वक्ष्ये ॥ २७॥ अर्थ-एवं कहिये या प्रकार श्रावक धर्म स्वरूप संयमचरण तौ कह्या, कैसा है यह-सकल कहिये कलासहित है, एक देशकू कला कहिये; अब यतिधर्मका धर्मस्वरूप संयमचरण है ताहि कहूंगा ऐसैं आचार्य प्रतिज्ञा करी है, कैसा है यतिधर्म-शुद्ध है निर्दोष है जामैं पापाचरणका लेश नांहीं है, बहुरि कैसा है, निकल कहिये कलातें निःक्रांत है संपूर्ण है श्रावक धर्मकी ज्यों एकदेश नांही है ॥ २७ ॥
आणु यति धर्मकी सामग्री कहै है;गाथा-पंचेंदियसंवरणं पंच वया पंचविंसकिरियासु ।
पंच समिदि तय गुत्ती संयमचरणंणिरायारं ॥२८॥ संस्कृत-पंचेंद्रियसंवरणं पंच व्रताः पंचविंशतिक्रियासु ।
पंच समितयः तिस्रः गुप्तयः संयमचरणं निरागारम्॥२८ ___ अर्थ--पंच इंद्रियनिका संवर, पांच व्रत ते पच्चीस क्रिया के सद्भाव होतें होय, बहुरि पांच समिति, तीन गुप्ति ऐसैं निरागार संयमचरण चारित्र होय है ॥ २८ ॥
आगें पांच इंद्रियके संवरणका स्वरूप कहै है;-- गाथा-अमणुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य ।
ण करेइ रायदोसे पंचेंदियसंवरो भणिओ॥ २९ ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
संस्कृत-अमनोज्ञे च मनोज्ञे सजीवद्रव्ये अजीवद्रव्ये च ।
न करोति रागद्वेषौ पंचेंद्रियसंवरः भणितः ॥२९॥ अर्थ-अमनोज्ञ तथा मनोज्ञ ऐसे जे पदार्थ जिनिळू लोक अपने मानैं ऐसे सजीवद्रव्य स्त्रीपुत्र आदिक, अर अजीवद्रव्य धन धान्य आदि सर्व पुद्गलद्रव्य आदि, तिनिवि. राग द्वेष न करै सो पांच इन्द्रियनिका संवर कया है। - भावार्थ—इन्द्रियगोचर जे जीवअजीवद्रव्य हैं ते इंद्रियनिके ग्रहण मैं
आवै है तिनिमैं यह प्राणी काहूकू इष्ट मानि राग कर है काहूकू अनिष्ट मानि द्वेष करै है ऐसैं राग द्वेष मुनि नांहीं करै है ताकै संयमचरण चारित्र होय है ॥ २९॥ ___ आगें पांच व्रतनिका स्वरूप कहै है;गाथा-हिंसाविरइ अहिंसा असञ्चविरई अदत्तविरई य ।
तुरियं अवंभविरई पंचम संगम्मि विरई य ॥३०॥ संस्कृत-हिंसाविरतिरहिंसा असत्यविरतिः अदत्तविरतिश्च ।
तुर्य अब्रह्मविरतिः पंचमं संगे विरतिः च ॥३०॥ अर्थ--प्रथम तौ हिंसा विरति सो अहिंसा है, बहुरि दूजा असत्यविरति है; बहुरि तीजा अदत्तविरति है, बहुरि चौथा अब्रह्मविरति है पांचमां परिग्रहविरति है ।
भावार्थ इनि पांच पापनिका सर्वथा त्याग जिनमैं होय ते पांच महाव्रत हैं ॥३०॥ ___ आगें इनिळू महाव्रत ऐसा नाम काहेरौं है सो कहै है;गाथा-साहंति जं महल्ला आयरिमं जं महल्लपुव्वेहिं ।
जं च महल्लाणि तदो महव्वया इत्तहे याई ॥३१॥
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका। १०१ संस्कृत-साधयंति यन्महांतः आचरितं यत् महत्पूर्वैः ।
यच्च महन्ति ततः महाव्रतानि एतस्माद्धेतोः तानि३१ ___ अर्थ—महल्ला कहिये महंत पुरुष जिनिळू साधैं आचरै बहुरि पहलैं भी जिनिकू महंत पुरुषनि आचरे बहुरि ये व्रत आपही महान हैं जातें जिनिमैं पापका लेश नाहीं ऐसैं ये पांच महाव्रत हैं ॥ __भावार्थ-जिनिकू बड़े पुरुष आचरण करैं अर आप निर्दोष होय ते ही बड़े कहावै, ऐसैं इनि पांच व्रतनिक महाव्रत संज्ञा है ॥ ३१ ॥ ___ आरौं इनि पांच व्रतनिकी पच्चीस भावना है तिनिकू कहै है तिनिमैं प्रथमही अहिंआव्रतकी पांच भावना कहिये है:माथा-वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमिदी सुदाणणिक्वो ।
अवलोयभोयणाए अहिंसए भावणा होति ॥३२॥ संस्कृत-वचोगुप्तिः मनोगुप्तिः ईर्यासमितिः सुदाननिक्षेपः
अवलोक्य भोजनेन अहिंसाया भावना भवंति ॥३२॥ अर्थ-वचनगुप्ति अर मनोगुप्ति ऐसैं दोय तौ गुप्ति अर ईर्यासमिति बहुरि भलै प्रकार कमंडलु आदिका ग्रहण निक्षेप यह आदाननिक्षेपणा समिति बहुरि नीकै देखि विधिपूर्वक शुद्ध भोजन करनां यह एषणा समिति ऐसैं ये पांच अहिंसा महाव्रतकी भावना हैं ।
भावार्थ-~भावना नाम वार वार तिसहीका अभ्यास करना ताका है सो इहां प्रवृत्ति निवृत्तिमैं हिंसा लागै ताका निरंतर यत्न राखै तब अहिंसाव्रत पलै याइहां योगनिकी निवृत्ति करनी तौ भलैप्रकार गुप्तिरूप करनी अर प्रवृत्ति करनी तौ समिति रूप करनी ऐसे निरंतर अभ्यासआहंसा महाव्रत सृढ़ रहै है, ऐसा आशयनै इनिळू भावना कही है ॥३२॥
आगैं सत्यमहाव्रतकी भावना कहैं है
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१०२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितागाथा-कोहभयहासलोहामोहाविपरीयभावणा चेव ।
विदियस्स भावणाए ए पंचेव य तहा होति ॥३३॥ संस्कृत-क्रोधभयहास्यलोभमोहविपरीतभावनाः च एव ।
द्वितीयस्य भावना इमा पंचैव च तथा भवंति ॥३३॥ अर्थ-क्रोध भय हास्य लोभ मोह इनित विपरीत कहिये उलटा इनिका अभाव ये द्वितीय व्रत जो सत्यमहानत ताकी भावना हैं । ___ भावार्थ-असत्यवचनकी प्रवृत्ति होय है सो क्रोधलें तथा भयतें तथा हास्य तथा लोभ तथा परद्रव्यतै मोहरूप मिथ्यात्वनैं होय है सो इनिका त्याग भये सत्य महाव्रत दृढ़ रहै है। ___ बहुरि तत्त्वार्थसूत्रमैं पांचमी भावना अनुवीचीभाषण कही है सो याका अर्थ यहु जो-जिनसूत्रकै अनुसार वचन बोलै अर इहां मोहका अभाव कह्या सो मिथ्यात्वके निमित्त” सूत्रविरुद्ध कहै मिथ्यात्वका अभाव भये सूत्रविरुद्ध न कहै सोही अनुवीची भाषणकाभी यह ही अर्थ भया, यामैं अर्थ भेद नाही है ॥ ३३॥
आरौं अचौर्य महाव्रतकी भावनांकू कहै है;गाथा-मुण्णायारणिवासो विमोचितावास जं परोधं च ।
एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मीसंविसंवादो ॥३४॥ संस्कृत-शून्यागारनिवासः विमोचितावासः यत् परोधं च । व एषणाशुद्धिसहितं साधर्मिसमविसंवादः ॥ ३४ ॥
अर्थ-शून्यागार कहिये गिरि गुफा तरुकोटरादिविर्षे निवास करना, बहुरि विमोचितावास कहिये जो लोग काहू कारणनै छोडि दिया ऐसा गृह प्रामादिक तामैं निवास करनां, बहुरि परोपरोध कहिये परका जहां उपरोध न करिये वस्तिकादिककू अपनाय परकू वर्जनां ऐसे न करना,
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । १०३
बहु एषणशुद्धि कहिये आहार शुद्ध लेना, बहुरि साधर्मीनितें विसंवाद न करनां । ये पांच भावना तृतीय महाव्रतकी हैं ॥
भावार्थ - मुनिनिकै वस्तिका मैं वसनां अर आहार लेनां ये दो प्रवृत्ति अवश्य होय तहां लोक मैं इनिहीके निमित्त अदत्तका आदान होय है, मुनि वसै सो ऐसी जायगा वसै जहां अदत्तका दोष न लागै, बहुरि आहार ऐसा ले जामैं अदत्तका दोष न लागै, तथा दोऊकी प्रवृत्ति मैं साधर्मी आदिकर्ते विसंवाद न उपजै । ऐसें ये पांच भावना कही हैं, इनके होतैं अचौर्यमहाव्रत दृढ़ रहै है ॥ ३४ ॥ आगैं ब्रह्मचर्यमहाव्रतकी भावना कहै है;
गाथा - महिलालोयणपुव्वर इसरण संसत्तवसहिविकाहाहिं । पुट्टियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि ||३५|| संस्कृत - महिलालोकन पूर्वरति स्मरण संसक्तवसति विकथाभिः । पौष्टिकरसैः विरतः भावनाः पंचापि तुर्ये ॥ ३५ ॥
अर्थ—स्त्रीनिका आलोकन कहिये रागभावसहित देखनां पूर्वै भोगका स्मरण करनां, स्त्रीनिकार संसक्त वस्तिका मैं वसनां, स्त्रीनिक कथा करना, पुष्टकारी रसका सेवन करनां इनि पांचनितैं विकार उपजै तातैं इनितैं विरक्त रहनां, ये पांच ब्रह्मचर्यमहाव्रतकी भावना हैं |
भावार्थ — कामविकारके निमित्तनितैं ब्रह्मचर्यव्रत भंग होय है सो स्त्रीनिका रागभाव देखना इत्यादिक निमित्त कहे तिनिमैं विरक्त रहनां प्रसंग न करनां यातैं ब्रह्मचर्यमहाव्रत दृढ़ रहै है ॥ ३५ ॥
आगैं पांच अपरिग्रहमहाव्रतकी भावना कहैं हैं;
गाथा - अपरिग्गह समणुण्णेसु सदपरिसरसरूवगंधेसु । रायोसाईणं परिहारो भावणा होंति ।। ३६ ।
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१०४
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
संस्कृत-अपरिग्रहे समनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरसरूपगंधेषु ।
रागद्वेषादीनां परिहारो भावनाः भवन्ति ॥३६॥ अर्थ-शब्द स्पर्श रस रूप गंध ये पांच इंद्रियनिके विषय, ते कैसै समनोज्ञ कहिये मनोज्ञकरि सहित अर अमनोज्ञ कहिये मनोज्ञकरि रहित, ऐसे दौऊनिविर्षे रागद्वेष आदिका न करनां ते परिग्रहत्यागवतकी ये पांच भावनां है ॥ ३६॥ ___ भावार्थ-पांच इंद्रियनिके विषय स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द ये हैं तिनिविर्षे इष्ट अनिष्ट बुद्धिरूप राग द्वेष न करै तब अपरिग्रहव्रत दृढ़ रहै जारौं ये पांच भावना अपरिग्रहमहाव्रतकी कही हैं ॥३६॥
आगें पांच समितिकू कहै है;गाथा-इरिया भासा एसण जा सा आदाण चेव णिक्खेवो ।
संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ॥३७॥ संस्कृत-इयो भाषा एषणा या सा आदानं चैव निक्षेपः।
संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिनाः पंच समितीः॥ ___ अर्थ-ईर्या भाषा एषणा बहुरि आदाननिक्षेपण प्रतिष्ठापनां ऐसैं ये पांच समिति संयमकी शुद्धिताकै अर्थि कारण हैं ते जिनदेवनैं कहे हैं। - भावार्थ-मुनि पंचमहाव्रतरूप संयमका साधन करै है तिस संयमकी शुद्धिताकै आर्थ पांच समितिरूप प्रवत्र्ते है याही तैं याका नाम सार्थक है—" 'सं' कहिये सम्यक् प्रकार 'इति' कहिये प्रवृत्ति जामैं होय सो समिति है" । गमन करै तब जूडा प्रमाण धरती देखता चाले है, बोलै तब हितमितरूप वचन बोलै है, आहार ले सो छियालीस दोष बत्तीस अंतराय टालि चौदा मल दोष रहित शुद्ध आहार ले हैं, धर्मोपकरणनिकू उठाय ग्रहण करै सो यत्नपूर्वक ले हैं, तैसैं ही किछु
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । १०५
क्षेपै तब यत्नपूर्वक क्षेपै है; ऐसें निष्प्रमाद वर्तें तब संयम शुद्ध पलै है तातैं पंचसमितिरूप प्रवृत्ति कही है । ऐसें संयमचरण चारित्रकी प्रवृत्ति कही ॥ ३७ ॥
अब आचार्य निश्चय चारित्रकं मनमैं धारि ज्ञानका स्वरूप कहै है; - गाथा - भव्वजणवोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहि जह भणियं । गाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि ॥ ३८ ॥ संस्कृत - भव्यजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितं । ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि ॥ ३८ ॥
अर्थ — जिनमार्ग विषै जिनेश्वर देवनैं भव्यजीवनिके संबोधनके आर्थि जैसा ज्ञान अर ज्ञानका स्वरूप कया है तिस ज्ञान स्वरूप आत्मा है ताहि हे भव्यजीव ! तू जानि ॥ ३८ ॥
भावार्थ — ज्ञानकूं ज्ञानका स्वरूपकूं अन्यमती अनेक प्रकार कहैं हैं तैसा ज्ञान अर ऐसा स्वरूप ज्ञानका नांही है, जो सर्वज्ञ वीतराग देव भाषित ज्ञान अर ज्ञानका स्वरूप है सो निर्बाध सत्यार्थ है अर ज्ञान है सोही आत्मा है तथा आत्माका स्वरूप है तिसकूं जानि अर तिसमैं थिरता भाव करै परद्रव्यनितैं राग द्वेष न करै सो ही निश्चय चारित्र है, सो पूर्वोक्त महात्रतादिकी प्रवृत्तिकर इस ज्ञान स्वरूप आत्मा विषै लीन होना ऐसा उपदेश है ॥ ३८ ॥
आगैं कहै है जो ऐसा ज्ञानकरि ऐसें जानैं सो सम्यग्ज्ञानी है; - गाथा -- जीवाजीव विभत्ती जो जागड़ सो हवे सण्णाणी । रायादिदोसरहिओ जिणसास मोक्खमग्गुत्ति ॥ ३९॥
संस्कृत — जीवाजीवविभक्तिं यः जानाति स भवेत् सज्ज्ञानः । रागादिदोषरहितः जिनशासने मोक्षमार्ग इति ॥ ३९ ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
__ अर्थ-जो पुरुष जीव अर अजीव इनिका भेद जानें सो सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि रागादि दोष निकारि रहित होय ऐसा जिनशासन वि मोक्ष मार्ग है ॥ ___ भावार्थ-जो जीव अजीव पदार्थका स्वरूप भेदरूप जानि आप परका भेद जानैं सो सम्यग्ज्ञानी होय अर परद्रव्यनि रागद्वेष छोडनेंतें ज्ञानमैं थिरता भये निश्चय सम्यक्चारित्र होय सो ही जिनमतमैं मोक्षमार्गका स्वरूप कह्या है, अन्यमतीनिनैं अनेक प्रकार कल्पना करि कह्या है सो मोक्षमार्ग नांही है। ___ आगें ऐसा मोक्षमार्ग• जानि श्रद्धासहित यामैं प्रवत्र्ते है सो शीघ्र ही मोक्ष पावै है ऐसैं कहै है;गाथा-दंसणणाणचरित्तं तिण्णि वि जाणेह परमसद्धाए ।
जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं ॥४०॥ संस्कृत-दर्शनज्ञानचरित्रं त्रीण्यपि जानीहि परमश्रद्धया।
यत् ज्ञात्वा योगिनः अचिरेण लभंते निर्वाणम् ४० __ अर्थ—हे भव्य ! तू दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीननिकू परमश्रद्धाकरि जानि जिसकू जानिकार जोगी मुनि हैं सो थोरे ही कालमैं निर्वाणवू पा हैं॥ ___ भावार्थ-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक मोक्षमार्ग है ताके श्रद्धापूर्वक जाननेका उपदेश है जाते या• जानें मुनिनिकै मोक्षकी प्राप्ति होय है॥४०॥ ___ आगैं कहे है जो ऐसे निश्चयचारित्ररूप ज्ञानका स्वरूप कह्या इसकू जो पावै है सो शिवरूप मंदिरके वसनेवाले होय है;गाथा-पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्धभाणसंजुत्ता ।
हुंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥४१॥
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका । १०७
संस्कृत — प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः । भवंति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥
अर्थ — जे पुरुष इस जिनभाषित ज्ञानरूप जलकूं पाय करि अपनां निर्मल भलै प्रकार विशुद्धभावकरि संयुक्त होय हैं ते पुरुष तीन भुवनके चूडामणि अर शिव कहिये मुक्ति सोही भया आलय कहिये मंदिर तामैं बसनेवाले ऐसे सिद्ध परमेष्ठी होय हैं ।
भावार्थ — जैसैं जलतैं स्नानकारी शुद्ध होय उत्तम पुरुष महल मैं निवास करैं हैं तैसैं यह ज्ञान है सो जलवत है अर आत्माकै रागादिक मैल लगनैं तैं मलिनता होय है सो इस ज्ञानरूप जलतैं रागादिक मल धोय जे अपनें आत्माकूं शुद्ध करें हैं ते मुक्तिरूप महलमैं वसि आनंद भोग हैं, तिनिकूं तीन भुवनके शिरोमणि सिद्ध कहिये हैं ॥ ४१ ॥
आगे कहै हैं जे ज्ञानगुणकरि रहित हैं ते इष्ट वस्तु न पावैं तातैं गुण दोष जाननें ज्ञानकूं भलैप्रकार जानन:
माथा - गाणगुणेहिं विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं । इय णाऊं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाहि ॥ ४२ ॥ संस्कृत -- ज्ञानगुणैः विहीना न लभंते ते स्विष्टं लाभं ।
इति ज्ञात्वा गुणदोषौ तत् सदज्ञानं विजानीहि ४२ ॥ अर्थ – ज्ञानगुणकर हीन जे पुरुष हैं ते अपनां इच्छित वस्तुका लाभकूं नांही पावैं हैं ऐसा जानिकार हे भव्य ! तू पूर्वोक्त सम्यग्ज्ञान हैं ताहि गुण दोष जाननेकूं जानि ॥
भावार्थ -- ज्ञान विना गुण दोषका ज्ञान नांही होय तब अपने इष्टवस्तु तथा अनिष्टकं नांही जानैं तब इष्ट वतुस्का लाभ न होय तातैं सम्यग्ज्ञानही करि गुण दोष जाण्या जाय हैं यातें गुण दोष जाननेकू
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
सम्यग्ज्ञान विना हेय उपादेय वस्तुनिका जाननां न होय अर हेय उपादेय जानें विना सम्यकूचारित्र नाही होय है तातें ज्ञानहीकू चारित्र” प्रधानकरि कह्या हैं ॥ ४२ ॥ ___ आगें कहैं जो सम्यग्ज्ञान सहित चारित्र धौर है सो थोरेही कालमैं अनुपम सुखवं पा है;गाथा-चारित्तसमारूढो अप्पासु परं ण ईहए णाणी ।
पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ॥४३॥ संस्कृत-चारित्रसमारूढ आत्मनि परं न ईहते ज्ञानी ।
. प्राप्नोति अचिरेण सुखं अनुपमं जानीहि निश्चयतः॥४३ ___ अर्थ--जो पुरुष ज्ञानी है अर चारित्रकरि सहित है सो अपनें आत्मा विर्षे परद्रव्यकू नाही इच्छै हैं परद्रव्यविर्षे राग द्वेषः मोह नाही करै हैं सो ज्ञानी जाकी उपमा नाही ऐसा अविनाशी मुक्तिका सुख पावै है ऐसे हे भव्य ? तू निश्चय नै जानि। इहां ज्ञानी होय हेय उपादेयकू जानि संयमी होय परद्रव्यकू आपमैं न मिलावै सो परम सुख पावै ऐसा जनाया है ॥ ४३ ॥
आगें इष्ट चारित्रके कथनकू संकोचै है गाथा-एवं संखेवेण य भणियं णाणेण वीयराएण ।
___ सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि उदेसियं चरणं ॥४४॥ संस्कृत--एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतरागेण ।
सम्यक्त्वसंयमाश्रयद्वयोरपि उद्देशितं चरणम् ॥४४॥ १-मुद्रित सटीक संस्कृत प्रतिमें 'आत्मनि' इसके स्थानमें अत्मनः ऐसा पाठ है टीकामें अर्थभी आत्मन का ही किया है । देखो, पृष्ठ ५४ ।
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका।
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अर्थ-एवं कहिये ऐसैं पूर्वोक्त प्रकार संक्षेप करि श्रीवीतराग देवनैं ज्ञानकार कह्या ऐसा सम्यक्त्त्व अर संयम इनि दोऊनिकै आश्रय चारित्र सम्यक्त्वचरणस्वरूप अर संयमचरणस्वरूप दोय प्रकार कार उपदेशरूप किया है, आचार्य चारित्र का कथन संक्षेपरूप कहि संकोच्या है ॥ ४४ ॥ ____ आगैं इस चारित्रपाहुडकू भावनेका उपदेश अर याका फल कहै
गाथा-भावेह भावसुद्धं फुड रइयं चरणपाहुडं चेव ।
लहु चउगइ चइऊणं अइरेणऽपुणब्भवा होइ ॥ ४५ ॥ संस्कृत-भावयत भावशुद्धं स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव ।
लघु चतुर्गतीः त्यक्त्वा अचिरेण अपुनर्मवाः भवत ॥ अर्थ-इहां आचार्य कहै है जो हे भव्य जीवहो ! यह चरण कहिये चारित्रका पाहुड हमनैं स्फुट प्रगटकार रच्या है ता• तुम आपना शुद्ध भावकारी भावो अपने भावनिमैं वारंवार अभ्यास करो या शीघ्रही च्यार गतिनिकू छोड़ कार बहुरि अपुनर्भव जो मोक्ष सो तुम्हारै होयगा फेरि संसारमैं जन्म न पावोगे॥
भावार्थ-इस चारित्रपाहुडका वाचनां पढनां धारनां वारंवार भावनां अभ्यास करनां यह उपदेश है या” चारित्रका स्वरूप जानि धारनेकी रुचि होय अंगीकार करै तब च्यार गतिरूप संसारके दुःखते रहित होय निर्वाणकू प्राप्त होय फेरि संसारमैं जन्म न धारै जाते जे कल्याणके अर्थी हैं ते ऐसे करौः॥
छप्पय । चारित दोय प्रकार देव जिनवरनैं भाख्या।
समकित संयम चरण ज्ञानपूरव तिस राख्या ॥ .
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११० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
जे नर सरधावान याहि धारै विधिसेती।
निश्चय अर व्यवहार रीति आगममैं जेती ॥ जव जगधंधा सब मेटिकैं निजस्वरूपमैं थिर रहै ।
तब अष्टकर्म• नाशिकै अविनाशी शिवकू लहै ॥१॥ ऐसें सम्यत्क्वचरणचारित्र अर संयमचरण
चारित्र ऐसे दोय प्रकार चारित्रका स्वरूप इस प्राभृतविर्षे कह्या।
दोहा। जिनभाषित चारित्रकू जे पालैं मुनिराय । तिनिके चरण नमूं सदा पाऊं तिनि गुणसाज ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दचार्यस्वामि विरचित
चारित्रप्राभृतकीपं० जयचन्द्रछावड़ाकृत देशभाषामय
वचनिका समाप्त ॥३॥
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॥ श्रीः॥ अथ बोधपाहुड।
(४)
दोहा। देव जिनेश्वर सर्वगुरु बंदू मनवच काय ।
जा प्रसाद भवि बोधले पालैं जीवनिकाय ॥१॥ ऐसें मंगलाचरण करि श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत गाथाबंध बोधपाहुडकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है, तहां प्रथमही आचार्य ग्रंथ करनेकी मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करैहै;गाथा--बहुसत्थअत्थजाणे संजमसम्मत्तसुद्धतवयरणे ।
वंदित्ता आयरिए कसायमलवजिदे सुद्धे ॥१॥ सयलजणवोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं ।
वुच्छामि समासेण छकायसुहंकरं सुणह ॥२॥ संस्कृत-बहुशास्त्रार्थज्ञापकान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् ।
वन्दित्वा आचार्यान् कषायमलवर्जितान् शुद्धान् ॥१॥ सकलजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम् ।
वक्ष्यामि समासेन षड्कायसुखंकरं श्रृणु ॥२॥ युग्मम् । अर्थ-आचार्य कहै हैं जो मैं आचार्यनिकू वंदिकरि अर छह कायके जीवनिकू सुखका करनेवाला जिनमार्गविषै जिनदेवनैं जैसैं कह्या तैसैं
१-मुद्रित सटीक संस्कृत प्रतिमें 'छक्कायहियंकरं ' ऐसा पाठ है।
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११२ पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचितसमस्त लोकनिका हितका हे प्रयोजन जामैं ऐसा ग्रंथ संक्षेपकरि कहूंगा ताकू हे भव्यजीव ! तुम सुनो, जिन आचार्यनिकू वंदे ते आचार्य कैसे है-बहुत शास्त्रनिका अर्थके जाननेवाले हैं बहुरि कैसै हैं-संयम अर सम्यक इनि करि शुद्ध है तपश्चरण जिनिकै बहुरि कैसैं हैं-कषायरूप मलकरि वर्जित हैं याहीतैं शुद्ध हैं । ___ भावार्थ—इहां आचार्यनिकू वंदना करी तिनिके विशेषणनितै जानिये है कि गणधरादिकतै लगाय अपने गुरुपर्यंत तनिकी वंदेना है, बहुरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करी ताके विशेषणनितें जानिये है जो वोधपाहुड ग्रंथ करियेगा सो लोकनिकू धर्ममार्गविर्षे सावधानकरि कुमार्ग छुडाय अहिंसाधर्मका उपदेश करियेगा ॥३॥
आगैं इस वोधपाहुडमैं ग्यारह स्थल बांधे है तिनिके नाम कहै हैं, गाथा—आयदणं चेदिहरं जिणपडिमा दंसणं च जिणविवं ।
भणियं सुवीयरायं जिणमुद्दा णाणमादत्थं ॥३॥ अरहंतेण सुदिह जे देवं तित्थमिह य अरहंतं ।
पावज गुणविसुद्धा इय णायव्वा जहाकमसो ॥४॥ संस्कृत-आयतनं चैत्यगृहं जिनप्रतिमा दर्शनं च जिनबिंबम् ।
भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमात्मार्थम् ॥ ३ ॥ अर्हता सुदृष्टं यः देवः तीर्थमिह च अर्हन् ।
प्रवज्या गुणविशुद्धा इति ज्ञातव्याः यथाक्रमशः॥४ अर्थ--आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिंब कैसा है जिनबिंब भलैप्रकार वीतराग है रागसहित नाहीं जिनमुद्रा, ज्ञान सो कैसा आत्माही है अर्थ कहिये प्रयोजन जामैं, ऐसें सात, तो ये निश्चय वीत१-संस्कृत सटीक प्रतिमें 'आत्मस्थं' ऐसा पाठ है।
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका ।
११३
राग देवनैं कहे तैसैं यचा अनुक्रमतें जाननें, बहुरि देव तीर्थकर, अरहंत अर गुणकरि विशुद्ध प्रव्रज्या ये च्यार जो अरहंत भगवान कहे तैसैं इस ग्रंथविर्षे जानना, ऐसैं ये ग्यारह स्थल भये ॥ ३-४॥ ___ भावार्थ-इहां ऐसा आशय जाननां जो धर्म मार्गमैं कालदोष तें अनेक मत भये हैं तथा जैनमतमैं भी भेद भये हैं तिनिमैं आयतन आदिवि विपर्यय भया है तिनिका परमार्थ भूत सांचा स्वरूप तौ लोक जानैं नाही अर धर्मके लोभी भये जैसी बाह्य प्रवृत्ति देखें तिसहीमैं प्रवर्त्तने लगिजांय, तिनिळू संबोधनेंके आर्थ यह बोधपाहुड रच्या है तामैं आयतन आदि ग्यारह स्थानकनिका परमार्थभूत सांचा स्वरूप जैसा सर्वज्ञ देवनैं कह्या है तैसा कहियेगा, अनुक्रमते जैसैं नाम कहै तैसैंही अनुक्रमकीर इनिका व्याख्यान करियेगा सो जानने योग्य है ॥ ३-४ ॥ ___ आरौं प्रथमही आयतन कह्या ताका निरूपण कहै है;गाथा-मणवयणकायदव्वा आयत्ता जस्स इंदिया विसया ।
आयदणं जिगमग्गे णिदि संजय रूवं ॥५॥ संस्कृत-मनोवचनकायद्रव्याणि आयत्ताः यस्य ऐंद्रियाः विषयाः
आयतनं जिनमार्गे निर्दिष्टं संयतं रूपम् ॥ ५॥ अर्थ-जिनमार्ग वि. संयमसहित मुनिरूप है सो आयतन कह्या है। कैसा है मुनिरूप-जाकै मन वचन काय द्रव्यरूप हैं ते तथा पांच इन्द्रियनिके स्पर्श रस गंध वर्ण शद ये विषय हैं ते 'आयत्ता' कहिये आधीन हैं वशीभूत हैं, इनिकै संयमी मुनि आधीन नांही है ते मुनिकै वशीभूत हैं, ऐसा संयमी है सो आयतन है ॥ ५॥
आणु फेरि कहै है;१-संस्कृत सटीक प्रतिमें 'आसता' ऐसा पाठ है जिसको संस्कृत 'आसक्ताः' है।
अ०व०८
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११४ .
पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
mmmmmmmmmmm
गाथा--मय राय दोस मोहो कोहो लोहो य जस्त आयत्ता।
पंचमहव्ययधारा आयदणं महरिसी भणियं ॥६॥ संस्कृत-मदः रागः द्वेषः मोहः क्रोधः लोभः च यस्य आयत्ताः।
पंचमहाव्रतधराः आयतनं महर्षयो भणिताः ॥६॥ अर्थ-जा मुनिकै मद राग द्वेष मोह क्रोध लोभ अर चकारतें माया आदिक ये सर्व 'आयत्ता' कहिये निग्रहदूं प्राप्त भये बहुरि पांच महाव्रत जे अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य अर परिग्रहका त्याग इनिका धारी होय ऐसा महामुनि ऋषीश्वर आयतन कह्या है ॥ ___ भावार्थ-पहली गाथामैं तो बाह्यका स्वरूप कह्या था इहां बाह्य आभ्यंतर दोऊ प्रकार संयमी होय सो आयतन है ऐसा जाननां ॥६॥
आण फेरि कहै है;गाथा-सिद्धं जस्स सदत्य बिसुद्धझाणस्स णागजुत्तस्स ।
सिद्धायदणं सिद्धं मुणिवरवसहस्स मुणिदत्यं ॥७॥ संस्कृत-सिद्धं यस्य सदर्थ विशुद्धध्यानस्य ज्ञानयुक्तस्य ।
सिद्धायतन सिद्धं मुनिवरवृषभस्य मुनितार्थम् ॥७॥ .अर्थ-जा मुनिकै सदर्थ कहिये समीचीन अर्थ जो शुद्ध आत्मा सो सिद्ध भया होय सिद्वायतन है, कैसा है मुनि-विशुद्ध है ध्यान जाकै धर्मध्यानकू साधि शुक्लध्यानकू प्राप्त भया है, बहुरि कैसा है-ज्ञानकरि सहित है केवलज्ञानकू प्राप्त भया है, बहुरि कैसा है-घातकर्मरूप मलसैं रहित है याहीत मुनिनिमैं वृषभ कहिये प्रधान है, बहुरि कैसा है-जाने है समस्त पयार्थ जानैं ऐसे मुनिप्रधानकू सिद्धायतन कहिये ॥ ___ भावार्थ--ऐसें तीन गाथा) आयतनका स्वरूप कया; तहां पहलीगाथामैं तौ संयमी सामान्यका बाह्यरूप प्रधानकार कह्या, दूजीमैं अंतरंग
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। ११५ बाह्य दोऊकी शुद्धतारूप ऋद्धिधारी मुनि ऋषीश्वर कह्या, बहुरि इस तीसरी गाथामैं केवलज्ञानी है सो मुनिनिमैं प्रधान है ताकू सिद्धायतन कह्या है । इहां ऐसा जाननां जो आयतन नाम जामैं वसिये निवास करिये ताका है सो धर्मपद्धतिमैं जो धर्मात्मा पुरुषकै आश्रय करनेयोग्य होय सो धर्मायतन है सो ऐसे मुनिही धर्मके आयतन हैं, अन्य केई भेषधारी पाखंडी विषय कषायनिमैं आसक्त परिग्रहधारी धर्मके आयतन नाही हैं तथा जैनमतमैं भी जे सूत्रविरुद्ध प्रवर्ते हैं ते भी आयतन नाही है, ते सर्व अनायतन हैं, तथा बौद्धमतमैं पांच इंद्रिय, पांच तिनिके विषय, एक मन, एक धर्मायतन शरीर, ऐसैं बारह आयतन कहे हैं ते भी कल्पित हैं, यातैं जैसा आयतन कह्या तैसा ही जाननां, धर्मात्माकू तिसहीका आश्रय करनां अन्यकी स्तुति प्रशंसा विनयादिक न करना, यह बोधपाहुड ग्रंथ करनेका आशय है। बहार जामैं ऐसे मुनि वसैं ऐसा क्षेत्रकूभी आयतन कहिये है सो यह व्यवहार है ॥ ७ ॥
आगैं चैत्यगृहका निरूपण करै है;गाथा-बुद्धं जं वोहंतो अप्पाणं चेदयाई अण्णं च ।।
पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं ॥ ८॥ संस्कृत--बुद्धं यत् बोधयन् आत्मानं चैत्यानि अन्यत् च ।
पंचमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं जानीहि चैत्यगृहम्॥ ८॥ ___ अर्थ-जो मुनि बुद्ध कहिये ज्ञानमयी ऐसा आत्मा ताहि जानता होय बहुरि अन्य जीवनकू चैत्य कहिये चेतना स्वरूप जानता होय बहुरि आप ज्ञानमयी होय बहुरि पांच महाव्रतनिकरि शुद्ध होय निर्मल होय ता मुनिकू हे भव्य ! तू चैत्यगृह जानि ॥ . ___भावार्थ-जामैं आपा परका जाननेवाला ज्ञानी निःपाप निर्भल ऐसा चैत्य कहिये चेतनास्वरूप आत्मा वसै सो चैत्यगृह है सो ऐसा चैत्यगृह
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पंडित जयचंदनी छावड़ा विरचित
संयमी मुनि है, अन्य पाषाण आदिका मंदिरकू चैत्यगृह कहनां व्यवहार
आमैं फेरि कहै है;गाथा--चेइय वंध मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स ।
चेइहरं जिणमग्गे छक्कायहियंकरं भणियं ।। ९ ॥ संस्कृत-चैत्यं बंधं मोक्षं दुःखं सुखं च आत्मकं तस्य ।
चैत्यगृहं जिनमार्गे षडायहितंकरं भणितम् ॥९॥ अर्थ—जाकै बंध अर मोक्ष बहुरि सुख अर दुःख ये आत्माके होंय जाकै स्वरूपमैं होंय सो चैत्य कहिये जा चेतना स्वरूप होय ताहीकै बंध मोक्ष सुख दुःख संभवै ऐसा जो चैत्यका गृह होय सो चैत्यगृह है सो जिनमार्गविधैं ऐसा चैत्यगृह छह कायका हित करनेवाला होय सो ऐसा मुनि है सो पांच थावर अर त्रसमैं विकलत्रय अर असैनी पंचेंद्रियताई केवल रक्षाही करने योग्य है तातै तिनिकी रक्षा करनेका उपदेश करै है, तथा आप तिनिका घात न करै है तिनिका यही हित है, बहुरि सैनी पंचेंद्रिय जीव हैं तिनिकी रक्षा भी करै है रक्षाका उपदेश भी करै है तथा तिनिकू संसार” निवृत्तिरूप मोक्ष होनेका उपदेश करै है ऐसे मुनिराजकू चैत्यगृह कहिये ॥ __ भावार्थ-लौकिक जन चैत्यगृहका स्वरूप अन्यथा अनेक प्रकार मानें हैं तिनिकू सावधान किये हैं-जो जिनसूत्रमैं छह कायका हित करनेवाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है सो चैत्यगृह है, अन्यकू चैत्यगृह. कहनां माननां व्यवहार है । ऐसें चैत्यगृहका स्वरूप कह्या ॥ ९॥
आगैं जिनप्रतिमाका निरूपण करै है;
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । ११७
गाथा - सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं ।
थिवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ॥ १० ॥ संस्कृत - खपरा जंगमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् । निर्ग्रन्थवीतरागा जिनमार्गे ईदृशी प्रतिमा ॥ १० ॥ अर्थ — दर्शन ज्ञान कर शुद्ध निर्मल है चारित्र जिनकै तिनिकी स्वपरा कहिये अपनी अर परकी चालती देह है सो जिनमार्ग विषै जंगम प्रतिमा है, अथवा स्वपरा कहिये आत्मा पर कहिये भिन्न है ऐसी देह है, सो कैसी है - निर्ग्रथ स्वरूप है जाकै किछू परिग्रहका लेश नांहीं ऐसी दिगंबर मुद्रा, बहुरि कैसी है - वीतराग स्वरूप है जाकै काहू वस्तुसौं राग द्वेष मोह नांहीं, जिनमार्ग विषै ऐसी प्रतिमा कही है। दर्शन ज्ञान करि निर्मल चारित्र जिनकै पाइये ऐसे मुनिनिकी गुरु शिष्य अपेक्षा अपनी तथा परकी चालती देह निर्ग्रन्थ वीतरागमुद्रा स्वरूप है सो जिनमार्गविषै प्रतिमा है अन्य कल्पित है अर धातु पाषाण आदिकरि दिगंबरमुद्रा स्वरूप प्रतिमा कहिये सो व्यवहार है सो भी बाह्य प्रकृति ऐसी ही होय सो व्यवहार मैं मान्य है ॥ १० ॥
आर्गै फेरि कहै है; -
गाथा – जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छे सुद्धसम्मत्तं । सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥ ११ ॥ संस्कृत – यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् । सा भवति वंदनीया निर्मन्था सांयता प्रतिमा ॥ ११ ॥ अर्थ — जो शुद्ध आचरणकूं आचरै बहुरि सम्यग्ज्ञानकरि यथार्थ वस्तुकं जाने है बहुरि सम्यग्दर्शनकरि अपने स्वरूपकं देखे है ऐसें शुद्ध जाकै पाइये है ऐसी निर्ग्रथ संयम स्वरूप प्रतिमा है सो वंदि
सम्यक् योग्य है ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
. भावार्थ-जाननेवाला देखनेवाला शुद्ध सम्यक्त्व शुद्ध चारित्र स्वरूप निग्रंथ संयमसहित ऐसा मुनिका स्वरूप है सो ही प्रतिमा है सो ही वंदिवेयोग्य अन्य कल्पित वंदिवेयोग्य नाही है. बहुरि तैसेही रूपसदृश धातुपाषाणकी प्रतिमा होय सो व्यवहारकार वंदिबेयोग्य है ॥ ११ ॥
आगै फेरि कहै है;गाथा-दंसण अणंत णाणं अणंतवीरिय अणउसुक्खा य ।
सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मदृवंधेहिं ॥ १२ ॥ निरुवममचलमखोहा णिम्मिविया 'जंगमेण रूवेण ।
सिद्धटाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा ॥१३॥ संस्कृत-दर्शन अनंतं ज्ञानं अनन्तवीर्याः अनंतसुखाः च ।
शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ताः कर्माष्टकबंधैः ॥ १२ ॥ निरुपमा अचला अक्षोभाः निर्मापिता जंगमेन रूपेण ।
सिद्धस्थाने स्थिताः व्युत्सर्गप्रतिमा ध्रुवाः सिद्धाः १३ अर्थ—जो अनंतदर्शन अनंतज्ञान अनंतवीर्य अनंतसुख इनिकार सहित है, बहुरि शाश्वता अविनाशीसुखस्वरूप है. बहुरि अदेह है कर्म नोकर्मरूप पुद्गलमयी देह जिनिकै नांही है, बहुरि अष्टकर्मके बंधनकरि रहित है, बहुरि उपमाकरि रहित है जाकी उपमा दीजिये ऐसा लोकमैं वस्तु नाही है, बहार अचल है प्रदेशनिका चलनां जिनके नांही है बहुरि अक्षोभ है जिनिकै उपयोगमैं किछू क्षोभ नाही है निश्चल है, बहुरि जंगमरूप कार निर्मित है कर्म” निर्मुक्त हुये पीछे एक समय मात्र गमन रूप होय हैं, ता” जंगमरूपकार निर्मापित है, बहुरि सिद्धस्थान जो लोकका अग्रभाग ता विषं स्थित है याही तें व्युत्सर्ग कहिये
१-संकृत सटीक प्रतिमें 'निर्मापिता: अजंगमेन रूपेण ऐशी छाया है।
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । ११९
कायरहित है जैसा पूर्वै देह मैं आकार था तैसाही प्रदेशनिका आकार किछू घाटि ध्रुव है, संसार मुक्त होय एक समय गमनकारी लोककै अग्रभागविषै जाय तिष्ठै पीछें चलाचल नांही है ऐसी प्रतिमा सिद्ध है |
भावार्थ — पहलै दोय गाथा मैं तौ जंगम प्रतिमा संयमी मुनिनिकी देहसहित कही, बहुरि इनेि दोय गाथानि मैं थिर प्रतिमा सिद्धनिकी कही ऐसैं जंगम थावर प्रतिमाका स्वरूप कह्या अन्य केई अन्यथा बहुत प्रकार कल्पैं हैं सो प्रतिमा वंदिवे योग्य नांही है |
व्यवहार में
इहां प्रश्न — जो यह तौ परमार्थ स्वरूप कह्या अर बाह्य प्रतिमा पाषाणादिककी वंदिये है सो कैसैं ! ताका समाधान- जो बाह्य व्यवहारमै मतांतरके भेद तैं अनेक रीति प्रतिमाकी प्रवृत्ति है सो इहां परमार्थं प्रधानकरि कया है, बहुरि व्यवहार है सो जैसा प्रतिमाका परमार्थरूप होय ताहकूं सूचता होय सो निर्वाध होय है जैसा परमार्थरूप आकार का तैसाही आकाररूप व्यवहार होय सो व्यवहार भी प्रशस्त है, व्यवहारी जीवनिकै ये भी वंदिवेयोग्य है । स्याद्वाद न्याय साधे परमार्थ व्यवहार मैं विरोध नांहीं है ॥ १२-१३ ॥
ऐसैं जिनप्रतिमाका स्वरूप कया । आर्गै दर्शनका स्वरूप कहैं हैं;
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गाथा - दंसे मोक्खमग्गं सम्मत्तं संयमं सुधम्मं च । गिरथं णाणमयं जिण मग्गे दंसणं भणियं ॥ १४ ॥ संस्कृत-दर्शयति मोक्षमार्ग सम्यक्त्वं संयमं सुधर्मं च ।
निर्ग्रथं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम् ॥ १४ ॥ अर्थ — जो मोक्षमार्गकूं दिखावै सो दर्शन है, कैसा है मोक्षमार्ग—सम्यक्त्व कहिये तत्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यत्वस्वरूप है, बहुरि
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१२० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितकैसा है-संयम कहिये चारेत्र पंच महाव्रत पंचसमिति तीन गुप्ति ऐसैं तेरह प्रकार चारित्ररूप है, बहुरि कैसा है-सुधर्म कहिये उत्तमक्षमादिक दशलक्षण धर्मरूप है, बहुरि कैसा है—सुधर्म कहिये उत्तम क्षमादिक दशलक्षणधर्म रूप है, बहुरि कैसा है—निरंथरूप है बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित है, बहुरि कैसा है-ज्ञानमयी है जीव अजीवादि पदानिकू जाननेवाला है; इहां निथ अर ज्ञानमयी ये दोय विशेषण दर्शनके भी होय हैं जातें दर्शन है सो बाह्य तौ याकी मूर्ति निग्रंथ है बहुरि अंतरंग ज्ञानमयी है । ऐसा मुनिके रूपकौं जिनमार्गमैं दर्शन कह्या है तथा ऐसे रूपका श्रद्धानरूप सम्यत्क्वस्वरूपकुं दर्शन कहिये है। — भावार्थ-परमार्थरूप अंतरंग दर्शन तौ सम्यक्त्व है अर बाह्य याकी मूर्ति ज्ञानसहित ग्रहण किया निग्रंथरूप ऐसा मुनिका रूप है सो दर्शन है जातें मतकी मूर्तिकू दर्शन कहनां लोकमैं प्रसिद्ध है ॥ १४ ॥
आगै फेरि कहैं हैं;गाथा—जह फुल्लं गंधमयं भवदि हु खीरं स घियमयं चावि।
तह दंसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं ॥ १५ ॥ . संस्कृत--यथा पुष्पं गंधमयं भवति स्फुटं क्षीरं तत् घृतमयं चापि
तथा दशनं हि सम्यग्ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ॥१५॥ अर्थ—जैसे फूल है सो गंधमयी है बहुरि दूध है सो घृतमयी है तैसें दर्शन काहिये मत विौं सम्यक्त्व है कैसा है दर्शन अंतरंग तो ज्ञानमयी है बहुरि बाह्य रूपस्थ है मुनिका रूप है तथा उत्कृष्ट श्रावक अर्जिकाका रूप है ॥
भावार्थ-दर्शन नाम मतका प्रसिद्ध है सो इहां जिनदर्शनविय मुनिश्रावक आर्यिकाका जैसा बाह्य भेष कह्या सो दर्शन जाननां अर याकी
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका।'
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श्रद्धा सो अंतांग दर्शन जाननां सो ये दोऊही ज्ञानमयी हैं यथार्थ तत्वार्थका जाननेंरूप सम्यक्त्व जामैं पाइये है याही तैं फूलमैं गंधका अर दूधमें घृतका दृष्टांत युक्त है ऐसैं दर्शनका रूप कह्या । अन्यमतमैं तथा कालदोषकार जिनमतमैं जैनाभास भेषी अनेक प्रकार अन्यथा कहै हैं सो कल्याणरूप नाहीं संसारका कारण है ॥ १५ ॥ ___ आगैं जिनबिंबका निरूपण करै है;गाथा-जिणबिंब णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च ।
जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥१६॥ संस्कृत-जिनवित्र ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च । ।
यत् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे ॥ १६॥ अर्थ-जिनबिंब कैसा है-ज्ञानमयी है अर संयमकरि शुद्ध है बहुरि अतिशयकरि वीतराग है बहुरि जो कर्मका क्षयका कारण अर शुद्ध है ऐसी दीक्षा अर शिक्षा दे है ॥
भावार्थ-जो जिन कहिये अरहंत सर्वज्ञका प्रतिबिंब कहिये ताकी जायगां तिसकी ज्यौं मानने योग्य होय, ऐसे आचार्य हैं सो दीक्षा कहिये व्रतका ग्रहण अर शिक्षा कहिये व्रतका विधान बतावनां ये दोऊ कार्य भव्यजविानिकू दे है, यातै प्रथम तौ सो आचार्य ज्ञानमयी होय जिनसूत्रका जिनकू ज्ञान होय ज्ञान विना यथार्थ दीक्षा शिक्षा कैसे होय अर आप संयमकरि शुद्ध होय ऐसा न होय तौ अन्यकू भी संयम शुद्ध न करावे, बहुरि अतिशयकरि वीतरागं न होय तौ कषायसहित होय तब दीक्षा शिक्षा यथार्थ न दे, यातें ऐसे आचार्यकू जिनके प्रतिबिंब जानने ॥ १६ ॥
आ» फेरि कहै है;
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-तस्स य करह पणामं सव्वं पुजं च विगय वच्छल्लं.।
जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो ॥ १७ ॥ संस्कृत-तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां च विनयं वात्सल्यम् ।
यस्य च दर्शनं ज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः ॥ १७ ॥ अर्थ---ऐसैं पूर्वोक्त जिनबिंबकू प्रणाम करो बहुरि सर्व प्रकार पूजा करो विनय करो वात्सल्य करो, काहेरौं-जाकै ध्रुव कहिये निश्चयतें दर्शन ज्ञान पाइये है बहुरि चेतनाभाव है ॥
भावार्थ-दर्शन ज्ञानमयी चेतनाभावसहित जिनविंब आचार्य है तिनिकू प्रणामादिक करनां । इहां परमार्थ प्रधान कह्या है तहां जड प्रतिबिंबकी गौणता है ॥ १७ ॥
. आर्गे फेरि कहे है;गाथा--तववयगुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छे हि सुद्धसम्मत्तं ।
___ अरहंतमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य ॥ १८ ॥ संस्कृत-तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् ।
अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षाणां च ॥ १८ ॥ अर्थ-जो तप अर व्रत अर गुण कहिये उत्तरगुण तिनिकरि शुद्ध होय बहुरि सम्यग्ज्ञानकारी पदार्थनिकू यथार्थ जानैं बहुरि सम्यग्ददर्शनकरि पदार्था- कू देखै याहीतैं शुद्ध सम्यक्त्व जाकै ऐसा जिनबिंब आचार्य है सो येही दीक्षा शिक्षाकी देनेवाली अरहंतकी मुद्रा है ।।
भावार्थ-ऐसा जिनबिंब है सो जिनमुद्राही है ऐसैं जिनबिंबका स्वरूप कहा ॥ १८ ॥
आगें जिनमुद्राका स्वरूप कहैं हैं॥
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका ।
गाथा - दढसंजम मुद्दाए ईदियमुद्दा कसायदढमुद्दा ।
मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा भणिया ||१९ ॥ संस्कृत — दृढसंयममुद्रया इन्द्रियमुद्रा कषाय दृढमुद्रा ।
मुद्रा इह ज्ञानेन जिनमुद्रा ईदृशी भणिता ॥ १९ ॥ अर्थ — दृढ कहिये वज्रवत् चलाया न चलै ऐसा संयम - इन्द्रिय मनका वश करनां, षट्जीवनिकायकी रक्षा करनां, ऐसे संमयरूप मुद्राकरि तौ पांच इंद्रियनिक विषयनिमैं न प्रवर्त्तावना तिनिका संकोच करनां यह तौ इंद्रियमुद्रा है, बहुार ऐसा संयम करिही कषायनिकी प्रवृत्ति जा मैं नहीं ऐसी कषायदृढमुद्रा है, बहुरि ज्ञानका स्वरूपविषै लगावनां ऐसे ज्ञानकरि सर्व बाह्य मुद्रा शुद्ध होय हैं, ऐसैं जिनशासनवि ऐसी जिनमुद्रा होय है ॥
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भावार्थ-संयमसहित होय इन्द्रिय जाकै वशीभूत होय अर कषायनिकी प्रवृत्ति नांही होती होय अर ज्ञानस्वरूप मैं लगावता होय ऐसामुनि होय सो ही जिनमुद्रा है ॥ १९ ॥
आमैं ज्ञानका निरूपण करें हैं:
गाथा - संजम संजुत्तस्स य सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स | णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं ॥ २० ॥ संस्कृत - संयमसंयुक्तस्य च सुध्यानयोग्यस्य मोक्षमार्गस्य । ज्ञानेन लभते लक्षं तस्मात् ज्ञानं च ज्ञातव्यम् ॥ २० ॥ अर्थ —संयमकरि संयुक्त अर ध्यानके योग्य ऐसा जो मोक्षमार्ग ताका लक्ष्य कहिये लक्षणे योग्य वैद्य निसानां जो आपका निजस्वरूप सो ज्ञानकरि पाइये हैं, तातैं ऐसे लक्ष्यके जाननें कूं ज्ञानकूं जाननां ॥
(१) 'सुध्यानयोगस्य ' ऐसा सटीक संस्कृत प्रतिमें पाठ है जिसका श्रेष्ठ: ध्यानसहित ऐसा अर्थ है ( २ ) ' वेध्यक' ऐसा पाठ है ।
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पंडित जयचंद्रजी
छावड़ा विरचित
भावार्थ———संयम अगीकारकरि ध्यान करै अर आत्माका स्वरूप न जानें तौ मोक्षमार्गकी सिद्धि नांहीं तातैं ज्ञानका स्वरूप जाननां, या जानें सर्व सिद्धि है ॥ २० ॥
आगे याकूं दृष्टांतकरि दृढ करे हैं:--
गाथा - जहण विलहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्स वेज्झय विहीणो । तह ण वि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स संस्कृत - यथा नापि लभते स्फुटं लक्ष रहितः कांडस्य वेध - कविहीनः । तथा नापि लक्षयति लक्ष अज्ञानी मोक्षमार्गस्य ॥ २१॥
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अर्थ — जैसें वेधनेवाला वेधक जो बाग ताकरि विहीन कहिये रहित ऐसा पुरुष है सो कांड कहिये धनुष ताका अभ्यासकरि रहित होय सो लक्ष्य कहिये निशाना ताकूं न पात्रै तैसें ज्ञानकरि रहित अज्ञानी हैं सो दर्शन चारित्ररूप जो मोक्षमार्ग ताका लक्ष्य कहिये लक्षणें योग्य परमात्माका स्वरूप ताकूं न पावै है |
भावार्थ — धनुषधारी धनुषका अभ्यास रहित अर वेधक जो बाण ताकरि रहित होय तौ निशानांकूं न पावै तैसैं ज्ञानकरि रहित अज्ञानी मोक्षमार्गका निशानां परमात्मा स्वरूप है ताकूं न पहचानें तब मोक्षमार्गकी सिद्धि न होय तातैं ज्ञानकूं जाननां, परमात्मारूप निसानां ज्ञानरूप बाणकर वेधनां योग्य है ॥ २१ ॥
आगे कहै है ऐसा ज्ञान विनय संयुक्त पुरुष होय सो मोक्ष पाव है;गाथा - णा पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणय संजुत्तो । गाणे लहदि लक्खं लक्खतो मोक्खमग्गस्स ॥ २२ ॥
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १२५ संस्कृत-ज्ञानं पुरुषस्य भवति लभते सुपुरुषोऽपि विनयसंयुक्तः ।
ज्ञानेन लभते लक्ष्यं लक्षयन् मोक्षमार्गस्य ॥ २२ ॥ __ अर्थ- ज्ञान होय है सो पुरुषकै होय है बहुरि पुरुषही विनय संयुक्त होय सो ज्ञानकू पावै है, बहुरि ज्ञान पावै तब तिस ज्ञानहीकरि मोक्षमार्गकी लक्ष्य जो परमात्माका स्वरूप ताकू लक्षता घ्यावता संता तिस लक्ष• पावै है ॥ ___ भावार्थ-ज्ञान पुरुषकै होय है बहुरि पुरुषही विनयवान होय सो ज्ञानकू पावै है तिस ज्ञानहीकरि शुद्धआत्माका स्वरूप जानिये है यातै विशेष ज्ञानीनिका विनयकरि ज्ञानकी प्राप्ति करनी जातै निज शुद्ध स्वरूपकू जानि मोक्ष पाइये है, इहां जे विनयकार रहित होय यथार्थ सूत्र पदतै चिगे होय भ्रष्ट भये होय तिनिका निषेध जाननां ॥ २२ ॥ ___ आण याहीकू दृढ करै है;गाथा-मइधणुहं जस्स थिरं सुदगुण बाणा सुअस्थि रयणत्तं ।
परमत्थवद्धलक्खोण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ।।२३। संस्कृत-मतिधनुर्यस्य स्थिरं श्रुतं गुणः वाणाः सुसंति रत्नत्रयं ।
परमार्थवद्धलक्ष्यः नापि स्खलति मोक्षमार्गस्य ॥२३॥ __ अर्थ——जो मुनिकै मतिज्ञानरूप धनुष थिर होय, बहुरि श्रुतज्ञानरूप जाकै गुण कहिये प्रत्यंचा होय, बहुरि रत्नत्रय रूप जाकै भला बाण होय, बहुरि परमार्थ स्वरूप निज शुद्धात्मस्वरूपका संबंधरूप किया है लक्ष्य जानैं ऐसा मुनि है सो मोक्षमार्गकू नांहीं चूकै है ॥
भावार्थ-धनुषकी सर्व सामग्री यथावत मिलै तब निसानां नाहीं चूकै है तैसैं मुनिके मोक्षमार्गकी यथावत सामग्री मिले तब मोक्षमार्गरौं भ्रष्ट नाही होय है ताका साधनकरि मोक्ष पावै है यह ज्ञानका माहात्म्य
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१२६ पंडित जयचंद्रजी छावडा विरचितहै तातै जिनागम अनुसार सत्यार्थ ज्ञानीनिका विनयकरि ज्ञानका साधन करनां ।। २३ ॥
ऐसें ज्ञानका निरूपण किया।
आगें देवका स्वरूप करे है;गाथा—सो देवो जो अत्थं धम्म कामं सुदेइ णाणं च ।
सो देइ जस्स अत्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वजा ॥२४ संस्कृत-सः देवः यः अर्थ धर्म कामं सुददाति ज्ञानं च ।
सः ददाति यस्य अस्ति तु अर्थः कर्म च प्रवज्या॥२४॥ अर्थ—देव जानूं कहिये जो अर्थ कहिये धन अर धर्म अर काम कहिये इच्छाका विषय ऐसा भोग बहुरि मोक्षका कारण ज्ञान इनि च्यारिनिकू देवै । तहां यह न्याय है जो वाकै वस्तु होय सो देवै अर जाकै जो वस्तु न होय सो कैसैं दे, इस न्यायकरि अर्थ धर्म स्वर्गादिके भोग अर मोक्षका सुखका कारण जो प्रव्रज्या कहिये दीक्षा जाकै होय सो देव जाननां ॥ २४ ॥
आधर्मादिका स्वरूप कहै है जिनिके जाने देवादिका स्वरूप जान्या जाय;गाथा-धम्मो दयाबिसुद्धो पयज्जा सव्वसंगपरिचत्ता ।
देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं ॥ २५ ॥ संस्कृत-धर्मः दयाविशुद्धः प्रव्रज्या सर्वसंगपरित्यक्ता। .
देवः व्यपगतमोहः उदयकरः भव्यजीवानाम् ॥२५ अर्थ-धर्म है सो तौ दयाकार विशुद्ध है, बहुरि प्रव्रज्या है सो सर्व परिग्रह रहित है, बहुरि देव है सो नष्ट भया है मोह जाका ऐसा . ह सो भव्य जीवनिकै उदयका करनेवाला है ॥
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका ।
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भावार्थ-लोकमैं यह प्रसिद्ध है जो धर्म अर्थ काम मोक्ष ये च्यार पुरुषके प्रयोजन हैं इनिकै आर्थ पुरुष काढू वंदै पूजै है, बहुरि यह न्याय है जो जाकै जो वस्तु होय सो अन्यकू दे अणछती कहांतें ल्या तारौं ये च्यार पुरुषार्थ जिनदेवकै पाइये है, धर्म तो जिनकै दयारूप पाइये है ताकू साधि तीर्थकर भये तब धनकी अर संसारके भोगकी प्राप्ति भई लोक पूज्य भएं, बहुरि तीर्थकर परम पदवीमैं दीक्षा ले सर्व मोहते रहित होय परमार्थस्वरूप आत्मीक धर्मकू साधि मोक्षसुखकू पाया सो ऐसें तीर्थकर जिन हैं, सोही देव है लोक अज्ञानी जिनि• देव मानें हैं तिनिकै धर्म अर्थ काम मोक्ष नाही जाते केई हिंसक हैं केई विषयासक्त हैं मोही हैं तिनिकै धर्म काहेका ? बहुरि अर्थ कामकी जिनिकै वांछ। पाइये तिनिकै अर्थ काम काहेका ? बहुरि जन्म मरण” सहित हैं तिनिकै मोक्ष कैसैं ? ऐसैं देव सांचा जिनदेवही है येही भव्य जीवनिकै मनोरथ पूर्ण करै है, अन्य सर्व काल्पत देव हैं ॥ २५ ॥
ऐसैं देवका स्वरूप कह्या । __ आगें तीर्थका स्वरूप कहै हैं,गाथा-वयसम्मत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खे ।
___हाएउ मुणी तित्थे दिक्खासिक्खासुण्हाणेग ॥ २६ ।। संस्कृत-व्रतसम्यक्त्वविशुद्धे पंचेंद्रियसंयते निरपेक्षे।
स्नातु मुनिः तीर्थे दीक्षाशिक्षासुस्नानेन ॥ २६ ॥ ___ अर्थ-व्रत सम्यक्त्वकरि विशुद्ध अर पांच इंद्रियनिकरि संयत कहिये संवरसहित बहुरि निरपेक्ष कहिये ख्याति लाभ पूजादिक इस लोकका फलकी तथा परलोकविौं स्वर्गादिकानके भोगनिकी अपेक्षात रहित ऐसा आत्म स्वरूप तीर्थ विषै दीक्षा शिक्षारूप स्नानकरि पवित्र होहू ॥
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१२८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ-तत्वार्थश्रद्धानलक्षण सहित पंच महाव्रतकरि शुद्ध अर पंच इंद्रियनिके विषयनितें विरक्त इस लोक परलोक विषै विषय भोगनिकी वांछातै रहित ऐसैं निर्मल आत्माका स्वभावरूप तीर्थविर्षे स्नान किये पवित्र होय हैं ऐसी प्रेरणा करै है ॥ २६ ॥
आणु फेरि कहै है;--- गाथा-जं हिम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तवं णाणं । - तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण ॥ २७॥ संस्कृत-यत् निर्मलं सुधर्म सम्यक्त्वं संयमं तपः ज्ञानम् ।
- तत् तीर्थ जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन ॥२७॥ अर्थ—जिनमार्गवि सो तीर्थ है जो निर्मल उत्तमक्षमादिक धर्म तथा तत्वार्थश्रद्धानलक्षण शंकादिमलरहित सम्यक्त्व तथा निर्मल इंद्रिय मनका वशकरन। षट्कायके जीवनिकी रक्षा करनां ऐसा निर्मल संयम तथा
अनशन अवमौदर्य व्रतपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेश ऐसा बाह्य तौ छह प्रकार बहुरि प्रायश्चित विनय वैयावृत्त्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान ऐसे छह प्रकार अंतरंग ऐसें बारह प्रकार निर्मल तप, बहुरि जीव अजीव आदिक पदार्थनिका यथार्थ ज्ञान ये तीर्थ हैं ये भी जो शांतभावसहित होय कषायभाव न होय तब निर्मल तीर्थ है जारौं ये क्रोधादिभावसहित होय तौ मलिनता होय निर्मलता न रहै ॥ ___ भावार्थ-जिनमार्गविर्यै ऐसा तीर्थ कह्या है लोक सागर नदीनिकू तीर्थ मानि स्नान करि पवित्र भया चाहै है सो शरीरका बाद्य मल इनितें किंचित् उतर है अर शरीरमैं धातु उपधातुरूप अन्तर्मल इनितें उतरै नांही अर ज्ञानावरण आदि कर्मरूप मल अर अज्ञान राग द्वेष मोह आदि भावकर्मरूप मल आत्माके अन्तर्मल है सो तो इनितें किंचित्मात्र
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १२९ . भी उतर नाही उलटा हिंसादिकतै पापकर्मरूप मल लागै है यारौं सागर नदी आदिकू तीर्थ माननां भ्रम है । जाकरि तिरिये सो तीर्थ है ऐसा जिनमार्गमैं कह्या है सो ही संसारसमुद्रतै तारनेवाला जाननां ॥ २७ ॥
ऐसें तीर्थका स्वरूप कह्या।
आगैं अरहंतका स्वरूप कहै है;गाथा—णामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया। . चउणागदि संपदिमे भावा भावंति अरहंतं ।। २८॥ संस्कृत-नाम्नि संस्थापनायां हि चसंद्रव्ये भावे चसंगुणपर्यायाः
___ च्यवनमागतिः संपत् इमे भावा भावयंति अर्हन्तम् २८ अर्थः-नाम स्थापना द्रव्य भाव ये चार भाव कहिये पदार्थ हैं ते अरहंतकू जनावैं हैं बहुरि सगुणपर्यायाः कहिये अरहंतके गुण पर्यायनिसहित बहुरि चउणा कहिये च्यवन अरआगति बहुरि संपदा ऐसे ये भाव अरहत• जनावै है ॥
भावार्थ-अरहंत शब्दकरि यद्यपि सामान्य अपेक्षा केवलज्ञानी होय ते सर्वही अरहंत है तथापि इहां तीर्थकरपदकू प्रधानकरि कथन करिये है तातें नामादिककरि जनावनां कह्या है । तहां लोकव्यवहारमैं नाम आदिकी प्रवृत्ति ऐसे है जो जा वस्तुका नाम होय तैसा गुण न होय ताकू नामनिक्षेप कहिये । बहुरि जिस वस्तुका जैसा आकार होय तिस आकार ताकी काष्ट पाषाणदिककी मूर्ति बनाय ताका संकल्प करिये ताकू स्थापना कहिये । बहुरि जिस वस्तुकी पहली अवस्था होय
-संस्कृत सटीक प्रतिमें 'संपदिम' ऐसा पाठ है। २-'सगुणपञ्जाया' इस पदकी 'स्वगुणपर्यायाः' ऐसी संस्कृत मुद्रित संस्कृत प्रतिमें है।
अ० व. ९
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तिसही• आगली अवस्था प्रधान कार कहै ताकू द्रव्य कहिये । बहुरि वर्तमानमैं जो अवस्था होय ताकू भाव कहिये । ऐसें च्यार निक्षेपकी प्रवृत्ति है ताका कथन शास्त्रमैं भी लोककू समझावनेकू कियाहै, जो निक्षेपविधान करि नाम स्थापना द्रव्यकू भाव न समझनां, नामकू नाम समझनां, स्थापनाकू स्थापना समझनी, द्रव्यकू द्रव्य समझनां, भावकू भाव समझनां, अन्यक्रू अन्य समझे व्यभिचारनामा दोत्र आवै है ताके मेटनेंकू लोककू यथार्थ समझानेकू शास्त्रविर्षे कथन है सो इहां तैसा निक्षेपका कथन न समझनां, इहां तौ निश्चयनयकू प्रधानकरि कथन है सो जैसा अरहंतका नाम है तैसाही गुणसहित नाम जाननां, बहुरि स्थापनां जैसी जाकी देह सहित मूर्ति है सो ही स्थापना जाननी, बहुरि जैसा जाका द्रव्य है तैसा द्रव्य जाननां, बहुरि जैसा जाका भाव है तैसाही जाननां ॥ २८॥
ऐसैंही कयन आर्गे करिये है तहां प्रथमही नाम• प्रधान कार कहै.
गाथा-दसण अणंत णागे मोक्खो णटकम्मबंधेण ।
णिरुवम गुणमारूढो अरहंतो एरिसो होई ॥ २९ ॥ संस्कृत-दर्शनं अनंतं ज्ञानं मोक्षः नष्टाष्टकर्मबंधेन ।
निरुपमगुणमारुढः अईन ईदृशो भवति ॥ २९ ॥ __ अर्थ-जाकै दर्शन अर ज्ञान ये तो अनंत हैं धातिकर्मके नाशतें सर्व ज्ञेय पदार्थनिकू देखनां जाननां जाकै है, बहुरि नष्ट भया जो अष्ट कर्मनिका बंध ताकरि जाकै मोक्ष है, इहां सत्त्वकी अर उदयकी विवक्षा लेनी केवलीकै आठौंही कर्मका बंध नाही यद्यपि साता वेदनीयका बंध सिद्धांतमैं कया है तथापि स्थिति अनुभाग रूप नाही तातें अबंधतुल्यही
१-सटोक संस्कृत प्रतिमें 'दर्शने अनंत ज्ञाने ' ऐसा सप्तम्यंत पाठ है।
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १३१ है ऐसा आढूही कर्म बंधके अभावकी अपेक्षा भावमोक्ष कहिये, बहुरि उपमारहित गुणनिकार आरूढ है सहित है ऐसे गुण छद्मस्थमैं कहूंही नाही तारौं उपमारहित गुण जामैं है ऐसा अरहंत होय ॥ ___ भावार्थ-केवल नाममात्रही अरहंत होय ताकू अरहंत न कहिए ऐसे गुणनिकरि सहित होय ताकू नाम अरहंत कहिये ॥ __ आगै फेरि कहै है;गाथा-जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्य पावं च ।
हंतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥३०॥ संस्कृत-जराव्याधिजन्ममरणं चतुर्गतिगमनं पुण्यं पापं च ।
हत्वा दोषकमाणि भूतः ज्ञानमयश्चाहेन ॥३०॥ अर्थ-जरा कहिये बुढापा अर व्याधि कहिये रोग अर जन्म मरण च्यार गतिनिवि. गमन पुण्य बहुरि पाप बहुरि दोषनिका उपजावनेवाला कर्म तिनिका नाशकार अर केवल ज्ञानमयी अरहंत हुवा होय सो अरहंत है ॥ __ भावार्थ-पहली गाथामैं तौ गुणनिका सद्भावकरि अरहंत नाम कह्या बहुरि इस गाथामैं दोषनिका अभावकरि अरहंत नाम कया । तहां राग द्वेष मद मोह अरति चिंता भय निद्रा विषाद खेद विस्मय ये ग्यारह दोष तौ घातिकर्मके उदयतें होय हैं, बहुरि क्षुधा तृषा जन्म जरा मरण रोग खेद ये अघातिकर्मके उदयतें होय हैं; तहां इस गाथमैं जरा रोग जन्म मरण च्यार गतिनिमैं गमनका अभाव कहनेंतें तौ अघातिकर्मक् भये दोषनिका अभाव जाननां जाते अघातिकर्ममैं इनि दोषनिकी उपजावनहारी पापप्रकृतिनिका उदयका अरहंतकै अभाव है, बहुरि रागद्वेषादिक दोषनिका घातिकर्मके अभावतें अभाव है। इहां कोई पूछ-मरणका
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अर पुण्यका अभाव कह्या सो मोक्षगमन होना यह मरण अरहंतकै हैं अर पुण्यप्रकृतिनिका उदय पाइये हैं, तिनिका अभाव कैसैं ? ताका समाधान — इहां मरण होय करि फेरि संसार मैं जन्म होय ऐसा मरणकी अपेक्षा है ऐसा मरण अरहंत कै नांही तैसैंही जो पुण्यप्रकृतिका उदय पापप्रकृति सापेक्ष करै ऐसे पुण्यके उदयका अभाव जाननां अथवा बंध अपेक्षा पुण्यकाभी बंध नांही है सातावेदनीय बंधै सो स्थिति अनुभागविना अधतुल्यही है । बहुरि कोई पूछे - केवली असाता वेदनीयका उदयभी सिद्धांत मैं कह्या है ताकी प्रवृत्ति कैसे है ? ताका समाधानऐसा जो असाताका निपट मंद अनुभाग उदय हैं अर साताका अतितीव्र अनुभाग उदय है ताके बशर्तें असाता कछू बाह्य कार्य करने समर्थ नांही सूक्ष्म उदय देय खिरि जाय है तथा संक्रमणरूप होय सातारूप होय जाय है ऐसैं जाननां । ऐसैं अनंत चतुष्टयकरि सहित सर्व दोषरहित सर्वज्ञ वीतराग होय सो नामकरि अरहंत कहिये ॥ ३० ॥ आगैं स्थापनाकरि अरहंतका वर्णन करें हैं:गाथा - गुणठाणमग्गणेहिं य पज्जत्तीपाणजीवठाणेहिं ।
ठावण पंचविहेहिं पणयव्वा अरहपुरिसस्त ।। ३१ । संस्कृत - गुणस्थानमार्गणाभिः च पर्याप्तिप्राणजीवस्थानैः ।
स्थापना पंचविधैः प्रणतव्या अर्हत्पुरुषस्य ।। ३१ ।। अर्थ —– गुणस्थान मार्गणास्थान पर्याप्त प्राण बहुरि जीवस्थान इनि पांच प्रकार करि अरहंत पुरुषकी स्थापनां प्राप्त करनी अथवा ताकूं प्रणाम करनां ॥
भावार्थ — स्थापनानिक्षेपमैं काष्ठपाषाणादिक मैं संकल्प करनां कला है सो इहां प्रधान नांही, इहां निश्चय प्रधान करि कथन है तहां गुणस्थानादिककरि अरहंतका स्थापन कया है ॥ ३१ ॥
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १३३ आगँ विशेष कहै है;गाथा-तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो।
चउतीस अइसयगुणा होति हु तस्सह पडिहारा॥३२॥ संस्कृत-त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिकः भवति अर्हन् ।
चतुस्त्रिंशत् अतिशयगुणा भवंति स्फुटं तस्याष्ट प्रातिहार्याः अर्थ—गुणस्थान चौदह कहे हैं तिनिमैं सयोगकेवली नाम तेरहमां गुणस्थान है तिसविर्षे योगनिकी प्रवृत्तिसहित केवलज्ञानकरि सहित सयोगकेवली अरहंत होय है. बहुरि चौतीस अतिशय ते हैं गुण जाकै बहुरि ताकै आठ प्रातिहार्य होय हैं ऐसा तौ गुणस्थानकरि स्थापना अरहंत कहिये ॥
भावार्थ--इहां चौतीस अतिशय अर आठ प्रातिहार्य कहनें तैं तो समवसरणमैं विराजमान तथा विहार करता अरहंत है, बहुरि सयोग कहनेते विहारकी प्रवृत्ति अर वचनकी प्रवृत्ति सिद्ध होय है बहुरि केवली कहनेंतें केवलज्ञानकरि सर्व तत्त्वका जाननां सिद्ध होय है। तहां चौतीस अतिशय तौ ऐसैं-जन्मतें प्रगट होंय दश-मलमूत्रका अभाव १ पसेवका अभाव २ धवल रुधिर होय ३ समचतुरस्रसंस्थान ४ वज्रवृषभनाराच संहनन ५ सुंदररूप ६ सुगंधशरीर ७ भले लक्षण होय ८ अनंतवल ९ मधुरवचन १० ऐसैं दश । बहुरि केवलज्ञान उपजे दश होय-उपसर्गका अभाव १ अदयाका अभाव २ शरीरकी छाया पड़े नहीं ३ चतुर्मुख दीखै ४ सर्व विद्याका स्वामीपणां ५ नेत्र टिमकारै नहीं ६ शतयोजनसुभिक्षता ७ आकाशगमन ८ कवलाहार नाही ९ नख केश वटै नांही १० ऐसैं दश । बहुरि चौदह देवकृत-सकलार्द्धमागधी भाषा १ संकलजीवनिमैं मैत्रीभाव २ सर्व ऋतुके फळ फूल फलैं ३ दर्प
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
णसमान भूमि ४ कंटकरहित भूमि ५ मंद सुगंधपवन ६ सर्वके आनंद ७ गंधोदकवृष्टि ८ पाद तलै कमलर. ९ सर्वधान्यानष्पत्ति १० दशों दिशा निर्मल ११ देवनिको आह्वानन शब्द १२ धर्मचक्र आगें चलै १३ अष्ट मंगलद्रव्य आगें चालै १४ । अष्ट मंगल द्रव्यके नाम छत्र १ ध्वजा २ दर्पण ३ कलश ४ चामर ५ भंगार ६ ताल ७ सुप्रतीच्छक ८ ऐसें आठ। ऐसे चौतीसके नाम कहे । बहुरि अष्ट प्रातिहार्य होय हैं तिनिके नाम अशोकवृक्ष १ पुष्पवृष्टि २ दिव्यध्वनि ३ चामर ४ सिंहासन ५ भामंडल ६ दुंदुभिवादित्र ७ छत्र ८ ऐसे आठ । ऐसें तौ गुणस्थानकरि अरहंतका स्थापन कह्या ॥ ३१ ॥ - अब मार्गणाकरि कहै हैगाथा-गड़ इंदियं च काए जोए वेए कसाय णाणे य ।
संजम दंसण लेसा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥३३॥ संस्कृत—गतौ इंद्रिये च काये योगे वेदे कषाये ज्ञाने च । संयमे दर्शने लेश्यायां भव्यत्वे सम्यक्त्वे संज्ञिनि
आहारे ॥३३॥ अर्थ-ति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी, आहार ऐसें चौदह । तहां अरहंत सयोगकेवलीलौं तेरह गुणस्थान हैं तहां मार्गण लगाइये तब गति च्यारमैं मनुष्यगति है, इंद्रियजाति पांचमैं पंचेंद्रिय जाति है, काय छहमै त्रसकाय है- योग पंदरामैं योग मनोयोग सत्य अनुभय ऐसे दोय बहुरि तेही वचनयोग दोय बहुरि काययोग औदारिक ऐसैं पांच हैं अर समुद्धात करें ताकै औदारिकमिश्र कार्माण ये दोय मिलि सात है बहुरि वेद तीनूंहीका अभाव है, बहुरि कषाय पच्चीस सर्वही का अभाव है, बहुरि ज्ञान आठमैं केवलज्ञान है, संयम सातमैं एक यथाख्यात है, दर्शन च्यारमैं
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १३५ एक केवल दर्शन हैं लेश्या छहमैं एक शुक्लयोगनिमित है बहुरि भव्य दोयमैं एक भव्य है, सम्यक्त्व छहमैं क्षायिक सम्यक्त्व है संज्ञी दोयमैं संज्ञी है सो द्रव्यकरि हैं भावकरि क्षयोपशमरूपभाव मनका अभाव है आहारक अनाहारक दोयमैं आहारक है सो नोकर्मवर्गणा अपेक्षा है कवलाहार नांही है अर समुद्रात करै तो अनाहारक भी है ऐसैं दोऊ है। ऐसैं मार्गणा अपेक्षा अरहंतका स्थापन जाननां ॥ ३३ ॥
आगें पर्याप्तिकरि कहै है;गाथा--आहारो य सरीरो इंदियमणआणपाणभासा य ।
पज्जत्तिगुणसमिद्धो उत्तमदेवो हवइ अरहो ॥३४॥ संस्कृत-आहारः च शरीरं इन्द्रियमनआनप्राणभाषाः च ।
पर्याप्तिगुणसमृद्धः उत्तमदेवः भवति अर्हन् ॥३४॥ अर्थ-आहार बहुरि शरीर इंद्रिय मन आनप्राण कहिये श्वासोच्छास भाषा ऐसैं छह पर्याप्ति हैं, इस पर्याप्तिगुण करि समृद्ध कहिये युक्त उत्तमदेव अरहंत हैं ॥ ___ भावार्थ-पर्याप्तिका स्वरूप ऐसा जो-अन्य पर्यायतें च्यवनकरि अन्य पर्यायमैं प्राप्त होय तब तीन समय उत्कृष अंतरालमैं रहै पीछ सैनी पंचेंद्रिय उपजै सो जहां तीन जातिकी वर्गणाका ग्रहण करै; आहारवर्गणा भाषावर्गणा मनोवर्गणा; ऐसैं ग्रहण करि आहारजातिकी वर्गणातें तो आहार शरीर इंद्रिय श्वासोच्छास ऐसै च्यार पर्याप्ति अन्तर्मुहूर्त कालमैं पूरण करै पीछे भाषाजाति मनोजातिकी वर्गणारौं अन्तर्मुहूर्त्तहीमैं भाषा मन पर्याप्ति पूर्ण करै ऐसे छहूं पर्याप्ति अन्तर्मुहूर्तमैं पूर्ण कर है पीछै. आयुपर्यन्त पर्याप्त ही कहावै अर नोकर्मवर्गणा का ग्रहण करबोही करै,. इहां आहार नाम कवलाहारका न जाननां । ऐसें तेरहैं गुणस्थान भी अरहंतकै पर्याप्ति पूर्णही है ऐसैं पर्याप्तिकार अरहंतका स्थापना है ॥ ३४ ॥
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१३६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ आगें प्राणकरि कहै हैं;गाथा-पंच वि इंदियपाणा मणवयकाएण तिण्णि वलपाणा ।
___आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होतेि दह पाणा॥३५॥ संस्कृत-पंचापि इंद्रियप्राणाः मनोवचनकायैः त्रयो बलप्राणाः ।
___ आनप्राणप्राणाः आयुष्कप्राणेन भवंति दशप्राणाः॥३५॥
अर्थ-पांच तौ इंद्रिय प्राण बहुरि मन वचन कायकरि तीन बलप्राण एक श्वासोच्छास प्राण एक आयुप्राणकरि सहित दश प्राण हैं ॥ _ भावार्थ—ऐसैं दश प्राण कहे तिनिमैं तेरहैं गुणस्थान भावइंद्रिय अर भावमनका क्षयोपशमभावरूप प्रवृति नांही तिस अपेक्षा तौ कायबल वचनबल श्वासोच्छास आयु ये च्यार प्राण कहिये अर द्रव्य अपेक्षा दशौंही कहिये, ऐसे प्राणकरि अरहंतका स्थापन है ॥ ३५ ॥ ___ आण जीवस्थानकरि कहै है;गाथा--मणुयभवे पंचिंदिय जीवहाणेसु होइ चउदसमे ।
एदे गुणगणजुत्तो गुणमारूढो हवइ अरहो ॥ ३६॥ संस्कृत--मनुजभवे पंचेंद्रियः जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशे ।
एतद्गणगणयुक्तः गुणमारूढो भवति अर्हन् ॥३६॥ अर्थ—मनुष्यभववि पंचेंद्रियनामा चौदमा जीवस्थान कहिये जीवसमास ताविर्षे इतने गुणनिके समूहकरि युक्त तेरमैं गुणस्थानकू प्राप्त अरहंत होय है ॥ ___ भावार्थ-जीवसमास चौदह कहेहैं एकेंद्रिय सूक्ष्मवादर २ वेइंद्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रिय ऐसैं विकलत्रय ३ पंचेंद्रिय असैनी सैनी २ ऐसैं सात भये ते पर्याप्त अपर्याप्त करि चौदह भये तिनिमैं चौदहमां सैनी पंचेंद्रिय जीवस्थान अरहंतकैहैं । गाथामैं सैनीका नाम न लिया अर मनुष्यभवका
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १३७ नाम लिया सो मनुष्य सैनीही होयहै असैनी न होय तातें मनुष्य कहनेंतें सैनीही जाननां ॥ ३६॥ ऐसे गुणनिकरि सहित स्थापना अरहंतका वर्णन किया ।
आरौं द्रव्यकू प्रधानकरि अरहंतका निरूपण करै है;गाथा-जरवाहिदुक्खरहियं आहारणिहारवज्जियं विमलं ।
सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगुंछा य दोसो य ॥३७॥ दस पाणा पज्जती अहसहस्सा य लक्खणा भणिया । गोखीरसंखधवलं मंसं रुहिरं च सव्वंगे ॥ ३८॥ एरिसगुणेहिं सव्वं अइसयवंतं सुपरिमलामोयं ।
ओरालियं च कायं णायव्वं अरहपुरिसस्स ॥ ३९॥ संस्कृत–जराव्याधिदुःखरहितः आहारनीहारवर्जितः विमलः।
सिंहाणः खेलः स्वेदः नास्ति दुर्गन्धः च दोषः च ३७ दश प्राणाः पर्याप्तयः अष्टसहस्राणि च लक्षणानि
__ भणितानि । गोक्षीरशंखधवलं मांसं रुधिरं च सर्वाङ्गे ॥ ३८॥ ईदृशगुणैः सर्वः अतिशयवान् सुपरिमलामोदः। .
औदारिकश्च कायः अहेत्पुरुषस्य ज्ञातव्यः ॥३९॥ अर्थ—अरहंत पुरुषकै औदारिक काय ऐसा जाननां—जरा बहुरि व्याधि रोग इनिसंबंधी दुःख जामैं नाहीं है बहुरि आहारनीहारकरि वर्जित हैं बहुरि विमल कहिये मलमूत्रकरि रहित है बहुरि सिंहाण श्लेष्म खेल कहिये थूक पसेव बहुरि दुर्गंधी कहिये जुगुप्सा ग्लानिता दुर्गंधादि दोष जामैं नहीं है ॥ ३७॥
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
दश तौ जामैं प्राण हैं ते द्रव्य प्राण जानना बहुरि पूर्ण पर्याप्ति है बहुरि एक हजार आठ लक्षण जाकै कहै हैं बहुरि गोक्षीर कहिये कपूर अथवा चंदन तथा शंख सारिखा जामैं सर्वांग धवल रुधिर मांस है ॥ ३८ ॥
ऐसे गुणनिकरि संयुक्त सर्वही देह अतिशयनिकरि सहित निर्मल हैं आमोद कहिये सुगंध जामैं ऐसा औदारिक देह अरहंत पुरुषका जाननां।३९।
भावार्थ-इहां द्रव्य निक्षेप नाही समझनां आत्मा” जुदा ही देहळू प्रधान करि द्रव्य अरहंतका वर्णन है ॥३७-३८-३९ ॥
ऐसे द्रव्य अरहंतका वर्णन किया।
आरौं भावकू प्रधानकरि वर्णन करे है;गाथा--मयरायदोसरहिओ कसायमलवजिओ य सुविसुद्धो ।
चित्तपरिणामरहिदो केवलभावे मुणेयन्वो ॥४०॥ संस्कृत-मदरागदोषरहितः कषायमलवर्जितः च सुविशुद्धः।
चित्तपरिणामरहितः केवलभावे ज्ञातव्यः ॥ ४० ॥ अर्थ—केवलभाव कहिये केवलज्ञानरूपही एक भाव हो” सं॰ अरहंत ऐसा जानना–मद कहिये मान कषायतै भया गर्व बहुरि राग द्वेष कहिये कंषायनिके तीव्र उदयतें होय ऐसी प्रीति अर अप्रीतिरूप परिणाम इनितें रहित है, बहुरि पच्चीस कषायरूप मल ताका द्रव्य कर्म तथा तिनिके उदयौं भया भावमल ताकरि वर्जित है याहीत अतिशयकरि विशुद्ध है निर्मल है, बहुरि चित्तपरिणाम कहिये मनका परिणमनरूप विकल्प ताकरि रहित है ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप मनका विकल्प नाही है, ऐसा केवल एक ज्ञानरूप वीतरागस्वरूप भाव अरहंत जाननां ॥ ४०॥
आरौं भावहीका विशेष कहै है;
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका ।
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गाथा-सम्मदंसणि पस्सइ जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया । .
