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. अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका।
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आज्ञारूपवाणी सो तो वच, अर तिनिकै आकार धातु पाषाणकी प्रतिमा स्थापन सो चैत्य, अर सो प्रतिमा तथा अक्षर मंत्र वाणी जामैं स्थापिये ऐसा आलय मंदिर यंत्र पुस्तक ऐसा वच चैत्य आलयकात्रिक, बहुरि अथवा जिनभवन कहिये अकृत्रिम चैत्यालय मंदिर ऐसा आयतनादिक तिनिकै समानही तिनिका व्यवहार, ताहि जिनमार्गवि जिनवर देव वेध्य कहिये दक्षिासहित मुनिनिकै ध्यावनेयोग्य चितवन करनेयोग्य कहै है ॥
बहुरि जे मुनिवृषभ कहिये मुनिनिमैं प्रधान हैं ते कहे ते शून्यगृहादिक तथा तीर्थ नाम मंत्र स्थापनरूप मूर्ति अर तिनिका आलय मंदिर पुस्तक अर अकृत्रिम जिनमंदिर तिनिकू णिइच्छंति कहिये निश्चयकरि इष्ट करैं हैं तिनिमैं सूना घर आदिकमैं वसैं हैं अर तीर्थ आदिका ध्यान चितवन करैं हैं अर अन्यकुं तहां दीक्षा देहैं । इहां 'णिइच्छंति' का पाठांतर ‘णइच्छंति' ऐसाभी है ताका काकोक्तिकरि तौ ऐसा अर्थ होय है “जो कहा न इष्ट करै है करैही है" । अर एक टिप्पणीमैं ऐसा अर्थ किया है जो ऐसे शून्यगृहादिक तथा तीर्थादिक तिनकू स्ववशासक्त कहिये स्वेच्छाचारी भ्रष्ट आचारी तिनिकरि आसक्त होय युक्त होय तौ ते मुनिप्रधान इष्ट न करै तहां न वसैं । कैसे हैं ते मुनिप्रधान-पांच महाव्रतनिकरि संयुक्त हैं, बहुरि कैसे हैं-पांच इन्द्रियनिका है भलै प्रकार जीतनां जिनिकैं, बहुरि कैसे हैं-निरपेक्ष हैं काहू प्रकारकी वांछाकरि मुनि न भये है, बहुरि कैसे हैं-स्वाध्याय अर ध्यानकरि युक्त हैं कई तौ शास्त्र पर पढ़ायें हैं कई धर्म शुक्लध्यान करें हैं । ___ भावार्थ-इहां दीक्षायोग्य स्थानक तथा दीक्षासहित दीक्षा देनेवाला मुनिका तथा तिनिके चितवन योग्य व्यवहारका स्वरूप कह्या है ॥ ४२-४३-४४ ॥
आरौं प्रव्रज्याका स्वरूप कहै है;