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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३२३ होय ताकै ध्यानवाला रुचि प्रीति होय, ध्यानवाले न रुचें तत्र जानिये याकूं ध्यान भी न रुचै ऐसें जाननां ॥ ५२ ॥ ध्यान सम्यग्ज्ञानीकै होय है सो ही तप करि आगें कहै है जो कर्मका क्षय करै है; गाथा - उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहिं । तं णाणी तिहि गुत्तो खवे अंतोमुहुत्ते || ५३ ॥ संस्कृत - उग्रतपसा ज्ञानी यत् कर्म क्षपयति भवैर्बहुकैः । तज्ज्ञानी त्रिभिः गुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्त्तेन ॥ ५३ ॥ अर्थ — अज्ञानी है सो उग्र कहिये तीव्र जो तप ताकरि बहुत भवनिकर जो कर्म क्षय करै है तिस कर्मकूं ज्ञानी मुनि तीन गुप्तिकर युक्त भया अन्तर्मुहूर्तरि क्षय करे है ॥ भावार्थ — जो ज्ञानका सामर्थ्य है सो तीव्र तपकाभी सामर्थ्य नांही जातैं ऐसैं है - जो अज्ञानी अनेक कष्ट सहि करि तीव्र तपकूं करतां संता कोड्यां भवनिकरि जो कर्मका क्षय करै सो आत्म भावनासहित ज्ञानी मुनि ति कर्मकं अन्तर्मुहूर्त में क्षय करे है, यह ज्ञानका सामर्थ्य है ॥ ५३ ॥ मैं कहै है जो इष्ट वस्तुका संबंधकरि परद्रव्यविषै रागद्वेष करै है सो तिस भाव करि अज्ञानी होय है, ज्ञानी यातैं उलटा है:गाथा - सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणड़ रागदो साहू । -- सो तेण हु अण्णाणी गाणी एत्तो हु विवरीओ ॥ ५४ ॥ संस्कृत - शुभयोगेन सुभावं परद्रव्ये करोति रागतः साधुः । सः तेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः ॥ ५४ ॥ अर्थ — शुभ योग कहिये आपके इष्ट वस्तु ताका योग संबंधकरि परद्रव्यविषै सुभाव कहिये प्रीतिभाव ताहि करै है सो प्रगट राग द्वेष
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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