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________________ अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका । १५५ करनेवाले ये हैं सो अन्यमती इनिकूं अन्यथा स्थापि प्रवृत्ति करैं हैं ते हिंसारूप हैं अर जीवनिके हित करनेवाले नांही तहां ये ग्यारह ही स्थानक संयमी मुनि अर अरहंत सिद्धहीकूं कहे तहां ये तौ छह कायके जीवनिके हित करनेवालेंही हैं तातैं पूज्य हैं यह तौ सत्य है, अर जहां वसैं ऐसे आकाशके प्रदेशरूप क्षेत्र तथा पर्वतकी गुफा वनादिक तथा अकृत्रिम चैत्यालय ये स्वयमेव वणि रहे हैं तिनिकूं भी प्रयोजन अर निमित्त विचार उपचार मात्र करि छह कायके जीवनिके हित करनेवाले कहिये तौ विरोध नांही जाते ये प्रदेश जड है ते बुद्धिपूर्वक काहूका बुरा भला करें नांही तथा जडकूं सख दुःख आदि फलका अनुभव नांही तातैं ये भी व्यवहार करि पूज्य है जातैं अरहंतादिक जहां तिष्ठे वै क्षेत्र निवास आदिक प्रशस्त हैं तातैं तिनि अरहंतादिकै आश्रयतें ये क्षेत्रादिकभी पूज्य हैं बहुरि गृहस्थ जिनमंदिर बनावै वस्तिका प्रतिमा बनावै प्रतिष्ठा पूजा करै तामैं तौ छह कायके जीवनिकी विराधना होय है सो ये उपदेश अर प्रवृत्तिकी बाहुल्यता कैसे हैं । 1 ताका समाधान ऐसा जो गृहस्थ अरहंत सिद्ध मुनिनिका उपसक है सो ये जहां साक्षात् होय तहां तौ तिनिकी वंदनां पूजनां करैही है, अर ये साक्षात् नांहीं तहां परोक्ष संकल्प मैं लेय वंदनां पूजनां करै तथा तिनिका वसका क्षेत्र तथा ये मुक्तिप्राप्त भये तिस क्षेत्र मैं तथा अकृत्रिम चैत्यालय मैं तिनिका संकल्प करि वंदे पूजै या मैं अनुराग विशेष सूचै है, बहुरि तिनिकी मुद्रा प्रतिमा तदाकार बनाने अर तिसकूं मंदिर बनाय प्रतिष्ठा करि स्थापैं तथा नित्य पूजन करे या मैं अत्यंत अनुराग सू है तिस अनुरागर्ते विशिष्ट पुण्यबंध होय है अर तिस मंदिर मैं छह कायके जीवनका हितकी रक्षाका उपदेश होय है तथा निरंतर सुननेवाला धारनेवालाकै अहिंसा धर्मकी श्रद्धा दृढ होय है तथा तिनिकी तदाकार
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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