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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
संस्कृत-अपरिग्रहे समनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरसरूपगंधेषु ।
रागद्वेषादीनां परिहारो भावनाः भवन्ति ॥३६॥ अर्थ-शब्द स्पर्श रस रूप गंध ये पांच इंद्रियनिके विषय, ते कैसै समनोज्ञ कहिये मनोज्ञकरि सहित अर अमनोज्ञ कहिये मनोज्ञकरि रहित, ऐसे दौऊनिविर्षे रागद्वेष आदिका न करनां ते परिग्रहत्यागवतकी ये पांच भावनां है ॥ ३६॥ ___ भावार्थ-पांच इंद्रियनिके विषय स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द ये हैं तिनिविर्षे इष्ट अनिष्ट बुद्धिरूप राग द्वेष न करै तब अपरिग्रहव्रत दृढ़ रहै जारौं ये पांच भावना अपरिग्रहमहाव्रतकी कही हैं ॥३६॥
आगें पांच समितिकू कहै है;गाथा-इरिया भासा एसण जा सा आदाण चेव णिक्खेवो ।
संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ॥३७॥ संस्कृत-इयो भाषा एषणा या सा आदानं चैव निक्षेपः।
संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिनाः पंच समितीः॥ ___ अर्थ-ईर्या भाषा एषणा बहुरि आदाननिक्षेपण प्रतिष्ठापनां ऐसैं ये पांच समिति संयमकी शुद्धिताकै अर्थि कारण हैं ते जिनदेवनैं कहे हैं। - भावार्थ-मुनि पंचमहाव्रतरूप संयमका साधन करै है तिस संयमकी शुद्धिताकै आर्थ पांच समितिरूप प्रवत्र्ते है याही तैं याका नाम सार्थक है—" 'सं' कहिये सम्यक् प्रकार 'इति' कहिये प्रवृत्ति जामैं होय सो समिति है" । गमन करै तब जूडा प्रमाण धरती देखता चाले है, बोलै तब हितमितरूप वचन बोलै है, आहार ले सो छियालीस दोष बत्तीस अंतराय टालि चौदा मल दोष रहित शुद्ध आहार ले हैं, धर्मोपकरणनिकू उठाय ग्रहण करै सो यत्नपूर्वक ले हैं, तैसैं ही किछु