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३४४ पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचितगाथा-एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण सुणसु ।
संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥८५॥ संस्कृत-एवं जिनैः कथितं श्रमणानां श्रावकाणां पुनः शृणुत ।
संसारविनाशकरं सिद्धिकरं कारणं परमं ॥८५॥ अर्थ—एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार तौ उपदेश श्रमण जे मुनि तिनिळू जिनदेव. कह्या है। बहुरि अब श्रावकनिकू कहिये है सो सुनो, कैसा कहिये है-संसारका तौ विनाश करनेवाला अर सिद्धि जो मोक्ष ताका करनेवाला उत्कृष्ट कारण ऐसा उपदेश है ॥
भावार्थ-पहलै कह्या सो तौ मुनिनिकू कह्या अर अब आगें कहिये है सो श्रावकनिकू कहिये है, ऐसा कहिये है जातै संसारका विनाश होय अर मोक्षकी प्राप्ति होय ॥ ८५ ॥ ___ आगें श्रावकनिकू प्रथम कहा करनां, सो कहै है;गाथा-गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिकंप ।
तं जाणे झाइज्जइ सावय ! दुक्खक्खयहाए ॥८६॥ संस्कृत-गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुरगिरेरिव निष्कंपम् ।
तत् ध्याने ध्यायते श्रावक ! दुःखक्षयार्थे ॥८६॥ अर्थ--प्रथम तौ श्रावकनिकू सुनिर्मल कहिये भलै प्रकार निर्मल अर मेरुवत् निःकंप अचल अर चल मलिन अगाढ दूषणरहित अत्यंत निश्चल ऐसा सम्यक्त्वकू ग्रहण करि तिसकू ध्यानविर्षे ध्यावनां, कौन आर्थ-दुःखका क्षयकै अर्थि ध्यावनां ॥ ___ भावार्थ-श्रावक पहलै तौ निरतिचार निश्चल सम्यक्त्वकू ग्रहणकरि जाका ध्यान करै जा सम्यक्त्वकी भावना” गृहस्थकै गृहकार्यसंबंधी आकुलता क्षोभ दुःख होय है सो मिटि जाय है, कार्यके विगडने सुधर