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________________ २३४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित मान करि जो हम तपस्वी हैं हमारै घरबार नाही वनके पुष्प फलादिक खाय करि तपस्या करें हैं ऐसे मिथ्यादृष्टी तपस्वी होय मानकरि खाये तथा गर्वकरि उद्धत होय दोष गिन्यां नांही स्वच्छंद होय सर्व भक्षी भया । ऐसैं इनि कंदादिककू खाय यही जीव संसारमैं भ्रम्या अब मुनि होय इनिका भक्षण मति करे, ऐसा उपदेश है । अर अन्यमतके तपस्वी कंदमूलादिक फल फूल खाय आपकू महंत मानें, तिनिका निषेध है ॥ १०३ ॥ ___ आविनय आदिका उपदेश करै है तहां प्रथमही विनयका वर्णन है;-- गाथा-विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण । अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति ॥१०४॥ संस्कृत-विनयः पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन । अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवंति ॥१०४ अर्थ--हे मुने ! जा कारण” अविनयवान नर हैं ते भले प्रकार विहित जो मुक्ति ताहि न पावै है अभ्युदय तीर्थंकरादिसहित मुक्ति न पावै है ता” हम उपदेश करें हैं जो हस्त जोडनां पगां पडनां आए” उठनां सामां जानां अनुकूल वचन कहनां यह पंचप्रकार विनय अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र तप अर इनिका धारक पुरुष इनिका विनय करनां ऐसैं पंचप्रकार विनयकू तू मन वचन काय तीनूं योगनिकरि पालि॥ __ भावार्थ-विनयविना मुक्ति नाही तातै विनयका उपदेश है; विनयमैं बडे गुण हैं ज्ञानाकी प्राप्ति होय है मानकपायका नाश होय है शिष्टाचारका पालनां है कलहका निवारण है इत्यादि विनयके गुण जाननें; तारौं सम्यग्दर्शनादिकरि जे महान हैं तिनिका विनय करनां यह
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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