SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३०१ संस्कृत-जिनवरमतेन योगी ध्याने ध्यायति शुद्धमात्मानम् । येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम् ॥२०॥ अर्थ-योगी ध्यानी मुनि है सो जिनवर भगवानके मतकरि शुद्ध आत्माकू ध्यानविर्षे ध्यावै है ताकरि निर्वाणकू पावै है तौ ताकरि कहा स्वर्ग लोक न पावै ? पावेही पावै ॥ २० ॥ ___ भावार्थ-कोई जानँगा जो जिनमार्गमैं लागि आत्माकू ध्यावै सो मोक्ष पावै अर स्वर्ग तौ यात्रै होय नाही, ताकू कह्या है जो जिनमार्गमैं प्रवर्त्तनेवाला शुद्ध आत्माकू.ध्याय मोक्ष पावै है तौ ताकरि स्वर्गलोक कहा कठिन है ? यह तो ताके मार्गमैं ही है ॥ २० ॥ ___ आगें या अर्थकू दृष्टान्तकार दृढ करै है, गाथा--जो जाइ जोयणसयं दियहेणेकेण लेइ गुरुभारं । सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ॥२१॥ संस्कृत-यः याति योजनशतं दिवसेनैकेन लात्वा गुरुभारम् । ... स किं क्रोशा मपि स्फुटं न शक्नोति यातुं भुवनतले २१ अर्थ-जो पुरुष बडा भार लेय एक दिनकरि सौ योजन जाय सो या भुवनतलविर्षे आध कोश कहा न जाय ? यह प्रगट जाणो ॥ ___ भावार्थ—जो पुरुष बडा भार लेय एक दिनमैं सौ योजन चाले ताकै आधकोश चालनां तौ अत्यंत सुगम भया, तैसैंही जिनमार्ग” मोक्ष पावै तौ स्वर्ग पावनां तौ अत्यंत सुगम है ॥ २१ ॥ ___ आगें याही अर्थका अन्य दृष्टान्त कहै है;-- गाथा—जो कोडिए ण जिप्पइ सुहडो संगामएहिं सव्वेहिं । सो किं जिप्पइ इकिं णरेण संगामए सुहडो ॥२२॥ संस्कृत-यः कोट्या न जीयते सुभटः संग्रामकैः सर्वैः । स किं जीयते एकेन नरेण संग्रामे सुभटः ॥ २२॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy