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________________ ३२८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित - भावार्थ — अन्यमती सांख्यादिक कोई तौ ज्ञानचर्चा तो बहुत करै है अर क है है - ज्ञानही मुक्ति है अर तप करै नांही, विषयकषायनिकूं प्रधानका धर्म मांनि स्वच्छंद प्रवत् । बहुरि केई ज्ञानकूं निष्फल मांनि अर ताकूं यथार्थ जानैं नांही अर तप क्लेशादिकहीतें सिद्धि मांनि ताके करने मैं तत्पर रहै । तहां आचार्य कहै है - ये दोऊही अज्ञानी हैं जे ज्ञानसहित तप करे हैं ते ज्ञानी हैं वही मोक्ष पावैं हैं, यह अनेकांतस्वरूप जिनमतका उपदेश है ॥ ५९ ॥ आगैं याही अर्थकं उदाहरण दृढ करें है; गाथा - धुवसिद्धी तित्थयरो चरणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणत्तो वि ॥ ६० ॥ संस्कृत - ध्रुवसिद्धिस्तीर्थंकरः चतुर्ज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम् । ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तः अपि ॥ ६०॥ अर्थ — आचार्य कहै है- देखो जाकै नियमकरि मोक्ष होनी है अर च्यार ज्ञान मति श्रुत अवधि मन:पर्यय इनिकरि युक्त है ऐसा तीर्थंकर है सो भी तपश्चरण करे हैं, ऐसैं निश्चयकरि जांनि ज्ञानकरि युक्त होतैं भी तप करनां योग्य है ॥ भावार्थ तीर्थकर मति श्रुति अवधि इनि तीन ज्ञान सहित तौ जनमै है बहुरि दीक्षा लेतेंही मन:पर्यय ज्ञान उपजै है बहुरि मोक्ष जाकै नियमकरि होनी है तौऊ तप करे है, तातैं ऐसा जांनि ज्ञान होतेंभी तप कर - नेविषै तत्पर होनां, ज्ञानमात्रही मुक्ति न माननीं ॥ ६० ॥ आगैं जो बाह्यलिंगकरि सहित है अर अभ्यंतरलिंगरहित है सो स्वरू पाचरण चारित्रतैं भ्रष्ट भया मोक्षमार्गका विनाश करनेवाला है, ऐसा सामान्यकरि कहै है;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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