Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगसुत्ताणि आयारी सूयगडो. ठाणं . समवाओ SAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVAVA वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक मुनि नथमल For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में निग्गंयं पावयणं अंगसुत्ताणि आयारो • सूयगडो • ठाणं • समवाओ वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक मुनि नथमल प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबंध सम्पादक : श्रीचन्द रामपुरिया, निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन (जैन विश्व भारती) आर्थिक सहायक श्री रामलाल हंसराज गोलछा विराटनगर (नेपाल) प्रकाशन तिथि : विक्रम संवत् २०३१ कार्तिक कृष्णा १३ (२५०० वां निर्वाण दिवस) पृष्ठांक। ११०० मूल्य : १५ मुद्रक :-- एस. नारायण एण्ड संस (प्रिटिंग प्रेस) ७११७/१८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANGA SUTTĀNI AYĀRO SŪYAGADO. THANAM • SAMAWAO. (Original text Critically edited) Vāćanā PRAMUKHA ACĂRYA TULASI EDITOR MUNI NATHAMAL Publisher JAIN VISWA BHARATI LADNUN (Rajasthan) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Managing Editor Shreecbaud Rampuria. Director : Āgama and Sahitya Publication Dept. JAIN VISHWA BHARATI, LADNUN Financial Assistance Sri Ramlal Hansraj Golchha Biratnagar (Nepal) V.S. 2031 Kartic Kșishna 13 2500th Nirvaņa Day Pages 1100 Rs. 85 - Printers : S. Narayan & Sons (Printing Press) 7117/18, Pahari Dhiraj. Delhi-6 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुग्वं ॥ जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से । विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं । सज्झाय - सज्झाग - रयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुग्वं ॥ जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सध्यान लीन चिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से। पवाहिया जेण सुयस्स घारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥ जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत - सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुम-निकुंज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया। अत: मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी वनाना चाहता है, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में बह संविभाग इस प्रकार है संपादक: सहयोगी : पाठ-संशोधन : मुनि नथमल मुनि दुलहराज मुनि सुदर्शन मुनि मधुकर मुनि हीरालाल संविभाग हमारा धर्म है । जिन-जिनने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूँ कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने । आचार्य तुलसी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय सन् १९६७ की बात है । आचार्यश्री बम्बई में विराज रहे थे। मैंने कलकत्ता से पहुँचकर उनके दर्शन किए। उस समय श्री ऋषभदासजी रांका, श्रीमती इन्दु जैन, मोहनलालजी कठौतिया आदि आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित थे और 'जैन विश्व भारती' को बम्बई के आस-पास किसी स्थान पर स्थापित करने पर चिन्तन चल रहा था । मैंने सुझाव रखा कि सरदारशहर में 'गांधी विद्या मन्दिर' जैसा विशाल और उत्तम संस्थान है। 'जैन विश्व भारती' उसी के समीप सरदारशहर में ही क्यों न स्थापित की जाये ? दोनों संस्थान एक दूसरे के पूरक होंगे। सुझाव पर विचार हुआ। श्री कन्हैयालालजी दूगड़ ( सरदारशहर ) को बम्बई बुलाया गया । सारी बातें उनके सामने रखी गई और निर्णय हुआ कि उनके साथ जाकर एक बार इसी दृष्टि से 'गांधी विद्या मन्दिर' संस्थान को देखा जाए। निश्चित तिथि पर पहुंचने के लिए कलकत्ता से श्री गोपीचन्दजी चोपड़ा और में तथा दिल्ली से श्रीमती इन्दु जैन, लादूलालजी आच्छा सरदारशहर के लिए रवाना हुए। श्री कन्हैयालालजी दूगड़ दिल्ली से हम लोगों के साथ हुए | श्री रांकाजी बम्बई से पहुंचे । सरदारशहर में भावभीना स्वागत हुआ। श्री दूगड़जी ने 'गांधी विद्या मन्दिर' की प्रबन्ध समिति के सदस्यों को भी आमन्त्रित किया । 'जैन विश्व भारती' में स्थापित करने के विचार का उनकी ओर से भी हार्दिक स्वागत किया गया । सरदारशहर सरदारशहर 'जैन विश्व भारती' के लिए उपयुक्त स्थान लगा । आगे के कदम इसी ओर बढ़े । आचार्यश्री संतगण व साध्वियों के वृन्द सहित कर्नाटक में नंदी पहाड़ी पर आरोहण कर रहे थे । आचार्यश्री ने बीच में पैर थामे और मुझ से बोले "जैन विश्वभारती के लिए प्रकृति की ऐसी सुन्दर गोद उपयुक्त स्थान है । देखो, कंसा सुन्दर शान्त वातावरण है ।" 'जैन विश्व भारती' की योजना को कार्य रूप में आगे बढ़ाने की दृष्टि से समाज के कुछ और विचारशील व्यक्ति भी नंदी पहाड़ी पर आए थे। श्री कन्हैयालालजी दूगड़ भी थे । प्रतिक्रमण के बाद का समय था । पहाड़ी की तलहटी में दीपक और आकाश में तारे जगमगा रहे थे । आचार्यश्री गिरि-शिखर पर कांच महल में पूर्वाभिमुख होकर विराजित थे। मैं उनके सामने बैठा था । वचनबद्ध हुआ कि यदि 'जैन विश्व भारती' सरदारशहर में स्थापित होती तो उसके लिए मैं अपना जीवन लगाऊंगा । उस समय 'जैन विश्व भारती' की जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के एक विभाग के रूप में परिकल्पना की गई थी। महासभा ने स्वीकार किया और Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं उसका संयोजक चूना गया। सरदारशहर में स्थान के लिए श्री कन्हैयालालजी दूगड़ और मैं प्रयत्नशील हुए । आचार्यश्री ऊटी (उटकमण्ड) पधारे। वहां महासभा के सभापति श्री हनुमानमलजी बंगाणी तथा अन्य पदाधिकारी भी उपस्थित थे। जैन विश्व भारती की स्थापना प्राकृतिक दृष्टि से साधना के अनुकूल रम्य और शान्त स्थान में होने की बात ठहरी। इस तरह नंदी गिरि की मेरी प्रतिज्ञा से मैं मुक्त हुआ, पर मन ने मुझे कभी मुक्त नहीं किया। आखिर 'जैन विश्व भारती' की मातृ-भूमि बनने का सौभाग्य सरदारशहर से ६६ मील दूर लाडन (राजस्थान) को प्राप्त हुआ, जो संयोग से आचार्यश्री का जन्म-स्थान भी है। आचार्यश्री ने आगम-संशोधन का कार्य सं० २०११ को चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को हाथ में लिया । कुछ समय बाद उज्जैन में दर्शन किए। सं० २०१३ में लाइन में आचार्य श्री के दर्शन प्राप्त हुए। कुछ ही दिनों बाद सुजानगढ़ में दशवकालिक सूत्र के अपने अनुवाद के दो फार्म अपने ढंग से मुद्रित कराकर सामने रखे । आचार्यश्री मुग्ध हुए। मुनिश्री नथमलजी ने फरमाया-“ऐसा ही प्रकाशन ईप्सित है।" आचार्यश्री की वाचना में प्रस्तुत आगम वैशाली से प्रकाशित हो, इस दिशा में कदम आगे बढ़े। पर अन्त में प्रकाशन कार्य महासभा से प्रारम्भ हुआ। आगम-सम्पादन की रूपरेखा इस प्रकार रही १. आगम-सुत्त ग्रन्थमाला : मूलपाठ, पाठान्तर, शब्दानुक्रम आदि सहित आगमों का प्रस्तुतीकरण । २. आगम-अनुसन्धान ग्रन्थमाला : मूलपाठ, संस्कृत छाया, अनुवाद, पद्यानुक्रम, सूत्रानुक्रम तथा मौलिक टिप्पणियों सहित आगमों का प्रस्तुतीकरण । ३. आगम-अनुशीलन ग्रन्थमाला : आगमों के समीक्षात्मक अध्ययनों का प्रस्तुतीकरण । ४. आगम-कथा ग्रन्थमाला : आगमों से सम्बन्धित कथाओं का संकलन और अनुवाद । ५. वर्गीकृत-आगम ग्रन्थमाला : आगमों का संक्षिप्त वर्गीकृत रूप में प्रस्तुतीकरण । महासभा की ओर से प्रथम ग्रंथमाला में-(१) दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि, (२) आयारो तह आयारचूला, (३) निसीहभायणं, (४) उववाइयं और (५) समवाओ प्रकाशित हुए । रायपसेणइयं एवं सूयगडो (प्रथम श्रुतस्कन्ध) का मुद्रण-कार्य तो प्रायः समाप्त हुआ पर वे प्रकाशित नहीं हो पाए । दूसरी ग्रन्थमाला में--(१) दसवेआलियं एवं (२) उत्तरज्झयणाणि (भाग १ और भाग २) प्रकाशित हुए । समवायांग का मुद्रण कार्य प्राय: समाप्त हुआ पर प्रकाशित नहीं हो पाया। तीसरी ग्रंथमाला में दो ग्रंथ निकल चुके हैं : (१) दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन और (२) उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ चौथी ग्रंथमाला में कोई ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ। पांचवीं ग्रंथमाला में दो ग्रंथ निकल चुके हैं : (१) दशवकालिक वर्गीकृत (धर्म-प्रज्ञप्ति ख. १) और (२) उत्तराध्ययन वर्गीकृत (धर्म-प्रज्ञप्ति ख. २)। उक्त प्रकाशन-कार्य में सरावगी चेरिटेबल फण्ड, कलकत्ता (ट्रस्टी रामकुमारजी सरावगी, गोविंदलालजी सरावगी एवं कमलनयनजी सरावगी) का बहुत बड़ा अनुदान महासभा को रहा। अनुदान स्वर्गीय महादेवलालजी सरावगी एवं उनके पुत्र पन्नालालजी सरावगी की स्मृति में प्राप्त हुआ था। भाई पन्नालालजी के प्रेरणात्मक शब्द तो आज भी कानों में ज्यों-के-त्यों गूंज रहे हैं"धन देने वाले तो मिल सकते हैं, पर जो इस प्रकाशन-कार्य में जीवन लगाने का उत्तरदायित्व लेने को तैयार हैं, उनकी बराबरी कौन कर सकेगा ?" उन्हीं तथा समाज के अन्य उत्साहवर्धक सदस्यों के स्नेह-प्रदान से कार्य-दीपक जलता रहा। कार्य के द्वितीय चरण में श्री रामलालजी हंसराजजी गोलछा (विराटनगर) ने अपना उदार हाथ प्रसारित किया। आचार्यश्री की वाचना में सम्पादित आगमों के संग्रह और मुद्रण का कार्य अब 'जैन विश्व भारती' के अंचल से हो रहा है। प्रथम प्रकाशन के रूप में ११ अंगों को तीन खण्डों में 'अंगसूताणि' के नाम से प्रकाशित किया जा रहा है : प्रथम खण्ड में आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय-ये प्रथम चार अंग हैं। दुसरे खण्ड में भगवती–पाँचवाँ अंग है। तीसरे खण्ड में ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण और विपाक-ये ६ अंग हैं। इस तरह ग्यारह अंगों का तीन खण्डों में प्रकाशन 'आगम-सुत्त ग्रंथमाला' की योजना को बहुत आगे बढ़ा देता है। ठाणांग सानुवाद संस्करण का मुद्रण-कार्य भी द्रुतगति से हो रहा है और वह आगमअनुसन्धान ग्रंथमाला के तीसरे ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत होगा। केवल हिन्दी अनुवाद के संस्करण के रूप में 'दशवकालिक और उत्तराध्ययन' का प्रकाशन हुआ है; जो एक नई योजना के रूप में है। इसमें सभी आगमों का केवल हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने का निर्णय है। दशवकालिक एवं उत्तराध्ययन मूल पाठ मात्र को गुटकों के रूप में दिया जा रहा है। 'जैन विश्व भारती' की इस अंग एवं अन्य आगम प्रकाशन योजना को पूर्ण करने में जिन महानुभावों के उदार अनुदान का हाथ रहा है, उन्हें संस्थान की ओर से हार्दिक धन्यवाद है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रण-कार्य में एस० नारायण एण्ड संस प्रिटिंग प्रेस के मालिक श्री नारायणसिंह जी का विनय, श्रद्धा, प्रेम और सौजन्य से भरा जो योग रहा उसके लिए हम कृतज्ञता प्रगट किए बिना नहीं रह सकते। मुद्रण-कार्य को द्रुतगति देने में श्री देवीप्रसाद जायसवाल (कलकत्ता) ने रात-दिन सेवा देकर जो सहयोग दिया, उसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। इस सम्बन्ध में श्री मन्नालाल जी जैन (भूतपूर्व मुनि) को समर्पित सेवा भी स्मरणीय है। इस अवसर पर मैं आदर्श साहित्य संघ के संचालकों तथा कार्यकर्ताओं को भी नही भूल सकता। उन्होंने प्रारम्भ से ही इस कार्य के लिए सामग्री जुटाने, धारने तथा अन्यान्य व्यवस्थाओं को क्रियान्वित करने में सहयोग दिया है। आदर्श साहित्य संघ के प्रबन्धक श्री कमलेश जी चतुर्वेदी सहयोग में सदा तत्पर रहे हैं, तदर्थ उन्हें धन्यवाद है। 'जैन विश्व भारती' के अध्यक्ष श्री खेमचन्दजी सेठिया, मंत्री श्री सम्पत्तरायजी भूतोडिया तथा कार्य समिति के अन्यान्य समस्त बन्धुओं को भी इस अवसर पर धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता, जिनका सतत सहयोग और प्रेम हर कदम पर मुझे बल देता रहा। इस खण्ड के प्रकाशन के लिए विराटनगर (नेपाल) निवासी श्री रामलालजीहंसराजजी गोलछा से उदार आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ है, इसके लिए संस्थान उनके प्रति कृतज्ञ है। सन १९७३ में मैं जैन विश्व-भारती के आगम और साहित्य प्रकाशन विभाग का निदेशक चुना गया। तभी से मैं इस कार्य की व्यवस्था में लगा । आचार्यश्री यात्रा में थे। दिल्ली में मद्रण की व्यवस्था बैठाई गई। कार्यारंभ हुआ, पर टाइप आदि की व्यवस्था में विलंब होने से कार्य में द्रुतगति नहीं आई। आचार्यश्री का दिल्ली पधारना हुआ तभी यह कार्य द्रुतगति से आगे बढ़ा । स्वल्प समय में इतना आगमिक साहित्य सामने आ सका उसका सारा श्रेय आगम संपादन के वाचनाप्रमुख आचार्यश्री तुलसी तथा संपादक-विवेचक मुनि श्री नथमलजी को है। उनके सहकर्मी मुनि श्री सुदर्शनजी, मधुकरजी, हीरालालजी तथा दुलहराजजी भी उस कार्य के श्रेयोभागी हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचारी का एक कर्तव्य समिधा एकत्रित करना होता है । मैंने इससे अधिक कुछ और नहीं किया। मेरी आत्मा हर्षित है कि आगम के ऐसे सुन्दर संस्करण 'जैन विश्व भारती' के प्रारंभिक उपहार के रूप में उस समय जनता के कर-कमलों में आ रहे हैं, जबकि जगत्वंद्य श्रमण भगवान महावीर की २५००वीं निर्वाण तिथि मनाने के लिए सारा विश्व पुलकित है। ४६८४, अंसारी रोड़ २१, दरियागंज दिल्ली-६ श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन अन विश्व-भार तो Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारो सम्पादकीय आचारांग का जो पाठ हमने स्वीकार किया है, उसका आधार कोई एक आदर्श नहीं है । हमने पाठ का स्वीकार प्रयुक्त आदर्शी, चूर्ण और वृत्ति के संदर्भ में समीक्षापूर्वक किया है। 'आयारों' के प्रथम अध्ययन के दूसरे उद्देशक के तीन सूत्र ( २७ - २६) शेष पांच उद्देशकों में भी प्राप्त होते हैं । पाठ-संशोधन में प्रयुक्त आदर्शों तथा आचारांग वृत्ति में यह प्राप्त नहीं है । आचारांग चूर्णि में 'लज्जमाणा पुढो पास' (आयारो, ११४०) सूत्र से लेकर 'अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए' (आयारी, ११५३) तक ध्रुवकण्डिका ( एक समान पाठ) मानी गई हैं' । चूर्ण में प्राप्त संकेत के आधार पर हमने द्वितीय उद्देशक में प्राप्त तीन सूत्र ( २७ - २६ ) शेष पांचों उद्देशकों में स्वीकृत किए हैं। आठवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक (सू० २१ ) की चूर्णि' में 'कुंभारायतणंसि वा' के स्थान पर अनेक शब्द उपलब्ध होते हैं, जैसे- 'उवट्टणगिहे वा, गामदेउलिए वा, कम्मगारसालाए वा, तंतुवायगसालाए वा, लोहगारसालाए वा ।' चूर्णिकार ने आगे लिखा है- 'जचियाओ साला सव्वाओ भाणियव्वाओ' ।' यहां प्रतीत होता है कि 'कुंभारायतणंसि वा' शब्द अन्य अनेक शाला या गृहवाची शब्दों से युक्त था, किन्तु लिपि-दोष के कारण कालक्रम से शेष शब्द छूट गए। चूर्णि के आधार पर पाठ-पद्धति का निश्चय करना संभव नहीं था इसलिए उसे मूलपाठ में स्वीकृत नहीं किया गया । हमने संक्षिप्त पाठ की पूर्ति भी की है। पाठ-संक्षेप की परम्परा श्रुत को कंठाग्र करने की पद्धति और लिपि की सुविधा के कारण प्रचलित हुई। पं० वेचरदास दोशी ने ८-१२-६६ को आचार्यश्री तुलसी के पास एक लेख भेजा था । उसमें इस विषय पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने १. देखें-- आयारो, पृ० ७ पादटिप्पण ७ ० ६ पादटिप्पण ३०; पृ० १० पादटिप्पण १ पृ० १२ पादटिप्पण १ .