सम्मत्तगुणविसुद्धो भावो अरहस्स णायबो ॥४१॥ संस्कृत-सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् ।
सम्यक्त्वगुणविशुद्धः भावः अर्हतः ज्ञातव्यः ॥४१॥ अर्थ--भावअरहंत-सम्यग्दर्शनकरि तो आपकू तथा सर्वकू सत्तामात्रकरि देखै है ऐसा केवल दर्शन जाकै है बहुरि ज्ञानकरि सर्व द्रव्य पर्यायनिकू जानैं है ऐसा जाके केवल ज्ञान है बहुरि सम्यक्त्व गुणकरि विशुद्ध है क्षायिक सम्यक्त्व जाकै पाहिये है ऐसा अरहंतका भाव जाननां॥ _ भावार्थ-अरहंत होय है सो घातियाकर्मके नाश” होय है सो यह मोहकर्मके नाशतें तो मिथ्यात्व कषायके अभावतें परमवीतरागपणां सर्वप्रकार निर्मलता होय है, बहुरि ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मके नाशतें अनंतदर्शन अनंतज्ञान प्रगट होय है तिनकरि सर्व द्रव्य पर्यायनिकू एकैं काल प्रत्यक्ष देखै जानैं है। तहां द्रव्य छह हैं-तिनिमैं जीवद्रव्य तौ संख्याकरि अनंतानंत है, बहुरि पुद्गल द्रव्य तिनि अनंतानंत गुणे हैं, बहुरि आकाश द्रव्य एक है सो अनंतानंत प्रदेशी है ताकै मध्य सर्व जीव पुद्गल असंख्यात प्रदेशमैं तिष्ठे हैं, बहुरि एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रव्य ये दोऊ असंख्यात प्रदेशी हैं इनितें आकाशंके लोक अलोकका विभाग है तिस लोकहीमैं कालद्रव्यके असंख्यात कालाणु तिष्ठे हैं। इनि सर्व द्रव्यके परिणामरूप पर्याय हैं ते एक एक द्रव्यकै अनंतानंत हैं तिनिकू कालद्रव्यका परिणाम निमित्त है ताके निमित्ततें क्रमरूप होता समयादिक व्यवहारकाल कहावै है तिसकी गणनाते अतीत अनागत वर्तमान द्रव्यनिके पर्याय अनंतानंत हैं तिनि सर्व द्रव्य पर्यायनिकू अरहंतका दर्शन ज्ञान एकै काल देखै जानैं है याही तैं अरहंतकू सर्व दर्शी सर्वज्ञ कहिये है॥
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भावार्थ—ऐसैं अरहंतका निरूपण चौदह गाथानिमै किया तहां प्रथम गाथामैं नाम स्थापना द्रव्य भाव गुण पर्याय सहित च्यवन आगति संपत्ति ये भाव अरहंत• जानाऐं हैं ताका व्याख्यान नामादि कथनमैं सर्वही आयगया ताका संक्षेप भावार्थ लिखिये है-तहां प्रथम तौ गर्भकल्याणक होय है सो गर्भमैं आवतैं छह महीने पहली इन्द्रका प्रेन्या धनद जिस राजाकी राणीके गर्भमैं आवसी ताका नगरकी शोभा करै, रत्नमयी सुवर्णमयी मंदिर रचे, नगरकै कोट खाई दरवाजे सुंदर वन उपवनकी रचना करै, सुन्दर जिनके भेष ऐसे नर नारी पुरमैं बसावै, बहुरि नित्य राजमंदिरपरि रत्ननिकी वर्षा होवो करै बहुरि माताके गर्भमैं आवै तब माताकू सोलै सपनां आवे, रुचकद्वीपको बसबावाली देवांगना माताकी नित्य सेवा करें, ऐसैं नव मास बीते प्रभुका तीन ज्ञान दश अतिशय लिये जन्म होय, तब तीन लोकमैं क्षोभ होय, देवनिकै विना बजाए बाजा वाज, इंद्रका आसन कंपै, तब इन्द्र प्रभुका जन्म हूवा जानि स्वर्ग” ऐरावति हस्ती चढ़ि आवै, सर्व च्यार प्रकारके देव देवी भेले होय आवे, शची (इन्द्राणी) माता पासि जाय प्रच्छन्न प्रभुकौं ले आवै, इन्द्र हर्षित हजार नेत्रनिकीर देखे, सौधर्म इन्द्र अपनी गोदमैं लेय ऐरावति हस्तीपरि चढि मेरुपर्वतनैं चालै, ईशान इंद्र छत्र राखे, सनत्कुमार माहेन्द्र इन्द्र चमर ढाएँ, मेरुके पांडुकवनकी पांडुकशिलापरि सिंहासनपरि प्रभुकू थापै, सारे देव क्षीरसमुद्रतें एक हजार आठ कलशनिमैं जल ल्याय देव देवांगना गीत नृत्य वादिन बडे उत्साहसहित प्रभुके मस्तकपरि ढारि जन्मकल्याणकका अभिषेक करै, पीछे शंगार वस्त्र आभूषण पहराय माताकै मंदिर ल्याय माताकू सौंपें, इन्द्रादिक देव अपने स्थानक जांय, कुबेर सेवाकू रहै, पीछे कुमार अवस्था तथा राज्य अवस्था भोगै तामैं मनोवांछित भोग भोग, पीछे
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १४१ कछु वैराग्यका कारण पाय संसार देह भोगते विरक्त होय, तब लौकांतिक देव आय वैराग्यकी वधावन हारी प्रभुकी स्तुति करें, पी, इन्द्र आय तपकल्याणक करै पालकीमैं बैठाय बड़े बड़े उत्सव” वनमैं लेजाय, तहां प्रभु पवित्र शिलापरि बैठि पंचमुष्टीनैं लौंचकरि पंच महाव्रत अंगीकार करै समस्त परिग्रहका त्यागकरि दिगंबररूप धारि ध्यान करै, तत्काल मनःपर्ययज्ञान उपजै, पाछै केतक काल वीते तपके बलकरि घातिकमकी प्रकृति ४७अधाति कर्मप्रकृति १६ ऐसें तरेसठि प्रकृतिका संत्तामैंसूं नाशकरि केवलज्ञान उपजाय अनंतचतुष्टय पाय क्षुधादिक अठारह दोषनि” रहित होय अरहंत होय, तब इन्द्र आय समवसरण रचैं सो आगमोक्त अनेक शोभा सहित मणिसुवर्णमयी कोट खाई वेदी च्यारूं दिशा च्यार दरवाजा मानस्तंभ नाट्यशाला वन आदि अनेक रचना कर, ताके मध्य सभामंडपमैं बारह सभा, तिनिमैं मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका देव देवी तिर्यच तिष्ठें, प्रभुके अनेक अतिशय प्रगट होय, सभामंडपके वीचि तीन पीठ परि गंधकुटीकै वीचि सिंहासनपरि व कमलासन अंतरीक्ष प्रभु विराजे अर अष्ट प्रातिहार्ययुक्त होय वाणी खिरै ताकू सुनि गणधर द्वादशांग शास्त्र रचें, ऐसे केवलकल्याणकका उत्सव इन्द्र करै है पीछे प्रभु विहार करै ताका बडा उत्सव देव करें, पाछै केतेक कालपीछे आयुके दिन थोरे रहैं तब योगनिरोध करि अधातिकर्मका नाशकरि मुक्ति पधारें, तब पीछे शरीरका संस्कार इन्द्र उत्सवसहित निर्वाण कल्याण करै । ऐसैं तीर्थंकर पंच कल्याणककी पूजा पाय अरहंत कहाय निर्वाण प्राप्त होय है ऐसें जाननां ॥ ___ आरौं प्रव्रज्याका निरूपण करै है ताकू दीक्षा कहिये ताकू प्रथमही दीक्षाके योग्य स्थानकविशेषकू तथा दीक्षासहित मुनि जहां तिष्टै ताका. स्वरूप कहै है,
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
गाथा-सुण्णहरे तरुहिहे उज्जाणे तह मसाणवासे वा।
गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा॥४२॥ संवसासत्तं तित्थं वचचइदालत्तयं च वुत्तेहिं । जिणभवणं अह वेझं जिणमग्गे जिणवराविति ॥४३॥ पंचमहव्ययजुत्ता पंचिंदियसंजया गिरावेक्खा। .
सज्झायझाणजुत्ता मुणिवर वसहा गिइच्छंति ॥४४॥ संस्कृत-शून्यगृहे तरुमूले उद्याने तथा श्मशानवासे वा।
गिरिगुहायां गिरिशिखरे वा भीमवने अथवा वसतौ वा॥ स्ववशासक्तं तीर्थं वचश्चैत्यालयत्रिकं च उक्तः । जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विदन्ति ॥४३ पंचमहाव्रतयुक्ताः पंचेन्द्रियसंयताः निरपेक्षाः ।
स्वाध्यायध्यानयुक्ताः मुनिवरवृषभाः नीच्छन्ति॥४४॥ अर्थ—सूनां घर, वृक्षका मूल कोटर, उद्यान वन, मसाण भूमि, गिरिकी गुफा, गिरिका शिखर, भयानकवन, अथवा वस्तिका, इनिविर्षे दीक्षासहित मुनि तिष्टें ये दीक्षायोग्य स्थान हैं॥ ___ बहुरि स्वशासक्त कहिये स्वाधीन मुनिनिकरि आसक्त जे क्षेत्र तिनिमैं मुनिवर्स, बहुरि जहांतें मुक्ति पधारे ऐसे तौ तीर्थस्थान बहुरि वच चैत्य आलय ऐसा त्रिक जे, पूर्व उक्त कहिये आयतन आदिक परमार्थरूप, संयमी मुनि अरहंत सिद्ध स्वरूप तिनिका नामके अक्षररूप मंत्र तथा तिनिकी
(१) संस्कृत प्रतिमें 'सवसा' 'सतं' ऐसे दो पद किये हैं जिनकी संस्कृत स्ववशा 'सत्त्वं' इस प्रकार लिखी हैं ।
( २ ) वचचइदालत्तयं इसके भी दो ही पद किये हैं 'वचः' 'चैत्यालयं' इस
प्रकार।
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. अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका।
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आज्ञारूपवाणी सो तो वच, अर तिनिकै आकार धातु पाषाणकी प्रतिमा स्थापन सो चैत्य, अर सो प्रतिमा तथा अक्षर मंत्र वाणी जामैं स्थापिये ऐसा आलय मंदिर यंत्र पुस्तक ऐसा वच चैत्य आलयकात्रिक, बहुरि अथवा जिनभवन कहिये अकृत्रिम चैत्यालय मंदिर ऐसा आयतनादिक तिनिकै समानही तिनिका व्यवहार, ताहि जिनमार्गवि जिनवर देव वेध्य कहिये दक्षिासहित मुनिनिकै ध्यावनेयोग्य चितवन करनेयोग्य कहै है ॥
बहुरि जे मुनिवृषभ कहिये मुनिनिमैं प्रधान हैं ते कहे ते शून्यगृहादिक तथा तीर्थ नाम मंत्र स्थापनरूप मूर्ति अर तिनिका आलय मंदिर पुस्तक अर अकृत्रिम जिनमंदिर तिनिकू णिइच्छंति कहिये निश्चयकरि इष्ट करैं हैं तिनिमैं सूना घर आदिकमैं वसैं हैं अर तीर्थ आदिका ध्यान चितवन करैं हैं अर अन्यकुं तहां दीक्षा देहैं । इहां 'णिइच्छंति' का पाठांतर ‘णइच्छंति' ऐसाभी है ताका काकोक्तिकरि तौ ऐसा अर्थ होय है “जो कहा न इष्ट करै है करैही है" । अर एक टिप्पणीमैं ऐसा अर्थ किया है जो ऐसे शून्यगृहादिक तथा तीर्थादिक तिनकू स्ववशासक्त कहिये स्वेच्छाचारी भ्रष्ट आचारी तिनिकरि आसक्त होय युक्त होय तौ ते मुनिप्रधान इष्ट न करै तहां न वसैं । कैसे हैं ते मुनिप्रधान-पांच महाव्रतनिकरि संयुक्त हैं, बहुरि कैसे हैं-पांच इन्द्रियनिका है भलै प्रकार जीतनां जिनिकैं, बहुरि कैसे हैं-निरपेक्ष हैं काहू प्रकारकी वांछाकरि मुनि न भये है, बहुरि कैसे हैं-स्वाध्याय अर ध्यानकरि युक्त हैं कई तौ शास्त्र पर पढ़ायें हैं कई धर्म शुक्लध्यान करें हैं । ___ भावार्थ-इहां दीक्षायोग्य स्थानक तथा दीक्षासहित दीक्षा देनेवाला मुनिका तथा तिनिके चितवन योग्य व्यवहारका स्वरूप कह्या है ॥ ४२-४३-४४ ॥
आरौं प्रव्रज्याका स्वरूप कहै है;
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१४४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित- . गाथा-गिहगंथमोहमुक्का वावीसपरीषहा जियकषाया। .
पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४५॥ संस्कृत--गृहग्रंथमोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहा जितकषाया।
पापारंभविमुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४५॥ __ अर्थ-गृह कहिये घर अर ग्रंथ कहिये परिग्रह इनि दोऊनितें तथा तिनिका मोह ममत्व इष्ट अनिष्टबुद्धि ता” रहित हैं, बहुरि बावीस परीषहनिका सहनां जामैं होय है, बहुरि जीते है कषाय जामैं, बहुरि पापरूप जो आरंभ ताकरि रहित है, ऐसी प्रव्रज्या जिनेश्वर देव कही है ॥ ___ भावार्थ-जैन दीक्षामैं कछुभी परिग्रह नाही, सर्व संसारका मोह नाही, बाईस परीषहनिका जामैं सहनां, कषायनिका जीतनां पापारंभका जामैं अभाव । ऐसी दीक्षा अन्य मतमैं नाही ॥ ४५ ॥
आगँ फेरि कहै है;गाथा-धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई।
कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४६॥ संस्कृत-धनधान्यवस्त्रदानं हिरण्यशयनासनादि छत्रादि ।
कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४६॥ अर्थ-धन धान्य वस्त्र इनिका दान बहुरि हिरण्य कहिये रूपा सोना आदिक बहुरि शय्या आसन आदि शब्दः छत्र चामरादिक बहुरि क्षेत्र आदिक ये कुदान ताका देना ताकरि रहित ऐसी प्रव्रज्या कही है।
भावार्थ- अन्यमती केई ऐसी प्रव्रज्या कहैं हैं—जो गऊ धन धान्य वस्त्र सोना रूपा शयन आसन छत्र चामर भूमि आदिका दान करना सो प्रव्रज्या है ताका या गाथामैं निषेध किया है जो प्रव्रज्या तौ निम्रथस्वरूप है जो धन धान्य आदि राखि दान करै ताकै काहेकी प्रव्रज्या ?
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका।
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ये तो गृहस्थका कर्म है, बहुरि गृहस्थकै भी इनि वस्तुनिके दानतें विशेष पुण्यतौ नाही उपजै है जातें पाप बहुत है सो पुण्य अल्प है सो बहुत पाप कार्य तौ गृहस्थकू करने# लाभ नाही जामैं बहुत लाभ होय सो ही करना योग्य है, दीक्षा तौ इनि वस्तुनिकरि रहित ही जाननां ४६
आण फेरि कहै है;-- गाथा-सत्तमित्ते य समा पसंसणिद्दाअलद्धिलद्धिसमा।
तणकणए समभावा पव्वजा एरिसा भणिया ॥४७॥ संस्कृत-शत्रौ मित्रे च समा प्रशंसानिन्दाऽलब्धिलब्धिसमा।
तृणे कनके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४७॥ अर्थ-बहुरि जामैं शत्रु मित्रवि समभाव है, बहुरि प्रशंसा निंदा विर्षे लाभ अलाभविौं समभाव है बहुरि तृणकंचन वि समभाव है ऐसी प्रव्रज्या कही है।
भावार्थ—जैनदीक्षावि रागद्वेषका अभाव है जानैं वैरी मित्र निंदा प्रशंसा लाभ अलाभ तृण कंचनविर्षे तुल्य भाव है, जैनके मुनिनिक ऐसी दीक्षा है ॥ ४७॥ ___ आगें फेरि कहैं हैं;-- गाथा-उत्तममज्झिमगेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खा ।
सव्वत्थ गिहिदपिंडा पधज्जा एरिसा भणिया ॥४८॥ संस्कृत-उत्तममध्यमगेहे दरिद्रे ईश्वरे निरपेक्षा ।
सर्वत्र गृहीतपिंडा प्रवज्या ईदृशी भणिता ॥४८॥ अर्थ-उत्तम गेह कहिये शोभासहित ऐसा राजमंदिरादिक अर मध्यम गेह कहिये शोभारहित सामान्य जनका घर इनि वि. तथा दरिद्री,
अ०व० १०
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
धनवान इनिविर्षे निरपेक्ष कहिये जामैं अपेक्षा नाहीं ऐसी सर्व जायगां ग्रह्या है पिंड कहिये आहार जानें ऐसी प्रव्रज्या कही है ।। ___ भावार्थ---मुनि दीक्षासहित होय है अर आहार लेने• जाय तब ऐसी न विचारै जो बडे घर जानां अथवा छोटे घर जानां तथा दरिद्रीके जाना धनवानकै जाना ऐसी वांछा रहित निर्दोष आहारकी योग्यता होय तहां सर्वत्रही जायगां योग्य आहार ले, ऐसी दीक्षा है ॥ ४८ ॥ ___ आगै फेरि कहै है;गाथा-णिग्गंथा णिस्संगा गिम्माणासा अराय णिदोसा ।
णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४९।। संस्कृत-निर्ग्रथा निःसंगा निर्मानाशा अरागा निषा ।
निर्ममा निरहंकारा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४९॥ अर्थ-बहुरि कैसी है प्रव्रज्या-निग्रंथस्वरूप है परिग्रह रहित है, बहुरि कैसी है-निःसंग कहिये स्त्री आदि परद्रव्य का संग मिलाप जामैं नांहीं है, बहुरि निर्माना कहिये मान कषाय जा. नांहीं है मदरहित है बहुरि कैसी है निराशा है जामैं आशा नहीं है संसारभोगकी आशारहित है, बहुरि कैसी है-अराग कहिये रागका जामैं अभाव है संसार देह भोगसूं जामैं प्रीति नहीं है, बहुरि कैसी है निर्दोष कहिये काहूसू द्वेष जामैं नाहीं है, बहुरि कैसी है निर्ममा कहिये जामैं काहूंसू ममत्व भाव नाही है, बहुरि कैसी है निरहंकारा कहिये अहंकाररहित है जो कळं कर्मका उदय है सो होय है ऐसें जानने तैं परद्रव्य. कापणांका अहंकार नांहीं है अपनां स्वरूपका ही जामैं साधन है ऐसी प्रव्रज्या कही है ।।
भावार्थ-अन्यमती भेष पहरि तिसमात्र दीक्षा मानें हैं सो दीक्षा नांहीं है, जैनदीक्षा ऐसी कही है ।। ४९ ।।
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १४७ आगै फेरि कहै है;गाथा--णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिकलुसा।
णिब्भय णिरासभावा पव्वजा एरिसा भणिया॥५०॥ संस्कृत-निःस्नेहा निर्लोभा निर्मोहा निर्विकारा निष्कलुषा।
निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदृशी भगिता ॥५०॥ अर्थ--बहुरि प्रव्रज्या ऐसी कही है.—निःस्नेहा कहिये जामैं काहूंसू स्नेह नाही परद्रव्यसूं रागादिरूप सचिक्कणभाव जामैं नाही है, बहुरि कैसी है निर्लोभा कहिये जामैं कछु परद्रव्यके लेनेकी वांछा नाही है, बहुरि कैसी है. निर्मोहा काहये जामैं काहू परद्रव्यसू मोह नाही है भूलिकरि भी परद्रव्यमैं आत्मबुद्धि नांही उपजै है, बहुरि कैसी है निर्विकार है बाह्य अभ्यंतर विकारतूं रहित है बाध शरीरकी चेष्टा तथा वस्त्रभूषणादिकका तथा अंग उपांगका विकार जामैं नहीं है अंतरंग काम क्रोधादिकका विकार जामैं नांही है, बहुरि कैसी हैं नि:कलुषा कहिये मलिनभावरहित है आत्माकू कषाय मलिन कर है सो कषाय जामैं नहीं है, बहुरि कैसी है निर्भया कहिये काहू प्रकारका भय जामैं नाही है, आपका स्वरूपकू अविनाशी जानैं ताकै काहेका भय होय, बहुरि कैसी है निराशभाव कहिये जामैं काहू प्रकार परद्रव्यकी आशाका भाव नाही है आशा तौ किछू वस्तुकी प्राप्ति न होय ताकी लगी रहै है अर जहां परद्रव्यकू अपनां जान्यां नाही अर अपने स्वरूपकी प्राप्ति भई तब किछू पावना न रह्या तंब काहेकी आशा होय । प्रव्रज्या ऐसी कही है ॥
भावार्थ-जैनदीक्षा ऐसी है, अन्यमतमैं स्वरूप द्रव्यका भेदज्ञान नांही है तिनिकै ऐसी दीक्षा काहेरौं होय ॥ ५० ॥
आगैं दीक्षाका बाह्य स्वरूप कहै है;
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१४८ पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचितगाथा-जहजायसवसरिसा अवलंवियभुय णिराउहा संता। . परकियणिलयणिवासा पव्वजा एरिसा भणिया॥५१॥ संस्कृत---यथाजातरूपसदृशी अवलंबितभुजा निरायुधा शांता।
परकृतनिलयनिवासा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५१॥ अर्थ-कैसी है प्रव्रज्या—यथाजातरूपसदृशी कहिये जैसा जन्म्यां बालकका नग्न रूप होय तैसा नग्न रूप जामैं है, बहुरि कैसी है अवलंबितभुजा कहिये लंबायमान किये हैं भुजा जामैं बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सर्ग खड़ा रहनां जामैं होय है, बहुरि कैसी है निरायुधा कहिये आयुधनिकरि रहित है, बहुरि शांता कहिये अंग उपांगके विकार रहित शांत मुद्रा जामैं होय है, बहुरि कैसी है परकृतानेलयनिवासा कहिये परका किया निलय जो वस्तिका आदिक तामैं है निवास जामैं आपकू कृत कारित अनुमोदना मन वचन काय करि जा दोष न लाग्या होय ऐसी परकी करी वस्तिका आदिकमै वसनां होय है ऐसी प्रव्रज्या कही है ॥ ___ भावार्थ-अन्यमती केई बाह्य वस्त्रादिक राई है केई आयुध राखें हैं केई सुखनिमित्त आसन चलाचल राखें हैं केई उपाश्रेय आदि वसनेका निवास बनाय तामैं वसैं हैं अर आपकू दीक्षा सहित मानें हैं तिनिकै भेषमात्र है, जैनदीक्षातो जैसी कही तैसीही है ॥५१॥
आगँ फेरि कहै है-- गाथा-उवसमखमदमजुत्ता सरीरसंकारवजिया रुक्खा ।
मयरायदोसरहिया पयजा एरिसा भणिया ॥ ५२ ॥ संस्कृत-उपशमक्षमदमयुक्ता शरीरसंस्कारवर्जिता रूक्षा ।
मदरागदोषरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।। ५२ ॥ अर्थ--बहुरि कैसी है प्रव्रज्या उपशमक्षमादमयुक्ता कहिये उपशमतौ मोहकर्मका उदयका अभावरूप शांतपरिणाम अर क्षमा क्रोधका अभाव
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका।
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रूप उत्तमक्षमा अर दम कहिये इंद्रियनिकू विषयनिमैं न प्रवर्त्तावनां इनि भावनिकरि युक्त है बहुरि कैसी है शरीरसंस्कारवर्जिता कहिये स्नानादिक करि शरीर का संवारनां ताकरि रहित है, बहुरि रूक्ष कहिये तैलादिकका मर्दन शरीरकै जामैं नाही है, बहुरि कैसी है मद राग द्वेष इनिकरि रहित है, ऐसी प्रव्रज्या कही है ।
भावार्थ-अन्यमतके भेषी क्रोधादिकरूप परिणमैं हैं शरीर• संवारि सुंदर राखें हैं इंद्रियनिके विषय सेवैं हैं अर आपकू दीक्षासहित मान हैं सो वै तो गृहस्थतुल्य हैं अतीत कहाय उलटा मिथ्यात्व दृढ करें हैं; जैनदीक्षा ऐसी है सो सत्यार्थ है याकू अंगीकार करें ते सांचे अतीत हैं ॥ ५२ ॥ ___ आगै फेरि कहै है;गाथा-विवरीयमूढभावा पणहकम्मह णहमिच्छत्ता।
सम्मत्तगुण विसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५३ ।। संस्कृत-विपरीतमूढभावा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा ।
सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५३॥ अर्थ-बहुरि कैसी है प्रव्रज्या-विपरीत भया है दूरि भया है मूढभाव कहिये अज्ञानभाव जाकै, अन्यमती आत्माका स्वरूप सर्वथा एकांतकरि अनेक प्रकार न्यारे न्यारे कहि वाद करें हैं तिनिकै आत्माका स्वरूपविर्षे मूढभाव है जैनी मुनिनिकै अनेकांत साध्या हुवा यथार्थज्ञान है तातैं मूढभाव नांहीं है, बहुरि कैसी है प्रणष्ट भया है मिथ्यात्वजामैं जैनदीक्षामैं अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप मिथ्यात्वका अभाव है याहीत सम्यक्त्वनामा गुणकरि विशुद्ध है निर्मल है सम्यक्त्वसहित दीक्षामैं दोष. नांही रहै है; ऐसी प्रव्रज्या कही है ॥ ५३ ॥
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पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
आगैं फेरि कहै है;गाथा - जिणमग्गे पव्वज्जा छहसंहणणेसु भणिय णिग्गंथा । भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया ॥५४॥ संस्कृत -- जिनमार्गे प्रव्रज्या पट्संहननेषु भणिता निर्ग्रथा । भावयंति भव्य पुरुषाः कर्मक्षयकारणे भणिता ||५४ ॥
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अर्थ -- प्रव्रज्या है सो जिनमार्गविषै छह संहननवाले जीवकै होनां कह्या है निर्ग्रथस्वरूप है सर्वपरिग्रह रहित यथाजातस्वरूप है याकूं भव्यपुरुष हैं ते भावैं हैं ऐसी प्रव्रज्या कर्मका क्षयका कारण कही है ॥
भावार्थ — वज्र ऋषभनाराच आदि छह शरीरके संहनन कहे हैं। तिनिमैं सर्वही मैं दीक्षा होनां कया है सो जे भव्यपुरुष हैं ते कर्मक्षयका कारण जांनि याकूं अंगीकार करौ । ऐसा नांही है—जो दृढ संहनन वज्रऋषभ आदिक हैं तिनिही मैं होय अर स्फाटिक संहनन मैं न होय है, ऐसी निर्ग्रथरूप दीक्षा स्फाटिक संहननविषै भी होय है ॥ ५४ ॥
I
आगे फेरि कहै है; -
गाथा - तिलतुसमत्तणिमित्तसम वाहिरगंथसंगहो णत्थि ।
पव्वत्र हवड़ एसा जह भणिया सव्वदरसीहिं ॥५५॥ संस्कृत - तिलतुषमात्रनिमित्तसमः बाह्यग्रंथसंग्रहः नास्ति । प्रवज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः ॥५५॥ अर्थ — जिस प्रव्रज्याविषै तिलके तुषमात्रका संग्रहका कारण ऐसा भावरूप इच्छानामा अंतरंग परिग्रह बहुरि तिस तिलके तुस मात्र बाह्य परिग्रहका संग्रह नांही ऐसी प्रव्रज्या जैसे सर्वज्ञदेव कही है सो ही है, अन्य प्रकार प्रव्रज्या नाहीं है ऐसा नियम जाननां । श्वेतांबर आदि क हैं हैं जो अपवादमार्ग मैं वस्त्रादिकका संग्रह साधुकै कया है सो सर्वज्ञके
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १५१
सूत्र मैं तौ कया है नांही तिननैं कल्पित सूत्र बनाये हैं तिनि मैं कह्या है सो कालदोष है ।।
आर्गै फेरि कहै है :
गाथा – उवसग्गपरिसहसहा णिजणदेसेहि णिच्च अत्थे । सिल कट्ठे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ ॥ ५६ ॥ संस्कृत — उपसर्गपरीष हसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति । शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र ॥५६॥ अर्थ-कैसी है प्रव्रज्या — उपसर्ग कहिये देव मनुष्य तिर्यञ्च अचेतनकृत उपद्रव अर परीषह कहिये दैवकर्मयोगतैं आये जे बाईस परीषह तिनिकूं समभावनितैं सहना जामैं ऐसी प्रव्रज्यासहित मुनि हैं ते जहां अन्य जन नांही ऐसा निर्जन वनादिक प्रदेश तहां सदा तिष्ठें हैं, तहां भी शिलातल काष्ट भूमितलविषै तिम्रै इनि सर्वही प्रदेशनिकूं आरोहणकरि बैठें सोर्बे, सर्वत्र कहनेंतैं वनमैं रहैं अर किंचित्काल नगर मैं रहैं तौ ऐसेही ठिकानें हैं |
भावार्थ - जैनदीक्षावाले मुनि उपसर्गपरीषह मैं समभाव रहैं अर जहां सोवें बैठें तहां निर्जन प्रदेश मैं शिला काष्ठ भूमि ही विषै बैठें सोवें, ऐसा नांही जो अन्यमतके भेषीकी ज्यों स्वच्छन्द प्रमादी रहैं, ऐसें जाननां ॥ ५६ ॥
आर्गै अन्य विशेष कहै है;
गाथा - पसु महिलसंदसंगं कुसीलसंगं ण कुगड़ विकहाओ । सज्झायझागजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५७ ॥
संस्कृत - पशुमहिलाषंढसंगं कुशीलसंगं न करोति विकथाः । स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५७॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ-जिस प्रव्रज्याविर्षे पशु तिर्यंच महिला ( स्त्री ) पंढ ( नपुं सक ) इनिका संग तथा कुशील ( व्यभिचारी ) पुरुषका संग न करै है बहुरि स्त्री राजा भोजन चोर इत्यादिककी कथा ते विकथा तिनिकू न करें, तो कहा करै ? स्वाध्याय कहिये शास्त्र जिनवचननिका पठन पाठन अर ध्यान कहिये धर्म शुक्ल ध्यान इनिकरि युक्त रहै; प्रव्रज्या ऐसी जिनदेव कही है। ___ भावार्थ-जैनदीक्षा लेकरि कुसंगति करै विकथादिक करै प्रमादी रहै तो दीक्षाका अभाव होजाय यातै कुसंगति निषिद्ध है अन्य भेषकी ज्यों यह भेष नाही है ये मोक्षमार्ग है अन्य संसारमार्ग हैं ॥ ५७ ।।
आण फेरि विशेष कहैं हैं;गाथा--तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य ।
सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पबन्जा एरिसा भणिया ।। ५८ ।। संस्कृत-तपोवतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च ।
शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ५८॥ अर्थ—प्रव्रज्या जिनदेव ऐसी कही है-कैसी है--तप कहिये बाह्य अभ्यंतर बारह प्रकार अर व्रत कहिये पांच महाव्रत अर गुण कहिये इनिके भेदरूप उत्तरगुण तिनिकरि शुद्ध है, बहार कैसी है-संयम कहिये इन्द्रिय मनका निरोध षट्कायका जीवनिकी रक्षा सम्यक्त्व कहिये तत्वार्थ श्रद्धान लक्षण निश्चय व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन बहुरि इनिका गुण कहिये मूलगुण तिनिकरि शुद्ध अतीचार रहित निर्मल है, बहुरि जे प्रव्रज्याके गुण कहे तिनि करि शुद्ध है, भेषमात्र ही नाही; ऐसी शुद्ध प्रव्रज्या कही है इनि गुणनि विना प्रव्रज्या शुद्ध नांही है ।
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १५३.
भावार्थ-तप व्रत सम्यक्त्व इनिकरि सहित अर इनके मूलगुण अर अचारनिका सोधनां जामैं होय ऐसी दीक्षा शुद्ध है, अन्यं वादी तथा. श्वेतांबरादि जैसे तैसें कहें हैं सो दीक्षा शुद्ध नांही ॥ २५ ॥
आगें प्रव्रज्याका कथन संकोच है; -
गाथा - एवं आयत्तणगुणपज्जत्ता बहुविसुद्धसम्मत्ते । णिग्गंथे जिनमग्गे संखेवेणं जहाखादं ॥ ५९ ॥ संस्कृत - एवं आयतनगुणपर्याप्ता बहुविशुद्धसम्यक्त्वे । निर्ग्रथे जिनमार्गे संक्षेपेण यथाख्यातम् ॥ ५९ ॥ अर्थ – ऐसें पूर्वोक्त प्रकार आयतन जो दीक्षाका ठिकानां निद्र्थ मुनि ताके गुण जे ते हैं तिनकरि पज्जत्ता कहिये परिपूर्ण, बहुरि अन्य भी जे बहुत-दीक्षा चाहिये ते गुण जामैं होय ऐसी प्रव्रज्या जिनमार्ग मैं. जैसैं ख्यात कहिये प्रसिद्ध है तैसें संक्षेपकरि कही, कैसा है जिनमार्गविशुद्ध है सम्यक्त्व जामैं अतीचार रहित सम्यक्त्व जामैं पाइये है बहुरि कैसा है जिनमार्ग — निग्रंथरूप है जामैं बाह्य अंतर परिग्रह नांही है ॥
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भावार्थ- ऐसी पूर्वोक्त प्रव्रज्या निर्मल सम्यक्त्वसहित निग्रंथरूप जिनमार्गविर्षै कही है, अन्य नैयायिक वैशेषिक सांख्य वेदान्त मीमांसक पातंजलि बौद्ध आदिक मतमैं नांही है, बहुरि कालदोषतें जैनमततैं च्युत भये अर जैनी कहावैं ऐसे श्वेतांबर आदिक तिनिमैं भी नांही है ॥ ५९ ॥ ऐसैं प्रव्रज्याका स्वरूपका वर्णन किया ।
आगैं बोधपाहुडकूं संकोचता संता आचार्य कहै है; -
गाथा - रुवत्थं सुद्धत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भव्वजण बोहणत्थं छक्का हियंकरं उत्तं ॥ ६० ॥
'आत्मत्व' इस
( १ ) संस्कृत सटीक प्रतिमें 'आयतन ' इसकी संस्कृत प्रकार है ।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
संस्कृत - रूपस्थं शुद्धयर्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम् । भव्यजनवोधनार्थं षट्कायहितंकरं उक्तम् ।। ६० ।
अर्थ — शुद्ध है अंतरंग भावरूप अर्थ जामैं ऐसा रूपस्थ कहिये बाह्यस्वरूप मोक्षमार्ग जैसा जिनमार्गविषै जिनदेव कया है तैसा छह कायके जीवनिका हित करनेवाला मार्ग भव्यजीवनिके संबोधनकै अर्थ का है ऐसा आचार्यनैं अपना अभिप्राय प्रकट किया है |
भावार्थ — इस बोधपाहुडविषै आयतन आदि प्रव्रज्यापर्यन्त ग्यारह स्थल कहे तिनका बाह्य अंतरंग स्वरूप जैसे जिनदेवनैं जिनमार्ग मैं का तैसें कया है । कैसा है यह रूप 1 -छह कायके जीवनिका हित करनेवाला है एकेंद्रिय आदि असैनी पर्यन्त जीवनिकी रक्षाका जामैं अधिकार है बहुरि सैनी पंचेंद्रिय जीवन की रक्षाभी करावै है अर मोक्षमार्गका उपदेश करि संसारका दुःख भेटि मोक्षकूं प्राप्त करे है ऐसा मार्ग भव्यजीवनि के संबोधनें के अर्थि कया है, जगतके प्राणी आनादितैं लगाय मिथ्यामार्गमै प्रवर्ति संसार मैं भ्रमैं हैं सो दुःख मेटनेकूं आयतन आदि ग्यारह स्थानक धर्मके ठिकानेका आश्रय ले हैं ते ठिकानें अन्यथा स्वरूप स्थापि तिनितैं सुख लिया चाहैं है सो यथार्थविना सुख कहां ता आचार्य दयालु होय जैसैं सर्वज्ञ भाषे तैसें आयतन आदिका स्वरूप संक्षेप करि यथार्थ कया है ताकूं वांचो पढ़ो धारण करो याकी श्रद्धा करो इनि स्वरूप प्रवर्त्तो यातैं वर्तमान मैं सुखी रहो अर आगामी संसार दुःखतैं छूटि परमानन्दस्वरूप मोक्षकूं प्राप्त होहू ऐसा आचार्यका कह"का अभिप्राय है।
इहां कोई पूछै जो इस बोधपाहुडमैं धर्मव्यवहारकी प्रवृत्तिके ग्यारह स्थानक कहे तिनिका विशेषण किया जो छह कायके जीवनि के हित के
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका ।
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करनेवाले ये हैं सो अन्यमती इनिकूं अन्यथा स्थापि प्रवृत्ति करैं हैं ते हिंसारूप हैं अर जीवनिके हित करनेवाले नांही तहां ये ग्यारह ही स्थानक संयमी मुनि अर अरहंत सिद्धहीकूं कहे तहां ये तौ छह कायके जीवनिके हित करनेवालेंही हैं तातैं पूज्य हैं यह तौ सत्य है, अर जहां वसैं ऐसे आकाशके प्रदेशरूप क्षेत्र तथा पर्वतकी गुफा वनादिक तथा अकृत्रिम चैत्यालय ये स्वयमेव वणि रहे हैं तिनिकूं भी प्रयोजन अर निमित्त विचार उपचार मात्र करि छह कायके जीवनिके हित करनेवाले कहिये तौ विरोध नांही जाते ये प्रदेश जड है ते बुद्धिपूर्वक काहूका बुरा भला करें नांही तथा जडकूं सख दुःख आदि फलका अनुभव नांही तातैं ये भी व्यवहार करि पूज्य है जातैं अरहंतादिक जहां तिष्ठे वै क्षेत्र निवास आदिक प्रशस्त हैं तातैं तिनि अरहंतादिकै आश्रयतें ये क्षेत्रादिकभी पूज्य हैं बहुरि गृहस्थ जिनमंदिर बनावै वस्तिका प्रतिमा बनावै प्रतिष्ठा पूजा करै तामैं तौ छह कायके जीवनिकी विराधना होय है सो ये उपदेश अर प्रवृत्तिकी बाहुल्यता कैसे हैं ।
1
ताका समाधान ऐसा जो गृहस्थ अरहंत सिद्ध मुनिनिका उपसक है सो ये जहां साक्षात् होय तहां तौ तिनिकी वंदनां पूजनां करैही है, अर ये साक्षात् नांहीं तहां परोक्ष संकल्प मैं लेय वंदनां पूजनां करै तथा तिनिका वसका क्षेत्र तथा ये मुक्तिप्राप्त भये तिस क्षेत्र मैं तथा अकृत्रिम चैत्यालय मैं तिनिका संकल्प करि वंदे पूजै या मैं अनुराग विशेष सूचै है, बहुरि तिनिकी मुद्रा प्रतिमा तदाकार बनाने अर तिसकूं मंदिर बनाय प्रतिष्ठा करि स्थापैं तथा नित्य पूजन करे या मैं अत्यंत अनुराग सू है तिस अनुरागर्ते विशिष्ट पुण्यबंध होय है अर तिस मंदिर मैं छह कायके जीवनका हितकी रक्षाका उपदेश होय है तथा निरंतर सुननेवाला धारनेवालाकै अहिंसा धर्मकी श्रद्धा दृढ होय है तथा तिनिकी तदाकार
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
प्रतिमा देखनेवालाकै शांत भाव होयहै ध्यानकी मुद्राका स्वरूप जान्या जाय है वीतराग धर्मः अनुराग विशेष होने तैं पुण्यबंध होय है तातें इनिकू भी छह कायके जीवनिके हितके करनेवाले उपचार करि कहिये, अर जिनमंदिर वस्तिका प्रतिमा बनावै तामैं तथा पूजा प्रतिष्ठा करनेमैं आरंभ होयहै तामैं किछू हिंसा भी होयहै सो ऐसा आरंभ तो गृहस्थका कार्य है यामैं गृहस्थ• अल्प पाप कह्याहै पुण्य बहुत कह्याहै जातें गृहस्थकी पदवीमैं न्यायकार्य करि न्यायपूर्वक धन उपार्जन करनां रहनेंकू जायगा बनावनां विवाहादिक करनां यत्नपूर्वक आरंभ करि आहारादिक आप करि अर खानां इत्यादिक कार्यनिमैं यद्यपि हिंसा होयहै तोऊ गृहस्थकू इनिका महापाप न कहिये, गृहस्थकै तौ महापाप मिथ्यात्वका सेवनां अन्याय चोरी आदिकरि धन उपार्जनां त्रस जीवनिकू मारि मांस आदि अभक्ष्य खानां परस्त्री सेवा करनां ये महापाप हैं, अर गृहस्थाचार छोड़ मुनि होय तब गृहस्थके न्यायकार्य भी अन्याय ही हैं, अर मुनिकै भी आहार आदिकी प्रवृत्तिमैं किळू हिंसा होय है ताकरि मुनिकू हिंसक न कहिये तैसैं ही गृहस्थकै न्यायपूर्वक पदवीयोग्य आरंभके कार्यनिमैं अल्प पापही कहिये, तातै जिनमंदिर वस्तिका पूजा प्रतिष्ठाके कार्यनिमैं आरंभका अल्प पापहै, अर मोक्षमार्गमैं प्रवर्त्तवालेनिनै अति अनुराग होयहै अर तिनिकी प्रभावना करै है तिनि• आहारदानादिक दे हैं तिनिका वैयावृत्त्यादि करै है सो ये सम्यक्त्वका अंग हैं अर महान पुण्यका कारण है तातै गृहस्थकू सदा करना उचितहै, अर गृहस्थ होय ये कार्य न करै तौ जानिये याकै धर्मानुराग विशेष नाहीं।। ___ इहां फेरि कोई कहै जो गृहस्थकू सरै नाही ते तो करैही करै अर धर्मपद्धति आरंभका कार्यकरि पाप क्यौं मिलावै सामायिक प्रतिक्रमण प्रोषध आदिकरि पुण्य उपजावै । ताकू कहिये—जो तुम ऐसैं कहौ
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अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका।
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जहां तुम्हारे परिणामकी तो ऐसी जाति नाही, केवल बाह्य क्रिया मात्रमैं ही पुण्य समझौ हौ बाह्य बहु आरंभी परिग्रहीका मन सामायिक प्रतिक्रमण आदि निरारंभ कार्यनि. विशेष लागै नांही है यह अनुभव गोचर है, सो तेरै अपने भावनिका अनुभव नाही केवल बाह्य सामायिकादि निरारंभ कार्यका भेषधारि बैठेतौ कि विशिष्ट पुण्य है नांही शरीरादिक बाह्य वस्तु तौ जड है केवल जडकी फिया फल तौ आत्माकू लागै नांही अर अपने भाव जेता अंसा बाह्य क्रियामैं लागै तेता अंसा शुभाशुभ फल आपकू लागै है, ऐसे विशिष्ट पुण्य तौ भावनिकै अनुसार है, बहुरि आरंभी परिग्रहीका भाव तौ पूजा प्रतिष्ठादिक बड़े आरंभ ही विशेष अनुराग सहित लागै है, अर जो गृहस्थाचारके बड़े आरंभ" विरक्त होगा सो त्याग करि अपनी पदवी बधावैगा तब गृहस्थाचारके बड़े आरंभ छोडैगा तब ताही रीति बडे आरंभ धर्म प्रवृत्तिकेभी पदवीकी रीति घटावैगा मुनि होगा तब सर्वही आरंभ काहेवू करैगा, ताक् मिथ्यादृष्टि बाह्यबुद्धि जे बाह्य कार्यमात्रही पुण्य पाप मोक्षमार्ग समझै है तिनिका उपदेश सुनि आपकू अज्ञानी न होना, पुण्य पापका बंधमैं शुभाशुभ भावही प्रधान हैं अर पुण्य पाप रहित मोक्षमार्ग है तामैं सम्यग्दर्शनादिकरूप आत्म परिणाम प्रधान हैं अर धर्मानुराग है सो मोक्षमार्गका सहकारी है अर धर्मानुरागके तीव्र मंदके भेद बहुत हैं तातैं अपनें भावनिकू यथार्थ पहचानि अपनी पदवी सामर्थ्य पहचानि समझिकरि श्रद्धानज्ञान प्रवृत्ति करनी अपनां भला बुरा अपने भावनिकै आधीन है बाह्य परद्रव्य तौ निमित्त मात्र है, उपादान कारण होय तो निमित्तभी सहकारी होय अर उपादान न होय तो निमित्त कळूभी न करै है, ऐसे इस बोधपाहुडका आशय जाननां । याकू नीकै समझि आयतनादिक जैसैं कहे तैसैं अर इनिका व्यवहारभी बाध तैसाही अर चैत्यगृह प्रतिमा जिनबिंब जिन
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१५८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितमुद्रा आदि धातु पाषाणादिककाभी व्यवहार तैसाही जानि श्रद्धान करना अर प्रवृत्ति करनी । अन्यमती अनेक प्रकार स्वरूप बिगाडि प्रवृत्ति करें हैं तिनि• बुद्धिकल्पित जानि उपासना न करनी । इस द्रव्य व्यवहारका प्ररूपण प्रव्रज्याके स्थलमैं आदितें दूसरी गाथामैं बिंबचैत्यालयत्रिक अर जिनभवन ये भी मुनिनिके ध्यावने योग्य हैं ऐसैं कह्या है सो जे गृहस्थ इनिकी प्रवृत्ति करैं हैं तब ते मुनिनिकै ध्यावने योग्य होय हैं तातें जिनमन्दिर प्रतिमा पूजा प्रतिष्ठा आदिकके सर्वथा निषेध करनेवाले सर्वथा एकान्तीकी ज्यौं मिथ्यादृष्टि हैं, तिनिकी संगति न करनी ॥ ___ आगें आचार्य इस बोधपाहुडका कहनां अपनी बुद्धिकल्पित नाहीं है पूर्वाचार्यानिके अनुसार कह्या है ऐसैं कहै हैं। गाथा--सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं ।
सो तह कहियं णायं सीसेण य भदबाहुस्स ॥६१॥ संस्कृत-शब्दविकारो भूतः भाषासूत्रेषु यजिनेन कथितम् ।
तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः॥६१॥ अर्थ- शब्दका विकार उपज्या ऐसा अक्षररूप परिणया भाषासूत्रनिविर्षे जिनदेवनैं कह्या सोही श्रवणमैं अक्षररूप आया बहुरि जैसा जिनदेव कह्या तैसा परंपराकरि भद्रबाहुनाम पंचम श्रतकेवलीनै जान्यां अपने शिष्य विशाखाचार्य आदिकू कह्या सो तिनि जान्यां सोही अर्थरूप विशाखाचार्यकी परंपरायतै चल्या आया सोही अर्थ आचार्य कहै है हमनैं कह्या है सो हमारी बुद्धिकरि कल्पित न कह्या है; ऐसा अभिप्राय है ॥ ६१ ॥
आण भद्रबाहु स्वामीकी स्तुतिरूप वचन कहै है१ गाथार में बिंबकी जगह 'वच ' ऐसा पाठ है ।
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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका।
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गाथा-बारस अंगवियाणं चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं ।
सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयओ ॥६२॥ संस्कृत-द्वादशांगविज्ञानः चतुर्दशपूर्वांगविपुलविस्तरणः ।
श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु ॥६२।। अर्थ-भद्रबाहु नाम आचार्य है सो जयवंत होहु कैसे हैं बारह अंगनिका है विज्ञान जिनिकू, बहुरि कैसे है चौदह पूर्वनिका है विपुल विस्तार जिनिकै याहीतैं कैसे है श्रुतज्ञानी है पूर्ण भावज्ञानसहित अक्षरात्मक श्रुतज्ञान जिनिकै पाइये है, बहुरि कैसे है 'गमक गुरु' हैं जे सूत्रके अर्थकू पाय जैसाका तैसा वाक्यार्थ करै तिनिकू गमक कहिये तिनिके गुरु हैं तिनिमैं प्रधान हैं, बहुरि कैसे हैं भगवान हैं सुरासुरनिकरि पूज्य है, ऐसे हैं सो जयवंत होऊ। ऐसैं कहनेमैं स्तुतिरूप तिनि• नमस्कार सूचै है 'जयति' धातु सर्वोत्कृष्ट अर्थमैं है सो सर्वोत्कृष्ट कहनेत नमस्कारही आवै ॥
भावार्थ-भद्रबाहुस्वामी पांचवा श्रुतकेवली भये तिनिकी परंपरायतें शास्त्रका अर्थ जांनि यह बोधपाहुड ग्रंथ रच्या है तातै तिनि• अंतमंगल अर्थि आचार्य स्तुतिरूप नमस्कार किया है । ऐसें बोधपाहुड समाप्त किया है ।। ६२॥
छप्पय । प्रथम आयतन दुतिय चैत्यगृह तीजी प्रतिमा
दर्शन अर जिनबिंव छठो जिनमुद्रा यतिमा । ज्ञान सात देव आठ{ नवमूं तीरथ
दसमूं है अरहंत ग्यारमूं दीक्षा श्रीपथ ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
इम परमारथ मुनिरूप सति अन्यभेष सब निंद्य हैं । व्यवहार धातुपाषाणमय आकृति इनिकी वंद्य है ॥१॥
दोहा। भयो वीर जिनबोध यहु, गौतमगणधर धारि । वरतायो:पंचमगुरू, नमूं तिनहिं मद छारि ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित बोधपाहुडकी
जयपुरनिवासि पं० जयचन्द्रछावड़ाकृत देशभाषामयवचनिका समाप्त ॥४॥
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॥ श्रीः॥ अथ भावपाहड।
(५)
आगें भावपाहुडकी वचनिका लिखिये है;
दोहा। परमातमकू वंदिकरि शुद्धभावकरतार ।
करूं भावपाहुडतणी देशवचनिका सार ॥१॥ ऐसैं मंगलपूर्वक प्रतिज्ञाकरि श्रीकुन्दकुन्दआचार्यकृतभावपाहुड गाथावंध ताकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है । तहां प्रथम आचार्य इष्टके नमस्काररूप मंगलकरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञाका सूत्र कहै है;गाथा-णमिऊण जिणवरिंदे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे ।
वोच्छामि भावपाहुडमवसेसे संजदे सिरसा ॥१॥ संस्कृत--नमस्कृत्य जिनवरेन्द्रान् नरसुरभवनेन्द्रवंदितान्
सिद्धान् । वक्ष्यामि भावप्राभृतमवशेषान् संयतान् शिरसा ॥१॥ अर्थ-आचार्य कहै है जो मैं भावपाहुड नाम ग्रंथ है ताहि कहूंगा पूर्व कहाकार-जिनवरेन्द्र कहिये तीर्थंकर परमदेव बहुरि सिद्ध कहिये अष्टकर्मका नाशकार सिद्धपदकू प्राप्त भये बहुरि अवशेष संयत कहिये आचार्य उपाध्याय सर्वसाधु ऐसे पंच परमेष्ठी तिनहिं मस्तककरि वंदना करिकै कहूंगा; कैसे हैं पंच परमेष्ठी-नर कहिये मनुष्य सुर कहिये स्वर्गवासी देव भवन कहिये पातालवासी देव इनिके इन्द्र तिनिकरि वंदने योग्य हैं।
अ.व. ११
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पंडित जयचंद्र जी छावडा विरचित
___भावार्थ- आचार्य भावपाहुड ग्रंथ रचैं हैं सो भाव प्रधान पंचपरमेष्ठी हैं तिनिळू आदिमैं नमस्कार युक्त है जातें जिनवरेंद्र तौ ऐसे हैं जिन कहिये गुणश्रेणी निर्जराकीर युक्त ऐसे अविरतसम्यग्दृष्टी आदिक तिनिमैं वर कहिये श्रेष्ठ गणधरादिक तिनिमैं इन्द्र तीर्थकर परमदेव है सो गुणश्रेणी निर्जरा शुद्धभावही होय है सो तीर्थकरभावके फलकू पहुंचे घातिकर्मका नाशकरि केवलज्ञान पाया, बहुरि तैसेंही सर्वकर्मका नाशकरि परम शुद्ध भावकू पाय सिद्ध भये, बहुरि आचार्य उपाध्याय शुद्ध भावके एकदेशकू पाय पूर्णता• आप साधैं हैं अन्यकुं शुद्ध भावकी दीक्षा शिक्षा दे हैं, बहुरि साधु हैं ते भी तैसैंही शुद्ध भावकू आप साधै हैं बहुरि शुद्ध भावीके माहात्म्यकरि तीन लोकके प्राणीनिकरि पूजनेयोग्य वंदनेयोग्य कहै हैं; तातै भावप्राभूतकी आदिविषै इनिफू नमस्कार युक्त है बहुरि मस्तककरि नमस्कार करने मैं सर्व अंग आय गये जाते मस्तक अंगनिमें उत्तम है, बहुरि आप नमस्कार किया तब अपना भावपूर्वक भयाही तब 'मन वचन काय' तीनूंही आय गये ऐसैं जाननां ॥ १ ॥
आगैं कहै है जो लिंग द्रव्यभाव करि दोय प्रकार है तिनिमैं भावलिंग परमार्थ हैगाथा--भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं ।
भावो कारणमूदो गुणदोसाणं जिणा विति ॥२॥ संस्कृत-भावः हि प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंगं च जानीहि परमार्थम् ।
भावो कारणभूतः गुणदोषाणां जिना विदन्ति ॥२॥ __ अर्थ-भाव है सो प्रथमलिंग है याहीत हे भव्य ! तू द्रव्यलिंग है ताहि परमार्थरूप मति जाणे जाते गुण अर दोष इनिका कारणभूत भावही है ऐसैं जिन भगवान कहैं हैं ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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भावार्थ—जारौं गुण जे स्वर्ग मोक्षका होनां अर दोष जे नरकादिक संसारका होनां इनिका कारण भगवान भावहीकू कह्या है या कारण होय सो कार्यकै पहलैं प्रवतै सो इहां मुनि श्रावककै द्रव्य लिंगक पहलै भावलिंग होय तौ सांचा मुनि श्रावक होय है तातै भावलिंगही प्रधान है प्रधान होय सोही परमार्थ है, तातै द्रव्यलिंगकू परमार्थ न जाननां ऐसैं उपदेश किया है। __ इहां कोई पूछ-भावस्वरूप कहा है ? ताका समाधान-जो भावका स्वरूप तौ आचार्य आज कहसी तथापि इहांभी किछू कहिये है—या लोकमैं षट् द्रव्य हैं तिनिमैं जीव पुद्गलका वर्तन प्रकट देखने में आवै है-तहां जीव तौ चेतनास्वरूप है अर पुद्गल स्पर्श रस गंध वर्ण स्वरूप जड है इनिकी अवस्था” अवस्थारतरूप होनां ऐसा परिणाम... भाव कहिये है तहां जीवका स्वभाव परिणामरूप भाव तौ दशन ज्ञान है अर पुद्गल कर्मके निमित्त” ज्ञानमैं मोह राग द्वेष होनां सो विभाव भाव है बहुरि पुद्गलके स्पर्श” स्पर्शान्तर रसते रसान्तर इत्यादि गुणते गुणान्तर होनां सो तौ स्वभावभाव है अर परमाणुनै स्कंध होनां तथा स्कंधतै अन्यस्कंध होनां तथा जीवके भावके निमित्ततें कर्मरूप होनां ये विभाव भाव है, ऐसैं इनिकै परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव प्रवर्ते है। तहां पुद्गल तौ जड है ताके नैमित्तिकभावतें किळू सुख दुःख आदि नाही अर जीव चेतन है याके निमित्तौं भाव होय तिनितें सुखदुःख आदि प्रवत्त है तातै जीवकू स्वभाव भावरूप रहनेका अर नैमित्तिकभावरूप न प्रवर्त्त का उपदेश है । अर जीवकै पुद्गल कर्मके संयोग” देहादिक द्रव्यका संबंध है सो इस बाह्यरूपकू द्रव्य कहिये सो भावतें द्रव्यकी प्रवृत्ति ह्येय है ऐसे द्रव्यकी प्रवृत्ति होय है । ऐसें द्रव्य भावका स्वरूप जाणि स्वभावमैं प्रवत्तै विभावमैं न प्रवत्तै ताकै परमानंद सुख होय
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१६४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितहै, विभाव रागद्वेष मोहरूप प्रवत्तै ताकै संसारसंबंधी दुःख होय हैं, अर द्रव्यरूप है सो पुद्गलका विभाव है या संबंधी जीवकै दुःख सुख होय है तातै भावही प्रधान है, ऐसैं न होतें केवली भगवानकै भी सांसारिक सुख दुःखको प्राप्ति आवै, सो है नांही । ऐसें जीवके ज्ञानदर्शन अर रागद्वेष मोह ये तो स्वभाव विभाव हैं अर पुद्गलके स्पर्शादिक अर स्कंधादिक स्वभाव विभाव हैं तिनिमैं जीवका हित अहित भाव प्रधान है पुद्गलद्रव्यसंबंधी प्रधान नाही, बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है, उपादान विना निमित्त किछू करै नांही; ये तो सामान्यपणे स्वभावका स्वरूप है बहुरि याहीका विशेष सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तो जीवका स्वभाव भाव हैं तिनिमैं सम्यग्दर्शन भाव प्रधान है याविनां सर्व बाह्य क्रिया मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र हैं सो विभाव हैं सो संसारका कारण है, ऐसे जाननां ॥२॥
आगैं कहै है जो बाह्य द्रव्य निमित्त मात्र है सो याका अभाव जीवकै भावकी विशुद्धिताका निमित्त जाणि बाह्यद्रव्यका त्याग कीजिये है;गाथा-भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ।
वाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स ॥ ३ ॥ . संस्कृत-भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रंथस्य क्रियते त्यागः ।
बाह्यत्यागः विफलः अभ्यन्तरग्रंथयुक्तस्य ॥ ३ ॥ ___ अर्थ—बाह्य परिग्रहका त्याग कीजिये है सो भावकी विशुद्धि ताकै आर्थ कीजिए है बहुरि अभ्यंतर परिग्रह जो रागादिक तिनिकरि युक्त है ताकै बाह्य परिग्रहका त्याग निष्फल है ।
भावार्थ-अंतरंगभावविना बाह्य त्यागादिककी प्रवृत्ति निष्फल है यह प्रसिद्ध है ॥३॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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___ आगैं कहै है—जो कोट्यां भव विौं तप करै तौऊ भाव विना सिद्धि नाही;गाथा--भावरहिओण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ।
जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ॥४॥ संस्कृत-भावरहितःन सिद्धयति यद्यपि तपश्चरति कोटिकोटी।
जन्मान्तराणि बहुशः लंबितहस्तः गलितवस्त्रः॥४॥ अर्थ-जो बहुत जन्मांतरताई कोडाकोडि संख्या काल ताई हस्त लंबायमानकरि वस्त्रादिक त्यागकरि तपश्चरण करै तौऊ भावरहितकै सिद्धि नांही होय है ॥ ___ भावार्थ-भावमैं मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्र रूप विभाव रहित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप स्वभावकै विर्षे प्रवृत्ति न होय तौ कोडा कोडि भव ताई कायोत्सर्गकरि नग्न मुद्रा धारि तपश्चरण करै तौऊ मुक्तिकी प्राप्ति न होय, ऐसैं भावमैं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप भाव प्रधान है तिनिमेंभी सम्यग्दर्शन प्रधान है जातें या विनां ज्ञान चारित्र मिथ्या कहे हैं, ऐसें जाननां ॥ ४ ॥ __ आगैं इसही अर्थकू दृढ़ करै है;गाथा-परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुश्चेइ बाहरे य जई।
बाहिरगंथञ्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ ॥५॥ संस्कृत-परिणामे अशुद्धे ग्रंथान मुंचति बाह्यान् च यदि ।
बाह्यग्रंथत्यागः भावविहीनस्य किं करोति ॥५॥ अर्थ-जो मुनि होय परिणाम अशुद्ध होते बाह्य ग्रंथकू छोड़े तौ बाह्य परिग्रहका त्याग है सो भावरहित मुनिकै कहा करै ? कछूभी न करै ॥
अर्थ-जो मुनि काय परिणाम अशुद्ध हात वात प्रथक छोटे से
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१६६
पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
___ भावार्थ-जो बाह्य परिग्रहकू छोडि मुनि होच अर परिग्रहपरिणामरूप अशुद्ध होय अभ्यंतर परिग्रह न छोडै तौ वाह्य त्याग किछु कल्याणरूप फल न करिसकै है, सम्यग्दर्शनादिभाव विना कर्मनिर्जरारूप कार्य न होय है ॥ ५ ॥
पहली गाथा” यामैं यह विशेष हैं जो मुनिपदभी ले अर परिणाम उज्ज्वल न रहै आत्मज्ञानकी भावना न रहै तो करें कटे नाही ।
आगें उपदेश करै है जो भावकू परमार्थ जाणि याह•ि अंगाकार करौ-- गाथा-जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण ।
पंथिय ! सिवपुरिपंथं जिणउवइमु पयत्तेण ॥६॥ संस्कृत–जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिंगेन भावरहितेन ।
पथिक शिवपुरीपंथाः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन ॥६॥ ___ अर्थ-हे मुने ! मोक्षपुरीका मार्ग जिनदेव प्रयत्नकरि उपदेश्या भावही है ताते हे शिवपुरीका पथिक ! कहिये मार्ग चलनेवाला तू भावही• प्रथम जाणि परमार्थभूत जाणि, भावरहित द्रव्यमात्र लिंगकरि तेरै कहा साध्य है किछू भी नाही ॥ .. भावार्थ-मोक्षमार्ग जिनेश्वरदेव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र आत्मभावस्वरूप परमार्थकरि कह्या है ता” याहाकू परमार्थ जानि अंगीकार करनां केवल द्रव्यमात्र लिंगकरि कहा साध्य है ऐसे उपदेश है
आमैं कहै है जो द्रव्यलिंग आदि तैं बहुत धारे तिनि” किछु सिद्धि न भई;गाथा—भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे ।
गहिउझियाई बहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाई ॥ ७॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।। १६७ संस्कृत-भावरहितेन सत्पुरुष ! अनादिकालं अनंतसंसारे ।
गृहीतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिग्रंथरूपागि ।। ७॥ अर्थ-हे सत्पुरुष ! अनादिकाल लगाय इस अनंत संतारविौं तैं भावरहित निगंथरूप बहुत वार ग्रहण किया अर छोडया ॥
भावार्थः—भाव जो निश्चय सन्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तिल विना बाह्य निग्रंथरूप द्रव्यलिंग संसाराविधैं अनंतकाल लगाय बहुतबार धारे अर छोड़े तथापि किछू सिद्धि न भई चतुर्गतिविौं भ्रमता ही रह्या ॥७ ॥ ___ सो ही कहै है:---- गाथा—भीसणणरचगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए ।
पत्तोसि तिव्वदुक्खं भावहि जिगभावणा जीव ! ॥ संस्कृत-भीषणनाकातौ तिर्यग्गतौ कुदेवमनुष्यगत्योः ।
प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावनांजीव! ॥८॥ अर्थ-हे जीव ! तैं भीषण भयकारी नरकगति तथा तिर्यंचगति बहुरि कुदेव कुमनुष्यगतिवि. तीव्र दुःख पाये तातें अब तू जिनभावनां कहिये शुद्ध आत्मतत्त्वकी भावना भाय यातें तैरै संसारका भ्रमण मिटै ॥
भावार्थ-आत्माकी भावना विना च्यार गतिके दुःख अनादि काल तैं संसारवि. पाये यातें अब हे जीव ! तू जिनेश्वरदेवका शरण ले अर शुद्धस्वरूपका बारबार भावनारूप अभ्यास करि यातँ संसारका भ्रमगते रहित मोक्षकू प्राप्त होय, यह उपदेश है ॥ ८ ॥
आण च्यारि गतिके दुःखनिकू विशेषकर कहै है, तहां प्रथम ही नरकगतिके दुःखनिकू कहै है;गाथा-सत्तसुणरयावासे दारुणभीसाई असहणीयाई ।
भुत्ताई सुइरकालं दुःक्खाइं णिरंतरं सहिय ॥९॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
संस्कृत - सप्तसु नरकावासेषु दारुणभीषणानि असहनीयानि । भुक्तानि सुचिरकालं दुःखानि निरंतरं सोढानि ||९|| अर्थ — हे जी ! तैं सबत नरकभूमिनिविषै नरक आवास जे विले तिनिविषै दारुण कहिये तीव्र अर भयानक अर असहनीय कहिये सहे न जाय ऐसे घणें कालपर्यन्त दुःखनिकूं निरंतरही भोग्या अर सा ॥
भावार्थ — नरककी पृथ्वी सात हैं तिनिमैं बिल बहुत हैं तिनिविषै एक सागर लगाय तेतीस सागरपर्यन्त तहां आयुह जहां आयुपर्यन्त अतितीव्र दु:ख यहू जीव अनंतकाल सहता आया है ॥ ९ ॥
आगै तिर्येचगति के दुःखनिकूं कहै है; - गाथा — खणणुत्तावणवालणवेयणविच्छेयणाणि रोहं च ।
पत्तोसि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं ॥ १०॥ संस्कृत - खननोत्तापनज्वालनवेदनं विच्छेदनानिरोधं च ।
प्राप्तोऽसि भावरहितः तिर्यग्गतौ चिरं कालं ॥ १० ॥ अर्थ—हे जीव ! तैं तिर्यंचगतिविषै खनन उत्तापन ज्वलन वेदन व्युच्छेदन निरोधन इत्यादि दुःख बहुतकालपर्यंत पाये, कैसा भया संताभावरहितकरि सम्यग्दर्शन आदि भावरहित भया संता ॥
भावार्थ — या जीवनें सम्यग्दर्शनादि भाव विनां तिर्यंचगतिविर्षे चिरकाल दुःख पाये - पृथ्वी कायमैं तौ कुदाल आदि खोदनेंकरि दुःख पाये, अपकायविषै अग्नितैं तपनां ढोलनां इत्यादिकरि दुःख पाये, तेजकायविषै ज्वालनां बुझावनां आदिकरि दुःख पाये, पवनकायविर्षै भारेतैं हलका चलनां फटनां आदिकरि दुःख पाये, वनस्पतिकायविषै फाडनां
१ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'सप्तसु नरकावासे' ऐसा पाठ है ।
२- मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'स्वहित' ऐसा पाठ है, 'सहिय' इसकी छाया में । ३- मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'वेयण' इसकी संस्कृत 'व्यजन' इस प्रकार है ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
१६९
छेदनां रांधनां आदिकरि दुःख पाये, विकलत्रयवि अन्यतैं रुकनां अल्प आयुर्ते मरनां इत्यादिकरि दुःख पाये, पंचेंद्रिय पशु पक्षी जलचर आदिविर्षे परस्पर घात तथा मनुष्यादिककार वेदना भूख तृषा रोकना बंधन देनां इत्यादिकरि दुःख पाये, ऐसे तिर्यंचगतिवि. असंख्यात अनंतकालपर्यन्त दुःख पाये ॥ १० ॥ __ आगें मनुष्यगतिके दुःखनिकू कहै है;गाथा--आगंतुक माणसियं सहजं सारीरियं च चत्तारि ।
दुक्खाई मणुयजम्मे पत्तोसि अणंतयं कालं ॥११॥ संस्कृत-आगंतुकं मानसिकं सहजं शारीरिकं च चत्वारि।
दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोऽसि अनंतकं कालं ११ __ अर्थ-हे जीव । तैं मनुष्यगतिविौं अनंतकालपर्यन्त आगंतुक कहिये अकस्मात् वज्रपातादिक आयपडै ऐसा बहुरि मानसिक कहिये मनही विौं भया ऐसा विषयनिकी वांछा होय अर मिलै नांही ऐसा बहुरि सहज कहिये माता पितादिककरि सह नहीं उपज्या तथा राग द्वेषादिकतै वस्तुकू इष्ट आनष्ट दुःख होना बहुरि शारीरिक कहिये व्याधि रोगादिक तथा परकृत छेदना भेदन आदिकतै भये दुःख ये च्यार प्रकार अर चकारतें इनिकू आदिले अनेक प्रकार दुःख पाये ॥ ११ ॥
आ देवगतिविर्षे दुःखनिकू कहै है;गाथा-सुरणिलयेसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं ।
संयत्तोसि महाजस दुःखं सुहभावणारहिओ ॥१२॥ संस्कृत-सुरनिलयेषु सुराप्सरावियोगकाले च मानसं तीव्रम्।
संप्राप्तोऽसि महायशः! दुःखं शुभभावनारहितः॥१२ अर्थ-हे महाजस ! तें सुरनिलयेषु काहेये देवलोकविर्षे सुराप्सरा कहिये प्यारा देव तथा प्यारी अप्सराका वियोग कालविर्षे तिसके वियोग
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
संबंधी दुःख तथा इंदाद्रिक बडे ऋद्रिधारीनिकू देखि आपकू हीन मानना ऐसा मानसिक दुःख ऐसे तीव्र दुःख शुभ भावनांकरि रहित भये संते पाया ॥ ___ भावार्थ-इहां महाजस ऐसा संवोधन किया ताका आशय यह है जो मुनि निर्ग्रन्थ लिंग धारै अर द्रव्यलिंग मुनिर्क समस्त क्रिया करै परन्तु आत्माका स्वरूप शुद्धोपयोगकै सन्मुख न होय ताकू प्रधानपण उपदेश है-जो मुनि भया सो तौ बडा कार्य किया तेरा जस लोकमैं प्रसिद्ध भया परन्तु भलीभावना जो शुद्धात्मतत्त्वका अभ्यास ताविना तपश्चरणादिककरि स्वर्गवि देवभी भया तो वहां भी विषयनिका लोभी भया संता मानसिक दुःखही तप्तायमान भया ॥ २ ॥ ___ आणु शुभभावनांते रहित अशुभ भावनाका निरूपण करै है;गाथा-कंदप्पमाझ्याओ पंच वि असुहादिभवणाई य ।
भाऊण दवलिंगी पहीगदेवो दिवे जाओ ॥१३॥ संस्कृत-कांदीत्यादीः पंचापि अशुभादिभावनाः च ।
भावयित्वा द्रव्यलिंगी ग्रहीणदेवः दिवि जातः॥१३॥ अर्थ—हे जीव ! तू द्रव्यलिंगी मुनि होय करि कान्दीकू आदि लेकरि पांच अशुभ शब्द हैं आदि जिनकै ऐसी अशुभ भावना भायकरि प्रहिणदेव कहिये नीचदेव स्वर्गविर्षे उपज्या ॥ ___ भावार्थ-कान्दपी, किल्लिषिकी, संमोही, दानवी, आभियोगिकी, ये पांच अशुभ भावना हैं तहां निर्ग्रन्थ मुनि होय करि सम्यक्त्व भावना विना इनि अशुभ भावनांकू भावै तब किल्विष आदि नीच देव होय मानसिक दुःखकू प्राप्त होय है ॥ १३ ॥
आरौं द्रव्यलिंगी पार्श्वस्थ आदि होय हैं तिनिळू कहै है;
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। १७१ गाथा--पासत्थभावणाओ अणइकालं अणेयवाराओ।
भाऊण दुहं पत्तो कुभावणा भाववीएहिं ॥ १४ ॥ संस्कृत--पार्श्वस्थभावनाः अनादिकालं अनेकवारान् ।
भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावनाभाबीजैः ॥१४॥ अर्थ-हे जीव ! तू पार्श्वस्थ भावनातै अनादिकालतें लेकरि अनंतवार भाय करि दुःखकू प्राप्त भया, काहे कारे दुःख पाया-कुभावना कहिये खोटी भावना ताका भाव ते ही भये दुःखके बीज तिनिकरि दुःख पाया ॥ ___भावार्थ-जो मुनि कहावै अर वस्तिका बांधि आजीविका करै सो पार्श्वस्थ भेषधारी कहिये, बहुरि जो कषायी होय व्रतादिकतै भ्रष्ट रहै संघका अविनय करै ऐसा भेषधारीकू कुशील कहिये, बहुरि जो वैद्यक ज्योतिष विद्यामंत्रकी आजीविका करै राजादिकका सेवक होय ऐसा भेषधारीकू संसक्त कहिये, बहुरि जो जिनसूत्रनै प्रतिकूल चारित्रतें भ्रष्ट आलसी ऐसा भेषधारीकू अवसन्न कहिये, बहुरि गुरुका आश्रय छोड़ि एकाकी स्वच्छन्द प्रवत्र्ते जिन आज्ञा लोपै ऐसा भेषधारीकू मृगचारी कहिये, इनिकी भावना भावै सो दुःखहीकू प्राप्त होय है ॥ १४ ॥ __ऐसे देव होय करि मानसिक दुःख पाये ऐसैं कहै है;गाथा-देवाण गुण विहूई इड्डी माहप्प बहुविहं दटुं ।
होऊण हीणदेवो पत्तो बहुमागसं दुक्खं ॥ १५ ॥ संस्कृत-देवानां गुणान् विभूतीःऋद्धीः माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा
भूत्वा हीनदेवः प्राप्तः बहु मानसं दुःखम् ॥१५॥ ___ अर्थ हे जीव ! तू हीनदेव होय करि अन्य महर्दिक देवनिकी गुण विभूति ऋद्धिका माहात्म्य बहुत प्रकार देखिकरि बहुत मानसिक दुःखकू प्राप्त भया ।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ — स्वर्गमैं हीन देव होय करि बडे ऋद्धिधारी देवकै अणिमादि गुणकी विभूति देखै तथा देवांगना आदिका बहुत परिवार देखे तथा आज्ञा ऐश्वर्य आदिका माहात्म्य देखे तब मन मैं ऐसें विचारी जो मैं पुण्यरहित हूं ये बड़े पुण्यवान है जिनिकै ऐसी विभूति माहात्म्य ऋद्धि है ऐसे विचार तैं मानसिक दुःख होय है ॥ १५ ॥
आगे कहै है जो अशुभ भावनातैं नीच देव होय ऐसे दुःख पाँव है ऐसें कहि इस कथन संकोच है—
गाथा - चउविहविक हासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्थो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अयवाओ ।। १६ ।। संस्कृत - चतुर्विधविकथासक्तः मदमत्तः अशुभभावप्रकटार्थः । भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तः असि अनेकवारान || १६ |
अर्थ — हे जीव ! तू च्यार प्रकार विकथाविषै आसक्त भया संता मदकरि मांता अशुभ भावनांहीका है प्रकट प्रयोजन जाकै ऐसा हो करि अनेकवार कुदेव पणांकूं प्राप्त भया ॥
भावार्थ —स्त्रीकथा भोजन कथा देशकथा राजकथा ऐसी च्यार विकथा तिनिविषै परिणाम आसक्त होय लगाया तथा जाति आदि अष्ट मदनिकरि उन्मत्त भया ऐसें अशुभ भावनाहीका प्रयोजन धारि अर अनेकवार नीचदेवपणांकूं प्राप्त भया तहां मानसिक दुःख पाया । इहां यह विशेष जाननां जो विकथादिक करि तौ नीच देवभी न होय परन्तु इहां मुनिकूं उपदेश है सो मुनिपद धारि कछू तपश्चरणादिक भी करै अर भेषमैं विकथादिकमैं रक्त होय नीच देव होय है, ऐसे जाननां ॥ १६ ॥
आगैं कहै है जो ऐसैं कुदेवयोनि पाय तहांतैं चय जो मनुष्य तिर्येच होय तहां गर्भमैं आवै ताकी ऐसी व्यवस्था है ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
१७३
गाथा-असुईवीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि ।
वसिओसि चिरं कालं अणेयजणणीण मुणिपवर ॥१७॥ संस्कृत-अशुचिबीभत्सासु य कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु ।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनांमुनिप्रवर! ॥१७॥ अर्थ—हे मुनिप्रवर ! तू कुदेवयोनित चयकरि अनेक माताकी गर्भकी वसतीविर्षे बहुत काल वस्या, कैसी है— अशुचि कहिये अपवित्र है, बहुरि बीभत्स है घिणावणी है, बहुरि कैसी है कलिमल बहुत है जामैं पापरूप मलिन मलकी बहुलता है । ___ भावार्थ—इहां मुनिप्रवर ऐसा संबोधन है सो प्रधानपण मुनिनिकू उपदेश है जो मुनिपदले मुनिनिमैं प्रधान कहावै अर शुद्धात्मरूप निश्चय चारित्रकै सन्मुख न होय ताकू कहै है जो बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतवार धारि च्यार गतिमैंही भ्रमण किया देवभी हुवा तौ तहांतें चयकरि ऐसे मलिन गर्भवास विर्षे आया तहांभी बहुतवार वस्या ॥ १७ ॥ __ आफेरि कहै—जो ऐसे गर्भवास” नीसरि जन्मले अनेक मातानिका दूध पिया;गाथा--पीओसि थणच्छीरं अणंतजम्मतराई जणणीणं ।
अण्णाण्याण महाजस ! सायरसलिलाहु अहिययरं॥१८॥ संस्कृत-पीतोऽसि स्तनक्षीरं अनंतजन्मांतराणि जननीनाम् । अन्यासामन्यासां महायशः ! सागरसलिलात्
अधिकतरम् ॥१८॥ अर्थ-हे महाजस ! तिस पूर्वोक्त गर्भवासविर्षे अन्य अन्य जन्म विर्षे अन्य अन्य माताका स्तनका दूध” समुद्रके जलतें भी अतिशयकरि अधिक पिया ॥
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१७४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ-जन्म जन्म विर्षे अन्य अन्य माताके स्तनका दूध एता पीया ताकू एकत्र कीजिये तो समुद्रके जल भी अतिशयकरि अधिक होय, इहां अतिशयका अर्थ अनंतगुणां जाननां जाते अनंतकालका एकत्रित किया अनंतगुणां होय ॥ १८ ॥
आगै फेरि कहै है जो जन्म लेकरि मरण किया तब माताका रुदनका अश्रुपातका जलभी एता भया;गाथा-तुह मरणे दुक्खेण अण्णण्णाणं अणेयजणणीणं ।
. रुग्णाग णयगणीरं सायरसलिलाहु अहिययरं ॥१९॥ संस्कृत-तव मरणे दुःखेन अन्यासामन्यासां अनेकजननीनाम्।
रुदितानां नयननीरं सागरसलिलात् अधिकतरम् १९ अर्थ-हे मुने ! तँ माताका गर्भमैं वसि जन्म लेकरि मरण किया सो तेरे मरण करि अम्य अन्य जन्मविौं अन्य अन्य माताका रुदन” नयननिका नीर एकत्र कीजिये तब समुद्रके जलतेंभी अतिशय करि अधिकगुणा होय. अनंतगुणा होय ॥ ___ आफेरि कहै है जो संसारमैं जन्म लीए तिनिमैं केश नख नाल कटे तिनिका पुंज कीजिये तो मेरुतै अधिकराशि होय;गाथा-भवसायरे अणंते छिण्णुज्झिय केसणहरणालही।
जइ जइको विजए हवदि य गिरिसमधिया रासी॥ संस्कृत-भवसागरे अनंते छिन्नोज्झितानि केशनखरनालास्थीनि।
पुंजयति यदि कोऽपि देवः भवति च गिरिसमधिकाराशिः अर्थ-हे मुने ! या अनंत संसार सागरमैं तें जन्म लिये तिनिमैं केश नख नाल अस्थि कटे टूटे तिनिका जो कोई देव पुंज करै तौ मेरु गिरिरौं भी अधिक राशि होय अनंतगुणा होय ॥ २० ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १७५ आगैं कहै है जो-हे आत्मन् ! तू जल थल आदि स्थानक विषै सर्वत्र वस्या;गाथा-जलथलसिहिपवणंबरगिरिसरिदरितरुवणाइ सव्वत्थ ।
वसिओसि चिरं कालं तिहुत्रणमझे अभप्पवसो ॥२१॥ संस्कृत-जलस्थलशिखिपवनांवरगिरिसरिदरीतरुवनादिषु सर्वत्र
उषितोऽसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवशः॥२१॥ अर्थ—हे जीव ! तू जलवि, थल कहिये भूमिवि, शिखि कहिये अग्निविषै, तथा पवनवि, अंबर कहिये आकाश विषं गिरि कहिये 'पर्वतवि., सरित कहिये नदीवि., दरी कहिये पर्वतकी गुफावि., तरु कहिये वृक्षनिविर्षे, वननिवि. बहुत कहा कहिये सर्वही स्थानकनिविर्षे तीनलोकवि. बहुतकालपर्यन्त वस्या निवास किया; कैसा भया संताअनात्मवश कहिये पराधीन भया संता॥
भावार्थ-निज शुद्धात्माकी भावनाविना कमके आधीन भया तीन लोकमैं सर्व दुःखसहित सर्वत्र वास किया ॥ २१॥ ___ आ फेरि कहै है जो हे जीव ! तैं या लोकमैं सर्व पुद्गल भखे तौ हू तृप्त न भया;गाथा—गसियाई पुग्गलाई भुवणोदरवत्तियाई सव्वाई। .
पत्तोसि तो ण तित्तिं पुणरुत्तं ताई भुंजतो ॥ २२॥ संस्कृत-ग्रसिताः पुद्गलाः भुवनोदरवर्तिनः सर्वे ।
प्राप्तोऽसि तन्न तृप्ति पुनरुक्तान् तान् भुंजानः॥२२॥
१–मुदिम संस्कृत प्रतिमें 'पुणरुवं' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'पुनाको' इस प्रकार है।
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१७६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ-हे जाव ! तैं या लोकका उदरविर्षे वर्त्तते जे पुद्गल स्कंध तिनि सर्वनिकू असे भखे बहुरि तिनिळू पुनरुक्त फेरि फेरि भोगता संता हू तृप्तिकुं प्राप्त न भया ॥
फेरि कहै है;गाथा-तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिण्हाइ पीडिएण तुमे ।
तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं ॥२३॥ संस्कृत-त्रिभुवनसलिलं सकलं पीतं तृष्णया पीडितेन त्वया।
तदपि न तृष्णाछेदः जातः चिन्तय भवमथनम् ॥२३ अर्थ—हे जीव ! तैं या लोकविर्षे तृष्णाका पीड्या तीन भुवनका जल समस्त पिया तौऊ तृषाका व्युच्छेद न भया ते तातें तू या संसारका मथन कहिये तेरै नाश होय तैसैं निश्चय रत्नत्रय चितवन करि ।
भावार्थ-संसारमैं काहू प्रकार तृप्तिता नांहीं तातैं जैसैं अपनें संसारका अभाव होय तैसैं चितवन करनां निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकू सेवनां यह उपदेश है ॥ २३ ॥
फेरि कहै है,गाथा-गहिउज्झियाई मुणिवर कलेवराई तुमे अणेयाई ।
ताणं णत्थिपमाणं अणंतभवसायरे धीर ॥२४॥ संस्कृत-गृहीतोज्झितानि मुनिवर कलेवराणि त्वया अनेकानि।
तेषां नास्ति प्रमाग अनन्तभवसागरे धीर ! ॥२४॥ अर्थ-हे मुनिवर ! हे धीर ! तैं या अनंत भवसागरविर्षे कलेवर कहिये शरीर अनेक ग्रहण किये अर छोड़े तिनिका परिमाण नांही है। ___ भावार्थ-हे मुनिप्रधान ! तू किछू इस शरीरसूं स्नेह किया चाहै तौ या संसारविर्षे ऐसे शरीर छोडे अर गहे तिनिका कछू परिमाण न किया जाय है ॥ २४ ॥
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अष्टपाहुडमें भाबपाहुडकी भाषावचनिका। १७७ आगैं कहै है जो-पर्याय थिर नाही है आयुकर्मके आधीनहै सो अनेक प्रकार क्षीण होय है,गाथा-विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं ।
आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ ॥२५॥ हिमजलणसलिलगुरुयरपव्वयतरुरुहणपडणभंगेहिं । रसविज्जजोयधारण अणणपसंगेहि विविहेहिं ॥२६॥ इय तिरिय मणुय जम्मे सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं ।
अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ॥ २७ ॥ संस्कृत-विषवेदनारक्तक्षयभयशस्त्रग्रहणसंक्लेशानाम् ।
आहारोच्छासानां निरोधनात् क्षीयते आयुः ॥२५॥ हिमज्वलनसलिलगुरुतरपर्वततरुरोहणपतनभङ्गैः। रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगैः विविधैः ॥२६॥ इति तिर्यग्मनुष्यजन्मनि सुचिरं उत्पद्य बहुवारम् ।
अपमृत्युमहादुःखं ती प्राप्तोऽसि त्वं मित्र ! ॥२७॥ अर्थ-विषभक्षण” वेदनाकी पीडाके निमित्ततें रक्त कहिये रुधिर ताका क्षयतै भय शस्त्रकरि घात संक्लेश परिणामतें आहारका तथा श्वासका निरोध”, इनि कारणनित आयुका क्षय होय है ॥
बहुरि हिम कहिये शीत पाला” अग्नि जल बड़े पर्वतके चढनेरौं पड़ने” बड़े वृक्ष परि चढ़कार पड़नेते शरीरका भंग होनेरौं बहुरि रस कहिये पारा आदिककी विद्या ताका संयोग करि धारण करै भखै तातें बहुरि अन्याय कार्य चोरी व्यभिचार आदिके निमिततैं ऐसे अनेक प्रकारके कारणनै आयुका व्युच्छेद होय कुमरण होय हैं ।
अ० व० १२
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
यातें कहै है जो — हे मित्र ! ऐसें तिर्यंच मनुष्य जन्मविषै बहुतकाल बहुतवार उपजि करि अपमृत्यु कहिये कुमरण तिससंबंधी तीव्र महादु: खकूं प्राप्त भया ॥
भावार्थ-या संसारविषै प्राणीकी आयु तिर्येच मनुष्य पर्यायविर्षै अनेक कारणनितैं छिदै है तातैं कुमरण होय है तातैं मरतैं तीव्र दु:ख होय है तथा खोटे परिणामनितैं मरणकरि फेरि दुर्गतिही मैं पड़ें है, ऐसैं यह जीव संसारमैं महादु:ख पावै है यातें आचार्य दयालु होय बारबार दिखावैं हैं अर संसारतैं मुक्त होनें का उपदेश करैं हैं ऐसें जाननां ॥ २५-२६-२७॥ आर्गै निगोदका दुःखकूं कहै है; --
गाथा - छत्तीसं तिणि सया छावट्टिसहस्सवारमरणाणि । अंतोमुहुत्तमज्झे पत्तोसि निगोयवासम्म ॥ २८ ॥ संस्कृत - पत्रिंशत् त्रीणि शतानि षट्षष्टिसहस्रवारमरणानि । अन्तर्मुहूर्त्तमध्ये प्राप्तोऽसि निकोतवासे ॥ २८ ॥
अर्थ — हे आत्मन् ! तू निगोदके वासमैं एक अंतमुहूर्त्तमैं छ्यासठ हजार तीनसैं छत्तीस वार मरणकूं प्राप्तहूवा ।
भावार्थ - निगोद में एक श्वासकै अठारवें भाग प्रमाण आयु पावै है तहां एक मुहूर्त्तकै सैंतीससै तिहत्तरि श्वासोच्छ्वास गिणै है तिनिमैं 'छत्तीस सैपिच्यासी श्वासोच्छ्वास अर एक श्वासका तीसरा भाग के छ्यासठ हजार तीन से छत्तीस वार निगोद मैं जन्म मरण होय है ताके दुःख यह प्राणी सम्यग्दर्शनभाव पाये विना मिथ्यात्वका उदयकै वशीभूत भया सहै है । भावार्थ - अंतर्मुहूर्त में छ्यासठ हजार तीनसै छत्तीस वार जामन मरण कह्या सो अव्यासी श्वास वाटि मुहूर्त्त ऐसा अन्तर्मुहूर्त्त - वि जाननां ॥ २८ ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १७९ इसही अंतर्मुहूर्त्तके जन्म मरणमैं क्षुद्र भवका विशेष कहै है, गाथा-वियलिंदए असीदी सही चालीसमे जाणेह ।
पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवंतो मुहुत्तस्स ॥ २९॥ संस्कृत-विकलेंद्रियाणामशीति षष्टिं चत्वारिंशतमेव जानीहि ।
पंचेंद्रियाणां चतुर्विंशतिं क्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्तस्य॥२९॥ अर्थ-इनि अन्तर्मुहूर्त्तके भवनिमैं बेंद्रियके क्षुद्रभव अस्सी तेंद्रियके साठि चौइंद्रियके चालीस पंचेंद्रियके चौवीस ऐसैं–हे आत्मन् ! तूक्षुद्रभव जानि ॥ .
