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________________ ३१० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित गाथा-रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्यो । आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं गाणं ॥३४॥ संस्कृत-रत्नत्रयमाराधयन् जीवः आराधकः ज्ञातव्यः । आराधनाविधानं तस्य फलं केवलज्ञानम् ॥३४॥ ___ अर्थ-रत्नत्रय जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ताहि आराधता जीव है सो आराधक जाननां, अर जो आराधनाका विधान है ताका फल केवलज्ञान है ॥ ___ भावार्थ-जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकू आराधै है सो केवलज्ञानकू पावै है सो जिनमार्गमैं प्रसिद्ध है ॥ ३४ ॥ ___ आगैं कहै है जो शुद्ध आत्मा है सो केवलज्ञान है अर केवलज्ञान है सो शुद्धात्मा है;गाथा-सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सबलोयदरसी य । सो जिणवरेहि भणियो जाण तुमं केवलं गाणं॥३५॥ संस्कृत-सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च । सः जिनवरैः भणितः जानीहि त्वं केवलं ज्ञानम्॥३५॥ __ अर्थ-आत्मा जिनवर सर्वज्ञदेव ऐसा कह्या है, कैसा है-- सिद्ध; काहूकरि निपज्या नाही है स्वयंसिद्ध है, बहुरि शुद्ध है कर्ममलते रहित है, बहुरि सर्वज्ञ है सर्व लोकालोककू जाने है बहुरि सर्वदर्शी है सर्व लोक अलोककू देखे है, ऐसा आत्मा है सो मुने ! तिसहीकू तू केवलज्ञान जांणि अथवा तिस केवलज्ञानही• अत्मा जाणि । आत्मामैं अर ज्ञानमैं कछू प्रदेश भेद है नांही, गुण गुणी भेद है सो गौण है। यह आराधनाका फल पूर्व केवलज्ञान कह्या, सो है ॥ ३५ ॥ ___ आनें कहै है जो योगी जिनदेवके मतकरि रत्नत्रयकं आराधे है सो. आत्माकू ध्यावै है;
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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