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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
करावै ताकू सर्प डस्या सो मरिकरि स्वयंभूरमणसमुद्रमैं महामत्स्य भया अर राजा सूरसेनभी मार वहांही वा महामत्स्यके कानमैं तंदुल मत्स्य भया, तहां महामत्स्यके भुखमैं अनेकजीव आवै अर निकसि जाय तब तंदुल मत्स्य तिनिळू देखिकरि विचारै जो ये महामत्स्य निर्भागी है जो मुखमैं आये जीवनिकू भखै नांही है, मेरा शरीर जो एता बडा होता तौ या समुद्रके सर्व जीवनिकू भखता; ऐसे भावनिके पापतै जीवनिकुं भखे विनाही सातवें नरक गया अर महामत्स्य तौ भखणेवाला था सो तौ नरक जायही जाय, याते अशुद्धभावसहित बाह्य पाप करनां तौ नरकका कारणहै ही परन्तु बाह्य हिंसादिक पापके किये बिना केवल अशुद्धभावही तिस समान है, तातै भावमैं अशुभ ध्यान छोड़ि शुभध्यान करनां योग्य है । इहां ऐसा भी जाननां जो पहले राज पायाथा सो पूर्व पुण्य किया था ताका फलथा पीछे कुभाव भथे तब नरक गया यातें आत्मज्ञान विना केवल पुण्यही मोक्षका साधन नाही है ॥ ८८ ॥ ___ आनें कहै है जो भावरहितनिका बाह्य परिग्रहका त्यागादिक सर्व निष्प्रयोजन है;गाथा-बाहिरसंगचाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो।
सयलो णाणज्झयणो णिरत्यओ भावरहियाणं ॥८९॥ संस्कृत-बाह्यसंगत्यागः गिरिसरिदरीकंदरादौ आवासः ।
सकलं ध्यानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम्।।८९॥ अर्थ-जे पुरुष भावकरि रहित हैं शुद्ध आमाकी भावनारहितहैं अर बाह्य आचरणकरि सन्तुष्टहैं तिनिका बाह्य परिग्रहका त्यागहै सो निरर्थकहै, बहुरि गिरि कहिये पर्वत दरी कहिये पर्वतकी गुफा सरित् कहिये नदीकै निकट कंदर कहिये पर्वतका जलकरि विदगया स्थानक