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________________ अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २७९ गाथा-धण्णा ते भयवंता दंसणणाणग्गपवरहत्थेहिं । विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं॥१५७॥ संस्कृत-ते धन्याः भगवंतः दर्शनज्ञानाग्रप्रवरहस्तैः । विषयमकरधरपतिताः भव्याः उत्तारिताः यैः॥१५॥ अर्थ-ज्यां सत्पुरुषां विषयरूप मकरधर जो समुद्र ताविर्षे पड्या जे भव्यजीव तिनिकू पार उताऱ्या, काहेकरि दर्शन अर ज्ञान तेही भये अग्र मुख्य दोय हाथ तिनिकरि उतारे, ते मुनि प्रधान भगवान इंद्रादिककरि पूज्य ज्ञानी धन्य हैं। ___ भावार्थ—इस संसार समुद्र" आप तिरै अर अन्यकू त्या ते मुनि धन्य है । धनादिक सामग्रीसहितकुं धन्य कहिये हैं ते कहबेके धन्य हैं ॥ १५७ ॥ आण फेरि ऐसे मुनिनिकी महिमा करै है,गाथा-मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्मि आरूढा । विसयविसपुप्फफुल्लिय लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं १५८ संस्कृत-मायावल्लीं अशेषां मोहमहातरुवरे आरूढाम् । विषयविपपुष्पपुष्पिता लुनंति मुनयः ज्ञानशस्त्रैः१५८ अर्थ-मुनि हैं ते माया कहिये कपटरूपी वेलि है ताहि ज्ञानरूपी शस्त्रकरि समस्त• काटै हैं, कैसी है मायावेलि मोह रूपी जो महा बडा वृक्ष तापरि आरूढ है चढी है, बहुरि कैसी है विषयरूपी विषके पुष्प निकरि फूलि रही है ॥ भावार्थ-यह मायाकषाय है सो गूढ है याका विस्तार भी बहुत है मुनिनि ताई फैले है, तातें जे मुनि ज्ञानकरि याकू काटें हैं ते सांचे मुनि हैं, तेही मोक्ष पावै हैं ॥ १५८ ॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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