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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषाघचनिका। २५५ गाथा--णाणमयविपलसीयलसलिलं पाऊग भविय भावेण । बाहिजर मरणयगडाहविमुक्का सिबा होति ॥१२५॥ संस्कृत--ज्ञानमविलशीतलसलिलं प्राप्य भव्याः भावेन । व्याधिशामा लामाहनिमुक्काः निवाः भवन्ति। अर्थ----भव्यजांत्र हैं ते ज्ञानमयी निर्मल शीतल जल है ताहि सम्यक्त्वभावकीर सहित रोयकारे अर व्याधिस्वरूप जो जरा मरण ताकी वेदना पीडा ताहि भ म करि मुक्त कहिये संसारसे रहित शिव कहिये परमानंद सुखरूप ह य हैं । ___ भावार्थ-जैसैं निर्मल अर शीतल ऐसे जलके पीये पित्तका दाहरूप व्याधि मिटै अर सा ।। होय है तैसैं यह ज्ञान है सो जब रागादिकमलतें रहित निर्मल होय अर आकुलतारहित शांतभावरूप होय ताकी भावनाकरि रुचि श्रद्धा प्रतीतिकरि पीवै या तन्मय होय तो जरा मरणरूप दाह वेदना मिटि जाय अर संसार” निवृत्त होय सुखरूप होय, तातें भव्यजीवनिकू यह उपदेश है जो ज्ञानमैं लीन होहू ॥ १२५ ॥ ___ आनें कहै है जो-या ध्यानरूप अग्निकरि संसारका बीज आठ कर्म एक बार दग्ध भये पीछ फेरि संसार न होय है, सो यह बीज भावमुनिकै दा होय है:-- गाथा—जह बी म्मि य दड़े ण वि रोहइ अंकुरो य महिवीढे। तह कम्मवीयदड़े भवंकुरो भावसवणाणं ॥१२६॥ संस्कृत-यथा बीजे च दग्धे नापि रोहति अंकुरश्च महीपीठे। तथा कर्मधीजदग्धे भवांकुरः भावश्रमणानाम् ॥१२६॥ ___ अर्थ-जैसैं पृर्खाके स्थलविर्षे वीज दग्ध होते संतॆ तिसका अंकुर है सो फेरि नाही ऊग है तैसैं जे भावलिंगी श्रमण हैं तिनिकै संसारका
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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