भावार्थ-क्षुद्रभव अन्य शास्त्रमैं ऐसैं मिनैं हैं पृथ्वी अप तेज वायु साधारण निगोदके सूक्ष्म बादरकरि दश अर सप्रतिष्ठित वनस्पति एक ऐसैं ग्यारह स्थानकके भव तो एक एकके छह हजार बार ताके छ्यासठि हजार एकसौ बत्तीस भये, बहुरि इस गाथामैं कहे ते बद्रिय आदिके दोयसौ च्यार ऐसैं ६६३३६ एक अन्तर्मुहूर्तमैं क्षुद्रभव कहै है ॥ ३९॥ ___ आगैं कहै है कि हे आत्मन् ! तू इस दीर्घसंसारविर्षे ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयकी प्राप्ति बिना भ्रम्या यातें अब रत्नत्रय अंगीकार करि, गाथा-रयणत्तये अलद्धे एवं भमिओसि दीहसंसारे।
इय जिणवरेहि भणियं तं रयगत्तं समायरह ॥३०॥ संस्कृत-रत्नत्रये अलब्धे एवं भ्रमितोऽसि दीर्घसंसारे ।
इति जिणवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ॥३०॥ ___ अर्थ—हे जीव ! तू सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र जो रत्नत्रय ताकू न पाये या इस दीर्घ अनादिसंसारविर्षे पूर्वै कह्या तैसैं भ्रम्या ऐसा जानिकरि अब तू तिस रत्नत्रयका आचरणकरि, ऐसैं जिनेश्वरदेव कह्या है ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ — निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मिथ्यात्व के उदय तैं संसारमैं भ्रम है यातैं रत्नत्रयका आचरणका उपदेश हैं ॥ ३० ॥ आगैं शिष्य पूछै जो वह रत्नत्रय कैसा है ताका समाधान करें है जोरत्नत्रय ऐसा है ;
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गाथा – अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेड फुड जीवो । जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्तमग्गुत्ति ॥ ३१ ॥ संस्कृत - आत्मा आत्मनि रतः सम्यग्दृष्टिः भवति स्फुटं जीवः । जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति ॥ ३१ ॥ अर्थ — जो आत्मा आत्माविषै रत होय यथार्थस्वरूपका अनुभव करि तद्रूप होय, श्रद्धान करै सो प्रगट सम्यग्दृष्टी होय, बहुरि आत्माकूं जानैं सो सभ्यग्ज्ञान है, बहुरि तिस आत्माकूं आचरण करे रागद्वेषरूप न परिणमै सो चारित्र है; ऐसैं यह निश्चय रत्नत्रय है सो मोक्षमार्ग है ॥
भावार्थ—आत्माका श्रद्धान ज्ञान आचरण सो निश्चय रत्नत्रय है, अर बाह्य याका व्यवहारजीव अजीवादितत्वनिका श्रद्धान जाननां परद्रव्य परभावका त्याग करना है ऐसें निश्चय व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है । तहां निश्चय तौ प्रधान है या विनां व्यवहार संसारस्वरूपही है, बहुरि व्यवहार है सो निश्चयका सावनस्वरूप है या विना निश्चयकी प्राप्ति नहीं है, अर निश्चयकी प्राप्तिभये पीछे व्यवहार कछु है नांही ऐसैं जाननां ॥ ३१ ॥
आगै संसारविषै या जीवनैं जन्म मरण किये ते कुमरण किये अब सुमरणका उपदेश करै है;गाथा - अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मंतराई मरिओसि । भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव ! ॥३२॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। १८१ संस्कृत-अन्यस्मिन् कुमरणमरणं अनेकजन्मान्तरेषु मृतः असि।
___ भावय सुमरणमरणं जन्ममरणविनाशनं जीव! ॥३२॥ अर्थ- - हे जीव या संसारवि अनेक जन्मान्तरविर्षे अन्य कुमरण मरण जेसैं होय तैसें तू मूवा अब तू जा मरण” जन्म मरणका नाश होय ऐसा सुमरण भाय॥ ___ भावार्थ-मरण संक्षेपकरि अन्य शास्त्रविर्षे सतरह प्रकार कह्या है, सो ऐसैं—आवीचिकामरण १ तद्भवमरण २ अवधिमरण ३ आद्यान्तमरण ४ वालमरण ५ पंडितमरण ६ आसन्नमरण ७ वालपंडितमरण ८ सशल्यमरण ९ पलायमरण १० वशार्त्तमरण ११ विप्राणसमरण १२ गृध्रपृष्टमरण १३ भक्तप्रत्याख्यानमरण १४ इंगिनीमरण १५ प्रायोपगमनमरण १६ केवलिमरण १७ ऐसैं सतरह ।
इनिका स्वरूप ऐसा-जो आयुका उदय समय समय करि घटै है सो समय समय मरण है ये आवीचिकामरण है ॥ १॥
बहुरि जो वर्तमान पर्यायका अभाव सो तद्भवमरण है ॥ २ ॥
बहुरि जो जैसा मरण वर्तमान पर्यायका होय तैसाही अगिली पर्यायका होयगा सो अवधिमरण है, याका दोय भेद तहां जैसा प्रकृति स्थिति अनुभाग वर्तमानका उदय आया तैसाही अगिलीका उदय आवै सो सर्वावधिमरण है; अर एकदेशबंध उदय होय तौ देशावधि मरण कहिये ॥ ३॥
बहुरि जो वर्तमान पर्यायका स्थिति आदिक जैसा उदय था तैसा अगिलीका सर्वतो वा देशतो वंध उदय न होय सो आद्यन्तमरण है ॥४॥
पांचवां बालमरण है, सो बाल पांच प्रकार है; अव्यक्त बाल, व्यवहारबाल, ज्ञानबाल, दर्शनबाल, चारित्रबाल ! तहां जो धर्म अर्थ काम
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
इनिकार्यनिकू न जानें इनिका आचरणकू समर्थ जाका शरीर नहीं होय सो अव्यक्तबाल है । जो लोकका अर शास्त्रका व्यवहारकू न जा तथा बालक अवस्था होय सो व्यवहारंबाल है। वस्तुका यथार्थ ज्ञानरहित ज्ञानबाल है। तत्वश्रद्धानराहेत मिथ्यादृष्टी दर्शनवाल है। चारित्र रहित प्राणी चारित्रबाल है। इनिका मरनां सो बालमरण है। इहां प्रधानपणे दर्शनबालहीका ग्रहण है. जाते सम्यग्दृष्टीके अन्य बालपणां होतेंभी दर्शनपंडितताका सद्भाव पंडितमरणवि.ही गणिये है। तहां दर्शनवालका संक्षेपः दोय प्रकार मरण कह्या है-इच्छाप्रवृत्त १ अनिच्छाप्रवृत्त २ तहां अग्निकरि धूमकरि शस्त्रकरि विषकरि जलकरि पर्वतके तट पडनेकरि अति शीत उष्णकी बाधाकरि बंधनकरि क्षुधातृषाके अवरोधकरि जीभ उपाडनेकरि विरुद्ध आहार सेवनेकरि वाल आज्ञानी चाहि करि मरै सो इच्छाप्रवृत्त है । अर जीवनेका इच्छुक होय और मरै सो अनिच्छाप्रवृत्त है ॥ ५ ॥ ___बहुरि पंडितमरण च्यार प्रकार है;-व्यवहारपंडित सम्यक्त्वपंडित, ज्ञानपंडित, चारित्रपंडित । तहां लोकशास्त्रका व्यवहारवि. प्रवीण होय सो व्यवहारपंडित है। सम्यक्त्व सहित होय सो सम्यक्त्वपंडित हैं। सम्यग्ज्ञानसहित होय सो ज्ञानपंडित है। सम्यक् चारित्रकरि सहित होय सो चारित्रपंडित है। इहीं दर्शन ज्ञान चारित्रसहित पंडितका ग्रहण है जातै व्यवहारपंडित मिथ्यादृष्टी वालमरणमैं आय गया ॥ ६ ॥
बहुरि जो मोक्षमार्गमैं प्रवर्तनेवाला साधु संधतें छूट्या ताकू आसन्न कहिये है तिनिमैं पार्श्वस्थ स्वच्छंद कुशील संसक्तभी लेने, ऐसैं पंच प्रकार भ्रष्ट साधुनिका मरण सो आसन्नमरण है ॥ ७ ॥
बहुरि सम्यग्दृष्टी श्रावकका मरण सो वालपंडितमरण है ॥ ८ ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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बहुरि सशल्यमरण दोय प्रकार- -तहां मिथ्यादर्शन माया निदान ये तीन शल्य तौ भावशल्य है, अर पंच स्थावर अर त्रसमैं अरौंनी ये द्रव्यशल्यसहित हैं ऐसैं सशल्यमरण है ॥ ९ ॥
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बहुरि जो प्रशस्तक्रियाविषै आलसी हौय व्रतादिविषै शक्तिकूं छिपा घ्यानादिकर्ते दूरि भागैं ऐसाकामरण सो पलाय मरण है ॥ १० ॥
वंशात मरण च्यार प्रकार है— सो आर्तरौद्र ध्यानसहित मरण है तहाँ पांच इंद्रियनि विषयनिविषै रागद्वेषसहित मरण सो इन्द्रियवशात्तं मरण हैं; साता असाताकी वेदनासहित मेरै सो वेदनाशावर्त्तमरण है, क्रोध मान माया लोभ कषायके वशर्तें मेरै सो कषायवशार्त्तमरण है, हास्य बिनोद कषायके वशर्तें मेरे सो नोकषायवशार्तमरण है ॥ ११ ॥
बहुरि जो अपना व्रत क्रिया चारित्रविषै उपसर्ग आवै सो कह्याभी जाय अर भ्रष्ट होनेंका भय आवै तब अशक्त भया अन्नपानीका त्यागकर मेरे सो विप्राणसमरण है ॥ १२ ॥
बहुरि जी शस्त्रग्रहणकरि मरण होय सो गृध्रपृष्ठमरण है ॥ १३ ॥ बहुरि जो अनुक्रमसूं अन्नपानीका यथाविधि त्यागकर मरै सो भक्तप्रत्याख्यान मरण है ॥ १४ ॥
बहुरि जो संन्यास करै अर अन्यपास वैयावृत्त्य करात्रै सो इंगिनी - मरण है ॥ १५ ॥
बहुरि जो प्रायोपगमन संन्यास करे काहू पास वैयावृत्त्य न करावे अपने आपभी न मेरै प्रतिमायोग रहै सो प्रायोपगमनमरण है ॥ १६ ॥
बहुरि जो केवली मुक्तिप्राप्त होय सो केवलिमरण है ॥ १७ ॥ ऐसें सतरह प्रकार कहे तिनिका संक्षेप ऐसा किया है- जो मरण पांच प्रकार है; - पंडित पंडित, पंडित, बालेपंडित, बाल, बालवाल ।
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१८४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिततहां दर्शन ज्ञान चारित्रका अतिशयकरि सहित होय सो तो पंडितपंडित है, अर इनिकी प्रकर्षता जाकै न होय सो पंडित है, सम्यग्दृष्टी श्रावण सो बाल पंडित, अर पूर्वै च्यार प्रकार पंडित कहे तिनिमैं सूं एकभी भाव जाकै नांही सो बाल है, अर जो सर्वतै न्यून होय सो वालवाल है । इनिमैं पंडितपंडितमरण अर पंडितमरण अर वालपंडितमरण ये तीन प्रशस्त सुमरण कहै हैं अन्यरीति होय सो कुमरण है । ऐसें जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र एकदेशसहित मरै सो सुमरण है, ऐसा सुमरण करनेका उपदेश है ॥ ३३॥
आगें यह जीव संसारमैं भ्रमैं है तिस भ्रमणके परावर्तनका स्वरूप मनमैं धारि निरूपण करै है, तहां प्रथमही सामान्यकरि लोकके प्रदेशनिकी अपेक्षाकरि कहै है;गाथा-सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ णिलओ।
जत्थ ण जाओणमओ तियलोयपमाणिओ सव्वो॥३३॥ संस्कृत-सः नास्ति द्रव्यश्रमणः परमाणुप्रमाणमात्रो निलयः।
यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः ॥३३॥ अर्थ-यह जीव द्रव्यलिंगका धारक मुनिपणां हो” संरौं भी यहु तीन लोक प्रमाण सर्व स्थानक हैं तामैं एक परमाणुपरिमाण एक प्रदेशमात्रभी ऐसा स्थान नाही जामैं जनम्यां नाही तथा मूवा नाही ॥ ___ भावार्थ-द्रव्यलिंग धारकरिभी सर्वलोकमैं यहजीव जनम्या मऱ्या ऐसा प्रदेश न रह्या जामैं जनम्या मन्य नाही, ऐसा भावलिंगविना द्रव्यलिंग” मुक्तिप्राप्त न भया ऐसा जाननां ॥ ३३ ॥ ' आण याही अर्थकू दृढ़ करनेंकू भावालेंगफू प्रधानकरि कहै है, गाथा--कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीडिओ दुक्खं ।
जिणलिंगेण वि पत्तो परंपराभावरहिएण ॥३४॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १८५
संस्कृत - कालमनंतं जीवः जन्मजरामरणपीडितः दुःखम् । जिनलिंगेन अपि प्राप्तः परम्पराभावरहितेन ॥ ३४ ॥ अर्थ — यह जीव या संसारविषै जामैं परंपरा भावलिंग न भया संता अनंतकालपर्यन्त जन्म जरा मरणकरि पीडित दुःखही कूं प्राप्त भया ||
भावार्थ —— द्रव्यलिंग धाऱ्या अर तामैं परंपराकरि भी भावलिंगकी प्राप्ति न भई यातै द्रव्यलिंग निष्फल गया मुक्तिकी प्राप्ति नभई संसारहीमैं भ्रम्या ।
इहां आशय ऐसा जो द्रव्यलिंग है सो भावलिंगका साधन है परन्तु काललब्धिविनां द्रव्यलिंग धारेभी भावलिंग की प्राप्ति न होय यातैं द्रव्यलिंग निष्फल जाय है ऐसें मोक्षमार्ग प्रधानकरि भावलिंगही है । इहां कोई है है ऐसे है तौ द्रव्यलिंग पहले काहेकूं धारणां ? ताकूं कहिये ऐसैं मानेंतौ व्यवहारका लोप होय है तातैं ऐसैं, माननां जो द्रव्यलिंग पहले धारनां, ऐसा न जानना जो याहीतैं सिद्धि है भावलिंगकूं प्रधान मानि तिसकै सन्मुख उपयोग राखनां द्रव्यलिंगकूं यत्नतैं साधना ऐसा श्रद्धान भला है ॥ ३४ ॥
आगैं पुद्गल द्रव्यकूं प्रधानकरि भ्रमण कहै है ;गाथा - पडिदेससमययुग्गल आउगपरिणामणामकालडं ।
गहिउज्झियाई बहुसो अनंतभवसायरे जीवो ।। ३५॥ संस्कृत - प्रतिदेशसमय पुद्गलायुः परिणामनामकालस्थम् ।
गृहीतोज्झितानि बहुशः अनंतभवसागरे जीवः ॥ ३५ ॥ अर्थ — इस जीवनैं या अनंत अपार भवसमुद्रविषै लौकाकाशके जेते प्रदेश हैं तिनि प्रति समय समय अर पर्यायके आयुप्रमाण काल अर अपने जैसा योगकषायके परिणमन स्वरूप परिणाम अर जैसा गतिजाति
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित -
आदि नाम कर्मके उदयतैं भया नाम अर काल जैसा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तिनि पुगलके परमाणुरूप स्कंध ते बहुतवार अनंतवार ग्रहण किये अर छोड़े ||
भात्रार्थ—भावलिंग विना लोकमैं जे ते पुद्गल स्कंध है ते ते सर्वही ग्रहे अर छोड़े तौऊ मुक्त न भया ॥ ३५ ॥
आगै क्षेत्रकूं प्रधान करि क है है ;
गाथा -- तेयाला तिणि सया रज्जूणं लोयखेत्तपरिमागं । मुह पसा जत्थ ण दुरुदुलिओ जीवों ||३६|| संस्कृत — त्रिचत्वारिंशत् त्रीणि शतानि रज्जुनां लोक
क्षेत्रपरिमार्ग | मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः || ३६ ||
अर्थ – यहु लोक तीनसैं तियालीस राजू परिमाण क्षेत्र है ताकै वीचि मेरुकै त ै गोस्तनाकार आठ प्रदेश हैं तिनिकूं छोड़कर अन्य प्रदेश ऐसा न रह्या जामैं यहजीव नांही जनम्या मया ॥
भावार्थ - ' दुरुदुलिओ' ऐसा प्राकृतमैं भ्रमण अर्थका धातुका आदेश है, अर क्षेत्र परावर्तन मैं मेरुकै तल आठ प्रदेश लोकके मध्यके हैं तिनि जीव अपने प्रदेशनिके मध्यदेश उपजै हैं तहांतें क्षेत्र परावर्तनका प्रारंभ कीजिये है तातें तिनिकूं पुनरुक्त भ्रमण मैं न गणये है ॥३६॥
आगैं यह जीव शरीरसहित उपजै मेरे है तिस शरीर मैं रोग होय हैं तिनिकी संख्या दिखा है; -
गाथा -- एकेकेगुलि वाही छण्णवदी होंति जाण मणुयाणं । अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणियां ॥ ३७॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १८७
संस्कृत - एकैकांगुलौ व्याधयः षण्णवतिः भवति
जानीहि मनुष्यानां । अवशेषे च शरीरे रोगाः भण कियन्तः भणिताः ॥ अर्थ — इस मनुष्य के शरीरविषै एक एक अंगुल मैं छिन छिनवै रोग होय है तब कहो अवशेष समस्त शरीरविषै केते रोग कहै ऐसें जानि ॥ ३७॥ कहै है है जीव ! तिनि रोगनिका दुःख तैं सह्या;
गाथा - ते रोया विय सयला सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं ॥ ३८ ॥ संस्कृत -- ते रोगा अपि च सकलाः सोढास्त्वया परवशेण
पूर्वभवे । एवं सहसे महायशः ! किं वा बहुभिः लपितैः ॥ ३८ ॥ हे महायश ! हे मुने ! तैं पूर्वोक्त सब रोगनिकूं पूर्वभवविषै तौ परवश सहे, ऐसे ही फेरि सहैगा, बहुत कहनेंकरि कहा ?
भावार्थ — यह जीव पराधीन हुवा सर्व दुःख सह है जो ज्ञान भावना करै अर दुःख आयाँ तासूं चिंगै नांही ऐसें स्ववारी सहै तौ कर्मका नाश कर मुक्त होजाय, ऐसें जाननां ॥ ३८॥
आर्गै कहै है जो - अपवित्र गर्भवास मैं भी वस्या —
गाथा - पित्तंतमुत्त फेफसका लिज्जयरु हिरखरिस कि मिजाले । उयरे वसिओसि चिरं नवदसमासेहिं पत्ते हिं ॥ ३९ ॥ संस्कृत – पित्तांत्रमूत्रफेफसयकुंद्रुधिरखरिसकृमिजाले । उदरे उषितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तैः || ३९ ॥ अर्थ — हे मुने ! तू ऐसे मलिन अपवित्र उदरकै विषै नव मास तथा दश मास प्राप्ति करि वस्या, कैसा है उदर जामैं पित्त अर आंतनि-..
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पंडित जयचंद्रजी छावडा विरचित
करि वेढ्या अर मूत्रका स्रवण अर फेफस कहिये जो रुधिर विना मेद फूलिजाय बहुरि कालिज कहिये कालजो बहुरि रुधिर बहुरि खरिस कहिये जो अपक्क मलमूं मिल्या रुधिर श्लेष्म बहुरि कृमिजाल कहिये लट जीवनिके समूह ये सर्व पाइये, ऐसा स्त्रीका उदरविधैं बहुत बार बस्या ॥ ३९ ॥ __फेरि याहीकू कहै है;गाथा-दियसंगट्टियमसणं आहारिय मायमुत्तमण्णांते ।
छदिखरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए॥४०॥ संस्कृत-द्विजसंगस्थितमशनं आहृत्य मातृमुक्तमन्नान्ते ।
छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः॥४०॥ ___ अर्थ-हे जीव ! तू जननी जो माता ताके उदरगर्भविषं वस्या तहां माताका अर पिताका भोगकै अंत छबि कहिये वमनका अन्न खरिस कहिये अपक्क मल रुधिरसू मिल्या तिनिकै मध्य वस्या, कहा करि वस्या-माताका दांतनिकरि चाव्या तिनि दांतनिकै लग्या तिष्ठया
औंठ्या जो भोजन माताके खाये पीछे जो उदरमैं गया ताका रस आहारकरि वस्या ॥ ४०॥
आगैं कहै है जो गर्भतें नीसरि बालपणां ऐसा भोग्या;गाथा-सिसुकाले य अयाणे असुईमज्झम्मि लोलिओसि तुमं ।
असुई असिया बहुसो मुणिवर ! वालत्तपत्तेण ॥४१॥ संस्कृत-शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लोलितोऽसि त्वम् ।
अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर ! वालत्वप्राप्तेन ॥४१॥ अर्थ—हे मुनिवर ! तू बालपणेंके कालविर्षे अज्ञान अवस्थामैं अशुचि अपवित्र स्थाननिविर्षे अशुचिकै वीचि लौट्या बहुरि बहुतवार अशुचि वस्तु ही खाई, बालपणांकू पाय ऐसी चेष्टा करी ॥ . १ पेटके दक्षिणभागमें जलका आधाररूप मासपिंडकी थैली तथा मांसका विकार।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १८९.
भावार्थ — इहां ' मुनिवर ' ऐसा संबोधन है सो पूर्ववत् जाननां, बाह्य आचरणसहित मुनि होय ताहीकूं इहां प्रधानप उपदेश है जो बाह्य आचरण किया सो तौ बड़ा कार्य किया परन्तु भावविना यह निष्फल है तातैं भावके सन्मुख रहनां, भावविना ये अपवित्र स्थान मिले हैं ॥ ४१ ॥
आगे कहै है यह देह ऐसा है ताकूं विचारौ - गाथा - मंसहिसक सोणियपित्तंतसवत्त कुणिमदुग्गंधं ।
खरिसवस पूयखिमिस भरियं चिंतेहि देहउडं ॥ ४२ ॥ गाथा - मांसास्थिशुक्र श्रोणितपित्तांत्रस्रवत्कुणिमदुर्गन्धम् ।
खरिसवसापूय किल्बिषभरितं चिन्तय देहकुटम् ॥ ४२ ॥ अर्थ — हे मुने ! तू देहरूप घटकूं ऐसा विचारि, कैसा है देहघटमांस अर हाड अर शुक्र कहिये वीर्य अर श्रोणित कहिये रुधिर अर पित्तकहिये उष्टिविकार अर अंत्र कहिये आंतरे ऊरते तिनिकर तत्काल मृतककी ज्यों दुर्गंध है, बहुरि कैसा है देहघट खरिस कहिये रुधिरसूं मिल्या अपकमल, वसा कहिये मेद अर पूय कहिये बिगड्या लोही राधि ये सर्व मलिन वस्तुनिकरि पूर्ण भन्या है ऐसा देहरूप घटकूं बिचारि ॥
भावार्थ — यह जीव तौ पवित्र है शुद्धज्ञानमयी है अर ये देह ऐसा तामैं बसना अयोग्य है ऐसा जनाया है ॥ ४२ ॥
आगे कहै है— जो कुटुंबतें छूट्या सो नांही छूट्या भावतैं छूटे छूट्या कहिये ;
--
गाथा - भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाहमित्तेण । इय भाविऊण उज्झसुगंध अभंतरं धीर || ४३ ॥
१ उष्णविकार |
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
संस्कृत-भावविमुक्तः मुक्तः न च मुक्तः बांधवादिमित्रेण । इति भावयित्वा उज्झय गन्धमाभ्यन्तरं धीर ! ॥ ४३ ॥ अर्थ — जो मुनि भावनिकरि मुक्त भया ताकूं मुक्त कहिये अर बांधव आदि कुटुंब तथा मित्र आदिकरि मुक्त भया ताकूं मुक्त न कहिये यात हे धीर ! मुनि तू ऐसा जानिकरि अभ्यन्तरकी वासनांकूं छोड़ि ॥
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भावार्थ- जो बाह्य बांधव कुटुंब तथा मित्र इनिकूं छोड़िकर निर्प्रथ भया अर अभ्यन्तरका ममत्व भावरूप वासना तथा इष्ट अनिष्ट विषै रागद्वेष वासना न छूटीतौं ताकूं निर्ग्रथ न कहिये, अभ्यन्तर वासना छूटे निग्रंथ है तातें यह उपदेश है जो अभ्यंतर मिथ्यात्व कषाय छोड़ि भावमुनि होनां ॥ ४३ ॥
आ कहे हैं जे पूर्वै मुनि भये तिनिनैं भाव शुद्ध विना सिद्धि न पाई तिनिका उदाहरणमात्र नाम कहै है, तहां प्रथमही बाहुवलीका उदाहरण कहै है:
गाथा - देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर ! अत्तावणेण जादो बाहुवली कित्तियं कालं ||४४ || संस्कृत -- देहादित्यक्तसंग ः मानकषायेन कलुषितः धीर ! । आतापनेन जातः बाहुवली कियन्तं कालम् ||४४||
अर्थ- देखो, बाहुवली श्री ऋषभदेवका पुत्र तो देहादिकतैं छोड्या है परिग्रह जानें ऐसा निद्र्थ मुनि भया तौऊ मानकषाय करि कलुष परिणामरूप भया संता केतेयक काल आतापन योग करि तिष्ट्या सिद्धि नपाई ॥
भावार्थ --- बाहुबली तैं भरत चक्रवर्ती विरोध करि युद्ध आरंभ्या तहां भरत अपमान पाया तापीछें बाहुबली विरक्त होय निद्र्थ मुनि भये परन्तु कछू
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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मानकषायकी कलुषता रही जो भरतकी भूमिमैं मैं कैसैं रहूं तब कायोत्सर्ग योगकरि एकवर्षतांई तिष्ठे केवलज्ञान न पाया पीछे कलुषता मिटी तब केवलज्ञान उपज्या. ता” कहै है जो ऐसे महान पुरुष बडी शक्तिके धारकभी भावशुद्धिविना सिद्वि न पाई तब अन्यकी कहा कथा ? तातैं भाव शुद्ध करनां यह उपदेश है ॥ ४४ ॥ ____ आगैं मधुपिंगमुनिका उदाहरण कहै है;गाथा-महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो ।
सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय ॥४५॥ संस्कृत-मधुपिंगो नाम मुनिः देहाहारादित्यक्तव्यापारः ।
श्रमणत्वं न प्राप्तः निदानमात्रेण भव्यनुत ! ॥४५॥ अर्थ-मधुपिंगनामा मुनि है सो कैसा भया देह आहारादिविर्षे छोड्या है व्यापार जानें तौऊ निदानमात्रकरि भावश्रमणपणाकू प्राप्त न भया ताहि भव्यजीवनिकरि नमने योग्य मुनि तू देखि ॥ ___ भावार्थ-मधुपिंगलनामा मुनिकी कथा पुराणमैं है ताका संक्षेप ऐसा;—इस भरतक्षेत्रविर्षे सुरम्यदेशमैं पोदनापुरका राजा तृणपिंगलका पुत्र मधुपिंगल था सो चारणयुगलनगरका राजा सुयोधनकी पुत्री सुलसाका स्वयंवरमैं आयाथा अर तहांही साकेतापुरीका राजा सगर आयाथा सो सगरकै मंत्री, मधुपिंगलकू कपटकरि सामुद्रिक शास्त्रकू नवीन वणाय दूषणदिया जो याके नेत्र पिंगल है मांजरा है जो याकू कन्या वरै सो मरणकू प्राप्त होय तब कन्या सगरकै गलै वरमाला गेरी मधुपिंगल• वय नाही, तब मधुपिंगल विरक्त होय दीक्षा लई पी? कारणपाय सगरका मंत्रीका कपटकू जाणि क्रोधकरि निदान किया जो मेरै तपका ‘फल यह होहु “जन्मान्तरविर्षे सगरके कुलकू निर्मूल करूं" तापी,
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
मधुपिंगल मरि करि महाकालासुरनामा असुर देव भया तब सगरकू मंत्री सहित मारणेंका उपाय हेरता भया तब क्षीरकदंब ब्राह्मणका पुत्र पर्वत पापी याकू मिल्या तब पशुनिकी हिंसारूप यज्ञका सहायी होय कही, सगर राजाकू यज्ञका उपदेश करि यज्ञ कराय तेरा यज्ञका सहायी हूंगा तब पर्वत सगर पासि यज्ञ कराया पशु होमें, तिस पापः सगर सात 8 नरक गया अर कालासुर साहायी भया सो• यज्ञके काकू स्वर्ग गये दिखाये । ऐसें मधुपिंगल नामा मुनि निदानकरि महाकालसुर होय महापाप उपाा, तातै आचार्य कहै है मुनि होय तौऊ भाव विगडे सिद्धिकू न पावै याकी कथा पुराणनितें विस्तारतें जाननी ॥ ___ आरौं वशिष्ठ मुनिका उदाहरण कहै है;गाथा-अण्णं च वसिटमुणि पत्तो दुक्खं नियाणदोसेण ।
सो णत्थि वासठाणो जत्थ ण दुरुहुल्लिओजीवो॥४६॥ संस्कृत-अन्यश्च वसिष्ठमुनिः प्राप्तः दुखं निदानदोषेण ।
तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रमितः जीव ! ॥४६॥ ___ अर्थ-बहुरि अन्य कहिये और एक वशिष्ठनामा मुनि निदानके दोषकरि दुःखकू प्राप्तभया या” ऐसा लोकमैं वासस्थान नाही जामैं यहु जीव जन्ममरणसहित भ्रमणकू प्राप्त नाही भया ॥ ___ भावार्थ-वशिष्ठमुनिकी कथा ऐसैं है;-गंगा अर गंधवती दोऊ नदीका जहां संग भया है तहां जठरकौशिकनामा तापसीकी पल्ली है तहां एक वशिष्ठ नामा तापसी पंचाग्नि तपै था तहां गुणभद्र वीरभद्र नामा दोय चारणमुनि आये तिनि वशिष्ट तापसकू कही जो तू अज्ञानतप करै है यामैं जीवनिकी हिंसा होय है, तब तापस प्रत्यक्ष हिंसा देखि अर विरक्त होय जैनदीक्षा लई भासोपवाससहित आतापनयोग स्थाप्या, तिस तपके माहात्म्यते सात व्यन्तरदेव आय कही, हमकं
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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आज्ञा द्यो सोही कराँ, तब वशिष्ठ कही अवारतौ मेरै कळू प्रयोजन नांही जन्मांन्तरमैं तुमकू यादि करूंगा। पाछै वशिष्ठ मथुरापुरी आय मासोपवाससहित आतापन जोग स्थाप्या ताकू मथुरापुरीके राजा उग्रसेननैं दखि भक्ति थकी या विचारी जो या मैं पारणां कराऊंगा ऐस नगरमैं घोषणा कराई जो या मुनिकू और कोई आहार न दे । पी2 पारणाकै दिन नगरमैं आया तहां अग्निका उपद्रव देखि अंतराय जानि उलटा फिऱ्या । फेरि मासोपवास स्थाप्या फेरि पारणाकै दिन नगरमैं आया तब हस्तीका क्षोभ देखि अंतराय जांनि उलटा फिय फेरि मासोपवास स्थाप्या। पीछे पारणाकै दिन फेरि नगरमैं आया तब राजा जरासंधका पत्र आया ताके निमित्त तैं राजाका व्यग्र चित्त था सो मुनिकू पडगाहे नांही तब अंतराय करि उलटा वनमैं जाता लोकनिके वचन सुनेजो राजा मुनिकू आहार दे नहीं अन्यकू देते• म किये ऐसे लोकनिके वचन सुनि राजापरि क्रोध करि निदान किया जो-या राजाकै पुत्र होय राजाका निग्रह करि मैं राज करूं या तपका मेरै यह फल होहू; ऐसैं निदानकरि मूवा राजा उग्रसेनकी राणी पद्मावतीका गर्भमैं आया पूर्ण मास भये जनम्या तब याकू क्रूरदृष्टि देखि कांसीकी मंजूषामैं स्थाप्या अर वृत्तान्तका लेख सहित यमुनानदीमैं बहाया, तब कौशांबीपुरमैं मंदोदरी नाम कलाली ताकू लेय पुत्रबुद्धिकरि पाल्या, कंस नाम दिया, तहां बड़ा भया तब बालकनिसूं क्रीडा करै तब सर्वकू दुःख दे, तब मंदोदरी उलाहनांके दुःखतें याकू निकासि दिया, तब यह कंस शौर्यपुर गया, वहां वसुदेव राजाकै पयादा चाकर रह्या । पीछे जरासंध प्रति नारायणका पत्र आया जो पोदनांपुरका राजा सिंहरथनैं बांधि ल्यावै ताकू आधा राज्य सहित पुत्री परणाऊं । तब वसुदेव तहां कंससहित जाय युद्धकरि तिस सिंहरथकू बांधि ल्याया, जरासंध• सौंप्या, तब जरासंध जीवंयशा पुत्रीसहित आधा
अ० व. १३
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पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
राज्य दिया, तब वसुदेव कही—सिंहरथकू कंस बांधि ल्याया है याकू यो, तब जरासंध याका कुल जाणिबेळू मंदोदरीकू बुलाय कुलका निश्चयकरि याकू जीवंयशा पुत्री परणाई, तब कंस मथुराका राज लेय आय पिता उग्रसेन राजाकू अर पद्मावती माताकू बंदीखानैं दिया। पी3 कृष्ण नारायणकरि मृत्युकुं प्राप्त भया ताकी कथा विस्तारसूं उत्तरपुराणादिकतें जाननीं । ऐसें वशिष्ठमुनि निदानकरि सिद्धिा न पाई तातै भावलिंगहीतें सिद्धि है ॥ ४६॥ ___ आगें कहै है—भावरहित चौरासीलाख योनिमैं भ्रमैं है;गाथा-सो णत्थि तं पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि ।
___ भावविरओ वि सवणो जत्थ ण दुरुडुल्लिओ जीवो ॥ संस्कृत-सः नास्ति त्वं प्रदेशः चतुरशीतिलक्षयोनिवासे ।
भावविरतःअपि श्रमणः यत्र न भ्रमितः जीवः॥४७॥ ‘अर्थ-या संसारमैं चौरासीलाख योनि तिनिके वासमैं ऐसा प्रदेश नांही है जामैं यह जीव द्रव्यलिंग मुनि होय करि भी भावरहित भया संता न भ्रमण किया ॥ -- __ भावार्थ-द्रव्यलिंग धारि निग्रंथ मुनि होय करि शुद्धस्वरूपका अनुभवरूप भावविना यह जीव चौरासी लाख योनिमैं भ्रमताही रह्या, ऐसा ठिकानां नांही रह्या जामैं जनम्या मऱ्या न होय; ऐसैं जाननां ॥
आगें चौरासी लाख योनिका भेद कहै है;--पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद ये तो सात सात लाख हैं ते वयालीस लाख भये; बहुरि वनस्पति दश लाख हैं, वेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय, दोय दोय लाख हैं; पंचेंद्रिय तिर्यंच च्यार लाख, देव च्यार लाख, नारकी च्यार लाख, मनुष्य चौदह लाख । ऐसें चौरासी लाख हैं । ये जीवनिके उपजनेंके ठिकानें जाननें ॥४७॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। १९५ __ आनें कहै है जो-द्रव्यमात्रकरि लिंगी न होय, भावकरि लिंगी होय हैगाथा-भावेण होइ लिंगी णहु लिंगी होइ दव्वमित्तेण ।
तम्हा कुणिज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण ॥४८॥ संस्कृत-भावेन भवति लिंगी नहि लिंगी भवति द्रव्यमात्रेण ।
तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन ॥४८॥ अर्थ-लिंगी होय है सो भावलिंगहीतें होय है द्रव्यलिंगकरि लिंगी नांही होय है यह प्रकट है, तातै भावलिंगही धारण करना, द्रव्य लिंगकरि कहा कीजिये ॥ ___ भावार्थ--आचार्य कहै है जो-सिवाय कहा कहिये भावलिंग विना लिंगी नामही नाही होय जाते यह प्रकट है, भाव शुद्ध न देखे तब लोकही कहै जो काहेका मुनि है कपटी है तातें द्रव्यलिंगकरि कछू साध्य नाही, भावलिंगही धारनां ॥ ४८ ॥
आर्गे याहीकू दृढ करनेकू द्रव्यलिंगधारककै उलटा उपद्रव भया, ताका उदाहरण कहै है:गाथा-दंडयणयरं सयलं डहिओ अब्भतरेण दोसेण ।
जिणलिंगेण वि वाहू पडिओ सो रउरवे णरये ॥४९॥ संस्कृत-दण्डकनगरं सकलं दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण ।
जिनलिंगेनापि बाहुः पतितः सःरौरवे नरके ॥४९॥ अर्थ-देखो, बाहुनामा मुनि बाह्य जिनलिंगकरि सहित था तौऊ अभ्यंतरके दोषकरि समस्त दंडकनामा नगरकू दग्ध किया अर सप्तम पृथ्वीका रौरवनामा विलमैं पड्या ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ-द्रव्यलिंग धारि किछू तप करै ताकरि किछू सामर्थ्य वधै तब कळू कारण पाय क्रोध करि आपका अर परका उपद्रव करनेका कारण बनावै तातें द्रव्यलिंग भावसहित धारणाही श्रेष्ठ है अर केवल द्रव्यलिंग तौ उपद्रवका कारण होय है, ऐसैं याका उदाहरण बाहु मुनिका बताया ताकी कथा ऐसैं;-दक्षिणदिशामैं कुंभकारकटकनगरविर्षे दंडकनामा राजा, ताकै वालकनाम मंत्री, तहां अभिनंदन आदि पांचसौं मुनि आये, तिनिमैं एक खंडकनामा मुनि था, ता. वालकनाम मंत्रिकू वादविर्षे जीत्या, तब मंत्री क्रोधकरि एक भांडकू मुनिका रूप कराय राजाकी राणी सुव्रता सहित रमता राजाकू दिखाया, अर कही जो देखो-राजाकै ऐसी भक्ति है जो अपनी स्त्री भी दिगंबरकू रमबा नैं दई है तब राजा दिगम्बरनिः क्रोध करि पांचसै मुनिनिळू घाणीमैं पिलवाया, ते मुनि उपसर्ग सहि परमसमाधि करि सिद्धि प्राप्त हुये । पीछे तिसनगर वाहुनामा मुनि आया ताळू लोकनि म किया जो इहां राजा दुष्ट है सो तुम नगरमैं प्रवेश मति करौ आगें पांचसै मुनि घाणीमैं पेल्या है सो तुमकू भी तैसैंही करेगा। तब लोकनिके वचनकरि बाहु मुनिकू क्रोध उपज्या तब
अशुभतैजससमुद्रात करि राजाकू मंत्रीसहित सर्वनगरकू भस्म किया। 'राजा मंत्री सातचैं नरक रौरवनामा विलामैं पडे तहांही बाहुमुनिभी मरिकरि रौरवविलामैं पड्या । ऐसें द्रव्यलिंगमैं भावके दोषः उपद्रव होय है, तातै भावलिंगका प्रधान उपदेश है ॥ ४९ ॥ ___ आगैं इसही अर्थपरि दीपायनमुनिका उदाहरण कहै है, गाथा-अवरो वि दव्वसवणो दसणवरणाणचरणपब्महो ।
दीवायणुत्ति गामो अणंतसंसारिओ जाओ ॥५०॥ संस्कृत--अपरः अपि द्रव्यश्रमणः दर्शनवरज्ञानचरणप्रभ्रष्टः।
दीपायन इति नाम अनंतसांसारिकः जातः ॥५०॥
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_____ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। १९७ ___ अर्थ-आचार्य कहै है जो पहलै बाहु मुनि कह्या तैसें ही और भी दीपायननामा द्रव्यश्रमण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र” भ्रष्ट भया संता अनंतसंसारी भया ॥ ___ भावार्थ—पूर्ववत् याकी कथा संक्षेप” ऐसी, नवमां बलभद्र श्रीनेमिनाथतीर्थकरकू पूछी जो स्वामिन् ! या द्वारिकापुरी समुद्रमैं है सो याकी स्थिति केतेककाल है ? तब भगवान् कही रोहिणीको भाई दीपायन तेरो मामो बारह वर्ष पीछे मद्यका निमित्तकरि क्रोधकरि या पुरीकू दग्ध करिसी, ऐसे वचन भगवानके वचन सुनि निश्चयकरि दीक्षा ले पूर्वदेशनैं गया, बारह वर्ष व्यतीत करनेंकू तप करनां आरंभ्या, अर वलभद्र नारायण द्वारिकामैं मद्यनिषेधकी धोषणा दई, तब मद्यका वासण तथा ताकी सामग्री मद्य करणेवाला वाह्य पर्वतादिकमैं क्षेप्या, तब वासणकी मदिरा तथा मद्यकी सामग्री जलके निवासनिमैं फैली, पीछे वारह वर्ष बीत्या जाणि दीपायन द्वारिका आय नगरवाह्य आतापनयोगकरि तिष्ठया भगवानका वचनकी प्रतीति न राखी पीछे शंभवकुमादिक क्रीडा करते तृषावंत होय कुंडनिमैं जल जानि पीवते भये, तब तिस मद्यके निमित्त” कुमार उन्मत्त भये, तहां दीपायनमुनिकू तिष्ठया देखि कहते भये-जो ये द्वारिकाका भस्म करनेवाला दीपायन है, ऐसैं कहिकरि तिसळू पाषाणदिककरि घात करते भये, तब दीपायन भूमिमैं गिरि पड्या, तब ताकू क्रोध उपज्या ताके निमित्त” द्वारिका दग्ध भई । ऐसैं दीपायन भावशुद्धि बिना अनन्त संसारी भया ॥ ५० ॥ _ आरौं भावशुद्धिकरि सहित मुनि भया त्यां सिद्धि पाई ताका उदाहरण कहै है;गाथा-भावसमणो य धीरो जुवईजणवेडिओ विसुद्धमई।
णामेण सिवकुमारो परीत्तसंसारिओ जादो ॥५१॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत - भावश्रमणश्च धीरः युवतिजनवेष्टितः विशुद्धमतिः । नाम्ना शिवकुमारः परित्यक्तसांसारिकः जातः ।। ५१॥ अर्थ - शिवकुमारनामा भावश्रमण स्त्रीजनकरि बेढ्या हुवा संता भी विशुद्धबुद्धिका धारक धीर संसारका त्यागनवारा होत भया ||
भावार्थ - शिवकुमार भावकी शुद्धताकरि ब्रह्मस्वर्ग में विद्युन्माली देव होय तहां चय जंबूस्वामी केवली होय मोक्ष पाई, ताकी कथा ऐसें इस जंबूद्वीप पूर्वविदेह पुष्कलावती देश बीतशोकपुरविर्षै महापद्मराजा वनमाला राणीकै शिवकुमारनामा पुत्र होता भया सां एकदिन मित्रसहित वनक्रीडा करि नगर मैं आवै था सो मार्गमैं लोककूं पूजाकी सामग्री ले जाता देख्या तब मित्रकूं पूछी — ये कहां जाय हैं, तब मित्र कही जो सागरदत्तनामा मुनि ऋद्धिधारीकूं बनमैं पूजने जाय हैं, तब शिवकुमार मुनि पासि जाय अपना पूर्वभव सुनि संसारसूं विरक्त होय दीक्षा लई, अर दृढधरनामा श्रावककै घर प्रासुक आहार लिया, ता पीछें स्त्रीनि कै निकट असिधाराव्रत परम ब्रह्मचर्य पालता संता बारह वर्ष तांई तपकरि अंतसंन्यास मरणकार ब्रह्मकल्पविषै विद्युन्मालीदेव भ्या, तहांतें चयकरि जंबूकुमार भया सो दीक्षा लेय केवलज्ञान पाय मोक्ष गया । ऐसैं शिवकुमार भावमुनि मोक्ष पाई, याकी विस्तारसहित कथा जंबूचरित्र में है तहांतैं जाननीं; ऐसैं भाव लिंग प्रधान है ॥ ५१ ॥
आगैं शास्त्र भी पढै अर सम्यग्दर्शनादिरूप भाव विशुद्ध न होय तौ सिद्धिकूं न पावै, ताका उदाहरण अभव्यसेनका कहै है; - गाथा - केवलि जिणपण्णत्तं एयादसअंग सयलसुयणाणं । पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ॥ ५२॥
१ - मुद्रिक संस्कृत सटीक प्रतिमें यह गाथा इस प्रकार है;गाथा - अंगाई दस य दुण्णि य चउदसपुव्वाई सयलसुयणाणं । पढिओ अ भव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ॥ ५२ ॥ संस्कृत - अंगानि दश च द्वे च चतुर्दशपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम् । पठितश्च भव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ॥ ५२ ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । १९९
संस्कृत — केवलिजिनप्रज्ञतं एकादशांगं सकलश्रुतज्ञानम् । पठितः अभव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ॥ ५२ ॥ अर्थ—अभव्यसेननामा द्रव्यलिंगी मुनि है सो केवली भगवानका प्ररूप्या ग्यारह अंग पढ्या तथा ग्यारह अंगकूं पूर्ण श्रुतज्ञान भी कह जातैं एता पढ्याकूं अर्थ अपेक्षा पूर्ण श्रुत ज्ञानभी होय जाय है, तहां अभव्यसेन एता पढ्या तौऊ भावश्रमणपणांकूं प्राप्त न भया ॥
भावार्थ — इहां ऐसा आशय है जो कोई जानैगा बाह्य क्रिया मात्र तौ सिद्धि नांही अर शास्त्र के पढनेंकरि तौ सिद्धि है तौ यहभी जाननां सत्य नांही जातै शास्त्र पढनें मात्र भी सिद्धि नांही है - अभव्यसेन द्रव्यमुनिभी भया अर ग्यारह अंगभी पढ्या तौऊ जिनवचनकी प्रतीति न भई यात भावलिंग न पाया । अभव्यसेनकी कथा पुराणनिमैं प्रसिद्ध है तहां जाननी ॥ ५२ ॥
आगैं शास्त्र पढ्या विना शिवभूति मुनि तुषमाषकूं घोखताही भावकी विशुद्धिकं पाय मोक्ष पाई ताका उदाहरण कहै है; - गाथा - तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य ।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ || ५३॥ संस्कृत - तुषमाषं घोषयन् भावविशुद्धः महानुभावश्च ।
नाम्ना च शिवभूतिः केवलज्ञानी स्फुटं जातः ॥ ५३॥ अर्थ — आचार्य कहै है जो - शिवभूति मुनि है सो शास्त्र पढ्या तुष माष ऐसा शब्दकूं घोखता संता भावकरि विशुद्धता महानुभाव होयकरि केवल ज्ञान पाया यह प्रकट है ॥
भावार्थ — कोई जानैगा कि शास्त्र पढ़ेही सिद्धि है सो ऐसैं भी नांही, शिवभूति मुनि तुषमाष ऐसा शब्द मात्रही घोखता भावनिकी
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
विशुद्धतातैं केवलज्ञान पाया, याकी कथा ऐसैं; – कोई शिवभूति नामा मुनि था सो गुरुनिपासि शास्त्र पढ़े सो धारणा होय नाही, तब गुरुनि यह शब्द पढ़ाया जो " मा रुप मा तुष " सो या शब्दकूं घोखने लगा । याका अर्थ यह जो रोष मति करै तोष मति क ॥
"
भावार्थ — राग द्वेष मति करै यातें सर्व सिद्धि है । तब यह भी शुद्ध यादि न रह्या तब ' तुषमात्र ' ऐसा पाठ घोखने लगा, दोष पदके रुकार तुकार ' विस्मरण होय गये अर तुष माष ऐसा यादि रह्या ताकूं घोखता विचरै । तब कोई एक स्त्री उडदकी दालि धौवैथी ताकूं काहू पूछी, तू कहा करे है -- तब वानैं कही - तुप अर मात्र भिन्न न्यारे न्यारे करूं हूं । तब या मुनि सुनि तुष माष शब्दका भावार्थ यह जान्या जो यह शरीर तौ तुष है अर यह आत्मा माष है, दोऊ भिन्न हैं न्यारे न्यारे हैं, ऐसा भाव जानि आत्माका अनुभव करने लगा, चिन्मात्र शुद्ध आत्माकूं जानि तामैं लीन भया, तब घाति कर्मका नाशकरि केवलज्ञान उपजाया । ऐसें भावनिकी विशुद्धितार्तें सिद्धि भई जानि भाव शुद्ध करनां, यह उपदेश है ॥ ५३ ॥
आ याही अर्थकं सामान्यकरि कहै है:
गाथा - भावेण होइ णग्गो वाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीय पियरं णासह भावेण दव्वेण ॥५४॥ संस्कृत - भावेन भवति नमः बहिर्लिंगेन किं च ननेन । कर्मप्रकृतीनां निकरं नाशयति भावेन द्रव्येण ॥५४॥ अर्थ —भावकरि नग्न होय है बाह्य नग्नलिंगकरि कहा कार्य होय है, नांही होय है जातैं भावसहित द्रव्यलिंगकरि कर्मप्रकृतिके समूहका नाश होय है ॥
१ माकार, ऐसा पाठ सुसंगत है ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २०१ ___ भावार्थ-आत्माकै कर्मप्रकृतिका नाशकार निर्जरा तथा मोक्ष होनां कार्य है, सो यह कार्य द्रव्यलिंग ही करि तौ नाही होय है, भावसहित द्रव्यलिंग भये कर्मकी निर्जरा नामा कार्य होय है, केवल द्रव्यलिंगकरि तौ न होय है; तातैं भावसहित द्रव्यलिंग धारणां यह उपदेश है ॥ ५४ ॥ __ आगैं याही अर्थकू दृढ़ करै है;गाथा—णग्गत्तणं अकजं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं ।
इय णाऊण य णिचं भाविजहि अप्पयं धीर ॥५५॥ संस्कृत-नग्नत्वं अकार्य भावरहितं जिनैः प्रज्ञप्तम् ।
इति ज्ञात्वा नित्यं भावयेः आत्मानं धीर ! ॥५५॥ अर्थ-भावरहित नग्नपणां है. सो अकार्य है कछू कार्यकरी नाही यह जिनभगवाननैं कह्या है, ऐसें जानिकरि हे धीर ! हे धैर्यवान मुने निरन्तर नित्य आत्माही• भाय ॥
भावार्थ-आत्माकी भावनाविना केवल नग्नपणां कछू कार्य करनेवाला नाही तातै चिदानंदस्वरूप आत्माहीकी भावना निरन्तर करणी, या सहित नग्नपणां सफल है ॥ ५५ ॥ __ आगें शिष्य पूछ है जो-भावलिंगफू प्रधानकरि निरूपण किया सो भावलिंग कैसा है ? ताका समाधानकू भावलिंगका निरूपण करै है;गाथा-देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो।
अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ॥५६॥ संस्कृत-देहादिसंगरहितः मानकषायैः सकलपरित्यक्तः।
आत्मा आत्मनि रतः स भावलिंगी भवेत् साधु॥५६॥ ___ अर्थ--भावलिंगी साधु ऐसा होय है-देह आदिक जे परिग्रह तिनितें रहित होय बहुरि मान कषायकरि रहित होय बहुरि आत्मा विर्षे लीन होय सो आत्मा भावलिंगी है ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
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भावार्थ—आत्माका स्वाभाविक परिणामकूं भाव कहिये है तिमी लिंग कहिये चिह्न तथा लक्षण तथा रूप होय सो भावलिंग है । तहां आत्मा अमूर्त्तीक चेतनारूप है ताका परिणाम दर्शन ज्ञान है तिस मैं कर्मके निमित्ततैं बाह्य तौ शरीरादिक मूर्तीक पदार्थका संबंध है अर अंतरंग मिथ्यात्व अर रागद्वेष आदि कपायनिका भाव है । तातें कहै है— जो बाह्य तौ देहादिक परिग्रहतै रहित अर अन्तरंग रागादिक परिणामविषै अहंकाररूप मानकषाय परभावनिविषै आपा माननां तिस भावतैं रहित होय, अर अपना दर्शनज्ञानरूप चेतनभाव ताविषै लीन होय सो भाव लिंग है, यह भाव होय सो भावलिंगी साधु है ॥ ५६ ॥ आ याही अर्थं स्पष्टकरि कहै है :अनुष्टुपछंद - ममतिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवहिदो | आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे || ५७॥ संस्कृत - ममत्वं परिवर्जामि निर्ममत्वमुपस्थितः ।
आलंबनं च मे आत्मा अवशेषानि व्युत्सृजामि ॥५७॥ अर्थ — भावलिंगीमुनिके ऐसे भाव होय हैं- मैं परद्रव्य अर परभावनितैं ममत्व कहिये अपनां माननां ताकूं छोडूहूं बहुरि मेरा निजभाव गमत्वरहित है ताकूं अंगीकार करि तिष्टू हूं, अब मेरै आत्माहीका अवलंवन है और सर्वही छोडूहूँ |
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भावार्थ — सर्व परद्रव्यनिका आलंबन छोड़ि अपनें आत्म स्वरूप - विषै तिष्ठै ऐसा भावलिंग है ॥ ५७ ॥
आगे कहै है जो - ज्ञान दर्शन संयम त्याग संवर योग ये भाव भावलिंगी मुनिकै होय हैं ते अनेक है तौउ आत्मा ही है तातैं इनितैं भी अभेदका अनुभव करै है;
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २०३ गाथा-आदर खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य ।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ॥५८॥ संस्कृत-आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ॥५८॥ अर्थ-भावलिंगी मुनि विचार है जो- मेरै ज्ञानभाव प्रगट है ताविर्षे आत्माहीकी भावना है कळू ज्ञान न्यारा वस्तु नांही है ज्ञान है सो आत्माही है, तैसें दर्शनविर्षे भी आत्माही है, बहुरि चारित्र है सो ज्ञानविषै थिरता रहनाहै सो या विषं भी आत्माही है, बहुरि प्रत्याख्यान आगामी परद्रव्यका संबंध छोड़ना है सो या भावविर्षे आत्माही है, बहुरि संवर परद्रव्यके भावरूप न परिणमनेकाहै सो या भावविधै भी मेरै आत्माही है, बहुरि योग नाम एकाग्र चिंतारूप समाधि ध्यानका है सो या भाववि भी मेरै आत्माही हैं ॥
भावार्थ-ज्ञानादिक कछू न्यारे पदार्थ तो हैं नाही, आत्माहीके भाव है संज्ञादिकके भेदते न्यारे कहिये हैं, तहां अभेददृष्टिकोर देखिये तब ये सर्वभाव आत्माहीहैं तातै भावलिंगी मुनिके अभेद अनुभवमैं विकल्प नाही है; तातै निर्विकल्प अनुभवतै सिद्धिहै यह जाणि ऐसैं करै है ॥ ५८ ॥
आगें इसही अर्थकू दृढ़ करते कहै हैं,अनुष्टुप श्लोक-एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ संस्कृत-एकः मे शाश्वतः आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः ।
शेषाः मे बाह्याः भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥५९॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ - - भावलिंगी विचार है जो ज्ञान दर्शन जाका लक्षण ऐसा अर शाश्वता नित्य ऐसा आत्मा है सोही एक मेरा है बाकी भाव हैं ते मोतैं बाह्य हैं ते सर्वही संयोगस्वरूप हैं परद्रव्य हैं |
भावार्थ - ज्ञानदर्शनस्वरूप नित्य एक आत्मा है सो तौ मेरा रूप है एक स्वरूप है अर अन्य परद्रव्य हैं ते मोतैं बाह्य हैं सर्व संयोगस्वरूप है, भिन्न हैं, यह भावना भावलिंगी मुनिकै है ॥ ४९ ॥
आगे कहै है जो मोक्ष चाहे है सो ऐसें आत्मा की भावना करै, गाथा - भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव ।
लहु चउगह चऊणं जड़ इच्छसि सासयं सुक्ख || ६० संस्कृत - भावय भावशुद्धं आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव ।
लघु चतुर्गति च्युत्वा यदि इच्छसि शाश्वतं सौख्यम् ।। अर्थ — हे मुनिजन हौ ! जो च्यारगतिरूप संसार छुटिकरि शीघ्र शाश्वता सुखरूप मोक्ष तुम चाहोहौ तौ भावकरि शुद्ध जैसैं होय तैसें अतिशयकार विशुद्ध निर्मल आत्माकूं भावौ ॥
भावार्थ — जो संसार निवृत्तिकरि मोक्ष चाहो हौ तौ द्रव्यकर्म भावकर्म नौकर्मतैं रहित शुद्ध आत्माकूं भावौ ऐसा उपदेश है ॥ ६० ॥ आगे कहै है जो आत्माकं भावै सो याका स्वभावकूं जाणि भावै सो मोक्ष पावै, -
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गाथा -- जो जीवो भावतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो । सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहड़ णिव्वाणं ॥ ६१॥ संस्कृत - - यः जीवः भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः । सः जरामरणविनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वाणम् ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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____ अर्थ-जो भव्यपुरुष जीवकू भावता संता भले भावकरि संयुक्त भया जीवका स्वभावकू जाणि करि भावै सो जरा मरणका विनाशकरि प्रगट निर्वाणकू पावै है। ___ भावार्थ-जीव ऐसा नाम तो लोकमैं प्रसिद्ध है परन्तु याका स्वभाव कैसा है ऐसा लोककै यथार्थ ज्ञान नाहीं अर मतांतरके दोपते याका स्वरूप विपर्यय होय रह्या है तातें याका यथार्थ स्वरूप जांनि भाबें हैं ते संसार” निवृत्त होय मोक्ष पावै हैं ॥ ६१ ॥
आज जीवका स्वरूप सर्वज्ञदेव कह्या है सो कहै है,गाथा--जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहाओ य चेयणासहिओ।
सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकरणणिम्मित्तो ॥६२॥ संस्कृत-जीवः जिनप्रज्ञप्तः ज्ञानस्वभावः च चेतनासहितः ।
सः जीवः ज्ञातव्यः कर्मक्षयकरणनिमित्तः ॥६२॥ अर्थ-जिन सर्वज्ञ देव जीवका स्वरूप ऐसा कह्या है;-जीव है सो चेतनासहित है बहुरि ज्ञानस्वभाव है, ऐसा जीवका भावनां कर्मका क्षयकै निमित्त जाननां ॥ ..
भावार्थ-जीवका चेतनासहित विशेषण कियातें तौ चार्वाक जीवकू चेतनासहित न मान है ताका निराकरण है । बहुरि ज्ञानस्वभावविशेषण" सांख्यमती ज्ञान• प्रधान धर्म मानै है जीवकू उदासीन नित्य चेतनारूप माने है ताका निराकरण है, तथा नैयायिकमती गुण गुणीका भेद मांनि ज्ञानकू सदा भिन्न मानै है ताका निराकरण है । बहुरि ऐसा जीवका स्वरूपका भावनां कर्मका क्षयकै निमित्त होय है, अन्य प्रकार भया मिथ्याभाव है ॥ ६२॥
आगें कहै है जो जे पुरुष जीवका अस्तित्व मानें हैं ते सिद्ध होय है;
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा - जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ । ते होंति भिणदेहा सिद्धा वचिगोयरमतीदा || ६३॥ संस्कृत - येषां जीवस्वभावः नास्ति अभावः च सर्वथा तत्र । ते भवंति भिन्नदेहाः सिद्धाः वचोगोचरातीताः ॥ ६३ अर्थ — जिनि भव्यजीवनिकै जीवनामा पदार्थ सद्भावरूप है अर सर्वथा अभावरूप नांही है ते भव्यजीव देह तैं भिन्न ऐसे सिद्ध होय हैं, ते कैसे हैं सिद्ध-वचनगोचरतें अतीत है ॥
भावार्थ - जीव है सो द्रव्यपर्यायस्वरूप है सो कथंचित् अस्तिस्वरूप है कथंचित् नास्तिस्वरूप है तहां पर्याय अनित्य है या जीवकै कर्मके निमित्त मनुष्य तिर्यच देव नारक पर्याय होय हैं ताका कदाचित् अभाव देखि जीवका सर्वथा अभाव माने है । ताके संबोधनकूं ऐसा कया है–जो जीवका द्रव्यदृष्टिकरि नित्य स्वभाव है, पर्यायकाअभाव होतैं सर्वथा अभाव न माने है सो देहतैं भिन्न होय सिद्ध होय है, ते सिद्ध वचनगोचर नांही है, अर जे देहकूं विनसता देखि जीवका सर्वथा · नाश मानें हैं ते मिथ्या दृष्टी हैं, ते सिद्ध कैसैं होय न होय ॥ ६३ ॥ आगैं कहै है जो जीवका स्वरूप वचनकै अगोचर है अर अनुभवगम्य है सो ऐसा है; -
गाथा — अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेयणागुणमस' । आणमलिंगरगहणं जीवमणिद्दिसंठाणं ||६४ || संस्कृत - अरसमरूपमगंधं अव्यक्तं चेतनागुणं अशब्दम् । जानीहि अलिंगग्रहणं जीवं अनिर्दिष्टसंस्थानम् ||६४
१
संस्कृत मुद्रित प्रतिमें 'चेयणागुणसमदं' ऐसा प्राकृत पाठ है जिसका चेतना गुणसमाई " ऐसा संस्कृत है, वचनिका प्रतियों में उपरि लिखित पाठ 1
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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अर्थ-हे भव्य ! तू जीवका स्वरूप ऐसा जांनि-कैसा है अरस कहिये पंच प्रकार खाटो मीठो कडो कषायलो खारो रसकरि रहित है बहुरि कालो पीलो लाल सुकेद हन्यो या प्रकार अरूप कहिये पांच प्रकार रूप करि रहित है; बहुरि दोय प्रकार गंधकरि रहित है बहुरि अव्यक्त कहिये इन्द्रयिनिके गोचरव्यक्त नाही है, बहुरि चेतनागुण है जामैं, बहुरि अशब्द कहिये शब्दकरि रहित है, बहुरि अलिंगग्रहण कहिये जाका कोऊ चिह्न इंद्रियद्वारै ग्रहणमैं आता नाही, अर अनिर्दिष्ट संस्थान कहिये चौकूणा गोल आदि कळू आकार जाका कया जाता नांही ऐसा जीव जाणौं ॥
भावार्थ-रस रूप गंध शब्द येतौ पुद्गलके गुण हैं तिनिका निषेधरूप जीव कह्या, बहुरि अव्यक्त अलिंगग्रहण अनिर्दिष्टसंस्थान कह्या, सो ये भी पुद्गलके स्वभावकी अपेक्षाकरि निषेधरूपही जीव कह्या, अर चेतनागुण कह्या सो ये जीवका विधिरूप कह्या । सो निषेध अपेक्षा तौ वचनकै अगोचर जाननां अर विधि अपेक्षा स्वसंवेदगोचर जानना; ऐसैं जीवंका स्वरूप जांनि अनुभवगोचर करनां । यह गाथा समयसार प्रवचनसार ग्रंथमैं भी है सो याका व्याख्यान टीकाकार विशेप्रकरि कह्या है सो तहातै जाननां ॥ ६४ ॥
आगै जीवका स्वभाव ज्ञानस्वरूप भावनां कह्या सो वह ज्ञानकै प्रकार भावनां सो कहै है;गाथा-भावहि पंचपयारं गाणं अण्णाणणासणं सिग्धं ।
___ भावणभाषियसहिओ दिवसिवसुहभायणे होइ ॥६५॥ संस्कृत-भावय पंचप्रकारं ज्ञानं अज्ञाननाशनं शीघ्रम् ।
भावनाभावितसहितः दिवशिवसुखभाजनं भवति ६५
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ-हे भव्यजन ! तू यह ज्ञान पांच प्रकार भाय, कैसा है यह ज्ञान-अज्ञानका नाशकरनेवाला है, कैसा भया भाय भावनाकरि भावित जो भाव तिससहित भाय, बहुरि कैसा भया शीघ्र भाय, यातें तू दिव कहिये स्वर्ग शिव कहिये मोक्ष ताका भाजन होय । ___ भावार्थ-यद्यपि ज्ञान जाननस्वभावकरि एक प्रकार है तोऊ कर्मके क्षयोपशम क्षयकी अपेक्षा पंच प्रकार भया है तामैं मिथ्यात्वभावकी अपेक्षाकरि मतिश्रुत अवधि ये तीन मिथ्याज्ञानभी कहाये हैं, ता” मिथ्याज्ञानका अभाव करनेंकू मति श्रुत अवधि मनःपर्यय केवल ज्ञानस्वरूप पंच प्रकार सम्यग्ज्ञान जांनि तिनिकू भावनां, परमार्थ विचार से ज्ञान एकही प्रकार है, यह ज्ञानकी भावना स्वर्गमोक्षकी दाता है ॥ ६५ ॥ ___ आगें कहै है जो—पढनां सुननांभी भावविना कळू है नाही;गाथा--पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण।
भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं ॥६६॥ संस्कृत--पठितेनापि किं क्रियते किं वा श्रुतेन भावरहितेन ।
. भावः कारणभूतः सागारानगारभूतानाम् ॥६६॥
अर्थ-भावरहित पढनां सुननां तिनिकरि कहा कीजिये कभी कार्यकारी नाही है तातें श्रावकपणां तथा मुनिपणां इनिका कारणभूत भावही है ।
भावार्थ-मोक्षमार्गमैं एकदेश सर्वदेश व्रतनिकी प्रवृत्तिरूप मुनिश्रावकपणां है सो दोऊका कारणभूत निश्चय सम्यग्दर्शनादिक भाव हैं, तहां भावविना व्रतक्रियाकी कथनी कळू कार्यकारि नाही है, तातैं ऐसा उपदेश है जो भावविना पढनां सुननां आदिकरि कहा कीजिये, केवल खेदमात्र है, तातै भावसहित कछू करो सो सफल है । इहां ऐसा आशय है जो कोऊ जानेगा पढ़नां सुननांही ज्ञान है सो ऐसैं नांही है, पढ़ि सुनिकरि
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडको भाषावचनिका । २०९ आपकू ज्ञानस्वरूप जांनि अनुभव करै तब भाव जानिये है; ता” बार बार भावनाकरि भाव लगायेही सिद्धि है ॥ ६६ ॥ ___ आनें कहै है जो-बाह्य नग्नपणाही करि ही सिद्धि होय तौ नग्न तौ सारेही होय हैं;गाथा-दव्वेण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंधाया।
परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता ॥६७॥ संस्कृत-द्रव्येण सकला नग्नाः नारकतिर्यचश्च सकलसंघाताः।
परिणामेन अशुद्धाः न भावश्रमणत्वं प्राप्ताः॥६७॥ __ अर्थ-द्रव्यकरि बाह्य तौ सकल प्राणी नागा होय हैं नारकी जीव अर तिर्यंच जीव तौ निरन्तर वस्त्रादिककरि रहित नागाही रहैं हैं, बहुरि सकलसंघात कहनेंतें अन्य मनुष्य आदिक भी कारण पाय नग्न होय हैं तौऊ परिणामकरि अशुद्ध हैं तातै भावश्रमणपणांकू प्राप्त नाही भये ॥ ___ भावार्थ-जो नग्न रहे ही मुनिलिंग होय तौ नारकी तिर्यंच आदि सकल जीवसमूह नग्न रहैं हैं ते सर्वही मुनि ठहरै तातें मुनिपणां तौ भाव शुद्ध भयेही होय है, अशुद्ध भाव होय ते” द्रव्यकरि नग्न भी होय तौ भावमुनिपणां न पावै है ॥ ६७ ॥
आण याही अर्थकू दृढ करनेंकू केवल नग्नपणां निष्फल दिखावै है;गाथा-णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमई ।
णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवजिओ सुइरं॥६८॥ संस्कृत-नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसारसागरे भ्रमति ।
ननः न लभते बोधिं जिनभावनावर्जितः सुचिरं ६८ अर्थ-नग्न है सो सदा दुःख पावै है, बहुरि नग्न है सो सदा संसारसमुद्रमैं भ्रमै है, बहुरि नग्न है सो बोधि कहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान
अ. व. १४
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२१० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितचारित्ररूप स्वानुभव ताहि न पावै है, कैसा है नग्न—जो जिन भावनाकरि वर्जित है सो॥ ___ भावार्थ-जिनभावना जो सम्यग्दर्शन भावना तिसकरि वर्जित जो जीव है सो नग्न भी रहै तौ बोधि जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग ताकू न पावै है याहीतै संसारसमुद्रमैं भ्रमता संसारहीमैं दुःखकू पावै है तथा वर्तमानमैं भी जो पुरुष नागा होय है सो दुःखही• पावै है, सुख तौ भावमुनि नागा होय ते ही पाबैं हैं ॥ ६८॥ ... आग इसही अर्थकू दृढ करनेंकू कहै है जो द्रव्यनग्न होय मुनि कहावै ताका अपयश होय है;गाथा--अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण ।
पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण ॥६९॥ संस्कृत-अयशसां भाजनेन किं ते नग्नेन पापमलिनेन ।
पैशून्यहासमत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन ॥६९॥ अर्थ-हे मुने ! तेरे ऐसे नग्नपणांकरि तथा मुनिपणांकरि कहा साध्य है, कैसा है—पैशून्य कहिये अन्यका दोष कहनेका स्वभाव, हास्य कहिये अन्यका हास्य करना, मत्सर कहिये आपसमानतें ईर्षा राखि परकू नीचा पाडनेकी बुद्धि, माया कहिये कुटिल परिणाम, ये भाव हैं बहुत प्रचुर जामैं, याहीतैं कैसा है पापकरि मलिन है, याहीतैं कैसा है अयश कहिये अपकीर्ति तिनिका भाजन है ॥
भावार्थ-पैशून्य आदि पापनिकरि मैला ऐसा नग्नपणास्वरूप मुनि पणांकरि कहा साध्य है ? उलटा अपकीर्तिका भाजन होय व्यवहारधर्मकी हास्य करावनहार होय है; तातै भावलिंगी होनां योग्य है यह उपदेश है ॥ ६९॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २११ आगैं ऐसैं भावलिंगी होनां यह उपदेश करै है;गाथा-पयडहिं जिणवरलिंगं आभितरभावदोसपरिसुद्धो। - भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियई ॥७॥ संस्कृत--प्रकटय जिनवरलिंगं अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः ।
भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मलिनयति ॥७॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तू अभ्यन्तर भावदोषनिकरि अत्यंतशुद्ध ऐसा जिनवरलिंग कहिये बाह्य निर्ग्रन्थलिंग प्रगटकरि, भावशुद्धि विनां द्रव्यलिंग विगडि जायगा जासैं भावमलिनकरि जीव है सो बाह्य परिग्रहविर्षे मलिन होय है ॥ __ भावार्थ-जो भाव शुद्धकरि द्रव्यलिंग धारै तौ भ्रष्ट न होय अर भाव मलिन होय तौ बाह्य भी परिग्रहकी संगतिकरि द्रव्यलिंगभी विगाडै तातै प्रधानपण भावलिंगहीका उपदेश है, विशुद्ध भाव विना बाह्य भेष धारणां योग्य नाही ॥ ७० ॥
आगैं कहै है जो भावरहित नग्न मुनि' है सो हास्यका स्थान है;गाथा--धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लुसमो।
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण ॥७१॥ संस्कृत-धर्मे निप्रवासः दोषावासः च इक्षुपुष्पसमः ।
निष्फलनिर्गुणकारः नटश्रमणः नग्नरूपेण ॥७१॥ अर्थ-धर्म कहिये अपनां स्वभाव तथा दशलक्षणस्वरूप तिसवि जाका वास नांही सो जीव दोषनिका आवास है अथवा दोष जामैं वसैहै सो इक्षुके फूलसमानहै जाकै कळू फल नांही अर गंधादिक गुण नाही सो ऐसा मुनि तौ नग्नरूपकरि नटश्रमण कहिये नाचनेवाला भांडका स्वांग सारिखा है॥
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२१२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित--
भावार्थ-जाकै धर्ममैं वासना नाही ताः क्रोधादिक दोष ही वसै अर दिगंबररूप धारै तौ वह मुनि इक्षुके फूल सारिखा निर्गुण अर निष्फल है ऐसे मुनिकै मोक्षरूप फल न लागै, अर सम्यग्ज्ञानादिक गुण जामैं नाही तब नग्न भया भांडकासा स्वांग दीखे, सो भी भांड नाचैं तब शृंगारादिक करि नाचैं तो शोभा पावै. नग्न होय नाचै तब हास्य... पावै तैसैं केवल द्रव्य नागा हास्यका स्थानक है ॥ ७१ ॥ ___ आगैं इसही अर्थका समर्थनररूप कहे है जो--द्रव्यलिंगी बोधि समाधि जैसी जिनमार्गमैं कही है तैसी नाही पावे हैं;गाथा जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा ।
न लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले॥७२॥ संस्कृत-ये रागसंगयुक्ताः जिनभावनारहितद्रव्यनिग्रंथाः।
न लभंते ते समाधि बोधिं जिनशासने विमले ॥७२ ___ अर्थ-जे मुनि राग कहिये अभ्यंतर परद्रव्यसूं प्रीति सोही भया संग कहिये परिग्रह ताकरि युक्त है, बहुरि जिनभावना कहिये शुद्धस्वरूपकी भावनाकरि रहित हैं ते द्रव्यनिर्ग्रन्थ हैं तौहू निर्मल जिनशासनविषै जो समाधि कहिये धर्मशुक्लध्यान अर बोधि कहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग ताहि न पावै है ॥ ___ भावार्थ-द्रव्यलिंगी अभ्यन्तरका राग छो? नाही परमात्माकू भावे नाही तब कैसैं मोक्षमार्ग पावै तथा समाधिमरण कैसे पावै ॥ ७२ ॥ ___ आगैं कहै है जो—पहलै मिथ्यात्व आदिक दोष छोडिकरि भावकरि नग्न होय पीछे द्रव्यमुनि होय यह मार्ग है;-- गाथा-भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं ।
पच्छा दव्वेण मुणी पयदि लिंगं जिणाणाए ॥७३॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २१३
संस्कृत-भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादीन् च दोषान् त्यक्त्वा । पश्चात् द्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिंग जिनाज्ञया ॥ ७३ अर्थ — पहलै मियात्व आदि दोषनिकूं छोड़ि अर भावकरि अंतरंग नग्न होय एकरूप शुद्ध आत्माका श्रद्धान ज्ञान आचरण करे पीछें मुनि द्रव्यकरि बाह्य लिंग जिन आज्ञाकरि प्रगट करे यह मार्ग है |
भावार्थ-भाव शुद्ध हुवा विना पहले ही दिगंबररूप धारि ले तौ पीछें भाव बिगडै तब भ्रष्ट होय, अर भ्रष्ट होय मुनि भी कहाबो करे तौ मार्गकी हास्य करावे तातैं जिन आज्ञा यही है—भाव शुद्ध करि बाह्य मुनिपणां प्रगट करो ॥ ७३ ॥
आगे कहै है जो शुद्ध भावही स्वर्गमोक्षका कारण है, मलिनभाव संसारका कारण है;—–
गाथा -- भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणे भाववज्जिओ सवणो । कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ॥७४॥ संस्कृत - भावः अपि दिव्य शिवसौख्यभाजनं भाववर्जितः श्रमणः कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यगालयभाजनं पापः ॥७४॥
अर्थ — भाव है सो ही स्वर्ग मोक्षका कारण है बहुरि भावकरि वर्जित श्रमण है सो पापस्वरूप है तिर्यंचगतिका स्थानक है, कैसा है श्रमणकर्ममलकर मलिन है चित्त जाका ॥
भावार्थ- -भावकरि शुद्ध है सो तौ स्वर्ग मोक्षका पात्र है अर भावकरि मलिन है सो तिर्यंचगति मैं निवास करे है ॥ ७४ ॥ आगैं फेरि भावके फलका माहात्म्य कहै है;
गाथा -- खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संथुया विउला । चकहररायलच्छी लेब्भइ वोही सुभावेण ॥ ७५ ॥
१ — मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' लव्भेइ वोही ण भव्वणुआ ' ऐसा पाठ है ।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित-
संस्कृत — खचरामरमनुजकरांजलिमालाभिश्च संस्तुता विपुला । चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधिः सुभावेन ॥ ७५ ॥
अर्थ — सुभाव कहिये भले भाव करि मंदकषायरूप विशुद्ध भाव करि चक्रवर्त्ती आदि राजा तिनिकी विपुल कहिये बड़ी लक्ष्मी पावै है, कैसी है—खर कहिये विद्याधर अमर कहिये देव मनुज कहिये मनुष्य इनिकी अंजुलीमाला कहिये हस्तनिकी अंजुली तिनिकी पंक्ति करि संस्तुत कहिये नमस्कारपूर्वक स्तुति करनें योग्य है, बहुरि केवल यह लक्ष्मीही नांही पावै है बोधि कहिये रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग भी पावै है | भावार्थ—विशुद्ध भावनिका यह माहात्म्य है || ७५ || आगे भावनिका विशेष कहै है:
गाथा - भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव गायव्वं । असुहं च अट्टरु सुह धम्मं जिणवरिंदेहिं ॥ ७६ ॥ संस्कृत - भावः त्रिविधप्रकारः शुभोऽशुभः शुद्ध एव ज्ञातव्यः । अशुभ आर्त्तरौद्रं शुभः धर्म्य जिनवरेन्द्रैः ॥ ७६ ॥ अर्थ—जिनवरदेव भाव तीनप्रकार कया है: - शुभ अशुभ, शुद्ध ऐसें । तहां अशुभ तौ आर्त्तरौद्र ये ध्यान है अर शुभ है सो धर्मध्यान है ॥ ७६ ॥ गाथा - सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं ।
इदिजिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह ॥ ७७ ॥ संस्कृत - शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मनि सः च ज्ञातव्यः । इति जिनवरैः भणितं यः श्रेयान् तं समाचर ॥७७॥
अर्थ — बहुरि शुद्ध है सो अपनां शुद्धस्वभाव आपही मैं है ऐसें जिनवरदेव कह्या है सो जाननां तिनिमैं जो कल्याणरूप होय ताकूं अंगीकार
करौ ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
२१५
AN
भावार्थ-भगवान भाव तीन प्रकार कह्या है; शुभ, अशुभ, शुद्ध । तहां अशुभ तौ आरौिद्र ध्यान हैं सो तौ अतिमलिन हैं त्याज्य ही हैं, बहुरि शुभ है सो धर्मध्यान है सो यह कथंचित् उपादेय है जातें मंदकषायरूप विशुद्ध भावकी प्राप्ति है, बहुरि शुद्ध भाव है सो सर्वथा उपादेय है जाते यह आत्माका स्वरूपही है । ऐसें हेय उपादेय जांनि त्याग ग्रहण करनां तातैं ऐसा कह्या है जो कल्याणकारी होय सो अंगीकार करनां यह जिनदेवका उपदेश है ॥ ७७ ॥
आ कहै है जो जिनशासनका ऐसा माहात्म्य है;गाथा-पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो ।
पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो ॥ ७८ ॥ संस्कृत-प्रगलितमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः।
. आप्नोति त्रिभुवनसारं बोधिं जिनशासने जीवः ॥७॥ __ अर्थ—यह जीव है सो जिनशासनविर्षे तीन भुवनमैं सार ऐसी बोधि कहिये रत्नभयात्मक मोक्ष मार्ग ताहि पावै है, कैसा भया संता प्रगलितमानकषाय कहिये प्रकर्षकरि गल्या है मान कषाय जाका, काहू परद्रव्यसूं अहंकाररूप गर्व नांही करै है, बहुरि कैसा भया संता प्रगलित कहिये गलिगया है नष्ट भया है मिथ्यात्वका उदयरूप मोह जाका याहीतें समचित्त है परद्रव्यविर्षे ममकाररूप मिथ्यात्व अर इष्ट अनिष्टबुद्धिरूप रागद्वेष जाकै नांही है ॥ __ भावार्थ- मिथ्यात्वभाव अर कषाय भावका स्वरूप अन्य मतविर्षे यथार्थ नाही, यह कथनी या वीतरागरूप जिनमतमैं ही है; ता” यह जीव मिथ्यात्व कषायके अभावरूप मोक्षमार्ग तीन भवनमैं सार जिनमतका सेवनही तैं पावें है, अन्यत्र नाही ॥
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२१६
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
आगैं कहै है जो — जिनशासनविषै ऐसा मुनिही तीर्थकर प्रकृति
बांधै है;—
गाथा — विसयविरत्तो सवणो छहसवरकारणाई भाऊण । fareer araari is अरेण कालेन ॥ ७९ ॥ संस्कृत - विषयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणानि भावयित्वा । तीर्थंकर नामकर्माति अचिरेण कालेन ॥ ७९ ॥
अर्थ — इन्द्रियनिके विषयनिकरि विरक्त है चित्त जाका ऐसा श्रमण कहिये मुनि है सो सोलह कारण भावनाकूं भाय तीर्थंकर नाम प्रकृति है ताहि थोरेही कालकर बांधे है |
भावार्थ-यह भावका माहात्म्य है, विषयनित विरक्त भाव होय सोलह कारण भावना भावै तौ अचिंत्य है माहात्म्य जाका ऐसी तीन लोककरि पूज्य तीर्थंकर नामा प्रकृति वांधै ताकूं भोगि अर मोक्षकूं प्राप्त होय । इहां सोलह कारण भावनाके नाम दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलत्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णाज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्त्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, सन्मार्गप्रभावना, प्रवचनवात्सल्य, ऐसैं सोलह भावना हैं । इनिका स्वरूप तत्वार्थ सूत्रकी टीकातैं जाननां । इनिमैं सम्यग्दर्शन प्रधान है, यह न होय अर पंदरह भावनाका व्यवहार होय तौ कार्यकारी नांही; अरह होय तौ पंदरह भावनाका कार्य यही करिले, ऐसैं जाननां ||