०१४ पादटिप्पण ८ २. प्राचारांग चूर्णि, पृ० २६० २६१ । पृ० ११ पादटिप्पण ६; पृ० १३ पादटिप्पण ५; ० ९५ पादटिप्पण १; ३. वही, पृ० २६१ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा है-'प्राचीन जैन-श्रमण लिखने-लिखाने की प्रवृत्ति को आरंभ-रूप समझते थे, फिर भी शास्त्रों की रक्षा के लिए उन्होंने लिखने-लिखाने के आरंभ-रूप मार्ग को भी अपवाद समझकर स्वीकार किया ! पर जितना कम लिखना पडे, उतना अच्छा, ऐसा समझकर उन्होंने शास्त्र की रक्षा के लिए ही, हो सके वहां तक कम आरंभ करना पड़े, ऐसा रास्ता शोधने का जरूर प्रयास किया। इस रास्ते की शोध से 'वण्णओं' और 'जाव' दो नए शब्द उनको मिले । इन दो शब्दों की सहायता से हजारों श्लोक व सैकडों वाक्य कम लिखने से उनका आरंभ कम हो गया और शास्त्र के आशय में भी किसी प्रकार की न्यूनता नहीं हुई।' श्रुत को कंठस्थ करने की पद्धति, लिपि की सुविधा और कम लिखने की मनोवृत्ति-पाठसक्षेप के ये तीनों कारण संभाव्य हैं । इनसे भले ही आशय की न्यूनता न हुई हो, किन्तु ग्रंथ-सौन्दर्य अवश्य न्यून हुआ है। पाठक की कठिनाइयां भी बढ़ी हैं। जिन मुनियों के समग्र आगम-साहित्य कण्ठस्थ था, वे 'जाव' या 'वण्णग' द्वारा संकेतित पाठ का अनुसंधान कर पूर्वापर की सम्बन्ध-योजना कर सकते हैं। किन्तु प्रतिलिपियों के आधार पर पढ़ने वाला मुनि-वर्ग ऐसा नहीं कर सकता। उसके लिए 'जाव' या 'वष्णग' द्वारा संकेतित पाठ बहुत लाभदायी सिद्ध नहीं हुआ है। इसका हम प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। इसी कठिनाई तथा ग्रन्थ-सौंदर्य की दृष्टि से हमारे वाचना-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी ने चाहा कि संक्षेपीकृत पाठ की पुनः पूर्ति की जाए। हमने अधिकांश स्थलों में संक्षिप्त पाठ की पूर्ति की है। उसकी सूचना के लिए बिन्दु-संकेत दिया गया है । आयारो तथा आयार-चूला के पूर्ति-स्थलों के निर्देश की सूचना प्रथम परिशिष्ट में दी गई है। पं० बेचरदास दोशी के अनुसार पाठ संक्षेपीकरण देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने किया था। उन्होंने लिखा है—'देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने आगमों को ग्रंथ-बद्ध करते समय कुछ महत्वपूर्ण बातें ध्यान में रखीं। जहां-जहां शास्त्रों में समान पाठ आए वहां-वहां उनकी पुनरावत्ति न करते हए उनके लिए एक विशेष ग्रन्थ अथवा स्थान का निर्देश कर दिया। जैसे----'जहा उवधाइए' 'जहा पण्णवणाए' इत्यादि। एक ही ग्रन्थ में वही बात बार-बार आने पर उसे पुनः पुनः न लिखते हए 'जाव' शब्द का प्रयोग करते हुए उसका अन्तिम शब्द लिख दिया। जैसे--'णागकुमारा जाव विहरन्ति', 'तेण कालेणं जाव परिसा णिग्गया' इत्यादि। इस परम्परा का प्रारंभ भले ही देवद्धिगणि ने किया हो, किन्तु इसका विकास उनके उत्तरवर्ती काल में भी होता रहा है। वर्तमान में उपलब्ध आदशों में संक्षेपीकृत पाठ की एकरूपता नहीं है। एक आदर्श में कोई सूत्र संक्षिप्त है तो दूसरे में वह समग्र रूप से लिखित है । टीकाकारों ने स्थान-स्थान पर इसका उल्लेख भी किया है। उदाहरण के लिए औपपातिक सूत्र में "अयपायाणि वा जाव अण्णयराई वा" तथा 'अयबंधणाणि वा जाव अण्णयराई वा'--ये दो पाठांश मिलते हैं। वत्तिकार के सामने जो मुख्य आदर्श थे, उनमें ये दोनों संक्षिप्त रूप में थे, किन्तु दूसरे आदर्शों में ये १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ० ८१। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समग्र रूप में भी प्राप्त थे । वृत्तिकार ने इसका उल्लेख किया है। लिपिकर्ता अनेक स्थलों में अपनी सुविधानुसार पूर्वागत पाठ को दूसरी बार नहीं लिखते और उत्तरवर्ती आदर्शों में उनका . अनुसरण होता चला जाता । उदाहरण स्वरूप---रायपसेणइय सूत्र में 'सविढीय अकालपरिहीणा' (स्वीकृत पाठ-हीण) ऐसा पाठ मिलता है। इस पाठ में अपूर्णता-सूचक संकेत भी नहीं है। 'सव्विड्डीए' और 'अकालपरिहीणं' के मध्यवर्ती पाठ की पूर्ति करने पर समग्र पाठ इस प्रकार बनता है'सव्विड्डीए सव्वजुत्तीए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सम्वविभूसाए सब्व विभूइए सव्वसंभमेणं सव्वपुप्फ वत्थ-गंध-मल्लालंकरण सम्वदिव्वतुडियसहसन्निवाएणं महया इड्ढीए महया जुइए महया बलेणं मह्या समुदएणं महया वरतुडियजमगसमयपदुप्पवाइयरवेणं संख-पणव-पडह-भेरि-मल्लरिखरमुहि-हुहुक्क-मुरय-मुइंग-दुंदुभि-निग्धोस-नाइयरवेणं णियग परिवाल सद्धि संपरिबुडा साइं-साई जागविमाणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं ।' आयार-चूला ५११४ में ‘महद्धणमोल्लाई' तथा १५११६ में ‘महव्वए' के आगे भी अपूर्णता सूचक संकेत नहीं हैं। प्रमादवश कहीं-कहीं अपूर्णता सूचक 'जाव' का विपर्यय भी हुआ है, यथा--- फास्यं..""""""लाभे संते जाव पडिगाहेज्जा । (आयारचूला १११०१) बहकंटगं...........""लाभे संते जाव णो........... ! (आयारचूला १११३४) समर्पण-सूत्र-- संक्षिप्त पद्धति के अनुसार आयार वूला में समर्पण के अनेक रूप मिलते हैंजाव-अकिरियं जाब अभूतोवघाइयं (४.