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________________ ७८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित अर्थ-आचार्य कहैहै जो मैं अरहंत परमष्टीकू बंदिकरि चारित्रपाहुड है ताहि कहूंगा, कैसे हैं अरहंत परमेष्ठी-अरहंत ऐसा प्राकृत अक्षर अपेक्षा तौ ऐसा अर्थ-अकार आदि अक्षर करि तौ अरि ऐसा तो मोहकर्म, बहुरि रकार आदि अक्षर अपेक्षा रज ऐसा ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म बहुरि तिसही रकारकरि रहस्य ऐसा अंतराय कर्म ऐसे च्यार घातिकर्म तिनिकू हंत कहिए हननां घातनां जाकै भया ऐसा अरहंत है। बहुरि संस्कृत अपेक्षा 'अहं' ऐसा पूजा अर्थ विर्षे धातु है ताका ‘अर्हत्' ऐसा निपजै तब पूजायोग्य होय ताकू अर्हत् कहिये सो भव्यजीवनिकरि पूज्य है । बहुरि परमेष्ठी कहने परम कहिये उत्कृष्ट इष्ट कहिये पूज्य होय सो परमेष्ठी कहिये, अथवा परम जो उत्कृष्ट पद ताविर्षे तिष्टै ऐसा होय सो परमेष्टी । ऐसा इंद्रादिकरि पूज्य अरहंत परमेष्टी है । बहुरि कैसे हैं सर्वज्ञ हैं सर्व लोकालोकस्वरूप चराचर पदार्थानकू प्रत्यक्ष जानैं सो सर्वज्ञ है । बहुरि कैसे हैं-सर्वदर्शी कहिये सर्व पदार्थनिके देखनेवाले हैं । बहुरि कैसे हैं निर्मोह हैं मोहनीयनामा कर्मकी प्रधान प्रकृति मिथ्यात्व है ताकरि रहित हैं । बहुरि कैसे हैं-वीतराग हैं विशेषकरि जाकै राग दूरभया होय सो वीतराग, सो जिनके चारित्रमोहकर्मका उदयतें होय ऐसा रागद्वेषभी नांही है। बहुरि कैसे हैं-त्रिजगद्वंद्य हैं तीन जगतके प्राणी तथा तिनिके स्वामी इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती तिनिकरि बंदिवे योग्य हैं। ऐसैं अरहंत पदकू विशेष्यकरि अन्य पद विशेषण करि अर्थ किया है । बहुरि सर्वज्ञ पदकू विशेष्यकरि अन्यपद विशेषण करिये ऐसे भी अर्थ होय है तहां अरहंत भव्यजीवनिकरि पूज्य हैं ऐसा विशेषण होय है । बहुरि चारित्र कैसा है-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चरित्र ये तीन आत्माके परिणाम है तिनिकै शुद्धताका कारण है चारित्र अंगीकार भये सम्यग्दर्शनादि परिणाम निर्दोष होय हैं। बहुरि कैसा है चारित्र-माक्षके आराधनका
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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