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१४८ पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचितगाथा-जहजायसवसरिसा अवलंवियभुय णिराउहा संता। . परकियणिलयणिवासा पव्वजा एरिसा भणिया॥५१॥ संस्कृत---यथाजातरूपसदृशी अवलंबितभुजा निरायुधा शांता।
परकृतनिलयनिवासा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥५१॥ अर्थ-कैसी है प्रव्रज्या—यथाजातरूपसदृशी कहिये जैसा जन्म्यां बालकका नग्न रूप होय तैसा नग्न रूप जामैं है, बहुरि कैसी है अवलंबितभुजा कहिये लंबायमान किये हैं भुजा जामैं बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सर्ग खड़ा रहनां जामैं होय है, बहुरि कैसी है निरायुधा कहिये आयुधनिकरि रहित है, बहुरि शांता कहिये अंग उपांगके विकार रहित शांत मुद्रा जामैं होय है, बहुरि कैसी है परकृतानेलयनिवासा कहिये परका किया निलय जो वस्तिका आदिक तामैं है निवास जामैं आपकू कृत कारित अनुमोदना मन वचन काय करि जा दोष न लाग्या होय ऐसी परकी करी वस्तिका आदिकमै वसनां होय है ऐसी प्रव्रज्या कही है ॥ ___ भावार्थ-अन्यमती केई बाह्य वस्त्रादिक राई है केई आयुध राखें हैं केई सुखनिमित्त आसन चलाचल राखें हैं केई उपाश्रेय आदि वसनेका निवास बनाय तामैं वसैं हैं अर आपकू दीक्षा सहित मानें हैं तिनिकै भेषमात्र है, जैनदीक्षातो जैसी कही तैसीही है ॥५१॥
आगँ फेरि कहै है-- गाथा-उवसमखमदमजुत्ता सरीरसंकारवजिया रुक्खा ।
मयरायदोसरहिया पयजा एरिसा भणिया ॥ ५२ ॥ संस्कृत-उपशमक्षमदमयुक्ता शरीरसंस्कारवर्जिता रूक्षा ।
मदरागदोषरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।। ५२ ॥ अर्थ--बहुरि कैसी है प्रव्रज्या उपशमक्षमादमयुक्ता कहिये उपशमतौ मोहकर्मका उदयका अभावरूप शांतपरिणाम अर क्षमा क्रोधका अभाव