११) तहेव - अक्कोसंति वा तहेव तेल्लादि सिणाणादि सीओदगवियडादि णिगिणाइ य (७११६-२०) अतिरिच्छच्छिन्नं तहेव तिरिच्छच्छिन्नं तहेव (७।३४,३५) एवं—एवं णायव्वं जहा सद्दपडियाए सव्वा वाइत्तवज्जा रुवपडियाए वि (१२।२-१७) जहा---पाणाई जहा पिंडेसणाए (५५५) संख्या--थूणंसि वा (४) (७।११) असणं वा (४) (१११२) से भिक्खू वा २ १. औपपातिक वृत्ति, पन १७७ : पुस्तकान्तरे समग्रमिदं सूत्रद्वयमस्त्येदेति । २. देखे--पं० बेचरदास दोशी द्वारा संपादित 'रायपसेणइयं, पृष्ठ ७३ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं चेव-तं चेव भाणियब्वं वरं च उत्याए जाणतं (१११४६-१५४) सेसं तं चेव एवं ससरक्खे (१९६५) हेट्ठिमो--एवं हेट्ठिमो गमो पायादि भाणियन्वो (१३।४०-७५) आचारांग का वाचना-भेद समवायांग में आचारांग की अनेक वाचनाओं का उल्लेख मिलता है। वाचना का अर्थ है-अध्यापन या सूत्र और अर्थ का प्रदान | संक्षिप्त वाचना-भेद अनेक मिलते हैं, किन्तु वर्तमान में मुख्य दो वाचनाएं प्राप्त हैं- एक प्रस्तुत-वाचना और दूसरी नागार्जुनीय-वाचना। चूणि और टीका में नागार्जुनीय वाचना-सम्मत्त पाठों का उल्लेख किया गया है। देखें--'आयारों' पृष्ठ २० पादटिप्पण संख्यांक १०, पृष्ठ २१ पादटिप्पण संख्यांक २, पृष्ठ ३० पाद टिप्पण संख्यांक २, पृष्ठ ३१ पादटिप्पण संख्यांक ७, पृष्ठ ३५ पादटिप्पण संख्यांक ५, पृष्ठ ५४ पादटिप्पण संख्यांक १, पृष्ठ ४० पादटिप्पण संख्यांक १, पृष्ठ ५० पादटिप्पण संख्यांक १, पृष्ठ ५२ पादटिप्पण संख्यांक ६ और ८, पृष्ठ ५४ पादटिप्पण संख्यांक ६, पृष्ठ ५५ पादटिप्पण संख्यांक ८, पृष्ठ ६६ पादटिप्पण संख्यांक २, पृष्ठ ७३ पादटिप्पण संख्यांक १, पृष्ठ ७५ पादटिप्पण संख्यांक ४ । आचारांग के उद्धृत पाठ-- उत्तरवर्ती अनेक ग्रंथों में आचारांग के पाठ उद्धृत किए गए हैं। अपराजितसूरि ने मूलाराधना की टीका में आचारांग के कुछ पाठ उद्धृत किए हैं। शोध करने पर ऐसा ज्ञात हआ है कि कई पाठ आचारांग में नहीं हैं, कई पाठ शब्द-भेद से और कई पाठ आंशिक रूप में मिलते हैं। तुलनात्मक अध्ययन की दष्टि से दोनों के पाठ नीचे दिए जा रहे हैं आचारांग मूलाराधना तथा चोक्तमाचाराङ्ग:सुदं मे आउस्सन्तो भगत्रदा एव मक्खादं । इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थी पुरिसा जादा भवंति । तं जहा-सव्व समण्णा गदे णो सब्द समागदे चेव । तत्थ जे सव्व समपणागदे थिराग हत्थ पाणि पादे सव्विदिय समण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थं धारि १. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू० १३६ । २. मूलाराधना ४।४२१, टीका पन ६१२। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं परिहिउं एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण । अह पुण एवं जाणिज्जा-उपातिकते हेमंते गिम्हे सुपडिवणे से अथ पडिजुण्णमुवधि पदिट्ठावेज्ज। --४।४२१ टीका, पत्र ६११ अह पुण एवं जाणेज्जा--उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवण्णे अहापरिजुन्नाइं वत्थाइ परिवेज्जा। आयारो ६।५०, ६६, ७२ । पडिलेहर्ण, पादपंछणं, उग्गहें कडासणं अण्णदरं उधि पावेज्ज । -४।४२१ टीका, पत्र ६११ वत्थं पडिग्गहं कंबल, पायछणं उग्गहं च कडासणं एतेसु चेव जाणेज्जा । आयारो २।११२ । तथावत्थेसणाए-वृत्तं तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं, तत्थ एसे जुग्गिदे देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं तत्थ एसे परिसाइं अणधिहासस्स तओ वत्थाणि धारेज्ज पडिलेहणं चउत्थं । -.४१४२१ टीका, पत्र ६११ जे णिग्गंथे तरुणे जगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारेज्जा णो बितियं 1 आयारचूला ५२। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा अभिकखेज्जा पायं एसित्तए। तथा पाएसणाए कथितंहिरिमणे वा जुग्गिदे चाविअण्णगे वा तस्स ण कप्पदि वस्थादिकं पुनश्चोक्तं सत्रैव-पादचरित्तए। आलावु पत्तं वा दारुग पत्तं वा मट्रिगपत्तं वा, अप्पाणं अप्पबीजं अप्पसरिदं तथा अप्पकारं पत्तलाभे सति पडिग्गहिस्सामि । ४।४२१ टीका, पत्र ६११ तं जहा–अलाउपायं वा दारुपायं वा, मट्टिया पायं वा तहप्पगार पायं ।--- (आयारचूला ६।१) फासुपं एसणिज्ज ति मण्णमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा। आयारचूला ६.२२ भावनायां चोक्तं-- चरिमं चीवरधारी तेण परम चेलके तु जिणे। ४।