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१७६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ-हे जाव ! तैं या लोकका उदरविर्षे वर्त्तते जे पुद्गल स्कंध तिनि सर्वनिकू असे भखे बहुरि तिनिळू पुनरुक्त फेरि फेरि भोगता संता हू तृप्तिकुं प्राप्त न भया ॥
फेरि कहै है;गाथा-तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिण्हाइ पीडिएण तुमे ।
तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं ॥२३॥ संस्कृत-त्रिभुवनसलिलं सकलं पीतं तृष्णया पीडितेन त्वया।
तदपि न तृष्णाछेदः जातः चिन्तय भवमथनम् ॥२३ अर्थ—हे जीव ! तैं या लोकविर्षे तृष्णाका पीड्या तीन भुवनका जल समस्त पिया तौऊ तृषाका व्युच्छेद न भया ते तातें तू या संसारका मथन कहिये तेरै नाश होय तैसैं निश्चय रत्नत्रय चितवन करि ।
भावार्थ-संसारमैं काहू प्रकार तृप्तिता नांहीं तातैं जैसैं अपनें संसारका अभाव होय तैसैं चितवन करनां निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकू सेवनां यह उपदेश है ॥ २३ ॥
फेरि कहै है,गाथा-गहिउज्झियाई मुणिवर कलेवराई तुमे अणेयाई ।
ताणं णत्थिपमाणं अणंतभवसायरे धीर ॥२४॥ संस्कृत-गृहीतोज्झितानि मुनिवर कलेवराणि त्वया अनेकानि।
तेषां नास्ति प्रमाग अनन्तभवसागरे धीर ! ॥२४॥ अर्थ-हे मुनिवर ! हे धीर ! तैं या अनंत भवसागरविर्षे कलेवर कहिये शरीर अनेक ग्रहण किये अर छोड़े तिनिका परिमाण नांही है। ___ भावार्थ-हे मुनिप्रधान ! तू किछू इस शरीरसूं स्नेह किया चाहै तौ या संसारविर्षे ऐसे शरीर छोडे अर गहे तिनिका कछू परिमाण न किया जाय है ॥ २४ ॥