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________________ ३७२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित रोग जानेकी कहा आशा ? तैसैं यह भया, ऐसेका संसार कटनां कठिन है ॥ ७ ॥ आगे फेरि कहै है; - गाथा -- दंसणणाणचरिते उवहाणे जह ण लिंगरूवेण । अहं झादि झाणं अगतनारिओ होदि ॥ ८ ॥ संस्कृत - दर्शनज्ञान चारित्राणि उपधानानि यदि न लिंगरूपेण । आर्त्तं ध्यायति ध्यानं अनंतसंसारिकः भवति ॥ ८ ॥ अर्थ – यदि कहिये जो लिंगरूप करि दर्शन ज्ञान चारित्रकूं तौ उपधानरूप न किये धारण न किये अर आर्त्तध्यानकूं ध्यावे हैं तो ऐसा लिंगी अनंतसंसारी होय है | भावार्थ -- लिंग धारण करि दर्शन ज्ञान चारित्रका सेवन करनां था सो तौ न किया अर परिग्रह कुटुंब आदि विषयनिका परिग्रह छोड्या ताकी फेरि चिंताकरि आर्त्तध्यान ध्यावने लगा तब अनंतसंसारी क्यौं न होय ? याका यह तात्पर्य है जो सम्यग्दर्शनादिरूप भाव तो पहले भये नांही अर किछू कारण पाय लिंग धान्य, ताकी अवधि कहा ? पहली भाव शुद्ध करि लिंग धारनां युक्त है ॥ ८ ॥ आगैं कहै है जो - भावशुद्धि विना गृहस्थचारा छोड़े यह प्रवृि होय है; गाथा - जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्जजीवघादं च । वच्चदि पर पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ||९|| संस्कृत - यः योजयति विवाहं कृषिकर्मवाणिज्यजीवघातं च । व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण || ९ || अर्थ —जो गृहस्थनिके परस्पर विवाह जाँडै है सणपण करावे है, बहुरि कृषिकर्म कहिये खेती वाहना किसानका कार्य अर वाणिज्य कहिये
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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