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पंडित जयचंद्रजी
छावड़ा विरचित
भावार्थ———संयम अगीकारकरि ध्यान करै अर आत्माका स्वरूप न जानें तौ मोक्षमार्गकी सिद्धि नांहीं तातैं ज्ञानका स्वरूप जाननां, या जानें सर्व सिद्धि है ॥ २० ॥
आगे याकूं दृष्टांतकरि दृढ करे हैं:--
गाथा - जहण विलहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्स वेज्झय विहीणो । तह ण वि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स संस्कृत - यथा नापि लभते स्फुटं लक्ष रहितः कांडस्य वेध - कविहीनः । तथा नापि लक्षयति लक्ष अज्ञानी मोक्षमार्गस्य ॥ २१॥
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अर्थ — जैसें वेधनेवाला वेधक जो बाग ताकरि विहीन कहिये रहित ऐसा पुरुष है सो कांड कहिये धनुष ताका अभ्यासकरि रहित होय सो लक्ष्य कहिये निशाना ताकूं न पात्रै तैसें ज्ञानकरि रहित अज्ञानी हैं सो दर्शन चारित्ररूप जो मोक्षमार्ग ताका लक्ष्य कहिये लक्षणें योग्य परमात्माका स्वरूप ताकूं न पावै है |
भावार्थ — धनुषधारी धनुषका अभ्यास रहित अर वेधक जो बाण ताकरि रहित होय तौ निशानांकूं न पावै तैसैं ज्ञानकरि रहित अज्ञानी मोक्षमार्गका निशानां परमात्मा स्वरूप है ताकूं न पहचानें तब मोक्षमार्गकी सिद्धि न होय तातैं ज्ञानकूं जाननां, परमात्मारूप निसानां ज्ञानरूप बाणकर वेधनां योग्य है ॥ २१ ॥
आगे कहै है ऐसा ज्ञान विनय संयुक्त पुरुष होय सो मोक्ष पाव है;गाथा - णा पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणय संजुत्तो । गाणे लहदि लक्खं लक्खतो मोक्खमग्गस्स ॥ २२ ॥