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पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
संस्कृत - यथा प्रस्तरः न भिद्यते परिस्थितः दीर्घकालमुदकेन । तथा साधुरपि न भिद्यते उपसर्ग परीषहेभ्यः || ९५ ॥
अर्थ — जैसैं पाषाण है सो जलकर बहुतकाल तिष्टया भी भेदकूं प्राप्त न होय है तैसें साधु है सो उपसर्ग परीषहनिकरि नांही भिदै है |
भावार्थ — पाषाण ऐसा कठिन है जो जल मैं बहुतकाल रहै तौऊ तामैं जल प्रवेश न करै तैसैं साधुके परिणाम ऐसे दृढ होय है जो उपसर्ग परीषह आये संयमके परिणामतैं च्युत न होय हैं, अर पूर्वे कला जो संयमका घात जैसें न होय तैसें परीपह सहै जो कदाचित् संयमका घात होता जानैं तो जैसैं घात न होय तैसें करे ॥ ९५ ॥ आगैं परीषह आये भाव शुद्ध रहै ऐसा उपाय कहै है; --
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गाथा - भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि । भावरहिण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ॥९६॥ संस्कृत - भावय अनुप्रेक्षा: अपराः पंचविंशतिभावनाः भावय । भावरहितेन किं पुनः बाह्यलिंगेन कर्त्तव्यम् ॥ ९६ ॥
अर्थ – हे मुने ! तू अनुप्रेक्षा कहिये अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा हैं तिनहिं भाय, बहुरि अपर कहिये और पांच महाव्रतनिकी पच्चीस भावना कही हैं तिनहि भाय, भावरहित जो बाह्य लिंग है ताकरि कहा कर्त्तव्य है ? कछू भी नांही ॥
भावार्थ —— कष्ट आये बारह अनुप्रेक्षा चितवन करनें योग्य हैं तिनिके नाम — अनित्य, अशरण, संसार, एकत्त्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्म इनिका अर पच्चीस भावनाका भावनां बडा उपाय है । इनिका बारंबार चितवन किये कष्ट मैं परिणाम बिगडै नांही, तातैं यह उपदेश है ॥ ९६ ॥