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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिको। २६१ संस्कृत-दशविधप्राणाहारः अनंतभवसागरे भ्रमता। भोगसुखकारणार्थ कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानां ॥ अर्थ—हे मुने ! तैं अनंतभवसागरमैं भ्रमता सकल त्रस थावर जीवनिके दशविध प्राणनिका आहार, भोग सुखकै कारणकै अर्थि मन वचनकायकरि किया ॥ ____ भावार्थ-अनादिकालौं जिनमतका उपदेशविना अज्ञानी भयातें त्रसथावर जीवनिके प्राणनिका आहार किया तातैं अब जीवनिका स्वरूप जांणि जीवनिकी दया पालि भोगाभिलाष छोडि, यह उपदेश है ॥१३४॥ फेरि कहै है--ऐसे प्राणीनिकी हिंसाकरि संसारमैं भ्रमिकरि दुःख पाया;गाथा-पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि । उप्पजत मरंतो पत्तोसि निरंतरं दुक्खं ॥१३५॥ संस्कृत-प्राणिवधैः महायशः ! चतुरशीतिलक्षयोनिमध्ये । उत्पद्यमानः म्रियमाणःप्राप्तोऽसि निरंतरं दुःखम् १३५ अर्थ-हे मुने ! हे महायश ! तँ प्राणीनिके घातकरि चौरासी लाख योनिकै मध्य उपजत अर मरतें निरंतर दुःख पाया ॥ भावार्थ-जिनमतके उपदेश विना जीवनिकी हिंसा करि यह जीव चौरासी लाख योनिमैं उपजै है अर मरै है, हिंसातें कर्मबंध होय है, कर्म बंधके उदयतें उत्पत्तिमरणरूप संसार होय है; ऐसें जन्म मरणका दुःखं सहै है तातै जीवनिकी दयाका उपदेश है ॥ ___ आगैं तिस दयाहीका उपदेश करै है;गाथा-जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं । कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए ॥१३६॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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