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________________ ५८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित I विराजै तब मुक्त भया कहावै तां सिद्ध भी कहिये । ऐसें जेती संसारकी अवस्था अर यह मुक्त अवस्था ऐसैं भेदरूप आत्माकूं: निरूपै है सो भी व्यवहारनयका विषय है, याकूं अध्यात्म शास्त्रमैं अभूतार्थ असत्यार्थ नाम कहि करि वर्णन किया है जातैं शुद्ध आत्मा मैं संयोगजनित अवस्था होय सो तौ असत्यार्थही है, किछू शुद्ध वस्तुका तौं यह स्वभाव नांही तातैं असत्यही है । बहुरि जो निमित्त अवस्था भई सो भी आत्माहीका परिणाम है सो जो आत्माका परिणाम है सो आत्माहीमैं है तातैं कथंचित् याकूं सत्य भी कहिये परन्तु जेतैं भेदज्ञान नहीं होय तेतैंही यह दृष्टि है, भेदज्ञान भये जैसे है तैसें जानें है । बहुरि जे द्रव्यरूप पुद्गलकर्म हैं ते आत्मा तैं न्यारे हैं ही तिनितैं शरीरादिका संयोग है सो आत्मातैं प्रगट ही भिन्न हैं, तिनिकूं आत्माके कहिये हैं सो यह व्यवहार प्रसिद्ध है ही, याकूं असत्यार्थ कहिये उपचार कहिये । इहां कर्मके संयोगजनित भाव हैं ते सर्व निमित्ताश्रित व्यवहारका विषय हैं अर उपदेश अपेक्षा याकूं प्रयोजनाश्रित भी कहिये ऐसैं निश्चय व्यवहारका संक्षेप है । तहां सम्यग्दI र्शन ज्ञान चारित्रकं मोक्षमार्ग कह्या तहां ऐसें समझनां जो ये तीनूं एक आत्माहीके भाव हैं, ऐसैं तिनिका स्वरूप आत्माहीका अनुभव होय सो तौ निश्चय मोक्षमार्ग है तामैं भी जेतैं अनुभवकी साक्षात् पूर्णता नांही होय तेतैं एकदेशरूप होय ताकूं कथंचित् सर्वदेशरूप कहिकरि कहनां सो तौ व्यवहार है अर एकदेश नामकरि कहनां सो निश्चय है । बहुरि दर्शन ज्ञान चारित्रकूं भेदरूप कहि मोक्षमार्ग कहिये तथा इनिके बाह्य परद्रव्य स्वरूप द्रव्य क्षेत्र काल भाव निमित्त हैं तिनिकूं दर्शना ज्ञान चारित्र नाम करि कहिये सो व्यवहार है । देव गुरुशास्त्रकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन कहिये जीवादिक तत्वनिकी श्रद्धाकूं सम्यग्दर्शन कहिये ।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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