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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका। २३५. उपदेश है, अर जे विनय विना जिनमार्गरौं भ्रष्ट भये वस्त्रादिकसहित जे मोक्षमार्ग मानने लगे तिनिका निषेध है ॥ १०४ ॥
आरौं भक्तिरूप वैयावृत्त्यका उपदेश करै है;--- गाथा-णियसत्तिए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि।
तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावचं दसवियप्पं ॥१०५॥ संस्कृत-निजशक्त्या महायशः ! भक्तिरागेण नित्यकाले ।
त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ॥१०५॥ अर्थ- हे महायश ! हे मुने ! भक्तिका रागकरि तिस वैयावृत्त्यकू सदाकाल अपनी शक्तिकरि तू करि, कैसैं-जिनभक्तिविर्षं तत्पर होय तैसैं, कैसा है वैयावृत्त्य-दशविकल्प है दशभेदरूप है; वैयावृत्त्य नाम परके दुःख कष्ट आये टहल बंदगी करनेंका है, ताके दशभेद-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वि, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ ये दशभेद मुनिके हैं तिनिका कीजिये है तातें दशभेद कहै हैं ॥ १०५ ॥
आगें अपनें दोष• गुरु पासि कहनां ऐसी गर्दाका उपदेश करै है;गाथा-जं किंचिकयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेणं ।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण ॥१०६॥ संस्कृत-यःकश्चित् कृतः दोषः मनोवचःकायैः अशुभभावेन ।
तं गर्ह गुरुसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा ॥१०६॥ अर्थ- हे मुने ! जो कछु मन वचन कायकरि अशुभ भावनितें प्रतिज्ञामैं दोष लग्या होय ताकू गुरु पासि अपनां गौरव कहिये अपनां महंतपणां गर्व छोडिकरि बहुरि माया कहिये कपट छोडि करि मन वचन काय सरल करि गर्दाकरि वचन प्रकासि ॥