आगैं भावकी विशुद्धितानिमित्त आचरण कहै है; -
गाथा - वारस विहतवयरणं तेरसकिंरियाउ भाव तिविहेण । धरहि मणमत्तदुरियं णाणांकुसरण मुणिपवर ॥ ८० ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ! २१७ संस्कृत-द्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदश क्रियाः भावय त्रिविधेन ।
धर मनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिप्रवर ! ॥ ८० ॥ ___ अर्थ-हे मुनिप्रवर ! मुनिनिमैं श्रेष्ठ ! तू बारह प्रकार तप चर अर तेरह प्रकार क्रिया मन वच कायकरि भाय, अर ज्ञानरूप अंकुशकरि मनरूप माते हाथीकू धारि अपनें वशमैं राखि ॥
भावार्थ--यह मनरूप हस्ती मदोन्मत्त बहुत है सो तपश्चरण क्रियादिकसहित ज्ञानरूप अंकुशही” वशि होय है तातें यह उपदेश है जो तपश्चरण क्रियादिकसहित ज्ञानरूप अंकुशही वशिहोय है और प्रकार नाही । इहां बारह तपके नामः--अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्या, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ये तो छहप्रकार बाह्यतप हैं; बहुरि प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ये छह प्रकार अम्यंतर तप हैं; इनिका स्वरूप तत्वार्थसूत्रकी टीकातें जाननां । बहुरि तेरह क्रिया ऐसैं;--पंच परमेष्ठीकू नमस्कार ये पांच क्रिया; छह आवश्यकक्रिया निषिधिकाक्रिया, आसिकाक्रिया । ऐसें भाव शुद्ध होनेके कारण कहे ॥ ८० ॥
आर्गे द्रव्यभावरूप सामान्यकरि जिनलिंगका स्वरूप कहै हैं;-- गाथा-पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू ।
भावं भाविय पुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ॥८॥ संस्कृत-पंचविधचेलत्यागं क्षितिशयनं द्विविधसंयमं भिक्षुः ।
भावं भावयित्वा पूर्व जिनलिंगं निर्मलं शुद्धम्।।८१॥ अर्थ-निर्मल शुद्ध जिनलिंग ऐसा है-जहां पंचप्रकार वस्त्रका त्याग है, बहुरि जहां भूमिविर्षे शयन है, बहुरि जहां दोय प्रकार संयम है, बहुरि जहां भिक्षाभोजन है, बहुरि भावितपूर्व कहिये पहलें शुद्ध आत्माका
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२१८
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
स्वरूप परद्रव्यतै भिन्न सम्यग्दर्शनज्ञान चरित्रमयी भया वारंवार भावनाकरि अनुभव किया ऐसा जामैं भाव है ऐसा निर्मल कहिये बाह्यमलरहित शुद्ध कहिये अन्तर्मलरहित जिनींग है।
भावार्थ—इहां लिंग द्रव्य भावकार दोयप्रकार है तहां द्रव्य तौ बाह्य त्याग अपेक्षा है जामैं पांचप्रकार वस्त्रका त्याग है, ते पंच प्रकार ऐसैं; अंडज कहिये रेसमतें उपज्या, बोंडुज कहिये कपासतें उपज्या, रोमज कहिये ऊनौं उपज्या, वल्कलज कहिये वृक्षकी त्वचा छालितें उपज्या, चर्मज कहिये मृग आदिककी चमतें उपज्या, ऐसैं पांच प्रकार कहे; तहां ऐसैं नांही जाननां जो---इनि सिवाय और वस्त्र ग्राह्य है—ये तो उपलक्षणमात्र कहे हैं ताः सर्वही वस्त्रमात्रका त्याग जाननां । बहुरि भूमिवि सोवना बैठनां तहां काष्ठ तृण भी गिणि लेनां । बहुरि इंद्रिय मनका वशि करनां छह कायके जीवनिकी रक्षा करनां ऐसैं दोय प्रकार संयम है । बहुरि भिक्षा भोजन करनां जामैं कृत कारित अनुमोदनाका दोष न लागै—छियालीस दोष टलै, बत्तीस अंतराय टलै ऐसैं यथाविधि आहार करै । ऐसैं तो बाह्यलिंग है । बहुरि पूर्वै कया तैसैं होय सो भावलिंग है । ऐसैं दोय प्रकार शुद्ध जिनलिंग कया है, अन्य प्रकार श्वेतांबरादिक हैं हैं सो जिनलिंग नांही है ॥ ८१ ॥
आगैं जिनधर्मकी महिमा कहै है;गाथा-जह रयणाणं पवरं वजं जह तरुगणाण गोसीरं ।
तह धम्माणं परं जिणधम्मं भाविभवमहणं ॥८२॥
१-मुद्रीत संस्कृतसटीक प्रतिमें “भावि भवमहणं " ऐसे दो पद हैं जिनकी संस्कृत "भावय भवमथनं" इस प्रकार है ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २१९
संस्कृत - यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुगणानां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्म भाविभवमथनम् ॥ ८२ ॥ अर्थ —— जैसैं रत्ननिविषै प्रवर कहिये श्रेष्ठ उत्तम वज्र कहिये हीरा हैबहुरि जैसैं तरुगण कहिये बडे वृक्षनिविषै प्रवर श्रेष्ठ उत्तम गोसीर कहिये - बावन चन्दन है तैसें धर्मनिवि उत्तम श्रेष्ठ जिनधर्म है, कैसा है जिनधर्म - भाविभवमथन कहिये आगामी संसारका मथन करनेवाला है यातेंमोक्ष होय है ॥
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भावार्थ — धर्म ऐसा सामान्य नाम तौ लोक मैं प्रसिद्ध है अर लोक अनेक प्रकारकरि क्रियाकांडादिक धर्म जांनि सेवै है. तहां परीक्षा किये मोक्षकी प्राप्ति करनेवाला जिनधर्मही है अन्य सर्व संसारके कारण हैं ते क्रियाकांडादिक संसारही मैं राखें हैं, कदाचित् संसार के भोगकी प्राप्ति करै: हैं तौऊ फेरि भोगनिमैं लीन होय तब एकेंद्रियादि पर्याय पावै तथा नरककूं पावै है ऐसें अन्यधर्म नाममात्र हैं तातैं उत्तम जिनधर्म जाननां ८२
आगैं शिष्य पूछें है जो - जिनधर्म उत्तम कला सो धर्मका कहा: स्वरूप है ? ताका स्वरूप कहै हैं जो धर्म ऐसा है;
गाथा - पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं ! मोहक्खहविहीण परिणामो अप्पणी धम्मो ॥ ८३ ॥
संस्कृत — पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम् । मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः ॥ ८३॥ अर्थ — जिनशासनविर्षै जिनेंद्रदेव ऐसैं- कया है जो पूजा आदिक कै विषै अर व्रतसहित होय सो तौ पुण्य है बहुरि मोहके क्षोभकरि रहित जो आत्माका परिणाम सो धर्म है ॥
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भावार्थ — लौकिक जन तथा अन्यमती केई कहैं हैं जो पूजा आदिक शुभक्रिया तिनिविषै अर व्रतक्रियासहित है सो जिनधर्म है. सो
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२२० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितऐसैं नाही है । जिनमतमैं जिनभगवान ऐसैं कह्या है जो पूजादिकविर्षे अर व्रतसहित होय सो तौ पुण्य है, तहां पूजा अर आदि शब्द करि भक्ति वंदना वैयावृत्त्य आदिक लेनां यह तो देव गुरु शास्त्रकै अर्थि होय है बहुरि उपवास आदिक व्रत हैं सो शुभक्रियाह इनिमैं आत्माका रागसहित शुभपरिणाम है ताकरि पुण्यकर्म निपजैहैं ता” इनि• पुण्य कहे हैं, याका फल स्वर्गादिक भोगकी प्राप्ति है । बहुरि मोहका क्षोभ रहित आत्माके परिणाम लेणे, तहां मिथ्यात्व तौ अतत्वार्थश्रद्धानहै, बहुरि क्रोध मान अरति शोक भय जुगुप्सा ये छह तौ द्वेषप्रकृति हैं बहुरि माया लोभ हास्य रति पुरुष स्त्री नपुंसक ये तीन विकार ऐसैं सात प्रकृति रागरूप हैं इनिके निमित्ततें आत्माका ज्ञानदर्शनस्वभाव विकारसहित क्षोभरूप चलाचल व्याकुल होय है या” इनिका विकारनि रहित होय तब शुद्ध दर्शनज्ञानरूप निश्चय होय सो आत्माका धर्म है; इस धर्मः आत्माकै आगामी कर्मका तौ आस्त्रव रुकि संवर होय है अर पूर्व बंधे कर्म तिनिकी निर्जरा होय है, संपूर्ण निर्जरा होय तब मोक्ष होय है; तथा एकदेश मोहके क्षोभकी हानि होय है ताते शुभपरिणामकू भी उपचार करि धर्म कहिये है, अर जे केवल शुभपरिणामहीकू धर्म मानि संतुष्टहैं तिनिकै धर्मकी प्राप्ति नांही है, यह जिनमतका उपदेश है ।।८३॥
आगें कहै है जो--पुण्यहींकू धर्म जांणि श्रद्धै है तिनिकै केवल भोगका निमित्त है कर्मक्षयका निमित्त नाही;-- गाथा--सदहदि य पत्तेदि य रोचेदि च तह पुणो वि फासेदि ।
पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥८४॥ संस्कृत--श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति।
पुण्यं भोगनिमित्तं न हि तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ॥८४
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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अर्थ-जे पुरुष पुण्यकू धर्म जांणि श्रद्धान करें हैं बहुरि प्रतीति करें हैं बहुरि रुचि करें है बहुरि स्पशैं हैं तिनिकै पुण्य भोगका निमित्त है याः स्वर्गादिक भोग पाएँ हैं, बहुरि सो पुण्य कर्मका क्षयका निमित्त न होय है, यह प्रगट जानो ॥ ___ भावार्थ--शुभक्रियारूप पुण्यकू धर्म जांणि याका श्रद्धान ज्ञान आचरण करै है ताकै पुण्यकर्मका बंध होय है ताकरि स्वर्गादिके भोगकी प्राप्ति होय है, अर ताकरि कर्मका क्षयरूप संवर निर्जरा मोक्ष न होय ॥ ८४ ॥ ___ आनें कहै है जो आत्माका स्वभावरूप धर्म है सो ही मोक्षका कारण. है ऐसा नियम है;-- गाथा--अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो ।
संसारतरणहेदू धम्मोत्ति जिणेहिं णिदिदं ॥८५॥ संस्कृत-आत्मा आत्मनिरतः रागादिषु सकलदोषपरित्यक्तः।
संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनैः निर्दिष्टम् ॥८५॥ अर्थ-जो आत्मा आत्माहीविर्षे रत होय, कैसा भया रत होयरागादिक समस्त दोषनिकरि रहित भया संता ऐसा धर्म जिनेश्वरदेवनैं संसारसमुद्रतै तिरणेका कारण कह्या है ॥
भावार्थ-जो पूर्वे कह्याथा मोहके क्षाभकरि रहित आत्माका परिणाम है सो धर्म है सो ऐसा धर्मही संसार” पारकरि मोक्षका कारण भगवान कह्या है, यह नियम है ॥ ८५॥
आ याही अर्थक दृढ करनेंकू कहै हैं जो-आत्माकू इष्ट नाही करै है अर समस्त पुण्यकू आचरण करै है तौऊ सिद्धिकू न पावै है;
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-अह पुणु अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि गिरवसेसाई।
तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्यो पुणो भणिदो॥८६ संस्कृत-अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति
निरवशेषानि । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः८६ अर्थ-अथवा जो पुरुष अत्माकू नाही इष्ट करै है ताका स्वरूप न जानें है अंगीकार नाही करै है अर सर्व प्रकार समस्त पुण्यकू करै है तौऊ सिद्धि कहिये मोक्ष ताहि नहीं पावै है बहुरि वह पुरुष संसारहीमैं तिष्ठया रहै है ॥ ___भावार्थ-आत्मिकधर्म धाऱ्यां विना सर्वप्रकार पुण्यका आचरण करै तौऊ मोक्ष न होय संसारहीमैं रहै है, कदाचित् स्वर्गादिक भोग पावै तौ तहां भोगनिमैं आसक्त होय वसै, तहांनैं चय एकेंद्रियादिक होय संसारहीमैं भ्रमैं है ॥ ८६ ॥ __ आगें इस कारणकरि आत्माहीका श्रद्धान करौ प्रयत्नकरि जाणौ मोक्ष पावौ ऐसा उपदेश करै है;गाथा-एएण कारणेण य त अप्पा सदहेह तिविहेण ।
जेण य लभेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ॥८७॥ . संस्कृत-एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन ।
येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ ८७॥ अर्थ--पूर्व कह्याथा जो आत्माका धर्म तो मोक्ष है तिसही कारण कहै है जो-हे भव्यजीव हौ ! तुम तिस आत्माकू प्रयत्नकरि सर्वप्रकार उद्यमकरि यथार्थ जानो, बहुरि तिस आत्माकू श्रद्धो, प्रतीतिकरो, आचरो, मन वचन कायकरि ऐसे करो जाकरि मोक्ष पावो ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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भावार्थ-जाके जानें श्रद्धान करे मोक्ष होय ताहीका जानना श्रद्धना -मोक्षप्राप्ति करै है तातैं आत्माका जाननां सर्वप्रकार उद्यमकार करनां याहीतैं मोक्षकी प्राप्ति होय है, तातें भव्यजीवनिकू यही उपदेश है ॥८७॥ ___ आगें कहै है बाह्यहिंसादिक किया विनाही अशुद्धभावतें तंदुलमत्स्यतुल्य जीवभी सातवें नरक गया तब अन्य बडे जीवनिकी कहा कथा ? गाथा-मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं । _ इय गाउं अप्पाणं भावह जिणभावणं णिचं ॥ ८८ ॥ संस्कृत-मत्स्यः अपि शालिसिक्थः अशुद्धभावः गतः महा
नरकम् । इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम्।।८८ __ अर्थ- हे भव्यजीव ! तू दोख शालिसिक्थ कहिये तंदुलनामा मत्स्य है सो भी अशुद्धभावस्वरूप भया संता महानरक कहिये सातर्फे नरक गया इस हेतु तोकू उपदेश करै है जो अपने आत्माकू जाननेंकू निरंतर जिनभावना भाय ॥ . ___ भावार्थ-अशुद्धभावके माहात्म्यकरि तंदुल मत्स्य अल्पजीवभी सातर्फे नरक गया तौ अन्य बडाजीव क्यों नरक न जाय तातै भाव शुद्ध करनेका उपदेश है । अर भाव शुद्ध भये अपनां परका स्वरूप जाननां होय है, अर अपनां परका स्वरूपका ज्ञान जिनदेवकी आज्ञाकी भावना निरन्तर भाये होय है; तातें जिनदेवकी आज्ञाकी भावना निरंतर करना योग्य है।
तंदुल मत्स्यकी कथा ऐसे है-काकंदीपुरीका राजा सूरसेन था सो मांसभक्षी भया अतिलोलुपी निरन्तर मांस भक्षणका अभिप्राय राखै ताकै पितृप्रियनामा रसोईदार सो अनेक जीवनिका मांस निरन्तर भक्षण
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
करावै ताकू सर्प डस्या सो मरिकरि स्वयंभूरमणसमुद्रमैं महामत्स्य भया अर राजा सूरसेनभी मार वहांही वा महामत्स्यके कानमैं तंदुल मत्स्य भया, तहां महामत्स्यके भुखमैं अनेकजीव आवै अर निकसि जाय तब तंदुल मत्स्य तिनिळू देखिकरि विचारै जो ये महामत्स्य निर्भागी है जो मुखमैं आये जीवनिकू भखै नांही है, मेरा शरीर जो एता बडा होता तौ या समुद्रके सर्व जीवनिकू भखता; ऐसे भावनिके पापतै जीवनिकुं भखे विनाही सातवें नरक गया अर महामत्स्य तौ भखणेवाला था सो तौ नरक जायही जाय, याते अशुद्धभावसहित बाह्य पाप करनां तौ नरकका कारणहै ही परन्तु बाह्य हिंसादिक पापके किये बिना केवल अशुद्धभावही तिस समान है, तातै भावमैं अशुभ ध्यान छोड़ि शुभध्यान करनां योग्य है । इहां ऐसा भी जाननां जो पहले राज पायाथा सो पूर्व पुण्य किया था ताका फलथा पीछे कुभाव भथे तब नरक गया यातें आत्मज्ञान विना केवल पुण्यही मोक्षका साधन नाही है ॥ ८८ ॥ ___ आनें कहै है जो भावरहितनिका बाह्य परिग्रहका त्यागादिक सर्व निष्प्रयोजन है;गाथा-बाहिरसंगचाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो।
सयलो णाणज्झयणो णिरत्यओ भावरहियाणं ॥८९॥ संस्कृत-बाह्यसंगत्यागः गिरिसरिदरीकंदरादौ आवासः ।
सकलं ध्यानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम्।।८९॥ अर्थ-जे पुरुष भावकरि रहित हैं शुद्ध आमाकी भावनारहितहैं अर बाह्य आचरणकरि सन्तुष्टहैं तिनिका बाह्य परिग्रहका त्यागहै सो निरर्थकहै, बहुरि गिरि कहिये पर्वत दरी कहिये पर्वतकी गुफा सरित् कहिये नदीकै निकट कंदर कहिये पर्वतका जलकरि विदगया स्थानक
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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इत्यादिकविर्षे आवास कहिये वसनां निरर्थक है, बहुीरे ध्यान करना आसनकरि मनकू थांभनां अध्ययन कहिये पढ़ना ये सब निरर्थक है ॥
भावार्थ-बाह्य क्रियाका फल आत्मज्ञानसहित होय तौ सफल होय नांतरि सर्व निरर्थक है, पुण्यका फल होय तौऊ संसारकाही कारण है मोक्षफल नाही ॥ ८९ ॥ .. आगें उपदेश करै है जो-भावशुद्धकै अर्थि इन्द्रियादिक वशि करी भावशुद्धविनां बाह्य भेषका आडंबर मति करौ;-- . गाथा-भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमकडं पयत्तेण ।
मा जणरंजणकरणं वाहिरवयवेस तं कुणसु ॥१०॥ संस्कृत-भंग्धि इन्द्रियसेना भंग्धि मनोमर्कटं प्रयत्नेन ।
मा जनरंजनकरणं बहिर्वतवेष ! त्वंकार्षीः ॥९॥ अर्थ-हे मुने ! तू इंद्रियकी सेना है ताहि भंजनकरि विषयनिमें रमावैमति; बहुरि मनरूप बंदर है ताहि प्रयत्नकरि बड़ा उद्यमकरि भंजनकरि वशीभूतकरि,बहुरि वाह्यव्रतका भेष लोकका रंजन करनेवाला मति धारण करै।
भावार्थ-बाह्य मुनिका भेष लोकका रंजन करनेवाला है तातें यह उपदेश है, लोकरंजनौं कछू परमार्थ सिद्धि नांही तारौं इन्द्रिय मनके वश करनेकू बाह्य यत्न करै तौ श्रेष्ठ है अर इन्द्रिय मन वशि किये विना केवल लोकरंजनमात्र भेष धारनेमैं कछू परमार्थसिद्धि है नांही ॥९०॥ ___ आगै फेरि उपदेश करै है;गाथा—णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए ।
चेइयपवयणगुरुणं करेहि भत्तिं जिणाणाएः ॥९१॥ संस्कृत-नवनोकषायवर्ग मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धया ।
चैत्यप्रवचनगुरूणां कुरु भक्तिं जिनाज्ञया ॥९१॥ अ.व. १५
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
अर्थ — हे मुने ! तू नव जे हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद नपुंसक वेद ये नोकषायवर्ग बहुरि मिध्यात्व इनिकूं छोड़ि, बहुरि जिनआज्ञाकरि चैत्य प्रवचन गुरु इनिकी भक्ति करि ॥ ९१ ॥ आगे फेरि कहै है:
गाथा - तित्थयर भासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं ।
भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ||१२|| संस्कृत - तीर्थंकरभाषितार्थं गणधरदेवैः ग्रथितं सम्यक् ।
भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ॥ ९२॥ अर्थ — हे मुने ! तू तीर्थकर भगवाननैं कह्या अर गणधर देवनिनैं गूंथ्या शास्त्ररूप रचना करी ऐसा श्रुतज्ञान है ताहि सम्यक् प्रकार भावशुद्धिकरि निरन्तर भाय, कैसा है श्रुतज्ञान — अतुल है या बराबर अन्यमतका भाष्या श्रुतज्ञान नही है ॥ ९२ ॥
ऐसे किये कहा होय है ? सो कहै है :
गाथा - पाऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का । हुति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥ ९३ ॥ संस्कृत - प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मथ्य तृषादाहशोषोन्मुक्ता ।
भवंति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥ ९३ अर्थ – पूर्वीक प्रकार भाव शुद्ध किये ज्ञानरूप जलकूं पीय करि सिद्ध होय हैं, कैसे हैं सिद्ध - निर्मध्य कहिये मध्या न जाय ऐसा तृषा दाह शोष ताकारे रहित हैं ऐसे सिद्ध होय हैं ज्ञानरूप जलपियेका ये फल हैं, बहुरि कैसे हैं सिद्ध - शिवालय कहिये मुक्तिरूप महल ताके वसनेंवाले हैं लोकके शिखरपरि जिसका वास है, यही कैसे हैं—
9- - एक वचनिका प्रतिमें ' पीऊण ' ऐसा पाठ है जिसका संस्कृत ' पीत्वा ' है अर्थात् 'पीकर' |
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २२७
तीन भवनके चूडामणि हैं मुकुटमणि हैं तथा तीन भवन मैं ऐसा सुख नांही ऐसा परमानंद अविनाशी सुख नांही, ऐसा परमानंद अविनाशी सुखकूं भोग हैं, ऐसे तीन भवन के मुकुटमणि हैं ॥
भावार्थ — शुद्ध भाव किये ज्ञानरूप जल पिये तृष्णा दाह शोष मिटै है तातें ऐसें कया है जो परमानंदरूप सिद्ध होय है ॥ ९३ ॥ आ भावशुद्धि अर्थ फेरि उपदेश करे है; --
गाथा -- दस दस दो सुपरीसह सहदि मुणी सयलकाल कारण । सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमुत्तूण ॥ ९४ ॥ संस्कृत - दश दश द्वौ सुपरीवहान् सहख मुने ! सकलकालं
कायेन ।
सूत्रेण अप्रमत्तः संयमघातं प्रमुच्य ॥ ९४ ॥
अर्थ — हे मुने ! तू दश दश दोय कहिये बाईस जे सुपरीषह कहिये अतिशयकार सहनें योग्य ऐसे परीवह तिनिकूं सूत्रेण कहिये जैसे जिनवचनमैं कहे तिसरीतिकार निःप्रमादी भया संता संयमका घात निवारिकरि अर तेरे कायकरि सदा काल निरंतर सहि ||
भावार्थ — जैसैं संयम न बिगडै अर प्रमादका निवारण होय तैसैं निरन्तर मुनि क्षुधा तृषा आदिक बाईस परीषह सहै । इनिका सहने का प्रयोजन सूत्र मैं ऐसा कया है जो इनके सहनेंतैं कर्मकी निर्जरा होय है अर संयमके मार्गतैं छूटनां न होय परिणाम दृढ़ होय है ॥ ९४ ॥
-
आगे कहै है जो परीषह सहनें में दृढ़ होय तौ उपसर्ग आये भी दृढ़ रहै चिगै नांही, ताका दृष्टान्त कहै है; - गाथा - जहपत्थरो ण भिज्जर परिडिओ दीहकालमुकरण | ह साहू विण भिज्जइ उवसग्गपरीषहे हिंतो ॥९५॥
१ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' तह साहू ण विभिज्जइ ' ऐसा पाठ है 1
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पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
संस्कृत - यथा प्रस्तरः न भिद्यते परिस्थितः दीर्घकालमुदकेन । तथा साधुरपि न भिद्यते उपसर्ग परीषहेभ्यः || ९५ ॥
अर्थ — जैसैं पाषाण है सो जलकर बहुतकाल तिष्टया भी भेदकूं प्राप्त न होय है तैसें साधु है सो उपसर्ग परीषहनिकरि नांही भिदै है |
भावार्थ — पाषाण ऐसा कठिन है जो जल मैं बहुतकाल रहै तौऊ तामैं जल प्रवेश न करै तैसैं साधुके परिणाम ऐसे दृढ होय है जो उपसर्ग परीषह आये संयमके परिणामतैं च्युत न होय हैं, अर पूर्वे कला जो संयमका घात जैसें न होय तैसें परीपह सहै जो कदाचित् संयमका घात होता जानैं तो जैसैं घात न होय तैसें करे ॥ ९५ ॥ आगैं परीषह आये भाव शुद्ध रहै ऐसा उपाय कहै है; --
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गाथा - भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि । भावरहिण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ॥९६॥ संस्कृत - भावय अनुप्रेक्षा: अपराः पंचविंशतिभावनाः भावय । भावरहितेन किं पुनः बाह्यलिंगेन कर्त्तव्यम् ॥ ९६ ॥
अर्थ – हे मुने ! तू अनुप्रेक्षा कहिये अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा हैं तिनहिं भाय, बहुरि अपर कहिये और पांच महाव्रतनिकी पच्चीस भावना कही हैं तिनहि भाय, भावरहित जो बाह्य लिंग है ताकरि कहा कर्त्तव्य है ? कछू भी नांही ॥
भावार्थ —— कष्ट आये बारह अनुप्रेक्षा चितवन करनें योग्य हैं तिनिके नाम — अनित्य, अशरण, संसार, एकत्त्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्म इनिका अर पच्चीस भावनाका भावनां बडा उपाय है । इनिका बारंबार चितवन किये कष्ट मैं परिणाम बिगडै नांही, तातैं यह उपदेश है ॥ ९६ ॥
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अष्टपाहुड में भावपाहुडकी भाषावचनिका । २२९
आगैं फेरि भावशुद्ध रखनेंकूं ज्ञानका अभ्यास करै है; --- गाथा - सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई | जीवसमासाई मुणी चउदसगुणठाणणामाई ॥ ९७ ॥ संस्कृत-सर्वविरतः अपि भावय नव पदार्थान् सप्त तत्वानि | जीवसमासान् मुने ! चतुर्दशगुणस्थाननामानि ॥ ९७॥
अर्थ — हे मुने तू सर्व परिग्रहादिकतैं विरक्त भया है महाव्रतनिकरि सहित है तौउ भावविशुद्धिकै अर्थि नवपदार्थ सप्त तत्व चउदह जीवसमास चउदह गुणस्थान इनिके नाम लक्षण भेद इत्यादिकनिकी भावना करि ॥
भावार्थ -- पदार्थनिका स्वरूपका चितवन करनां भावशुद्धिका बडा उपाय है तातैं यह उपदेश है । इनिका नाम स्वरूप अन्यग्रंथनितें जाननां ॥ ९७ ॥
आगे भावशुद्धि अर्थ अन्य उपाय कहै है; --
गाथा - णवविहवंभं पयडहि अब्भं दसविहं पमोत्तूण । मेहुणासत्तो भमिओसि भवण्णवे भीमे ॥ ९८ ॥ संस्कृत — नवविधब्रह्मचर्यं प्रकट्य अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य । मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोऽसि भवार्णवे भीमे ॥ ९८ ॥
अर्थ — हे जीव ! तू नव प्रकार ब्रह्मचर्य है ताहि प्रगटकर भावनिमैं प्रत्यक्ष कर, पूर्वेकहाकरि - दशप्रकार अब्रह्म है ताहि छोड़िकर, ये उपदेश काहे दिया जातैं तू मैथुनसंज्ञा जो कामसवन की अभिलाषा ताविषै आसक्त भया अशुद्ध भावकरि इस भीम भयानक संसार - रूप समुद्रविषै भ्रम्या |
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२३० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भावार्थ--यह प्राणी मैथुनसंज्ञाविधैं आसक्त भया गृहस्थपणां आदिक अनेक उपायकरि स्त्रीसेवनादिक अशुद्धभावकरि यशुभ कार्यनिमैं प्रवर्ते है ताकरि इस भयानक संसारसमुद्रविौं भ्रमै है तातें यह उपदेश है जो दशप्रकार अब्रह्मकू छोडि नव प्रकार ब्रह्मचर्यकं अंगीकार करौ। तहां दशविध अब्रह्म तौ ऐसैं-प्रथम तौ स्त्रीका चितवन होय १ पीछे देखनेकी चिंता होय २ पीछे निश्वास डारै ३ पीछे ज्वर उपजै ४ पाछै दाह उपजै ५ पी3 कामकी रुचि उपजै ६ पीछे मूर्छा होय ७ पीछे उन्माद उपजै ८ पीछै जीवनेका संदेह उपजै ९ पीछे मरण होय १० ऐसैं दश प्रकार अब्रह्म है । बहुरि नवविध ब्रह्मचर्य ऐसैं—नवकारणनित ब्रह्मचर्य बिगडे है तिनिकै नाम-स्त्री सेंवनेका अभिलाष १ स्त्रीका अंगका स्पर्शन २ पुष्ट रसका सेवन ३ स्त्रीकरि संसक्त वस्तुका सेवन शय्या आदिक ४ स्त्रीका मुख नेत्र आदिकनिका देखनां ५ स्त्रीका सत्कार पुरस्कार करनां ६ पहलैं स्त्रीका सेवन किया ताकी यादि करनां ८ आगामी स्त्रीसेवनका अभिलाष करनां ८ मनवांछित इष्ट विषयनिका सेवनां ९ ऐसैं नव प्रकार हैं तिनिका वर्जनां सो नवभेदरूप ब्रह्मचर्य है । अथवा मन वचन काय कृतकारित अनुमोदना करि ब्रह्मचर्य पालनां ऐसे भी नव प्रकार कहिये है । ऐसें करनां सो भी भाव शुद्ध होनेंका उपाय है ॥ ९८ ॥ ___ आगैं कहै है जो भावसहित मुनि है सो आराधनाका चतुष्कळू पावै है, भावविना सो भी संसारमैं भ्रमै है;----- गाथा-भावसहिदो य मुणिणो पावइ आग्रहणाचउकं च ।
भावरहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे ॥९९॥ संस्कृत--भावसहितश्च मुनीनः प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च ।
भावरहितश्च मुनिवर ! भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे।।९९
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २३१ ___ अर्थ—हे मुनिवर ! जो भावसहित है सो दर्शन ज्ञान चारित्र तप ऐसा आराधनका चतुष्यकू पावै है सो मुनिनिमैं प्रधान है, बहुरि, जो भावरहित मुनि है सो बहुतकाल दीर्घसंसारमैं भ्रमै है ॥ ___ भावार्थ-निश्चय सम्यक्त्वका शुद्ध आत्माका अनुभूतिरूप श्रद्धान है सो ही भाव है ऐसे भावसहित होय ताकै च्यार आराधना होय हैं ताका फल अरहंत सिद्ध पद है बहुरि ऐसे भावकरि रहित होय ताकै आराधना न होय ताका फल संसारका भ्रमण है, ऐसा जाणि भाव शुद्ध करनां यह उपदेश है ॥ ९९ ॥ ___ आरौं भावहीके फलका विशेष कहै है;-- गाथा--पाति भावसवणा कल्लाणपरंपराई सोक्खाई।
दुक्खाई दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए ॥१०॥ संस्कृत-प्राप्नुवंति भावश्रमणाः कल्याणपरंपराः सौख्यानि ।
दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतिर्यकुदेवयोनौ ॥१०॥ ___ अर्थ-जे भावभ्रमण है भावमुनि है ते कल्याणकी परंपरा जामैं ऐसे सुखनिकू पावै हैं बहुरि जे द्रव्य श्रमण हैं ते तिर्यंच मनुष्य कुदेव योनिविर्षे दुःखनिकू पावै है ॥
भावार्थ-भावमुनि सम्यग्दर्शनसहित हैं ते तौ सोलै कारण भावना भाय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंच कल्याण तिनिसहित तीर्यकर पद पाय मोक्ष पावै हैं, बहुरि जे सम्यग्दर्शनरहित द्रव्यमुनि हैं ते तिर्येच मनुष्य कुदेव योनि पाऐं हैं। यह भावके विशेषतै फलका विशेष है ॥ १० ॥
आगैं कहै है जो अशुद्ध भावकरि अशुद्धही आहार किया यातें दुर्गतिही पाई
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा - छायास दोसदूसियमसणं गसिउं असुद्ध भावेण । पत्तोसि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो ।। १०१ ॥ संस्कृत - पट्चत्वारिंशद्दोषदूषितमशनं ग्रसितं अशुद्धभावेन । प्राप्तः असि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः ॥ १०१ अर्थ — हे मुने! तैं अशुद्ध भावकरि छियालीस दोषनिकरि दूषित अशुद्ध अशन कहिये आहार ग्रस्या खाया ताकारण करि तिर्यंचगतिविषै पराधीन भया संता महान बडा व्यसन काहये कष्ट ताकूं प्राप्त भया ॥
भावार्थ–मुनि आहार करै सो छियालीस दोषरहित शुद्ध करै है बत्तीस अंतराय टालै है चौदह मलदोषरहित करे है, सो जो मुनि होयकरि सदोष आहार करै तौ जानिये याके भावभी शुद्ध नांही ताकूं यह उपदेश है जो हे मुने ! तैं दोषसहित अशुद्ध आहार किया तातैं तिर्यंच गतिमैं पूर्वै भ्रम्या कष्ट सह्या तातैं भाव शुद्ध करि शुद्ध आहार करि, ज्यो फेरि नांही भ्रमैं | छियालीस दोपनिमैं सोलह तौ उद्गम दोष हैं ते आहारके उपजनेंके हैं ते श्रावक आश्रित हैं, बहुरि सोलह उत्पादन दोष हैं ते मुनिके आश्रय हैं, बहुरि दश दोष एषणांके है ते आहार के आश्रित है; बहुरि च्यार प्रमाणादिक है । इनिका नाम तथा स्वरूप मूलाचार आचार सारग्रंथतें जाननां ॥ १०१ ॥
आगे फेरि कहै है:--
गाथा - सच्चित्तभत्तपाणं गिद्धी दप्येण पभुत्तूण | पत्तोसि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चित्तं ॥ १०२ ॥
१- मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'पभुत्तुण' इसकी संस्कृत 'प्रभुक्त्वा ' की है ।
२- मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'चित्त' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'चित्त' है अर्थात् 'हे चित्त' ऐसा संबोधनपद किया है ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २३३
संस्कृत - सचित्तभक्तपानं गृद्धया दर्पेण अधीः प्रभुज्य | प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चिन्तय १०२ अर्थ - हे जीव ! तू दुर्बुद्धी अज्ञानी भया संता अतिचार करि तथा अतिगर्व उद्धतपणकार सचित्त भोजन तथा पान जीवनिसहित आहार पानी लेकर अनादिकाल लगाय तीत्र दुःखकूं पाया ताहि चितवनकरि विचारि ॥
भावार्थ — मुनिकं उपदेश करै है जो -- अनादिकालतें लगाय जेतें अज्ञानी रह्या जीवका स्वरूप न जान्यां तेतैं सचित्त जीवनि सहित आहार पानी करता संता संसार मैं तीव्र नरकादिकका दुःख पाया अब मुनि होय करि भाव शुद्धकरि सचित्त आहार पानी मति करै नांतरि फेरि पूर्ववत् दुःख भोगवैगा ॥ १०२ ॥
आर्गै फेरि कहै है;
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गाथा - कंदं मूलं वीयं पुष्पं पत्तादि किंचि सच्चित्तं । असिऊण माणगव्वं भमिओसि अनंतसंसारे ॥ १०३ ॥ संस्कृत - कंद मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम् । अशित्वा मानगर्ने भ्रमितः असि अनंतसंसारे ।। १०३
अर्थ — कंद कहिये जमीकंद आदिक, वीज कहिये वीज चणा आदि अन्नादिक, मूल कहिये आदो मूला गाजर आदिक, पुष्प कहिये फूल, पत्र कहिये नागरवेल आदिक, इनिकूं आदि लेकर जो कछू चित् वस्तु ताहि मानकर गर्वकरि भक्षण करी; ताकरि हे जीव ! तू अनंतसंसारविषै भ्रम्या ॥
भावार्थ—कन्दमूलादिक सचित्त अनंतजीवनिकी काय है तथा अन्य वनस्पति बीजादिक सचित हैं तिनिकूं भक्षण किया । तहां प्रथम तौ
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
मान करि जो हम तपस्वी हैं हमारै घरबार नाही वनके पुष्प फलादिक खाय करि तपस्या करें हैं ऐसे मिथ्यादृष्टी तपस्वी होय मानकरि खाये तथा गर्वकरि उद्धत होय दोष गिन्यां नांही स्वच्छंद होय सर्व भक्षी भया । ऐसैं इनि कंदादिककू खाय यही जीव संसारमैं भ्रम्या अब मुनि होय इनिका भक्षण मति करे, ऐसा उपदेश है । अर अन्यमतके तपस्वी कंदमूलादिक फल फूल खाय आपकू महंत मानें, तिनिका निषेध है ॥ १०३ ॥ ___ आविनय आदिका उपदेश करै है तहां प्रथमही विनयका वर्णन है;-- गाथा-विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण ।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति ॥१०४॥ संस्कृत-विनयः पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन ।
अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवंति ॥१०४ अर्थ--हे मुने ! जा कारण” अविनयवान नर हैं ते भले प्रकार विहित जो मुक्ति ताहि न पावै है अभ्युदय तीर्थंकरादिसहित मुक्ति न पावै है ता” हम उपदेश करें हैं जो हस्त जोडनां पगां पडनां आए” उठनां सामां जानां अनुकूल वचन कहनां यह पंचप्रकार विनय अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र तप अर इनिका धारक पुरुष इनिका विनय करनां ऐसैं पंचप्रकार विनयकू तू मन वचन काय तीनूं योगनिकरि पालि॥ __ भावार्थ-विनयविना मुक्ति नाही तातै विनयका उपदेश है; विनयमैं बडे गुण हैं ज्ञानाकी प्राप्ति होय है मानकपायका नाश होय है शिष्टाचारका पालनां है कलहका निवारण है इत्यादि विनयके गुण जाननें; तारौं सम्यग्दर्शनादिकरि जे महान हैं तिनिका विनय करनां यह
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २३५. उपदेश है, अर जे विनय विना जिनमार्गरौं भ्रष्ट भये वस्त्रादिकसहित जे मोक्षमार्ग मानने लगे तिनिका निषेध है ॥ १०४ ॥
आरौं भक्तिरूप वैयावृत्त्यका उपदेश करै है;--- गाथा-णियसत्तिए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि।
तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावचं दसवियप्पं ॥१०५॥ संस्कृत-निजशक्त्या महायशः ! भक्तिरागेण नित्यकाले ।
त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ॥१०५॥ अर्थ- हे महायश ! हे मुने ! भक्तिका रागकरि तिस वैयावृत्त्यकू सदाकाल अपनी शक्तिकरि तू करि, कैसैं-जिनभक्तिविर्षं तत्पर होय तैसैं, कैसा है वैयावृत्त्य-दशविकल्प है दशभेदरूप है; वैयावृत्त्य नाम परके दुःख कष्ट आये टहल बंदगी करनेंका है, ताके दशभेद-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वि, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ ये दशभेद मुनिके हैं तिनिका कीजिये है तातें दशभेद कहै हैं ॥ १०५ ॥
आगें अपनें दोष• गुरु पासि कहनां ऐसी गर्दाका उपदेश करै है;गाथा-जं किंचिकयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेणं ।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण ॥१०६॥ संस्कृत-यःकश्चित् कृतः दोषः मनोवचःकायैः अशुभभावेन ।
तं गर्ह गुरुसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा ॥१०६॥ अर्थ- हे मुने ! जो कछु मन वचन कायकरि अशुभ भावनितें प्रतिज्ञामैं दोष लग्या होय ताकू गुरु पासि अपनां गौरव कहिये अपनां महंतपणां गर्व छोडिकरि बहुरि माया कहिये कपट छोडि करि मन वचन काय सरल करि गर्दाकरि वचन प्रकासि ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
भावार्थ-आपकू कोई दोष लाग्या होय अर निष्कपट होय गुरूकू कहै तौ बह दोष निवृत्त होय, अर आप शल्यवान रहै तौ मुनिपदमैं यह बडा दोष है, तातैं अपनां दोष छिपावनां नाही, जैसा होय तैसा सरलबुद्धि” गुरुनिपासि कहनां तब दोष मिटै, यह उपदेश है । कालके निमित्त” मुनिपदतै भ्रष्ट भये पीछे गुरुनिवासि प्रायश्चित्त न लिया तब विपरीत होय संप्रदाय न्यारा बांध्या, ऐसैं विपर्यय भया ॥ १०६ ॥ ___ आगैं क्षमाका उपदेश करै है;गाथा-दुज्जणवयणचडकं णिहरकडुयं सहति सप्पुरिसा ।
कम्ममलणासण भावेण य णिम्ममा सवणा॥१०७॥ संस्कृत-दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः ।
कर्ममलनाशनार्थ भावेन च निर्ममाः श्रमणाः॥१०७॥ अर्थ-सत्पुरुष मुनि हैं ते दुर्जनके वचनरूप चपेट जो निष्ठुर कहिये कठोर दयारहित अर कटुक कहिये सुनतेही काननिकू कड़ा सूल समान लागै ऐसी चपेट है ताहि सहैं हैं, ते कौन आर्थि सहैं हैं—कर्मनिके नाश होनेंके अर्थि पूर्व अशुभकर्म बांध्या था ताके निमित्त दुर्जन. कटुक वचन कह्या आप सुन्यां ताळू उपशम परिणामतें आप सहै तब अशुभकर्म उदय दो (इ) खिरि गया ऐसैं कटुकवचन लहे कर्मका नाश होय है, बहुरि ते मुनि सत्पुरुष कैसे हैं अपने भावकरि वचनादिककरि निर्ममत्व हैं वचनतें तथा मान कषायतै अर देहादिकतैं ममत्व नांही है, ममत्व होय तो दुवचन सह्या न जाय, यह न जानै जो ये मोकू दुर्वचन कह्या, तातै ममत्वके अभाव दुर्वचन सहै है। तारौं मुनि होय कार काहू क्रोध न करनां यह उपदेश है । लौकिकमैं भी जे बडे पुरुष हैं ते दुर्वचन सुानेकै क्रोध न करें हैं तब मुनि तौ सहना उचितही है, जे कोव करें हैं ते कहबेके तपस्वी हैं, सांचे तपस्वी नाही ॥ १०७ ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २३७
आगैं क्षमाका फल कहै है;
गाथा - पावं खवड असेसं खमाय पडिमंडिओ य मुणिपवरो । खेयरअमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ ॥ १०८ ॥
संस्कृत - पापं क्षिपति अशेषं क्षमया परिमंडितः च मुनिप्रवरः । खेचरामरनराणां प्रशंसनीयः ध्रुवं भवति ॥ १०८ ॥
अर्थ — जो मुनिप्रवर मुनिन मैं श्रेष्ठ प्रधान क्रोधके अभावरूप क्षमा करि मंडित है सो मुनि समस्त पापकूं क्षय करें है, बहुरि विद्यावर देव मनुष्यनिकरि प्रशंसा करनेयोग्य निश्चयकरि होय है ॥
भावार्थ-क्षमा गुण बडा प्रधान है जातै सर्वकै स्तुति करनेयोग्य पुरुष होय, जे मुनि हैं तिनिकै उत्तमक्षमा होय है ते तौ सर्व मनुष्य देव विद्याधरनिकै स्तुतियोग्य होयही होय अर तिनिकै सर्व पापका क्षय होयही होय, तातैं क्षमा करनां योग्य हैं ऐसा उपदेश है। क्रोधी सर्वकै निंदने योग्य होय हैं तातैं क्रोधका छोडनां श्रेष्ठ हैं ॥ १०८ ॥
आगैं ऐसैं क्षमागुण जांनि क्षमा करनां क्रोध छोडनां ऐसें कहै है; गाथा -- इय पाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं । चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह ॥ १०९ ॥ संस्कृत - इति ज्ञात्वा क्षमागुण ! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् । चिरसंचितक्रोधशिखिनं वरक्षमासलिलेन सिंच १०९
अर्थ — हे क्षमागुण मुने ! क्षमा है गुण जाकै ऐसा मुनिका संबोधन है, इति कहि पूर्वोक्त प्रकार क्षमागुणकूं जाणि अर सकलजीवनिपरि मन वचन कायकरि क्षमाकरि, बहुरि बहुत काल करि संचय किया जो क्रोधरूप अग्नि ताहि क्षमारूप जलकर सींचि बुझाय ॥
भावार्थ — क्रोधरूप अग्नि है सो पुरुष मैं भले गुण हैं तिनिकूं द करनेवाला है अर परजीवनिका घात करनेवाला है तातें याकूं क्षमारूप
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
जलकरि बुझावनां, अन्य प्रकार यह बुझै नाही, अर क्षमा गुण सर्व गुणनिमैं प्रधान है । तातैं यह उपदेश है जो क्रोधकू छोड़ि क्षमा ग्रहण करनां ॥ १०९॥
आगें दीक्षाकालादिककी भावनाका उपदेश करै है,गाथा-दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदसणविसुद्धो।
उत्तमबोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिऊण ॥११०॥ संस्कृत-दीक्षाकालादिकं भावय अविकारदर्शनविशुद्धः ।
उत्तमबोधिनिमित्तं अंसारसाराणि ज्ञात्वा ॥११०॥ अर्थ-हे मुने ! तू दीक्षाकाल आदिककी भावना करि, कैसा भया संता:-अविकार कहिये अतीचाररहित जो निर्मल सम्यग्दर्शन ताकरि सहित भया संता, पूर्व कहाकरि संसारकू असार जाणिकरि, काहेकै अर्थि—उत्तमबोवि कहिये सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रकी प्राप्तिकै निमित्त ॥
भावार्थ--दीक्षा लेहै तब संसार भोगकू असार जाणि अत्यंत वैराग्य उपजै है तैसैंही ताकै आदिशब्दनैं रोगोत्पत्ति मरणकालादिक जाननां तिनिकालनिमैं जैसे भाव होय तैसेही संसारकू असार जाणि विशुद्ध सम्यग्दर्शनसहित भया संता उत्तमबोधि जो जामैं केवलज्ञान उपजै है ताकै अर्थि दीक्षाकालादिककी निरन्तर भावनाकरणी, ऐसा उपदेश है।११०
१-मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'दीक्खाकालईयं' इसकी संस्कृत 'दीक्षाकालादीय' की है।
२-मुद्रितसंस्कृत प्रतिमें ‘अविचार दंसणविशुद्धो' ऐसे दो पद किये हैं जिनकी संस्कृत 'हे अविचार ! दर्शन वेशुद्धः' इस प्रकार है।
३-संस्कृत टीकामें 'असारसाराणि' का अर्थ ‘सार और असारको जान कर ऐसा किया है।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २३९ आरौं भावलिंग शुद्धकरि द्रव्यलिंग सेवनेका उपदेश करै है,-- गाथा-सेवहि चउविहलिंगं अभंतलिंगसुद्धिमावण्णो ।
बाहिरलिंगमकजं होइ फुडं भावरहियाणं ॥१११॥ संस्कृत-सेवस्व चतुर्विधलिंग अभ्यंतरलिंगशुद्धिमापनः ।
बाह्यलिंगमकार्य भवति स्फुटं भावरहितानाम् ॥१११ अर्थ--हे मुनिवर ! तू अभ्यंतरलिंगकी शुद्धि कहिये शुद्धताकू प्राप्त भया संता च्यार प्रकार बाह्यलिंग है ताहि सेवन करि जाते जे भावरहित हैं तिनिकै प्रगटपणे बाह्यलिंग अकार्य है, कार्यकारी नांही है ॥ __ भावार्थ-जे भावकी शुद्धताकरि रहित हैं अपनी आत्माका यथार्थ श्रद्धान ज्ञान आचरण जिनकै नांही तिनिकै बाह्यलिंग कछू कार्यकारी मांही है, कारण पाय तत्काल विगडे है, तातै थह उपदेश है-पहलैं भावकी शुद्धताकरि द्रव्यलिंग धारणां । सो यह द्रव्यालिंग च्यारि प्रकार कह्या, ताकी सूचना ऐसी जो-मस्तकका, डाढीका, मूंछका, केशांका तौ लौच करनां तीन चिह्न तौ ये अर चौथा नीचले केश राखनां, अथवा वस्त्रका त्याग, केशनिका लौंच करना, शरीरका स्नानादिककरि संस्कार न करना, प्रतिलेखन मयूरपिच्छका राखनां, ऐसैंभी च्यार प्रकार बाह्यलिंग कया है। ऐसैं सर्व बाह्य वस्त्रादिककरि रहित नग्न रहनां, ऐसा नग्नरूप भावविशुद्धिविना हास्यका ठिकाना है अर कछू उत्तम फलभी नाही है ॥ १११ ॥ ___ आगँ कहै है जो-भाव विगडनेंके कारण. च्यार संज्ञा हैं तिनिकरि संसार भ्रमण होय है, यह दिखावै है;गाथा-आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओसि तुमं ।
भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ॥११२॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत-आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञामिः मोहितः असि त्वम् ।
भ्रमितः संसारवने अनादिकालं अनात्मवशः ॥११२॥ ___ अर्थ-हे मुने ! तू आहार भय मैथुन परिग्रह ये च्यारि संज्ञा तिनिकरि मोहित भया अनादिकालतें लगाय पराधीन भया संता संसाररूप वनमैं भ्रम्या ॥ ___ भावार्थ-संज्ञा नाम वांछाका चेत रहनेंका है सो आहारकी दिशि भयकी दिशि मैथुनकी दिशि परिग्रहकी दिशि प्राणीकै निरंतर चेत रहै है, यह जन्मान्तरमैं चली जाय है जन्म लेतेही तत्काल उघडै है, याहीके निमित्त कर्मनिका बंध करि संसारखनमैं भ्रमैं है, तातें मुनिनिकू यह । उपदेश है जो अब इनि संज्ञानिका अभाव करौ ॥ ११२ ॥ __ आगें कहै है जो बाह्य उत्तरगुणकी प्रवृत्तिभी भाव शुद्ध करि करणीं;गाथा-बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि ।
पालहि भावविसुद्धो पूयालामण ईहतो ॥ ११३॥ संस्कृत-बहिःशयनातापनतरुमूलादीन् उत्तरगुमान् ।
पालय भावविशुद्धः पूजालाभं न ईहमानः ॥११३॥ अर्थ-हे मुनिवर ! तू भावकरि विशुद्ध भया संता पूजालाभादिककू न चाहता संता बाह्य शयन आतापन वृक्षमूलयोग धारनां इत्यादिक उत्तरगुण हैं तिनिकू पालि ॥ ___ भावार्थ-शीतकाल मैं बाह्य चौडै सोवनां बैठना, ग्रीष्मकालमैं पर्वतके शिखर सूर्यसन्मुख आतापनयोग धरना, वर्षाकालमैं वृक्षकै मूल योग धरनां जहां बूंद वृक्षपार पडै पीछे भेली होय शरीरपार पडै तहां किछू १-संस्कृत मुद्रिक प्रतिमें “नईहतो" ऐसा एक पद किया है जिसकी संस्कृत 'अनीहमानः' ऐसी की है ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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प्रासुकका भी संकल्प अर बाधा बहुत इनिकू आदि लेकरि ये उत्तरगुण हैं तिनिका पालनां भी भाव शुद्धकरि करनां । भावशुद्धि विना करै तौ तत्काल बिगडै अर फल किछू नाही तातै भाव शुद्ध करि करनेका उपदेश है। ऐसा तो न जाननां जो इनिका बाह्य करनां निषेधै है, ये भी करनें अर भाव शुद्ध करनां यह आशय है । अर केवल पूजालाभादिकै अर्थि अपनी महंतता दिखावनेंकै अर्थि करै तौ कछु फललाभकी प्राप्ति नांही है ॥ ११३॥
आगें तत्त्वकी भावना करनेका उपदेश करै है;गाथा-भावहि पढमं तचं विदियं तदियं चउत्थ पंचमयं ।
तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं ॥११४॥ संस्कृत-भावय प्रथमं तत्त्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थ पंचमकम् ।
त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवगेहरम् ११४ अर्थ-हे मुने ! तू प्रथमतत्त्व जो जीवतत्त्व ताकू भाय, बहुरि द्वितीयतत्त्व जो अजीवतत्त्व ताकू भाय, बहुरि तृतीयतत्व जो आस्त्रवतत्त्व ताकू भाय, बहुरि चतुर्थतत्त्व जो बंधतत्व ताकू भाय, बहुरि पंचमतत्व जो संवरतत्व ताकू भाय, बहुरि त्रिकरण कहिये मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनाकरि शुद्ध भया संता आत्माकू भाय, कैसा है आत्मा आनादिनिधन है, बहुरि कैसा है त्रिवर्ग कहिये धर्म अर्थ काम इनिका हरनेवाला है ॥
भावार्थ-प्रथम जीवतत्त्वकी भावना तो सामान्य जीव दर्शन ज्ञानमयी चेतना स्वरूप है ताकी भावना करनी पीचैं ऐसा मैं हूं ऐसैं आत्मतत्त्वकी भावना करनी, बहुरि दूसरा अजीवतत्त्व है सो सामान्य अचेतन जड है सो पांचभेदरूप पुद्गल धर्म अधर्भ आकाश काल है
अ० व० १६
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित--
इनि• विचारणें पाछै भावना करनी जो ये मैं नही हूं, बहुरि तीसरा आस्त्रवतत्त्व है सो जब पुद्गल के संयोगजनित पाव हैं तिनिमैं अनादिकर्मसंबंध जीवको भाव तौ रागद्वेष मोह हैं अर अजीव पुद्गलके भावकर्मका उप भियाःव अवित कपाय यंग ये व्य आस्रव हैं तिनिकी भावना कानी जो ये मेरै होय हैं मेरै गिद्वेषमोह भाव हैं तिनिकरि कर्मका बंध होय है तिनि” संसार होय है ताक् तिनिका कर्ता न होना, बहुरि चौथा बंधतत्त्व है सो मैं रागद्वेषमो रूप परिणमूंहूं सो तौ मश चेतनाका विभाव है इनितें बंधै हैं ते पुद्गल हैं अर कर्म पुद्गल हैं अर कर्म मुद्गल ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार होय बंधे है ते स्वभाव प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेशरूप च्यार प्रकार होय बंधै हैं ते मेरे विभाव तथा पुद्गलकर्म सर्व हेय हैं संसारके कारण हैं में कू रागद्वेष मोहरूप न होनां ऐसैं भावना कानी, बहुरि पांचवा तत्व संधर है सो रागद्वेषमोहरूप जीवके विभाव हैं तिनिका न होनां अर दर्शन ज्ञानरूप चेतनाभाव थिर होनां यह संबर है सो अपना भाव है अर याही करि पुद्गल कर्मजनित भ्रमण मिटै है ! ऐसें इनि पांच तत्त्वनिकी भावना करनेमैं आत्मतत्वकी भावना प्रधान है ताकरि कर्मकी निर्जरा होय मोक्ष होय है, आत्मा भाव शुद्ध अनुक्रम होनां यह तौ निर्जरातत्व भया अर सर्व कर्मका अभाव होनां यह मोक्षतत्त्व भया । ऐसें सात तत्त्वकी नावना करनी । याहीत आत्मतत्त्वका विशषण किया जो आत्मतत्व कैसा है--धर्म अर्थ काम इस त्रिवर्गका अभाव कर है याकी भावना त्रिवर्गरौं न्यारा चौथा पुरुपार्थ मोक्ष है सो होय है । बहुरि यह आत्मा ज्ञानदर्शनमयीचेतनास्वरूप अनादिनिधन है जाका आदि भी नांही अर निधन कहिये नाश भी नाही। बहुरि भावना नाम बार बार अभ्यास करनां चितवन करनेंका है सो मन करि वचनकरि कायकरि आप करना तथा पर• करावनां करतेकू भला
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अष्टपाहुड भाबपाहुडकी भाषावचनिका । २४३
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जाननां, ऐसें त्रिकरण शुद्ध करि भावना करनी । माया मिथ्या निदान शल्य न राखणीं, ख्याति लाभ पूजाका आशय न राखनां ऐसे तत्वकी भावना करनेंतैं भाव शुद्ध होय हैं याका उदाहरण ऐसा जो-स्त्री आदि इंद्रियगोचर होय व ताकै तत्व विचारनां जो ये स्त्री है सो कहा है ? जीवनामक तत्वकी एक पर्याय है अर याका शरीर है सो पुलकी पर्याय है अर यह हावभाव चेटा करै है सो या जीव के तौ विकार भया है सो आवतत्व है अर बाब देश पुगलकी है, या विकार या स्त्रीकी आमाकै कर्मका बंध होय है, यहु विकार याँकै न होय तौ आव बंध यां न होय । बहुरि कदाचित् मैं भी याकूं देखि विकाररूप परिणमूं तो मेरै भी आस्त्रव बंध होय तातैं मोकूं विकाररूप न होनां यह संवर तत्व है बनैं तौ कछू उपदेश करि याका विकार मेदूं ऐसे तत्व की भावनातैं अपना मात्र अशुद्ध न होय तातैं जो दृष्टिगोचर पदार्थ आवै ताविषै ऐसें तत्वकी भावनां राखणीं यह तत्वकी भावनाका उपदेश है ॥ ११४ ॥
आ है है -- ऐसे तत्वकी भावना जेतैं नांही तेतैं मोक्ष नांही, - गाथा - जाव ण भावड़ तच्च जाव ण चिंतेड़ चिंतणीयाई ।
तावण पावड़ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ॥ ११५ ॥ संस्कृत - यावन्न भावयति तच्चं यावन्न चिंतयति चिंतनीयानि । तावन्न प्राप्नोति जीवः जरामरणविवर्जितं स्थानम् ११५ अर्थ – हेमुने ! तैं यह जीव आदि तत्वनिकूं नांहीं भावै है, बहुरि चितवन करने योग्यकूं नांही वितै है तेतैं जरा अर मरणकरि रहित जो स्थान मोक्ष ताहि नांही पावै है |
भावार्थ-तत्वकी भावना तौ पूर्व कहीं सो चितवन करनें योग्य धर्म शुध्यानका विषयभूत सो ध्येय वस्तु अपनां शुद्ध दर्शनमयी
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
चेतनाभाव अर ऐसाही अरहंत सिद्ध परमेष्ठीका स्वरूप ताका चितवनां जेरौं या आत्माकै नांही ते संसारनै निवृत्त होनां नाही, ताः तत्वकी भावना अर शुद्धस्वरूपका ध्यानका उपाय निरन्तर राखणां यह उपदेश है ॥ ११५ ॥ __ आगें कहै है जो-पाप पुण्यका अर बंध मोक्षका कारण परिणाम ही है,गाथा-पावं हवइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा।
परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिहो ॥११६॥ संस्कृत-पापं भवति अशेष पुण्यमशेषं च भवति परिणामात् ।
परिणामाद्धंधः मोक्षः जिनशासने दृष्टः ॥ ११६ ॥ __ अर्थ--पाप पुण्य बंध मोक्षका कारण परिणामही कह्या तहां जीवके मिथ्यात्व विषय कषाय अशुभलेश्यारूप तीव्र परिणाम होय तिनि” तौ पापास्रवका बंध होय है, बहुरि परमेष्ठीकी भक्ति जीवनिकी दया इत्यादिक मंदकषाय शुभलेश्यारूप परिणाम होय ता” पुण्यास्रवका बंध होय है, अर शुद्ध परिणाम रहित विभावरूप परिणामतें बंध होय है। तहां शुद्ध भावकै सन्मुख रहनां ताके अनुकूल शुभ परिणाम राखने अशुभ परिणाम सर्वथा भेटनां, यह उपदेश है ॥ ११६ ॥
आगैं पुण्य पापका बंध जैसे भावनिकरि होय तिनिकू कहै है, तहां प्रथमही पापबंधके परिणाम कहै है;-- गाथा--मिच्छत्त तह कसायाऽसंजमजोगेहिं असुहलेसेहिं ।
बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्भुहो जीवो॥११७॥ संस्कृत--मिथ्यात्वं तथा कषायासंयमयोगैः अशुभलेश्यैः ।
बध्नाति अशुभं कर्म जिनवचनपराड्यखः जीवः ११७
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका।
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अर्थ-मिथ्यात्व तथा कषाय अर असंयम अर योग ते कैसे, अशुभ है लेश्या जिनिमैं ऐसे भावनि करि तौ यह जीव अशुभ कर्मकू बांधै है, कैसा जीव अशुभ कर्मकू बांधै है-जिनवचन" पराङमुख है सो पाप बाँधै
भावार्थ-मिथ्यात्व भाव तौ तत्वार्थका श्रद्धानरहित परिणाम है, बहुरि कषाय क्रोधादिक हैं, अर असंयम परद्रव्यके ग्रहणरूप है त्यागरूप भाव नाही, ऐसे इंद्रियनिके विषयनितें प्रीति जीवनिकी विराधनासहित भाव है, योग मनवचनकायके निमित्त आत्मप्रदेशका चलनां है । ये भाव हैं ते जब तीव्रकषायसहित कृष्णनील कापोत अशुभ लेश्यारूप होय तब या जीवकै पापकर्मका बंध होय है। तहां पापबंध करनेवाला जीव कैसा है-ताकै जिनवचनकी श्रद्धा नाही, इस विशेषणका आशय यह जो अन्य मतके श्रद्धानीकै जो कदाचित् शुभलेश्याके निमित्त” पुण्यकाभी बंध होय तौ ताकू पापहीमैं गिणिये, अर जो जिन आज्ञामैं प्रवर्ते है ताकै कदाचित् पापभी बंधै तो वह पुण्यजीवनिकी ही पंक्तिमैं गिणिये है, मिथ्यादृष्टीकू पापजीवनिमैं गिण्या है सम्यग्दृष्टीकू पुण्यजीवनिमैं गिण्या है। ऐसैं पापबंधके कारण कहे ॥ ११७ ॥
आण यातें उलटा जीव है सो पुण्य बांधै है, ऐसैं कहै है;गाथा--तविवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो ।
दुविहपयारं बंधइ संखेपेणेव बजरियं ॥११८॥ संस्कृत--तद्विपरीतः बध्नाति शुभकर्म भावशुद्धिमापनः ।
द्विविधप्रकारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितम् ॥११८॥ अर्थ-तिस पूर्वोक्त जिनवचनका श्रद्धानी मिथ्यात्वरहित सम्यग्दृष्टी जीव है सो शुभकर्मकू बांधै है कैसा है जीव भावनिकी जो..
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२४६ पंडित जयचंद्रजी छाबडा विर. चेतवशुद्धि ता• प्रात है । ऐसें दोऊ प्रकार दोऊ शुभाशुभ कर्म बांधे है यह संक्षेपकरि जिन कह्या ॥ ___ भावार्थ--पूर्वं कह्या जिनवचनपराङ्मुल मियात्वसहित जीव तिसतै विपरीत कहिये जिन आज्ञाका श्रद्धानी सम्यादृष्टा जीव है सो विशुद्धभावकू प्राप्त भया शुभकर्म बांधे है जाते याके सम्यक्त्वके माहात्म्यकरि ऐसे उज्ज्वल भाव है ताकरि मिष्टत्वकी लार बंध होती पापप्रकृतिनिका अभाव है, कदाचित् किंचित् कोई पापप्रकृति बधे है तिनिका अनुभाग मंद होय है कळू तीव्र पापफल का दाता नांही तातै सम्यग्दृष्टी शुभकर्महीका बांधनेवाला है । ऐसें शुभ अशुभ कर्मके बंधका संक्षेपकार विधान सर्वज्ञदेव. कया है सो जाननां ॥ ११९ ॥
आगें कहै है जो-हे मुने ! तू ऐसी भावनाकरि;-- गाथा--णाणावरणादीहिं य अहहिं कम्मेहि बेढिओ य अहं ।
डहिऊण इण्हि पयडमि अर्णतणाणाइगुणचित्तां ११९ संस्कृत--ज्ञानावरणादिभिः च अष्टभिः कर्मभिः वेष्टितश्च अहं ।
दग्ध्वा इदानीं प्रकटयामि अनंतज्ञानादिगुणचेतनां। अर्थ--हे मुनिवर ! तू ऐसी भावनाकरि जो मैं ज्ञानवरणकू आदि लेकरि आठ कर्म हैं तिनि बेढयाहूं यातै इनिळू भस्मकरि अनंतज्ञानादि गुण निजस्वरूप चेतनाकू प्रगट करूं ।
भावार्थ-आपकू कर्मनिकरि बेढया मानैं अर तिनिकरि अनंतज्ञानादि गुण आच्छादे मानैं तब तिनि कमानेका नाश करनां विचार, तातें कर्मनिका बंधकी अर तिनिका अभावकी भावना करनेका उपदेश है, अर कर्मनिका अभाव शुद्धस्वरूपके ध्यावनेते होय है सो करनेका उपदेश है। कर्म आठ हैं ते ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अंतराय ये तौ घातिया कर्म हैं; इनिकी प्रकृति सैंतालीस हैं, तिनिमैं केवलज्ञाना
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २४७ वरणौ तौ अनंतज्ञान आच्छादित है, अर केवलदर्शनावरण” अनंतदर्शन आच्छादित है, अर मोहनीयतै अनंतसुख प्रगट न होय है अर अंतरायतें अनंतवीर्य प्रग्ट न होय है सो इनिका नाश करनां । बहुरि च्यारि अघाति कर्म हैं तिनितै अव्याबाध अगुरुलघु सूक्ष्मता अवगाहना ये गुण प्रगट न होय है, इनि अघातिकर्मनिको प्रकृति एकसौ एक है। तिनि घातिकर्मनिका नाश भये अघातिकर्मनिका स्वयमेव अभाव होय है, ऐसें जाननां ॥ ११९॥ __आरौं इनि कर्मनिका नाश होनेकू अनेक प्रकार उपदेश है ताकू संक्षेपकरि कहै है;-- गाथा-सीलसहस्सद्वारस चउरासीगुणगणाण लक्खाई।
भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किंबहुणा॥१२० संस्कृत-शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि ।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किंबहुना१२० __ अर्थ-शील तौ अठारह हजार भेदरूप है बहुरि उत्तरगुण चौरासी लाख हैं तहां आचार्य कहै है जो-हे मुने ! बहुत झूठे प्रलापरूप निरर्थक वचनकरि कहा ? इनि शीलनिकू अर उत्तरगुणनिकू सर्वकू तू निरन्तर भाय, इनिकी भावना चितवन अभ्यास निरन्तर राखे, इनिकी प्राप्ति होय तैसें करि ॥ __भावार्थ-आत्मा जीवनामा वस्तु है सो अनंतधर्मस्वरूप है, संक्षेपकरि याकी दोय परिणति हैं, एक स्वाभाविक एक विभावरूप । तामैं स्वाभाविक तौ शुद्धदर्शनज्ञानमयी चेतनापरिणाम है; अर विभावपरिणाम. कर्मके निमित्त हैं, ते प्रधानकरि तौ मोहकर्मके निमित्ततें भये संक्षेपकरि मिथ्यात्व रागद्वेष हैं तिनिके विस्तारकरि अनेक भेद हैं । बहुरि अन्यकर्मके उदयकरि विभाव होय हैं तिनिमैं पौरुष प्रधान नाही ताते
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
उपदेश अपेक्षा ते गौण हैं । ऐसैं ये शील अर उत्तरगुण स्वभाव विभाव परिणतिके भेदतैं भेदरूपकरि कहे हैं, तहां शीलकी तौ दोय प्रकार प्ररूपणा है - एकतौ स्वद्रव्य परद्रव्यके विभाग अपेक्षा है अर स्त्रीके संसर्गकी अपेक्षा है ! तहां परद्रव्यका संसर्ग मन वचन काय करि होय अर कृत कारित अनुमोदनाकरि होय सो न करणां, इनिकूं परस्पर गुणें नव भेद होंय । बहुरि आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये चार संज्ञा हैं इनिकरि परद्रव्यका संसर्ग होय हैं ताका न होनां यातैं नवभेदनिकूं च्यार संज्ञानि गुणें छत्तीस होंय । बहुरि पांच इंद्रियनिके निमित्ततैं विषयनिका संसर्ग होय है तिनिकी प्रवृत्तिका अभावरूप पांच इंद्रियनिकरि छत्तीसकूं गुणें एकसौ अस्सी होय हैं । बहुरि पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक साधारण ये तौ एकेंद्रिय अर द्वीन्द्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय ऐसें दशभेदरूप जीवनिका संसर्ग इनिकी हिंसारूप प्रवर्त्तनेंतें परिणाम विभावरूप होय हैं सो न करणां, ऐसें एकसौ अस्सी भेदानिकूं दशकरि गुणें अठरासै होय । बहुरि क्रोधादिक कषाय अर असंयम परिणामतैं परद्रव्यसंबंधी विभाव परिणाम होय हैं तिनिके अभावरूप दश लक्षण धर्म हैं तिनितैं गुणें अठारह हजार होय हैं । ऐसें परद्रव्यके संसर्गरूप कुशीलके अभावरूप शीलके अठारह हजार भेद हैं इनके पाले परम ब्रह्मचर्य होय हैं, ब्रह्म कहिये आत्मा ताविषै प्रवर्त्तनां रमनां ताकूं ब्रह्मचर्य कहिये है।
बहुरि स्त्रीके संसर्गकी अपेक्षा ऐसें है, स्त्री दोय प्रकार, तहां अचेतन स्त्री तौ काष्ठ पाषाण लेप कहिये चित्राम ये तान मन अर काय इन दोकर संसर्ग होय, इहां वचन नांही तातें दोयकरि गुणों छह होय । बहुरि कृतकारित अनुमोदनाकरि गुणें अठारह होय । बहुरि पांच इन्द्रियनिक गुणें निव्वै होय । बहुरि द्रव्य भावकरि गुणें एक
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २४९ सौ अस्सी होय । बहुरि क्रोध मान माया लोभ इनि च्यार कषायनिकरि गुणें सातसैवीस होय । बहुरि चेतन स्त्री देवी मनुष्यणी तिर्यंचणी ऐसैं तीन, सो इनि तीननिनैं मन वचन कायकरि गुणें नव होय । तिनि... कृत कारित अनुमोदनाकरि गुणें सत्ताईस होय । तिनिकू पांच इन्द्रियनितें गुणे एकसौ पैंतीस होय तिनिळू द्रव्य अर भाव इनि दोयकरि गुणे दोयसै सत्तरि होय । तिनिकू च्यार संज्ञातें गुणें एक हजार अस्सी होय । इनि• अनंतानुबधी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण संज्वलन क्रोध मान माया लोभ इनि सोलह कषायनितें गुणे सतराहजार दोयसै अस्सी होय है । ऐसैं अचेतनस्त्रीके सातसैवीस मिलाये अठारह हजार होय हैं, ऐसे स्त्रीके संसर्गतै विकार परिणाम होय ते कुशील हैं इनिका अभावरूप परिणाम ते शील हैं याकू भी ब्रह्मचर्यसंज्ञा है ॥
बहुरि चौरासी लाख उत्तरगुण ऐसे है जो आत्माके विभाव परिणामनिके बाह्यकारणनिकी अपेक्षा भेद होय है, तिनिके अभावरूप ये गुणनिके भेद हैं, तिनि विभावनिका संक्षेपकरि भेदनिकी गणना ऐसैंहिंसा १ अनृत २ स्तेय ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया ८ लोभ ९ भय १० जुगुप्सा ११ अरति १२ शोक १३ मनोदुष्टत्व १४ वचनदुष्टत्व १५ कायदुष्टत्व १६ मिध्यात्व १७ प्रमाद १८ पैशून्य १९ अज्ञान २० इन्द्रियनिका अनुग्रह २१ ऐसैं इकईस दोष है, तिनि• अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार अनाचार इनि व्यारनितें गुणें चौरासी होय हैं । बहुरि पृथ्वी अप तेज वायु प्रत्येक साधारण ये तो थावर एकेंद्रिय जीव छह अर विकल तीन पंचेंद्रिय एक ऐसैं जीवनीका दश भेद तिनिका परस्पर आरंभरौं धात होत परस्पर गुणें सौ (१००) होय इनितें चौरासीकू गुणें चौरासी सौ होय है। बहुरि तिनि• दश शील विराधनांत गुणें चौराशी हजार होय, तिनि दशके नाम--स्त्रीसंसर्ग १ पुष्टरसभोजन २
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पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित
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गंधमाल्यका ग्रहण ३ शयनासन सुंदरका ग्रहण ४ भूषणका मंडन ५ गीतवादित्रका प्रसंग ६ धनका संप्रयोजन ७ कुशील का संसर्ग ८ राजसेवा ९ रात्रिसंचरण १० थे दश शील विराधना है। बहुरि तिनिकू आलोचनाके दश दोष हैं जो गुरुनि पासि लगे दंपनिकी आलोचना करे सो सरल होय न करै कळू शल्य राखै ताके दश भेद किये हैं तिनितें गुणें आठ लाख चालीस हजार होय है। बहुरि आलोचनाकू आदि देय प्रायश्चित्तके भेद है तिनितें गुणें चौरासी ठाव होय है । सो सर्व दोषनिके भेद है इनिका अभावतें गुण है इगिकी भावना राखे चितवन अभ्यास राखै इनिकी संपूर्ण प्राप्ति होनेका उपाय राखै, ऐसैं, इनिकी भावनाका उपदेश है। आचार्य कहै है जो बारबार बहुत वचनके प्रलाप करिती कळू साध्य नाही जो कळू आमाके भावकी प्रवृत्तिके व्यवहारके भेद है तिनिळू गुण संज्ञा है तिनिको भावना राखणी बहुरि इहां एता और जाननां जो-गुणस्थान चौदह कहे है तिस परिपाटीकरि गुण दोषनिका विचार है । तहां मिथ्यात्व सासादन मिश्र इनि तीननिमैं तो विभावपरणतिही है तहां तौ गुणका विचार नाही। बहुरि अविरत देशविरत आदिमैं गुणका एकदेश आवे है, तहां अविरतमैं मिथ्यात्व अनंतानुबंधी कषायके अभावरूप गुणका एकदेश सम्यक
अर तीव्र राग द्वेषका अभावरूप गुण आवै है, बहुरि देश विरतमैं कछू व्रतका एकदेश आवै है । अर प्रमत्तमैं महाव्रतरूप सामायिक चारित्रका एकदेश आवै है जातैं पापसंबंधी तो राग द्वेष तहां नाही परन्तु धर्मसंबंधी राग अर सामायिक राग द्वेषका अभावका नाम है तातें सामायिकका एकदेशही कहिये, अर इहां स्वरूपके सन्मुख होनेविर्षे क्रियाकांडके संबंध” प्रमाद है तातै प्रमत्त नाम दिया है। बहुरि अप्रमत्तविर्षे स्वरूप साधनेंविर्षे प्रमादतौ नाही परन्तु कछू स्वरूपके साधनेंका राग व्यक्त है तातें.
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २५१
तहांभी सामायिकका एकदेशही कहिये । बहुरि अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण विषै राग व्यक्त नांही अव्यक्तकषायका सद्भाव है तातैं सामायिक चारित्रकी पूर्णता कही । बहुरि सूक्ष्मसांपराय है सो अव्यक्तकषायभी सूक्ष्म रहिगई। तातैं याका नाम सूक्ष्मसांपराय दिया । बहुरि उपशांतमोह क्षीणमोहविषै कषायका अभावही है तातैं जैसा आत्माका मोहविकाररहित शुद्ध स्वरूप था ताका अनुभव भया तातैं यथाख्यात चारित्र नाम पाया, ऐसैं मोहकर्मके अभावकी अपेक्षा तौ तहांही उत्तरगुणनिकी पूर्णता कहिये परन्तु आत्माका स्वरूप अनंतज्ञानादि स्वरूप है सो घातिकर्मके नाश भये अनंतज्ञानादि प्रगट होय तब सयोगकेवली कहिये तहां भी कछू योगनिकी प्रवृत्ति है या अयोगकेवली चौदमां गुणस्थान है तहां योगनिकी प्रवृत्ति मिटि अवस्थित आत्मा होय जाय है तब चौरासीलाख उत्तरगुणनिकी पूर्णता कहिये । ऐसैं गुणस्थाननिकी अपेक्षा उत्तरगुणनिकी प्रवृत्ति विचारणी । ये बाह्य अपेक्षा भेद है अंतरंग अपेक्षा विचारिये तब संख्यात असंख्यात अनंत भेद होय हैं, ऐसैं जाननां ॥ १२० ॥
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आमैं भेदनिका विकल्प तैं रहित होय ध्यान करनें का उपदेश करे हैं;गाथा - झायहि धम्मं सुकं अट्ट रउदं च झाण मुत्तूण । aer झाइयाई इमेण जीवेण चिरकालं ॥ १२१ ॥ संस्कृत -- ध्याय धर्म्य शुक्लं आत्तं रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा । रौद्रा ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ॥ १२१ ॥ अर्थ — हे मुने ! . तू आर्त्तरौद्र ध्यानकूं छांडि अर शुक्लध्यान हैं तिनिर्हि व्याय जातैं रौद्र अर आर्त्तध्यानतौ या जीवनैं अनादितैं लगाय बहुतकाल ध्याये ॥
भावार्थ- आतरौद्र ध्यान तौ अशुभ हैं संसारके कारण हैं तहां ये दोष ध्यान तौ जीवकै बिना उपदेशही अनादितैं प्रवर्त्ते हैं तातैं तिनिकूं
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित -
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छोडनेका उपदेश है । बहुरि धर्मशुक्ल ध्यान हैं ते स्वर्ग मोक्षके कारण हैं इनिकूं कबहूं घ्याये नांही तातैं तिनिकूं ध्यावनेका उपदेश है। तहां ध्यानका स्वरूप एकाग्रचिंतानिरोध का है - तहां धर्म ध्यान मैं तौ धर्मानुरागका सद्भाव है सो धर्मकै मोक्षमार्गके कारणविषै रागसहित एकाग्रचितानिरोध होय है तातैं शुभरागके निमित्ततैं पुण्यबंध भी हो है अर विशुद्धता के निमित्ततैं पापकर्मकी निर्जराभी होय है । बहुरि शुक्रध्यानमैं आठवें नवमें दशमें गुणस्थान तौ अव्यक्तराग है तहां अनुभव अपेक्षा उपयोग उज्ज्वल है तातैं शुक्लनाम पाया है अर या ऊपरिके गुणस्थाननिमैं राग कषायका अभावही है तातैं सर्वथाही उपयोग उज्ज्वल है तहां शुक्लध्यान युक्तही है । तहां एता विशेष और है जो उपयोगका एकाग्रपणां रूप ध्यानकी स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी कही है तिस अपेक्षा तेरमें चौदमें गुणस्थान ध्यानका उपचार है अर योगक्रिया के थंमनकी अपेक्षा ध्यान कया है । यह शुक्लध्यान कर्मकी निर्जराकरि जीवकूं मोक्ष प्राप्त करै है, ऐसें ध्यानका उपदेश जाननां ॥ १२९ ॥
आगैं कहै है यह ध्यान भावलिंगी मुनिनिकूं मोक्ष करै है; - गाथा - जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति ।
छिंदति भावसवणा झाणकुठारेहिं भवरुक्खं ।। १२२|| संस्कृत---ये केsपि द्रव्यश्रमणा इन्द्रियसुखाकुलाः न छिंदन्ति । छिन्दन्ति भावश्रमणाः ध्यानकुठारैः भववृक्षम् १२२
अर्थ — केई द्रव्यलिंगी श्रमण हैं ते तो इन्द्रियसुखविषै व्याकुल हैं। तिनकै यह धर्मशुक्लध्यान होय नांही ते तौ संसाररूप वृक्षके काटनेकूं समर्थ नांही हैं, बहुरि जे भावलिंगी श्रमण हैं ते ध्यानरूप कुहाडेनिकरि संसाररूप वृक्षकूं का हैं ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २५३.
