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________________ २६२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित संस्कृत -- जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभूतसत्त्वानाम् । कल्याणसुखनिमित्तं परं परया त्रिविधशुद्धया ॥ १३६ ॥ अर्थ – हे मुने ! जीवनिकूं अर प्राणीभूत सत्त्व इनिकूं अपनां परं - परायकरि कल्याण अर सुख ताकै अर्थ मन वचन कायकी शुद्धताकरि अभयदान दे || भावार्थ - जीव तौ पंचेंद्रियनिकूं कहे हैं अर प्राणी विकलत्रयकूं कहे हैं अर भूत वनस्पतीकूं कहे है अर सत्त्व पृथ्वी अप तेज वायु इनिकूं कहे हैं । इनि सर्व जीवनिकूं आप समान जांणि अभयदान देनेंका उपदेश है, यातें शुभ प्रकृतिनिका बंध होनेंतें अभ्युदयका सुख होय है परंपराकरि तीर्थकर पद पाय मोक्ष पात्रै है, यह उपदेश है ॥ १३६ ॥ 1 आगे यह जीव पट् अनायतन के प्रसंगकरि मिथ्यात्वतें संसार मैं भ्रमै है ताका स्वरूप है है, तहां प्रथमही मिथ्यात्वके भेदनिकूं कहै. है; - गाथा — असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तट्टी अण्णाणी वेणैया होंति बत्तीसा ॥ १३७ ॥ संस्कृत - अशीतिशतं क्रियावादिनामक्रियाणं च भवति चतुरशीतिः । सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवति द्वात्रिंशत् १३७ अर्थ — एकसौ अस्सी तौ क्रियावादी हैं चौरासी अक्रियावादीनिके भेद हैं अज्ञानी सडसठि भेदरूप हैं विनयवादी बत्तीस हैं | भावार्थ–वस्तुका स्वरूप अनंत धर्म स्वरूप सर्वज्ञ का है सो प्रमाण नयकरि सत्यार्थ सधै है, तहां जिन्होंके मतमैं सर्वज्ञ नांही तथा सर्वज्ञका स्वरूप यथार्थ निश्चयकरि तका श्रद्धान न किया ऐसे अन्य -
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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