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अष्टपाहुडभाषा वचनिका ।
योग्य है, याकै अन्य मुनित्रत मूलगुण उत्तरगुणकी क्रिया आचार्यसमान ही होय है । बहुरि साधु है सो रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गकूं साधै सो साधु है या दीक्षा शिक्षा उपदेशादिक देनेंकी प्रधानता नांही अपने स्वरूपके साधनविर्षै ही तत्पर होय हैं, निग्रंथ दिगंबर मुनिकी प्रवृत्ति जैसी जिनागममैं वर्णन करी है तैसी सर्वही होय है; ऐसा साधु वंदनेयोग्य है । अन्यलिंगी भेषी व्रतादिकतैं रहित परिग्रहवान विषयनिमैं आसक्त गुरु नाम धरावें ते वंदनेयोग्य नांहीं हैं । इस पंचकालमै भेषी जिनमत मैं भी भये हैं ते श्वेतांबर, यापनीयसंघ, गोपुच्छपिच्छसंघ, नि: पिच्छसंघ, द्राविड़संघ आदि लेय अनेक भये हैं सो ये सर्वही वंदनेयोग्य नांही हैं। मूलसंघ, नग्न'दिगंबर, अड्ढाईस मूलगुणनिके धारक, मयूरपिच्छक कमंडलु दयाका अर शौचका उपकरण धारें यथोक्तविधि आहार करनेवाले गुरु वंदनेयोग्य हैं जातैं तीर्थंकर देव दीक्षा धारें हैं तब ऐसाही रूप धारें हैं अन्य भेष नांही धारें हैं, याहीकूं जिनदर्शन कहिए है । बहुरि धर्म जाकूं कहिए जो जीवकूं संसार के दुःखरूप नीचा पदतैं मोक्षका सुखरूप ऊंचा पदमैं "धारै, ऐसा धर्म मुनिश्रावकके भेदकरि दर्शन ज्ञान चारित्रात्मक एकदेश सर्वदेशरूप निश्चय व्यवहार करि दोय प्रकार कया है ताका मूल सम्यग्दर्शन है या बिनां धर्मकी उत्पत्ति नांही है । ऐसें देव गुरु धर्म विषै अर लोकविषै यथार्थ दृष्टि होय अर मूढता नहीं होय सो अमूढ दृष्टि अंग है ॥ ४ ॥
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बहुरि अपने आत्माकी शक्तिका बधावना सो उपबृंहण अंग है सो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका अपनां पौरुषकरि बधावनां सो ही उपबृंहण है। याकूं उपगूहन भी कहिये है, तहां ऐसा अर्थ जाननां जो स्वयंसिद्ध जिनमार्ग है ताकै बालकके तथा असमर्थ जनके आश्रयतैं जो न्यूनता होय ताकूं अपनी बुद्धितैं गोप्यकरि दूरिही करै सो उपगूहन अंग है ॥ ५ ॥