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पंडित जयचंद्रजी छावडा विरचित
करि वेढ्या अर मूत्रका स्रवण अर फेफस कहिये जो रुधिर विना मेद फूलिजाय बहुरि कालिज कहिये कालजो बहुरि रुधिर बहुरि खरिस कहिये जो अपक्क मलमूं मिल्या रुधिर श्लेष्म बहुरि कृमिजाल कहिये लट जीवनिके समूह ये सर्व पाइये, ऐसा स्त्रीका उदरविधैं बहुत बार बस्या ॥ ३९ ॥ __फेरि याहीकू कहै है;गाथा-दियसंगट्टियमसणं आहारिय मायमुत्तमण्णांते ।
छदिखरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए॥४०॥ संस्कृत-द्विजसंगस्थितमशनं आहृत्य मातृमुक्तमन्नान्ते ।
छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः॥४०॥ ___ अर्थ-हे जीव ! तू जननी जो माता ताके उदरगर्भविषं वस्या तहां माताका अर पिताका भोगकै अंत छबि कहिये वमनका अन्न खरिस कहिये अपक्क मल रुधिरसू मिल्या तिनिकै मध्य वस्या, कहा करि वस्या-माताका दांतनिकरि चाव्या तिनि दांतनिकै लग्या तिष्ठया
औंठ्या जो भोजन माताके खाये पीछे जो उदरमैं गया ताका रस आहारकरि वस्या ॥ ४०॥
आगैं कहै है जो गर्भतें नीसरि बालपणां ऐसा भोग्या;गाथा-सिसुकाले य अयाणे असुईमज्झम्मि लोलिओसि तुमं ।
असुई असिया बहुसो मुणिवर ! वालत्तपत्तेण ॥४१॥ संस्कृत-शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लोलितोऽसि त्वम् ।
अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर ! वालत्वप्राप्तेन ॥४१॥ अर्थ—हे मुनिवर ! तू बालपणेंके कालविर्षे अज्ञान अवस्थामैं अशुचि अपवित्र स्थाननिविर्षे अशुचिकै वीचि लौट्या बहुरि बहुतवार अशुचि वस्तु ही खाई, बालपणांकू पाय ऐसी चेष्टा करी ॥ . १ पेटके दक्षिणभागमें जलका आधाररूप मासपिंडकी थैली तथा मांसका विकार।