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________________ ३७६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित __ भावार्थ—इस कालमैं जिनलिंगरौं भ्रष्ट होय पहले अफलक भये पाछै तिनिमैं श्वेतांबरादिक संघ भये तिनि. शिशिलाचार पोषि लिंगकी प्रवृत्ति बिगाडी, तिनिका यह निषेध है। -तिनिमैं अब भी केई ऐसे देखिये हैं जो-आहारकै आर्थिं शीघ्र दोडै है ईर्यापथकी सुध नाही, बहुरि आहार गृहस्थका घरसू ल्याय दोय च्यारि सामिल बैठि खाय तामैं बटवारामैं सरस नीरस आवै तब परस्पर कलह करै बहुरि तिसके निमित्त परस्पर ईर्षा करै, ऐसैं प्रवत्तै ते काहेके श्रमण ? ते जिनमार्गी तो नाह। कलिकालके भेषी हैं । तिनिळू साधु मानें हैं ते मा अज्ञानी हैं ॥१३॥ आ फेरि कहै है;गाथा-गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खसेहिं । जिणलिंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो ॥१४॥ संस्कृत-शृह्णाति अदत्तदानं परनिंदामपि च परोक्षदूषणैः । जिनलिंगं धारयन् चौरेणेव भवति सः श्रमणः॥१४॥ अर्थ—जो बिना दिया तो दान ले है अर परोक्ष परके दूषणनिकरि परकी निंदा करै है सो जिनलिंगकू धारता जंता भी चौरकी ज्यों श्रमण है ॥ ___ भावार्थ--जो जिनलिंग धारि बिना दिया आहार आदिकू ग्रहण करें परकै देनेकी इच्छा नाही किछू भयादिक उपजाट लेना तथा निरादरतें लेना, छिपिकरि कार्य करनां ये तौ चौरके कार्य हैं । यह भेष धारि ऐसें करनेलग्या तब चौरही ठहया तातैं ऐसा भेषी होनां योग्य नाही ।।१४ ___ आगें कहै है जो लिंग धारि ऐसें प्रवत्तै सो श्रमण नाही,गाथा-उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण । इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो॥१५॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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