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अष्टपाहुड में मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका |
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आपा मानैं परका आत्माकूं पर जानैं, तब परविषै ममत्व नांही होय । ता जीवादिक पदार्थका स्वरूप नीकै जांनि मोह न करनां यह जना - या है ॥ १० ॥
आगैं है है जो - मोहकर्मके उदयकरि मिथ्याज्ञान अर मिथ्याभाव होय. है ताकर आगामी भवविषै भी यह मनुष्य देहकूं चाह है:गाथा - मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो । मोहोदाएण पुणरवि अंगं सम्मण्णए मणुओ ॥ ११ ॥ संस्कृत - मिथ्याज्ञानेषु रतः मिथ्याभावेन भावितः सन् । मोहोदयेन पुनरपि अंगं मन्यते मनुजः || ११||
अर्थ - यह मनुष्य है सो मोहकर्मके उदयकरि मिथ्याज्ञानकरि मिथ्याभावकरि भाया संता फेरि भी आगामी जन्मविषै इस अंगकूं देहकूं सन्मानैं है भला मांनि चाहै है |
भावार्थ — मोहकर्मकी प्रकृति जो मिध्यात्व ताके उदयकरि ज्ञानभी मिथ्या होय है परद्रव्यकूं अपनां जानें है, बहुरि तिस मिथ्यात्वीकार मिथ्या श्रद्धान होय है ताकरि निरन्तर परद्रव्य विषै यह भावना रहै है जो–यह मेरै सदा प्राप्त होहू, यातें यह प्राणी आगामी देहकूं भला जाणि च है है ॥ ११ ॥
आ है है - जो मुनि देहविषै निरपेक्ष है देहकूं नांही चाह है या मैं ममत्व न करे है सो निर्वाणकूं पावै है,
गाथा - जो देहे णिरवेक्खो णिदो णिम्ममो णिरारंभो । आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥१२॥
१ - - मुद्रित सं. प्रतिमें 'सं मण्णए' ऐसा प्राकृतपाठ जिसका 'स्वं मन्यते' ऐसा संस्कृत पाठ है ।