४२१ टीका, पत्र ६११ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति परिचय (अ.) आचारांग (दानों श्रु तस्कंध) यह प्रति जैन-भवन, कलाकार स्ट्रीट, कलकत्ता-७ की श्री श्रीचन्द जी रामपुरिया द्वारा प्राप्त है। इसके पत्र १८५ हैं। प्रत्येक पत्र १०३ इंच लम्बा तथा ४३ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पत्र में १-२७ तक पंकियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में ४०-४५ तक अक्षर हैं। पत्र के चारों ओर वत्ति लिखी हुई है। प्रति सुन्दर व कलात्मक है। संवत् आदि नहीं है। (क.) आचारांग मूलपाठ दोनों श्रु तस्कन्ध यह प्रति गधैया पुस्तकालय, सरदारशहर से श्री मदनचन्द जी गोठी द्वारा प्राप्त है। इसके पत्र ६७ हैं। प्रत्येक पत्र १० इंच लम्बा तथा ४ इंच चौड़ा है। पंक्तियां १३ हैं। प्रत्येक पंक्ति में ५०-५२ तक अक्षर हैं। प्रति के अंत में लिखा हैं---- संवत् १६७६ वर्षे आषाढ सुदि द्वितीय ४ भौम । श्री मालान्वये राक्याणगोत्रे सं० जटमल पुत्र सं० वेणीदास पुस्तक प्रदत्तं श्री मद्नागपुरीय तपागच्छ सं० श्रीमानकोतिसूरि शिष्य माधव ज्योतिविद् । अंत के अक्षर किसी अन्य व्यक्ति के मालूम होते हैं। प्रति के बीच में बावडी तथा तीन बड़े-बड़े लाल टीके हैं। (ख.) आचारांग टब्बा (प्रथम श्रुतस्कन्ध) यह प्रात गधैया पुस्तकालय से गोठी जी द्वारा प्राप्त है। इसके ४६ पत्र हैं। पंक्तियां पाठ की ७ तथा टब्बे की १४ हैं। प्रत्येक पत्र १० इंच लम्बा तथा ४ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पंक्ति में ४२ से ४५ तक पाठ के अक्षर हैं । अन्तिम प्रशस्ति निम्नोक्त है-- संवत् १७३२ वर्षे श्रावणमासे कृष्णपक्षे पंचमी तिथौ गुरु वासरे। लिखितं पूज्य ऋषिश्री ५ अमराजी तशिष्येण लिपिकृतं मुनिविकी आत्मार्थो शुभं भवतु कल्याणमस्तु । सेहुरीया ग्रामे संपूर्ण मस्ति ।। (ग.) आचारांग (प्रथमश्र तस्कन्ध) पंच पाठी (बालावबोध) यह प्रति गधया पुस्तकालय से श्री गोठी जी द्वारा प्राप्त है। इसके १० पत्र हैं। प्रथम ३ तथा छठा पत्र नहीं है। प्रत्येक पत्र १० इंच लम्बा तथा ४१ इंच चौड़ा है। मूलपाठ को पंक्तियां ५ से १० तक हैं। अक्षर ३० से ३३ तक हैं। अन्तिम प्रशस्ति नहीं है। (घ.) आचारांग दोनों श्रुतस्कन्ध (जीर्ण) यह प्रति भारतीय संस्कृति विद्या-मन्दिर, अहमदाबाद से श्री गोठी जी द्वारा प्राप्त है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके ३७ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र १३॥ इंच लम्बा, ५ इंच चौड़ा है। पक्तियां १७ तथा प्रत्येक पंक्ति में ६० से ६५ तक अक्षर हैं । अन्तिम प्रशस्ति निम्नोक्त है--.. शुभं भवतु । कल्याणमस्तु ॥छ।। संवत् १५७३ वर्षे १० मंगलवार समत्तं ।।छ।। छ।। श्री 1 छ।। प्रति के दीमक लगने से अनेक स्थानों पर छिद्र होगए हैं। (च.) आचारांग मूलपाठ दोनों श्रु तस्कन्ध, यह प्रति भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई ज्ञान भंडार से मदनचन्दजी गोठी द्वारा प्राप्त हई है। इसके ७५ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में १३ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में ४० से ४७ तक अक्षर हैं। प्रत्येक पत्र १० इंच लम्बा तथा ४॥ इंच चौड़ा है। बीच में बावड़ी है। (छ.) आचारांग दोनों श्रुतस्कन्ध, वृत्ति सहित (त्रिपाठी) यह प्रति गधैया पुस्तकालय सरदारशहर से मोठीजी द्वारा प्राप्त है । इसके २६० पत्र हैं । प्रत्येक पत्र ११ इंच लम्बा तथा ४॥ इंच चौड़ा है मूलपाठ की पंक्तियां १ से १७ तथा ४५ से ४७ तक अक्षर हैं । अन्तिम प्रशस्ति निम्नोक्त हैं संवत् १८६६ वर्षे श्रावणशुक्लपक्षे सप्तम्यां तिथी श्रीविक्रमपुरमध्ये लिपिकृतं ।। श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । शुभं भूयादिति ॥ (ब.) आचारांग द्वितीय श्रु तस्कन्ध टब्बा (पंचपाठी) यह प्रति गधया पुस्तकालय सरदारशहर से मदनचन्दजी गोठी द्वारा प्राप्त हुई है। इसके ८४ पत्र हैं । प्रत्येक पत्र १०३ इंच लम्बा तथा १०३ इंच चौड़ा है। मूलपाठ की पंक्तियां ४ से १३ हैं। प्रत्येक पंक्ति में २५ से ३३ तक अक्षर हैं। बीच-बीच में बावड़ियां हैं। अन्तिम प्रशस्ति निम्तोक्त है-- संवत् १७५२ वर्षे भादपदमामे पंचम्यां तिथी ओरस गच्छे भट्टारक श्रीकक्चसूरि तत्पट्टे वर्तमान भट्टारकदेव गुप्तसूरिभिहीता नागोरी तपागच्छीय पं० श्री दयालदास पार्वान् पंचचत्वारिंशत् ४५ वर्षात्तरात महतोद्यमेन । (व), (वृपा) मुद्रित, प्रकाशिका~-श्रीसिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति विक्रम संवत् १६६१ । (च), (चूपा) मुद्रित-श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी, रतलाम, वि १६६८ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सूयगडो हमने सूत्रकृत का पाठ किसी एक आदर्श को मान्य कर स्वीकार नहीं किया है। उसका स्वीकार पाठ संशोधन में प्रयुक्त आदर्शों, पूर्णि तथा वृति के पाठों के तुलनात्मक अध्ययन तथा समीक्षापूर्वक किया गया है। प्राचीनकाल में लिखने की पद्धति बहुत कम थी प्रायः सुरक्षित रहते थे इसीलिए घोषशुद्धि (उच्चारणशुद्धि) को शिष्यों की घोषशुद्धि करना आचार्य का एक कर्तव्य था है'' घोषशुद्धि कारक होता आचार्य की एक संपदा है' की सुरक्षा के लिए विशेष प्रकार की व्यवस्था थी मिलती है। ज्ञानाचार के आठ प्रकार बतलाए गए हैं । उनमें तीन आचारों का उक्त व्यवस्था से सम्बन्ध है । वे ये हैं १. व्यंजन-सूत्रपाठ की भाषा, मात्रा, बिन्दु और शब्दों को यथावत् बनाए रखना । २. अर्थ --सूत्र के आशय को यथावत् बनाए रखना । ३. व्यंजन-अर्थ-सूत्र और अर्थ-दोनों को मौलिक रूप में सुरक्षित रखना । चूर्णिकार ने उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है- धम्मो मंगनमुक्किट्ठे-यह प्राकृत भाषा है। इसका 'धर्मो मंगलमुत्कृष्टम्' इस प्रकार संस्कृत में पाठ करना भाषागत व्यंजनातिचार हैं। 