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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३६३ लोक है, तामैं जीवद्रव्य अनंतानंत हैं अर पुद्गलद्रव्य तिनि अनंतानंत गुणे हैं, बहुरि एक एक धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य हैं, बहुरि काल द्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। तहां जीव तौ दर्शनज्ञानमयी चेतना स्वरूप है । अर पांच अजीव हैं ते चेतनारहित जड हैं-तहां धर्म अधर्म आकाश काळ ये च्यारि द्रव्य तौ जैसैं हैं तैसैं तिष्ठं हैं तिनिकै विकारपरिणति नाही; बहुरि जीव पुद्गलद्रव्यकै परस्पर निमित्त नैमित्तिकमावतें विभावपरिणति है तामैं भी पुद्गल तो जड है ताके विभाषपरिणतिका दुःख सुखका · संवेदन नाही, अर जीव चेतन है याकै सुख दुःखका संवेदन है । तहां जीव अनंतानंत हैं तिनिमैं केई तो संसारी हैं, केई संसारनै निवृत्त होय सिद्ध भये हैं । तहां संसारी जीव हैं तिनिमैं केई तो अभव्य हैं तथा अभव्यसारिखे हैं ते दोऊ जातिके संसारनै निवृत्त कबहू न होय है तिनिकै संसार अनादिनिधन है; बहुरि केई भव्य हैं ते संसार” निवृत्त होय सिद्ध होय हैं, ऐसें जीवनिकी व्यवस्था है। अब इनिकै संसारकी उत्पत्ति कैसे है सो कहै है-तहां जीवनिकै ज्ञानावरणादि आठ कर्मनिका अनादिबंधरूप पर्याय है तिसबंधके उदयके निमित्त” जीव रागद्वेषमोहादि विभावपरिणतिरूप परिणमै है, तिल विभाव परिणतिके निमित्ततें नवीन कर्मबंध होय है, ऐसैं इनिके संतान जीवकै चतुर्गतिरूप संसारकी प्रवृत्ति होय है तिस संसारमैं चतुर्गतिविौं अनेक प्रकार सुखदुःखरूप भया भ्रमै है; तहां कोई काल ऐसा आवै जो मुक्त होनां निकट आवै तब सर्वज्ञके उपदेशका निमित्त पाय अपनां स्वरूपकू अर कर्मबंधका स्वरूपकू अर आपमैं विभावका स्वरूपकू जानै इनिका भेद ज्ञान होय तब परद्रव्यकू संसारके निमित्त जानि तिनितें विरक्त होय अपने स्वरूपका अनुभवका साधन करै दर्शनज्ञानरूप स्वभाववि स्थिर होनेका साधन करै तब याकै
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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