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________________ २४२ पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित-- इनि• विचारणें पाछै भावना करनी जो ये मैं नही हूं, बहुरि तीसरा आस्त्रवतत्त्व है सो जब पुद्गल के संयोगजनित पाव हैं तिनिमैं अनादिकर्मसंबंध जीवको भाव तौ रागद्वेष मोह हैं अर अजीव पुद्गलके भावकर्मका उप भियाःव अवित कपाय यंग ये व्य आस्रव हैं तिनिकी भावना कानी जो ये मेरै होय हैं मेरै गिद्वेषमोह भाव हैं तिनिकरि कर्मका बंध होय है तिनि” संसार होय है ताक् तिनिका कर्ता न होना, बहुरि चौथा बंधतत्त्व है सो मैं रागद्वेषमो रूप परिणमूंहूं सो तौ मश चेतनाका विभाव है इनितें बंधै हैं ते पुद्गल हैं अर कर्म पुद्गल हैं अर कर्म मुद्गल ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार होय बंधे है ते स्वभाव प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेशरूप च्यार प्रकार होय बंधै हैं ते मेरे विभाव तथा पुद्गलकर्म सर्व हेय हैं संसारके कारण हैं में कू रागद्वेष मोहरूप न होनां ऐसैं भावना कानी, बहुरि पांचवा तत्व संधर है सो रागद्वेषमोहरूप जीवके विभाव हैं तिनिका न होनां अर दर्शन ज्ञानरूप चेतनाभाव थिर होनां यह संबर है सो अपना भाव है अर याही करि पुद्गल कर्मजनित भ्रमण मिटै है ! ऐसें इनि पांच तत्त्वनिकी भावना करनेमैं आत्मतत्वकी भावना प्रधान है ताकरि कर्मकी निर्जरा होय मोक्ष होय है, आत्मा भाव शुद्ध अनुक्रम होनां यह तौ निर्जरातत्व भया अर सर्व कर्मका अभाव होनां यह मोक्षतत्त्व भया । ऐसें सात तत्त्वकी नावना करनी । याहीत आत्मतत्त्वका विशषण किया जो आत्मतत्व कैसा है--धर्म अर्थ काम इस त्रिवर्गका अभाव कर है याकी भावना त्रिवर्गरौं न्यारा चौथा पुरुपार्थ मोक्ष है सो होय है । बहुरि यह आत्मा ज्ञानदर्शनमयीचेतनास्वरूप अनादिनिधन है जाका आदि भी नांही अर निधन कहिये नाश भी नाही। बहुरि भावना नाम बार बार अभ्यास करनां चितवन करनेंका है सो मन करि वचनकरि कायकरि आप करना तथा पर• करावनां करतेकू भला
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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