भावार्थ — जे मुनि द्रव्यलिंग तो धारैं हैं परन्तु परमार्थ सुखका अनुभव जिनिकै न भया तातैं इस लोक परलोकविषै इंन्द्रियनिका सुखहीकूं चाहैं हैं तपश्चरणादिक भी याही अभिलाषतैं करैं हैं तिनिकै धर्म शुक्लध्यान काहे तैं होय ? न होय, बहुरि जिनिमैं परमार्थसुखका आस्वाद लिया तिनिकूं इंन्द्रियसुख दुःख भास्या, तातैं परमार्थ सुखका उपाय धर्म शुक्लध्यान है ताकूं करि संसारका अभाव करैं हैं तातैं भावलिंगी
होय ध्यानका अभ्यास करनां ॥ १२२ ॥
आगैं इसही अर्थं दृष्टान्त करि दृढ करे है, - गाथा --जह दीवो गन्भहरे मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायानिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ ॥ १२३॥ संस्कृत - यथा दीपः गर्भगृहे मारुतबाधाविवर्जितः ज्वलति । तथा रागानिलरहितः ध्यानप्रदीपः अपि प्रज्वलति । अर्थ -- जैसैं दीपक है सो गर्भगृह कहिये जहां पवनका संचार नही ऐसा मध्यका घर ताविषै पवनकी बाधाकरि रहित निश्चल भया उज्ज्वलै है उद्यत करे है तैसे अंतरंग मनविषै रागरूपी पवनकरि रहित ध्यानरूपी दीपक भी प्रज्वलै है एकाग्र होय ठहरै है आत्मरूपकूं प्रकाशै है |
भावार्थ — पूर्वै कह्याथा जो इन्द्रियसुखकरि व्याकुल हैं तिनिकै शुभ'व्यान न होय है ताका यह दीपकका दृष्टान्त है— जहां इन्द्रियनिके सुखविषै जो राग सोही भई पवन सो विद्यमान है तिनिकै ध्यानरूपी दीपक कैसैं निर्वाध उद्योत करै ? न करै, अर जिनिकै यह रागरूप पवन बाधा न करै तिनिकै ध्यानरूप दीपक निश्चल ठहरे है ॥ १२३ ॥
आगैं कहै है- - जो ध्यानविषै परमार्थ ध्येय शुद्ध आत्माका स्वरूप है तिस्वरूपरूपके आराधनेविषै नायक प्रधान पंच परमेष्ठी हैं तिनिकूं ध्यावनां, यह उपदेश करै है; -
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित--
गाथा--झायहि पंचवि गुरवे मंगलचउसरलोयपरियरिए।
सुरले गरमहिए आराहणणायगे व रे ॥१२४॥ संस्बाच अधि शुरून मंगतचतुःशाणपरिकरितान् ।
सुरुवामहितान् अाराधनानाय झान वीरान १२४ अर्थ-डेडले ! - पंच गुरु कहिये पंच परमे। हैं तिनहिं ज्याय, इहां अपि' शब्द है सो सुद्धात्मस्वरूपके ध्यानकू सू है, ते पंच परमेष्ठी कैसे हैं-मंगल कहिये पापका गालण अथवा सुखका देना अर चउशरण कहिये च्यार शरण र लोक कहिये लोककं प्राणी तिनिकरि अरहंत सिद्ध साधु केवलि प्रणीत धर्म ये परिकरित फहिये परिवारित हैं युक्त हैं, बहुरि नर सुर विद्याधरनिकरि महित हैं पूज्य हैं लोकोत्तम कहै हैं, बहुरि आराधानके नायक हैं, बहुरि वीर हैं कर्मनिके जीतनेंकू सुभट हैं तथा विशिष्ट लक्ष्माकू प्राप्त हैं तथा देहैं, ऐसे पंच परम गुरुकू ध्याय ॥ __भावार्थ-इहां पंच परमेष्ठीकू ध्यावनां कह्या तह ध्यानविर्षे विघ्नके निवारनेवाले च्यार मंगलस्वरूप कहे ते येही हैं, बहुति च्यार शरण अर लोकोत्तम कहे हैं ते भी इनिहीकू कहे हैं; इनिसिवाय प्राणीकू अन्य शरणां रक्षा करनेवालाभी नाही है, अर लोकवि उत्तमभी येही हैं, बहुरि आराधना दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये च्यार हैं ताकै नायक स्वामीभी येही हैं, कर्मनिषं जीतनेवालेभी येही हैं। तातें ध्यानके कत• इनिका ध्यान श्रेष्ठ है, शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति इनिहीके ध्यान होय है तातै यह उपदेश है ॥ १२४ ॥ ___ आगै ध्यान है सो ज्ञानका एकाग्र होनां है सो ज्ञानका अनुभवन का उपदेश करै है;
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषाघचनिका। २५५ गाथा--णाणमयविपलसीयलसलिलं पाऊग भविय भावेण ।
बाहिजर मरणयगडाहविमुक्का सिबा होति ॥१२५॥ संस्कृत--ज्ञानमविलशीतलसलिलं प्राप्य भव्याः भावेन ।
व्याधिशामा लामाहनिमुक्काः निवाः भवन्ति। अर्थ----भव्यजांत्र हैं ते ज्ञानमयी निर्मल शीतल जल है ताहि सम्यक्त्वभावकीर सहित रोयकारे अर व्याधिस्वरूप जो जरा मरण ताकी वेदना पीडा ताहि भ म करि मुक्त कहिये संसारसे रहित शिव कहिये परमानंद सुखरूप ह य हैं । ___ भावार्थ-जैसैं निर्मल अर शीतल ऐसे जलके पीये पित्तका दाहरूप व्याधि मिटै अर सा ।। होय है तैसैं यह ज्ञान है सो जब रागादिकमलतें रहित निर्मल होय अर आकुलतारहित शांतभावरूप होय ताकी भावनाकरि रुचि श्रद्धा प्रतीतिकरि पीवै या तन्मय होय तो जरा मरणरूप दाह वेदना मिटि जाय अर संसार” निवृत्त होय सुखरूप होय, तातें भव्यजीवनिकू यह उपदेश है जो ज्ञानमैं लीन होहू ॥ १२५ ॥ ___ आनें कहै है जो-या ध्यानरूप अग्निकरि संसारका बीज आठ कर्म एक बार दग्ध भये पीछ फेरि संसार न होय है, सो यह बीज भावमुनिकै दा होय है:-- गाथा—जह बी म्मि य दड़े ण वि रोहइ अंकुरो य महिवीढे।
तह कम्मवीयदड़े भवंकुरो भावसवणाणं ॥१२६॥ संस्कृत-यथा बीजे च दग्धे नापि रोहति अंकुरश्च महीपीठे।
तथा कर्मधीजदग्धे भवांकुरः भावश्रमणानाम् ॥१२६॥ ___ अर्थ-जैसैं पृर्खाके स्थलविर्षे वीज दग्ध होते संतॆ तिसका अंकुर है सो फेरि नाही ऊग है तैसैं जे भावलिंगी श्रमण हैं तिनिकै संसारका
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२५६ पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचितकर्मरूपी बीज दग्ध हो जाय है, या” संसाररूप अंकुरा फेरि नाही होय
भावार्थ-संसारका बीज ज्ञानावरणादिक कर्म है सो कर्म भावश्रमणकै ध्यानरूप अग्निकरि दग्ध हो जाय है तातै फेरि संसाररूप अंकुरा काहेरौं होय ? तातै भावश्रमण होय धर्म शुक्लध्यानतें कर्मका नाश करना योग्य है, यह उपदेश है । कोई सर्वथा एकांती अन्यथा कहै जो कर्म अनादि है ताका अंत भी नाही, ताका यह निषेध भी है, बीज अनादि है सो एक बार दग्ध भये पीछै फेरि न ऊगै तैसें जाननां ॥ १२६ ।। ___ आगैं संक्षेपकरि उपदेश करै है,गाथा-भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणोय। _ इय गाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होइ ॥१२७॥ संस्कृत-भावश्रमणः अपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि
द्रव्यश्रमणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव ॥१२७॥ अर्थ-भावश्रमण तो सुखनिकू पावै है बहुरि द्रव्यश्रमण है सो दुःखनिकू पावै है ऐसे गुण दोषनिकू जाणि हे जीव तू भावकरि संयुक्त संयमी होहु ।। ___ भावार्थ-सम्यग्दर्शनसहित तौ भावश्रमण होय है सो संसारका अभावकरि सुखनिकू पावै है, अर मिथ्यात्वसहित द्रव्यश्रमण भेषमात्र होय है सो संसारका अभाव न करि सकै है तातै दुःखनिळू पावै है यात उपदेश कर है जो दोऊका गुण दोष जाणि भावसंयमी होनां योग्य है, यह सर्व उपदेशका संक्षेप है ॥ १२७ ॥
आगँ फेरिभी याहीका उपदेश अर्थरूप संक्षेपकीर कहै है,
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अष्टपाहुड भावपाहुडकी भाषावचनिका । २५७
गाथा - तित्थयरगणहराई अन्भुदयपरंपराई सोक्खाई ।
पार्वति भावसहिया संखे वि जिणेहिं वज्जरियं ॥ १२८॥ संस्कृत - तीर्थ करगणधरादीनि अभ्युदयपरंपराणि सौख्यानि । प्राप्नुवंति भावश्रमणाः संक्षेपेण जिनैः भणितम् १२८ अर्थ — जे भावसहित मुनि हैं ते अभ्युदयसहित तीर्थंकर गणधर आदि पदवी सुख तिनिकूं पावैं हैं यह संक्षेपकरि कया है ॥
भावार्थ—तोर्थंकर गणधर चक्रवर्ती आदि पदवी के सुख बडे अभ्यु - दयसहित हैं तिनहिं भावसहित सम्यग्दृष्टी मुनि हैं ते पावैं हैं, यह सर्व उपदेशका संक्षेपकरि उपदेश कया है तातैं भावसहित मुनि होनां योग्य है ॥ १२८ ॥
आगें आचार्य कहै है जो जे भावश्रमण हैं ते धन्य हैं तिनिकूं हमारा नमस्कार होहू ;गाथा -- ते घण्णा ताण णमो दंसणवरणातसुद्वाणं ।
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भावसहियाण णिचं तिविहेण पायाणं ॥ १२९ ॥ संस्कृत - ते धन्याः तेभ्यः नमः दर्शनवरज्ञान चरणशुद्धेभ्यः । भावसहितेभ्यः नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः १२९ सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ विशिष्ट ज्ञान भावकरि सहित हैं, बहुरि जिनिकै ऐसे हैं ते धन्य हैं
अर्थ — आचार्य कहै है जो जे मुनि अर निर्दोष चारित्र इनिकारे शुद्ध हैं याही प्रणष्ट भई है माया कहिये कपटपरिणाम तिनिकै आर्थ हमारा मन वचन कायकरि सदा नमस्कार होहु || भावार्थ-भावलिंगीनिमैं दर्शन ज्ञान चारित्रकरि जे शुद्ध हैं तिनिकी आचार्यनिकैं भक्ति उपजी है तातैं तिनिकूं धन्य कहिकरि नमस्कार किया है सो युक्त है, जिनिकै मोक्षमार्गविषै अनुराग है जे तिनिमैं मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिमैं प्रधानता दीखै तिनिकूं नमस्कार करैं ही करें ॥ १२९ ॥
अ० व० १७
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२५८
अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
आगे कहै है - जे भावश्रमण है ते देवादिककी ऋद्धि देखि मोहकं प्राप्त न होय है;
गाथा - इड्रिमतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिस अमरखयरेहिं ।
तेहिं विण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो ॥ १३० ॥ संस्कृत-- ऋद्धिमतुलां विकुर्वद्भिः किंनरकिंपुरुषामरखचरैः । तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावितः धीरः १३० अर्थ — जिनभावना जो सम्यक्त्वभावना ताकरि वासित जो जीव है। सो किंनर किंपुरुष देव अर कल्पवासी देव अर विद्याधर इनिकरि विक्रि यारूप विस्तारी जो अतुल ऋद्धि तिनिकार मोहकूं प्राप्त न होय है जात कैसा है सम्यग्दृष्टी जीव धीर है दृढबुद्धि है निःशंकित अंगका धारक है ॥
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भावार्थ — जिसकै जिनसम्यक्त्व दृढ है तिसकै संसारकी ऋद्धि तृण चत् है परमार्थसुखही की भावना है विनाशीक ऋद्धिकी वांछा काहेकुं होय ? ॥ १३० ॥
आगैं इसहीका समर्थन है जो — ऐसी ऋद्धि ही न चाहै तौ अन्य सांसारिक सुखकी कहा कथा ! ;--
गाथा -- किं पुण गच्छ मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं । जाणतो पस्तो चिंततो मोक्ख मुणिधवलो ॥ १३१ ॥ संस्कृत - किं पुनः गच्छति मोहं नरसुरसुखानां अल्पसाराणाम् । जानन् पश्यन् चिंतयन् मोक्षं मुनिधवलः ॥ १३१ ॥ अर्थ — सम्यग्दृष्टी जीव पूर्वोक्त प्रकारकी ही ऋद्धिकं न चाहै तौ मुनिधवल कहिये मुनिप्रधान है सो अन्य जे मनुष्य देवनिके सुख
१ – संस्कृत मुद्रित प्रतिमें 'विकृतां' ऐसा पाठ है ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
२५९
भोगादिक जिनिमैं अल्पसार ऐसे जिनिविषै कहा मोहकूं प्राप्त होय ? कैसा है मुनिधवल—– मोक्षकूं जानता है तिसहीकी तरफ दृष्टि है तिसहीका चिंतन करै है |
भावार्थ - जे मुनिप्रधान हैं. तिनिकी भावना मोक्षके सुखनिमैं है ते बडी बडी देव विद्याधरनिकी फैलाई विक्रियाऋद्धि विषैही लालसा न करै तौ किंचित्मात्र विनाशीक जे मनुष्य देवनिका भोगादिकका सुख तिनिविषै वांछा कैसे करे ? न करै ॥ १३१ ॥
आगें उपदेश करे है जो जेतैं जरा आदिक न आवैं ते तैं अपनां हित करौ;
गाथा - उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहह देहउडिं । इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥ १३२ संस्कृत--आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम् । इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम् १३२ अर्थ — हे मुने ! जेतैं तेरे जरा वृद्धपणां न आवै बहुरि रोगरूप अग्नि तेरी देहरूप कुटीकूं जेतैं दग्ध न करै बहुरि जेतैं इन्द्रियनिका बल न घटै तेतैं अपना हितकूं करि ॥
भावार्थ वृद्ध अवस्थामैं देह रोगनिकरि जर्जरी होय इंद्रिय क्षीण पड़े तब असमर्थ भया इस लोकके कार्य उठनां बैठनां भी न करि सकै तब परलोक संबंधी तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास स्वरूपका अनुभवादिक कार्य कैसे करे तातैं यह उपदेश है जो-जेतैं सामर्थ्य है तेतैं अपन हितरूप कार्य करिल्यो ॥ १३२ ॥
आगैं अहिंसाधर्मका उपदेश वर्णन करे है:
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-छज्जीव षडायदणं णिचं मणवयणकायजोएहिं ।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं ॥१३३॥ संस्कृत--पद्जीवान् पडायतनानां नित्यं मनोवचनकाययोगैः ।
कुरु दयां परिहर मुनिवर भावय अपूर्व महासत्त्वम् । अर्थ-हे मुनिवर ! तू छहकायके जीवनिर्क दयाकरि, बहुरि छह अनायतनकू परिहरि छोडि, कैसै छोडि-मन वचन कायके योगनिकरि छोडि; बहुरि अपूर्व जो पूर्वं न भया ऐसा महासत्त्व कहिये सर्व जीवनिमैं व्यापक महासत्त्व चेतनाभाव ताहि भाय ॥ ___ भावार्थ---अनादिकालतें जीवका स्वरूप चेतनास्वरूप न जाण्या तातै जीवनिकी हिंसा करी तातें यह उपदेश है जो अब जीवात्माका स्वरूप जाणि छह कायके जीवनिकी दया करि। बहुरि अनादिहीते आप्त आगम पदार्थका अर इनका सेवनेंवालाका स्वरूप जाण्यां नाही तातें अनाप्त आदि छह अनायतन जे मोक्षमार्गके ठिकाणे नाही तिनिळू भले जांणि सेवन किया तातैं यह उपदेश है जो--अनायतनका परिहार करि जीवका स्वरूपका उपदेशक ये दोऊही तैं पूर्वै जाणे नाही भाया नाहीं तातें अब भाय, ऐसा उपदेश है ॥ १३३ ॥
आगैं कहै है जो-जीवका तथा उपदेश करनेवालाका स्वरूप जाण्यां विना सर्वजीवनिके प्राणनिका आहार किया ऐसे दिखावै है,-- गाथा--दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण ।
भोयसुहकारणहं कदोय तिविहेण सयलजीवाणं १३४ १-मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'महासत्त' ऐसा संवेधनपद किया है जिसकी संस्कृत 'महासत्त्व' है।
२–मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'षट्जीवषडायतनानां ' एक पद किया है।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिको।
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संस्कृत-दशविधप्राणाहारः अनंतभवसागरे भ्रमता।
भोगसुखकारणार्थ कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानां ॥ अर्थ—हे मुने ! तैं अनंतभवसागरमैं भ्रमता सकल त्रस थावर जीवनिके दशविध प्राणनिका आहार, भोग सुखकै कारणकै अर्थि मन वचनकायकरि किया ॥ ____ भावार्थ-अनादिकालौं जिनमतका उपदेशविना अज्ञानी भयातें त्रसथावर जीवनिके प्राणनिका आहार किया तातैं अब जीवनिका स्वरूप जांणि जीवनिकी दया पालि भोगाभिलाष छोडि, यह उपदेश है ॥१३४॥
फेरि कहै है--ऐसे प्राणीनिकी हिंसाकरि संसारमैं भ्रमिकरि दुःख पाया;गाथा-पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि ।
उप्पजत मरंतो पत्तोसि निरंतरं दुक्खं ॥१३५॥ संस्कृत-प्राणिवधैः महायशः ! चतुरशीतिलक्षयोनिमध्ये ।
उत्पद्यमानः म्रियमाणःप्राप्तोऽसि निरंतरं दुःखम् १३५ अर्थ-हे मुने ! हे महायश ! तँ प्राणीनिके घातकरि चौरासी लाख योनिकै मध्य उपजत अर मरतें निरंतर दुःख पाया ॥
भावार्थ-जिनमतके उपदेश विना जीवनिकी हिंसा करि यह जीव चौरासी लाख योनिमैं उपजै है अर मरै है, हिंसातें कर्मबंध होय है, कर्म बंधके उदयतें उत्पत्तिमरणरूप संसार होय है; ऐसें जन्म मरणका दुःखं सहै है तातै जीवनिकी दयाका उपदेश है ॥ ___ आगैं तिस दयाहीका उपदेश करै है;गाथा-जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं ।
कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए ॥१३६॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत -- जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभूतसत्त्वानाम् । कल्याणसुखनिमित्तं परं परया त्रिविधशुद्धया ॥ १३६ ॥
अर्थ – हे मुने ! जीवनिकूं अर प्राणीभूत सत्त्व इनिकूं अपनां परं - परायकरि कल्याण अर सुख ताकै अर्थ मन वचन कायकी शुद्धताकरि अभयदान दे ||
भावार्थ - जीव तौ पंचेंद्रियनिकूं कहे हैं अर प्राणी विकलत्रयकूं कहे हैं अर भूत वनस्पतीकूं कहे है अर सत्त्व पृथ्वी अप तेज वायु इनिकूं कहे हैं । इनि सर्व जीवनिकूं आप समान जांणि अभयदान देनेंका उपदेश है, यातें शुभ प्रकृतिनिका बंध होनेंतें अभ्युदयका सुख होय है परंपराकरि तीर्थकर पद पाय मोक्ष पात्रै है, यह उपदेश है ॥ १३६ ॥
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आगे यह जीव पट् अनायतन के प्रसंगकरि मिथ्यात्वतें संसार मैं भ्रमै है ताका स्वरूप है है, तहां प्रथमही मिथ्यात्वके भेदनिकूं कहै. है; -
गाथा — असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तट्टी अण्णाणी वेणैया होंति बत्तीसा ॥ १३७ ॥ संस्कृत - अशीतिशतं क्रियावादिनामक्रियाणं च भवति
चतुरशीतिः । सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवति द्वात्रिंशत् १३७
अर्थ — एकसौ अस्सी तौ क्रियावादी हैं चौरासी अक्रियावादीनिके भेद हैं अज्ञानी सडसठि भेदरूप हैं विनयवादी बत्तीस हैं |
भावार्थ–वस्तुका स्वरूप अनंत धर्म स्वरूप सर्वज्ञ का है सो प्रमाण नयकरि सत्यार्थ सधै है, तहां जिन्होंके मतमैं सर्वज्ञ नांही तथा सर्वज्ञका स्वरूप यथार्थ निश्चयकरि तका श्रद्धान न किया ऐसे अन्य -
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २६३
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वादी तिनि वस्तुका एक धर्म ग्रहणकरि तिसका पक्षपात किया जो - हमनैं ऐसैं मान्या है सो ऐसैंही है अन्य प्रकार नांही है । ऐसैं विधि निषेधकर एक एक धर्मके पक्षपाती भये तिनके ये संक्षेपकरि तीनसह तेरसठि भेद भये ।
तहां केई तौ गमन करनां बैठनां खड़ा रहनां खानां पीनां सोवनां उपजनां विनसनां देखनां जाननां करनां भोगनां भूलनां यादि करनां प्रीति, हर्ष करनां विषाद करनां द्वेष करनां जीवनां मरना इत्यादिक क्रिया हैं तिनिकूं जीवादिक पदार्थनिकै देखि कोई कैसी क्रियाका पक्ष किया है. कोईनें कैसी क्रियाका पक्ष किया है ऐसें परस्पर क्रियाविवादकार भेद भये हैं तिनिके संक्षेपकरि एकसौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं, विस्तार किये बहुत होय हैं । बहुरि केई अक्रियावादी हैं तिनिनैं जीवादिक पदार्थनिविषै क्रियाका अभाव मांनि परस्पर विवाद करें हैं, केई कहैं हैं जीव जानें नांही है, केई कहैं हैं कछू करे नांही हैं, केई कहैं हैं भोग नही है, केई कहैं है उपजै नांही है, केई कहै हैं विनसे नांही है, केई कहैं हैं गमन नांही करे है, केई कहैं हैं तिष्ठे नांही है इत्यादिक क्रियाके अभावका पक्षपातकरि सर्वथा एकान्ती होय हैं तिनिके संक्षेपकरि चौरासी भेद किये हैं बहुरि केई अज्ञानवादी हैं, तिनिमैं केई तौ सर्वज्ञका अ मानें हैं, केई कहैं हैं जीव अस्ति है यह कौन जानें, केई कहैं हैं जीव नास्ति हैं यह कौन जानें, केई कहैं हैं जीव नित्य है यह कौन जानें,
ई हैं हैं जीव अनित्य है यह कौन जानैं; इत्यादिक संशय विपर्यय अनध्यवसायरूप भये विवाद करें हैं, तिनिके संक्षेपकरि सडसठ भेद कहे हैं । बहुरि केई, विनयवादी हैं, ते केई कहैं है देवादिकका विनयतें सिद्धि है, केई कहैं है गुरुके, विनयतें सिद्धि है, केई कहैं है माता के विनयतें सिद्धि है, केई कहैं हैं पिताके विनय सिद्धि है केई कहैं हैं .
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
राजाके विनयतें सिद्धि है, केई कहैं हैं सर्वके विनयतें सिद्धि है इत्यादिक विवाद करैं है तिनिके संक्षेपकरि बत्तीस भेद किये है । ऐसें सर्वथा एकांतीनिके तीनसह तरेसठि भेद संक्षेपकार किये हैं, विस्तार किये बहुत हो हैं इनिमैं केई ईश्वरवादी है कई कालवादी हैं, केई स्वभाववादी है, केई विनयवादी हैं, केई आत्मावादी हैं तिनिका स्वरूप गोमट्टसारादि ग्रंथनितैं जाननां, ऐसें मिथ्यात्वके भेद हैं ॥ १३७॥
आगे कहै है— अभव्यजीव है सो अपनी प्रकृतिकं छोड़े नांही ताका मिथ्यात्व मिटै नांही है;
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गाथा - मुयह पयड अभव्वो सुट्ट वि आयणिऊण जिणधम्मं । गुडदुद्धं पि पिचंताण पण्णया णिव्विसा होंति ॥ १३८ ॥ संस्कृत--न मुंचति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्मम् गुडदुग्धमपि पितः न पन्नगाः निर्विषाः भवंति ९३८
अर्थ — अभव्यजीव है सो भलै प्रकार जिनधर्म है ताहि सुणिकरभी अपनी प्रकृति स्वभाव है ताहि न छोडै है, इहां दृष्टांत जे सर्प हैं ते गुडसहित दुग्धकूं पीवते संते भी विषरहित नांही होय हैं ॥
भावार्थ --- जो कारण पाय भी न छूटै ताकूं प्रकृति स्वभाव कहिये है, जो अभव्यका स्वभाव यह है जो अनेकांत है तत्वस्वरूप जा मैं ऐसा वीतरागविज्ञानस्वरूप जिनधर्म मिथ्यात्व का मैंटनेवाला है ताका भलैप्रकार स्वरूप सुणिकरिभी जाका मिथ्यात्वस्वरूप भाव बदल नांही है सो यह वस्तुका स्वरूप है काहूका किया नांही । इहां उपदेश अपेक्षा ऐसैं जाननां जो अभव्यरूप प्रकृति तौ सर्वज्ञगम्य है तथापि अभव्यकी प्रकृति सारिखी प्रकृति न राखणी, मिथ्यात्व छोडनां यह उपदेश है ॥ १३८ ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २६५ आ याही अर्थ· दृढ करै है;गाथा-मिच्छत्तछण्णदिट्टी दुद्धीए दुम्मएहिं दोसेहिं ।
धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवोण रोचेदि ॥१३९॥ संस्कृत-मिथ्यात्वछन्नदृष्टिः दुधिया दुर्मतैः दोषैः ।
धर्म जिनप्रज्ञप्तं अभव्यजीवः न रोचयति ॥१३९॥ . अर्थ--अभव्यजीव है सो जिनप्रणीत धर्म है ताहि न रोचै है न श्रद्धै है रुचि न करै है, जातें कसा है अभव्यजीव दुर्मत जे सर्वथा एकान्ती तिनिके प्ररूपे अन्यमत तेही भये दोष तिनिकरि अपनी दुर्बुद्धिकरि मिथ्यात्वतें आच्छादित है बुद्धि जाकी॥ ___ भावार्थ-मिथ्यात्वके उपदेशकरि अपनी दुर्बद्धिकरि जाकै मिथ्या दृष्टि है ताकू जिनधर्म न रुचै है तब जाणिये यह अभव्यजीवके भाव हैं यथार्थ अभव्यजीवकू तौ सर्वज्ञ जाण है अर ये अभव्यके चिह्न है तिनितें परीक्षाकरि जानिये हैं ॥ १३९ ॥ ___ आनें कहै है जो ऐसे मिथ्यात्वके निमित्ततें दुर्गतिका पात्र होय है गाथा--कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडि भत्तिसंजुत्तो।
कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ॥१४०॥ संस्कृत-कुत्सितधर्मे रतः कुत्सितपाषंडिभक्तिसंयुक्तः। - कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगतिभाजनं भवति १४० ___भावार्थ-आचार्य कहै है जो-कुत्सित निंद्य मिथ्याधर्ममैं रत है लीन है, अंर जो पाषंडी निंद्यभेषी तिनिकी भक्तिसंयुक्त है बहुरि जो निंद्य मिथ्याधर्म सेवै मिथ्यादृष्टीनिकी भक्ति करै मिथ्या अज्ञानतप करै सो दुर्गतिहि पावै तातै मिथ्यात्व छोडनां यह उपदेश है ॥ १४० ॥
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पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
आगैं इसही अर्थकू दृढ़ करते संते ऐसैं कहै है जो ऐसें मिथ्यात्वकरि मोह्या जीव संसारमैं भ्रम्या;गाथा-इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो ।
. भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ॥१४१॥ संस्कृत-इति मिथ्यात्वावासे कुनयकुशास्त्रैः मोहितः जीवः । . भ्रमितः अनादिकालं संसारे धीर! चिन्तय ॥१४१।। __ अर्थ-इति कहिये पूर्वोक्त प्रकार मिथ्यात्वका आवास ठिकाणां जो यह मिथ्यादृष्टीनिका संसार ताविर्षे कुनय जो सर्वथा एकान्त तिनिसहित जे कुशास्त्र तिनिकरि मोह्या बेचेत भया जो यह जीव सो अनादिकालतें लगाय संसारविर्षे भ्रम्या, ऐसे हे धीर ! मुने ! तू विचारि ॥
भावार्थ-आचार्य कहे है जो पूर्वोक्त तीनसो तरेसठि कुवादिनिकरि सर्वथा एकांतपक्षरूप कुनयकरि रचे शास्त्र तिनिकरि मोहित भया यह जीव संसारविर्षे अनादित भ्रमै है, सो हे धीरमुनि ! अब ऐसे कुवादिनिकी संगतिभी मति करै, यह उपदेश है ॥ १४१ ॥ ___ आगें कहै है जो पूर्वोक्त तीनसौ तरेसठि पापडीनिका मार्ग छोड़ि जिनमार्गविौं मन लगावो;गाथा--पासंडी तिणि सया तिसहिभेया उमग्ग मुत्तूण ।
रंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा ॥१४२॥ संस्कृत-पाषण्डिनः त्रीणि शतानि त्रिषष्टिभेदाः उन्मार्ग मुक्त्वा।
रुन्द्धि मनः जिनमार्गे असत्प्रलापेन किंबहुना १४२ अर्थ—हे जीव ! तीनसौ तरेसठि पाषंडी कहे तिनिका मार्ग• छोड़ि अर जिनमार्गविर्षे अपने मनकू थामि यह संक्षेप है, और निरर्थक प्रलापरूप कहनेंकरि कहा ? ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २६७ भावार्थ—ऐसे मिथ्यात्वका निरूपण किया तहां आचार्य कहै है. जो बहुत निरर्थक वचनालापकरि कहा ? एता ही संक्षेप करि कहै हैंजो तीनसौ तरेसठि कुवादि पाषंडी कहे तिनिका मार्ग छोडिकरि जिनमार्गविषै मनकू थांभनां, अन्यत्र जाने न देना। इहां इतनां विशेष और, जाननां जो-कालदोष" इस पंचमकालमैं अनेक पक्षपातकरि मतांतर भये. हैं तिनिकू भी मिथ्या जाणि तिनिका प्रसंग न करना, सर्वथा एकान्तका पक्षपात छोड़ि अनेकान्तरूप जिनवचनका शरण लेणां ॥ १४२ ॥ .
आगें सम्यग्दर्शनका निरूपण करै है, तहां कहै है-जो सम्यग्दर्शन रहित प्राणी है सो चालता मृतक है,गाथा-जीवविमुको सवओ देसणमुक्को य होइ चलसवओ।
सवओ लोयअपुजो लोउत्तरयम्मि चलसवओ॥१४३॥. संस्कृत-जीवविमुक्तः शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवः ।
. शवः लोके अपूज्यः लोकोत्तरे चलशवः ॥१४३॥ ___ अर्थ-लोकविर्षे जीवकरि रहित होय ताकू शव कहिये मृतक मुरदा कहिये है तैसैंही जो सम्यग्दर्शनकरि रहित पुरुष है सो चालता मृतक है, बहुरि मृतक तौ लोकविर्षे अपूज्यहै अग्निकरि दग्ध कीजिये है तथा. पृथ्वीमैं गाडिये है अर दर्शनरहित चालता मुरदाहै सो लोकोत्तर जे मुनि सम्यग्दृष्टी तिनिकै विर्षे अपूज्यहैं ते ताकू वंदनादिक नाही करें हैं, मुनिभेष धरै तौऊ संघवाह्य राबैं हैं अथवा परलोकमैं निंद्यगति पाय अपूज्य होय हैं ॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शन बिना पुरुष मृतकतुल्य है ॥ १४३ ॥
आगें सम्यक्त्वका महान्पणां कहै है,-- गाथा—जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं ।
अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं १४४
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. २६८
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
संस्कृत - यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजः मृगकुलानां सर्वेषाम् । अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावक द्विविधधर्माणाम् १४४ अर्थ —— जैसें तारानिके समूहविषै चंद्रमा अधिक है बहुरि मृगकुल कहिये पशूनिके समूहविषै मृगराज कहिये सिंह सो अधिक है तैसें ऋषि कहिये मुनि अर श्रावक ऐसें दोय प्रकार धर्मनिविषै सम्यक्व है सो अधिक है ॥
भावार्थ-व्यवहारधर्म की जेती प्रवृत्ति हैं तिनिमैं सम्यक्त्व अधिक है या विनां सर्व संसारमार्ग बंधका कारण है ॥ १४४ ॥
फेरि कहै है; —
गाथा --जह फणिराओ सोहई फणमणिमाणिक किरण विष्फुरिओ तह विमलदंसणधरो जिर्णभत्तीपवयणे जीवो ॥ १४५॥ संस्कृत - यथा फणिराजः शोभते फणमणिमाणिक्य
किरण विस्फुरितः । तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिः प्रवचने जीवः १४५ अर्थ — जैसैं फणिराज कहिये धरणेंद्र है सो फण जो सहस्र फण तिनिमैं जे मणि तिनके मध्य जे रक्त माणिक्य ताकी किरणनिकरि विस्फुरित कहिये देदीप्यमान सोहैं हैं तैसें निर्मल सम्यग्दर्शनका धारक जीव है सो जिनभक्तिसहित है या प्रवचन जो मोक्षमार्गका प्ररूपण ताविषै सो है है |
भावार्थ–सम्यक्त्वसहित जीवकी जिन प्रवचनविषै बड़ी अधिकता है जहां तहां शास्त्रविषै सम्यक्त्वकी ही प्रधानता कही है ॥ १४५ ॥
१ - - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' रेहइ ' ऐसा पाठ है जिसका 'राजते' संस्कृत है। २ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'जिणभत्तीपवयणो' ऐसा एकपदरूप पद है जिसकी संस्कृत “ जिनभक्तिप्रवचनः " है । यह पाठ यतिभंग सा मालूम होता है ।
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २६९.
आगैं सम्यग्दर्शनसहित लिंग है ताकी महिमा कहै है ;गाथा - जह तारायण सहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले । भाविय तेववयविमलं जिंगलिंगं दंसणविसुद्धं ॥ १४६ ॥ संस्कृत - यथा तारागणसहितं शशघरबिंबं खमंडले मिले । भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शनविशुद्धम् १४६
अर्थ — जैसैं निर्मल आकाशमंडलविषै तारानिके समूह सहित चंद्रमाका बिंब सोहै है तैसैंही जिनशासनविषै दर्शनकरि विशुद्ध अर भावित किये जे तप अर व्रत तिनिकरि निर्मल जिनलिंग है सो सोहै है |
भावार्थ—जिनलिंग कहिये निर्ग्रन्थ मुनिभेष है सो यद्यपि तपत्र -- निकार सहित निर्मल है तौऊ सम्यग्दर्शन विनां सोहै नहीं, या सहित होय तब अत्यंत शोभायमान होय है ॥ १४६ ॥
आगैं कहै है जो ऐसैं जाणिकरि दर्शनरत्नकूं धारो, ऐसैं उपदेश करे
है; -
गाथा - इय गाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेग |
सारं गुणरयगाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स || १४७॥ संस्कृत - इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरत भावेन ।
सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ १४७॥ अर्थ — हे सुने ! तू इति कहिये पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके तौ गुण अर मिथ्यात्वके दोष तिनहिं जाणिकरि सम्यक्त्वरूप रत्न है ताहि भाव -- र, कैसा है सम्यक्त्वरत्न - गुणरूप जे रत्न हैं तिनिमैं सार है उत्तम है, बहुरि कैसा है-मोक्षरूप मंदिरका प्रथम सोपान है चढ़नेकी पहली पैडी है |
"
१ - मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' तह वयविमलं' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत
<
तथा व्रतविमलं ' है। २ इस गाथाका चतुर्थ पाद यतिभंग है । इसकी जगह पर ' जिणलिंगं दंसणेण सुविसुद्धं' होना ठीक जंचता है |
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२७० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ भावार्थ-जेते व्यवहार मोक्षमार्गके अंग हैं गृहस्थकै तौ दानपूजादिक अर मुनिकै महाव्रत शीलसंयमादिक, तिनि) सर्वमैं सार सम्यग्दर्शन है यारौं सर्व सफल है, ता” मिथ्यात्वकू छोड़ि सम्यग्दर्शन अंगीकार करनां यह प्रधान उपदेश है ॥ १४७ ॥
आर्गे कहै है जो सम्यग्दर्शन होय है सो जीव पदार्थका स्वरूप जांनि याकी भावना करै ताका श्रद्धानकरि अर आपकू जीव पदार्थ जानि अनुभवकरि प्रतीति करै ताकै होय है सो यह जीव पदार्थ कैसा है ताका स्वरूप कहै है;गाथा-कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइनिहणो य ।
दसणणाणुवओगो णिदिहो जिणवारदेहिं ॥१४८॥ संस्कृत-कर्ता भोक्ता अमूर्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनः च।
दर्शनज्ञानोपयोगः जीवः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः१४८ अर्थ-जीवनामा पदार्थ है सो कैसा है-कर्ता है, भोगी है अमूर्तीकहै, शरीर प्रमाण है, अनादिनिधन है, दर्शन ज्ञान है उपयोग जाकै ऐसा है सो जिनवरेन्द्र जो सर्वज्ञदेव वीतराग तिसनैं कह्या है ।
भावार्थ-इहां जीवनामा पदार्थकै छह विशेषण कहै तिनिका आशय ऐसा जो-कर्ता कह्या सो निश्चयनयकरि तौ अपनां अशुद्ध रागादिक भाव तिनिका अज्ञान अवस्थामैं आप कर्ता है अर व्यवहारनयकरि पुद्गल कर्म जे ज्ञानावरण आदि तिनिका कर्ता है अर शुद्धनयकरि अपने शुद्धभावका कर्ता है । बहुरि भोगी कह्या सो निश्चयनयकरि तौ अपनां ज्ञानदर्शन मयी चेतनभावका भोक्ता है, अर व्यवहारनयकार पुद्गलकर्मका फल जो सुख दुःख आदिक ताका भोक्ता है । बहुरि अमूर्तीक कह्या सो निश्चयकरि तौ स्पर्श. रस गंधवर्ण शब्द ये पुद्गलके गुण
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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पर्याय है तिनिकरि रहित अमूर्तीक है अर व्यवहारकरि जेतें पुद्गलकर्म बंध्या है तेतै मूर्तीक भी कहिये है। बहुरि शरीरपरिमाण कह्या सो निश्चयनयकरि तौ असंख्यातप्रदेशी लोकपरिमाण है परन्तु संकोच विस्तारशक्तिकरि शरीरौं कछू घाटि प्रदेश प्रमाण आकार रहै है । बहुरि अनादिनिधन कह्या सो पर्यायदृष्टिकरि दखिये तब तौ उपजे विनसै है तोऊ द्रव्यदृष्टिकरि देखिये तब अनादिनिधन सदा नित्य अविनाशी है। बहुरि दर्शन ज्ञान उपयोगसहित कह्या सो देखनां जाननांरूप उपयोगस्वरूप चेतनारूप है । बहुरि इनि विशेषणनिकरि अन्यमती अन्यप्रकार सर्वथा एकान्तकरि मानें हैं तिनिका निषेध भी जाननां, सो कैसैं ? कर्ताविशेषणकरि तौ सांख्यमती सर्वथा अकर्ता मानै है ताका निषेध है । बहुरि भोक्ता विशेषणकरि बौद्धमती क्षणिक मांनि कहै है कर्म• करै और, अर भोगवै और है, ताका निषेध है, जो जीव कर्म करै है ताका फल सो ही जीव भोगवै है ऐसैं बौद्धमतीके कहनेका निषेध है । बहुरि अमूर्तीक कहनेंतें मीमांसक आदिक इस शरीरसहित मूर्तीक ही मानैं है ताका निषेध है। बहुरि शरीरप्रमाण कहनेंतें नैयायिक वैशेषिक वेदान्ती आदि सर्वथा सर्वव्यापक मानें हैं ताका निषेध है । बहुरि अनादिनिधन कहनेंतें बौद्धमती सर्वथा क्षणस्थायी मानै है ताका निषेध है । बहुरि दर्शनज्ञानउपयोगमयी कहनेंतें सांख्यमती तौ ज्ञानरहित चेतनामात्र मानै है, अर नैयायिक वैशोषिक गुणगुणीकै सर्वथा भेद मांनि ज्ञान अर जीवकै सर्वथा भेद मानें है, अर बौद्धमतका विशेष विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञानमात्रही मानै है, अर वेदान्ती ज्ञानका कछू निरूपण न करै है, तिनिका निषेध है । ऐसें सर्वका कह्या जीवका स्वरूप जांणि आपकू ऐसा मांनि श्रद्धा रुचि प्रतीति करणीं । बहुरि जीव कहनेहीमैं अजीव पदार्थ जान्यां जाय है, अजीव न होय तौ जीव नाम कैसैं कहता तातें
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अजीवका स्वरूप कह्या है तैसा ताका श्रद्धान आगम अनुसार करनां । ऐसे अजीव पदार्थका स्वरूप जांणि अर इनि दोऊनिके संयोगरौं अन्य आश्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष इनि भावनिकी प्रवृत्ति होय है, तिनिका आगमअनुसार स्वरूप जांणि श्रदान किये सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होय है, ऐसें जाननां ॥ १४८॥ __ आनें कहै है जो—यह जीव ज्ञान दर्शन उपयोगमयी है तोऊ अनादि पुद्गल कर्मसंयोग” याकै ज्ञान दर्शनकी पूर्णता न होय है तातें अल्प ज्ञानदर्शन अनुभवमैं आवै है, अर तिनिमैं भी अज्ञानके निमित्ततें इष्ट अनिष्ट बुद्धिरूप राग द्वेष मोहभावकरि ज्ञान दर्शनमैं कलुषतारूप सुख दुःखादिक भाव अनुभवनमैं आवै है, यह जीव निजभावनारूप सम्यग्दर्शनकू प्राप्त होय है तब ज्ञानदर्शन सुख वीर्यके घातक कर्मनिका नाश करै है, ऐसा दिखावै है;गाथा-दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं ।
णिवइ भवियजीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो॥१४९॥ संस्कृत-दर्शनज्ञानावरणं मोहनीयं अन्तरायकं कर्म ।
निष्ठापयति भव्यजीवः सम्यक् जिनभावनायुक्तः१४९ अर्थ—सम्यक् प्रकार जिनभावनाकरि युक्त भव्यजीव है सो ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अंतराय ये च्यार घातिकर्म हैं तिनिकू निष्ठापन करै है संपूर्ण अभाव करै है ॥
भावार्थ-दर्शनका घातकतौ दर्शनावरण कर्म है, ज्ञानका घातक ज्ञानावरण कर्म है, सुखका घातक मोहनीय कर्म है, वीर्यका घातक अंतरायकर्म है, तिनिका नाशकू सम्यक् प्रकार जिनभावना कहिये जिन आज्ञा मांनि जीव अजीव आदि तत्त्वका यथार्थ निश्चयकरि श्रद्धावान
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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भया होय सो जीव करै है, तातैं जिन आज्ञा मांनि यथार्थ श्रद्धान करनां यह उपदेश है ॥ १४८ ॥
आगें कहै है इनि घाति कर्मनिका नाश भये अनंतचतुष्टय प्रकट होय हैं;—
गाथा - बलसोक्खणाणदंसण चत्तारि वि पायडा गुणा होंति । घाउके लोयालोयं पयासेदि ॥ १५० ॥ संस्कृत -- बलसौख्यज्ञानदर्शनानि चत्वारोऽपि प्रकटा
गुणा भवंति । नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति ॥ १५० ॥ अर्थ — पूर्वोक्त घातिकर्मका चतुष्क ताका नाश भये बल सुख ज्ञान दर्शन ये च्यार गुण प्रगट होय हैं, बहुरि जीवके ये गुण प्रकट हों लोकालोककूं प्रकाशै है ॥
भावार्थ —घातिकर्मका नाश भये अनंतदर्शन अनंतज्ञान अनंतसुख अनंतवीर्य ये अनंतचतुष्टय प्रकट होय है । तहां अनंत दर्शनज्ञानतैं तौ षद्रव्यकरि भन्या जो यह लोक तामैं जीव अनंतानंत अर पुद्गल तिनितैं भी अनंतानंत गुणें अर धर्म अधर्म आकाश ये तीन द्रव्य अर असंख्याते लोकाणू इनि सर्व द्रव्यनिके अतीत अनागत वर्त्तमान काल संबंधी अनंतपर्याय न्यारे न्यारेकूं एक काल देखे है अर जाने है, अर अनंतसुखकरि अत्यंत तृप्तिरूप है, अर अनन्तशक्तिकरि अब काहू निमित्तकरि अवस्था पलटै नांही है। ऐसैं अनंतचतुष्टयरूप जीवका निजस्वभाव प्रगट होय है तातैं जीवके स्वरूपका ऐसा परमार्थकरि श्रद्धान करनां सो ही सम्यग्दर्शन है ॥ १५० ॥
आगैं जाकै अनंतचतुष्टय प्रगट होय ताकूं परमात्मा कहिये है ताके अनेक नाम हैं तिनिमैं केतेक प्रगटकरि कहिये है; -
अ० व० १८
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा—णाणी सिव परमेट्टी सव्वण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो।
अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं॥१५१॥ संस्कृत--ज्ञानी शिवः परमेष्ठी सर्वज्ञः विष्णुः चतुर्मुखः बुद्धः ।
आत्मा अपि च परमात्मा कर्मविमुक्तः च भवति स्फुटम् अर्थ-परमात्मा है सो ऐसा है-ज्ञानी है, शिव है, परमेष्ठी है, सर्वज्ञ है, विष्णु है, चतुर्मुख ब्रह्मा है, बुद्ध है, आत्मा है, परमात्मा है, कर्मकरि विमुक्त कहिये रहित है, यह प्रगट जाणों ॥
भावार्थ-ज्ञानी कहनेंतें तौ सांख्यमती ज्ञानरहित उदासीन चैतन्यरहित मान है ताका निषेध है बहुरि शिव है सर्वकल्याणपरिपूर्ण है जैसे सांख्यमती नैयायिक वैशेषिक मानै है तैसा नाही है, बहुरि परमेष्ठी है परम उत्कृष्ट पदविर्षे तिष्टै है अथवा उत्कृष्ट इष्टत्व स्वभाव है जैसे अन्य मती केई अपनां इष्ट किळू थापि ताकू परमेष्ठी कहैं हैं तैसें नाही है, बहुरि सर्वज्ञ है सर्व लोकालोककू जाणें है अन्य केई कोई एक प्रकरण संबंधी सर्व वात जाणै ताकू भी सर्वज्ञ कहै है तैसा नाही है, बहुरि विष्णु है जाकै ज्ञान सर्व ज्ञेयमैं व्यापक है-अन्यमती वेदान्ती आदि कहै हैं जो सर्व पदार्थनिमैं आप है सो ऐसैं नाही है, बहुरि चतुर्मुख कहनेंतें केवली अरहंतकै समवसरणमैं च्यार मुख च्यारूं देशामैं दोखै हैं ऐसा अतिशय हैं ताते चतुर्मुख कहिये है-अन्यमती ब्रह्माकू चतुर्मुख कहैं हैं सो ऐसा ब्रह्मा कोई है नांही, बहुरि बुद्ध है सर्वका ज्ञाता है बौद्धमती क्षणिककू बुद्ध कहैं हैं तैसा नाही है बहुरि आत्मा है अपने स्वभावही वि. निरन्तर प्रवरौं है-अन्यमती वेदन्ती सर्व विर्षे प्रवर्तता आत्माकू मानें हैं तैसा नाही है, बहुरि परमात्मा है आत्माका पूर्णरूप अनंतचतुष्टय जाकै प्रगट भया है तातै परमात्मा है बहुरि कर्मजे आत्माके स्वभावके घातक घातिकर्म तिनि” रहित भया है तातें कर्मविमुक्त है अथवा
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २७५ कछू करनेयोग्य कार्यन रह्या तातें भी कर्मविप्रमुक्त है सांख्यमती नैयायिक सदाही कर्मरहित मानें हैं तैसें नाही हैं ऐसैं परमात्माके सार्थक नाम हैं अन्यमती अपने इष्टके नाम एकही कहै हैं तिनिका सर्वथा एकान्तका अभिप्रायकार अर्थ विगड़ें है सो यथार्थ नाही । अरहंतके ये नाम नयविवक्षातें सत्यार्थ है. ऐसैं जाननां ॥१५१॥
आगें आचार्य कहै है जो-ऐसा देव है सो मोकू उत्तम बोधि द्यो;गाथा-इम घाइकम्ममुक्को अहारहदोसवन्जियो सयलो।
तिहुवणभवणपदीवो देऊ मम उत्तमं बोहिं ॥१५२॥ संस्कृत-इति घातिकर्ममुक्तः अष्टादशदोषवर्जितः सकलः।
त्रिभुवनभवनप्रदीपः ददातु मह्यं उत्तमां बोधिम् १५२ __ अर्थ—इति कहिये ऐसैं घाति कर्मनिकरि रहित क्षुधा तृषा आदि पूर्वोक्त अठारह दोषनिकरि वर्जित सकल कहिये शरीरसहित अर तीन भुवनरूपी भवनके प्रकाशनेंकू प्रकृष्टदीपक तुल्य देव है सो मोकू उत्तम बोधि कहिये सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी प्राप्ति द्यो, ऐसैं आचार्यनें प्रार्थना करी है ॥
भावार्थ-इहां और तौ पूर्वोक्त प्रकार जाननां, अर सकल विशेषण है ताका यह आशय है जो मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके उपदेशके वचन प्रव विना न होय अर वचनकी प्रवृत्ति शरीर विना न होय तातें अरहंतका आयुकर्मका उदयतें शरीरसहित अवस्थान रहै है, अर सुस्वर आदि नामकर्मके उदयतै बचनकी प्रवृत्ति होय है, ऐसे अनेक जीवनिका कल्याण करनेवाला उपदेश प्रतते है। अन्यमतीनिकै ऐसा अवस्थान परमात्माकै संभवै नांही तातै उपदेशकी प्रवृत्ति न बणै तब मोक्षमार्गका उपदेश भी न प्रवर्ते ऐसें जाननां ॥ १५२ ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
आगैं कहै है— जे ऐसे अरहंत जिनेश्वर के चरणनिकूं न मैं हैं संसारकी जन्मरूप वेलिकूं काटै है,
―
गाथा - जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण । ते जम्मवेलमूलं खर्णति वरभावसत्थेण ॥ १५३ ॥ संस्कृत - जिनवरचरणांबुरुहं नमति ये परमभक्तिरागेण । ते जन्मवल्लीमूलं खनंति वरभावशस्त्रेण ॥ १५३ ॥
te
अर्थ – जे पुरुष परमभक्ति अनुरागकरि जिनवरके चरण कमलनिकूं नमैं हैं ते श्रेष्ठभावरूप शस्त्रकरि जन्म कहिये संसार सोई भई वोल ताका मूल जो मिध्यात्व आदि कर्म ताहि ख ै हैं खादि डारें हैं |
भावार्थ —अपनीं जो श्रद्धा रुचि प्रतीति ताकरि जिनेश्वर देवकुं मैं हैं ताका सत्यार्थस्वरूप सर्वज्ञ वीतरागपणांकूं जाणि भक्ति के अनुरागकरि नमस्कार करैं हैं, तब जाणिये सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ताका ये चिह्न है तातैं जाणिये याकै मिथ्यात्वका नाश भया, अब आगामी संसारकी वृद्धि याकै न होयगी - ऐसा जनाया है ॥ १५२ ॥
आगैं कहै है जो -जिनसम्यक्त्वकूं प्राप्त भया पुरुष है सो आगामी कर्मकरि न लिपै है;—
गाथा -जह सलिलेण ण लिप्पड़ कम लिणिपत सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पड़ कसायविसएहिं सप्पुरिसो १५४ संस्कृत - यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपः स्वभावप्रकृत्या | तथा भावेन न लिप्यते कृपाय विषयैः सत्पुरुषः १५४ अर्थ — जैसे कमलिनीका पत्र है सो अपने प्रकृतिस्वभावकरि जलकरि नांही लिपै है तैसैं सम्यग्दृष्टी सत्पुल्प है सो अपने भावकरि क्रोधादिक कषाय अर इंद्रिय विषय इनिकरि नांही लिपै है |
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २७७
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भावार्थ — सम्यग्दृष्टी पुरुषकै मिथ्यात्व अर अनंतानुबंधीकषायका तौ सर्वथा अभावही है अन्य कषायका यथासंभव अभाव है, तहां मिथ्यात्व अनंतानुबंधी के अभावतैं ऐसा भाव होय है । जो परद्रव्यमात्रका तौ कर्त्तापणांकी बुद्धि नांही है अर अब शेष कषायके उदय कछू राग द्वेष प्रवर्तें है तिनि कर्मके उदयके निमित्ततैं भये जाने है तातैं तिनिविषै भी कर्त्तापणांकी बुद्धि नांही है तथापि तिनि भावनिकूं रोगवत् भये जांणि भले न जाणै है; ऐसे भाव करि कषाय विषयनितैं प्रीति बुद्धि नांही तातैं तिनितैं न लिपै है, जलकमलवत् निर्लेप रहै है । यातें आगामी कर्मका बंध न होय है संसारकी वृद्धि नांही होय है, ऐसा आशय जाननां ॥ १५४ ॥
1
"
आगें आचार्य कहै है जो जे पूर्वोक्त भावकरि सहित सम्यग्दृष्टी सत्पुरुष हैं ते ही सकल शील संयमादि गुणनिकरि संयुक्त हैं, अन्य नांही;
--
गाथा - ते वि य भणामिहं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं । बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तोण सावयसमो सो ॥ संस्कृत - तान् अपि च भणामि ये सकलकलाशीलसंयमगुणैः । बहुदोषाणामावासः सुमलिनचित्तः न श्रावकसमः सः ॥ अर्थ — पूर्वोक्त भावकरि सहित सम्यग्दृष्टी पुरुष हैं अर शील संयम गुणनिकरि सकल कला कहिये संपूर्ण कलावान होय हैं, तिनिहीकूं हम मुनि कहैं हैं । बहुरि जो सम्यग्दृष्टी नांही है मलिनचित्तकार सहित मिथ्यादृष्टी है अर बहुत दोषनिका आवास है ठिकाणां है सो तौ भेष धारे है तौऊ श्रावकसमानभी नांही है |
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भावार्थ—जो सम्यग्दृष्टी है अर शील कहिये उत्तर गुण अर संयम कहिये मूलगुण तिनिकरि सहित है सो मुनि है । अर जो मिथ्यादृष्टी
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
कहिये मिथ्यात्वकरि जाका चित्त मलिन है अर क्रोधादि विकाररूप बहुत दोष जामैं पाइये है सो तौ मुनिभेष धारै है तोऊ श्रावकसमानभी नांही है, श्रावक सम्यग्दृष्टी होय अर गृहस्थाचारके पापनिकीर सहित होय तोऊ जिस बराबरि केवल भेषी मुनि नांही है, ऐसैं आचार्य कहै है ॥ १५५॥
आगैं कहै है जो—सम्यग्दृष्टी होयकरि जिनिनें कषायरूप सुभट जीते तेही धीर वीर हैं;गाथा-ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विप्फुरतेण ।
दुजयपवलबलुद्धरकसायभड णिजिया जेहिं ॥१५६।। संस्कृत ते धीरवीरपुरुषाः क्षमादमखङ्गेण विस्फुरता ।
दुर्जयप्रबलबलोद्धतकषायभटाः निर्जिता यैः॥१५६।। ___ अर्थ-ज्यां पुरुषां क्षमा अर इंद्रियनिका दमन सो ही भया विस्फुरता कहिये सवाया हूवा मलिनता रहित उज्ज्वल तीक्ष्ण खड्ग ताकरि जिनिका जीतनां कठिन ऐसे दुर्जय अर प्रबल वलकरि उद्धत ऐसे कषायरूप सुभटानिकू जीतें ते धीरवीर सुभट हैं, अन्य संग्रामादिकमैं जीते ते कहबेके सुभट हैं ।
भावार्थ-युद्धमैं जीतनेवाले शूरवीर तो लोकमैं बहुत हैं अर जे कषायनिकू जीतें हैं ते विरले हैं ते मुनिप्रधान हैं ते ही शूरवीरनिमैं प्रधान हैं, जे सम्यग्दृष्टी होय कषायानकू जीति चारित्रवान होय हैं ते मोक्ष पावै हैं; यह आशय है ॥ १५६ ।। ___ आगैं कहै है जो-जे आप दर्शन ज्ञान चारित्ररूप होय अन्य... तिनिसहित करें ते धन्य है.--
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
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गाथा-धण्णा ते भयवंता दंसणणाणग्गपवरहत्थेहिं ।
विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं॥१५७॥ संस्कृत-ते धन्याः भगवंतः दर्शनज्ञानाग्रप्रवरहस्तैः ।
विषयमकरधरपतिताः भव्याः उत्तारिताः यैः॥१५॥ अर्थ-ज्यां सत्पुरुषां विषयरूप मकरधर जो समुद्र ताविर्षे पड्या जे भव्यजीव तिनिकू पार उताऱ्या, काहेकरि दर्शन अर ज्ञान तेही भये अग्र मुख्य दोय हाथ तिनिकरि उतारे, ते मुनि प्रधान भगवान इंद्रादिककरि पूज्य ज्ञानी धन्य हैं। ___ भावार्थ—इस संसार समुद्र" आप तिरै अर अन्यकू त्या ते मुनि धन्य है । धनादिक सामग्रीसहितकुं धन्य कहिये हैं ते कहबेके धन्य हैं ॥ १५७ ॥
आण फेरि ऐसे मुनिनिकी महिमा करै है,गाथा-मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्मि आरूढा ।
विसयविसपुप्फफुल्लिय लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं १५८ संस्कृत-मायावल्लीं अशेषां मोहमहातरुवरे आरूढाम् ।
विषयविपपुष्पपुष्पिता लुनंति मुनयः ज्ञानशस्त्रैः१५८ अर्थ-मुनि हैं ते माया कहिये कपटरूपी वेलि है ताहि ज्ञानरूपी शस्त्रकरि समस्त• काटै हैं, कैसी है मायावेलि मोह रूपी जो महा बडा वृक्ष तापरि आरूढ है चढी है, बहुरि कैसी है विषयरूपी विषके पुष्प निकरि फूलि रही है ॥
भावार्थ-यह मायाकषाय है सो गूढ है याका विस्तार भी बहुत है मुनिनि ताई फैले है, तातें जे मुनि ज्ञानकरि याकू काटें हैं ते सांचे मुनि हैं, तेही मोक्ष पावै हैं ॥ १५८ ॥
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२८० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
आर्गे फेरि तिनि मुनिनिका सामर्थ्य• कहै है, गाथा-मोहमयगारवेहि य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता ।
ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण ॥१५९॥ संस्कृत-मोहमदगारवैः च मुक्ताः वे करुणाभावसंयुक्ताः ।
ते सर्वदुरितस्तंभ घ्नंति चारित्रखङ्गेन ॥१५९॥ अर्थ-जे मुनि मोह मद गौरव इनिकरि रहित हैं अर करुणा भावकरि सहित है चारित्ररूपी खङ्गकरि पापरूपी स्तंभ है ताहि हणे हैं, मूलतें का है॥
भावार्थ-मोह तौ परद्रव्यसूं ममत्व भाव सो कहिये, मद जात्यादिक परद्रव्यादिक संबंधौं गर्व होय ताकू कहिये गौरव तीन प्रकार है-ऋद्धिगौरव अर सातगौरव अर रसगौरव, तहां ऋद्धिगौरव जो कछू तपोवलकरि अपनी महंतता लोकमैं होय ताका आपका मद आवै तामैं हर्ष मानें, बहुरि सातगौरव जो अपने शरीरमैं रोगादिक न उपजै तब सुख मार्ने प्रमादयुक्त होय अपनां महंतपणां मानें, बहुरि रसगौरव जो मिष्ट पुष्ट रसीला आहारादिक मिलै ताके निमित्त” प्रमत्त होय शयनादिक करै । ऐसा गौरव इनिकरि तो रहित हैं अर परजीवनिकी करुणाकरि युक्त हैं-ऐसा नांही जो परजीवनूं मोहममत्त्व नाही है यातें निर्दय होय तिनिकू हौँ, जे राग अंश रहै तेते परजीवनिकी करुणाही करै उपकारबुद्धि रहै । ऐसे ज्ञानीमुनि पाप जो अशुभकर्म ताकू चारित्रके बल” नाश करें हैं ॥ १५९ ॥
आरौं कहै है जो-ऐसे मूलगुण अर उत्तरगुणानकरि मंडित मुनि हैं ते जिनमतमैं शोभै हैं;
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २८१ गाथा-गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमाणदो।
तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे ॥१६०॥ संस्कृत-गुणगणमणिमालया जिनमतगगने निशाकरमुनींद्रः।
तारावलीपरिकरितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथे ॥१६०॥ अर्थ—जैसैं पवनपथ जो आकाश तावि तारानिकी पंक्तिकरि परिपारौं वेष्टित पूर्णमासीका चंद्रमा सोभै है तैसैं जिनमतरूप आकाशविर्षे गुणनिके समूह सो ही भई मणिनिकी माला ताकरि मुनीन्द्ररूप चंद्रमा सोभै है।
भावार्थ-अट्ठाईस मूलगुण दशलक्षण धर्म तीन गुप्ति चौरासीलाख उत्तरगुण इत्यादि गुणनिकी मालाकार सहित मुनि है सो जिनमतमैं चंद्रमावत् सोभै है ऐसे मुनि अन्यमतमैं नाही ॥ १६० ॥ __ आनें कहै है जो ऐसैं जिनकै विशुद्ध भाव हैं ते सत्पुरुष तीर्थंकर आदिक पदका सुखनिकू पाबैं हैं;गाथा-चक्कहररामकेसवसुरवरजिणगणहराइसोक्खाई ।
चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्धभावा णरा पत्ता ॥१६१॥ संस्कृत-चक्रधररामकेशवसुरवरजिनगणधरादिसौख्यानि ।
चारणमुन्यीः विशुद्धभावा नराः प्राप्ताः ॥१६१ ॥ अर्थ-विशुद्ध हैं भाव जिनिके ऐसे नर मुनि हैं ते चक्रधर कहिये चक्रवर्ती षट् खंडका राजेन्द्र, राम कहिये बलभद्र, केशव कहिये नारायण अर्द्धचक्री, सुरवर कहिये देवनिका इंद्र, जिन कहिये तीर्थकर पंच कल्याण करि सहित तीन लोककरि पूज्य पदवी, गणधर कहिये च्यार ज्ञानं सप्तऋद्धिके धारक मुनि, इनिके सुखनिकू; बहुरि चारणमुनि कहिये
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२८२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितआकाशगामिनी आदिऋद्धि जिनिकै पाइये तिनिकी ऋद्धि इनिङ प्राप्त भये ॥
भावार्थ-पूर्वै ऐसे निर्मल भावके धारक पुरुष भये ते ऐसी पदवीके सुखनिकू प्राप्त भये, अब ते ऐसे होंहिगे ते पायेंगे, ऐसें जाननां ॥१६१ ___आर्गे कहै है मुक्तिका सुख भी ऐसे ही पावे हैं;गाथा-सिवमजरामरलिंगमणोवममुत्तमंपरमविमलमतुलं ।
पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा ॥१६२॥ संस्कृत-शिवमजरामरलिंग अनुपममुत्तमं परमविमलमतुलम् ।
प्राप्तो वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवाः॥१६२ अर्थ-जे जिनभावनाकरि भावित सहित जीव हैं तेही सिद्धि कहि ये मोक्ष ताके सुखवू पाऐं हैं, कैसा है सिद्धिसुख-शिव है कल्याणरूप है काहू प्रकार उपद्रवसहित नाही है, बहुरि कैसा है-अजरामरलिंग है वृद्ध होनां अर मरनां इनि दोऊनिरहित है लिंग कहिये चिह्न जाका बहुरि कैसा है अनुपम है जाकै संसारीक सुखकी उपमा लागै नाही, बहुरि कैसा है उत्तम कहिये सर्वोत्तम है बहुरि परम कहिये सर्वोत्कृष्ट है, बहुरि कैसा है-महार्य है महान् अर्घ्य पूज्य प्रशंसायोग्य है, बहुरि कैसा है विमल है कर्मके मल तथा रागादिकमलकरि रहित है, बहुरि कैसा है अतुल है याकी बराबर संसारीक सुख नाही; ऐसा सुख• जिनभक्त पावै है अन्यका भक्त न पावै है ॥१६२ ॥
आगें आचार्य प्रार्थना करे हे जो ऐसे सिद्धिमुखकुं प्राप्त भये सिद्ध भगवान ते मोकू भाषकी शुद्धताकू द्यो; गाथा ते मे तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिचा ।
दिंतु बरभावसुद्धिं देसण णाणे चरित्ते य ॥१६३॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित- २८३ संस्कृत-ते मे त्रिभुवनमहिताः सिद्धाः शुद्धाः निरंजनाः नित्याः।
ददतु वरभावशुद्धिं दर्शने ज्ञाने चारित्रे च ॥१६३॥ अर्थ-सिद्ध भगवान हैं ते मोकू दर्शन ज्ञान वि. अर चारित्रवि. श्रेष्ठ उत्तमभावकी शुद्धता द्यो, कैसे हैं सिद्ध भगवान तीन भवनकरि पूजनीक है, बहुरि कैसे हैं-शुद्ध हैं द्रव्यकर्म नोकर्मरूप मलकरि रहित हैं, बहुरि कैसे हैं-निरंजन हैं रागादिकर्म करि राहेत हैं, बहुरि जिनके कर्मका उपजनां नांही है, बहुरि कैसे है नित्य हैं पाये स्वभावका फेरि नाश नाही है। ___ भावार्थ---आचार्य शुद्धभावका फल सिद्ध अवस्था, अर जे निश्चय-- करि इस फलकू प्राप्त भये सिद्ध, तिनि” यही प्रार्थना करी है जो शुद्ध. भावकी पूर्णता हमारे होहू ॥ १६३ ॥ ___ आज भावके कथनकू संकोचे है;गाथा-किं जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खोय।
अण्णे वि य वावारा भावम्मि परिठिया सव्वे ॥१६४ संस्कृत-किं जल्पितेन बहुना अर्थः धर्मः च काममोक्षः च ।
अन्ये अपि च व्यापाराः भावे परिस्थिताः सर्वे १६४ अर्थ-आचार्य कहे है जो बहुत कहनें करि कहा ? धर्म अर्थ काम मोक्ष बहुरि अन्य जो किछ व्यापार हे सो सर्वही शुद्धभावके वि समस्तपणांकरि तिष्ठया है ॥ __ भावार्थ—पुरुषके च्यार प्रयोजन प्रधान हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । बहुरि अन्यभी जो किछू मंत्रसाधनादिक व्यापार हैं ते आत्माके शुद्ध चैतन्य परिणामस्वरूप भावविर्षे तिष्ठें हैं, शुद्धभावतें सर्व सिद्धि है ऐसा संक्षेपकरि कहनां जांणों, बहुत कहा कहना ? ॥ १६४ ॥
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२८४
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
__ आगें इस भावपाहुडकू पूर्ण करै है ताका पढने सुननें भावनें का उपदेश करै है,गाथा-इय भावपाहुडमिणं सव्वंबुद्धेहि देसियं सम्मं ।
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं ॥१६५ संस्कृत-इति भावप्राभृतमिदं सर्वबुद्धैः देशितं सम्यक् । यः पठति शृणोति भावयति सःप्राप्नोति
अविचलं स्थानम् ॥१६५।। अर्थ--इति कहिये या प्रकार या भावपाहुडकू सर्ववृद्ध जे सर्वज्ञदेव 'तिनि. उपदेश्या है सो याकू जो भव्यजीव सम्यक् प्रकार पढ़े सुनें याकू भावै सो शाश्वता सुखका स्थानक जो मोक्ष ताहि पावै है ॥ ___ भावार्थ—यह भावपाहुड ग्रंथ है सो. सर्वज्ञकी परंपराकरि अर्थ ले आचार्यनैं कह्या है तातै सर्वज्ञहीका उपदेश्या है, केवल छद्मस्थहीका कह्या नांही है तातें आचार्य अपनां कर्त्तव्य प्रधानकार न कह्या है।
अर याके पढने सुननेंका फल मोक्ष कह्या सो युक्तही है शुद्धभावतें मोक्ष होय है अर याके पढे शुद्धभाव होय हैं, ऐसैं परंपरा मोक्षका कारण याका पढनां सुननां धारणां भावना करना है । तातै भव्यजीव हैं ते या भावपाहुडकू पढौ सुनौ सुनावी भावी निरंतर अभ्यास करौ ज्यों शुद्धभाव होय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी पूर्णताकू पाय मोक्ष पावौ तहां परमानंदरूप शाश्वतासुखकू भोगवो ॥
ऐसैं श्रीकुंदकुन्दनामा आचार्य भावपाहुडग्रंथ पूर्ण किया ।
याका संक्षेप ऐसा है जो-जीवनामा वस्तुका एक असाधारण शुद्ध अविनाशी चेतनास्वभाव है । ताकी शुद्ध अशुद्र दोय परणति हैं-तहा शुद्धदर्शनज्ञानोपयोगरूप परिणमनां सो तो शुद्ध परिणति है याकू शुद्ध
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ! २८५.
I
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भाव कहिये है । बहुरि कर्मके निमित्ततैं राग द्वेष मोहादिक विभावरूप परिणमनां सो अशुद्धपरणति है याकूं अशुद्ध भाव कहिये । तहां कर्मका निमित्त अनादितैं है तातैं अशुद्धभावरूप अनादिहीतें परिणमै है, तिस भावतैं शुभ अशुभ कर्मका बंध होय है तिस बंधके उदयतें फेरि अशुद्धभावरूप परिणमै है अनादिसंतान चल्या आवै है । तहां जब इष्टदेवतादिककी भक्ति जीवनिकी दया उपकार मंदकषायरूप परिणमै तब तौ शुभकर्मका बंध करे है, ताके निमित्ततैं देवादिक पर्याय पाय किछू सुखी होय है । बहुरि तत्र विषय कषाय तीव्र परिणामरूप परिणमै तब पापका बंध करे है, ताके उदयतें नरकादिक पर्याय पाय दुःखी होयं है । ऐसें संसार मैं अशुद्धभावतें अनादितैं यहु जीव भ्रम है, बहुरि जब कोई काल ऐसा आवै जामैं जिनेश्वरदेव सर्वज्ञ वीतरागका उपदेशकी प्राप्ति होय अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करे तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध अशुद्ध भावका स्वरूप जांणि अपनां हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय तब शुद्धदर्शनज्ञानमयी शुद्ध चेतनाका परिणमनकूं तौ हित जानैं ताका फल संसारकी निवृत्ति है ताकूं जानें, अर अशुद्धभाव का फल संसार है ताकूं जानें, तत्र शुद्धभावका अंगीकार अर अशुद्ध भावका त्यागका उपाय करै । तहां उपायका स्वरूप जैसा सर्वज्ञ वीतराग के आगम मैं कया है तैसें करे— तहां ताका स्वरूप निःश्रयव्यवहारात्मक सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग कया है । तहां निश्चय तौ शुद्ध स्वरूपका श्रद्धान ज्ञान चारित्रकूं कया है अर व्यवहार जिनदेव सर्वज्ञ वीतराग तथा ताके वचन तथा तिनि वचननिकै अनुसार प्रवर्त्तनेवाले मुनि श्रावक तिनिकी भक्ति वंदनां विनय वैयावृत्त्य करै, सो है, जातैं ये मोक्षमार्ग मैं प्रवर्त्तावनेकूं उपकारी हैं उपकारीका माननां न्याय है उपकार
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
लोपनां अन्याय है । बहुरि स्वरूपके साधक अहिंसा आदि महाव्रत अर रत्नत्रयरूप प्रवृत्ति समिति गुप्तिरूप प्रवर्तनां, अर इनिविषै दोष लगे अपनी निन्दा गर्हादिक करनां, गुरुनिका दिया प्रायश्चित्त लेना, शक्तिसारू तप करना, परीषह सहनां, दशलक्षण धर्म विषै प्रवर्त्तनां इत्यादि शुद्धात्माकै अनुकूल क्रियारूप प्रवर्त्तनां, इनिमैं किछू रागका अंश रहे
।
तैं शुभकर्मका बंध होय है तौऊ सो प्रधान नांही जातैं इनिमैं प्रवर्त्तनें - वालेकै शुभकर्मके फलकी इच्छा नांही है तातें अबंधतुल्य है; इत्यादि प्रवृत्ति आगमोक्त व्यवहार मोक्षमार्ग है या मैं प्रवृत्तिरूप परिणामैं है तौऊ निवृत्तिप्रधान हैं तातैं निश्चय मोक्षमागमैं विरोध नांही है । ऐसैं निश्चयव्यवहारस्वरूप मोक्षमार्गका संक्षेप है, याहीकूं शुद्ध भाव का है तहां भी यामैं सम्यग्दर्शन प्रधानकरि कया है जातें सम्यग्दर्शनविना सर्व व्यवहार मोक्षका कारण नांही, अर सम्यग्दर्शनका व्यवहार मैं जिनदेवकी भक्ति प्रधान हैं, यह सम्यग्दर्शन के जनावनेकूं मुख्य चिह्न है तातें जिन - भक्ति निरंतर करनीं, अर जिनआज्ञा मांनि आगमोक्त मार्ग मैं प्रवर्त्तनां यह श्रीगुरुनिका उपदेश है, अन्य जिन आज्ञा सिवाय सर्व कुमार्ग हैं तिनिका प्रसंग छोडनां, ऐसे करे आत्मकल्याण होय है ॥
छप्पय ।
जीव सदा चिदभाव एक अविनाशी धारै, कर्म निमित पाय अशुद्धभावनि विस्तारै । कर्म शुभाशुभ बांधि उदै भरमै संसारै,
पावै दुःख अनंत च्यारि गतिमैं डुलि सारै ।। सर्वज्ञदेशना पायकै तजै भाव मिथ्यात्व जब ।
निजशुद्धभाव धरि कर्महरि लहै मोक्ष भरमै न तब ॥
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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २८७
दोहा। मंगलमय परमातमा शुद्धभाव अविकार ।
नमूं पाय पाऊं स्वपद जाचँ यहै करार ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित मोक्षप्राभृतकी । जयपुरनिवासि पं० जयचन्द्रजीछावड़ाकृत
देशभाषामयवचनिका समाप्त ॥५॥
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अथ मोक्षपाहुड।
[६]
ॐनमः सिद्धेभ्यः । अथ मोक्षपाहुडकी वचनिका लिख्यते । तहां प्रथमही मंगलकै आर्थ सिद्धनिळू नमस्कार करै है;
दोहा । अष्ट कर्मको नाश करि शुद्ध अष्ट गुण पाय ।
भये सिद्ध निज ध्यान नमूं मोक्षसुखदाय ॥१॥ ऐसें मंगलकै अर्थि सिद्धनिकू नमस्कारकरि अर श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकृत मोक्षपाहुडग्रंथ प्राकृत गाथाबंध है ताकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है। तहां प्रथम ही आचार्य मंगलकै आर्थि परमात्माकू नमस्कार करै है;गाथा—णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झडियकम्मेण ।
चइऊण य परदव्वं णमो णमो तस्स देवस्स ॥१॥ संस्कृत-ज्ञानमय आत्मा उपलब्धः येन क्षरितकर्मणा ।
त्यक्त्वा च परद्रव्यं नमो नमस्त-मै देवाय ॥१॥ अर्थ—आचार्य कह है जो-जानें परद्रव्यकू छोडिकरि झटितकर्म कहिये खिरै हैं द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म जाकै ऐसा होयकरि अर ज्ञानमयी आत्माकू पाया, ऐसे देवके आर्थ हमारा नमस्कार होहू नमस्कार होहू । दोय वार कहनेमैं अतिप्रीतियुक्त भाव जनाये हैं ।
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
२८९
___ भावार्थ-इहां मोक्षपाहुडका प्रारंभ है तहां जिननैं समस्त परद्रव्यकू छोडि कर्मका अभावकरि केवलज्ञानानंद स्वरूप मोक्षपद पाया तिस देवकू मंगलकै आर्थ नमस्कार किया सो यह युक्त है, जहां जैसा प्रकरण तहां तैसी योग्यता । इहां भावमोक्षतौ अरहंतकै, अर द्रव्यभावकरि दोऊ प्रकार सिद्ध परमेष्ठीकै है यारौं दोऊ• नमस्कार जाननां ॥१॥ __ आगैं ऐसैं नमस्कार करि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करै है;गाथा—णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं ।
वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥२॥ संस्कृत-नत्वा च तं देवं अनंतवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् ।
वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥२॥ अर्थ-आचार्य कहै है जो-तिस पूर्वोक्त देवकुं नमस्कारकरि अर परमात्मा जो उत्कृष्ट शुद्ध आत्मा ताहि परम योगीश्वर जे उत्कृष्ट योग्य ध्यानके धरनहारे मुनिराज तिनि प्रति कहूंगा, कैसा है पूर्वोक्त देवअनंत अर श्रेष्ठ जो ज्ञानदर्शन ते जाकै पाइये है, बहुरि विशुद्ध है कर्ममलकरि रहित है, अथवा कैसा है परमात्मा अनंत है वर कहिये श्रेष्ठ हे ज्ञान अर दर्शन जामैं. बहुरि कैसा है-परम उत्कृष्ट है पद जाका ॥
भावार्थ-इस ग्रंथमैं मोक्षकू जिस कारण” पावै अर जैसा मोक्षपद है तैसाका वर्णन करियेगा, तिस रीति तिसहीकी प्रतिज्ञा करी है। बहुरि योगीश्वरनिप्रति कहियेगा, याका आशय यह है जो-ऐसे मोक्षपदकुं शुद्ध परमात्माका ध्यान” पाइये है, तहां तिस ध्यानकी योग्यता योगीश्वरनिकै ही प्रधान है, गृहस्थनिकै यह ध्यान प्रधान नाही ॥२॥
आगैं कहै है जो-जिस परमात्माकू कहनेकी प्रतिज्ञा करी है तिसकू योगी ध्यानी मुनि जांणि तिसकू ध्याय परम पद पावै है
भ.व. १९
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२९० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितगाथा-जं जाणिऊण जोई जोअत्थो जोइऊण अणवरयं ।
अव्वावाहमणंतं अणोवमं लहइ णिव्वाणं ॥३॥ संस्कृत—यत् ज्ञात्वा योगी योगस्थः दृष्ट्वा अनवरतम् ।
अव्याबाधमनंतं अनुपमं लभते निर्वाणम् ॥३॥ अर्थ--आज कहेंगे जो परमात्मा ताकू जांनिकरि योगी जो मुनि सो योग जो ध्यान ताविर्षे तिष्ठया हूवा निरन्तर तिस परमात्माकू अनुभवगोचरकरि निर्वाणकू प्राप्त होय है, कैसा है निर्वाण-अव्याबाध है जहां काहू प्रकारकी बाधा नाही है, बहुरि कैसा है--अनंत है जाका नाश नांही है, बहुरि कैसा है-अनुपम है जाकू काहूकी उपमा लागै नाही ॥ __ भावार्थ-आचार्य कहै है ऐसे परमात्माकू आगैं कहियेगा तिसकू ध्यानविर्षे मुनि निरन्तर अनुभवन करि अर केवलज्ञान उपजाय निर्वाणकू पावै । इहां यह तात्पर्य है-जो परमात्माका ध्यानतें मोक्ष होय है ॥३॥
आगें परमात्मा कैसा है-ऐसँ जनावनेंकै अर्थि आत्माकू तीन प्रकारकरि दिखावै है;गाथा-तिपयारो सो अप्पा परमंतरवाहिरो हु देहीणं ।
तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवारण चयहि बहिरप्पा ॥४॥ संस्कृत-त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्तः बहिः स्फुटं देहिनाम् ।
तत्र परं ध्यायते अन्तरुपायेन त्यज बहिरात्मानं ॥४॥ अर्थ-सो आत्मा प्राणीनिकै तीन प्रकार है-अंतरात्मा, बहिरात्मा, परमात्मा, ऐसैं । तहां अन्तरात्माके उपायकरि बहिरात्माकू छोडिकरि परमात्माकू ध्यायजे ॥
१-मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'हु हेऊणं' ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'तु हित्वा' की है।
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका ।
२९१
भावार्थ - बहिरात्मा कूं छोडि अंतरात्मारूप होय परमात्माकूं ध्यावनां, यातैं मोक्ष होय है ॥४॥
आगैं तीन प्रकार आत्माका स्वरूप दिखावै है;
गाथा — अक्खाणि वाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्प कप्पो । कम्मलंकविको परमप्पा भण्ण देवो ||५||
संस्कृत - अक्षाणि बहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसंकल्पः । कर्म कलंक विमुक्तः परमात्मा भण्यते देवः ॥ ५ ॥
अर्थ — अक्ष जे इंद्रिय स्पर्शनादिक तेतौ बाह्य आत्मा हैं जातें इंद्रयनिकरि स्पर्श आदि विषयनिका ज्ञान होय तब लोक कहै ऐसें ही जो इंद्रिय है सो ही आत्मा है, ऐसैं जो इंद्रियनिकूं बाह्य आत्मा कहिये । बहुरि अंतरात्मा है सो अन्तरंगविषै आत्माका प्रगट अनुभवगोचर संकल्प है, शरीर इंद्रियनित न्यारा मनकै द्वारे देखने जाननेवाला है सो मैं हूं, ऐसैं स्वसंवेदनगोचर संकल्प सो ही अन्तरात्मा है । बहुरि कर्म जो द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक अर भावकर्म राग द्वेष मोहादिक नोकर्म शरीरादिक सो ही भया कलंकमल तिसकरि विमुक्त रहित अनंतज्ञानादिकगुणसहित सो ही परमात्मा है, सो ही देव है, अन्यकूं देव कहनां उपचार है ॥
भावार्थ - बाह्य आत्मा तौ इंद्रियनिक कह्या, अर अंतरात्मा देह मैं तिष्ठता देखनां जाननां जाकै पाइये ऐसा मनकै द्वारै संकल्प सो है, बहुरि परमात्मा कर्मकलंकसूं रहित कथा । सो इहां ऐसा जनाया है जोयह जीवही जेतैं बाह्य शरीरादिकहांकूं आत्मा जाने है तेतैं तौ बहिरात्मा है संसारी है, बहुरि जब येही जीव अंतरंगविषै आत्माकूं जाने है तब यह सम्यग्दृष्टी होय है तब अंतरात्मा है, अर यह जीव जब परमात्माका ध्यान करि कर्मकलंक रहित होय तब पहलै तौ केवलज्ञान उपजाय
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२९२
पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित
अरहंत होय है, पीछें सिद्धपदकूं पावै है, इाने दोऊहीं परमात्मा कहिये है | अरहंत तौ भावकलं करहित हैं अर सिद्ध द्रव्यभावरूप दोऊ प्रकार कलंक रहित है, ऐसें जाननां ॥ ५ ॥
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आर्गै तिस परमात्माका विशेषणकरि स्वरूप कहै है, - गाथा - मलरहिओ कलचत्तो अगिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा | परमेही परमजिणो सिवंकरो सास सिद्ध ||६ ॥ संस्कृत - मलरहितः कलत्यक्तः अनिंद्रियः केवलः विशुद्धात्मा । परमेष्ठी परमजिनः शिवंकरः शाश्वतः सिद्धः ||६||
D
अर्थ — परमात्मा ऐसा है - प्रथम तौ मलरहित है द्रव्यकर्म भावकर्मरूप मलकार रहित है, बहुरि कलव्यक्त कहिये शरीरकरि रहित है, बहुरि अनिंद्रिय कहिये इन्द्रियनिकरि रहित है अथवा अनिंदित कहिये काहू प्रकार निंदायुक्त नांही है सर्व प्रकार प्रशंसा योग्य है, बहुरि केवल कहिये केवलज्ञानमयी है, बहुरि विशुद्धात्मा कहिये विशेष कारे शुद्ध है आत्मा स्वरूप जाका, ज्ञानमैं ज्ञेयके आकार प्रतिभा से है तौहू तिनिस्वरूप न हो है तथापि तिनितैं रागद्वेष नांही है, बहुरि परमेष्ठी है परमपदविषै ति है, बहुरि परम जिन है सर्व कर्मकूं जीते है. बहुरि शिवंकर है भव्य जीवनिकै परम मंगल तथा मोक्षकूं करे है, बहुरि शाखता है अविनाशी है, बहुरि सिद्ध है अपनें स्वरूपकी सिद्धिकरि निर्वाणपदकूं प्राप्त भये हैं । भावार्थ — ऐसा परमात्मा है, ऐसे परमात्माका ध्यान करै सो ऐसाही होय है ॥ ६ ॥
आगे सो ही उपदेश करे है;
गाथा - आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण । झाइज्जइ परमप्पा उवहं जिणवरिंदेहिं ॥७॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। २९३ संस्कृत-आरुह्य अंतरात्मानं बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन ।
ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥७॥ अर्थ--बहिरात्माकू मन वचन कायकरि छोडि अन्तरात्माका आश्रय लेयकरि परमात्माकू ध्यायजे, यह जिनवरेन्द्र तीर्थकर परमदेवनि उपदेश्या है ॥ ___ भावार्थ-परमात्माका ध्यान करनेका उपदेश प्रधान करि कह्या है यात्रै मोक्ष पावै है ॥ ७॥ ___ आण बहिरात्माकी प्रवृत्ति कहै है;गाथा-वहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरुवचओ।
णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्टीओ ॥८॥ संस्कृत-बहिरर्थे स्फुरितमनाः इन्द्रियद्वारेण निजस्वरूपच्युतः।
निजदेहं आत्मानं अध्यवस्यति मूढदृष्टिस्तु ॥८॥ ___ अर्थ—मूढदृष्टी अज्ञानी मोही मिथ्यादृष्टी है सो बाह्य पदार्थ जे धन धान्य कुटुंब आदि इष्ट पदार्थ तिनिविर्षे स्फुरित है तत्पर है मन जाका, बहुरि इंद्रियका द्वार करि अपनें स्वरूप” च्युत है इन्द्रियनिकू ही आत्मा जानै है, ऐसा भया संता अपनां देह है ताहीकू आत्मा जानै है निश्चय करै है; ऐसा मिथ्यादृष्टी बहिरात्मा है ॥ भावार्थ-ऐसा बहिरात्माका भाव है ताकू छोडनां ॥ ८॥
आगें कहै है जो--मिथ्यादृष्टी अपनां देह सारिखा पर देहकू देखि तिसकू परका आत्मा मानै है;गाथा-णियदेहसरित्थं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण ।
अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएण ॥९॥
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२९४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितसंस्कृत-निजदेहसदृशं दृष्टा परविग्रहं प्रयत्नेन ।
अचेतनं अपि गृहीतं ध्यायते परमभावेन ॥९॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टी पुरुष अपनां देह सारिखा परका देहकू देखिकरि यह देह अचेतन है तौऊ मिथ्याभावकरि आत्मभावकरि बडा यत्न करि परका आत्मा ध्यावै है ॥ __भावार्थ-बहिरात्मा मिथ्यादृष्टीकै मिथ्यात्वकमका उदयकरि मिथ्याभाव है सो आपनां देहळू आपा जानैं है तैसेंही परका देह अचेतन है. तौऊ ताकू परका आत्मा जानि ध्यावै है मानै है तामैं बडा यत्न करै है यातें ऐसे भावकू छोडनां यह तात्पर्य है ॥ ९॥ - आमैं कहै है जो ऐसीही मांनितें पर मनुष्यदिविर्षे मोह प्रवत है;--- गाथा-सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं ।
सुयदाराईविसए मणुयाणं बड़ए मोहो ॥१०॥ संस्कृत-स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थमात्मानम् ।
सुतदारादिविषये मनुजानां वर्द्धते मोहः ॥१०॥ अर्थ--ऐसे देहवि. स्वपरका अध्यवसाय कहिये निश्चय ताकरि मनुष्यनिकै सुत दारादिक जीवनिविर्षे मोह प्रवतें है, कैसे हैं मनुष्यअविदित कहिये नांही जान्यां है अर्थ कहिये पदार्थ ताका आत्मा कहिये स्वरूप ज्यां ॥
भावार्थ-जिनि मनुष्यनि- जीव अजीव पदार्थका स्वरूप यथार्थ न जाण्यां तिनिकै देहविर्षे स्वपराव्यवसाय है अपनां देहकू आपका आत्मा जानैं है अर परका देहकू परका आत्मा जानैं हे तिनिकै पुत्र स्त्री आदि कुटुंबवि मोह ममत्व होय है, जब जीव अजीवका स्वरूप जानें तब देहळू अजीव मानें, आत्मकू अमूर्तीक चेतन जानैं आपनां आत्माकू
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अष्टपाहुड में मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका |
२९५
आपा मानैं परका आत्माकूं पर जानैं, तब परविषै ममत्व नांही होय । ता जीवादिक पदार्थका स्वरूप नीकै जांनि मोह न करनां यह जना - या है ॥ १० ॥
आगैं है है जो - मोहकर्मके उदयकरि मिथ्याज्ञान अर मिथ्याभाव होय. है ताकर आगामी भवविषै भी यह मनुष्य देहकूं चाह है:गाथा - मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो । मोहोदाएण पुणरवि अंगं सम्मण्णए मणुओ ॥ ११ ॥ संस्कृत - मिथ्याज्ञानेषु रतः मिथ्याभावेन भावितः सन् । मोहोदयेन पुनरपि अंगं मन्यते मनुजः || ११||
अर्थ - यह मनुष्य है सो मोहकर्मके उदयकरि मिथ्याज्ञानकरि मिथ्याभावकरि भाया संता फेरि भी आगामी जन्मविषै इस अंगकूं देहकूं सन्मानैं है भला मांनि चाहै है |
भावार्थ — मोहकर्मकी प्रकृति जो मिध्यात्व ताके उदयकरि ज्ञानभी मिथ्या होय है परद्रव्यकूं अपनां जानें है, बहुरि तिस मिथ्यात्वीकार मिथ्या श्रद्धान होय है ताकरि निरन्तर परद्रव्य विषै यह भावना रहै है जो–यह मेरै सदा प्राप्त होहू, यातें यह प्राणी आगामी देहकूं भला जाणि च है है ॥ ११ ॥
आ है है - जो मुनि देहविषै निरपेक्ष है देहकूं नांही चाह है या मैं ममत्व न करे है सो निर्वाणकूं पावै है,
गाथा - जो देहे णिरवेक्खो णिदो णिम्ममो णिरारंभो । आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥१२॥
१ - - मुद्रित सं. प्रतिमें 'सं मण्णए' ऐसा प्राकृतपाठ जिसका 'स्वं मन्यते' ऐसा संस्कृत पाठ है ।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत - यः देहे निरपेक्षः निर्द्वन्द्वः निर्ममः निरारंभः । आत्मस्वभावे सुरतः योगी सः लभते निर्वाणम् ॥ १२ ॥