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्वामि इसकी मात्रा बदलकर जैसे पञ्चकखामि', उच्चारण करना मात्रागत व्यंजनातिचार है । णमो अरहंताण' इस प्रकार प्राप्त बिन्दु को छोड़कर उच्चारण करना, प्रकार 'र' के साथ अप्रात बिन्दु का उच्चारण करना-यह विन्दुगत व्यंजनातिचार है। १. दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ४ । २. निजीभाव्य रामा ८ भाग १ ० ६ काले विषये बहुमाने वधाने तहा अणिच्हणे । वंजण अत्थतदुभए, अट्ठविधो णाणमायारो ॥ सभी ग्रन्थ कंठस्थ परम्परा में बहुत महत्व दिया जाता था। साथ तस्कन्ध सूत्र में लिखा पाठ और अर्थ के मौलिक रूप छेदसूत्रों से उसकी पूर्ण जानकारी ' ३. वही, गाथा १७, भाग १, पृ० १२ ॥ सक्कयमत्ताबिंदू, प्रणाभिधाणेण वा वि तं प्रत्थं । जेति मंत्रणमिति अष्ण सुतं ॥ ४. निशीथभाष्य चूर्णि भाग १, ५०१२ । सामने जोगे अरहंताणं' का ' णमो णमो अरिहंताणं' इस Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ 'धम्मो मंगल मुक्कट्ठे अहिंसा संजमो वबो इनके मौलिक शब्दों को हटाकर वहां उनके पर्यायवाची शब्दों की योजना करना, जैसे--पुण्णं कल्लाणमुक्कसं, दयासंवरणिज्जरा । यह अन्याभिधान नामक व्यंजनातिचार है । सूत्र के अक्षर-पदों का हीन या अतिरिक्त उच्चारण करना अथवा उनका अन्यथा उच्चारण करना भी व्यंजनातिचार है। इस सारे विवरण का निष्कर्ष यह है कि सूत्रपाठ की भाषा, मात्रा, बिन्दु, शब्द, शब्दसंख्या और पाठ्यक्रम मौलिकता सुरक्षित रहनी चाहिए इस व्यवस्था के अतिक्रमण के लिए प्रायश्चित की व्यवस्था की गई। भाषा, मात्रा, बिन्दु आदि का परिवर्तन करने पर लघुमासिक प्रायश्चित प्राप्त होता है सूत्रपाठ को अन्यथा करने पर लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है'। चूर्णिकार ने विषय के उपसंहार में लिखा है-सूत्रभेद अर्थभेद, अर्थभेद से चरणभेद, चरणभेद से मोक्ष असंभव हो जाता है । वैसा होने पर दीक्षा आदि कर्म प्रयोजन- शून्य हो जाते है । इसलिए व्यंजन-भेद नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार अर्थभेद भी नहीं करना चाहिए । जो अर्थ अनुक्त और अघटित हो, वह नहीं करना चाहिए अर्थ का परिवर्तन करने पर गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित प्राप्त होता है। सूत्र और अर्थ दोनों का एक साथ परिवर्तन करने पर पूर्वोक्त दोनों प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं । * सूत्र और अर्थ के मौलिक स्वरूप के सुरक्षित रखने की दिशा में आगमों के रचनाकाल में चिन्तन प्रारंभ हो गया था। प्रस्तुत सूत्र में इसका स्पष्ट निर्देश है । ग्रन्थाध्ययन में मुनि को सावधान किया गया है कि वह सूत्र और अर्थ की अन्यरूप में योजना न करे । अथवा १. भाष्य गाव १८, चूर्णि भाग १, १०१२। २. निशी भाष्य गाथा १५, चूर्णि भाग १, पृ० १२ : सुतभेया प्रत्यमेओ । प्रत्यमेया चरणभेओ । चरणभेया ग्रमोक्खो मोक्खाभावा दिखादयो किरियाभेदा अफला भवन्ति । तम्हा वंजणभेदो ण कायब्वो । ३. निशी भाष्य चूर्णि भाग १ ० १३ ४. वही; Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ करें 1 उसका अन्यथा प्रतिपादन न इसकी व्याख्या में चूर्णिकार ने लिखा है--सूत्र को सर्वथा ही अन्यथा न करे अर्थ वही करे जो स्वसिद्धान्त से अविरुद्ध है। वृतिकार ने लिखा है' — सूत्र में स्वमति से न जोड़े अथवा सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे । उक्त विवरण से ज्ञात होता है कि सूत्र अर्थ के मौलिक स्वरूप की सुरक्षा का तीव्र प्रयत्न किया गया था । फलतः एक सीमा तक उसकी सुरक्षा भी हुई है। फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि उसमें परिवर्तन नहीं हुआ है। वह उसके कारण भी प्राप्त हैं। जैसे१. विस्मृति, २ लिपिपरिवर्तन, ३. व्याख्या का मूल में प्रवेश, ४. देश-काल का व्यवधान | शीलांकसूरि सूत्रकृतांग की वृत्ति लिख रहे थे तब उनके सामने उसके आदर्श और प्राचीन टीका -- दोनों विद्यमान थे । दूसरे अ तस्कन्ध के दूसरे अध्ययन के एक स्थल में आदर्शों में एक 'जैसा पाठ नहीं था और टीका में जो पाठ व्याख्यात था उसका संवादी पाठ किसी भी आदर्श में नहीं था इसलिए उन्होंने एक आदर्श को मान्य कर पचित अंश की व्याख्या की। । कुछ स्थानों पर हमने चूर्णि के पाठ स्वीकृत किए हैं। आदर्शों और वृत्ति की अपेक्षा से वे अधिक संगत प्रतीत होते हैं । २।६।४५ में 'जिहो णिसं' पाठ है। वह वृत्ति में 'णिवो णिसं' इस प्रकार व्याख्यात है । वहां हमने चूर्णि का पाठ स्वीकृत किया है।" पादटिप्पणों में हमने पाठ-परिवर्तन व उनके कारणों की चर्चा की है। वैदिक परम्परा में भी वेदों के मौलिक पाठ की सुरक्षा के लिए तीव्र प्रयत्न किए थे। किन्तु उनके पाठों में भी कालजनित अतिक्रमण हुए हैं। डा० विश्वबन्धु ने लिखा है ' - - "यह सर्वमान्य तथ्य है १. सुगडो, १।१४ २६ : श्री सुमत्यं च करेग्न ―― २. सूत्रकृतांगणि, पृ० २६६ : मसूलमन्यत् प्रद्वेषेण करोरन्यथा था, जहा रणो भनि उज्वलानो नामार्थः कुर्यात् जहा 'आयंती के अवंती - एके यावंती तं लोगो विप्परामसंति' सूत्रं सर्वचैवान्यथा न कर्त्तव्यं, अर्थविकल्पस्तु विषयः स्यात् । ३. