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________________ ११२ पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचितसमस्त लोकनिका हितका हे प्रयोजन जामैं ऐसा ग्रंथ संक्षेपकरि कहूंगा ताकू हे भव्यजीव ! तुम सुनो, जिन आचार्यनिकू वंदे ते आचार्य कैसे है-बहुत शास्त्रनिका अर्थके जाननेवाले हैं बहुरि कैसै हैं-संयम अर सम्यक इनि करि शुद्ध है तपश्चरण जिनिकै बहुरि कैसैं हैं-कषायरूप मलकरि वर्जित हैं याहीतैं शुद्ध हैं । ___ भावार्थ—इहां आचार्यनिकू वंदना करी तिनिके विशेषणनितै जानिये है कि गणधरादिकतै लगाय अपने गुरुपर्यंत तनिकी वंदेना है, बहुरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करी ताके विशेषणनितें जानिये है जो वोधपाहुड ग्रंथ करियेगा सो लोकनिकू धर्ममार्गविर्षे सावधानकरि कुमार्ग छुडाय अहिंसाधर्मका उपदेश करियेगा ॥३॥ आगैं इस वोधपाहुडमैं ग्यारह स्थल बांधे है तिनिके नाम कहै हैं, गाथा—आयदणं चेदिहरं जिणपडिमा दंसणं च जिणविवं । भणियं सुवीयरायं जिणमुद्दा णाणमादत्थं ॥३॥ अरहंतेण सुदिह जे देवं तित्थमिह य अरहंतं । पावज गुणविसुद्धा इय णायव्वा जहाकमसो ॥४॥ संस्कृत-आयतनं चैत्यगृहं जिनप्रतिमा दर्शनं च जिनबिंबम् । भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमात्मार्थम् ॥ ३ ॥ अर्हता सुदृष्टं यः देवः तीर्थमिह च अर्हन् । प्रवज्या गुणविशुद्धा इति ज्ञातव्याः यथाक्रमशः॥४ अर्थ--आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिंब कैसा है जिनबिंब भलैप्रकार वीतराग है रागसहित नाहीं जिनमुद्रा, ज्ञान सो कैसा आत्माही है अर्थ कहिये प्रयोजन जामैं, ऐसें सात, तो ये निश्चय वीत१-संस्कृत सटीक प्रतिमें 'आत्मस्थं' ऐसा पाठ है।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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