अर्थ - जो योगी ध्यानी मुनि, देहविषै निरपेक्ष है देहकूं नही चाह है उदासीन है, बहुरि निर्द्वन्द्व है राग द्वेषरूप इच्छा अनिष्ट मांनितें रहित है, बहुरि निर्ममत्त्व है देहादिक विषै 'यह मेरा' ऐसी बुद्धितैं रहित है, बहुरि निरारंभ है या देहकै अर्थ तथा अन्य लौकिक प्रयोजनकै अर्थि आरंभ रहित है, बहुरि आत्मस्वभावविषै रत है लीन है निरन्तर स्वभाकी भावनासहित है सो मुनि निर्वाणकं पावै है |
भावार्थ — जो बहिरात्मा के भावकूं छोडि अन्तरात्मा होय परमात्मा मैं लीन होय है सो मोक्ष पावै है । यह उपदेश जनाया है ॥ १२ ॥ आगें बंधका अर मोक्षका कारणका संक्षेपरूप आगमका वचन कहै है;
गाथा - पदव्वरओ वज्झदि विरओ मुच्चेर विविहकम्मेहिं । एसो जिउवदेसो समासदो बंधमुक्खस्स ॥ १३॥ संस्कृत - परद्रव्यरतः बध्यते विरतः मुच्यते विविधकर्मभिः । एषः जिनोपदेशः समासतः बंधमोक्षस्य || १३ |
अर्थ — जो जीव परद्रव्यविषै रत है रागी है सो तौ अनेक प्रकारके कर्मनिकरि बंधे है कर्मनिका बंध करे है, बहुरि जो परद्रव्यविषै विरत है रागी नाही है सो अनेक प्रकारके कर्मनितैं छूटै है, यह बंधका अर मोक्षका संक्षेपकार जिनदेवका उपदेश है ॥
भावार्थ — बंध मोक्षके कारणकी कथनी अनेक प्रकार करि है ताका यह संक्षेप है—जो परद्रव्यसूं रागभाव सो तौ बंधका कारण अर विरागभाव सो मोक्षका कारण है, ऐसा संक्षेपकरि जिनेन्द्रका उपदेश हैः ॥ १३ ॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । २९७ ___ आगैं कहै है जो स्वद्रव्यविर्षे रत है सो सम्यग्दृष्टी होय है अर कर्मका नाश करै है;गाथा-सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्टी हवेइ सो साहू ।
. सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुदृट्टकम्माई ॥१४॥ संस्कृत-स्वदव्यरतः श्रमणः सम्यग्दृष्टिः भवति सः साधुः ।
सम्यक्त्वपरिणतः पुनःक्षेपयति दुष्टाष्टकमोणि ॥१४॥ अर्थ-जो मुनि स्वद्रव्य जो अपना आत्मा तावि रत है रुचि सहित है सो नियमकरि सम्यग्दृष्टी है, बहुरि सो ही सम्यक्त्व भावरूप परिणम्या संता दुष्ट जे आठ कर्म तिनिकू क्षेपै है, नाश करै है ॥ ___ भावार्थ- यह भी कर्मके नाश करनेका कारणका संक्षेप कथन है
जो अपनां स्वरूपकी श्रद्धा रुचि प्रतीति आचरणकरि युक्त है सो नियमकरि सम्यग्दृष्टी है, इस सम्यक्त्वभाव करि परिणम्या मुनि आठ कर्मका नाश करि निर्वाण पावै है ॥ १४ ॥ ___ आणें कहै है जो परद्रव्यवि रत है सो मिथ्यादृष्टी भया कर्म• बांधै
गाथा-जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्टी हवेइ सो साहू ।
मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुइटकम्मेहिं ॥१५॥ संस्कृत-यः पुनः परद्रव्यरतः मिथ्यादृष्टिः भवति सः साधुः।
मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ॥१५॥ १–मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'सो साहू' के स्थानमें 'णियमेण' ऐसा पाठ है। २-भु. सं. प्रतिमें 'दुट्ठट्टकम्माणि' ऐसा पाठ है । ३–मु. सं. प्रतिमें 'क्षिपते' ऐसा पाठ है ।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ — पुन: कहिये बहुरि जो साधु परद्रव्यविषै रत है रागी है सो मिथ्यादृष्टी होय है, बहुरि सो मिथ्यात्वभावरूप परिणम्यां संता दुष्ट जे अष्ट कर्मतिनिकर बंधै है |
भावार्थ —यह बंधके कारणका संपेक्ष है तहां साधु कहनें तैं ऐसा
नाया है जो बाह्य परिग्रह छोडि निर्ग्रन्थ होय तो हू मिथ्यादृष्टी भया संता दुष्ट जे संसार के दुःख देनेवाले अष्ट कर्म तिनेिकरि बंधै है ॥ १५ ॥ आगैं कहै है जो - परद्रव्यहीतैं दुर्गति होय है अर स्वद्रव्यही सुगति.. होय है :
गाथा - परदव्वादो दुग्गड़ सव्वादो हु सग्गई होई ।
इय पाऊण सदव्वे कुह रई विरय इयरम्मि || १६॥ संस्कृत - परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन् १६ अर्थ - परद्रव्यतै तौ दुर्गति होय है, बहुरि स्वद्रव्यतें सुगति होय है। यह प्रगट जाणौं, जातैं है भव्य जीव हौ ? तुम ऐसें जाणिकरि स्वद्रव्यविषै रति करो अर इतर जो परद्रव्य तातैं विरति करौ ॥
भावार्थ — लोक मैं भी यह रीति है अपने द्रव्यसूं रति करि अपनां ही भोगवै है सो सुख पावै है ताकूं कछू आपदा न आवै है, बहुरि परद्रव्यसूं प्रीतिकरि जैसैं तैसैं लेकरि भोगवै है ताक दुःख होय है आपदा आवै है । तातें आचार्य संक्षेपकरि उपदेश किया जो अपना आत्मस्वभावविषै तौं रति करौ यातैं सुगति हैं स्वगादिक भी याही तैं होय है। अर मोक्षभी याही तैं होय है, बहुरि परद्रव्यतैं प्रीति मति करौ यातें दुर्गति होय है संसार मैं भ्रमण होय है । इहां कोई कहें जो स्वद्रव्य मैं लीन भये मोक्ष होय है अर सुगति दुर्गति तौं परद्रव्यकी प्रीतितें होय है ? ताकूं कहिये जो - यह सत्य है, परन्तु इहां आशय तैं कला है जो
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । २९९
परद्रव्यर्ते विरक्त होय स्वद्रव्य मैं लीन होय तब विशुद्धता बहुत होय है, तिस विशुद्धता के निमित्ततैं शुभकर्मभी बंधे है अर अत्यंत विशुद्धता होय तब कर्मकी निर्जरा होय मोक्ष होय है तातैं सुगति दुर्गतिका होनां का तैसे युक्त है, ऐसें जाननां ॥ १६ ॥
आगैं शिष्य पूछै है जो - परद्रव्य कैसा है ? ताका उत्तर आचार्य कहै है; -
गाथा - आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ ।
तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसीहिं ॥ १७॥ संस्कृत - आत्मस्वभावादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति । तत् परद्रव्यं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभिः ॥१७॥ अर्थ — आत्मस्वभावतैं अन्य जो किछू सचित्त तौ स्त्री पुत्रादिक जीवसहित वस्तु बहुरि अचित्त धन धान्य हिरण्य सुवर्णादिक अचेतन वस्तु बहुरि मिश्र आभूषणादिसहित मनुष्य तथा कुटुंबसहित गृहादिक ये सर्व परद्रव्य हैं, ऐसैं जानें जीवादिक पदार्थका स्वरूप न जाण्या ताके जनावनें आर्थी सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवाननैं कह्या है अथवा ' अवितथं ' कहिये सत्यार्थ कह्या है ॥
भावार्थ — अपनां ज्ञानस्वरूप आत्मा सिवाय अन्य अचेतन मिश्र वस्तु हैं ते सर्वही परद्रव्य हैं ऐसें अज्ञानीके जनावनेंकूं सर्वज्ञदेवनैं कह्या है ॥ १७ ॥
आगैं कहें है जो —— आत्मस्वभाव स्वद्रव्य कला सो ऐसा है;गाथा - दुकम्मर हियं अणोवमं णाणविग्गहं णिचं |
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पा हवइ सव्वं ॥ १८ ॥ संस्कृत - दुष्टाष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम् ।
शुद्धं जिनैः भणितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम् ॥ १८॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ-दुष्ट जे संसारके दुःख देनेवाले ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्म तिनिकरि रहित अर जाकू काहूकी उपमा नाही ऐसा अनुपम अर ज्ञानही है विग्रह कहिये शरीर जाके ऐसा अर नित्य जाका नाश नाही अविनाशी अर शुद्ध कहिये विकाररहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान सर्वज्ञदेवनैं कह्या सो स्वद्रव्य है ।।
भावार्थ-ज्ञानानंदमय अमूर्तीक ज्ञानमूर्ति अपनां आत्मा है सो ही एक स्वद्रव्य है अन्य सर्व चेतन अचेतन मिश्र पर द्रव्य हैं ॥१८॥
आणें कहै है जो-जे ऐसे निजद्रव्यकू ध्यावें हैं ते निर्वाण पावै
गाथा-जे झायंति सदव् परदव्वपरम्मुहा हु सुचरित्ता ।
ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहदि णिव्वाणं ॥१९॥ संस्कृत-ये ध्यायति स्वद्रव्यं परद्रव्यपराङ्मुखास्तु सुचरित्राः।
ते जिनवराणां मार्गे अनुलग्नाः लभंते निर्वाणम् ॥१९॥ अर्थ-जे मुनि परद्रव्यतैं परादुःख भये संते स्वद्रव्य जो निज आत्मद्रव्य ताहि ध्याबैं है ते प्रगट सुचरित्रा कहिये निर्दोष चारित्रयुक्त भये संते जिनवर तीर्थंकरनिके मार्ग• अनुलग्न भये लागे संते निर्वाणकू पावै हैं ॥
भावार्थ-परद्रव्यका त्यागकरि जे अपनां स्वरूपकू व्या हैं ते निश्चयचारित्ररूप होय जिनमार्गमैं लागे ते मोक्ष पा हैं ।। १९ ॥
आगें कहै है जो-जिनमार्गमैं लग्या योगी शुद्धात्माकू ध्याय मोक्ष पाव है तो कहा ताकरि स्वर्ग नहीं पावै ? पावैही पावै, गाथा-जिणवरमएण जोई झाणे झाएह सुद्धमप्पाणं ।
जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ॥२०॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
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संस्कृत-जिनवरमतेन योगी ध्याने ध्यायति शुद्धमात्मानम् ।
येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम् ॥२०॥ अर्थ-योगी ध्यानी मुनि है सो जिनवर भगवानके मतकरि शुद्ध आत्माकू ध्यानविर्षे ध्यावै है ताकरि निर्वाणकू पावै है तौ ताकरि कहा स्वर्ग लोक न पावै ? पावेही पावै ॥ २० ॥ ___ भावार्थ-कोई जानँगा जो जिनमार्गमैं लागि आत्माकू ध्यावै सो मोक्ष पावै अर स्वर्ग तौ यात्रै होय नाही, ताकू कह्या है जो जिनमार्गमैं प्रवर्त्तनेवाला शुद्ध आत्माकू.ध्याय मोक्ष पावै है तौ ताकरि स्वर्गलोक कहा कठिन है ? यह तो ताके मार्गमैं ही है ॥ २० ॥ ___ आगें या अर्थकू दृष्टान्तकार दृढ करै है, गाथा--जो जाइ जोयणसयं दियहेणेकेण लेइ गुरुभारं ।
सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ॥२१॥ संस्कृत-यः याति योजनशतं दिवसेनैकेन लात्वा गुरुभारम् ।
... स किं क्रोशा मपि स्फुटं न शक्नोति यातुं भुवनतले २१
अर्थ-जो पुरुष बडा भार लेय एक दिनकरि सौ योजन जाय सो या भुवनतलविर्षे आध कोश कहा न जाय ? यह प्रगट जाणो ॥ ___ भावार्थ—जो पुरुष बडा भार लेय एक दिनमैं सौ योजन चाले ताकै आधकोश चालनां तौ अत्यंत सुगम भया, तैसैंही जिनमार्ग” मोक्ष पावै तौ स्वर्ग पावनां तौ अत्यंत सुगम है ॥ २१ ॥ ___ आगें याही अर्थका अन्य दृष्टान्त कहै है;-- गाथा—जो कोडिए ण जिप्पइ सुहडो संगामएहिं सव्वेहिं ।
सो किं जिप्पइ इकिं णरेण संगामए सुहडो ॥२२॥ संस्कृत-यः कोट्या न जीयते सुभटः संग्रामकैः सर्वैः ।
स किं जीयते एकेन नरेण संग्रामे सुभटः ॥ २२॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ — जो कोई सुभट संग्राम मैं सर्वही संग्रामके करनें वालेनि करि सहित कोडि नरनिकं सुगमताकरि जीतै सो सुभट एक नरकं कहा न जीते ? जीतेही ॥
भावार्थ — जो जिनमार्ग मैं प्रवर्त्ते सो कर्मका नाश करें तौ कहा स्वर्गका रोकनेवाला एक पापकर्म ताका नाश न करे ? करैही करे २२ आगैं कहै है जो―स्वर्ग तौ तपकरि सर्वही पावै है परन्तु ध्यानका योगकरि स्वर्ग पावै है सो तिस ध्यानके योगकरि मोक्ष भी पावै है; - गाथा - सग्गं तवेण सव्वो वि पावए किंतु झाणजोएण |
जो पाव सो पाव परलोये सासयं सोक्खं ॥ २३ ॥ संस्कृत- स्वर्गं तपसा सर्वः अपि प्राप्नोति किन्तु ध्यानयोगेन । यः प्राप्नोति सः प्राप्नोति परलोके शाश्वतं सौख्यम् २३ अर्थ — स्वर्ग तौ तपकरि सर्वही पावै है तथापि जो व्यानके योगकरि स्वर्ग पावै है सो ही ध्यानके योगकरि परलोकविषै शाश्वता सुखकं पावैहै ॥
भावार्थ - कायक्लेशादिक तप तौ सर्वही मतके धारक करैं हैं ते तपस्वी मंदकषायके निमित्त सर्वही स्वर्गकूं पावैं हैं, बहुरि जो ध्यानकरि स्वर्ग पावै है सो जिनमार्गविषै कया तैसा ध्यानके योगकरि परलोकविषै शाश्खता है सुख जाविषै ऐसा निर्वाणकूं पावै है || २३॥
आगैं ध्यानके योगकरि मोक्षकूं पावै है ताकूं दृष्टान्त दान्तकरि दृढ करै है;
गाथा - अइसोहनजोएणं सुद्धं हेमं हवेइ जह तह य । कालाईली अप्पा परमप्पओ हवदि || २४ ॥
संस्कृत - अतिशोभनयोगेन शुद्धं हेम भवति यथा तथा च । कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति ॥ २४ ॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३०३
अर्थ
- जैसैं सुवर्ण पाषाण है सो सोधनेंकी सामग्री के सबंधकरि शुद्ध सुवर्ण होय है तैसैं काल आदि लब्धि जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप सामग्रीकी प्राप्ति ताकरि यहु आत्मा कर्मके संयोगकरि अशुद्ध है सो ही परमात्मा होय है ॥ २४॥
भावार्थ — सुगम है ॥ २४ ॥
आगैं हैं हैं जो - संसारविषै व्रत तपकरि स्वर्ग होय है सो व्रत तप भला है अत्रतादिकरि नरकादिक गति होय है सो अत्रतादिक श्रेष्ठ नांही;गाथा - वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरह इय रेहिं । छायातवहियाणं पडिवालंताण गुरुमेयं ||२५||
संस्कृत- वरं व्रततपोभिः स्वर्गः मा दुःखं भवतु नरके इतरैः । छायातपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरुभेदः || २५ ॥
अर्थ- - व्रत अर तपकरि स्वर्ग होय है सो श्रेष्ठ है, बहुरि इतर जो अव्रत अर अतपतिनिकरि प्राणीकै नरकगतिविषै दुःख होय है सो मति होहु, श्रेष्ठ नांही । छाया अर आतपकै विषै तिष्ठनेवालेके जे प्रतिपालक कारण हैं तिनिकै बड़ा भेद है ॥
भावार्थ — जैसैं छायाका कारण तौ वृक्षादिक है, तिनिकरि छाया कोई बैठे सो सुख पावै, बहुरि आतापका कारण सूर्य अग्नि आदिक है तिनिके निमित्ततैं आताप होय ताविषै बैठे सो दुःख पावै ऐसैं इनिमैं बडा भेद है; तेसैं जो व्रत तपकूं आचरै सो स्वर्गका सुख पावै अर इनिकं न आचरै विषय कषायादिककूं सबै सो नरकके दुःख पावै, ऐसें इनिमैं बड़ा भेद है । तातैं इहां कहनेंका यह आशय है जो जेतैं निर्वाण न होय तेतैं व्रत तप आदिक मैं प्रवर्त्तनां श्रेष्ठ है या सांसारिक सुखकी प्राप्ति है अर निर्वाणके साधनें विषै भी ये सहकारी हैं। विषय कषायादिककी प्रवृत्तिका फल तौ केवल नरकादिकके दुःख हैं सो तिनि दुःख
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
निके कारणनिकू सेवनां यह तो बडी भूलि है, ऐसें जानना ॥ २५ ॥ ___ आगै कहै है जो-संसारमैं रहै जेतें व्रत तप पालनां श्रेष्ठ कह्या परन्तु जो संसारतें नीसऱ्या चाहै है सो आत्माकू ध्यावो;गाथा—जो इच्छइ णिस्सरिहुं संसारमहण्णवाउ रुदाओ।
कम्मिधणाण डहणं सो झायइ अपयं सुद्धं ॥२६॥ संस्कृत-यः इच्छति निःसत्तुं संसारमहार्णवात् रुद्रात् ।
कर्मेन्धनानां दहनं सः ध्यायति आन्मानं शुद्धम् ॥२६॥ अर्थ- जो जीव रुद्र कहिये बडा विस्ताररूप जो संसाररूप समुद्र तातें नीसरणे• चाहै है सो जीव कर्मरूप इंधनका दहन करनेवाला जो शुद्ध आत्मा ताहि घ्यावै है ।। ___ भावार्थ-निर्वाणकी प्राप्ति कर्मका नाश होय तब होय है अर कर्मका नाश शुद्धात्माके ध्यान” होय है सो संवारतें नीसरि मोक्ष... चाहै है सो शुद्ध आत्मा जो कर्ममलते रहित अनंत चतुष्टयसहित परमात्माकू ध्यावै.है, मोक्षका उपाय या विना अन्य नाही है ॥ २६ ॥ ___ आगै आत्माकू कैसे ध्यावै ताकी विधि दिखावे है;-- गाथा-सव्वे कसाय मुत्तं गारवमयरायदोस्वामोहं ।
लोयववहारविरदो अप्पा झाएड झागत्थो ॥२७॥ संस्कृत-सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागदोषव्यामोहम् ।
लोकव्यवहारविरतः आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः २७ __अर्थ--मुनि है सो सर्व कषायनिकू छोडि तथा गारव मद राग द्वेष तथा मोह इनिकू छोडिकरि अर लोकव्यवहारतें विरक्त भया ध्यान विषै तिष्ठया आत्माकू ध्यावै है ।। २७॥
१-मुद्रित सं. प्रतिमें "संसारमहण्णवस्स रुदस्स" ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत " संसारमहार्णवस्य रुद्रस्य " एसी है।
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अष्टपाहुड में मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३०५
भावार्थ-मुनि आत्माकं ध्यावै सो ऐसा भया ध्यावै -- प्रथम तौ क्रोध मान माया लोभ ये कषाय हैं इनि सर्वनिकूं छोडे, बहुरि गारवकूं छोडै, बहुरि मद जाति आदिका भेद आठ प्रकार है ताकूं छोडै बहुरि राग द्वेषकूं छोडै बहुरि लोकव्यवहार जो संघमैं रहनें मैं परस्पर विनयाचार वैयावृत्त्य धर्मोपदेश पढना पढावनां है ताकूं भी छोडे व्यानविषै तिष्ठै ऐसै आत्माकूं ध्यावै ॥
इहां कोई पूछै – सर्व कषायका छोडनां कया है ता मैं तौ सर्व गाव मदादिक आय गये न्यारे काहे कूं कहे ? ताका समाधान ऐसें जो -- सर्व कषायनिमैं गर्भित हैं तौऊ विशेष जनावनेकूं न्यारे कहे हैं तहां कषायकी प्रवृत्ति तौ ऐसे है जो आपके अनिष्ट होय तासूं क्रोध करै अन्यकूं नीचा मांनि मान करै काहू कार्यनिमित्त कपट करै आहारदिविषै लोभ करै बहुरि यह गार है सो - रस, ऋद्धि, सात, ऐसे तीन प्रकार है सो ये यद्यपि मानकषाय मैं. गर्भित है तौऊ प्रमादकी बहुलता इनिमैं है तार्तें न्यारे कहे है । बहुरि मद जाति लाभ कुल रूप तप बल विद्या ऐश्वर्य इनिका होय है सो न करै । बहुरि राग द्वेष प्रीति अप्रीतिकूं कहिये है, काहूसूं प्रीति करनां काहूसूं अप्रीति करनां, ऐसैं लक्षणके विशेष भेद करि कह्या । बहुरि मोह नाम परसूं ममत्व भावका है, संसारका ममत्व तौ मुनिकै है ही नांही अर धर्मानुरागतैं शिष्य आदिविषै ममत्वका व्यवहार है सो ये भी छोडै । ऐसैं भेदविवक्षाकरि न्यारे कहे हैं, ये ध्यानके घातक भाव हैं इनिकूं छोडे विना ध्यान होय नांही जातैं जैसें ध्यान होय तैसें करै ॥
1
२७ ॥
आ याही विशेष करि कहै है, -
गाथा - मिच्छत्तं अण्णाणं पात्रं पुण्गं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ॥ २८ ॥
अ० व० २०
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
संस्कृत-मिथ्यात्वं अज्ञानं पापं पुण्यं त्यक्त्वा त्रिविधेन ।
मौनव्रतेन योगी योगस्थः द्योतयति आत्मानम् ॥२८॥ अर्थ-योगी ध्यानी मुनि है सो मिथ्यात्व अज्ञान पाप पुण्य इनिकू मन वचन कायकरि छोडि मौनव्रतकरि ध्यानविर्षे तिष्ठया आत्माकू ध्यावै है ॥ __भावार्थ-केई अन्यमती योगी ध्यानी कहाबैं हैं तातें जैनलिंगी भी कोई द्रव्यलिंग धारे होय ताके निषेध निमित ऐसे कया है जोमिथ्यात्व अर अज्ञानकू छोडि आत्माका स्वरूप यथार्थ जांनि श्रद्धान जानैं न किया ताकै मिथ्यात्व अज्ञान तौ लग्या र ह्या तब ध्यान काहेका होय, बहुरि पुण्य पाप दोऊ बंधस्वरूप हैं इनि विर्षे प्रीति अप्रीति रहै जैतैं मोक्षका स्वरूप जान्यां नाही तब ध्यान काहे का होय, बहुरि मन वचनकी प्रवृत्ति छोडि मौन न करै तौ एकाग्रता कैसे होय । तातें मिथ्यात्व अज्ञान पुण्य पाप मन वचन काय की प्रवृत्ति छोडना ध्यानविर्षे युक्त कया है ऐसैं आत्माकू ध्याये मोक्ष होय है ॥ २८ ॥ ___ आगें ध्यान करनेवाला मौन करि तिष्ठै है सो कहा विचार करि तिष्ठै है, सो कहै है,अनु० छंदः-जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सबहा ।
जाणगं दिस्सदेणंतं तम्हा जंपेमि केण हं ॥२९॥ संस्कृत-यत् मया दृश्यते रूपं तत् न जानाति सर्वथा ।
ज्ञायकं दृश्यते न तत् तस्मात् जल्पामि केन अहम् २९ अर्थ-जारूप• मैं देखू हूं सो रूप मूर्तीक वस्तु है जड है अचेतन है सर्व प्रकार करि कळू ही जाणे नांही है, अर मैं ज्ञायकहूं सो
१-मु. सं. प्रतिमें 'णतं' इसकी संस्कृत 'अनन्तः' की है।
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडंकी भाषावचनिका।
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अमूर्तीकहूं यह जड अचेतन है सर्व प्रकार करि कळूही जाणें नांही है, तातें मैं कौनसूं बोलू ॥ ___ भावार्थ--जो दूजा कोऊ परस्पर बात करने वाला होय तब परस्पर बोलनां संमवै, सो आत्मा तौ अमूर्तीक-ताकै वचन बोलनां नाही, अर जो रूपी पुद्गल है सो अचेतन है कछू जाण नांही देखै नांही। तातें ध्यान करनेवाला कहै है--मैं कौनसूं बोलूं तातें मेरै मौन है ॥ २९ ॥ ___ आगैं कहै है जो-ऐसें ध्यान करते सर्व कर्मके आस्रवका निरोध करि संचित कर्मका नाश करै है;-- . श्लोक-सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवइ संचियं ।
जोयत्यो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ॥३०॥ संस्कृत-सर्वास्रवनिरोधेन कर्म क्षपयति संचितम् ।
योगस्थः जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम् ॥३०॥ अर्थ- योग ध्यानविय तिष्ठया योगी मुनि है सो सर्व कर्मके आत्र वका निरोधकरि संवरयुक्त भया पूर्व बांधे जे कर्म ते संचयरूप हैं तिनिका क्षय करै है ऐसैं जिनदेवनैं कह्या है सो जाणिये ॥ ___ भावार्थ-ध्यानकरि कर्मका आस्रव रुकै यातें आगामी बन्ध होय नाही अर पूर्व संचे कर्मकी निर्जरा होय है तब केवलज्ञान उपजाय मोक्ष प्राप्त होय है, यह आत्माके ध्यानका माहात्म्य है ॥ ३० ॥ ___ आगें कहै है जो व्यवहारमैं तत्पर है ताकै यह ध्यान नाही;गाथा—जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥३१॥ संस्कृत-यः सुप्तः व्यवहारे सः योगी जागर्ति स्वकार्ये ।
यः जागर्ति व्यवहारे सः सुप्तः आत्मनः कार्ये ॥३१॥
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३०८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ अर्थ--जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहारमैं सूता है सो अपनां स्वरूपका कार्यविथें जागे है, बहुरि जो व्यवहारविर्षे जागे है सो अपना आत्मकार्यवि. सूता है ॥ ___ भावार्थ-मुनिकै संसारी व्यवहार तौ कळू है नाही, अर जो है तो मुनि काहेका ? पाखंडी है । बहुरि धर्मका व्यवहार संघमैं रहनां महाव्रतादिक पालनां ऐसे व्यवहारमैं भी तत्पर नांही हैं, सर्व प्रवृत्तिकी निवृत्ति करि ध्यान करें हैं, सो व्यवहारमैं सूता कहिये, अर अपने आत्मस्वरूपमैं लीन भया देखे है जाणे है सो अपने आत्मकार्यविर्षे जागे है । बहुरि जो इस व्यवहारमैं तत्पर है सावधान है स्वरूपकी दृष्टि नाही है सो व्यवहारमैं जागता कहिये ॥ ३१॥ ___ आगैं यह कहे है जो-योगी पूर्वोक्त कथनकं जाणि व्यवहारकू छोडि आत्मकार्य करे है;-- गाथा-इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं ।
झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणं वरिंदेहिं ॥३२॥ संस्कृत-इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम् ।
ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रैः ॥३२॥ अर्थ-ऐसे पूर्वोक्त कथनकू जाणिकरि योगी ध्यानी मुनि है सो व्यवहार सर्व प्रकारही छोडै है अर परमात्माकू व्या है, केसैं ध्यावै हैजैसैं जिनवरेंद्र तीर्थकर सर्वज्ञदेवनें कह्या है तैसैं ध्यावै है ॥ ___ भावार्थ-सर्वथा सर्व व्यवहारकू छोडनां कह्या, ताका तो आशय यह जो-लोकव्यवहार तथा धर्मव्यवहार सर्वही छोडे ध्यान होय है । अर जैसैं जिनदेवनैं कह्या तैसैं परमात्माका ध्यान करनां सो अन्यमती
१-मु. सं. प्रतिमें 'जिणवरिंदेण' ऐसा पाठ है, जिसकी संस्कृत 'जिनवरेन्द्रेण' है।
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३०९
'परमात्माका स्वरूप अनेक प्रकार अन्यथा कहै है, ताका ध्यानका भी अन्यथा उपदेश करे है, ताका निषेध है । जिनदेवनैं परमात्माका तथा ध्यानका स्वरूप कह्या सो सत्यार्थ है प्रमाणभूत है तैसेंही योगीश्वर करें हैं, तेई निर्वाणकूं पावैं हैं ॥ ३२ ॥
आगैं जिनदेव जैसें ध्यान अध्ययनकी प्रवृत्ति कही है तैसैं उपदेश करै है;
गाथा - पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीस तीस गुत्तीसु । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सदा कुह ॥ ३३ ॥ गाथा - पंचमहाव्रतयुक्तः पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु ॥ ३३ ॥
अर्थ - आचार्य कहे है जो पांच महाव्रतकरियुक्त भया, बहुरि पांच समिति तीन गुप्ति इनिविषै युक्त भया, बहुरि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र जो रत्नत्रय तिसकरि संयुक्त भया, हे मुनिजनहौ ? तुम ध्यान अर अध्ययन शास्त्रका अभ्यास ताहि करौ ॥
भावार्थ --- अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य परिग्रहत्याग ये तो पांच महाव्रत, अर ईर्ष्या भाषा एषणा आदाननिक्षेपणा प्रतिष्ठापनां ये पांच समिति, अर मन वचन कायका निग्रहरूप तीन गुप्ति, यहु तेरह प्रकार चारित्र जिनदेव का है तिसकरि युक्त होय, अर निश्चय व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का है इनिकरि युक्त होय करि ध्यान अर अध्ययन करवाका उपदेश है । तहां प्रधान तौ ध्यान है ही अर तिसमैं न थंमै तत्र शास्त्रका अभ्यास मैं मन लगावै यही ध्यानतुल्य है जातैं शास्त्रमैं परमात्माका स्वरूपका निर्णय है सो यह ध्यानहीका अंग है ॥ ३३॥
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आगैं कहै है जो रत्नत्रयकूं आराधै है सो जीव आराधक ही है,
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्यो ।
आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं गाणं ॥३४॥ संस्कृत-रत्नत्रयमाराधयन् जीवः आराधकः ज्ञातव्यः ।
आराधनाविधानं तस्य फलं केवलज्ञानम् ॥३४॥ ___ अर्थ-रत्नत्रय जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ताहि आराधता जीव है सो आराधक जाननां, अर जो आराधनाका विधान है ताका फल केवलज्ञान है ॥ ___ भावार्थ-जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकू आराधै है सो केवलज्ञानकू पावै है सो जिनमार्गमैं प्रसिद्ध है ॥ ३४ ॥ ___ आगैं कहै है जो शुद्ध आत्मा है सो केवलज्ञान है अर केवलज्ञान है सो शुद्धात्मा है;गाथा-सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सबलोयदरसी य ।
सो जिणवरेहि भणियो जाण तुमं केवलं गाणं॥३५॥ संस्कृत-सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च ।
सः जिनवरैः भणितः जानीहि त्वं केवलं ज्ञानम्॥३५॥ __ अर्थ-आत्मा जिनवर सर्वज्ञदेव ऐसा कह्या है, कैसा है-- सिद्ध; काहूकरि निपज्या नाही है स्वयंसिद्ध है, बहुरि शुद्ध है कर्ममलते रहित है, बहुरि सर्वज्ञ है सर्व लोकालोककू जाने है बहुरि सर्वदर्शी है सर्व लोक अलोककू देखे है, ऐसा आत्मा है सो मुने ! तिसहीकू तू केवलज्ञान जांणि अथवा तिस केवलज्ञानही• अत्मा जाणि । आत्मामैं अर ज्ञानमैं कछू प्रदेश भेद है नांही, गुण गुणी भेद है सो गौण है। यह आराधनाका फल पूर्व केवलज्ञान कह्या, सो है ॥ ३५ ॥ ___ आनें कहै है जो योगी जिनदेवके मतकरि रत्नत्रयकं आराधे है सो. आत्माकू ध्यावै है;
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषाघचनिका।
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गाथा-रयणत्तयं पि जोइ आराहइ जो हु जिणवरमएण ।
सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण संदेहो ॥३६॥ संस्कृत-रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फुटं जिनवरमतेन।
सः ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः॥३६॥ अर्थ-जो योगी ध्यानी मुनि जिनेश्वरदेवके मतकी आज्ञाकरि रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकू निश्चयकरि आराधै है सो प्रगटपणे आत्माही• ध्यावै है जाते रत्नत्रय आत्माका गुण है । अर गुण गुणीमैं भेद नाही, रत्नत्रयकी आराधना है सो आत्माहीका आराधन है सो ही परद्रव्यकू छोडै है यामैं संदेह नाही ॥ ३६ ॥
भावार्थ--सुगम है ॥ ३६ ॥
आगें पूछया जो आत्मावि रत्नत्रय कैसे है ताका उत्तर आचार्य कहै है;गाथा-जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेय ।
तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ॥३७॥ संस्कृत-यत् जानाति तत् ज्ञानं यत्पश्यति तच्च दर्शनं ज्ञेयम् ।
तत् चारित्रं भणितं परिहारः पुण्यपापानाम् ॥३७॥ अर्थ-जो जाणौ सो ज्ञान है, जो देखै सो दर्शन है, बहुरि जो पुण्य अर पापका परिहार है सो चारित्र है; ऐसैं जानतां ॥ __ भावार्थ-इहां जाननेवाला अर देखनेवाला अर त्यागर्नेवाला दर्शन ज्ञान चारित्रकू कह्या सो ये तो गुणीके गुण हैं ते कर्ता होय नाही यातें जानन देखन त्यागन क्रियाका कर्ता आत्मा है, यातें ये तीनूं आत्माही हैं, गुण गुणीमैं किछु प्रदेश भेद है नांही । ऐसैं रत्नत्रय है सो आत्माही है, ऐसैं जाननां ॥ ३७ ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
आगैं इसही अर्थकूं अन्य प्रकार करि कहै है, गाथा - तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । चारितं परिहारो पर्यंपियं जिणवरिंदेहिं ॥ ३८ ॥ संस्कृत - तत्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वग्रहणं च भवति संज्ञानम् । चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रैः || ३८ ॥ अर्थ—तत्वरुचि है सो सम्यक्त्व है, तत्त्वका ग्रहण है सो सम्यग्ज्ञान "है, परिहार है सो चारित्र है, ऐसें जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव का है ॥ भावार्थ - जीव अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा बंध मोक्ष इनि तत्वनिका श्रद्धान रुचि प्रतीति सो सम्यग्दर्शन है, बहुरि तिनिहीका जाननां सो सम्यग्ज्ञान है, बहुरि परद्रव्यका परिहार तिस संबंधी क्रियाकी निवृत्ति सो चारित्र है: ऐसें जिनेश्वरदेवनैं कया है, इनिकं निश्चय व्यवहार नय करि आगमकै अनुसार साधनां ॥ ३८ ॥ आगें सम्यग्दर्शनकूं प्रधानकरि कहै है; -
गाथा - दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । दंसणविहीणपुरिसोन लहड़ तं इच्छियं लाहं ॥ ३९ ॥ संस्कृत - दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम् ।
दर्शन विहीन पुरुषः न लभते तं इष्टं लाभम् ||३९||
अर्थ — जो पुरुष दर्शनकरि शुद्ध है सो ही शुद्ध है जातैं दर्शन शुद्ध है सो निर्वाणकूं पावै है, बहुरि जो पुरुष सम्यग्दर्शनकरि रहित है सो पुरुष ईप्सित लाभ जो मोक्ष ताहि न पात्रै है |
भावार्थ — लोक मैं प्रसिद्ध है जो कोई पुरुष कछु वस्तु चाहै ताकी रुचि प्रतीति श्रद्धा न होय तौ ताकी प्राप्ति न होय यातैं सम्यग्दर्शनही निर्वाणकी प्राप्ति विषै प्रधान है ॥ ३९ ॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका ।
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___ आगैं कहै है जो-.ऐसा सम्यग्दर्शनका ग्रहणका उपदेश सार है ताकू जो मानें है सो सम्यत्क्व है;---- गाथा-इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु ।
तं सम्मत्तं भणियं सवणाणं सावयाणं पि ॥४०॥ संस्कृत-इति उपदेशं सारं जरामरणहरं स्फुटं मन्यते यत्तु ।
तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि ॥४०॥ अर्थ-इति कहिये ऐसा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका उपदेश है सो - सार है जरा मरणका हरणेवाला है तहां याकू जो मानैं है श्रद्धै है सो ही सम्यक्त्व कह्या है सो मुनिनिकू तथा श्रावकनिकू सर्वही• कया है तारौं सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान चारित्रकू अंगीकार करौ।। .. भावार्थ-जीवके जे ते भाव हैं तिनिमैं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सार हैं उत्तम हैं जीवके हित हैं, बहुरि तिनिमैं भी सम्यग्दर्शनः प्रधान हैं जातें याबिना ज्ञान चारित्रभी मिथ्या कहावै है तातें सम्यग्दर्शनकू प्रधान जांणि पहलैं अंगीकार करना, यह उपदेश मुनि तथा श्रावक सबहीकू है ॥ ४०॥ ___ आगें सम्यग्ज्ञानका स्वरूप कहै है;-- गाथा-जीवाजीवविहत्ती जोई जाणेइ जिणवरमएण ।
तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं ॥४१॥ संस्कृत-जीवाजीवविभक्ति योगी जानाति जिनवरमतेन ।
तत् संज्ञानं भणितं अवितथं सर्वदार्शभिः ॥४१॥ __ अर्थ-जो योगी मुनि जीव अजीव पदार्थका भेद जिनवरके मतकरि जाण है सो सम्यग्ज्ञान सर्वदर्शी सर्वका देखनेवाला सर्वज्ञदेव. कह्या है सो ही सत्यार्थ है, अन्य छद्मस्थका कह्या सत्यार्थ नाही असत्यार्थ है, सर्वज्ञका कह्या ही सत्यार्थ है।
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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
भावार्थ — सर्वज्ञदेव जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल ये छह द्रव्य कहे हैं तिनिमैं जीव तौ दर्शनज्ञानमयी चेतना स्वरूप कया है सो अमूर्त्तीक है स्पर्श रस गंध वर्ण इनितैं रहित है अर पुद्गल आदि पांच अजीव कहे हैं ते अचेतन हैं जड हैं । तिनिमैं पुगल स्पर्श रस गंध वर्ण शब्दसहित मूर्तीक है इंद्रियगोचर है, अन्य अमूर्तक हैं; तहां आकाशादि च्यारि तौ जैसें हैं तैसें तिष्ठे हैं, अर जीव पुगलकै अनादिसंबंध है छद्मस्थकै इंद्रियगोचर पुद्गलस्कंध हैं तिनिकूं ग्रहणकरि रागद्वेष मोहरूप परिणमै है शरीरादिकूं आपा माने है तथा इष्ट अनिष्ट मांनि रागद्वेषरूप होय है या नवीन पुद्गल कर्मरूप होय बंधकूं प्राप्त होय है, यह निमित्त नैमित्तिकभाव है; ऐसैं यह जीव अज्ञानी भया संताजीब पुद्गलका भेदकूं न जांनि मिथ्याज्ञानी होय हैं। यातें आचार्य कहै है जो जिनदेवके मततैं जीव अजीवका भेट जानि सम्यग्ज्ञानका स्वरूप जाननां, बहुरि यह जिनदेव का सो ही सत्यार्थ है प्रमाण नयकरि ऐसे ही सिद्ध होय है जातै जिनदेव सर्वज्ञ है सो सर्व वस्तुकं प्रत्यक्ष देखि - करि कया हैं । अन्यमती छद्मस्थ हैं तिनिनैं अपनी बुद्धि मैं आया तैसें कल्पना करि कया है सो प्रमाणसिद्ध नांही; तिनिमैं केई वेदान्ती तौ एक ब्रह्ममात्र कहैं हैं अन्य किछू वस्तुभूत नांही मायारूप अवस्तु है ऐसें मानें हैं, अर केई नैयायिक वैशेषिक जीवकूं सर्वथा नित्य सर्वगत हैं हैं जीव अर ज्ञानगुणक सर्वथा नेद मानें हैं अर अन्य कार्यमात्र हैं तिनिकूं ईश्वर करे हैं ऐसे मानें हैं, बहुरि केई सांख्यमती पुरुषकूं उदासीन चैतन्यस्वरूप मांनि सर्वथा अकर्त्त मानें हैं ज्ञानकूं प्रधानका धर्म मानें हैं, कई बौद्धमती सर्व वस्तुकूं क्षणिक मानें हैं सर्वथा अनित्य मानें हैं तिनि मैं भी मतभेद अनेक हैं, केई विज्ञानमात्र तत्व मानें हैं केई सर्वथा शून्य मानें हैं कोई अन्यप्रकार मानें हैं, बहुरि मीमांसक
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३१५ कर्मकांडमात्रही तत्व मानें हैं जीवकू अणुमात्र मान है तौऊ कछू परमार्थ नित्य वस्तु नाही इत्यादि मानें हैं, बहुरि चार्वाकमती जीवकू तत्व मानें नांही पंचभूततै जीवकी उत्पत्ति मानें हैं । इत्यादि बुद्धिकल्पित तत्व मानि परस्पर विवाद करें हैं, सो युक्तही है-वस्तुका पूर्णरूप दीखै नांही तब जैसैं अंधे हस्तीका विवाद करै तैसैं विवादही होय; तातैं जिनदेव सर्वज्ञ है वस्तुका पूर्णरूप देख्या है सोही कह्या है सो प्रमाण नयनिकरि अनेकान्तस्वरूप सिद्ध होय है सो इनिकी चर्चा हेतुवादके जैनके न्यायशास्त्र है तिनितें जानी जाय है; याः यह उपदेश है-जिनमतमैं जीवाजीवका स्वरूप सत्यार्थ कह्या है ताकू जानैं है सो सम्यग्ज्ञान है ऐसा जांणि जिनदेवकी आज्ञा मांनि सम्यग्ज्ञानकू अंगीकार करना, याहीतैं सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होय है, ऐसें जाननां ॥ ___ आरौं सम्यक्चारित्रका स्वरूप कहै है;गाथा-जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं ।
तं चारित्तं भणियं अवियप्पं कम्मरहिएहिं ॥ ४२ ॥ संस्कृत-यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापानाम् ।
तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितैः ॥ ४२ ॥ ___ अर्थ-योगी ध्यानी मुनि है सो तिस पूर्वोक्त जीवका भेदरूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञान ताहि जानिकरि अर पुण्य तथा पाप इनि दोऊनिका परिहार करै त्यागकरे सो चारित्र घातिकर्म” रहित जो सर्वज्ञ देव तार्ने कया है, कैसा हे निर्विकल्प है प्रवृत्तिरूप जे क्रियाके विकल्प तिनिकीर रहित हैं ॥ ४२ ॥ __ भावार्थ-चारित्र निश्चय व्यवहार भेदकरि दोय भेदरूप है, तहां महाव्रत समिति गुप्तिके भेदकरि कह्या है सो तो व्यवहार है तिनिमैं प्रवृत्तिरूप क्रिया है सो शुभकर्मरूप बंध करै है अर इनि क्रियानिमैं
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
जेता अंशा निवृत्ति है ताका फल बंध नाही है, ताका फल कर्मकी एक देश निर्जरा है । अर सर्व कर्मते रहित अपनां आत्मस्वरूप होनां सो निश्चय चारित्र है ताका फल कर्मका नाशही है, सो यह पुण्य पापके परिहाररूप निर्विकल्प है, पापका तो त्याग मुनिकै है ही, अर पुण्यका त्याग ऐसैं जो-शुभ क्रियाका फल पुण्य कर्मका बंध है ताकी वांछा नांही है; बंधके नाशका उपाय निर्विकल्प निश्चय चारित्रका प्रधान उद्यम है । ऐसैं इहां निर्विकल्प पुण्य पापकरि रहितं ऐसा निश्चय चारित्र कह्या है । चौदहवें गुणस्थानके अंतसमय पूर्ण चारित्र होय है, तिसतै लगताही मोक्ष होय है ऐसा सिद्धांत है ॥ ४२ ॥ ___ आगें कहै है जो-ऐसे रत्नत्रयसहित भया तप संयम समिति पालता शुद्धात्माकू ध्यावता मुनि निर्वाण पावै है;गाथा जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए ।
सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ॥४३॥ संस्कृत-यः रत्नत्रययुक्तः करोति तपः संयतः स्वशक्त्या ।
सः प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम्॥४३॥ अर्थ-जो मुनि रत्नत्रयसंयुक्त भया संता संयमी अपनी शक्तिसार तप करे हे सो शुद्ध आत्माकू ध्यावता संता पर मपद जो निर्वाण ताहि पावे है ॥
भावार्थ-जो मुनि संयमी पंच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति यह तेरह प्रकार चारित्र सोही प्रवृत्तिरूप व्यवहार चारित्र संयम ताकू अंगीकार करि अर पूर्वोक्त प्रकार निश्चय चारित्रकरि युक्त भया अपनी शक्तिसारू उपवास कायक्लेशादि बाह्य तप करै है से मुनि अन्तरंग तप जो ध्यान ताकरि शुद्ध आत्माकू एकाग्र चित्तकरि ध्यावता सन्ता निर्वाणकू पावै है ॥ ४३ ॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३१७. ___ आगें कहै है जो-ध्यानी मुनि ऐसा भया परमात्माकू ध्यावै है;गाथा-तिहि तिण्णि धरवि णिचं तियरहिओ तह तिएण
परियरिओ। दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई ॥४४॥ संस्कृत-त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेग
परिकरितः । द्विदोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी ॥४४॥ अर्थ-'त्रिभिः' कहिये मन वचन कायकरि, “त्रीन् ” कहिये वर्षा शीत उष्ण तीन कालयोग तिनिहि धरि करि, बहुरि त्रिकरहित कहिये माया मिथ्या निदान तीन शल्य तीनकार रहित भया, तथा “ त्रिकेण परिकरितः" दर्शन ज्ञान चारित्र करि मंडित भया, बहुरि दो दोष कहिये राग द्वेष तेही भये दोष तिनिकरि रहित भया योगी ध्यानी मुनि है सो परमात्मा जो सर्वकर्मरहित शुद्ध परमात्मा ताकू ध्यावै है ॥ . __ भावार्थ-मन वचन कायकरि तीन काल योग धरि परमात्माकू ध्यावै सो ऐसे कष्ट मैं दृढ रहै तब जाणिये याकै ध्यानकी सिद्धि है, कष्ट आये चिगिजाय तब ध्यानकी सिद्धि काहेकी ? बहुरि कोई प्रकारकी चित्तमैं शल्य रहै तब चित्त एकाग्र होय नाही तब ध्यान कैसैं होय ? तातें शल्य रहित कह्या, बहुरि श्रद्धान ज्ञान आचरण यथार्थ न होय तब ध्यान काहेका तारौं दर्शन ज्ञान चारित्र मंडित कह्या, बहुरि राग द्वेष इष्ट अनिष्ट बुद्धि रहै तब ध्यान कैसे होय ? तातैं परमात्माका ध्यान करै सो ऐसा होय करै, यह तात्पर्य है ॥ ४४ ॥ ___ आनें कहै है जो-ऐसा होय सो उत्तम सुखवू पावै है;गाथा-मयमायकोहरहिओ लोहेण विवजिओ य जो जीवो।
णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तम सोक्खं ॥४५॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत - मदमायाक्रोधरहितः लोभेन विवर्जितश्व यः जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः सः प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम् ४५ अर्थ — जो जीव मद माया क्रोध इनिकरि रहित होय बहुरि लोभकर विशेषकर रहित होय सो जीव निर्मल विशुद्ध स्वभावयुक्त भया उत्तम सुखकं पावै है |
भावार्थ — लोक मैं ऐसें है जो मद कहिये अतिमानी बहुरि माया कपट अर क्रोध इनिकरि रहित होय अर लोभकीर विशेष रहित होय सो सुख पावै है, तीव्रकषायी अति आकुलतायुक्त होय निरंतर दुखी रहै है; सो यह रीति मोक्षमार्ग मैं भी जाणूं जो क्रोध मान माया लोभ च्यार कषायतें रहित होय है तब निर्मल भाव होय तब यथाख्यात चारित्र पाय उत्तम सुख पावै है ॥ ४५ ॥
आगे कहै है जो विषय कषायनि मैं आसक्त है परमात्मा की भावनात रहित है रौद्रपरिणामी है सो जिनमतसूं पराङ्मुख है सो मोक्षके सुखनिकं नांही पा है, -
गाथा - विसयकसाएहि जुदो रुदो परमप्पभावरहियमणो ।
सोलह सिद्धिमुहं जिण मुद्दपरम्मुह जीवो ॥ ४६ ॥ संस्कृत - विषयकषायैः युक्तः रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः ।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिनमुद्रापराङ्मुखः जीवः ४६ अर्थ —जो जीव विषय कषायनिकरि युक्त है, बहुरि रुद्रपरिणामी है हिंसादिक विषयकप्रायादिक पापनिविषै हर्षसहित प्रवर्तें है, बहुरि पर - मात्मक भावनाकर रहित है चित्त जाका ऐसा जीव जिनमुद्रातैं परामुख है सो ऐसा सिद्धिसुख जो मोक्षका सुख ताहि नांही पावै है |
भावार्थ - जिनमत मैं ऐसा उपदेश है जो हिंसादिक पापनि विरक्त अर विषय कषायनिमैं आसक्त नांही अर परमात्माका स्वरूप जाणि
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३१९ तिसकी भावनासहित जीव होय है सो मोक्ष पावै है तातें जिनमतकी मुद्रातूं जो पराङ्मुख है ताकै काहेरौं मोक्ष होय संसारहीमैं भ्रमै है। इहां रुद्रका विशेषण किया है ताका ऐसा भी आशय हैं जो रुद्र ग्यारा होय हैं ते विषय कषायनिमैं आसक्त होय जिनमुद्रातें भ्रष्ट होय हैं तिनकै मोक्ष न होय है, तिनिकी.कथा पुराणनितें जाननी ॥ ४६ ॥
आज कहै है जो--जिनमुद्रातैं मोक्ष होय है सो यहु मुद्रा जिनि जीवनिकू न रुचे है ते संसारमैं ही तिष्ठें हैं;गाथा-जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिट्टा ।
सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ४७ संस्कृत-जिनमुद्रा सिद्धिसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा ।
स्वप्नेऽपि न रोचते पुनः जीवाः तिष्ठति भवगहने ४७ अर्थ-जिनमुद्रा है सो ही सिद्धिसुख है मुक्तिसुखही है, यह कारणविर्षे कार्यका उपचार जाननां, निजमुद्रा मोक्षका कारण है मोक्षसुख ताका कार्य है कैसी है जिनमुद्रा-जिन भगवाननैं जैसी कही है तैसीही है। तहां ऐसी जिनमुद्रा जो जीवकू साक्षात् तो दूरिही रहो स्वप्नविभी कदाचित् भी न रुचै है ताका स्वप्ना आवै है तौहू अवज्ञा आवै है तो सो जीव संसाररूप गहन वनविषै तिष्ठै है मोक्षके सुखकू नाही पावै है ॥
भावार्थ-जिनदेवभाषित जिनमुद्रा मोक्षका कारण है सो मोक्षरूप ही है जांतें जिनमुद्राके धारक वर्तमानमैंभी स्वाधीन सुखकू भोग हैं अर पीछे मोक्षके सुख पावै है । अर जा जीवकू यह न रुचै है सो मोक्ष नाही पावै हैं संसारहीमैं रहैं हैं ।। ४७ ॥ ___ आगैं कहै हैं जो परमात्माकू ध्यावै हैं सो योगी लोभरहित होय नवीन कर्मका आस्रव नाही करें हैं;--
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण ।
णादियदि णवं कम्मं णिदिई जिणवरिंदेहिं ॥४८॥ संस्कृत-परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलदलोभेन ।
नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥४८॥ अर्थ----जो योगी ध्यानी परमात्माकू ध्यावता संता वर्ते है सो मलका देनहारा जो लोभकषाय ताकरि छूटिये हैं ताकै लोभ मल न लागैं हैं याही नवीन कर्मका आस्रव ताके न होय यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव कया है ॥ ___ भावार्थ-मुनिभी होय अर परजन्मसंबंधी प्राप्तिका लोभ होय निदान करें ता परमात्माका ध्यान नाही यातें जो परमात्माका ध्यान करै ताकै इस लोक परलोकसंबंधी परद्रव्यका कळू भी लोभ न होय है याहीतें ताकै नवीनकर्मका आस्रव न होय है, यह जिनदेव कही है। यह लोभकषाय ऐसा है जो--दशम गुणस्थान ताई पहुंचि अव्यक्त होय भी आत्माकै मल लगावै है तातें याका काटनाही युक है। अथवा जहां ताई मोक्षकी चाहरूप लोभ रहै तहां तांई मोक्ष न होय तातै लोभका अत्यन्त निषेध हैं ॥ ४८ ॥ ___ आगें कहै है जो ऐसे निर्लोभी होय दृढ सम्यक्व ज्ञान चारित्रवान होय परमात्माकू ध्यावै सो परमपदकू पावै है;-- गाथा-होऊण दिढचरित्तो दिवसम्मत्तेग भावियमईओ।
झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई ॥४९॥ संस्कृत-भूत्वा दृढचरित्रः दृढसम्यक्त्वेन भावितमतिः ।
ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ॥४९॥ अर्थ--ऐसैं पूर्वोक्त प्रकार योगी ध्यानी मुनि दृढसम्यक्त्वकरि भावित है मति जाकी बहुरि दृढ है चारित्र जाकै ऐसा होयकरि आत्माकू ध्यावता. संता परमपद जो परमात्मपद ताकू पावै है ॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका ।
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भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप दृढ होय परीषह आये न चिगै, ऐसैं आत्माकू ध्यावै सो परमपद पवै यह तात्पर्य है ॥ ४८॥ ___ आरौं दर्शन ज्ञान चारित्रौं निर्वाण होय है ऐसा कहते आये सो तहां दर्शन ज्ञान तौ जीवका स्वरूप है ते जाणे, अर चारित्र कहा है ? ऐसी आशंकाका उत्तर कहै है,गाथा-चरणं हवई सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो।
सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ॥५०॥ संस्कृत-चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः सः भवति आत्मसमभावः।
स रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः ॥५०॥ अर्थ—स्वधर्म कहिये आत्माका धर्म है सो चरण कहिये चारित्र है, बहुरि धर्म है सो आत्मासमभाव है सर्व जीवनिविर्षे समानभाव है जो अपना धर्म है सोही सर्व जीवनिमैं है अथवा सर्व जीवनिकू आपसमान मानना है, बहुरि जो आत्मस्वभावसूं रागद्वेषकरि रहित है काहूर्ते इष्ट अनिष्ट बुद्धि नाही है ऐसा चारित्र है सो जैसैं जीवके दर्शन ज्ञान है तैसेंही अनन्य परिणाम है जीवहीका भाव है ॥ __ भावार्थ-चारित्र है सो ज्ञान विर्षे रागद्वेषरहित निराकुलतारूप थिरता भाव है सो जीवहीका अभेदरूप परिणाम है, कछू अन्य वस्तु नाही है ॥ ५० ॥
आज जीवके परिणामकै स्वच्छताळू दृष्टान्तकरि दिखावै है, गाथा-जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो।
तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो ५१ संस्कृत-यथा स्फटिकमणिः विशुद्धः परद्रव्ययुतः भवत्यन्यः सः
तथा रागादिवियुक्तः जीवः भवति स्फुटमन्यान्यविधः अ०व० २१
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ — जैसैं स्फटिकमणि विशुद्ध है निर्मल है उज्ज्वल है सो परद्रव्य जो पीत रक्त हरित पुष्पादिक तिनिकरि युक्त भया अन्य सा दीखै पीतादिवर्णमयी दीखै, तैसें जीव है सो विशुद्ध है स्वच्छस्वभाव है सो रागद्वेषादिक भावकरि युक्त भया संता अन्य अन्य प्रकार भया दीखै है यह प्रगट है ॥
भावार्थ — इहां ऐसा जाननां जे रागादि विकार हैं ते पुद्गल के विकार हैं अर यहु जीवकै ज्ञानविषै आय झलकै तब तिनितैं उपयुक्त भया ऐसें जाने जो ये भाव मेरेही हैं तिनिका भेदज्ञान न होय तब जीव अन्य अन्य प्रकाररूप अनुभव मैं आवै है तहां स्फटिकमणिका दृष्टान्त है ताकै अन्यद्रव्य पुष्पादिकका डांक लागे तब अन्यसा दीखै है, ऐसें जीवके स्वच्छभावकी विचित्रता जाननीं ॥ ५१ ॥
याहीतैं आगे कहै है जो जेर्ते मुनिकै रागद्वेषका अंश होय है तेतैं सम्यग्दर्शनकूं धारता भी ऐसा होय है; -
गाथा - देव गुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजदेसु अणुरतो । सम्मतमुव्वहंतो झाणरओ होइ जोई सो || ५२ ||
संस्कृत - देवे गुरौ च भक्तः साधर्मिके च संयतेषु अनुरक्तः । सम्यक्त्वमुद्वहन् ध्यानरतः भवति योगी सः ॥५२॥ अर्थ — जो योगी ध्यानी मुनि सम्यक्त्वकं धारता संता है अर जे तैं यथाख्यात चारित्रकूं न प्राप्त होय है तेतैं देव जो अरहंत सिद्ध अरु गुरु जो शिक्षादीक्षाका देनेवाला इनि विषै तौ भक्तियुक्त होय है इनिकी भक्ति विनय सहित होय है, बहुरि अन्य संयमी मुनि आपसमान धर्मसहित हैं तिनिविषै अनुरक्त है अनुरागसहित होय है सो ही मुनि ध्यानविर्षै प्रीतिवान होय है, अर मुनि होयकारभी देव गुरु साधर्मीनिविषै भक्ति अनुरागसहित न होय ताकूं ध्यानकै विषै रुचिवान न कहिये जातैं ध्यान
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका ।
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होय ताकै ध्यानवाला रुचि प्रीति होय, ध्यानवाले न रुचें तत्र जानिये याकूं ध्यान भी न रुचै ऐसें जाननां ॥ ५२ ॥
ध्यान सम्यग्ज्ञानीकै होय है सो ही तप करि
आगें कहै है जो कर्मका क्षय करै है;
गाथा - उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहिं । तं णाणी तिहि गुत्तो खवे अंतोमुहुत्ते || ५३ ॥ संस्कृत - उग्रतपसा ज्ञानी यत् कर्म क्षपयति भवैर्बहुकैः । तज्ज्ञानी त्रिभिः गुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्त्तेन ॥ ५३ ॥ अर्थ — अज्ञानी है सो उग्र कहिये तीव्र जो तप ताकरि बहुत भवनिकर जो कर्म क्षय करै है तिस कर्मकूं ज्ञानी मुनि तीन गुप्तिकर युक्त भया अन्तर्मुहूर्तरि क्षय करे है ॥
भावार्थ — जो ज्ञानका सामर्थ्य है सो तीव्र तपकाभी सामर्थ्य नांही जातैं ऐसैं है - जो अज्ञानी अनेक कष्ट सहि करि तीव्र तपकूं करतां संता कोड्यां भवनिकरि जो कर्मका क्षय करै सो आत्म भावनासहित ज्ञानी मुनि ति कर्मकं अन्तर्मुहूर्त में क्षय करे है, यह ज्ञानका सामर्थ्य है ॥ ५३ ॥ मैं कहै है जो इष्ट वस्तुका संबंधकरि परद्रव्यविषै रागद्वेष करै है सो तिस भाव करि अज्ञानी होय है, ज्ञानी यातैं उलटा है:गाथा - सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणड़ रागदो साहू ।
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सो तेण हु अण्णाणी गाणी एत्तो हु विवरीओ ॥ ५४ ॥ संस्कृत - शुभयोगेन सुभावं परद्रव्ये करोति रागतः साधुः ।
सः तेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः ॥ ५४ ॥ अर्थ — शुभ योग कहिये आपके इष्ट वस्तु ताका योग संबंधकरि परद्रव्यविषै सुभाव कहिये प्रीतिभाव ताहि करै है सो प्रगट राग द्वेष
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
है, इष्टविषै राग भया तब अनिष्ट वस्तुविषै द्वेषभाव होयही; ऐसें जो राग द्वेष करै है सो तिस कारणकार रागी द्वेषी अज्ञानी है, बहुरि यातें विपरीत कहिये उलटा है परद्रव्यविषै राग द्वेष नांही करे है सो ज्ञानी है ॥
भावार्थ- ज्ञानी सम्यग्दृष्टी मुनिकै परद्रव्यविषै रागद्वेष नांही है जातें राग जाकूं कहिये जो — परद्रव्यकूं सर्वथा इष्ट मांनि राग करै तैसेही अनिष्ट मांनि द्वेष करै, सो सम्यग्ज्ञानी परद्रव्यकूं इष्ट अनिष्ट कल्पै नांही तब काहेकूं राग द्वेष होय, चारित्रमोहके उदयतें कछू धर्मराग होय ताकूं भी रोग जांणि भला न जाणें तब अन्यसूं कैसें राग होय, परद्रव्यसूं राग द्वेष करै सो तौ अज्ञानी है; ऐसें जाननां ॥ ५४ ॥
आगे कहै है जो जैसें परद्रव्यकै विषै रागभाव होय है तैसें मोक्षकै निमित्तभी राग होय तौ सो भी राग आस्रवका कारण है, सो भी ज्ञानी न करै; -
गाथा - आसवहेदूय तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि । सोते हु अण्णाणी आदसहावा हु विवरीओ ॥ ५५॥ संस्कृत - आस्रवहेतुश्च तथा भावः भोक्षस्य कारणं भवति ।
सः तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावातु विपरीतः || ५५॥ अर्थ—जैसैं परद्रव्यविषै राग कर्मबंधका कारण पूर्वै कह्या तैसाही राग भाव जो मोक्षनिमित्तभी होय तौ आस्रवहीका कारण है कर्मका बंधही करै है तिस कारण करि जो मोक्षकूं परद्रव्यकी ज्यों इष्ट मानि तैसैंही रागभाव करै तौ सो जीव मुनिभी अज्ञानी है जातैं कैसा है सो आत्मस्वभाव विपरीत है, आत्मस्वभावकूं जान्यां नांही ॥
भावार्थ — मोक्ष तौ सर्व कर्मनित रहित अपनांही स्वभाव है आपकं सर्व कर्म रहित होनां, तातैं ये भी रागभाव ज्ञानीकै न होय; यद्यपि
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका ।
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चारित्र मोहका उदय होय तौ तिस रागकू बंधका कारण जांनि रोगवत् छोड्या चाहै तौ ज्ञानी है ही, अर इस रागभावकू भला जांणि आप करै तौ अज्ञानी है आत्माका स्वभाव सर्व रागादिकतै रहित है ताकू या न जान्यां; ऐसैं रागभावकू मोक्षका कारण अर भला जांनि करै ताका निषेध जाननां ॥ ५५ ॥
आज कहै है जो-कर्मही मात्र सिद्धि मानै है तानें आत्मस्वभाव जान्यां नांही सो अज्ञानी है जिनमत प्रतिकूल है;गाथा—जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो ।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो॥५६॥ संस्कृत-यः कर्मजातमतिकः स्वभावज्ञानस्य खंडदूषणकरः ।
सः तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषकः भणितः॥५६॥ अर्थ-जो कर्महीकै विर्षे उपजै है वुद्धि जाकै ऐसा पुरुष है सो स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान ताकू खंडरूप दूषणका करनेवाला है, इंद्रियज्ञान खंडखंडरूप है अपनें अपने विषयकू जानैं है तिसमात्रही ज्ञानकू मान है तिस कारणकरि ऐसैं माननेवाला अज्ञानी है जिनमतका दूषण करै है॥ __ भावार्थ-भीमांसकमती कर्मवादी हैं सर्वज्ञकू मा. नाही, इन्द्रियज्ञानमात्रही ज्ञानकू मानें हैं, केवलज्ञानकू मानें नाही, ताका इहां निषेध किया है जातें जिनमतमैं आत्माका स्वभाव सर्वका जाननेवाला केवलज्ञानस्वरूप कह्या है सो कर्मके निमित्ततें आच्छादित होय इंद्रियनिकै द्वारै क्षयोपशमके निमित्तौं खंडरूप भया खंड खंड विषयनिकू जानें है, कर्मका नाश भये केवलज्ञान प्रगट होय तब आत्मा सर्वज्ञ होय है ऐसैं मीमांसक मती मानें नांही सो अज्ञानी है जिनमततै
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३२६ पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचितप्रतिकूल है कर्ममात्रहीक विर्षे जाकी बुद्धि गत होय रही है; ऐसैं कोऊ
और भी मानें सौ ऐसाही जाननां ॥ ५६ ।। ___ आगैं कहै है जो ज्ञान चारित्र रहित होय अर तप सम्यक्त्व रहित होय अर अन्य भी क्रिया भावपूर्वक न होय तो ऐसैं केवल लिंग भेषमात्रही करि कहा सुख है ? किछू भी नाही;गाथा--णाणं चरित्तहीणं देसणहीणं तवेहिं संजुत्तं ।
अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥५७॥ संस्कृत-ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहींनं तपोभिः संयुक्तम् ।
अन्येषु भावरहितं लिंगग्रहणेन किं सौख्यम् ॥५७॥ अर्थ-जहां ज्ञान तौ चारित्ररहित है, बहुरि जहां तपकरि तौ युक्त है अर दर्शन जो सम्यत्क्व ताकार रहित है, बहुरि अन्य भी आवश्यक आदि क्रिया हैं तिनि विर्षे शुद्धभाव नाही है; ऐसैं लिंग जो भेष ताके ग्रहणविर्षे कहा सुख है ॥ __ भावार्थ-कोई मुनि भेषमात्र तौ मुनि भयो अर शास्त्र भी पढ़ें हैं ताकू कहै है जो-शास्त्र पढि ज्ञान तो किया परन्तु निश्चय चारित्र जो शुद्ध आत्माका अनुभवरूप तथा बाह्य चारित्र निर्दोष न किया अर तपका क्लेश बहुत किया अर सम्यक्त्व भावना न भई अर आवश्यक आदि बाह्य क्रियाकरी अर भाव शुद्ध न लगाया तो ऐसे बाह्य भेषमात्रमै तो क्लेश ही भया कुछ शान्तभावरूप सुख तौ न भया अर यहु भेष परलोकके सुखके विौं भी कारण न भया; तातै सम्यक्त्वपूर्वक भेष धारनां श्रेष्ठ है ॥ ५७ ॥
आज सांख्यमती आदिका आशयका निषेध क है; गाथा-अच्चेयणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी ।
सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा ॥५८॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचीनका। ३२७ संस्कृत-अचेतनेपि चेतनं यः मन्यते सः भवति अज्ञानी ।
सः पुनः ज्ञानी भणितः यः मन्यते चेतने चेतनम् ५८ ___ अर्थ—जो अचेतनवि चेतनकू मानें है सो अज्ञानी है बहुरि जो. चेतनविर्षे ही चेतनकू मान है सो ज्ञानी कह्या है ॥
भावार्थ—संख्यमती ऐसैं कहै है जो पुरुष तौ उदासीन चेतनास्वरूप नित्य है अर यह ज्ञान है सो प्रधान धर्म है, ताके मतमैं सो पुरुषकू उदासीन चेतनास्वरूप मान्यां सो ज्ञान विना तौ जडही भया, ज्ञानविना चेतन काहेका ? बहुरि ज्ञानकू प्रधानका धर्म मान्या अर प्रधान• जड मान्यां तब अचेतनविर्षे चेतनामानी तब अज्ञानीही भया । बहुरि नैयायिक वैशेषिकमती गुण गुणीकै सर्वथा भेद मानें है तब चेतना गुण जीवतै न्यारा मान्यां तब जीव तो अचेतनही रह्या ऐसैं अचेतनविर्षे चेतनपणां मान्या । बहुरि भूतवादी चार्वाक भूत पृथ्वी आदिक” चेतनता उपजी माने है तहां भूत तौ जड है तिनिविर्षे चेतनता कैसे उपजै । इत्यादिक अन्य भी केई मानें हैं ते सारे अज्ञानी हैं तातें चेतनविर्षे ही चेतन मानै सो ज्ञानी है, यह जिनमत है ॥ ५८ ॥ __ आगैं कहै है जो तपरहित तौ ज्ञान अर ज्ञानरहित तप ये दोऊ ही अकार्य हैं दोऊ संयुक्त भयेही निर्वाण है;गाथा-तवरहियं जणाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो ।
तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ॥ ५९॥ संस्कृत-तपोरहितं यत् ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तपः अपि अकृतार्थम् ।
तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम् ॥ ५९॥ अर्थ-जो ज्ञान तपरहित है बहुरि जो तप है सो भी ज्ञानरहित है तौ दोऊही अकार्य हैं ता” ज्ञान तपकरि संयुक्त है सो निर्वाणकू पावै है।।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
भावार्थ — अन्यमती सांख्यादिक कोई तौ ज्ञानचर्चा तो बहुत करै है अर क है है - ज्ञानही मुक्ति है अर तप करै नांही, विषयकषायनिकूं प्रधानका धर्म मांनि स्वच्छंद प्रवत् । बहुरि केई ज्ञानकूं निष्फल मांनि अर ताकूं यथार्थ जानैं नांही अर तप क्लेशादिकहीतें सिद्धि मांनि ताके करने मैं तत्पर रहै । तहां आचार्य कहै है - ये दोऊही अज्ञानी हैं जे ज्ञानसहित तप करे हैं ते ज्ञानी हैं वही मोक्ष पावैं हैं, यह अनेकांतस्वरूप जिनमतका उपदेश है ॥ ५९ ॥
आगैं याही अर्थकं उदाहरण दृढ करें है;
गाथा - धुवसिद्धी तित्थयरो चरणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणत्तो वि ॥ ६० ॥ संस्कृत - ध्रुवसिद्धिस्तीर्थंकरः चतुर्ज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम् ।
ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तः अपि ॥ ६०॥ अर्थ — आचार्य कहै है- देखो जाकै नियमकरि मोक्ष होनी है अर च्यार ज्ञान मति श्रुत अवधि मन:पर्यय इनिकरि युक्त है ऐसा तीर्थंकर है सो भी तपश्चरण करे हैं, ऐसैं निश्चयकरि जांनि ज्ञानकरि युक्त होतैं भी तप करनां योग्य है ॥
भावार्थ तीर्थकर मति श्रुति अवधि इनि तीन ज्ञान सहित तौ जनमै है बहुरि दीक्षा लेतेंही मन:पर्यय ज्ञान उपजै है बहुरि मोक्ष जाकै नियमकरि होनी है तौऊ तप करे है, तातैं ऐसा जांनि ज्ञान होतेंभी तप कर - नेविषै तत्पर होनां, ज्ञानमात्रही मुक्ति न माननीं ॥ ६० ॥
आगैं जो बाह्यलिंगकरि सहित है अर अभ्यंतरलिंगरहित है सो स्वरू पाचरण चारित्रतैं भ्रष्ट भया मोक्षमार्गका विनाश करनेवाला है, ऐसा सामान्यकरि कहै है;
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुंडकी भाषावचनिका। ३२९ गाथा-बाहिरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियम्मो ।
सो सगचरित्तभहो मोक्खपहविणासगो साहू ॥६१॥ संस्कृत-बाह्यलिंगेन युतः अभ्यंतरलिंगरहितपरिका ।
सः स्वकचारित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः॥६१॥ अर्थ---जो जीव बाह्यलिंग भेषकार संयुक्त है, अर अभ्यंतरलिंग जो परद्रव्यते सर्व रागादिक ममत्वभाव रहित आत्माका अनुभवन ताकरि रहित है परिकर्म कहिये परिवर्तन जामैं ऐसा मुनि है सो स्वकचारित्र कहिये अपना आत्मस्वरूपका आचरण जो चारित्र ताकार भ्रष्ट है, याहीतैं मोक्षमार्गका विनाश करनेवाला है ॥ -
भावार्थ---यह संक्षेपकरि कह्या जानूं जो बाह्यलिंगसंयुक्त है अर अभ्यंतर काहये भावलिंग रहित है सो स्वरूपाचरण चारित्रत भ्रष्ट भया मोक्षमार्गका नाश करनेवाला है ॥ ६१ ॥ ___ आगैं कहै है---जो मुखकरि भाया ज्ञान है सो दुःख आये नष्ट होय है तातै तपश्चरणसहित ज्ञानकू भावनां;अनुष्टुपः-सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि ।
. तम्हा जहावलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए ॥६२॥ संस्कृत-सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति ।
तस्मात् यथाबलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत्॥६२॥ ___ अर्थ-जो सुखकरि भाया हुवा ज्ञान है सो उपसर्ग परीषहादिकरि दुःखळू उपजेतें नष्ट होजाय है तातें यह उपदेश है जो योगी ध्यानी मुनि है सो तपश्चरणादिके कष्ट दुःखसहित आत्माकू भावै ॥ ___ भावार्थ—तपश्चरणका कष्ट अंगीकार करि ज्ञानकू भावै तौ परीषह आये ज्ञानभावनातै चिगै नांही तातै शक्तिसारू दुःख सहित ज्ञानकू भावना,
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित--
सुखहीमैं भावै दुःख आये व्याकुल होय तब ज्ञानभावना न रहै; ताते यह उपदेश है ॥ ६२ ॥ ___ आगै कहै है जो-आहार आसन निद्रा इनिळू जीतिकरि आत्माकू ध्यावना;गाथा-आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण ।
झायव्वो णियअप्पा णाऊणं गुरुपसाएण ॥६३॥ संस्कृत-आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन ।
ध्यातव्यः निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ॥६३॥ अर्थ-आहार आसन निद्रा इनिळू जीतिकरि अर जिनवरके मत करि गुरुके प्रसादकरि जानि निज आत्माकू घ्यावणां ॥
भावार्थ-आहार आसन निद्राकू जीतिकरि आत्माकू घ्यावनां तो अन्यमतीभी कहैं हैं परन्तु तिनिकै यथार्थ विधान नाही तातैं आचार्य कहै है कि जैसैं जिनमतमैं कह्या है तिस विधानक गुरुनिके प्रसादकरि जांनि अर ध्याये सफल है, जैसे जैनसिद्धान्तमैं आत्माका स्वरूप तथा ध्यानका स्वरूप अर आहार आसन निद्रा इनिके जीतनेका विधान कह्या है तैसें जांनिकरि तिनिमैं प्रवर्त्तनां ॥ ६३ ॥
आगैं आत्माकू ध्यावनां सो आत्मा कैसा है, सो कहै है,गाथा-अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा ।
सो झायबो णिचं गाऊणं गुरुपसाएण ॥६४॥ संस्कृत-आत्मा चारित्रवान् दर्शनज्ञानेन संयुतः आत्मा ।
सः ध्यातव्यः नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ॥६४॥ अर्थ-आत्मा है सो चारित्रवान् है बहुरि दर्शन ज्ञानकरि सहित है ऐसा आत्मा गुरुके प्रसादकरि जानि ध्यावनां ॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३३१ mmmmmmmmmmmmm ___ भावार्थ-आत्माका रूप दर्शनज्ञानचारित्रमयी है सो याका रूप जैनगुरुनिके प्रसादकरि जान्या जाय है। अन्यमती अपनी बुद्धिकल्पित जैसे तैसैं मानि ध्यावें हैं तिनिकै यथार्थ सिद्धि नाहीं; तातें जैनमतकै अनुसार ध्यावनां ऐसा उपदेश है ॥६४ ॥ ___ आगैं कहैं हैं--आत्माका जाननां भावनां विषयनितें विरक्त होना ये उत्तरोत्तर दुःख” पाइये है;गाथा-दुक्खे णज्जइ अप्पा अप्पा पाऊण भावणा दुक्खं ।
भावियसहावपुरिसो विसयेसु विरजए दुक्खं ॥६५॥ संस्कृत-दुःखेन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् ।
भावितस्वभावपुरुषः विषयेषु विरज्यति दुःखम् ॥६५॥ अर्थ-प्रथम तौ आत्माकू जानिये है सो दुःखतें जानिये है, बहुरि आत्माकू जानिकरि भी भावना करना फेरि फेरि याहीका अनुभव करनां दुःखतें होय है, बहुरि कदाचित् भावनां भी कोई प्रकार होय तो भाया है जिनभावना जानैं ऐसा पुरुष विषयनिविर्षे विरक्त बडे दुःखतें होय है।
भावार्थ-आत्माका जाननां भावनां विषयनितें विरक्त होनां उत्तरोत्तर यह योग मिलनां बहुत दुर्लभ है, यातें यह उपदेश है जो-योग मिले प्रमादी न होनां ॥६५॥ ___ आगैं कहैं हैं जैसे विषयनिमैं यह मनुष्य प्रवत्” है तेतैं आत्मज्ञान न. होय है;गाथा-ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम ।
विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ॥६६॥ संस्कृत-तावन्न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नरः प्रवर्तते यावत् ।
विषये विरक्तचितः योगी जानाति आत्मानम् ॥६६॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ—जेरौं यह मनुष्य इन्द्रियनिके विषयनिविर्षे प्रवत्र्ते है तेरौं आत्माकू नांही जानैं है तातें योगी ध्यानी मुनि है सो विषयनिविर्षे विरक्त है चित्त जाका ऐसा भया संता आत्माकू जानें है ॥ ___ भावार्थ-जीवका स्वभावकै उपयोगकी ऐसी स्वच्छता है जो जिस ज्ञेय पदार्थसूं उपयुक्त होय तैसाही हो जाय है, ता. आचार्य कहै हैं जो-जेविषयनिमैं चित्त रहै तेरौं तिनिरूप रहै है आत्माका अनुभव नाही होय; तारौं योगी मुनि ऐसा विचारि विषयनितें विरक्त होय आत्मामैं उपयोग लगावै तब आत्माकू जानै अनुभवै तातै विषयनितें विरक्त होना यह उपदेश है ॥६६॥ ___ आगैं इसही अर्थ• दृढ कर है जो आत्माकू जानि करिभी भावना बिना संसारहीमैं रहै है;गाथा-अप्पा णाऊण णरा केई सब्भावभावपन्भट्टा ।
हिंडंति चाउरंगं विसयेसु विमोहिया मूढा ॥६७॥ संस्कृत-आत्मानं ज्ञात्वा नराः केचित् सद्भावभावप्रभ्रष्टाः ।
हिण्डन्ते चातुरंगं विषयेषु विमोहिताः मूढाः ॥६७।। अर्थ—केई मनुष्य आत्माकू जानिकरिभी अपने स्वभावकी भावनातै अत्यंत भ्रष्ट भये विषयनिविर्षे मोहित होय करि अज्ञानी मूर्ख च्यार गतिरूप संसारविर्षे भ्रमै है ॥ ६७ ॥ __ भावार्थ-पहलें कह्याथा जो आत्माकू जाननां भावनां विषयनित विरक्त होनां ये उत्तरोत्तर दुर्लभ पाइये है, तहां विषयनिमैं लग्या प्रथम तौ आत्माकू जानें नांही ऐसे कह्या, अब इहां ऐसे कह्या जो आत्माकू जानिकरिभी विषयनिकै वशीभूत भया भावना न करै तौ संसारहीमैं भ्रमै है, तातै आत्माकू जानि विषयनितें विरक्त होनां यह उपदेश है॥६७ ॥
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अष्टपाहुडमें पोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३३३. ___ आनें कहै है जो विषयनितै विरक्त होय आत्माकू जानि करि भावै हैं ते संसारकू छोड़ें हैं;--- गाथा-जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया ।
छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥६८॥ संस्कृत-ये पुनः विषयविरक्ताः आत्मानं ज्ञात्वा भावनासहिताः।
त्यजन्ति चातुरंगं तपोगुणयुक्ताः न सन्देहः ॥६८॥ अर्थ—पुनः कहिये बहुरि जे पुरुष मुनि विषयनितै विरक्त होयकरि आत्माकू जांनि भावै हैं बारंबार भावनाकरि अनुभवें हैं ते तप कहिये बारह प्रकार तप अर मूलगुण उत्तरगुणनिकरि युक्त भये- संसारकू छोडें हैं, मोक्ष पाबैं हैं । __ भावार्थ-विषयनितें विरक्त होय आत्माकू जानि भावना करनी यातें संसारतें छूटि मोक्ष पावो, यह उपदेश है ॥ ६८ ॥
आगें कहै है जो परद्रव्यविर्षे लेशमात्रभी राग होय तो सो पुरुष. अज्ञानी है, अपनां स्वरूप जान्यां नाही; गाथा-परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो।
सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीओ ॥६९॥ संस्कृत-परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात् ।
सः मूढः अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः ॥६९॥ ___ अर्थ--जा पुरुषकै परद्रव्यविषं परमाणुप्रमाणभी लेशमात्र मोहते रति कहिये राग प्रीति होय तौ सो पुरुष मूढ है, अज्ञानी है आत्मस्वभावतें विपरीत है।
भावार्थ--भेदविज्ञान भये पीछे जीव अजीवकू न्यारे जानैं तब परद्रव्यकू अपनां न जानैं तब तिसतै राग भी न होय, अर जो राग हाय तौ—जानिये—यानें आपा परका भेद जान्यां नाही, अज्ञानी है,
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पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचित
आत्मस्वभाव प्रतिकूल है; अर ज्ञानी भये पीछे चारित्रमोहका उदय रहे जेसे कळूक राग रहै है ता• कर्मजन्य अपराध मान है, तिस रागरौं राग नाही है ता विरक्त ही है तातै ज्ञानी परद्रव्य रागी न कहिये; ऐसें जाननां ॥ ___ आौं इस अर्थकू संक्षेपकरि कहै है;गाथा-अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं ।
होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ॥७०॥ संस्कृत-आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणाम् ।
भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ॥७०॥ अर्थ-जे पूर्वोक्त प्रकार बिषयनितूं विरक्त है चित्त जिनिका, बहुरि आत्माकू ध्यायते संते वर्ते हैं, बहुरि बाह्य अभ्यंतर दर्शनकी शुद्धता जिनिकै है, बहुरि दृढ चारित्र जिनिकै है, तिनिकै निश्चयकरि निर्वाण होय है ॥ ___ भावार्थ-पूर्व कह्या जो विषयनितूं विरक्त होय आत्माका स्वरूप जांनि जे आत्माकी भावना करें हैं ते संसार” छूटें हैं, तिसही अर्थकू संक्षेपकरि कह्या है--जो इंद्रियनिके विषयनितूं विरक्त होय बाह्य अभ्यंतर दर्शनकी शुद्धताकरि दृढ चारित्र पाले हैं तिनिकै नियमकरि निर्वाणकी प्राप्ति होय है, इंद्रियनिके विषयनिविर्षे आसक्तता है सो सर्व अनर्थका मूल है ता” इनितें विरक्त भये उपयोग आत्मामैं लागै जब कार्य सिद्धि होय है ॥ ७० ॥
आगें कहै है जो परद्रव्यविर्षे राग है सो संसारका कारण है तातें योगीश्वर आत्माविर्षे भावना करै है;-- अनुष्टुप-जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं ।
तेणावि जोइणो णिचं कुज्जा अप्पे समावणा ७१
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३३५
संस्कृत - येन रागः परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम् ।
तेनापि योगी नित्यं कुर्यात् आत्मनि स्वभावनाम् ७१ अर्थ —जा कारणकर परद्रव्यविषै राग है सो संसारहीका कारण है तिस कारणही करि योगीश्वर मुनि है ते नित्य आत्माहीविषै भावना करे हैं ॥
भावार्थ — कोई ऐसी आशंका करे जो — परद्रव्यविषै राग करे कहा होय है ? परद्रव्य है सो पर है ही, अपनैं राग जिसका भया सिसकाल है पीछें मिटि जाय है ताकूं उपदेश किया है--परद्रव्यसूं राग किये परद्रव्य अपनी लार लागे है यह प्रसिद्ध है बहुरि अपनें रागका संस्कार दृढ होय है तब परलोक तांई भी चल्या जाय है यह aौ युक्ति सिद्ध हैं; अर जिनागममैं रागतें कर्मका बंध कह्या तिसका उदय अन्य जन्मकूं कारण है ऐसें परद्रव्यविषै रागतैं संसार होय है; तातैं योगीश्वर मुनि परद्रव्यतें राग छोडि आत्माविषै निरन्तर भावना राखै है ॥ ७१ ॥
आगैं कहै है जो ऐसे समभावतैं चारित्र होय है;अनुष्टुप - विंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहसु य । सत्तूर्णं चैव वंधूणं चारितं समभावदो ॥ ७२ ॥ संस्कृत - निंदायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च । शत्रणां चैव बंधूनां चारित्रं समभावतः ॥ ७२ ॥ अर्थ — निंदाविर्षे बहुरि प्रशंसाविर्षै बहुरि दुःखविषै बहुरि सुखविषै बहुरि शत्रूनिविषै बहुरि बंधु मित्रनिविषै समभाव जो समतापरिणाम रांगे द्वेष रहितपणां, ऐसे भावतैं चारित्र होय है ॥
भावार्थ —— चारित्रका स्वरूप यहु कया है जो आत्माका स्वभाव है सो कर्मके निमित्ततैं ज्ञानविषै परद्रव्यतैं इष्ट अनिष्ट बुद्धि होय
है,
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
तिस इष्ट अनिष्ट बुद्धिका अभावतें ज्ञानहीमें उपयोग लागें ताकू शुद्धोपयोग कहिये है सो ही चारित्र है, सो यह होय जहां निन्दा प्रशंसा दुःख सुख शत्रु मित्रविर्षे समान बुद्धि होय है, निन्दा प्रशंसाका द्विधाभाव मोहकर्मका उदयजन्य है, याका अभाव सो ही शुद्धोपयोगरूप चारित्र है ॥ ७२ ॥
आगें कहै है--जो केई मूर्ख ऐसें कहै हैं जो अबार पंचमकाल है सो आत्मध्यानका काल नाही, तिनिका निषेध करै है,गाथा-चरियावरिया वदसमिदिवजिया सुद्धभावपब्भहा ।
केई जंपति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ॥७३॥ संस्कृत-चर्यावृताः व्रतसमितिवर्जिताः शुदभावप्रभ्रष्टाः।
केचित् जल्पंति नराः न स्फुटं कालः ध्यानयोगस्य ७३ अर्थ-जो केई नर कहिये मनुष्य ऐसे हैं जो चर्या कहिये आचारक्रिया सो है आवृत जिनकै चारित्र मोहका उदय प्रबल है ताकीर चर्या प्रकट न होय है याही व्रतसमितिकरि रहित हैं बहुरि मिथ्या अभिप्रायकरि शुद्धभाव” अत्यंत भ्रष्ट हैं, ते ऐसैं कहैं हैं जो-अबार पंचमकाल है सो यहु काल प्रगट ध्यान योगका नाही ॥ ७३ ॥
ते प्राणी कैसे हैं सो आगें कहै हैं;गाथा-सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को ।
संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स ॥७४॥ संस्कृत-सम्यक्त्वज्ञानरहितः अभव्यजीवः स्फुटं मोक्षपरिमुक्तः।
संसारसुखे सुरतः न स्फुटं कालः भणति ध्यानस्य ७४ अर्थ—पूर्वोक्त ध्यानका अभाव कहनेवाला जीव कैसा है सम्यक्त्व अर ज्ञानकरि रहित है अभव्य है याही मोक्षकरि रहित है, अर संसारके
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३३७ इंद्रिय सुख है तिनिहीकू भले जांनि तिनिमैं रत है, आसक्त है, या” कहै है-जो अबार ध्यानका काल नाही ॥ ___ भावार्थ-जाकू इंद्रियनिके सुखही प्रिय लागें हैं अर जीवाजीव पदार्थका श्रद्धान ज्ञान” रहित है, सो ऐसैं कहै है जो अबार ध्यानका काल नांही। यातें जानिये है--ऐसैं कहनेवाला अभव्य है याकै मोक्ष न होयगी ॥ ७४ ॥
फेरि कहै है जो अबार ध्यानका काल न कहै है तानें पंच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्तिका स्वरूप जान्यां नाही;-- गाथा-पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु ।
जो मूढो अण्णाणी ण हु कालोभणइ झाणस्स ॥७५॥ संस्कृत-पंचसु महाव्रतेषु च पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु ।
यः मूढः अज्ञानी न स्फुटं कालः भणिति ध्यानस्य ७५ ___ अर्थ-जो पांच महाव्रत पांचसमिति तीन गुप्ति इनि विर्षे मूढ है अज्ञानी है इनिका स्वरूप नाही जानें है अर चारित्रमोहके तीव्र उदयतें इनिङ पालि न सके है, सो ऐसैं कहै हैं जो अबार ध्यानका काल नांही है ॥ ७५॥ __ आगें कहै है जो अबार इस पंचमकालमैं धर्मध्यान होय है, यह न मानें है सो अज्ञानी है, गाथा-भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स ।
तं अप्पसहावठिदे ण हुमण्णइ सो वि अण्णाणी ॥७६॥ संस्कृत-भरते दुःषमकाले धर्मध्यानं भवति साधोः ।
तदात्मस्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी ७६ अर्थ-इस भरतक्षेत्रविर्षे दुःषमकाल जो पंचमकाल ताविर्षे साधु मुनिकै धर्मध्यान होय है सो यह धर्मध्यान आत्मस्वभावकै वि स्थित हैं
अ. व. २२
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३३८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिततिस मुनिकै होय है; यह न मा सो अज्ञानी है जाळू धर्मध्यानका स्वरूपका ज्ञान नाही ॥ __भावार्थ-जिनसूत्रमैं इस भरतक्षेत्र पंचमकालमैं आत्माभावनाविपैं स्थित मुनिकै धर्मध्यान कह्या है; जो यह न माने सो आज्ञानी है, जाकू धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नांहीं ॥ ७६ ॥ ___ आगैं कहैं हैं---जो अबार कालमैंभी रत्नत्रयका धारी मुनि होय सो स्वर्गविर्षे लौकान्तिकपणां इन्द्रपणां पाय तहांत चय मोक्ष जाय है, ऐसे जिनसूत्रमैं कह्या है;गाथा-अन्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं ।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदि जंति ॥७७॥ संस्कृत-अद्य अपि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभंते इन्द्रत्वम् . लौकान्तिकदेवत्त्वं ततः च्युत्वा निवृतिं यांति ॥७७॥
अर्थ-अबार इस पंचमकालमैंभी जे मुनि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र शुद्धकरि संयुक्त होय हैं ते आत्माकू ध्यायकरि इंद्रपणां पाएँ हैं तथा लौकांतिकदेवपणां पा हैं, बहुरि तहांतें चय करि निर्वाणकू प्राप्त होय
____ भावार्थ-कोई कहै है जो अबार इस पंचमकालभैं जिनसूत्रमैं मोक्ष होनां कया नाहीं तातै ध्यानका करनां तौ निष्फल खेद है, ताकू कहे है रे भाई ! मोक्ष जानो निषेध्यो हे अर शुकध्यान निषेध्यो है; धर्मध्यान तौ निषेध्या नांही अबार जे मुनि रत्नत्रयकरि शुद्ध भये धर्मध्यानमैं लीन होय आत्माकू ध्यावें हैं ते मुनि स्वर्गमैं इन्द्रपणां पाएँ हैं अथवा लौकान्तिकदे व एकाभवतारी है तिनिमैं जाय उपजै हैं तहांतें चयकरि मनुष्य होय मोक्ष पा हैं । ऐसे धर्मध्यानते परंपरा मोक्ष होय तब सर्वथा निषेध
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३३९
काकूं कीजिये, जे निषेध करें ते अज्ञानी मिध्यादृष्टी हैं तिनिकूं विषयकपायनिमैं स्वच्छन्द रहना है तातें ऐसे कहैं है ॥ ७७ ॥
आगे है है जो अबार काल मैं ध्यानका अभाव मांनि अर मुनि लिंग ग्रहण किया तिसकं गौणकरि पापमैं प्रवर्तें हैं ते मोक्षमार्गतैं च्युत हैं;
गाथा - जे पावमोहियमई लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं । पावं कुणति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गमि ॥७८॥ संस्कृत - ये पापमोहितमतयः लिंगं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् । पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्त्वा मोक्षमार्गे ॥७८॥
अर्थ-- जे पापकर्मकार मोहित है बुद्धि जिनिकी ऐसे हैं ते जिनवरेन्द्रं तीर्थंकरका लिंग ग्रहण करिभी पाप करें हैं ते पापी मोक्षमार्गतैं
हैं ॥
भावार्थ --जे पहलै निर्व्रथ लिंग धान्य पीछें ऐसी पाप बुद्धि उपजी-जो अबार ध्यानका तौ काल नांही तातैं काहेकुं प्रयास करें, ऐसैं विचार अर पापमैं प्रवर्त्तनें लगिजाय हैं, ते पापी हैं, तिनिकै मोक्षमार्ग नांही ॥ ७२ ॥
आगे कहै हैं जो जे मोक्षमार्ग च्युत हैं ते कैसे हैं;गाथा - जे पंचचेलसत्ता ग्रंथग्गाहीय जायणासीला ।
आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गमि ॥ ७९ ॥ संस्कृत - ये पंचचेलसक्ताः ग्रंथग्राहिणः याचनाशीलाः । अधः कर्मणि रताः ते त्यक्ताः मोक्षमार्गे ॥७९॥ अर्थ — पंच प्रकारके चेल कहिये वस्त्र तिनिविषै आसक्त हैं; अंडज, कर्पासज, वल्कल, चर्मज, रोमज ऐसें पंच प्रकार व मैं सूं कोई एक वस्त्र ग्रहण करें हैं, बहुरि ग्रंथग्राही कहिये परिग्रहके ग्रहण करनेवाले
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
हैं, बहुरि याचनाशील कहिये याचना मागनेकाही जिनिका स्वभाव है, बहुरि अधःकर्म जो पापकर्म तावि रत हैं सदोष आहार करें हैं ते मोक्षमार्ग” च्युत हैं ॥
भावार्थ--इहां आशय ऐसा है जो पहलै तौ निथ दिगंबर मुनि भये थे पाठे कालदोष विचारि चारित्र पालनेंकू असमर्थ होय निर्ग्रन्थ लिंगरौं भ्रष्ट होय वस्त्रादिक अंगीकार किया, परिग्रह राखनेलगे याचना करने लगें अधःकर्म औद्दोशिक आहार करनेलगे तिनिका निषेध है ते मोक्षमार्ग” च्युत हैं। पहलैं तो भद्रबाहुस्वामी निर्गन्थ थे। पीछे दुर्भिक्षकालमैं भ्रष्ट होय अर्द्धफालक कहावै थे पीछै तिनिमैं श्वेतांबर भये तिनिमैं तिनि. तिस भेषके पोखनें• सूत्र बनाये तिनिमैं केई कल्पित आचरण तथा तिसकी साधक कथा लिखी । बहुरि इनि सिवाय अन्य भी केई भेष बदले, ऐसैं काल दोषः भ्रष्टनिका संप्रदाय प्रवर्ते हे सो यह मोक्षमार्ग नाही है, ऐसा जनाया है। या” इनिभ्रष्टनिकू देखि ऐसा ही मोक्षमार्ग है, ऐसा श्रद्धान न करनां ॥ ७९ ॥
आगैं कहै है जो मोक्षमार्गी तो ऐसे मुनि हैं;गाथा-णिग्गंथमोहमुक्का बावीसपरीपहा जियकसाया ।
पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ॥८॥ संस्कृत-निग्रंथाः मोहमुक्ताः द्वाविंशतिपरीषहाः जितकषायाः।
पापारंभविमुक्ताः ते गृहीताः मोक्षमार्गे ॥८॥ अर्थ-जे मुनि निग्रंथ हैं परिग्रहकरि रहित हैं, बहुरि मोह करि रहित हैं काहू परद्रव्यसूं ममत्वभाव जिनिकै नांही है, बहुरि बाईस परीषहनिका सहना जिनिकै पाइये है, बहुरि जीते हैं क्रोधादि कषाय जिनिनँ, बहुरि पापारंभकरि रहित हैं गृहस्थके करनेका आरंभादिक पाप है
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
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तिसमैं नाही प्रवत्र्ते हैं, ऐसे हैं ते मुनि मोक्षमार्गमैं ग्रहण किये हैं माने
हैं॥
__भावार्थ-मुनि हैं ते लौकिक कष्टनि रहित हैं जैसा जिनेश्वर मोक्षमार्ग बाह्य अभ्यंतर परित्रहते रहित नग्न दिगंबररूप कह्या है तैसेमैं प्रवर्ते हैं ते ही मोक्षमार्गी हैं, अन्य मोक्षमार्गी नाही हैं ॥ ८० ॥ ___ आण फेरि मोक्षमार्गीकी प्रवृत्ति कहैं हैं;-- गाथा-उद्धद्धमज्झलोये केई मज्झं ण अहयमेगागी ।
इयभावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं ॥८१॥ संस्कृत-उधिोमध्यलोके केचित् मम न अहकमेकाकी।
इति भावनया योगिनःप्राप्नुवंति स्फुटं शाश्वतं स्थानं ॥ अर्थ--मुनि ऐसी भावना करै--उप्रलोक मध्यलोक अधोलोक इनि तीनूं लोकमैं मेरा कोई भी नांही है, मैं एकाकी आत्माहूं, ऐसी भावना करि योगी मुनि प्रगटपण शाश्वता सुख है ताहि पावै है ॥ ___ भावार्थ-मुनि ऐसी भावना करै जो त्रिलोकमैं जीव एकाकी है याका संबंधी दूजा कोई नांही है, ये परमार्थरूप एकत्व भावना है सो जा मुनिकै ऐसी भावना निरन्तर रहे है सो ही मोक्षमार्गी है, जो भेष लेकरि भी लौकिकजननिसूं लाल पाल राखै है सो मोक्षमार्गी नाही ॥ ८१॥
आगँ फेरि कहै है;--- गाथा-देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतिता।
झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मिः।।८२॥ संस्कृत-देवगुरूणां भक्ताः निर्वेदपरंपरां विचिन्तयन्तः ।
ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीताः मोक्षमार्गे ॥८२॥ ___ अर्थ-जे मुनि देव गुरुनिके भक्त हैं बहुरि निर्वेद कहिये संसार देह भोगते विरागताकी परंपराकू चितवन करें है, बहुरि ध्यानके विर्षे
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
रत हैं रक्त हैं तत्पर हैं बहुरि भला है चरित्र जिनिकै, ते मोक्षमार्गविर्षे ग्रहण किये हैं ॥ ___ भावार्थ-जिनिमैं मोक्षमार्ग पाया ऐसा अरहंत सर्वज्ञ वीतराग देव अर तिसके अनुसारी बडे मुनि दीक्षा शिक्षा देने वाले गुरु तिनिकी तौ भक्तियुक्त होय, बहुरि संसार देह भोगसूं विरक्त होय मुनि भये तैसेंही जिनकै वैराग्यभावना है, बहुरि आत्मानुभवनरूप शुद्ध उपयोगरूप एकाग्रता सोही भया ध्यान ताविर्षे तत्पर है, बहुरि व्रत समिति गुप्तिरूप निश्चयव्यवहारात्मक सम्यक्त्वचारित्र जिनिकै पाईये है तेही मुनि मोक्षमार्गी है, अन्य भेषी मोक्षमार्गी नाही ॥ ८२ ॥
आगें निश्चयनयकरि ध्यान ऐसे करनां, ऐसैं कहै हैं;गाथा-णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो ।
सो होदि हु सुचरित्तो जोई सोलहइ णिव्वाणं ॥८३॥ संस्कृत-निश्चयनयस्य एवं आत्मा आत्मनि आत्मने सुरतः ।
सः भवति स्फुटं सुचरित्रः योगी सः लभते निर्वाणम् ॥ अर्थ--आचार्य कहै है जो निश्चयनयका ऐसा अभिप्राय है-जो आत्मा आत्महीविर्षे आपहीकै आर्थि भलैप्रकार रत होय सो योगी ध्यानी मुनि सम्यक्चारित्रवान भया संता निर्वाण• पावै है ॥ ___ भावार्थ-निश्चयनयका स्वरूप ऐसा है जो--एक द्रव्यकी अवस्था जैसी होय ताहीकू कहै । तहां आत्माकी दोय अवस्था;--एक तौ अज्ञान अवस्था अर एक ज्ञान अवस्था । तहां जेतें अज्ञान अवस्था रहे तेतै तौ बंधपर्यायकू आत्मा जानैं जो मैं मनुष्यहूं मैं पशुहूं मैं क्रोधीहूं, मैं मानीहूं, मैं मायावीहूं, मैं पुण्यवान धनवान हूं, मैं निर्धन दरिद्रीहूं, मैं राजाहूं, मैं रंकहूं, मैं मुनिहूं, मैं श्रावकहूं इत्यादि पर्यायनिविर्षे
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३४३
I
आपा मानैं तिनि पर्यायनिविपैं लीन है तब मिथ्यादृष्टी है अज्ञानी है, याका फल संसार है ताकूंं भोगवै है । बहुरि जब जिनमतके प्रसादकरि जीव अजीव पदार्थनिका ज्ञान होय तब आपा परका भेद जानि ज्ञानी होय तब ऐसैं जानैं जो - मैं शुद्धज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूपहूं अन्य मेरा किछू भी नाही, तब यह आत्मा आपहीविषै आपही करि आपहीकै अर्थि लीन होय तत्र निश्चयसम्यक् चारित्रस्वरूप होय आपहीकूं ध्यावै, तबही सम्यग्ज्ञानी है याका फल निर्वाण है; ऐसैं जाननां ॥ ८३ ॥
आगैं इसही अर्थकूं दृढ करते संते कहैं हैं ;
गाथा - पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो ।
जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिछंदो ॥ ८४ ॥ संस्कृत - पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः ।
यः ध्यायति सः योगी पापहरः भवति निर्द्वन्द्वः ॥ ८४ ॥ अर्थ — यह आत्मा ध्यानकै योग्य कैसा है - पुरुषाकार है, बहुरि योगी है मन वचन कायके योगनिका जाकै निरोध है सर्वाग सुनिश्चल है, बहुरि वर कहिये श्रेष्ठ सम्यक्रूप ज्ञान अर दर्शनकरि समग्र है परिपूर्ण है केवलज्ञानदर्शन जाकै पाइये है, ऐसा आत्माकूं जो योगी ध्यानी मुनि ध्यावै है सो मुनि पापका हरनेवाला है अर निर्द्वन्द्व है रागद्वेष आदि विकल्पनिकरि रहित है ||
भावार्थ — जो अरहंतरूप शुद्ध आत्माकं ध्यावै है ताका पूर्व कर्मका नाश होय है अर वर्त्तमान मैं रागद्वेषरहित होय है तब आगामी कर्मकूं नांही वांधै है ॥ ८४ ॥
आगे कहैं है जो ऐसें मुनिनिकूं प्रवर्त्तनां कह्या । अब श्रावकनिकूं प्रवर्त्तने के अर्थ कहिये है; -
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३४४ पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचितगाथा-एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण सुणसु ।
संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥८५॥ संस्कृत-एवं जिनैः कथितं श्रमणानां श्रावकाणां पुनः शृणुत ।
संसारविनाशकरं सिद्धिकरं कारणं परमं ॥८५॥ अर्थ—एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार तौ उपदेश श्रमण जे मुनि तिनिळू जिनदेव. कह्या है। बहुरि अब श्रावकनिकू कहिये है सो सुनो, कैसा कहिये है-संसारका तौ विनाश करनेवाला अर सिद्धि जो मोक्ष ताका करनेवाला उत्कृष्ट कारण ऐसा उपदेश है ॥
भावार्थ-पहलै कह्या सो तौ मुनिनिकू कह्या अर अब आगें कहिये है सो श्रावकनिकू कहिये है, ऐसा कहिये है जातै संसारका विनाश होय अर मोक्षकी प्राप्ति होय ॥ ८५ ॥ ___ आगें श्रावकनिकू प्रथम कहा करनां, सो कहै है;गाथा-गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिकंप ।
तं जाणे झाइज्जइ सावय ! दुक्खक्खयहाए ॥८६॥ संस्कृत-गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुरगिरेरिव निष्कंपम् ।
तत् ध्याने ध्यायते श्रावक ! दुःखक्षयार्थे ॥८६॥ अर्थ--प्रथम तौ श्रावकनिकू सुनिर्मल कहिये भलै प्रकार निर्मल अर मेरुवत् निःकंप अचल अर चल मलिन अगाढ दूषणरहित अत्यंत निश्चल ऐसा सम्यक्त्वकू ग्रहण करि तिसकू ध्यानविर्षे ध्यावनां, कौन आर्थ-दुःखका क्षयकै अर्थि ध्यावनां ॥ ___ भावार्थ-श्रावक पहलै तौ निरतिचार निश्चल सम्यक्त्वकू ग्रहणकरि जाका ध्यान करै जा सम्यक्त्वकी भावना” गृहस्थकै गृहकार्यसंबंधी आकुलता क्षोभ दुःख होय है सो मिटि जाय है, कार्यके विगडने सुधर
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३४५ नेमैं वस्तुके स्वरूपका विचार आवै तब दुःख मिटै है । सम्यग्दृष्टीकै ऐसा विचार होय है-जो वस्तुका स्वरूप सर्वज्ञनैं जैसा जान्यां है तैसा निरन्तर परिणमै है सो होय है, इष्ट अनिष्ट मानि दुःखी सुखी होनां निष्फल है। ऐसे विचारतें दुःख मिटै है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है जारौं सम्यक्त्वका ध्यान करना कह्या है ।। ८६ ॥
आणु सभ्यक्त्वका ध्यानही की महिमा कहै है,-- गाथा-सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्टी हवेइ सो जीवो ।
सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुदृढकम्माणि ॥८७॥ संस्कृत-सम्यक्त्वं यः ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति सः जीवः।
सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्टकर्माणि ॥८७॥ अर्थ--जो श्रावक सम्यक्त्वकू ध्यावै है सो जीव सम्यग्दृष्टी है बहुरि सम्यत्क्वरूप परिणया संता दुष्ट जे आठ कर्म तिनिका क्षय करै है ॥
भावार्थ--सम्यक्त्वका ध्यान ऐसा है जो पहलै सम्यक्त्व न भया होय तौऊ याका स्वरूप जानि याकू ध्यावै तौ सम्यग्दृष्टी होजाय है । बहुरि सम्यक्त्व भये याका परिणाम ऐसा है जो संसारके कारण जे दुष्ट अष्ट कर्म तिनिका क्षय होय है, सम्यक्त्व होते ही कर्मनिकी गुणश्रेणी निर्जरा होने लगि जाय है, अनुक्रम” मुनि होय तब चारित्र अर शुक्लध्यान याके सहकारी होंय तब सर्व कर्मका नाश होय है ॥ ८७ ।।
आगैं याकू संक्षेपकरि कहे है;-- गाथा--किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले ।
सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणइ सम्ममाहप्पं ८८ संस्कृत-किं बहुना भणितेन ये सिद्धाः नरवराः गते काले ।
सेत्स्यति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम्
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३४६
पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
___ अर्थ-आचार्य कहै है जो बहुत कहनेकरि कहा साध्य है जे नरप्रधान अतीतकालवि. सिद्ध भये अर आगामी कालविषै सिद्ध होयगे सो सम्यक्त्वका माहात्म्य जानो ॥
भावार्थ-इस सम्यक्त्वका ऐसा माहात्म्य है जो अष्टकर्मका नाश करि जे मुक्तिप्राप्त अतीतकालमैं भये है तथा आगामी होयगे ते इस सम्यक्त्व ही भये है अर होयगे, तातैं आचार्य कहै हैं जो बहुत कहनेकरि कहा! यह संक्षेपकरि कह्या जानो जो-मुक्तिका प्रधान कारण यह सम्यक्त्वही है। ऐसा मति जानो जो गृहस्थके कहा धर्म है सो यह सम्यक्त्वधर्म ऐसा है जो सर्व धर्मनिके अंगनिकू सफल करै है ॥८८॥
आनें कहै है जो-निरन्तर सम्यक्त्व पालै है ते धन्य हैगाथा--ते धण्णा सुकयत्था ते मूरा ते वि पंडिया मणुया ।
सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं ॥८९॥ संस्कृत-ते धन्याः सुकृतार्थाः ते शूराः तेऽपि पंडिता मनुजाः।
सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेऽपि न मलिनितं यैः ॥८९।। अर्थ-जिनि पुरुषनितें मुक्तिका करनेवाला सम्यक्त्व है ताकू स्वप्नावस्थाविर्षे भी मलिन न किया अतीचार न लगाया ते पुरुष धन्य हैं ते ही मनुष्य हैं ते ही भले कृतार्थ हैं ते ही शूरवीर हैं ते ही पंडित हैं ॥ ___ भावार्थ-लोकमैं कछू दानादिक करे तिनि• धन्य कहिये है तथा विवाहादिक यज्ञादिक करें हैं तिनिकू कृतार्थ कहै हैं युद्धमैं पाछा न होय ताक् शूरवीर कहैं हैं, बहुत शास्त्र पढे ताकू पंडित कहै हैं। ये सारे कहनेके हैं जो मोक्ष का कारण सम्यक्त्व ताकू मलिन न करें हैं निरतिचार पालैं हैं ते धन्य हैं ते ही कृतार्थ हैं ते ही शूरवीर है तेही पंडित हैं ते ही मनुष्य हैं; या विना मनुष्य पशुसमान है, ऐसा सम्यक्त्वका माहात्म्य कह्या ॥ ८९ ॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका ।
२४७
आगैं शिष्य पूछ्या जो सम्यक्त्व कैसा है ? ताके समाधानकूं या सम्यक्त्वके बाह्य चिह्न बतावै है, -
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गाथा -- हिंसारहिए घम्मे अहारहदोसवज्जिए देवे । furi oar सद्दहणं होड़ सम्मत्तं ॥ ९० ॥ संस्कृत --हिंसारहिते धर्मे अष्टादशदोपवर्जिते देवे । निर्ग्रथे प्रवचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ॥ ९० ॥
अर्थ — हिंसारहित 'धर्म, अठारह दोपरहित देव, निर्प्रथ प्रवचन कहिये मोक्षका मार्ग तथा गुरु इनिविषै श्रद्धान होतें संतैं सम्यत्क्व होय है ॥
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भावार्थ — लौकिकजन तथा अन्यमती जीवनिकी हिंसा करि धर्म मानें हैं, अर जिनमतमैं अहिंसा धर्म का है ताहीकूं श्रद्धै अन्यकूं नांही श्रद्धे सो सम्यग्दृष्टी है। लौकिक अन्यमतीनिनैं माने हैं ते सर्व देव क्षुधादि तथा रागद्वेषादि दोषनि करि संयुक्त हैं तातैं वीतराग सर्वज्ञ अरहंत देव सर्वदोषनिकर रहित है ताकूं देव माने श्रद्धे सो सम्यग्दृष्टी है । इहां दोष अठार कहे ते प्रधानता अपेक्षा कहे हैं ते उपलक्षणरूप जाननें, इनि सारिखे अन्यभी जान लेनें । बहुरि निर्बंध प्रवचन कहिये मोक्षमार्ग सोही मोक्षमार्ग है, अन्यलिंगतें अन्यमती श्वेतांबरादिक जैनाभास मोक्ष मानें हैं सो मोक्षमार्ग नांही है। ऐसा श्रद्वै सो सम्यग्दृष्टी है. ऐसा जाननां ॥९०॥ आइसही अर्थ दृढ करते कहैं हैं;
गाथा -- जहजारूवरूवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं ।
लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ॥ ९१ ॥ संस्कृत --- यथाजातरूपरूपं सुसंयतं सर्वसंगपरित्यक्तम् ।
लिंगं न परापेक्षं यः मन्यते तस्य सम्यक्त्वम् ॥ ९१ ॥
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३४८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ अर्थ—मोक्षमार्गका लिंग भेष ऐसा है यथाजातरूप तौ जाका रूप है, बाह्य परिग्रह वस्त्रादिक किचित्मात्रभी जा. नांही है; बहुरि सुसंयत कहिये सम्यक्प्रकार इन्द्रियनिका निग्रह अर जीवनिकी दया जामैं पाइये ऐसा संयम है; बहुरि सर्वसंग कहिये सर्वही परिग्रह तथा सर्व लौकिक जननिकी संगतिते रहित है; बहुरि जामैं परकी अपेक्षा कछू नाही है मोक्षके प्रयोजन सिवाय अन्य प्रयोजनकी अपेक्षा नाही है । ऐसा मोक्षमार्गका लिंग मानै श्रद्धै तिस जीवकै सम्यक्त्व होय है ॥ ___ भावार्थ--मोक्षमार्गमैं ऐसाही लिंग है, अन्य अनेक भेष हैं ते मोक्षमार्गमैं नाही हैं ऐसा श्रद्धान करे ताकै सम्यक्त्व होय है । इहां परापेक्ष नाही-ऐसा कहनें जनाया है जो-ऐसा निग्रंथ रूप भी जो काहू अन्य आशयतें धारै तौ वह भेष मोक्षमार्ग नाही; केवल मोक्षहीकी अपेक्षा जामैं होय ऐसा होय ताळू माने सो सम्यग्दृष्टी है ऐसा जाननां ॥९१ ।।
आ. मिथ्यादृष्टीके चिह्न कहै हैं;गाथा-कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च बंदए जो दु ।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु ॥९२॥ संस्कृत-कुत्सितदेवं धर्म कुत्सितलिंगं च वन्दते यः तु ।
लज्जाभयगारवतः मिथ्यादृष्टिः भवेत् सः स्फुटम् ९२ . अर्थ-कुत्सित देव जो क्षुधादिक अर रागद्वेषादि दोषनिकरि दूपित होय सो, अर कुत्सित धर्म जो हिंसादि दोषनिकरि सहित होय सो, कुत्सितलिंग जो परिग्रहादिकरि सहित होय सो, इनिळू जो बंदै पूजै सो तो प्रगट मिथ्यादृष्टी है । इहां विशेष कहै है जो भले हितकरनेवाले मानिकरि वंदै पूजै सो तौ प्रगट मिथ्यादृष्टी है, परन्तु जो लज्जा भय गारव इनि कारणनि करि भी बंदै पूजै सो भी प्रगट मिथ्यादृष्टी है। तहां लज्जा तौ ऐसैं-जो लोक इनिळू बंदै पूजै है हम नाही पूर्जेंगे तो
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषाघचनिका। ३४९ लोक हमको कहा कहैं गे? हमारी या लोकमैं प्रतिष्ठा जायगी ? ऐसैं तौ लज्जाकरि वंदै पूजे । वहुरि भय ऐसैं जो-इनिकू राजादिक मानें हैं, हम न मानेंगे तो हम ऊपरि कळू उपद्रव आवैगा ऐसैं भयकरि बंद पूजै । बहुरि गारव ऐसैं जो हम बड़े हैं महंत पुरुष हैं, सर्वहीका सन्मान करें हैं इनिकार्यनिमैं हमारी बडाई है, ऐसे गारवकरि बंदनां पूजनां होय है । ऐसें मिथ्यादृष्टीके चिह्न कहे ॥ ९२ ॥ ___ आगें इसही अर्थकू दृढ करते संते कहैं हैं;गाथा-सपरावेक्खं लिंग राई देवं असंजयं बंदे ।
माणइ मिच्छादिट्टी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्ती॥९३॥ संस्कृत-स्वपरापेक्ष लिंगं रागिणं देवं असंयतं वन्दे ।
___ मानयति मिथ्यादृष्टिः न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्ती ९३ __ अर्थ-स्वपरापेक्ष तौ लिंग जो कळू आप लौकिक प्रयोजन मनमैं धारि भेष ले सो स्वापेक्ष है, बहुरि काहू परकी अपेक्षातै धारै काहूके आग्रह” तथा राजादिकका भयतें धारै सो परापेक्ष है । बहुरि रागी देव जाकै स्त्री आदिका राग पाइये, बहुरि संयमरहित इनिकू ऐसैं कहै जो मैं बंदू हूं; तथा तिनिकू मानैं श्रद्धै सो मिथ्यादृष्टी है। बहुरि शुद्धसम्यक्त्व भये संतै तिनिकू न मानें है, श्र? नाही, वंदै पूजै नांही ॥ ___ भावार्थ—ये कहे तिनितूं मिथ्यादृष्टीकै प्रीति भक्ति उपजै है, जो निरतीचार सम्यक्त्ववानहै सो इनिकू न मानै है ।। ९३ ॥ गाथा--सम्माइटी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि ।
विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिही मुणेयव्वो ॥ ९४॥ संस्कृत-सम्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदेशितं करोति ।
विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ॥९४ ॥
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३५०
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ – जो जिनदेवका उपदेव्या धर्म करै है सो सम्यग्दृष्टी श्रावक है, बहुरि जो अन्यमतका उपदेश्या धर्म करे है सो मिथ्यादृष्टी जाननां ॥ ९४ ॥
जो— यह तो अपना
भावार्थ - ऐसे कहतें इहां कोई तर्क करै मत पोषकी पक्षपातमात्र वार्त्ता कही ? ताकूं कहिये है, जो — ऐसैं नांही है, जामैं सर्व जीवनिका हित होय सो धर्म हैं सो ऐसा अहिंसारूप धर्म जिनदेवही प्ररूप्याहै, अन्यमतमैं ऐसा धर्मका निरूपण नांही, ऐसैं जाननां ॥ ९४ ॥
आगे कहै है जो —मिथ्यादृष्टी जीव है सो संसारविषै दुःखसहित भ्रमै है, -
गाथा --मिच्छादिट्टी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ । जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्सा उलो जीवो ।। ९५ ।। संस्कृत - - मिथ्यादृष्टिः यः सः संसारे संसरति सुखरहितः । जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुलः जीवः ॥ ९५ ॥ अर्थ – जो मिथ्यादृष्टी जीव है सो जरा मरणनिकरि प्रचुर भया अर दुःखनिके हजारानिकरि व्याप्त जो संसार ताविषै मुखकरि रहित दु:खी भया भ्रमैं है |
भावार्थ—मिथ्याभावका फल संसार मैं भ्रमण करना ही है, सो यह संसार जन्म जरा मरण आदि हजारां दु:खनि करि भन्या है, तिनिदुःखनिकूं मिथ्यादृष्टी या संसार मैं भ्रमता संता भोगवै है । इहां दुःखतौ अनंतां हैं हजारा कहनें तैं प्रसिद्ध अपेक्षा बहुलता जनाई है ॥ ९५ ॥ आगैं सम्यक्त्व मिथ्यात्व भाव के कथनकूं संकोच है; -
गाथा -- सम्म गुण सिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु । जं ते मणस्स रुच्च किं बहुणा पलविणं तु ॥ ९६॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३५१ संस्कृत-सम्यक्त्वे गुण मिथ्यात्वे दोषःमनसा परिभाव्य तत् कुरु
यत् ते मनसे रोचते किंबहुना प्रलपितेन तु ॥९६॥ अर्थ-हे भव्य ! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण अर मिथ्यात्वके दोष तिनि• अपने मन करि भावनाकरि अर जो अपना मनकू रुचै प्रियलागै सो कर, बहुत प्रलापरूप कहनेकरि कहा साध्य है। ऐसैं आचार्य उपदेश किया है॥ __ भावार्थ—ऐसैं आचार्य. कह्या है जो बहुत कहनेकरि कहा ? सम्यक्त्व मिथ्यात्वके गुण दोष पूर्वोक्त जांनि जो मनमैं रुचै सो करो । तहां ऐसा उदशेका आशय है जो-मिथ्यात्वकू छोडो सम्यक्त्वकू ग्रहण करो यारौं संसारका दुःख मेटि मोक्ष पावो ॥ ९६ ॥ ___ आनें कहै है जो मिथ्यात्व भाव न छोड्या तब बाह्य भेषर्ते कळू
नांही है;
गाथा-बाहिरसंगविमुक्को णा वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो ।
किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसमभावं ९७ संस्कृत-बहिः संगविमुक्तः नापि मुक्तः मिथ्याभावेन निग्रंथः।
किं तस्य स्थानमौनं न अपि जानाति आत्मसमभावं ९७ ___ अर्थ-जो बाह्य परिग्रह” रहित अर मिथ्याभावसहित निग्रंथ भेष धारण किया है सो परिग्रह रहित नाही है ताकै ठाण कहिये खड़ा होय कायोत्सर्ग करनेकर कहा साध्य है ? अर मौन धारै ताकरि कहा साध्य है ? जात आत्माका समभाव जो वीतराग परिणाम ताकू न जानै है ॥
भावार्थ--जो आत्माका शुद्ध स्वभावकू जांनि सम्यग्दृष्टी होय है । अर मिथ्याभावसहित परिग्रह छोडि निर्गन्थ भी भया है, कायोत्सर्ग करनां मौन धारनां इत्यादि बाह्य क्रिया करै है तौ ताकी क्रिया मोक्षमा
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३५२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितमैं सराहनेयोग्य नाही हे जाते सम्यक्त्वविना बाह्य क्रियाका फल संसारही है ।। ९७ ॥ ___आगें आशंका उपजै है जो सम्यक्त्वबिना बाह्यलिंग निष्फल कह्या तहां जो बाह्यलिंग मूलगुण बिगाडै ताके सम्यक्त्व रहै कि नाही ? ताका समाधानकू कहै है;गाथा-मूलगुणं छित्तण य बाहिरकम्मं करेइ जो साहू ।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराहगो णियदं ॥ संस्कृत-मूलगुणं छित्वा च बाह्यकर्म करोति यः साधुः ।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिणलिंगविराधकः नियतं ॥ अर्थ-जो मुनि निम्रत्थ होय मूलगुण धारण करै है तिनिकू छेदनकरि विगाडकरि केवल बाह्यक्रियाकर्म करै है सो सिद्धि जो मोक्ष ताका सुखकू नाही पावै है जाते ऐसा मुनि जिनलिंगका विराधक है। ___ भावार्थ-जिन आज्ञा ऐसी है जो-सम्यक्त्वसहित मूलगुण धारि धन्य जे साधु क्रिया हैं ते करें हैं। तहां मूलगुण अट्ठाईस कहे हैं-पांच महाव्रत ५ पांच समिति ५ पंचइंद्रियनिका निरोध ५ छह आवश्य ६ भूमिशयन १ स्नानका त्याग १ वस्त्रका त्याग १ केशलोंच १ एकबार भोजन १ खड़ा भोजन १ दंतधावनका त्याग १ ऐसैं अट्ठाईस मूलगुण हैं तिनिकू विराधकरि अर कायोत्सर्ग मौन तप ध्यान अध्ययन कर है तो तिनि क्रियानिकरि मुक्ति न होय है । जातें जो ऐसे श्रद्धान करें जो-हमारै सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण बिगडै तौ बिगडौ हम मोक्षमार्गीही हैं-- तो ऐसी श्रद्धातें तो जिन आज्ञा भंग करने” सम्यक्त्वकाभी भंग होयहै तब मोक्ष कैसैं होय अर कर्मके प्रवल उदय चारित्र भ्रष्ट होय । अर जिन आज्ञा है तैसा श्रद्धान रहै तौ सम्यक्त्व रहै है, अर मूलगुण बिना केवल सम्यक्त्वहीतैं मुक्ति नाही, अर सम्यक्त्वविना केवल क्रियाही
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
३५३
मुक्ति नाही; ऐसैं जाननां । इहां कोई पूछ-मुनिकै स्नानका त्याग कह्या अर हम ऐसैं भी सुनै हैं जो चांडाल आदिका स्पर्श होय तौ दंडस्नान करै है ? ताका समाधान जो-जैसैं गृहस्थ स्नान करै है तैसैं स्नान करनेका त्याग हैं जाते यामैं हिंसाकी बहुलता है, बहुरि मुनिकै ऐसा स्नान है जोकमंडलुमैं प्रासुकजल रहै ताकरि मंत्र पढ़ि मस्तकपरि धारामात्र देहैं अर तिसदिन उपवास करैं हैं सो ऐसा स्नान है सो नाममात्र स्नान है; इहां मंत्र अर तपस्नान प्रधान है जलस्नान प्रधान नाही, ऐसें जाननां ॥९८॥ ___ आनें कहै है जो आत्मस्वभावः विपरीत बाह्य क्रियाकर्म है सो कहा करै ? मोक्षमार्गमैं तो कल भी कार्य न करै है;गाथा-किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि वहुविहं च खवणं तु
किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो ॥ ९९ ॥ संस्कृत-किं करिष्यति बहिः कर्म किं करिष्यति बहुविधं च
क्षमणं तु । किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावात् विपरीतः ९९ अर्थ-आत्मस्वभावतें विपरीत प्रतिकूल बाह्यकर्म जो क्रियाकांड सो कहा करेगा ? कळू मोक्षका कार्य तौ किंचिन्मात्रभी नांही करैगा, बहुरि बहुत अनेक प्रकार क्षमण कहिये उपवासादि बाह्यतप सो भी कहा करैगा ? कछू भी नांही करैगा, बहुरि आतापनयोगआदि कायक्लेश सो कहा करैगा ? कछू भी नांही करैगा ॥ ___ भावार्थ-बाह्य क्रियाकर्म शरीराश्रित है अर शरीर जड है आत्मा चेतन है, तहां जडकी क्रिया तौ चेतनळू कळू फल करै है नांही जैसा चेतनाका भाव जेती क्रियामै मिलै है ताका फल चेतनकू लागै है । तहां चेतनका अशुभ उपयोग मिलै तब तो अशुभकर्म बंधै, अर शुभयोग मिलै तब शुभकर्म बंधै, अर जब शुभ अशुभ दोऊ” रहित उपयोग
भ० व० २३
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३५४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितहोय तब कर्म न बंधै, पहले कर्म बंधे तिनिकी निर्जरा करि मोक्ष करै है। ऐसैं चेतना उपयोगकै अनुसार फलै, तातें ऐसैं कह्या है जो बाह्य क्रियाकर्म तौ कछू मोक्ष होय है नाही, शुद्ध उपयोग भये मोक्ष होय है । तातें दर्शन ज्ञान उपयोगका विकार मेटि शुद्ध ज्ञान चेतनाका अभ्यास करनां मोक्षका उपाय है ॥ ९९ ॥
आ याही अर्थका फेरि विशेष कहै है;-- गाथा--जदि पढदि बहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहं य
चारितं । तं वालसुद्धं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ॥१०॥ संस्कृत-यदि पठति बहुश्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधं
च चारित्रं । तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम् १०० अर्थ—जो आत्मस्वभाव विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रानकू पढ़ेगा बहुरि बहुत प्रकार चारित्रकू आचरैगा तौ ते सर्वही बालश्रुत अर बालचारित्र होयगा । जो आत्मस्वभावः विपरीत शास्त्रका पढनां अर चारित्रका आचरनां ये सर्वही बालश्रुत बालचारित्र हैं अज्ञानीकी क्रिया है जाते ग्यारह अंग नव पूर्व पर्यन्त तौ अभव्यजीवभी पढ़े है अर बाह्य मूलगुणरूप चारित्रभी पालै है तौऊ मोक्षकै योग्य नाहीं, ऐसें जाननां ॥१००॥
आगै कहै है जो—ऐसा साधु मोक्ष पावै है:-- गाथा-वेरग्गपरो साहू परदव्यपरम्मुहो य जो हादि।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ॥१०१॥ गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिओ साहू । झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ॥१०२॥
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
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संस्कृत--वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च यः भवति ।
संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः॥१०॥ गुणगणविभूषितांगः हेयोपादेयनिश्चितः साधुः।
ध्यानाध्ययने सुरतः सःप्राप्नोति उत्तमं स्थानम् १०२ अर्थ-जो साधु ऐसा होय सो उत्तमस्थान जो लोकशिखरपरि सिद्ध क्षेत्र तथा मिथ्यावआदि चौदह गुणस्थाननितें परै शुद्धस्वभाव रूप स्थान सो पावै है। कैसा भया प्रथम तौ वैराग्यवि. तत्पर होय संसार देह भोगरौं 'पहलैं विरक्त होय मुनि भया तिसही भावनायुक्त होय; बहुरि परद्रव्यतै पराङ्मुख होय जैसैं वैराग्य भया तैसैंही परद्रव्यका त्यागकरि तिसतें पराङ्मुख रहै; बहुरि संसारसंबंधी इंद्रियनिकै द्वारै विषयनितें सुखसा होय है तातै विरक्त होय, बहुरि अपना आत्मीक शुद्ध कषायनिके क्षोभ रहित निराकुल शांतभावरूप ज्ञानानंद ताविषै अनुरक्त होय, लीन होय वारंवार तिसहीकी भावना रहै । बहुरि गुणके गणकरि विमूषित है आत्मप्रदेशरूप अंग जाका, मूलगुण उत्तरगुणनिकरि आत्माकू अलंकृत शोभायमान किये है, बहुरि हेयं उपादेय तत्त्वका निश्चय जाकै होय, निज आत्मद्रव्य तौ उपादेय है अर अन्य परद्रव्यंके निमित्तौं भये अपने विकारभाव ते सर्व हेय हैं, ऐसा जाकै निश्चय होय, बहुरि साधु होय आत्माके स्वभावके साधनेंविषै नीकै तत्पर होय बहुरि धर्म शुक्लध्यान अर अध्यात्मशास्त्रनिकू पढि ज्ञानकी भावनाविौं तत्पर होय सुरत होय भलै प्रकार लीन होय । ऐसा साधु उत्तमस्थान जो मोक्ष ताकू पावै है ॥ १०१-१०२॥
भावार्थ-मोक्षके साधनेंके ये उपाय हैं अन्य कछू नाही है ॥ १०१-१०२ ॥
आगें कहै है--जो सर्वतै उत्तम पदार्थ शुद्ध आत्माहै सो या देह
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३५६ पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचितहामैं तिष्ठै है ताळू जानो;-- गाथा-णविएहिं जं णविजइ झाइजइ झाइएहि अणवरयं ।
थुव्वंतेहिं थुणिजइ देहत्थं कि पि तं मुणह ॥१०३॥ संस्कृत-नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् ।
स्तूयमानैः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् जानीत १०३ अर्थ- हे भव्यजीव हौ ! तुम या देहविर्षे जो तिष्ठया ऐसा कछु क्यों है ताहि जानो, कैसा है—लोकमैं नमने योग्य इंद्रादिक हैं तिनिकरि तो नमने योग्य अर ध्यावने योग्य है, बहुरि जे स्तुति करने योग्य तीर्थकरादिक हैं तिनिकै स्तुति करने योग्य है, ऐसा कळू है सो या देहहीविर्षे तिष्ठै है ता• यथार्थ जानो ॥ ___ भावार्थ--शुद्ध परमात्मा है सो यद्यपि कर्मकरि आच्छादित है तोऊ भेदज्ञानीनिकै या देहहीविौं तिष्ठताही ध्याय करि तीर्थकरादि भी मोक्ष पावै है, यातें ऐसा कह्या है जो-लोकमैं नमनें योग्य तौ इंद्रादिक हैं अर ध्यावनें योग्य तीर्थकरादिक हैं तथा स्तुति करने योग्य तीर्थकरादिक हैं ते भी जाकू नमैं हैं ध्याबैं हैं जाकी स्तुति करैं हैं ऐसा वचन कळू वचनकै अगोचर भेदज्ञानीनिकै अनुभवगोचर परमात्मा वस्तु है ताका स्वरूप जानो ताकू नमो ध्यावो, बाहरि काहेर्नू हेरो; ऐसा उपदेश है ॥१०३
आगें आचार्य कहै है जो-अरहंतादिक पंच परमेष्ठी हैं ते भी आत्माविर्षे ही हैं तातैं आत्मा ही शरण है;-- गाथा--अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेठी ।
ते वि हु चिहहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं १०४ संस्कृत-अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पंच
परमेष्ठिनः।
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३५७ ते अपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे
शरणं ॥१०४॥ अर्थ--अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय अर साधु ये पंच परमेष्ठी हैं ले भी आत्माविर्षे ही चेष्टारूपहैं आत्माकी अवस्थाहैं ,तातें मेरै आत्माहीका शरणा है, ऐसैं आचार्य अभेदनय प्रधानकरि कह्या है ॥ ____भावार्थ-ये पांच पद आत्माहीके हैं जब यह आत्मा घातिकर्मका नाश करै है तब अरहंतपद होय है, बहुरि सो ही आत्मा अघाति कर्मनिका नाशकरि निर्वाणकू प्राप्त होय है तब सिद्धपद कहावै है, बहुरि जब शिक्षा दीक्षा देनेवाला मुनि होय है तब आचार्य कहावै है, बहुरि पठनपाठनविर्षं तत्पर ऐसा मुनि होय है तब उपाध्याय कहावै है, अर जब रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गकू केवल साधैही तब साधु कहावै है; ऐसैं पांचू पद आत्माहीमै हैं । सो आचार्य विचारै है जो या देहमैं आत्मा तिष्ठै है सो यद्यपि कर्मआच्छादित है तौऊ पांचूं पदयोग्य है, याहीकू शुद्धस्वरूप ध्याये पांचूं पदका ध्यान है तातें मेरै या आत्माहीका शरणा है ऐसी भावनां करी है, अर पंचपरमेष्ठीका ध्यानरूप अंतमंगल जानाया है ॥ १०४ ॥ ___ आज कहै है जो अंतसमाधिमरणमैं च्यारि आराधनाका आराधन कह्या है सो येभी आत्माहीका चेष्टा है तातै आत्माहीका मेरै शरणां है;गाथा-सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं (य) सत्तवं चेव ।
चउरो चिहहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥१०५॥ संस्कृत-सम्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चारित्रं सत्तपः चैव । ___ चत्वारः तिष्ठन्ति आत्मनि तसादात्मा स्फुटं मे शरणं १०५
अर्थ—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अर सम्यक् तप ये च्यारि आराधना हैं तेभी आत्माविही चेष्टारूप हैं, ये च्यारूं आत्माहीकी
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३५८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितअवस्था हैं, तातें आचार्य कहै है मेरै आत्माहीका शरणा है ॥ १०५ ॥
भावार्थ-आत्माका निश्चयव्यवहारात्मक तत्त्वार्थश्रद्धानरूप परिणाम सो सम्यग्दर्शन है, बहुरि संशय विमोह विभ्रम इनिकरि रहित अर निश्चयव्यवहारकरि निजस्वरूपका यथार्थ जाननां सो सम्यग्ज्ञान है, बहुरि सम्यग्ज्ञानकरि तत्वार्थनिकू जानि रागद्वेषादिकसूं रहित परिणाम सो सम्य. क्चारित्र है; बहुरि अपनी शक्ति अनुसार सम्यग्ज्ञानपूर्वक कष्ट आदरि स्वरूपका साधनां सो सम्यक्तप है; ऐसैं ये च्यारूंही परिणाम आत्माके है तातें आचार्य कहै है मेरे आत्माहीका शरण है, याहीकी भावनामैं च्यारूं आयगये । अंतसल्लेखनामैं च्यारि आराधनाका आराधन कह्या है, तहां सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप इनि च्यारनिका उद्योत उद्यवन निर्वहण साधन निस्तरण ऐसैं पंचप्रकार आराधना कह्या है, सो आत्माके भावनेमैं च्यारूं आयगये, ऐसैं अंतसल्लेखनाकी भावना याहीमैं आयगई ऐसें जाननां । तथा आत्माही परममंगलरूप है ऐसा भी जनाया है ॥ १०५॥
आगैं यह मोक्षपाहुडगंथ पूर्ण किया ताका पढनें सुनने भावनेंका फल कहै है;गाथा-एवं जिणपण्णत्तं मोक्खस्स य कारणं सुभत्तीए ।
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सुक्खं १०६ संस्कृत-एवं जिनप्रज्ञप्तं मोक्षस्य च कारणं सुभक्त्या । यः पठति शृणोति भावयति सः प्राप्नोति शाश्वतं
सौख्यं ॥ १०६॥ अर्थ--एवं कहिये ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनदेवनैं कह्या ऐसा मोक्षपाहुड ग्रंथ है ताहि जो जीव भक्तिभावकरि पढे है याकी बारंबार चिंतव
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_अष्टपाहुड में मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३५९ नरूप भावना करै है तथा सुने है सो जीव शाश्वता सुख जो नित्य अतीन्द्रिय ज्ञानानंदमय सुख ताहि पावै है ॥
भावार्थ-मोक्षपाहुइमैं मोक्ष अर मोक्षका कारणका स्वरूप कहा है अर जे मोक्षका कारणका स्वरूप अन्यप्रकार मानै हैं तिनिका निषेध किया है तातैं या ग्रंथके पढने सुनने तैं ताका यथार्थ स्वरूपका ज्ञान श्रद्धान आचरण होय है तिस ध्यानतें कर्मका नाश होय अर ताकी बारबार भावना करनेंतें ताविर्षे दृढ होय एकाग्रध्यानकी सामर्थ्य होय है, तिस ध्यानतें कर्मका नाश होय शाश्वता सुखरूप मोक्षकी प्राप्ति होय है । तातें या ग्रंथकू पढनां सुननां निरन्तर भावना राखनी यह आशय है ॥ १०६ ॥
ऐसैं श्रीकुन्दकुन्द आचार्य- यह मोक्षपाहुडग्रंथ संपूर्ण किया । याका संपेक्ष ऐसा–जो यह जीव शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी चेतनास्वरूप है तौऊ अनादिही” पुद्गल कर्मके संयोग” अज्ञान मिथ्यात्व रागद्वेषादिक विभावरूप परिणमै है तातैं नवीनकर्मबंधके संतानकरि संसारमैं भ्रमै है। तहां जीवकी प्रवृत्तिके सिद्धान्तमैं सामान्यकरि चौदह गुणस्थान निरूपण किये हैं-तिनिमैं मिथ्यात्वके उदयकरि मिथ्यात्वगुणस्थान होय है, अर मिथ्यात्वकी सहकारिणी अनंतानुबंधी कषाय है ताके केवल उदयकरि सासादन गुणस्थान होय है, अर सम्यक्त्व मिथ्यात्व दोऊके मिलापरूप मिश्रप्रकृतिके उदयकरि मिश्रगुणस्थान होय है; इनि तीन गुण स्थाननिमैं तो आत्मभावनाका अभावही है । बहुरि जब काललब्धिके निमित्त जीवाजीव पदार्थनिका ज्ञान श्रद्धान भये सम्यक्त्व होय तब या जीवकू अपनां परका अर हिताहितका हेय उपादेयका जाननां होय है तब आत्माकी भावना होय है तब अविरतनाम चौथा गुणस्थान होय है अर जब एकदेश परद्रव्य निवृत्तिका परिणाम होय है तब जो एकदेश
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३६० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितचारित्ररूप पांचमां गुणस्थान होय है ताकू श्रावकपद कहिये, बहुरि सर्वदेश परद्रव्यतै निवृत्तिरूप परिणाम होय तब सकलचारित्ररूप छट्ठा गुणस्थान कहिये, यामैं कळू संज्वलन चारित्र मोहका तीव्र उदयतें स्वरूपके साधनेविर्षे प्रमाद होय है तातै ताका नाम प्रमत्तै है; इहांतें लगाय ऊपरिके गुणस्थानवालेकू साधु कहिये है । बहुरि जब संज्वलन चारित्र मोहका मंद उदय होय तब प्रमादका अभाव होय तब स्वरूपके साधनेंविर्षे बडा उद्यम होय तब याका नाम अप्रमत्त ऐसा सातवां गुणस्थान है, यामैं धर्मध्यानकी पूर्णता है । बहुरि जब इस गुणस्थानमैं स्वरूपमैं लीन होय तब सातिशय अप्रमत्त होय हे श्रेणीका प्रारंभ करै है तब यातें ऊपरी चारित्रमोहका अव्यक्त उदयरूप अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय नाम धारक ये तीन गुणस्थान होय हैं। चौथासूं लगाय दशमां सूक्ष्मसांपरायताई कर्मकी निर्जरा विशेषताकरि गुणश्रेणीरूप होय है । तब यातै ऊपरि मोहकर्मका अभावरूप ग्यारमा बारमा उपशांतकषाय क्षीणकषाय गुणस्थान होय है । ता पी3 तीन घातेया कर्म रहे तिनिका नाशकरि अनंत चतुष्टय प्रगट होय अरहंत होय है तहां सयोगी जिन नाम गुणस्थान है, इहां योगकी प्रवृत्ति है । बहुरि योगनिका निरोध करि अयोगीजिन नामा चौदमा गुणस्थान होय है, तहां अघातिकर्मकाभी नाशकरि अर लगताही अनंतर समय निर्वाणपदकुं प्रात होय है, तहां संसारका अभावतें मोक्ष नाम पावै है। ऐसे सर्व कर्मका अभावरूप मोक्ष होय है, ताका कारण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र कहे तिनिकी प्रवृति चौथे गुणस्थान सम्यक्त्व प्रगट होनें एकदेश कहिये, तहांते लगाय आगे जैसे जैसे कर्मका अभाव होय तैसें तेसैं सम्यग्दर्शनादिकी प्रवृत्ति बधती जाय अर जैसे जैसैं इनिकी प्रवृत्ति वधै तैसे तैसैं कर्मका अभाव होता जाय जब घातिकमका अभाव होय तब तेरह चौदह गुणस्थान
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३६१
अरहंत होय तत्र जीवनमुक्त कहावै अर चौदाह गुणस्थानके --- अंत रत्नत्रय की पूर्णता होय है तातैं अघाति कर्मकाभी नाश होय अभा व होय तब साक्षात् मोक्ष होय तब सिद्ध कहावै । ऐसें मोक्षका अर • मोक्ष के कारणका स्वरूप जिन आगमतें जानि अर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्षका कारण कया है ताकूं निश्चय व्यवहाररूप यथार्थ जानि सेवनां अर तप भी मोक्षका कारण है सो भी चारित्र मैं अन्तर्भूत करि त्रयात्मकही कया है । ऐसैं इनि कारणनितें प्रथम तौ तद्भवही मोक्ष होय है । अर जेतैं कारणकी पूर्णता न होय ता पहली कदाचित् आयुकर्मकी पूर्णता होय तौ स्वर्गविधैं देव होय है तहां भी यह वांछा रहै जो यह शुभोपयोगका अपराध है इहांतैं चयकरि मनुष्य होऊंगा, तब सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्गं से मोक्षप्राप्त होऊंगा, ऐसी भावना रहै है तब तहां तैं मोक्ष पा है । अर अबार इस पंचमकालमै द्रव्य क्षेत्र काल भावकी सामग्रीका निमित्त नांही तातैं तद्भव मोक्ष नांही तौऊ जो रत्न - त्रयकूं शुद्धताकार सेवै तौ इहांत देव पर्याय पाय पीछें मनुष्य होय मोक्ष पावै है । तातैं यह उपदेश है जैसे वनैं तैसें रत्नत्रयकी प्राप्तिका उपाय करना, तहां भी सम्यग्दर्शन प्रधान है ताका उपाय तौ अवश्य चाहिये, - तातैं जिनागमकूं समझि सम्यक्त्वका उपाय अवश्य करनां योग्य है ऐसें इस ग्रंथका संक्षेप जानो ॥
V
छप्पय ।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवकारण जानूं तें निश्चय व्यवहाररूप नीकै लखि मानूं ।
सेवो निशदिन भक्तिभाव धरि निजबल सारू, जिन आज्ञा सिर धारि अन्यमत तजि अघकारू ||
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
इस मानुषभवकू पायकै अन्य चारित मति धरो भविजीवनिळू उपदेश यह गहिकरि शिवपद संचरो॥१॥
दोहा। बंदू मंगलरूप जे अर मंगलकरतार । पंच परम गुरु पद कमल ग्रंथ अंत हितकार ॥२॥ इहां कोई पूछ-जो ग्रंथनिमैं जहां तहां पंचणमोकारकी महिमा बहुत लिखी, मंगलकार्यमैं विघ्नके मेटनेंकू यही प्रधान कह्या, अर यामैं पंच परमेष्टीकू नमस्कार है सो पंचपरमेष्ठीकी प्रधानता भई, पंचपरमेष्ठीकू परम गुरु कहे तहां याही मंत्रकी महिमा तथा मंगलरूपपणा अर यातें विघ्नका निवारण अर पंचपरमेष्ठीकै प्रधानपणां आ गुरुपणां अर नमस्कार करने योग्यपणां कैसे है ? सो कहनां । ___ताका समाधानरूप कळूक लिखिये है:-तहां प्रथम तौ पंचणमोकार मंत्र है, ताके पैंतीस अक्षर हैं, सो ये मंत्रके बीजाक्षर हैं तथा इनिका जोड सर्व मंत्रनिः प्रधान है, इनि अक्षरनिका गुरु आम्नायतें शुद्ध उच्चारण होय तथा साधन यथार्थ होय तब ये अक्षर कार्यमैं विघ्नके निवारणकू कारण हैं ता” मंगलरूप हैं । जो 'म' कहिये पाप ताळू गाले ताकू मंगल कहिये तथा 'मंग' कहिये सुखकू ल्यावै दे ताकू मंगल कहिये सो यात दोऊ कार्य होय हैं। उच्चारणते विघ्न टलैं हैं, अर्थ विचारे सुख होय है, याही ते याकू मंत्रनिमैं प्रधान कह्या है, ऐसैं तो मंत्रके आश्रय महिमा है । बहुरि पंचपरमेष्टीकू नमस्कार यामैं है-ते पंचपरमेष्ठी अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु ये है सो इनिका स्वरूप तौ ग्रंथनिमैं प्रसिद्ध है, तथापि कछू लिखिये है:-तहां यहु अनादिनिधन अकृत्रिम सर्वज्ञकी परंपराकरि सिद्ध आगममैं कह्या है ऐसा षव्यस्वरूप
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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३६३ लोक है, तामैं जीवद्रव्य अनंतानंत हैं अर पुद्गलद्रव्य तिनि अनंतानंत गुणे हैं, बहुरि एक एक धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य हैं, बहुरि काल द्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। तहां जीव तौ दर्शनज्ञानमयी चेतना स्वरूप है । अर पांच अजीव हैं ते चेतनारहित जड हैं-तहां धर्म अधर्म आकाश काळ ये च्यारि द्रव्य तौ जैसैं हैं तैसैं तिष्ठं हैं तिनिकै विकारपरिणति नाही; बहुरि जीव पुद्गलद्रव्यकै परस्पर निमित्त नैमित्तिकमावतें विभावपरिणति है तामैं भी पुद्गल तो जड है ताके विभाषपरिणतिका दुःख सुखका · संवेदन नाही, अर जीव चेतन है याकै सुख दुःखका संवेदन है । तहां जीव अनंतानंत हैं तिनिमैं केई तो संसारी हैं, केई संसारनै निवृत्त होय सिद्ध भये हैं । तहां संसारी जीव हैं तिनिमैं केई तो अभव्य हैं तथा अभव्यसारिखे हैं ते दोऊ जातिके संसारनै निवृत्त कबहू न होय है तिनिकै संसार अनादिनिधन है; बहुरि केई भव्य हैं ते संसार” निवृत्त होय सिद्ध होय हैं, ऐसें जीवनिकी व्यवस्था है। अब इनिकै संसारकी उत्पत्ति कैसे है सो कहै है-तहां जीवनिकै ज्ञानावरणादि आठ कर्मनिका अनादिबंधरूप पर्याय है तिसबंधके उदयके निमित्त” जीव रागद्वेषमोहादि विभावपरिणतिरूप परिणमै है, तिल विभाव परिणतिके निमित्ततें नवीन कर्मबंध होय है, ऐसैं इनिके संतान जीवकै चतुर्गतिरूप संसारकी प्रवृत्ति होय है तिस संसारमैं चतुर्गतिविौं अनेक प्रकार सुखदुःखरूप भया भ्रमै है; तहां कोई काल ऐसा आवै जो मुक्त होनां निकट आवै तब सर्वज्ञके उपदेशका निमित्त पाय अपनां स्वरूपकू अर कर्मबंधका स्वरूपकू अर आपमैं विभावका स्वरूपकू जानै इनिका भेद ज्ञान होय तब परद्रव्यकू संसारके निमित्त जानि तिनितें विरक्त होय अपने स्वरूपका अनुभवका साधन करै दर्शनज्ञानरूप स्वभाववि स्थिर होनेका साधन करै तब याकै
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पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित
बाह्यसाधन हिंसादिक पंच पापनिका त्यागरूप निर्बंथपद सर्व परिग्रहका त्यागरूप निर्ग्रन्थ दिगंबर मुद्रा धारै पांच महाव्रत पांच समितिरूप तीन गुप्तिरूप प्रवर्त्तेत सर्व जीवनिकी दया करनेवाले साधु कहावै, तामैं तीन पदवी होय जो आप साधु होय अन्यकं साधुपदकी शिक्षादीक्षा देय सो तौ आचार्य कहावै, अर साधु होय जिनसूत्रकूं पढ़ें पढावे सो उपाध्याय कहावै, अर जो अपने स्वरूपका साधन में रहे सो साधु कहा अर जो साधु होय अपने स्वरूपका साधनका ध्यानका बलतैं च्यारि घाति कर्मनिका नाशकरि केवलज्ञान केवलदर्शन अनंतसुख अनंतवीर्यकूं प्राप्त होय सो अरहंत कहावै, तब तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली जिन इंद्रादिककरि पूज्य होय तिनिकी वाणी खिरै जिसतें सर्व जीवनिका उपकार होय अहिंसा धर्मका उपदेश होय सर्व जीवनिकी रक्षा करावे यथार्थ पदार्थनिका स्वरूप जनाय मोक्षमार्ग दिखावे ऐसी अरहंत पदवी होय हैं; बहुरि जो च्यारि अवाति कर्मकाभी नाशकरि सर्व कर्मनितैं रहित होय सो सिद्ध कहावै । ऐसें ये पांच पद हैं, ते अन्य सर्व जीवनितैं महान हैं तातैं पंच परमेष्ट्री कहा हैं तिनिके नाम तथा स्वरूप के दर्शन तथा स्मरण व्यान पूजन नमस्कार अन्य जीवनिके शुभपरिणाम होय हैं तातैं पापका नाश होय है, वर्त्तमानका विघ्न विलय होय है, आगामी पुण्यका बंध होय है तातैं स्वर्गादिक शुभगति पात्र है । अर इनकी अज्ञानुसार प्रवर्त्तनेते परंपराकरि संसार निवृत्तिभी होय हैं तातैं ये पंच परमेष्ठी सर्व जीवनिके उपकारी परमगुरु हैं, सर्व संसारी जीवनिकै पूज्य हैं। इनि सिवाय अन्य संसारी जीव हैं
राग द्वेष मोहादि विकारनिकरि मलिन हैं, ते पूज्य नांही, तिनिकै महानपणां गुरुपणां पूज्यपणां नांही, आपही कर्मानेके वाश मलिन तब अन्यका पाप तिनितैं कैसैं कटै । ऐसें जिनमत मैं इनि पंच परमेष्टीका महानपणां प्रसिद्ध है अर न्यायके चलतेंभी ऐसैंही सिद्ध होय हैं जातें जे
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अष्टपाहुड में मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका | ३६५
संसारके भ्रमणतैं रहित होय तेही अन्यकै संसारका भ्रमण मेटनेकूं कारण होय जैसैं जाकै धनादि वस्तु होय सो ही अन्यकूं धनादिक दे अर आप दरिद्री होय तब अन्यका दरिद्र कैसें मेटैं, ऐसें जाननां । ऐसैं जिनकं संसारके विघ्न दुःख मेटनें होय अर संसारका भ्रमणका दुःखरूप जन्म मरणतैं रहित होनां होय ते अरहंतादिक पंच परमेष्ठीका नाम मंत्र जपो, इनके स्वरूपका दर्शन स्मरण ध्यान करो, तातैं शुभ परिणाम होय पापका नाश होय, सर्व विघ्न टलैं परंपराकरि संसारका भ्रमण मिटै कर्मका नाश होय मुक्तिकी प्राप्ति होय, ऐसा जिनमतका उपदेश है सो भव्य जीवनिकै अंगीकार करने योग्य है ।
इहां कोई कहै - अन्यमत मैं ब्रह्मा विष्णु शिव आदिक इष्ट देव मानें हैं तिनिके विघ्न टलते देखिये हैं तथा तिनिके मतमैं राजादि बडे बडे पुरुष देखिये हैं तिनिके भी ते इष्ट है सो विघ्नादिकका मेटनेवाले हैं तैसें तुमारे भी कहो, ऐसैं क्यौं कहो जो ये पंचपरमेष्ठीही प्रधान हैं अन्य नांही ? ताकूं कहिये, रे भाई ! जीवनिके दुःख तौ संसार भ्रमणका है अर संसारके भ्रमणका कारण राग द्वेष मोहादिक परिणाम है अर रागा-दिक वर्त्तमानमैं आकुलतामयी दुःखस्वरूप हैं तातैं ते ब्रह्मादिक इष्ट दव कहे ते तौ रागादिक काम क्रोधादिकरि युक्त हैं, अज्ञान तपके फलतें केई जीव सर्व लोकमैं चमत्कारसहित राजादिक बडी पदवी पावै ताकूं लोक बडा मानि लोक ब्रह्मादिक भगवान कहनें लगिजाय, कहै जो—ये परमे-श्वर ब्रह्मका अवतार है सो ऐसे मानें तौ कछू मोक्षमार्गी तथा मोक्षरूप होय नांही, संसारीही रहें हैं । ऐसैंही अन्यदेव सर्व पदवी वाले जाननें ते आपही रागादिककरि दुःखरूप हैं जन्ममरण करि सहित हैं ते परका संसारका दुःख कैसैं मेढेंगे। अर तिनिके मतमैं विघ्नका टलनां अर राजादिक बडे पुरुष होते कहे सो ये तो जीवनिकै पूर्वै कछू शुभ कर्म बंधे थे.
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३६६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिततिनिका फल है, पूर्वजन्ममैं किंचित् शुभ परिणाम कियाथा तातै पुण्यकर्म बंध्याथा ताका उदयतें कछू विन्न टलै है अर राजादिक पदवी पावै है सो पूर्वै कछ अज्ञानतप किया होय ताका फल है सो ये तो पुण्यपापरूप संसारकी चेष्टा है, यामैं कळू बडाई नाही; बडाई तो जो है जाते संसारका भ्रमण मिटै सो तौ वीतराग विज्ञान भावनिहीतै मिटैगा, सो तिस वीतराग विज्ञान भावनियुक्त पंच परमेष्टी हैं तेही संसारका भ्रमण के दुःख मेटनें• कारण हैं। वर्तमानमैं कळू पूर्व शुभ कर्मका उदयतें पुण्यका चमत्कार देखि तथा पापका दुःख देखि भ्रम नहीं उपजावनां, पुण्य पाप दोऊ संसार हैं तिनि” रहित मोक्ष है, सो संसार” छुटि मोक्ष होय तैसाहा उपाय करनां । अर वर्तमानकाभी विन्न जैसा पंचपरमेष्ठीका नाम मत्र ध्यान दर्शन स्मरण” मिटैगा तैसा अन्यके नामादिकतै तौ न मिटैगा जानैं ये पंचपरमेष्टी ही शांतिरूप है केवल शुभ परिणामनिहींकू कारण हैं । बहुरि अन्य इष्टके रूप हैं ते तौ रौद्ररूप हैं तिनिका तौ दर्शन स्मरण है सो रागादिक तथा भयादिकका कारण है, तिनितें तौ शुभ परिणाम होता दीखै नांही। कोईकै कदाचित् कछू धर्मानुरागके वशतें शुभपरिणाम होय तौ सो तिनितें तौ न भया कहिये, वा प्राणीकै स्वाभाविक धर्मानुरागके वश” होय है । तातै अतिशयवान शुभपरिणामका कारण तौ शांतिरूप पंच परमेष्ठीहीका रूप है तातें याहीका आराधन करना, वृथा खोटी युक्ति सुनि भ्रम नहीं उपजावनां, ऐसें जाननां ॥
इतिश्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित मोक्षप्राभृतकी । जयपुरनिवासि पं. जयचन्द्रजीछावड़ाकृत
देशभाषामयवचनिका समाप्त ॥६॥
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॥ श्री ॥
अथ लिंगपाहुड ।
( ७ )
अथ लिंगपाहुडकी वचनिका लिखिए है; - दोहा |
जिनमुद्राधारक मुनी निजस्वरूपकं ध्याय । कर्म नाशि शिवसुख लियो वंदूं तिनिके पांय ॥१॥
ऐसें मंगलकै आर्थ जिनि मुनिनिनैं शिवसुख पाया तीनकूं नमस्कार करि श्रीकुन्दकुन्दआचार्यकृत प्राकृत गाथाबंध लिंगपाहुडनाम ग्रंथ है ताकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है; — तहां प्रथमही आचार्य मंगलकै अर्थि इष्टकूं नमस्कारकरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करे हैं;गाथा -काऊण णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं ।
वोच्छामि समणलिंगं पाहुडसत्थं समासेण ॥ १ ॥ संस्कृत — कृत्वा नमस्कारं अर्हतां तथैव सिद्धानाम् ।
वक्ष्यामि श्रमणलिंगं प्राभृतशास्त्रं समासेन ॥१॥ अर्थ — आचार्य कहै है जो मैं अरहंतनिकं नमस्कार करि अर तैसें सिद्धनि नमस्कार करि अर श्रमण लिंगका है निरूपण जा मैं ऐसा पाहुडशास्त्र है ताहि कहूंगा ॥
भावार्थ — इस कालमैं मुनिका लिंग जैसा जिनदेव नैं का है तैसा मैं विपर्यय भया ताका निषेध करनेकूं यह लिंग के निरूपणका शास्त्र आचार्यनैं रच्या है, ताकी आदि मैं घातिकर्मका नाशकरि अनंत चतुष्टय
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३६८
पंडित जयचंद्री छावड़ा विरचित
पाय अरहंत भये तिनिने यथार्थ श्रमणका मार्ग प्रवर्तीया अर तिस लिंगकू साधि सिद्ध भये; ऐसैं अरहंत सिद्ध तिनिकू नमस्कारकरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करी है ॥१॥
आगे कहे है जो–लिंग बाह्यभेष है सो अंतरंगधर्मसहित कार्यकरी है;-- गाथा-धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती ।
जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्यो ॥२॥ संस्कृत--धर्मेण भवति लिंगं न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः ।
जानीहि भावधर्म किं ते लिंगेन कर्त्तव्यम् ॥२॥ अर्थ-धर्मकरि सहित तो लिंग होय है बहुरि लिंगमात्रहीकरि धर्मकी प्राप्ति नहीं है, ता” हे भव्यजीव ! तृ भावरूप धर्म है ताहि जांनि अर केवल लिंगहीकरि तेरै कहा कार्य होय है, कछू भी नाही ।।
भावार्थ-इहां ऐसा जानो जो-लिंग ऐसा चिह्नका नाम है सो बाह्य भेष धारै सो मुनिका चिह्न है सो ऐसा चिह जो अंतरंग वीतराग स्वरूप धर्म होय तौ ता सहित तौ यह चिह्न सत्यार्थ होय है अर तिस वीतरागस्वरूप आत्माका धर्म विना लिंग जो वाह्य भेष तिस मात्रकरि धर्मकी संपत्ति जो सम्यक् प्राप्ति सो नाही है, तातै उपदेश किया है जो अंतरंग भावधर्म जो रागद्वेष रहित आत्माका शुद्ध ज्ञान दर्शन रूप स्वभाव सो धर्म है ताहि हे भव्य ! तू जांनि; अर इस बाह्य लिंग भेष मात्रकरि कहा कार्य है कछुभी नाही । बहुरि इहां ऐसाभी जाननां जोजिनमतमैं लिंग तीन कहै है-एक तौ मुनिका यथाजात दिगंबर लिंग १ दूजा उत्कृष्ट श्रावकका २ तीजा आर्यकाका ३ इनितीनही लिंगनि • धारि भ्रष्ट होय अर जो कुक्रिया करै ताका निषेध है। तथा अन्य
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अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका। ३६९ मतके केई भेष है तिनिकू भी धारि जो कुक्रिया करै सो भी निंदाही पावै, तातै भेषधारि कुक्रिया न करनां ऐसा जनाया है ॥ २ ॥ ___ आनें कहै है जो जिनका लिंग जो-निग्रंथ दिगंबररूप ताहि ग्रहणकरि जो कुक्रिया करि हास्य करावै सो पापबुद्धि है;--- गाथा--जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं ।
उवहसइ लिंगिभावं लिंगिम्मिय गारदो लिंगी ॥३॥ संस्कृत-यः पापमोहितमतिः लिंगं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् ।
उपहसति लिंगिभावं लिंगिषु नारदः लिंगी ॥३॥ अर्थ-जो जिनवरेन्द्र कहिये तीर्थकरदेवका लिंग नग्न दिगंबररूपकू ग्रहण करि अर लिंगीपणांका भावकू उपहसै है हास्यमात्र गिनै है; सो कैसा है-लिंगी कहिये भेषी तिनिविर्षे नारद लिंगी है तैसा है । अथवा या गाथाका चौथा पादका पाठान्तर ऐसा है-“लिंग णासेदि लिंगीणं" याका अर्थ—यह जो लिंगी जो अन्य केई लिंगका धारी तिनिका लिंगकू भी नष्ट करै है, ऐसा जनावै है जो लिंगी सर्व ऐसेही हैं, कैसा है लिंगीपापकरि मोहित है बुद्धि जाकी ॥
भावार्थ-लिंगधारी होय अर पापबुद्धिकरि किछू कुक्रिया करै तब तानैं लिंगीपणां हास्यमात्र गिण्यां, किछू कार्यकारी गिण्या नाही । लिंगीपणा तौ भावशुद्ध सोहै था सो भाव विगडे तब बाह्य कुक्रिया करने लग्या तब यानैं तिस लिंगकू लजाया अर अन्य लिंगीनिका लिंगकू भी कलंक लगाया, लोक कहने लगे-जो लिंगी ऐसेही होय हैं । अथवा जैसैं नारदका भेष है तामैं वह स्वइच्छानुसार स्वच्छंद जैसैं प्रवत् है तैसैं यह भी भेषी ठहय । तातें आचार्य ऐसा आशय धारि कह्या है जो-जिनेन्द्रका भेषकू लजावनां योग्य नाही ॥ ३ ॥
अ. व. २४
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३७०
पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचित -
आगें लिंग धारि कुक्रिया करै ताकूं प्रगट कहै है; - गाथा - चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण ।
सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ४ ॥ संस्कृत - नृत्यति गायति तावत् वाद्यं वादयति लिंगरूपेण ।
सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ ४ ॥ अर्थ — जो लिंगरूप करि नृत्य करे है गावै है वादित्र बजावै है, सो कैसा है— पापकरि मोहित है बुद्धि जाकी ऐसा है, सो तिर्यचयोनि है, पशु है; श्रमण नांही ॥
भावार्थ — लिंग धारि भाव विगाडि नाचनां गावनां बजावनां इत्यादि क्रिया करै सो पापबुद्धि है पशु है अज्ञानी है, मनुष्य नांही, मनुष्य होय तौ श्रमणपणा राखे । जैसैं नारद भेषधारी नाचे गावै है बजावै है तैसें यह भी भेषी भया तब उत्तमभेषकूं लजाया, तातैं लिंग धारि ऐसा होनां युक्त नांही ॥ ४॥
I
आगें फेरि कहै है;—–
गाथा - समूहदि रक्खेदि य अहं झाएदि बहुपयत्तेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥५॥ संस्कृत-समूहयति रक्षति च आर्त्तं ध्यायति बहुप्रयत्नेन ।
सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ ५ ॥ अर्थ — जो निग्रंथ लिंग धारि अर परिग्रहकूं संग्रहरूप करे है अथ वा ताकी वांछा चिंतवन ममत्व करे है, बहुरि तिस परिग्रहकी रक्षा करे है ताका बहुत यत्न करे है, ताकै अर्थि आर्त्तध्यान निरन्तर ध्यावै है; सो कैसा है- पापकरि मोहित है बुद्धि जाकी ऐसा तिर्येचयोनि है पशु है अज्ञानी है, श्रमण तौ नांही श्रमणपणांकूं बिगाडै है, ऐसैं जाननां ॥५॥ आर्गै फेरि कहै है; -
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अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका । ३७१
गाथा - कलहं वादं जुवा णिचं बहुमाणगव्विओ लिंगी । asia rti पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ॥ ६ ॥ संस्कृत - कलहं वादं द्यूतं नित्यं बहुमानगर्वितः लिंगी । व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण ॥६॥ अर्थ — जो लिंगी बहुत मानकषायकरि गर्ववान भया निरंतर कलह करे है वाद करे है द्यूतक्रीडा करे है सो पापी नरककूं प्राप्त होय है, कैसा है लिंगी- पाप करि ऐसैं करता संता वर्त्ते है ॥
भावार्थ - जो गृहस्थरूप करि ऐसी क्रिया करै है ताकूं तौ यह उराहनां नांही जातैं कदाचित् गृहस्थ तौ उपदेशादिकका निमित्त पाय कुक्रिया करता रह जाय तौ नरक न जाय । बहुरि लिंग धारि तिसरूपकरि कुक्रिया करै तौ ताकूं उपदेश भी न लागै, यातें नरककाही पात्र होय है ॥६॥
आगे फेरि कहै है; -
गाथा - पोओपहदभावो सेवादि य अवभु लिंगिरूवेण । सो पाव मोहिमदी हिंडदि संसारकांतारे ॥७॥ संस्कृत - पापोपहतभावः सेवते च अब्रह्म लिंगिरूपेण । सः पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे ॥७॥ अर्थ—जो पापकरि उपहत कहिये घात्या गया है आत्मभाव जाका ऐसा भया संता लिंगीका रूपकरि अब्रह्म सेवै है, सो पापकरि मोहित है बुद्धि जाकी ऐसा लिंगी संसाररूपी कांतार जो वन ताविषै भ्रमै है |
भावार्थ — पहले तौ लिंगधारण किया अर पीछें ऐसा पाप परिणाम भया जो व्यभिचार सेवनें लग्या, ताकी पापबुद्धिका कहा कहना ? ताका संसारमैं भ्रमण न क्यों न होय ? जाकै अमृतहू जहररूप परिणमै ताके १ इस छंदका प्रथम द्वितीयपाद यति भंग है ।
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३७२
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
रोग जानेकी कहा आशा ? तैसैं यह भया, ऐसेका संसार कटनां
कठिन है ॥ ७ ॥
आगे फेरि कहै है; -
गाथा -- दंसणणाणचरिते उवहाणे जह ण लिंगरूवेण । अहं झादि झाणं अगतनारिओ होदि ॥ ८ ॥ संस्कृत - दर्शनज्ञान चारित्राणि उपधानानि यदि न लिंगरूपेण । आर्त्तं ध्यायति ध्यानं अनंतसंसारिकः भवति ॥ ८ ॥ अर्थ – यदि कहिये जो लिंगरूप करि दर्शन ज्ञान चारित्रकूं तौ उपधानरूप न किये धारण न किये अर आर्त्तध्यानकूं ध्यावे हैं तो ऐसा लिंगी अनंतसंसारी होय है |
भावार्थ -- लिंग धारण करि दर्शन ज्ञान चारित्रका सेवन करनां था सो तौ न किया अर परिग्रह कुटुंब आदि विषयनिका परिग्रह छोड्या ताकी फेरि चिंताकरि आर्त्तध्यान ध्यावने लगा तब अनंतसंसारी क्यौं न होय ? याका यह तात्पर्य है जो सम्यग्दर्शनादिरूप भाव तो पहले भये नांही अर किछू कारण पाय लिंग धान्य, ताकी अवधि कहा ? पहली भाव शुद्ध करि लिंग धारनां युक्त है ॥ ८ ॥
आगैं कहै है जो - भावशुद्धि विना गृहस्थचारा छोड़े यह प्रवृि होय है;
गाथा - जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्जजीवघादं च । वच्चदि पर पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ||९|| संस्कृत - यः योजयति विवाहं कृषिकर्मवाणिज्यजीवघातं च । व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण || ९ ||
अर्थ —जो गृहस्थनिके परस्पर विवाह जाँडै है सणपण करावे है, बहुरि कृषिकर्म कहिये खेती वाहना किसानका कार्य अर वाणिज्य कहिये
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अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका। ३७३ व्यापार विणज वैश्यका कार्य अर जीवघात कहिये वैद्यकर्मके अर्थ जीवघात करना अथवा धीवरादिकका कार्य इनि कार्यनिकू करै है सो लिंगरूपकार ऐसे करता पापी नरककू प्राप्त होय है ॥
भावार्थ-गृहस्थचारा छोडि शुभ भाव विना लिंगी भया था, याकी भावकी वासना मिटी नाही तब लिंगीका रूप धारि करिभी करनेलगा आप विवाह न करै तौऊ गृहस्थनिकै सणपण कराय विवाह करावै तथा खेती विणज जीवहिंसा आप करै तथा गृहस्थनिकू करावै, तब पापी भया संता नरक जाय। ऐसे भेष धारनेंतें तो गृहस्थही भला था, पदवीका पाप तौ न लागता, तातें ऐसा भेष धारणां उचित नाही यह उपदेश है ॥ ९॥
आज फेरि कहै है;गाथा-चोराण लोउराण य जुद्ध विवादं च तिव्वकम्महि ।
जंतेण दिव्यमाणो गच्छदि लिंगी णरयवासं ॥१०॥ संस्कृत-चौराणां लापराणां च युद्धं विवादं च तीव्रकर्मभिः ।
यंत्रेण दीव्यमानः गच्छति लिंगी नरकवासं ॥१०॥ ___ अर्थ-जो लिंगी ऐसैं प्रवत्र्ते है सो नरकवासकुँ प्राप्त होय है जो चौरनिके अर लापर कहिये झूठ बोलनेवालानिकै युद्ध अर विवाद करावै है बहुरि तीव्रकर्म जो जिनिमैं बहुत पाप उपजै ऐसे तीव्र कषायनिके कार्य तिनिकरि तथा यंत्र कहिये चौपडि सतरंज पासा हिंदोला आदि ताकरि क्रीडा करता संता वत्” है, ऐसैं वरतता नरक जाय है । इहां 'लाउराणं का पाठांतर ऐसाभी है राउलाणं,' याका अर्थ-रावल कहिये राजकार्य करनेवाले तिनिकै युद्ध विवाद करावै, ऐसें जाननां ॥
१-मुद्रित सटीक संस्कृत प्रतिमें 'समाएण' ऐसा पाठ है जिसकी छाया 'मिथ्यावादिनां' इस प्रकार है।
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
भावार्थ — लिंग धारण करि ऐसे कार्य करै तौ सो नरक पावहीं या संशय नांही ॥ १० ॥
आर्गै क है है जो लिंग धारि लिंगयोग्य कार्य करता दुःखी रहै है तिनि कार्यनिका आदर नांही करे हैं, सो भी नरकमैं जाय है; - गाथा — दंसणणाणचरिते तवसंजमणियमणिच्चकम्मम्मि |
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पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ॥ ११ ॥ संस्कृत - दर्शनज्ञानचारित्रेषु तपः संयमनियमनित्यकर्मसु । पीड्यते वर्त्तमानः प्राप्नोति लिंगी नरकवासम् ११ अर्थ — जो लिंगधारणकार इनि क्रियानिवि करता वाध्यमान होय पीडा पावै है दुःखी होय है सो लिंगी नरकवासकूं पावें है । ते क्रिया कहा ? प्रथम तौ दर्शन ज्ञान चारित्र तिनिविषै इनिका निश्चय व्यवहाररूप धारण करना, बहुरि तप अनशनादिक बारह प्रकार तिनिका शक्तिसारू करनां, बहुरि संयम - इंद्रिय मनका वशि करनां जीवनिकी रक्षा करनी, नियम कहिये नित्य किछू त्याग करनां, बहुरि नित्यकर्म कहिये आवश्यक आदि क्रियाका कालकी काल नित्य करनां; ये लिंग कै योग्य क्रिया हैं; इनि क्रियानिविषै करता दुःखी होय है, सो नरक पांव है ॥
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भावार्थ — लिंगधारणकर ये कार्य करने थे तिनिका तौ निरादर करे अर प्रमाद सेवै, लिंगकै योग्य कार्य करता दुःखी होय, तत्र जानिये - याकै भावशुद्धिपूर्वक लिंगग्रहण नांही भया । अर भाव बिगडै ताका फल तौ नरकही होय, ऐसैं जाननां ॥ ११ ॥
आ कहै है जो भोजनविषै भी रसनिका लोलुपी होय सो भी लिंगकूं लजावै है;
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अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका ।
३७५
गाथा-कंदप्पाइय बट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं ।
मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण समणो ॥१२॥ संस्कृत-कंदादिषु वर्तते कुर्वाणः भोजनेषु रसगृद्धिम् ।
मायावी लिंगव्यवायी तियग्योनिः न सः श्रमणः १२ अर्थ-जो लिंग धारि करि भोजनविर्षे भी रसकी गृद्धि कहिये अति आसक्तता ताहि करता वर्ते है सो कंदर्प आदिकवि व” है, कामसेवनकी वांछा तथा प्रमाद निद्रादिक जाकै प्रचुर बढे है तब 'लिंगव्यवायी' कहिये व्यभिचारी होय है, मायावी कहिये कामसेवनकै आर्थि अनेक छल करनां विचारै है; जो ऐसा होय है सो तिर्यंचयोनि है पशुतुल्य है मनुष्य नाही याहीतैं श्रमण नाही ॥
भावार्थ-गृहस्थचारा छोडि आहारविर्षे लोलुपता करने लग्या तौ गृहस्थचारामैं अनेक रसीले भोजन मिलें थे, काहेकू छोड़े, ताः जानिये है जो आत्मभावनाका रसकू पहचान्या नांही तातै विषयसुखकी ही चाहि रही तब भोजनके रसकी लारके अन्य भी विषयनिकी चाहि होय तब व्यभिचार आदिमैं प्रवर्ति करि लिंगकू लजावै; ऐसे लिंग” तौ गृहस्थचाराही श्रेष्ठ है, ऐसैं जाननां ॥१२॥ __ आगै फेरि याहीका विशेष कहै है;गाथा-धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊण भुंजदे पिंडं ।
अवरुपरूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो॥१३॥ संस्कृत-धावति पिंडनिमित्तं कलहं कृत्वा भुक्ते पिंडम् ।
अपरप्ररूपी सन् जिनमार्गी न भवति सः श्रमणः १३ अर्थ--जो लिंगधारी पिंड जो आहार ताकै निमित्त दोडै है, बहुरि आहारकै निमित्त कलह करि आहारकू भुंजै है खाय है, बहुरि ताकै निमित्त अन्यतैं परस्पर ईर्षा करै है सो श्रमण जिनमार्गी नांही है ॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
__ भावार्थ—इस कालमैं जिनलिंगरौं भ्रष्ट होय पहले अफलक भये पाछै तिनिमैं श्वेतांबरादिक संघ भये तिनि. शिशिलाचार पोषि लिंगकी प्रवृत्ति बिगाडी, तिनिका यह निषेध है। -तिनिमैं अब भी केई ऐसे देखिये हैं जो-आहारकै आर्थिं शीघ्र दोडै है ईर्यापथकी सुध नाही, बहुरि आहार गृहस्थका घरसू ल्याय दोय च्यारि सामिल बैठि खाय तामैं बटवारामैं सरस नीरस आवै तब परस्पर कलह करै बहुरि तिसके निमित्त परस्पर ईर्षा करै, ऐसैं प्रवत्तै ते काहेके श्रमण ? ते जिनमार्गी तो नाह। कलिकालके भेषी हैं । तिनिळू साधु मानें हैं ते मा अज्ञानी हैं ॥१३॥
आ फेरि कहै है;गाथा-गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खसेहिं ।
जिणलिंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो ॥१४॥ संस्कृत-शृह्णाति अदत्तदानं परनिंदामपि च परोक्षदूषणैः ।
जिनलिंगं धारयन् चौरेणेव भवति सः श्रमणः॥१४॥ अर्थ—जो बिना दिया तो दान ले है अर परोक्ष परके दूषणनिकरि परकी निंदा करै है सो जिनलिंगकू धारता जंता भी चौरकी ज्यों श्रमण है ॥ ___ भावार्थ--जो जिनलिंग धारि बिना दिया आहार आदिकू ग्रहण करें परकै देनेकी इच्छा नाही किछू भयादिक उपजाट लेना तथा निरादरतें लेना, छिपिकरि कार्य करनां ये तौ चौरके कार्य हैं । यह भेष धारि ऐसें करनेलग्या तब चौरही ठहया तातैं ऐसा भेषी होनां योग्य नाही ।।१४ ___ आगें कहै है जो लिंग धारि ऐसें प्रवत्तै सो श्रमण नाही,गाथा-उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण ।
इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो॥१५॥
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अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचीनका । ३७७
संस्कृत - उत्पतति पतति धावति पृथिवीं खनति लिंगरूपेण । ईर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः || १५ || अर्थ — जो लिंग धारकरि ईर्यापथ सोधि करि चालना था तामैं सोधिकरि न चालै दौडता चालता संता उछलै गिरपडै फेरि उठिकरि दौडै बहुरि पृथ्वी कूं खादै चालतें ऐसा पगपटकै जो ता पृथ्वी खुदि जाय ऐसैं चालै सो तिर्यचयोनि है पशु अज्ञानी है, मनुष्य नांही ॥ १५ ॥
आगे कहै है जो बनस्पति आदि स्थावरजीवनिकी हिंसातें कर्मबंध होय है ताकूं न गिनता स्वच्छंद होय प्रवर्ते है, सो भ्रमण नांही;गाथा - वंधो णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि ।
छिंददि तरुण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ संस्कृत-वंधं नीरजाः सन् सस्यं खंडयति तथा च वसुधामपि । छिनत्ति तरुणं बहुशः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ अर्थ — जो लिंग धारणकार अर वनस्पति आदिकी हिंसातें बंध होय है ताकूं नांही दूषता संता बंधकू न गिनता संता सस्य कहिये धान्य ताकूं खंडै है; बहुरि तैसैंही वसुधा कहिये पृथिवी ताहि खंडै है खोदे है, बहुरि बहुत बार तरुगण कहिये वृक्षनिकी समूह तिनिकूं छेद है; ऐसा लिंगी तिर्यचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है श्रमण नांही ॥
भावार्थ — वनस्पति आदि स्थावरजीव जिनसूत्र मैं कहे है अर तिनिकी हिंसातें कर्मबंध कया है ताकूं निर्दोष गिणता कहे है जो या मैं काहेका दोष है काका बंध है ऐसें मानता तथा वैद्यकर्मादिककै निमित्त औषधादिककूं धान्यकूं तथा पृथ्वीकूं तथा वृक्षनिकूं खंडे है खोदे है छदै है सो आज्ञानी पशु हैं, लिंग धारि श्रमण कहावै है सो श्रमण नांही है ॥ १६ ॥ आगैं कहै है जो लिंग धारणकार स्त्रीनितैं राग करै है अर परकूं दूषण दे है सो श्रमण नाही;
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३७८
पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
गाथा-रागो करेदि णिचं महिलावग्गं परं च दूसेइ। .
दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो १७ संस्कृत-रागं करोति नित्यं महिलावर्ग परं च दृषयति ।
दर्शनज्ञानविहीनः तियग्योनिः न सःश्रमणः॥१७॥ __ अर्थ-जो लिंग धारण करि स्त्रीनिके समूहनि प्रति तो निरंतर रागप्रीति करै है अर पर जो अन्य कोई निर्दोष है तिनिळू दूषै है दूषण दे है कैसा है सो दर्शन ज्ञानकरि हीन है, ऐसी लिंगी तिर्यंचयोनि है पशुसमान है अज्ञानी है, श्रमण नाही ॥ __ भावार्थ--लिंग धारण करै ताकै सम्यग्दर्शन ज्ञान होय है, अर परद्रव्यनि” राग द्वेष न करनां ऐसा चारित्र होय है । तहां जो स्त्रीसमूहनितें तौ रागप्रीति करै है अर अन्या दूषण लगाय द्वेष करै है व्यभिचारीकासा स्वभाव है तौ ताकै काहेका दर्शन ज्ञान ? अर काहेका चारित्र ? लिंगधार लिंगकै करनेयोग्य था सो न किया तब अज्ञानी पशु समानही है श्रमण कहावै है सो आपभी मिथ्यादृष्टी है अर अन्यकू मिथ्यादृष्टी करनेवाला है, ऐसेका प्रसंग युक्त नाही ॥ १७॥ __ आU फेरि कहै है;गाथा--पव्वज्जहीणगहिणं णेहिं सीसम्मि बट्टदे बहुसो ।
आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो १८ संस्कृत-प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वत्तते बहुशः ।।
आचारविनयहीनः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः॥१८॥ अर्थ-जा लिंगीकै प्रव्रज्या जो दीक्षा ताकरि रहित जे गृहस्थ तिनिपरि अर शिष्यनिवि स्नेह बहुत वत्तै अर आचार कहिये मुनिनिकी क्रिया अर गुरुनिका विनयकरि रहित होय सो तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नांही है ॥
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अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका। ३७९ ___ भावार्थ-गृहस्थनितें तौ बार बार लालपाल राखै अर शिष्यनिसूं स्नेह बहुत राखै अर मुनिकी प्रवृत्ति आवश्यक आदि किछू करै नांही गुरुनिसूं प्रतिकूल रहै विनयादिक करै नांही ऐसा लिंगी पशुसमान है ताकू साधु न कहिये ॥१८॥ ___ आगैं कहै है जो लिंगधारि ऐसे पूर्वोक्त प्रकार प्रवर्ते है सो श्रमण नाही, ऐसा संक्षेपकरि कहे है;गाथा-एवं सहिओ मुणिवर संजदमज्झम्मि वदे णिचं ।
बहुलं पि जाणमाणो भावविणहो ण सो समणो॥१९॥ संस्कृत-एवं सहितः मुनिवर ! संयतमध्ये वर्त्तते नित्यम् ।
बहुलमपि जानन् भावविनष्टः न सः श्रमणः ॥१९॥ अर्थ--एवं कहिये पूर्वोक्तप्रकार प्रवृत्तिसहित जो वतै है सो हे मुनिवर ! जो ऐसा लिंगधारी संयमी मुनिनिकै मध्यभी निरन्तर रहै है अर बहुत शास्त्रनिकू भी जानता है तोऊ भावकरि नष्ट है, श्रमण नांही है ॥ १९॥ ___ भावार्थ-ऐसा पूर्वोक्त प्रकारका लिंगी जो सदा मुनिनिमैं रहै है अर बहुत शास्त्र जाने है तौऊ भाव जो शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्ररूप परिणाम ताकरि रहित है, तातैं मुनि नाही, भ्रष्ट है, अन्य मुनिनिके भाव बिगाडनेंवाला है ॥ १९॥ ___ आगै फेरि कहै है जो स्त्रीनिका संसर्ग बहुत राखै सो भी श्रमण नाही है;गाथा-दसणणाणचरिते महिलावग्गम्मि देहि वीसहो ।
पासत्थ वि हु णियहो भावविणहो ण सो समणो २० संस्कृत-दर्शनज्ञानचारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्तः ।
पार्श्वस्थादपि स्फुटं विनष्टः भावविनष्टः न सः श्रमणः॥
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३८०
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ--जो लिंग धारि करि स्त्रीनिके समूहविौं तिनिका विश्वासकरि तथा तिनिकू विश्वास उपजाय दर्शन ज्ञान चारित्र दे है तिनिकू सम्यक्त्व बतावै है पढनां पढावनां ज्ञान देहै, दीक्षा दे है, प्रवृत्ति सिखावै है, ऐसैं विश्वास उपजाय तिनिमैं प्रवत्र्ते है सो ऐसा लिंगी पार्श्वस्थ तैं भी निकृष्ट है, प्रगट भाव करि विनष्ट है श्रमण नाही।
भावार्थ-लिंग धारि स्त्रीनिकू विश्वास उपजाय तिनिघ्र निरंतर पढनां पढावनां लाल पाल राखै ताकू जानिये-याका भाव खोटा है। पार्श्वस्थ भ्रष्ट मुनिकू कहिये है तिसौं भी ये निकृष्ट है, ऐसेकू साधु न कहिये ॥ २०॥
आगँ फेरि कहै है;गाथा-पुंच्छलिपरि जो मुंजइ णिचं संथुगदि पोसए पिंडं ।
पावदि वालसहावं भावविणहो ण सो सवणो ॥२१॥ संस्कृत-पुंश्चलीगृहे यः सुंक्ते नित्यं संस्तौति पुष्णाति पिंडं ।
प्राप्नोति बालस्वभाव भावविनष्टः न सः श्रमणः २१ अर्थ--जो लिंगधारी अर पुंश्चली जो व्यभिचारिणी स्त्री ताके घर भोजन लेहै आहार करै है अर नित्य ताकी स्तुति करै है—जो यह बडी धर्मात्मा है याकै साधुनिकी बडी भक्ती है ऐसे नित्य ताळू सराहै ऐसैं पिंडकू पालै है सो ऐसा लिंगी बालस्वभावकू प्राप्त होय है, अज्ञानी है, भावकरि विनष्ट है, सो श्रमण नांही है ॥
भावार्थ—जो लिंग धारि व्यभिचारिणीका आहार खाय पिंड पालै ताकी नित्य सराहना करै, तब जानिये यह भी व्यभिचारी है अज्ञानी है ताळू लज्जाभी न आवै; ऐसैं भावकरि विनष्ट है मुनिपणांके भाव नाही, तब मुनि काहेका ? ॥ २१ ॥
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अष्टपाहुडमें लिंगपाहुडकी भाषावचनिका । ३८१
आगैं इस लिंगपाहुडकूं संपूर्ण करै है अर कहै है जो धर्मं यथार्थ पालै है सो उत्तम सुख पावै है;गाथा - इय लिंगपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहिं देसियं धम्मं । पाले कहसहि सो गाहदि उत्तमं ठाणं ॥२२॥ संस्कृत - इति लिंगप्राभृतमिदं सर्वं बुद्धैः देशितं धर्मम् ।
पालयति कष्टसहितं सः गाहते उत्तमं स्थानम् ||२२|| अर्थ — ऐसैं यह लिंगपाहुडकूं शास्त्र सर्वबुद्ध जे ज्ञानी गणधरादिक तिनि उपदेश्या है ताकूं जानिकरि अर जो मुनि धर्मकूं कष्टसहित बडा जतन कर पालै है राखै है सो उत्तमस्थान जो मोक्ष ताहि पावै है ॥
भावार्थ - यह मुनिका लिंग है सो बडा पुण्यका उदयतें पाइये है ताकूं पायकरि फेरि खोटे कारण मिलाय ताकूं बिगाडै है तो जानिये यह बडा निर्भागी है-चिंतामणि रत्न पाय कौडी साटै गमावै है तातैं आचार्य उपदेश किया है - जो ऐसा पद पाय याकूं बडा यत्नसूं राखणां — कुसंगतिकरि विगाडैगा तो जैसे पहलै संसारभ्रमणथा तैसें फेरि संसार मैं अनंतकाल भ्रमण होयगा अर यत्नतें पालैगा तौ शीघ्रही मोक्ष पावैगा; तातैं जाकूं मोक्ष चाहिये सो मुनिधर्मकं पाय यत्नसहित पालो, परीषहका उपसर्गका उपद्रव आवै तौऊ चिगो मति यह श्रीसर्वज्ञदेवका उपदेश हैं ॥ २२ ॥
ऐसैं यह लिंगपाहुड ग्रंथ पूर्ण किया ताका संक्षेप ऐसैं जो — इस पंचमकाल मैं जिनलिंग धारि फेरि काल दुर्भिक्षके निमित्ततैं भ्रष्ट भये भेष बिगाड्या अर्द्धफालक कहाये, तिनिमैं फेरि श्वेतांबर भये, तिनिमैं भी यापनीय भये, इत्यादिक होय शिथिलाचार के पोषके शास्त्र रचि स्वच्छंद भये, तिनि केतेक निपट निंद्य प्रवृत्ति करनें लगे, तिनिका निषेधका मित्रकरि सर्वके उपदेशकूं यह ग्रंथ है ताकूं समझिकरि श्रद्धान :
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३८२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिताकरनां । ऐसे निंद्य आचरणवालेनिकू साधु मोक्षमार्गी न माननें, तिनिकू वंदन पूजन न करनां यह उपदेश है ॥ .
छप्पय । लिंग मुनीको धारि पाप जो भाव बिगाडै
सो निंदाळू पाय आपको अहित विथारै । ताकू पूजै थुवै वंदना करै जु कोई
ते भी तैसे होइ साथि दुरगतिकू लेई ॥ याते जे सांचे मुनि भये भाव शुद्धि मैं थिर रहे । तिनि उपदेश्या मारग लगे ते सांचे ज्ञानी कहे॥१॥
दोहा। अंतर बाह्य जु शुद्ध जे जिनमुद्राकुं धारि । भये सिद्ध आनंदमय बंदू जोग संवारि ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दाचार्यस्वामि विरचित
श्रीलिंगप्राभृतशास्त्रकी जयपुरनिवासि पं. जयचन्द्रजीछाबड़ाकृतदेशभाषामयवनिका समाप्त ॥ ७ ॥
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अथ शीलपाहुड।
[८] अथ शीलपाहुडग्रंथकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है;
दोहा। भवकी प्रकृति निवारिकै प्रगट किये निजभाव ।
है अरहंत जु सिद्ध फुनि बंदूं तिनि धरि चाव ॥१॥ ऐसैं इष्टके नमस्काररूप मंगलकरि शीलपाहुडनाम ग्रंथ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत प्राकृत गाथाबंधकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है। तहां प्रथम श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ग्रंथकी आदिकै विर्षे इष्टकू नमस्काररूप मंगलकरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करें है;गाथा–वीरं विसालणयणं रत्तुप्पलकोमलस्समप्पा ।
तिविहेण पणमिऊणं सीलगुणाणं णिसामेह ॥१॥ संस्कृत-चीरं विशालनयनं रक्तोत्पलकोमलसमपादम् ।
त्रिविधेन प्रणम्य शीलगुणान् निशाम्यामि ॥१॥ अर्थ-आचार्य कहै है जो मैं वीर कहिये अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमानस्वामी परम. भट्टारक ताहि. मन वचन कायकरि नमस्कारकरि अर शील जो निज भावरूप प्रकृति ताके गुणनिकू अथवा शील अर सम्यग्दर्शनादिक गुण तिनिकू कहूंगा; कैसे हैं श्रीवर्धमानस्वामी-विशालनयन हैं, तिनिकै बाह्य तौ पदार्थनिके देखनेंकू नेत्र विशाल है विस्तीर्ण हैं सुन्दर हैं, बहुरि अंतरंग केवलदर्शन केवलज्ञानरूप नेत्र समस्त पदार्थनिकू देखनेवाले हैं; बहुरि कैसे हैं-रक्तोत्पलकोमलसमपादं'
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
कहिये रक्त कमल सारिखे कोमल जिनिके चरण हैं, ऐसे अन्यके नाही; ता” सर्वकरि सराहने योग्य हैं पूजने योग्य हैं । बहुरि याका दूजा अर्थ ऐसा भी होय है--जो रक्त कहिये रागरूप आत्माका भाव उत्पल कहिये दूर करनां ताविषै कोमल कहिये कठोरतादिदोपरहित अर सम कहिये राग द्वेष करि रहित पाद कहिये वाणीके पद जिनिके, कोमल हित मित मधुर राग द्वेषरहित जिनिके बचन प्रः हैं तिनितें सर्वका कल्याण होय है ॥ __भावार्थ-ऐसे वर्द्धमानस्वामाकू नमस्काररूप मंगलकरि आचार्य शीलपाहुड ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करी है ॥ १ ॥
आणु शीलका रूप तथा यातॆ गुण होय हैं सो कहैं हैं;-- गाथा-सीलस्स य णाणस य णत्यि विरोहो बुधेहिं णिदिहो।
__णवरि य सीलेण विणा विसया णा विणासंति ॥२॥ संस्कृत-शीलस्य च ज्ञानस्य च नास्ति विरोधो बुधैः निर्दिष्टः ।
केवलं च शीलेन विना विषयाः ज्ञानं विनाशयति २ __ अर्थ-शीलकै अर ज्ञानकै ज्ञानीनि विरोध न कया है ऐसा नाही जहां शील होय तहां ज्ञान न होय अर ज्ञान होय तहां शील न होय । बहुरि इहां णवरि कहिये विशेष है सो कहै है—शील विना विषय कहिये इंद्रियनिके विषय है ते ज्ञानकू विनाशैं हैं नष्ट करें हैं ज्ञानकें मिथ्यात्व रागद्वेषमय अज्ञानरूप कर है । इहां ऐसा जाननां जो-शीलनाम स्वभावका प्रकृतिका प्रसिद्ध है, तहां आत्माका सामान्यकरि ज्ञान स्वभाव है । तहां इस ज्ञानस्वभावमैं अनादिकर्म सयोग मिथ्यात्व रागद्वेषरूप परिणाम होय हैं सो यह ज्ञानकी प्रकृति कुशीलनाम पाव है यारौं संसार निपजै है, तातैं याकू संसार प्रकृति कहिये इस प्रकृतिकू अज्ञानरूप कहिये
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका ।
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इस प्रकृति संसार पर्यायविर्षे आपा मानै है तथा परद्रव्यनिविर्षे इष्ट अनिष्ट बुद्धि करै है । बहुरि यह प्रकृति पलटै तब मिथ्यात्व का अभाव कहिये तब संसारपर्यायविर्षे आपा न मान है, परद्रव्यानिविः इष्ट अनिष्ट बुद्धि न होय अर इस भावकी पूर्णता न होय तेतैं चरित्रमोहका उदयतें कछू रागद्वेष कषाय परिणाम उपजै ता• कर्मका उदय जाने, तिनि भावनिकं त्यागनेयोग्य जाने, त्याग्या चाहै ऐसी प्रकृति होय तब सम्यग्दर्शनरूपभाव कहिये, इस सम्यग्दर्शनभावतें ज्ञानभी सम्यक् नाम पावै और यथापदवी चारित्रकी प्रवृत्ति होय जेता अंशा रागद्वेष घटै तेता अंशा चारित्र कहिये ऐसी प्रकृतिकू सुशील कहिये, ऐसैं कुशल सुशील शब्दका सामान्य अर्थ है । तहां सामान्यकरि विचारिये तो ज्ञानही कुशील है अर ज्ञान ही सुशील है यातें ऐसे कया है जो ज्ञानकै अर शीलकै विरोध नाही बहुरि जब संसार प्रकृति पलटि मोक्ष सन्मुख प्रकृति होय तब सुशील कहिये, तारौं ज्ञानमैं अर शलिमैं विशेष कह्या जो ज्ञानमैं सुशील न आवै तौ ज्ञानकू इंद्रियनिके विषय नष्ट करै ज्ञानकू अज्ञान करें तब कुशील नाम पावै । बहुरि इहां कोई पूछ-गाथामै ज्ञान अज्ञानका तथा सुशील कुशीलका नाम तो न कह्या, ज्ञान अर शील ऐसा ही कह्या है ताका समाधान-जो पूर्व गाथामैं ऐसीप्रतिज्ञा करी जो मैं शीलके गुणनिकू कहूंगा तातें ऐसा जान्या जाय है जो आचार्यके आशयमैं सुशीलहीके कहनेका प्रयोजन है, सुशीलहीकू शीलनाम करि कहिये, शीलविना कुशील कहिये । बहुरि इहां गुणशब्द उपकारवाचक लेनां तथा विशेषवाचक लेनां, शीलतें उपकार होय है; तथा शीलका विशेष गुण है सो कहसी । ऐसें ज्ञानमैं जो शील न आवै तौ कुशील होय इंद्रियनिके निषयनितें आसक्ति होय तब ज्ञाननाम न पावै, ऐसैं जाननां । बहुरि व्यवहारमैं शीलनाम स्त्रीका संसर्ग वर्जनेंकाभी है सो विषयसेवनकाही
म. व. २५
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
निषेध है, तथा परद्रव्यमात्रका संसर्ग छोडना आत्मा मैं लीन होना सो परमब्रह्मचर्य है । ऐसैं ये शीलहीके नामांतर जाननां ॥ २ ॥
आगे कहै है जो ज्ञान भयेभी ज्ञानका भावनां अर विषयनितैं विरक्त होनां कठिन है;
गाथा - दुक्खेणेयदि गाणं गाणं णाऊण भावणा दुक्खं । भावियमई व जीवो विसयेसु विरज्जए दुक्खं || ३ || संस्कृत - दुःखेनेयते ज्ञानं ज्ञानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् ।
भावितमतिश्च जीवः विषयेषु विरज्यति दुःखम् ||३॥
अर्थ — प्रथम तौ ज्ञान है सोही दुःखकरि प्राप्त होय है, बहुरि कदाचित् ज्ञानभी पावै तौ ताकूं जानि करि ताकी भावना करना बारंबार अनुभव करनां दुःखकार होय है, बहुरि कदाचित् ज्ञानकी भावनासहित भी जीव होय तौ विषयनिकूं दुःखकरि त्यागे है |
भावार्थ — ज्ञानका पावनां फेरि ताकी भावना करना फेरि विषयनिका त्यागनां ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं, अर विषयनिकूं त्यागे विना प्रकृति पलटी न जाय तातें पूर्व ऐसा कया है जो विषय ज्ञानकूं बिगाडै है ता विषयनिका त्यागनां सोही सुशील है ॥ ३ ॥
आमैं कहै है जो यह जीव जे विषयनि मैं प्रवर्ते है तेतै ज्ञानकुं नही जाने है अर ज्ञानकूं जानें विना विषयनितैं विरक्त होय तौऊ कर्मनिका क्षय नांही करै है;
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गाथा - ताव ण जाणदि गाणं विसयवलो जाव वट्टए जीवो । विस विरतमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कम्म || ४ || संस्कृत - तावत् न जानाति ज्ञानं विषयचलः यावत् वर्त्तते जीवः । विषये विरक्तमात्रः न क्षिपते पुरातनं कर्म ॥ ४ ॥
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका । ३८७ ___ अर्थ—जे” यह जीव विषयबल कहिये विषयनिकै वशीभूत हू वत्तै है तेरौं ज्ञानकू नाही जानै है बहुरि ज्ञानकू जानें विना केवलविषयनिविर्षे विरक्तमात्रहीकरि पूर्व बांधे जे कर्म तिनिका क्षय नाही करै है ॥
भावार्थ-जीवका उपयोग क्रमवर्ती है अर स्वस्थस्त्रभाव है यातें जैसा ज्ञेयकू जानै तिसकाल तिसतँ तन्मय होय वर्ते है तातें जेते विषयनिमैं आसक्त भया वत्” है तेतै ज्ञानका अनुभव न होय इष्ट अनिष्ट. भावही रहै, बहुरि ज्ञानका अनुभवन भये बिना कदाचित् विषयनिकू त्यागै तौ वर्तमानविषयनिकू तौ छोडै परन्तु पूर्व कर्म बांधे थे तिनिका तौ ज्ञानका अनुभवन भये विना क्षय होय नाही, पूर्व कर्मका बंधका क्षय करने में ज्ञानहीकी सामर्थ्य है, तातें ज्ञानसहित होय विषय त्यागनां श्रेष्ठ है, विषयनिकू त्यागि ज्ञानकी भावना करनां यही सुशील है ॥४॥ ___ आज ज्ञानका अर लिंगग्रहणका अर तपका अनुक्रम कहै है;गाथा—णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहणं ।
संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥५॥ संस्कृत-ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शनविहीनं ।
- संयमहीनं च तपः यदि चरति निरर्थकं सर्वम् ॥५॥
अर्थ-ज्ञान तो चारित्ररहित होय सो निरर्थक है, बहुरि लिंगका ग्रहण दर्शनकरि रहित होय सो निरर्थक है, बहुरि संयमकरि रहित तप होय तो निरर्थक है ऐसैं ए आचरण करै तौ सर्व निरर्थक है ॥ ___ भावार्थ- हेय उपादेयका ज्ञान तौ होय अर त्यागग्रहण न करै तौ ज्ञान निष्फल होय, यथार्थ श्रद्धान विना भेष ले तो निष्फल होय है, इन्द्रिय वश करनां जीवनिकी दया करनां यह संयम है या विनां कछू तप करै तौ आहिंसादिकका विपर्यय होय तब निष्फल होय; ऐसैं इनिका आचरण निष्फल होय है ॥५॥
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३८८ पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचित___ आगैं याही कहै है जो ऐसे किये थोडा भी करै तो बडा फल होय है;गाथा—णाणं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्धं ।
संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ ॥६॥ संस्कृत-ज्ञानं चारित्रशुद्धं लिंगग्रहणं च दर्शनविशुद्धम् ।
संयमसहितं च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति ॥६॥ अर्थ-ज्ञानतौ चारित्रकरि शुद्ध, अर लिंगका ग्रहण दर्शन करि शुद्ध, संयमसहित तप ऐसैं थोडाभी आचरै तौ महाफलरूप होय है ॥ __ भावार्थ-ज्ञान थोडाभी होय अर आचरण शुद्ध करै तो बडा फल होय; बहुरि याथार्थश्रद्धापूर्वक भेषले तो बडाफल करे जैसैं सम्यग्दर्शनसहित श्रावकही होय तो श्रेष्ठ, अर तिस विना मुनिका भेषभी श्रेष्ठ नाही; बहुरि इन्द्रिसंयम प्राणसंयम सहित उपवासादिक तप थोडाभी करै तौ बडा फल होय, अर विषयाभिलाष अर दयारहित बडा कष्ट सहित तप करै तौऊ फल नाही; ऐसैं जाननां ॥ ६ ॥ __ आगें कहै है जो कोई ज्ञानकू जानिकरिभी विषयासक्त रहै है ते संसारहीमैं भ्रमैं हैं;गाथा-णाणं णाऊण णरा केई विसयाइभावसंसत्ता ।
हिंडंति चादुरगदिं विसएसु विमोहिया मृढा ॥ ७॥ संस्कृत--ज्ञानं ज्ञात्वा नराः केचित् विषयादिभावसंसक्ताः ।
हिंडते चतुर्गतिं विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ ७॥ अर्थ-केई मूढ मोही पुरुष ज्ञान• जानिकरिभी विषयनिरूप भावनिकरि आसक्त भये संते चतुर्गतिरूप संसारमैं भ्रमैं हैं जातै विषयनिकरि विमोहित भये फेरिभी जगतमैं प्राप्त होसी तामैं भी विषय कषायनिकाही संस्कार है ।
ह
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका ।
३८९
विषय कषाय छोडनां भला है, नातरि ज्ञान
भावार्थ — ज्ञान पाय अज्ञानतुल्यही है || ७ |
आगैं कहै है जो ज्ञान पाय ऐसें करे तब संसार कटै;गाथा - जे पुण विसयविरत्ता णाणं णाऊण भावणासहिदा । छिंदंति चादुरगदिं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥ ८ ॥ संस्कृत - ये पुनः विषयविरक्ताः ज्ञानं ज्ञात्वा भावनासहिताः ।
छिन्दन्ति चतुर्गतिं तपोगुणयुक्ताः न सन्देहः ॥ ८ ॥ अर्थ — जे ज्ञानकूं जानिकरि अर विषयनितैं विरक्त भये संते तिस ज्ञानकी बारबार अनुभवरूप भावनासहित होय है ते तप अर गुण कहिये मूलगुण उत्तरगुणयुक्त भये संते चतुर्गतिरूप जो संसार है ताहि छेदैं हैं काटें हैं, या मैं संदेह नांही ॥
भावार्थ—ज्ञान पाय विषयकषाय छोडि ज्ञानकी भावना करे, मूलगुण उत्तरगुण ग्रहणकरि तप करै सो संसारका भावकरि मुक्तिप्राप्त होय - यह शीलसहितज्ञानरूप मार्ग है ॥ ८ ॥
आगैं ऐसैं शीलसहित ज्ञानकरि जीव शुद्ध होय है ताका दृष्टान्त कहै है; -
गाथा - जह कंचणं विसुद्ध धम्मइयं खडियलवणलेवेण ।
तह जीवो विविसुद्ध णाणविसलिलेण विमलेण ॥९॥ संस्कृत - यथा कांचनं विशुद्धं धमत् खटिकालवणलेपेन ।
तथा जीवोsपि विशुद्धः ज्ञानविसलिलेन विमलेन ॥ ९ ॥ अर्थ — जैसे कांचन कहिये सुवर्ण है सो खडिय कहिये सुहागा अर लूण इनका लेपकार विशुद्ध निर्मल कांतियुक्त होय है तैसैं जीव है सो भी विषयकषायनिक मलकार रहित निर्मल ज्ञानरूप जलकरि पखाल्या कर्मनिकार रहित विशुद्ध होय है ॥
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३९०
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
__ भावार्थ-ज्ञान है सो आत्माका प्रधान गुण है परन्तु मिथ्यात्व विषयनितें मलिन है या मिथ्यात्वविषयनिरूप मलकू दूरिकरि याकी भावना करै याका एकाग्रकरि ध्यान करै तौ कर्मनिका नाश करे, अनंतचतुष्टय पाय मुक्त होय शुद्ध आत्मा होय है; तहां सुवर्णका दृष्टान्त है सो जाननां ॥९॥ ___ आगैं कहै है जो ज्ञान पाय विषयासक्त होय है सो ज्ञानका दोष नाही है, कुपुरुषका दोष है;गाथा-णाणस्स णत्थि दोसो कप्पुरिसाणो वि मंदबुद्धीणो ।
जे णाणगविदा होऊणं विसएसु रजति ॥१०॥ संस्कृत-ज्ञानस्य नास्ति दोषः कापुरुषस्यापि मंदबुद्धेः ।
ये ज्ञानगर्विताः भूत्वा विषयेषु रजन्ति ॥१०॥ अर्थ-जे पुरुष ज्ञानगर्वित होयकरि ज्ञानमदकरि विषयनिविर्षे रंजित होय है सो यह ज्ञानका दोष नाही है ते मंदबुद्धि कुपुरुष हैं तिनिका दोष है॥ ___ भावार्थ-कोई जानैगा कि ज्ञानकरि बहुत पदार्थनिकू जानै तब विषयनिमैं रंजायमान होय है सो यह ज्ञानका दोष है; तहां आचार्य कहै है-ऐसैं मति जानो-ज्ञान पाय विषयनिमैं रंजमान होय है सो यह ज्ञानका दोष नाही है-यह पुरुष मंदबुद्धि है अर कुपुरुष है ताका दोष है, पुरुषका होणहार खोटा होय तब बुद्धि बिगडजाय तब ज्ञान• पाय अर ताका मदमैं छकि जाय विषय कषायनिमैं आसक्त होय सो यह दोष पुरुषका है, ज्ञानका नाही । ज्ञानका तौ कार्य वस्तुकू जैसा होय तैसा जनायदेनाही है पीछे प्रवर्त्तनां पुरुषका कार्य है, ऐसें जाननां ॥ १० ॥
आण कहै है-पुरुषकै ऐसैं निर्वाण होय है;
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका । ३९१
गाथा - णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण सम्मसहिएण । होदि परिणिव्वाणं जीवाण चरितसुद्धाणं ॥ ११॥ संस्कृत - ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां चारित्रशुद्धानाम् ११
अर्थ — ज्ञान दर्शन तप ये सम्यत्क्व भावसहित आचरे होय तब चारित्रकरि शुद्ध जीवनिकै निर्वाणकी प्राप्ति होय है ॥
भावार्थ — सम्यक्त्वकरि सहित ज्ञान दर्शन तप आचरै तब चारित्र शुद्ध होय राग द्वेष भाव मिटि जाय तब निर्वाण पावै, यह मार्ग है ॥ ११ ॥ आ याहीकूं शीलप्रधानकरि नियमकरि कहै है:गाथा - - सीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धा दिढचरित्ताणं ।
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णत्थि धुवं णिव्वाणं विसएस विरत्तचित्ताणं ॥१२॥ संस्कृत - शीलं रक्षतां दर्शनशुद्धानां दृढचारित्राणाम् ।
अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ॥ १२॥
अर्थ —— जे पुरुष विषयनिविषै विरक्त है चित्त जिनिका ऐसे हैं अर शलिकूं राखते संते हैं अर दर्शनकरि शुद्ध हैं अर दृढ है चारित्र जिनिका ऐसे पुरुषनिकै ध्रुव कहिये निश्चयतैं नियमतैं निर्वाण होय है ॥
भावार्थ — जो विषयनितैं विरक्त होनां है सो ही शीलकी रक्षा है, ऐसें जे शलिकी रक्षा करें हैं तिनिहीकै सम्यग्दर्शन शुद्ध होय है अर चारित्र अर्ताचार रहित शुद्ध दृढ होय है ऐसे पुरुषनिकै नियमकार निर्बाण हो है । अर जे विषयनि विषै आसक्त हैं तिनिकै शीलबिगडै तब दर्शन शुद्ध न होय चारित्र शिथिल होय तब निर्वाणभी न होय, ऐसें निर्वाण मार्ग मैं शीलही प्रधान है ॥ १२ ॥
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. ३९२
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
आमैं कहै है जो कदाचित् कोई विषयनिसूं विरक्त न भया अर मार्ग विषयनित विरक्त होनें रूपही कहै है ताकूं मार्गकी प्राप्ति होयभी है, अर जो विषयसेवकही मार्ग कहै है तौ ताकै ज्ञानभी निरर्थक है; - गाथा - विससु मोहिदाणं कहिये मग्गं य इदरिसीणं । उम्मग्गं दरिसीणं गाणं पि णिरत्ययं तेसिं ॥ १३॥ संस्कृत - विषयेषु मोहितानां कथितो मार्गोऽपि इष्टदर्शिनां । उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषाम् ||१३||
अर्थ — जे पुरुष इष्ट मार्गके दिखावनेवाले ज्ञानी हैं अर विषयनित विमोहित हैं तौऊ तिनिकै मार्गकी प्राप्ति कही है, बहुरि जे उन्मार्गके दिखावनेवाले हैं तिनिका तौ ज्ञान पावनांभी निरर्थक है |
भावार्थ — पूर्वै कह्याथा जो ज्ञानकै अर शीलकै विरोध नांही है अर यह विशेष है जो ज्ञान होय अर विषयासक्त होय ज्ञान विगडै तब शील नांही । अब इहां ऐसें कह्या है जो — ज्ञान पाय कदाचित् चारित्रमोहके उदयतें विषय न छूटै तौ जातैं तिनिमैं विमोहित रहै अर मार्गकी प्ररूपणा विषयनिका त्यागरूपही करै ताकै तौ मार्गकी प्राप्ति होयभी है बहुरि जो मार्गही कं कुमार्गरूप प्ररूपण करै विषय सेवनेक सुमार्ग बतावै तौ ताका तौ ज्ञान पावनां निरर्थकही है, ज्ञान पायभी मिथ्यामार्ग प्ररूपै ताकै ज्ञान काहेका ? ज्ञान मिथ्याज्ञान है । इहां आशय यह सूचै है जो — सम्यक्त्व सहित अविरत सम्यग्दृष्टी है सो तौ भला है जातैं सम्यग्दृष्टी कुमार्ग प्ररूपै नांही, आपकै चारित्रमोहका उदय प्रबल होय तेतैं विषय छूटै नांही तातैं अविरत है; अर, सम्यग्दृष्टी न होय अर ज्ञानभी बडा होय कछू आचारणभी करै विषयभी छोडै अर कुमार्ग प्ररूपै तौ भला नांही ताका ज्ञान अर विषय छोडनां निरर्थक है, ऐसैं जाननां ॥ १३ ॥
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अष्टपाहुडमें शीगपाहुडकी भाषावचनिका । ३९३
मैं कहै है जो उन्मार्गके प्ररूपण करनेवाले कुमतकुशास्त्रकी जे प्रशंसा करैं हैं ते बहुत शास्त्र जानैं हैं तौऊ शीलत्रतज्ञानकरि रहित तिनिकै आराधना नांही;
गाथा - कुमकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्थाई |
सीलदारहदा हु ते आराधया होंति ॥१४॥ संस्कृत- कुमतकुश्रुतप्रशंसकाः जानतो बहुविधानि शास्त्राणि । शीलवतज्ञानरहिता न स्फुटं ते आराधका भवति ॥ १४ ॥ अर्थ — जे बहुत प्रकार शास्त्रानिकूं जानते संते हैं अर कुमत कुशाके प्रशंसा करनेवाले हैं ते शील अर व्रत अर ज्ञान इनिकरि रहित हैं ते इनका आराधक नांही हैं ॥
भावार्थ — जे बहुत शास्त्रनिकूं जानि ज्ञान तौ बहुत जानें हैं अर कुमत कुशास्त्रनिकी प्रशंसा करे हैं तो जानिये याकै कुमतसूं अर कुशासूं राग है प्रीति है तब तिनिकी प्रशंसा करे है - तो ये तौ मिथ्यात्वके चिह्न हैं, अर जहां मिथ्यात्व है तहां ज्ञान भी मिथ्या है अर विषयकषायनितैं रहित होय ताकूं शील कहिये सो भी ताकै नांही है, अर व्रत भी ताकै नांही है, कदाचित् कौऊ व्रताचरण करै है तौऊ मिध्याचारित्ररूप है; तातैं सो दर्शन ज्ञान चारित्रका आराधनेवाला नांही है, मिथ्यादृष्टी है ॥१४॥
आगैं कहै है जो रूपसुंदरादिक सामग्री पावै अर शील रहित होय - तौताका मनुष्यजन्म निरर्थक है; -
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गाथा - रूवसिरिगव्विदाणं जुव्वणलावण्णकंतिकलिदाणं । सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्थयं माणुस जम्म ॥ १५ ॥ संस्कृत - रूपश्रीगर्वितानां यौवनलावण्यकांतिकलितानाम् । शीलगुणवर्जितानां निरर्थकं मानुषं जन्म ॥ १५ ॥
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३९४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___ अर्थ-जे पुरुष यौवन अवस्था सहित हैं अर बहुतनिकू प्रिय लागै ऐसा लावण्य ताकार सहित है अर शरीरकी कांति प्रभाकरि मंडित हैं ऐसे, अर सुन्दररूप लक्ष्मी संपदाकरि गर्वित हैं मदोन्मत्त हैं अर शील अर गुणनिकरि वर्जित हैं तिनिका मनुष्यजन्म निरर्थक है ॥ __ भावार्थ-मनुष्यजन्म पाय शीलकरि रहित हैं विषयनिमैं आसक्त रहैं, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र जे गुण तिनिकरि रहित हैं, अर यौवन अवस्थामैं शरीरकी लावण्यता कांतिरूप सुंदर धन संपदा पाय इनिका गर्वकरि मदोन्मत्त रहैं तौ तिनि. मनुष्यजन्म निष्फल खोया; मनुष्यजन्ममैं तो सम्यग्दर्शनादिकका अंगीकार करनां अर शील संयम पालनेयोग्य था सो अंगीकार किया नांही तब निष्फलही गया कहिये । बहुरि ऐसा भी जना या है जो पहली गाथामैं कुमत कुशास्त्रकी प्रशंसा करने वालेका ज्ञान निरर्थक कह्याथा तैसैं इहां रूपादिकका मद करै तौ यह भी मिथ्या त्वका चिह्न है सो मद करै सो मिथ्यादृष्टी ही जाननां । तथा लक्ष्मी रूप यौवन क्रांतिकरि मंडित होय अर शीलरहित व्यभिचारी होय तौ ताकी लोकमैं निंदाही होय है ॥ ___ आगैं कहै है जो बहुत शास्त्रनिका ज्ञान होतें भी शीलही उत्तम
गाथा-वायरणछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु ।
वेदेऊण सुदेसु य तेव सुयं उत्तमं सीलं ॥१६॥ संस्कृत-व्याकरणछन्दोवैशेषिकव्यवहारन्यायशास्त्रेषु ।
विदित्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुतं उत्तमं शीलम् ॥१६॥ अर्थ-व्याकरण छंद वैशेषिक व्यवहार न्यायशास्त्र ये शास्त्र बहुरि श्रुत कहिये जिनागम इनिविर्षे तिनि व्याकरणादिककू अर श्रुत कहिये जिनागम• जानिकरिभी इनिविर्षे शील होय सो ही उत्तम है ॥
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचीनका।
३९५.
__ भावार्थ-व्याकरणादिशास्त्र जानै अर जिनागमकुंभी जानै तौऊ. तिनिमैं शीलही उत्तम है शास्त्रनिकू जानि अर विषयनिमैं ही आसक्त है तौ तिनि शास्त्रनिका जाननां वृथा है उत्तम नाही ॥ ___ आगैं कहै है जो-शील गुणकरि मंडित है ते देवनिकै भी वल्लभ
गाथा-सीलगुणमंडिदाणं देवा भवियाण वल्लहा होति ।
सुदपारयपउरा णं दुस्सीला अप्पिला लोए ॥१७॥ संस्कृत-शीलगुणमंडितानां देवा भव्यानां वल्लभा भवंति ।
श्रुतपारगप्रचुराः णं दुःशीला अल्पकाः लोके ॥१७॥ अर्थ-जे भव्य प्राणी शील अर सम्यग्दर्शनादिक गुण अथवा शील सो ही गुण ताकरि मंडित हैं तिनिका देवभी बल्लभ होय है तिनिकी सेवा करनेवाले सहायी होय हैं। बहुरि जे श्रुतपारग कहिये शास्त्रके पार पहुंचे हैं ग्यारह अंग ताई पढ़े हैं ऐसे बहुत हैं अर तिनिमैं केई शीलगुणकरि रहित हैं दुःशील हैं विषय कषायनिमैं आसक्त हैं तो ते लोकवि ' अल्पका' कहिये न्यून हैं ते मनुष्य लोकनिकै भी प्रिय न होय है तब देव कहांतें सहायी होय ॥ ___ भावार्थ—शास्त्र बहुत जानै अर विषयासक्त होय तौ ताका कोई सहायी न होय, चोर अर अन्यायीकी लोकमैं कोई सहाय न करै; अर शील गुणकरि मंडित होय अर ज्ञान थोडाभी होय तौ ताकै उपकारी सहायी देवभी होय हैं तब मनुष्य तौ सहायी होयही होय, शीलगुणवान सर्वकै प्यारा होय है ॥ १७॥ ___ आनें कहै है जिनिकै शील है सुशील है तिनिका मनुष्यभवमैं जीवनां सफल है भला है;
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३९६
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-सव्वे विय परिहीणा रूवाविरूवा वि वदिदसुवया वि।
सीलं जेसु सुसील सुजीविद माणुसं तेसिं ॥१८॥ संस्कृत-सर्वेऽपि च परिहीनाः रूपविरूपा अपि पतित
सुवयसोऽपि । शीलं येषु सुशीलं सुजीविदं मानुष्यं तेषाम् ॥ १८ ॥ अर्थ—जे सर्व प्राणीनिमैं हीन हैं कुलादिककरि न्यून हैं अर रूपकरि विरूप हैं सुन्दर नाही हैं बहुरि पतितसुवयसः कहिये अवस्थाकरि सुन्दर नांही हैं वृद्ध होय गये हैं अर जिनिविर्षे शील सुशील है स्वभाव उत्तम है कषायादिककी तीव्र आसक्तता नांही है तिनिका मनुष्यपणां सुजीवित है जीवनां भला है ॥ ___ भावार्थ-लोकमैं सर्वसामग्रीकरि जे न्यून हैं अर स्वभाव उत्तम है विषयकषायनिमैं आसक्त नांही हैं तो ते उत्तमहीं हैं तिनिका मनुष्यभव सफल है तिनिका जीतव्य प्रशंसा योग्य है ॥ १९ ॥ ___ आगें कहै है जो-जे ते भले उत्तम कार्य हैं ते सर्व शीलके परिवार हैं;गाथा-जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे ।
सम्मइंसण णाणं तओ य सीलस्स परिवारो ॥१९॥ संस्कृत-जीवदया दमः सत्यं अचौर्य ब्रह्मचर्यसंतोषौ ।
सम्यग्दर्शनं ज्ञानं तपश्च शीलस्य परिवारः ॥१९॥ अर्थ-जीवदया इंद्रियनिका दमन सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य संतोष सम्यग्दर्शन ज्ञान तप ये सर्व शीलके परिवार हैं ॥
भावार्थ-शील ऐसा स्वभावका तथा प्रकृतिका नाम प्रसिद्ध है तहां मिथ्यात्वसहित कषायरूप ज्ञानकी परणति है सो तौ दुःशील है
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषाक्चनिका ।
३९७.
याळू संसारप्रकृति कहिये, बहुरि यह प्रकृति पलटै अर सम्यक् प्रकृति होय सो सुशील है याकू मोक्षसन्मुख प्रकृति कहिये । ऐसैं सुशीलके जीवदयादिक गाथामैं कहे ते सर्वही परिवार है जातै संसारप्रकृति पलटै तब संसारदेहसू वैराग्य होय अर मोक्षसूं अनुराग होय तब सम्यग्दर्शनादिक परिणाम होय तब जेती प्रकृति होय सो मोक्षकै सन्मुख होय, यही सुशील है सो जाकै संसारको ओड आवै है तब यह प्रकृति होय है अर यह प्रकृति न होय तेरौं संसारभ्रमण है ही, ऐसें जाननां ॥ १९ ॥ ___ आणु शील है सो ही तप आदिक है ऐसैं शीलकी महिमा कहै है;गाथा—सीलं तवो विसुद्धं दंसणसुद्धीय णाणसुद्धी य ।
शीलं विसयाण अरी सीलं मोक्खस्स सोवाणां ॥२०॥ संस्कृत-शीलं तपः विशुद्धं दर्शनशुद्धिश्च ज्ञानशुद्धिश्च ।
शीलं विषयाणामरिः शीलं मोक्षस्य सोपानम् ॥२०॥ अर्थ—शील है सो ही विशुद्ध निर्मल तप है, बहुरि शील है सो ही दर्शनकी शुद्धिता है, बहुरि शील हैं सो ही ज्ञानकी शुद्धता है, बहुरि शील है सो ही विषयनिका शत्रु है, बहुरि शील है सो ही मोक्षकी पैडी है ॥
भावार्थ-जीव अजीवः पदार्थनिका ज्ञानकरि तामैसूं मिथ्यात्व अर कषायनिका अभाव करनां सो सुशील है सो यह आत्माका ज्ञानस्वभाव है सो संसारप्रकृति मिटि मोक्षसन्मुख प्रकृति होय तब या शीलहीके तप आदिक सर्व नाम हैं-निर्मल तप शुद्ध दर्शन ज्ञान विषय कषायनिका मेटनां मोक्षकी पैडी ये सर्व शीलके नामके अर्थ हैं, ऐसा शीलका माहात्म्य वर्णन किया है बहुरि केवल महिमाही नाही है इनि सर्व भावनिकै अविनाभावीपणां जनाया है ॥ २० ॥
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३९८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित__ आगैं कहै है जो विषयरूप विष महा प्रबळ है;गाथा-जह विसयलुद्ध विसदो तह थावर जंगमाण घोराणां ।
सव्वेसिपि विणासदि विसयविसं दारुणं होई ॥२१॥ संस्कृत-यथा विषयलुब्धः विषदः तथा स्थावरजंगमान्
घोरान् । सर्वान् अपि विनाशयति विषयविषं दारुणं भवति २१ अर्थ—जैसे विषयनिका सेवनां विष है सो जे विषयनिकै विषै लुब्धजीव हैं तिनिकू विषका देनेवाला है तैसैं ही जे घोर तीव्र स्थावर जंगम सर्वनिका विष है सो प्राणीनिका विनाश करै है तथापि तिनि सर्वनिका विषनिमैं विषयनिका विष उत्कृष्ट है तीव्र है ॥
भावार्थ-जैसैं हस्ती मीन भ्रमर पतंग आदि जीव विषयनिकरि लुब्ध भये विषयनिके वश भये हते जाय हैं तैसैंही स्थावरका विष मोहरा सोमल आदिक अर जंगमका विष सर्प आदिकका विष इनिका भी विषकरि प्राणी हते जाय हैं परन्तु सर्व विषनिमैं विषयनिका विष अतितीव्र ही है॥२१॥
आगैं इसहीका समर्थनकू निषयनिका विषका तीव्रपणां कहै है जोविषकी वेदनाते. तो एकवार मरै है अर विषयनितै संसारमैं भ्रमैं हैं;गाथा-वारि एकम्मि यजम्मे सरिज विसवेयणाहदो जीवो।
विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकांतारे ॥ २२ ॥ संस्कृत-वारे एकस्मिन् च जन्मनि गच्छेत् विषवेदनाहतः जीवः
विषयविषपरिहता भ्रमति संसारकांतारे ॥ २२ ॥ अर्थ-विषकी वेदनाकरि हत्या जो जीव सो तौ एकजन्मविही मरै है बहुरि विषयरूप विषकरि हते गये जीव हैं ते अतिशयकरि संसाररूप वनवि भ्रमैं हैं ॥
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका।
३९९
भावार्थ-अन्य सादिकके विष" विषयनिका विष प्रबल है इनिकी आसक्तता” ऐसा कर्मबंध होय है जातें बहुत जन्म मरण होय है ॥२२॥ __ आनें कहै है जो विषयनिकी आसक्तताते चतुर्गतिमैं दुःख ही पावें हैं;गाथा—णरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणुएसु दुक्खाई।
देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासता जीवा ॥२३॥ संस्कृत-नरकेषु वेदनाः तिर्यक्षु मानुषेषु दुःखानि ।
देवेषु अपि दौर्भाग्यं लभंते विषयासक्ता जीवाः २३ अर्थ-विषयनिविर्षे आसक्त जे जीव हैं ते नरकनिविर्षे अत्यंतवेदनाकू पावै हैं, अर तिर्यचनिविर्षे तथा मनुष्यनिविर्षे दुःखनिकू पा3, बहुरि देवनिविर्षे उपमैं तौ तहां भी दुर्भाग्यपणां पावै नीच देव होय ऐसैं चतुर्गतिनिविर्षे दुःखही पाबैं हैं ॥
भावार्थ-विषयासक्त जीवनिकू कहूं ही सुख नाही है परलोकमैं तो नरक आदिके दुःख पाईंही हैं अर या लोकमैं भी इनिके सेवनेंविर्षे आपदा कष्ट आवै है तथा सेवा” आकुलता दुःखही है, यह जीव भ्रमतें सुख मान है, सत्यार्थ ज्ञानी तौ विरक्तही होय है ॥२३॥ ___ आज कहै है जो-विषयनिके छोडनेमैं भी कछु हानि नांही है;गाथा-तुसधम्मंतवलेण य जह दव्वं ण हि णराण गच्छेदि।
तवसीलमंत कुसली खपंति विसयं विस व खलं ॥२४॥ संस्कृत-तुषधमलेन च यथा द्रव्यं न हि नराणां गच्छति ।
तपः शीलमंतः कुशलाः क्षिपंते विषयं विषमिव खलं ॥ अर्थ-जैसैं तुषनिके चलानेकरि उडावनेंकार मनुष्यनिको कछू द्रव्य नाही जाय है तैसैं तप अर शीलवान् जे पुरुष हैं ते विषयनिकू खलकी ज्यौं क्षेपैं हैं दूर गेरें हैं ।
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४००
पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
भावार्थ-जो ज्ञानी तप शीलसहित हैं तिनिकै इंद्रियनिके विषय खलकोज्यौं हैं जैसे सांठनिका रस काढिले तब खल चूंसे नीरस होय तब डारि देने योग्यही होय तैसैं विषयनिकू जाननां, रस था सो तौ ज्ञानीनिनैं जानि लिया तब विषयतौ खलवत् रहे तिनिके त्यागर्नेमैं कहा हानि ? कछू भी नाही । धन्य हैं वे ज्ञानी–जिनि. विषयनिकू ज्ञेयमात्र जानि आसक्त न होय हैं। अर जे आसक्त होय हैं ते तो अज्ञानी ही हैं जातै विषय हैं ते तौ जडपदार्थ हैं सुख तौ तिनिके जाननें से ज्ञानमैं ही था, अज्ञानी आसक्त होय विषयनिमैं सुख मान्या जैसैं श्वान सूखा हाड चावै तब हाडकी अणी मुख तालवामैं चुभै तब तालवा फाटि तामैंसू रुधिर स्त्रवै तब अज्ञानी श्वान जाणें जो यह रस हाडमैसूं नीसऱ्या है तब तिस हाडिकू फेरि फेरि चावै अर सुख मानै तैसैं अज्ञानी विषयनिमैं सुख मानि फेरि फेरि भोगवै है, अर ज्ञानीनिनैं अपने ज्ञानहीमैं सुख जान्या है तिनिकै विषयनिके छोडनेंमैं खेद नांही है, ऐसैं जाननां ॥ २४॥
आगैं कहै है जो प्राणी शरीरके अवयव सर्व सुन्दर पावै तौऊ सर्व अंगनिमैं शील है सो ही उत्तम है;गाथा-बट्टेसु य खंडेसु य भद्देसु य विसालेसु अंगेसु ।
अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं सीलं ॥२५॥ संस्कृत-वृत्तेषु च खंडेषु च भद्रेषु च विशालेषु अंगेषु ।
अंगेषु च प्राप्तेषु च सर्वेषु च उत्तमं शीलं ॥२५॥ ___ अर्थ—प्राणीके देहविर्षे केई अंग तौ वृत्त कहिये गोल सुघट सराहने योग्य होय है, केई अंग खंड कहिये अर्द्धगोल सारिखे सराहनयोग्य होय हैं, केई अंग भद्र कहिये सरल सूधे सराहनेयोग्य होय हैं, अर केई अंग विशाल कहिये विस्तीर्ण चौडे सराहनेयोग्य होय हैं-ऐसैं सर्वही
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका। ४०१ अंग यथास्थान सुन्दर पावते संतॆभी सर्व अंगनिमैं यहु शीलनामा अंग है सो उत्तम है, यह न होय तो सर्वही अंग शोभा न पावै, यह प्रसिद्ध है ॥ ___ भावार्थ-लोकविधैं प्राणी सर्वांगसुन्दर होय अर दुःशील होय तौ सर्व लोककै निंदाकरने योग्य होय ऐसैं लोकमैं भी शीलहीकी शोभा है तौ मोक्षमैं भी शीलही प्रधान कह्या है; जे ते सम्यग्दर्शनादिक मोक्षके अंग हैं ते शीलहीके परिवार हैं ऐसे पहिले कह आये हैं॥ __ आगैं कहै है—जो कुमतिकरि मूढ भये हैं ते विषयानमैं आसक्त हैं कुशीलहैं संसारमैं भ्रमैं हैं;गाथा-पुरिसेण वि सहियाए कुसमयमूढेहि विसयलोलेहिं ।
संसारे भमिदव्यं अरयघरट्टे व भूदेहिं ॥२६॥ संस्कृत-पुरुषेगापि सहितेन कुसमयमूढैः विषयलोलैः ।
संसारे भ्रमितव्यं अरहटघरहें इव भूतैः ॥२६॥ __ अर्थ-जे कुसमय कहिये कुमत तिनिकरि मूढ हैं सो ही अज्ञानी हैं बहुरि ते विषयनिवि. लोलुपी हैं आसक्त हैं ते संसारवि. भ्रमै हैं. कैसे भये भ्रमैं हैं—जैसैं अरहटविर्षे घड़ी भ्रमैं तैसैं भये भ्रमैं हैं तिनिकरि सहित अन्य पुरुषकै भी संसारवि. दुःखसहित भ्रमग होय है ___ भावार्थ-कुमती विषयासक्त मिथ्यादृष्टी आरतौ विषयानकू भले मांनि से हैं । केई कुमती ऐसेभी हैं जो ऐसैं कहैं हैं जो सुन्दर विषय सेवनेमैं ब्रह्म प्रसन्न होय है यह परमेश्वरकी बडी भक्ति है ऐसैं कहिकरि अत्यंत आसक्त होय से हैं, ऐसा ही उपदेश अन्यडूं देकारे विषयनिमैं लगावै है, ते आप तौ अरहटकी धडीकी ज्यौं संसारमैं भ्रमैं ही हैं तहां अनेकप्रकार दुःख भोग हैं परन्तु अन्य पुरुषकूभी तहां लगाय भ्रमा हैं तातै यह विषय सेवनां दुःखहीकै अर्थि है दुःखहीका कारण है, ऐसैं
अ.व. २६
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४०२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितजानि कुमतीनिका प्रसंग न करना, विषयासक्तपणां छोडनां याते सुशीलपणां होय है ॥२६॥
आज कहै है जो कर्मकी गाठि विषय सेयकरि आपही वांधी है ताकू सत्पुरुष तपश्चरणादिककरि आपही काटै है;गाथा-आदेहि कम्मगंठी जा बद्धा विसयरागरागेहिं ।
तं छिन्दति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण ॥२७॥ संस्कृत-आत्मनि कर्मग्रंथिः या बद्धा विषयरागरागैः ।
तां छिन्दंति कृतार्थाः तपः संयमशीलगुणेन ॥२७॥ अर्थ-जे विषयनिके रागरंगकरि आपही कर्मकी गांठि बांधी है ताळू कृतार्थ पुरुष उत्तम पुरुष तप संयम शील इनि” भया जो पुण्य ताकरि छेर्दै हैं खोलें हैं। ___ भावार्थ-जो कोई आप गांठि धुलाय बांधै ताकै खोलनेका विधान भी आपही जाने, जैसैं सुनार आदि कारीगर आभूषणादिककी संधिकै टांका ऐसा झालै जो वह संधि अदृष्ट होय जाय तब तिस संधिळू टाकेका झालनेवालाही पहचानिकरि खोले तैसैं आत्मा अपनेही रागादिक भावकरि कर्मनिकी गांठि बांधी है ताहि आपही भेदज्ञानकरि रागादिककै अर आपके जो भेद है तिस संधिकू पहचानि तप संयम शीलरूप भावरूप शस्त्रनिकरि तिस कर्मबंधकू काटै, ऐसा जानि जे कृतार्थ पुरुष हैं अपने प्रयोजनके करनेवाले हैं ते इस शील गुणकू अंगीकार करि आत्माकू कर्म” भिन्न करें हैं, यह पुरुषार्थ पुरुषनिका कार्य है ॥ २७ ॥
आगें कहै है जो शीलकरि आत्मा सोभै है याकू दृष्टान्तकरि दिखावै है;गाथा-उदधीव रदणभरिदो तवविणयंसीलदाणरयणाणं ।
__ सोहेतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥ २८ ॥ १ संस्कृत प्रतिमें-'विषयरायमोहेहिं' ऐसा पाठ है छाया विषय राग मोहै:' है।
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडको भाषावचनिका।
४०३
संस्कृत-उदधिरिव रत्नभृतः तपोविनयशीलदानरत्नानाम् ।
शोभते च सशीलः निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः ॥ २८ ॥ अर्थ जैसैं समुद्र रत्ननिकरि भन्या है तौऊ जलसहित सोभै है तैसैं यह आत्मा तप विनय शील दान इनि रत्ननिमैं शीलसहित सोभै है जातें जो शीलसहित भया ता. अनुत्तर कहिये जाते परै और नाही ऐसा निर्वाणपदकू पाया ॥ . ___ भावार्थ-जैसैं समुद्र मैं रत्न बहुत हैं तोऊ जलहीतें समुद्र नाम पावै है तैसैं आत्मा अन्य गुणनिकरि सहित होय तोऊ शीलकरि निर्वाणपद पावै, ऐसें जाननां ॥ २८॥ __ जे शीलवान पुरुष हैं ते ही मोक्ष पावैं हैं यह प्रसिद्धिकरि दिखावै है;गाथा-सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो ।
जे सोधंति चउत्थं पिच्छिजंता जणेहि सव्वेहिं ॥२९॥ संस्कृत-शुनां गर्दभानां च गोपशुमहिलानां दृश्यते मोक्षः।
___ये शोधयंति चतुर्थ दृश्यतां जनैः सर्वैः ॥ २९ ॥
अर्थ-आचार्य कहै है जो-ये सर्व जन देखो-स्वान गर्दभ इनिमैं बहुरि गऊ आदि पशु अर स्त्री इनिमैं काहूकै मोक्ष होनां दीखै है ? सो तौ दीख ता नाही, मोक्ष तौ चौथा पुरुषार्थ है यातें जो चतुर्थ जो पुरुषार्थ ताहि सोधैं है हैरै है ताहीकै मोक्ष होनां देखिये है ॥ ___ भावार्थ-धर्म अर्थ काम मोक्ष ये च्यार पुरुषकेही प्रयोजन कहे हैं यह प्रसिद्ध है, याहीरौं इनिका नाम पुरुषार्थ है ऐसा प्रसिद्ध है। तहां इनिमैं चौथा पुरुषार्थ मोक्ष है ताळू पुरुषही सोधै अर पुरुषही ताकू हेरि ताकी सिद्धि करै, अन्य स्वान गर्दभ बैल पशु स्त्री इनिकै मोक्षका सोधनां
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४०४
पंडित जयचंद्रजी झावड़ा विरचित -
प्रसिद्ध नांही जो होय तौ मोक्षका पुरुषार्थ ऐसा नाम काहेकूं होय । इहां आशय ऐसा जो मोक्ष शीलतें होय है, जे स्वान गर्दभ आदिक हैं ते तौ अज्ञानी हैं कुशीली हैं, तिनिका स्वभाव प्रकृतिही ऐसी है जो पलटिकरि मोक्ष होनें योग्य तथा ताके सोधने योग्य नांही है, तातैं पुरुषकूं मोक्षका साधन शीलकं जानि अंगीकार करनां; सम्यग्दर्शनादिक हैं ते शीलही के परिवार पूर्वै कहे ही हैं ऐसें नाननां ॥ २९ ॥
आगे कहै है जो शील बिना ज्ञानही करि मोक्ष नाही, याका उदाहरण कहैं हैं ;
गाथा -- जइ विसयलोल एहिं णाणीहि हविज्ज साहिदो मोक्खो ।
तो सो सच्च पुत्तो दस पुव्वीओ वि किं गदो णरयं ३० संस्कृत - यदि विषयलोलैः ज्ञानिभिः भवेत् साधितः मोक्षः । तर्हि सः सात्यकिपुत्रः दशपूर्विकः किं गतः नरकं ३० अर्थ — जो विषयनित्रिषै लोल कहिये लोलुप आसक्त अर ज्ञानसहित ऐसा ज्ञानीनिने मोक्ष साध्या होय तौ दर्शपूर्वका जाननेवाला रुद्र नरककूं क्यों गया ॥
भावार्थ — कोरा ज्ञानहीसूं मोक्ष काढूनैं साच्या कहिये तौ दश पूर्वका पाठी रुद्र नरक क्यों गया तातैं शीलबिना कोरा ज्ञानहीतैं मोक्ष नांही, रुद्र कुशील सेवनेवाला भया, मुनि पदतैं भ्रष्ट होय कुशील सेया तातैं नरक में गया, यह कथा पुराणनिमैं प्रसिद्ध है ॥ ३० ॥
आगे कहै है शीलविना ज्ञानहीतैं भावकी शुद्धता न होय है; -- गाथा - जह णाणेण विसोहो सीलेग विणा वुहेहिं णिद्दिठो ।
दसपुव्विस भाव णु किं पुणु णिम्मलो जादो ३१ संस्कृत - यदि ज्ञानेन विशुद्धः शीलेन विना बुधैर्निर्दिष्टः
दशपूर्विकस्य भावः च न किं पुनः निर्मलः जातः ३१
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका । ४०५.
अर्थ — जो शीलविना ज्ञानहीकरि विसोह कहिये विशुद्ध भाव पंडितां कह्यो होय तौ दश पूर्वका जाननेवाला जो रुद्र ताका भाव निर्मल क्यौं न भया, तातैं जानिये है भाव निर्मल शीलही होय है ॥
भावार्थ — कोरा ज्ञान तौ ज्ञेयकूं जनावही है तातैं मिथ्यात्व कषाय होय तब विपर्यय होय जाय तातैं मिथ्यात्वकषायका मिटनां सो ही शील है, ऐसैं शीलविना ज्ञानहीतैं मोक्ष सधै नांही, शीलविना मुनि होय तौऊ भ्रष्ट होय जाय है तातैं शीलकूं प्रधान जाननां ॥ ३१ ॥
आगैं है है जो नरक मैंभी शील होय जाय अर विषयनिकरि विरक्त होय तौ तहांतें निकसिकरि तीर्थंकरपद पावै है:
गाथा — जाए विसयविरत्तो सो गमयदि णरयवेयणा पउरा । ता लेहदि अरुपयं भणियं जिणवडूमाणेण ॥ ३२ ॥ संस्कृत - यः विषयविरक्तः सः गमयति नरकवेदनाः प्रचुराः । तत् लभते अर्हत्पदं भणितं जिनवर्द्धमानेन ||३२||
अर्थ — जो विषयनितैं विरक्त है सो जीव नरकमैं बहुत वेदना है ताकूं भी गमावै है तहां भी अतिदुःखी न होय है तौ तहांतैं निकसि करि तीर्थंकर होय है यह जिनवर्द्धमान भगवाननें कया है ॥
भावार्थ - जिनसिद्धांत मैं ऐसें कया है जो तीसरी पृथ्वीतें निकसि तीर्थंकर होय है सो यह भी शीलहीका माहात्म्य है तहां सम्यक्त्व सहित होय विषयनितैं विरक्त भया भली भावना भावै तत्र नरक वेदनाभी अल्प होय अर तहांतैं निकसि अरहंतपद पाय मोक्ष पावै, ऐसा विषयनितैं विरक्त भाव सो ही शीलका माहात्म्य जानो, सिद्धांत मैं ऐसें कला है जो सम्यग्दष्टीकै ज्ञान अर वैराग्यकी शक्ति नियमकरि होय है सो वैराग्यशक्ति है सोही शीलका एकदेश है, ऐसैं जाननां ॥ ३२ ॥
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४०६
पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
____ आर्गे या कथन• संकोचै है;गाथा-एवं बहुप्पयारं जिणेहि पञ्चक्खणाणदरसीहिं।
सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं ३३ संस्कृत-एवं बहुप्रकारं जिनैः प्रत्यक्षज्ञानदर्शिभिः ।
शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानः ॥३३॥ अर्थ–एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार तथा अन्य प्रकार बहुत प्रकार जिनदेवनैं कह्या है जो-शीलकरि मोक्षपद है, कैसा है मोक्षपद-अक्षातीत है, इंद्रियनिकरि रहित अतीन्द्रिय ज्ञान सुख जामैं पाइये है । बहुरि कहनेवाले जिनदेव कैसे हैं-प्रत्यक्ष ज्ञान दर्शन जिनकै पाइये है बहुरि लोकका जिनकै ज्ञान है।
भावार्थ-सर्वज्ञ देवनैं ऐसे कया है जो शीलकरि अतीन्द्रिय ज्ञान सुख रूप मोक्षपद पाइये है सो भव्यजीव या शलकू अंगीकार करो, ऐसा उपदेशका आशय सूचै है, बहुत कहां तांई कहिये एताही बहुत प्रकार कह्या जानो ॥ ३३ ॥
आगैं कहै है जो इस शीलकरि निर्वाण होय ताकू बहुत प्रकार वर्णन कीजिये सो कैसैं ताका कहनां ऐसैं है;गाथा-सम्मत्तणाणदंसणतववीरियपंचयार मप्पाणं ।
जलणो वि पवणसहिदोडहंति पोरायणं कम्मं ॥३४॥ संस्कृत-सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीयपंचाचाराः आत्मनाम् ।
ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पुरातनं कर्म ॥३४॥ अर्थ—सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन तप वीर्य ये पंच आचार हैं सो आत्माका आश्रय पायकरि पुरातन कर्मनिकू दग्ध करें हैं, जैसैं अग्नि है सो पवन सहित होय तब पुराणे सूखे इंधनकू दग्ध करै तैसैं ।
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका।
४०७
भावार्थ-इहां सम्यक्त्व आदि पंच आचारतौ अग्निस्थानीय हैं अर आत्माका शुद्ध स्वभाव है ताकू शील कहिये सो यह आत्माका स्वभाव पवनस्थानीय है सो पंच आचार रूप पवनका सहाय पाय पुरातन कर्मवंधकू दग्धकरि आत्माकू शुद्ध करें ऐसैं शीलही प्रधान है। पांच आचारमैं चारित्र कह्या है अर इहां सम्यक्त्व कहनेमैं चारित्रही जाननां विरोध न जाननां ॥ ३४ ॥ ____ आनें कहै है जो ऐसैं अष्ट कर्मनिकू जिनिनैं दग्ध किये ते सिद्ध भये हैं;गाथा-णिद्दढअहकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा ।
तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता ॥३५॥ संस्कृत-निर्दग्धाष्टकर्माणः विषयविरक्ता जितेंद्रिया धीराः ।
तपोविनयशीलसहिताः सिद्धाः सिद्धिं गतिं प्राप्ताः॥३५॥ ___ अर्थ-जो पुरुष जीते हैं इंद्रिय जिनूनैं याहीतै विषयनितें विरक्त भये हैं, बहुरि धीर हैं परीषहादि उपसर्ग आये चिगै नांही हैं, बहुरि तप विनय शील इनिकरि सहित हैं ते दूरि किये हैं अष्ट कर्म जिनूं. ऐसे होय सिद्धिगति जो मोक्ष ताकू प्राप्त भये हैं, ते सिद्ध ऐसा नाम कहा है ॥ ___ भावार्थ--इहां भी जितेंद्रिय विषयविरक्तता ये विशेषण शीलहीकी प्रधानता दिखाबें हैं ॥ ३५॥ ___ आगैं कहै है जो लावण्य अर शील युक्त है सो मुनि सराहने योग्य होय है;-- गाथा-लावण्णसीलकुसलो जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स ।
सो सीलो स महप्पा भमित्थ गुणवित्थरं भविए ॥३६॥
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत-लावण्यशीलकुशलः जन्ममहीरुहः यस्य श्रमणस्य ।
सःशीलः स महात्मा भ्रमेत् गुणविस्तारः भव्ये ॥३६॥ अर्थ-जिस मुनिका जन्मरूप वृक्ष है सो लावण्य कहिये अन्या प्रियलागै ऐसा सर्व अंग सुन्दर तथा मन वचन कायकी चेष्टा सुन्दर अर शील कहिये अंतरंग मिथ्यात्व विषयकरि रहित परोपकारी स्वभाव इनि दोऊनिविर्षे प्रवीण निपुण होय सो मुनि शीलवान् है महात्मा है ताके गुणनिका विस्तार लोकवि भ्रमै है फैले है ।
भावार्थ—ऐसे मुनिका गुण लोकमैं विस्तरै है सर्व लोककै प्रशंसा योग्य होय है इहां भी शीलहीकी महिमा जाननी, अर वृक्षका स्वरूप कह्या जैसैं वृक्षक शाखा पत्र पुष्प फल सुन्दर होय अर छायादिककरि रागद्वेष रहित सर्व लोकका समान उपकार करै तिस वृक्षकी महिमा सर्व लोक कर तैसै मुनिभी ऐसा होय सो सर्वकै महिमा करने योग्य होय है ॥ ३६॥ ___ आनें कहै है जो ऐसा होय सो जिनमार्गविर्षे रत्नत्रयकी प्राप्तिरूप
बोधि पावै है;. गाथा—णाणं झाणं जोगो देसणसुद्धीय वीरियायत्तं ।
सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ॥३७॥ संस्कृत--ज्ञानं ध्यानं योगः दर्शनशुद्धिश्च वीर्यायत्ताः।
सम्यक्त्वदर्शनेन च लभते जिनशासने बोधिं ॥३७॥ अर्थ-ज्ञान ध्यान योग दर्शनकी शुद्धता ये तो वीर्यकै आधीन हैं अर सम्यग्दर्शनकरि जिनशासनकै विर्षे बोधि• पाएँ हैं, रत्नत्रयकी प्राप्ति होय है॥
१ मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ' वीरियावत्तं' ऐसा पाठ है जिसकी छाया 'वीर्यत्वं ' है॥
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका । ४०९ ___ भावार्थ-ज्ञान कहिये पदार्थनिकू विशेषकरि जाननां, ध्यान कहिये स्वरूपविर्षे एकाग्र चित्त होना, योग कहिये समाधि लगावनां, सम्यग्दर्शनकू निरतिचार शुद्ध करनां, येतो अपनां वीर्य जो शक्ति ताकै आधीन हैं जेता बनै तेता होय अर सम्यग्दर्शनकरि बोधि जो रत्नत्रय ताकी प्राप्ति होय, याके होते विशेष ध्यानादिक भी यथा शक्ति होयही है अर शक्ति भी यात वधै है। ऐसैं कहनेमैं भी शीलहीका माहात्म्य जाननां, रत्नत्रय है सो ही आत्माका स्वभाव है ताकू शीलभी कहिये ॥ ३७॥ ___ आगैं कहै है जो यह प्राप्ति जिनवचन होय है;गाथा--जिणवयणगहिदसारा विसयविरत्ता तपोधणा धीरा ।
सीलसलिलेण ण्हादा ते सिद्धालयसुहं जति ॥३८॥ संस्कृत-जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधनाधीराः।
शीलसलिलेन स्नाताः ते सिद्धालयसुखं यांति ॥३८॥ अर्थ-जिनवचनकरि ग्रहण किया है सार जिनि. बहुरि विषयनितें विरक्त भये हैं, बहुरि तपही है धन जिनिकै, बहुरि धीर हैं ऐसे भये संते मुनि शीलरूप जलकरि न्हायें शुद्ध भये ते सिद्धालय जो सिद्धनिके वसनेका मन्दिर ताके सुखनिकू पाएँ हैं ॥ ___ भावार्थ-जे जिनवचनकरि वस्तुका यथार्थ स्वरूप जानि ताका सार जो अपनां शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति ताका ग्रहण करें हैं ते इंद्रियनिके विषयनितें विरक्त होय तप अंगीकार करें हैं मुनि होय हैं, तहां धीरवीर होय परीषह उपसर्ग आये चिरौं नाही तब शील जो स्वरूपकी प्राप्तिकी पूर्णतारूप चौरासी लाख उत्तरगुणकी पूर्णता सो ही भया निर्मल जल ताकरि स्नान करि सर्व कर्ममलकू धोय सिद्ध भये, सो मोक्षमंदिरविर्षे तिष्ठि करि तहां परमानंद अविनाशी अतीन्द्रिय अव्याबाध सुखकू भोगबैं
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
हैं, यह शीलका माहात्म्य है । ऐसा शील जिनवचनतैं पाइये है जिना - गमका निरन्तर अभ्यास करनां यह उत्तम है ॥ ३८ ॥
आगैं अंतसमयमैं सल्लेखना कही है तहां दर्शन ज्ञान चारित्र तप इनि च्यारि आराधनाका उपदेश है सो ये शील हीतैं प्रगट होय हैं, ताकूं प्रगटकर कहैं हैं ;
गाथा - सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा । पफोडियकम्मरया हवंति आराहणा पयडा ।। ३९ ॥ संस्कृत - सर्वगुणक्षीणकर्माणः सुखदुःखविवर्जिताः मनोविशुद्धाः प्रस्फोटितकर्मरजसः भवंति आराधनाः प्रकटाः ॥ ३९ ॥ अर्थ – सर्व गुण जे मूलगुण उत्तरगुण तिनिकरि क्षीण भये हैं कर्म जामैं, बहुरि सुख दुःखकरि विवर्जित हैं, बहुरि मन है विशुद्ध जामैं, बहुरि उडाये हैं कर्मरूप राज जानैं ऐसी आराधना प्रगट होय है ॥
भावार्थ — पहलै तौ सम्यग्दर्शनसहित मूलगुण उत्तरगुणनिकरि कर्मनिकी निर्जरा होनेंतें कर्मकी स्थिति अनुभाग क्षीण होय है, पीछे विषयनिकै द्वारै किछु सुख दुःख होय था ताकरि रहित होय है, पीछें ध्यानविषै तिष्ठि श्रेणी चढै तब उपयोग विशुद्ध होय कषायनिका उदय अव्यक्त होय तब दुःख सुखकी वेदना मिटै, बहुरि पीछें मन विशुद्ध होय क्षयोपशम ज्ञानकै द्वारे किछू ज्ञेयतैं ज्ञेयान्तर होनेंका विकल्प होय है सो मिटिर एकत्ववितर्क अविचारनामा शुक्लध्यान बार मां गुणस्थानकै अंत होय है यह मनका विकल्प मिटि विशुद्ध होनां है, बहुरि पी हैं घातिकर्मका नाश होय अनंत चतुष्टय प्रकट होय है यह कर्मरजका उडना है; ऐसैं आराधनाकी संपूर्णता प्रकट होनां है । जे चरम शरीरी हैं तनिकै तौ ऐसें आराधना प्रकट होय मुक्तिकी प्राप्ति होय है । बहुरि अन्यकै आराधनाका एकदेश होय अंत मैं तिसकूं आराधानकरि स्वर्गविषै
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचीनका। ४११ प्राप्त होय, तहां सागरांपर्यंत सुख भोगि तहांतें चय मनुष्य होय आराधनांकू संपूर्ण करि मोक्ष प्राप्त होय है, ऐसें जाननां, यह जिनवचनका अर शीलका माहात्म्य है ॥ ३९ ॥ ___ आनें ग्रंथकू पूर्ण करैं हैं तहां ऐसैं कहैं हैं जो-ज्ञान” सर्व सिद्धि है यह सर्वजनप्रसिद्ध है सो ज्ञान तौ ऐसा होय ताकू कहिये है;गाथा-अरहंते सुहभत्ती सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्धं ।
सीलं विसयविरागो णाणं पुण केरिसं भणियं ॥४०॥ संस्कृत-अर्हति शुभभक्तिः सम्यक्त्वं दर्शनेन सुविशुद्धं ।
शीलं विषयविरागः ज्ञानं पुनः कीदृशं भणितं ॥४०॥ अर्थ-अरहंतविर्षे भली भक्ति है सो तौ सम्यक्त्व है, सो कैसा है-सम्यग्दर्शनकरि विशुद्धहै तत्वार्थनिका निश्चय व्यवहारस्वरूप श्रद्धान अर बाह्य जिनमुद्रा नग्न दिगंबररूपका धारण तथा ताका श्रद्धान ऐसा दर्शनकरि विशुद्ध अतीचार रहित निर्मल है ऐसा तो अरहंतभक्तिरूप सम्यक्त्व है, बहुरि शील है सो विषयनितें विरक्त होना है बहुरि ज्ञान भी यह ही है और यात्रै न्यारा ज्ञान कैसा कया है ? सम्यक्त्व शील विना तौ ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप अज्ञान है ॥ ___ भावार्थ-यह सर्व मतनिमैं प्रसिद्ध है जो ज्ञानतें सर्व सिद्धि है अर ज्ञान होय है सो शास्त्रनितें होय है । तहां आचार्य कहै है जो हम तौ ताकू ज्ञान कहैं हैं जो सम्यक्त्व अर शील सहित होय, यह जिनागममैं कही है, यातें न्यारा ज्ञान कैसा है याते न्यारा ज्ञान• तौ हम ज्ञान कहैं नाही, इनि विना तौ अज्ञानहीं है, अर सम्यक्त्व शील होय सो जिनागमतें होय । तहां जाकरि सम्यक्त्व शील भये तिसकी भक्ति न होय तौ सम्यक्त्व कैंसैं कहिये, जाके वचन" यह पाइये ताकी भक्ति होय
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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
तब जानिये याकै श्रद्धा भई, बहुरि सम्यक्त्व होय तब विषयनितें विरक्त होय ही होय जो विरक्त न होय तौ संसार मोक्षका स्वरूप कहा जान्यां ? ऐसैं सम्यक्त्व शील भये ज्ञान सम्यक्ज्ञान नाम पात्र है। ऐसैं इस सम्यक्त्व शीलके संबंध तैं ज्ञानकी तथा शास्त्रकी बडाई है। ऐसे यह जिनागमहै सो संसार” निवृत्तिकरि मोक्षप्राप्त करनेवाला है, सो जयवंत होहु । बहुरि यहु सम्यक्त्वसहित ज्ञानकी महिमा है सो ही अंतमंगल जाननां ॥ ४०॥ ऐसें श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकृत शीलपाहुड ग्रंथ समाप्त भया ।
याका संक्षेप तौ कहते आये जो-शील नाम स्वभावका है सो आत्माका स्वभाव शुद्ध ज्ञान दर्शनमयी चेतनास्वरूप है सो अनादिकर्मके संयोगतै विभावरूप परिणमैं है ताके विशेष मिथ्यात्व कषाय आदि अनेक हैं तिनिकू राग द्वेष मोह भी कहिये तिनिके भेद संक्षेपकरि चौरासीलाख किये हैं, विस्तारकरि असंख्यात अनंत होय हैं तिनि• कुशील कहिये, तिनिका अभावरूप संक्षेपकरि चौरासीलाख उत्तरगण हैं तिनिळू शील कहैं हैं; यह तो सामान्य परद्रव्यके संबंधकी अपेक्षा शील कुशीलका अर्थ है। बहुरि प्रसिद्ध व्यवहारकी अपेक्षा स्त्रीके संगकी अपेक्षा कुशीलके अठारह हजार भेद कहे हैं तिनिका अभाव ते शीलके अठरा हजार भेद हैं, तिनिकू जिन आगम तैं जांनि पालनें । लोकमैं भी शीलकी महिमा प्रसिद्ध है जे पालै हैं ते स्वर्ग मोक्षके सुख पावै हैं तिनिळू हमारा नमस्कार है ते हमारे भी शीलकी प्राप्ति करो, यह प्रार्थना है ।
छप्पय । आन वस्तुके संग राचि जिनभाव भंग करि,
वरतै ताहि कुशीलभाव भाखे कुरंग धरि ।
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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका।
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ताहि तनैं मुनिराय पाय निज शुद्धरूप जल,
धोय कर्मरज होय सिद्धि पावै सुख अविचल ॥ यह निश्चय शील सुब्रह्ममय व्यवहारै तियतज नमै । जोपालै सबविधि तिनि नमूंपाऊंजिन भव न जनम मैं।
दोहा। नमूं पंचपद ब्रह्ममय मंगलरूप अनूप । उत्तम शरण सदालहूं फिरि न पलं भवकूप ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दाचार्यस्वामि प्रणीत शीलप्राभृकी जयपुरनिवासि पं. जयचन्द्रजी छाबड़ाकृत
देशभाषामयवचनिका समाप्त ॥ ८॥
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वचनिकाकारकी प्रशस्ति । ऐसैं श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकृत गाथाबंध पाहुडग्रंथ हैं तिनिमैं ये पाहुड हैं तिनिकी यह देशभाषामय वचनिका लिखी है। तहां छह पाहुडकी तो टीका टिप्पण हैं तिनिमैं टीका तौ श्रुतसागरकृत है अर टिप्पण पहलैं काहू और– किया है तिनिमैं केई गाथा तथा अर्थ अन्यप्रकार हैं तहां मेरै विचारमैं आया तिनिका आश्रयभी लिया है अर जैसैं अर्थ मोकू प्रतिभास्या तैसैं लिख्या है। अर लिंगपाहुड अर शीलपाहुड इनि दोऊ पाहुडनिकी टीका टिप्पण मिल्या नाही तारौं गाथाका अर्थ जैसैं प्रतिभासमैं आया तैसैं लिख्या है । अर श्रुतसागरकृत टीका षट्पाहुडकी है तामैं ग्रंथांतरकी साखि आदि कथन बहुत है सो तिस टीकाकी यह वचनिका नांही है, गाथाका अर्थ मात्र वचनिका करि भावार्थमैं मेरी प्रतिभासमैं आया तिस अनुसार लेय अर्थ लिख्या है। अर प्राकृत व्याकरण आदिका ज्ञान मोर्ने विशेष है नांही तातैं कहूं व्याकरणते तथा आगमतें शब्द अर अर्थ अपभ्रंश भया होय तहां बुद्धिमान पंडित मूलग्रंथ विचारि शुद्ध करि वांचियो, मोकू अल्पबुद्धि जांनि हास्य मति करियो, क्षमा करियो, सत्पुरुषनिका स्वभाव उत्तम होय है, दोष देखि क्षमा ही करें हैं। ___ बहुरि इहां कोई कहै तुम्हारी बुद्धि अल्प है तो ऐसे महानग्रंथकी वचनिका क्यौं करी ? ताकू ऐसैं कहनां जो इस कालमै मो” भी मंदबुद्धि बहुत हैं तिनिके समझनेंके अर्थ करी है यामैं सम्यग्दर्शनका दृढ करनां प्रधानकरि वर्णन है तातें अल्पबुद्धी भी वांचें पढ़ें अर्थका धारण करें तौ तिनिकै जिनमतका श्रद्धान दृढ होय, यह प्रयोजन जांनि जैसे अर्थ प्रतिभास आया तैसैं लिखा है. अर जे बडे बुद्धिमान हैं ते मूलग्रंथकू वांचि पढिही श्रद्धान दृढ करेंगे, मेरै कछु ख्याति लाभ पूजाका
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वचनिकाकारको प्रशस्ति ।
४१५ तौ प्रयोजन है नांही धर्मानुराग” यह वचनिका लिखी है, तातै बुद्धिमाननिकै क्षमाही करनेयोग्य है ।
अर इस ग्रंथकी गाथाकी संख्या ऐसे है:-प्रथम दर्शनपाहुडकी गाथा ३६ । सूत्रपाहुडकी गाथा २७ । चारित्रपाहुडकी गाथा ४५ । बोधपाहुडकी गाथा ६१ । भावपाहुडकी गाथा १६५। मोक्षपाहुडकी गाथा १०६ । लिंगपाहुडकी गाथा २२। शीलपाहुडकी गाथा ४० । एवं पाहुड आठकी गाथाकी संख्या ५०२ हैं।
छप्पय । जिनदर्शन निग्रंथरूप तत्वारथ धारन,
सूतर जिनके वचन सार चारित व्रत पारन । बोध जैनका जांनि आनका सरन निवारन, __ भाव आतमा बुद्ध मांनि भावन शिव कारन । फुनि मोक्ष कर्मका नाश है लिंग सुधारन तजि कुनय । धरि शील स्वभाव संवारनां आठ पाहुडका फल सुजय ॥
दोहा। भई वचनिका यह जहां सुनो तास संक्षेप । भव्यजीव संगति भली मेटै कुकरमलेप ॥ २॥ जयपुर पुर सूवस वसै तहां राज जगतेश । ताके न्याय प्रतापते सुखी ढुढाहर देश ॥ ३॥ . जैनधर्म जयवंत जग किछु जयपुरमैं लेश । तांमधि जिनमंदिर घणे तिनिको भलो निवेश ॥४॥ तिनिमैं तेरापंथको मंदिर सुंदर एव । धर्मध्यान तामैं सदा जैनी करै सुसेव ॥ ५॥ .
शहा।
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वचनिकाकारकी प्रशस्ति ।
पंडित तिनिमैं बहुत हैं मैं भी इक जयचंद। प्रेयां सबकै मन कियो करन वचनिका मंद ॥ ६॥ कुन्दकुन्द मुनिराजकृत प्राकृत गाथा सार । पाहुड अष्ट उदार लखि करी वचनिका तार ॥७॥ इहां जिते पंडित हुते तिनिनैं सोधी येह । अक्षर अर्थ सुवांचि पढ़ि नहि राख्यो संदेह ॥ ८ ॥ तौऊ कछू प्रमादतै बुद्धिमंद परभाव । हीनाधिक कछु अर्थ है सोधो बुध सतभाव ॥९॥ मंगलरूप जिनेंद्रकुं नमस्कार मम होहु । विघ्न टलै शुभबंध द्वै यह कारन है मोहु ॥ १० ॥ संवत्सर दश आठ सत सतसठि विक्रमराय । मास भाद्रपद शुक्ल तिथि तेरसि पूरन थाय ॥ ११ ॥
इति वचनिकाकारप्रशस्ति । जयतु जिनशासनम् ।
शुभमिति ।
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