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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३१५ कर्मकांडमात्रही तत्व मानें हैं जीवकू अणुमात्र मान है तौऊ कछू परमार्थ नित्य वस्तु नाही इत्यादि मानें हैं, बहुरि चार्वाकमती जीवकू तत्व मानें नांही पंचभूततै जीवकी उत्पत्ति मानें हैं । इत्यादि बुद्धिकल्पित तत्व मानि परस्पर विवाद करें हैं, सो युक्तही है-वस्तुका पूर्णरूप दीखै नांही तब जैसैं अंधे हस्तीका विवाद करै तैसैं विवादही होय; तातैं जिनदेव सर्वज्ञ है वस्तुका पूर्णरूप देख्या है सोही कह्या है सो प्रमाण नयनिकरि अनेकान्तस्वरूप सिद्ध होय है सो इनिकी चर्चा हेतुवादके जैनके न्यायशास्त्र है तिनितें जानी जाय है; याः यह उपदेश है-जिनमतमैं जीवाजीवका स्वरूप सत्यार्थ कह्या है ताकू जानैं है सो सम्यग्ज्ञान है ऐसा जांणि जिनदेवकी आज्ञा मांनि सम्यग्ज्ञानकू अंगीकार करना, याहीतैं सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होय है, ऐसें जाननां ॥ ___ आरौं सम्यक्चारित्रका स्वरूप कहै है;गाथा-जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं । तं चारित्तं भणियं अवियप्पं कम्मरहिएहिं ॥ ४२ ॥ संस्कृत-यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापानाम् । तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितैः ॥ ४२ ॥ ___ अर्थ-योगी ध्यानी मुनि है सो तिस पूर्वोक्त जीवका भेदरूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञान ताहि जानिकरि अर पुण्य तथा पाप इनि दोऊनिका परिहार करै त्यागकरे सो चारित्र घातिकर्म” रहित जो सर्वज्ञ देव तार्ने कया है, कैसा हे निर्विकल्प है प्रवृत्तिरूप जे क्रियाके विकल्प तिनिकीर रहित हैं ॥ ४२ ॥ __ भावार्थ-चारित्र निश्चय व्यवहार भेदकरि दोय भेदरूप है, तहां महाव्रत समिति गुप्तिके भेदकरि कह्या है सो तो व्यवहार है तिनिमैं प्रवृत्तिरूप क्रिया है सो शुभकर्मरूप बंध करै है अर इनि क्रियानिमैं
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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