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र २५८ : न च मन्यत् स्वमतिविकल्पनतः स्वपरत्राची कुर्वीतान्यथा वानं तदर्थं वा संसारात्त्रायताणशीलो जन्तूनां न विदधीत । ४. वही, पत्र ७६ । इह प्रायः वाद नानाविधानि सुवाणि दृश्यन्ते न च टीकायाप्यस्माभिरादर्शः समुपलम्योत एकमादर्श मंगीकृत्यास्माभिविवरणं क्रियते । ५. देखें- २२६१४५ का पादटिप्पण ६. अचिन भारतीय प्राच्यविद्या-सम्मेलन, चौवीसन अधिवेशन वाराणसी १९६० मुख्याध्यक्षीय भाषण, पृष्ठ ८, १ । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ कि लगभग ५ हजार वर्षों से इस देश में वैदिक ग्रन्धों के प्राचीन पाठों को उनके मौलिक शुद्ध रूप में सुरक्षित रखने के लिए उन्हें परम सावधानी और उत्कृष्ट श्रद्धा के साथ कण्ठस्थ करने का इतना घोर प्रयत्न होता रहा है कि जिसका किसी भी दूसरे देश के साहित्यिक इतिहास में उदाहरण नहीं है। किन्तु ऐसा होने पर भी, जैसा कि इस वैदिक अनुसन्धान के क्षेत्र में कार्य करने वाले हमारे पूर्ववर्ती विद्वानों को देखने में संयोगवश कुछ-कुछ और गत चालीस वर्षों के सतत शोध कार्य के मध्य में हमारे देखने में, विस्तृत रूप में आया है कि ये ग्रन्थ भी कालकृत विध्वंस और मानवकृत संक्रमण की अपूर्णता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । यदि ऐसा बहुधा होता तो सचमुच यह एक अविश्वसनीय चमत्कार ही होता।" कण्ठस्थ-परंपरा से चलने वाले तथा प्रलंब अवधि में लिपि-परिवर्तन के युग में संक्रमण करने वाले प्रत्येक ग्रन्थ के कुछ स्थल मौलिकता से इतस्ततः हुए हैं। प्रतिपरिचय (क) सूत्रकृतांग मूलपाठ ___ पह प्रति 'धेवर पुस्तकालय' सुजानगढ़ की है। इसकी पत्र संख्या ६४ व पृष्ठ संख्या १८८ है। प्रत्येक पत्र मे ११ पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में ३२ से ३७ तक अक्षर है। प्रति की लम्बाई ११॥ इंच व चौड़ाई ४॥ इच है । प्रति शुद्ध व बड़े अक्षरों में स्पष्ट लिखी हई है। यह प्रति संवत् १५८१ में लिखी हुई है। इसके अन्त में निम्न प्रशस्ति है।-- संवत् १५८१ वर्षे पत्तन नगरे श्री खरतरगच्छे श्री जिनवर्द्धनसूरि श्री जिनचन्द्रसूरि । श्री जिनसागरसूरि । श्री जिनसुन्दरसूरि पट्ट पूर्वाचल सहस्रकरावतार श्री जिनहर्षसूरिपट्टे श्री जिनचन्द्रसूरीणामुपदेशेन ऊकेशवशे साधुशाखायां । सो० जीवाभार्या श्रावारुपुत्ररत्न मो० महिवाल सो गांगाख्यो सा० तंत्र सो गांगा भार्या श्रा० धीरुपूत्र सो० पदमसी सो. हरिचंदविद्यमानपुत्र सो० शिवचन्द सो० देवचंद्राभ्या श्री एकादशांगी सूत्राणि अलेखिषत तत्रेदं श्री सूत्रकृतांगसूत्रं ! सम्पूर्ण: ॥श्री रस्तु।। (ख) सूत्रकृतांग बालावबोध प्रथमश्रुतस्कन्ध (त्रिपाठी) यह प्रति ‘गधैया पुस्तकालय' सरदाशहर की है । मध्य में पाठ व दोनों तरफ वातिका लिखी हुई है। इसके पत्र ४३ व पृष्ठ २६ हैं। प्रत्येक पत्र में पाठ की पंक्तियां ५-६ करीब *ब प्रत्येक पंक्ति में अक्षर ६०-६२ करीब हैं। प्रति की लम्बाई १०२ च व चौडाई ४१ इंच है। अनुमानतः यह प्रति १७वीं शताब्दि की लगती है। प्रति के अन्त में प्रशस्ति नहीं है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ (ग) सूत्रकृतांग द्वितीय बालावबोध (त्रिपाठी) यह प्रति 'वेवर पुस्तकालय' सुजानगढ़ की है। इसके पत्र ६५ व पृष्ठ १३० है । मध्य में पाठ व दोनों तरफ वार्तिका लिखी हुई है। प्रत्येक पत्र में पाठ की पंक्तियां ४ से १२ तक हैं व प्रत्येक में ४५ से ५० तक अक्षर हैं। प्रति की लम्बाई १० इंच व चौड़ाई ४३ इच करीब है । प्रति के अन्त में निम्न प्रशस्ति है- मूलपाठ प्रशस्ति--सूयगडस्स बीयं खंधो सम्मत्ते । श्री सुगडांग द्वितीय श्रुतस्कन्धः सूत्र संपूर्ण समाप्तः ॥ सुभं भवतु, कल्याणमस्तु । श्री रस्तुः ॥ ब ॥ ब | पंड्या भवान सूत मेघज्जी लक्षतं || बालावबोध प्रशस्ति---सूत्रकृतं आदितः सर्वमध्ययनं | २३ | श्री सारतशिष्येण पाशचन्द्रेण वृत्तित: वालावबोधार्थं द्वितीयांगस्यवात्तिकं सम्पूर्णः ॥ ब ॥ सुभ भवतुः । कल्याणमस्तुः श्रीरस्तु ॥ संवत् ॥ १६६३ वर्षे फागुणवदि बुधे प्रति सुगडांगनी पूरी कीधी प्रति ठीक है । ८ (क्व) सूत्रकृतांग बालावबोध पंचपाठी यह प्रति गधेया पुस्तकालय सरदारशहर से प्राप्त पत्र संख्या ६८ व पष्ठ १३६ । पाठ की पंक्तियां एक से १३ तक व प्रत्येक पंक्ति में ३४ से ३७ करीब अक्षर हैं। प्रति की लम्बाई १० इंच व चौड़ाई ४३ इंच करीब है। संवत् व प्रशस्ति नहीं है। आनुमानिक सं० १७वीं शदी । (क्व) सूत्रकृतांग (मूलपाठ) निर्युक्ति सहित यह प्रति 'गधेया पुस्तकालय' सरदारशहर से प्राप्त है। इसकी पत्र संख्या ४२ व पृष्ठ संख्या ८४ है । प्रत्येक पत्र में १६ पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में ५२ से ६३ तक अक्षर हैं । प्रति की लम्बाई १३ इंच व चौड़ाई ४ इंच है। प्रति के अन्त में निम्न प्रशस्ति हैसूयगडस्स निज्जुत्ती सम्मता । पद्मोपमं पत्रपरं परान्वितं वर्णोज्जलसूक्तमरदं सुन्दरं मुमुक्षुभृंगप्रकरस्यवल्लभं जीयाच्चिरं सुत्रकृदंग पुस्तकें ॥ संवत १५१२ वर्षे आसोज वदि दीपा || ऊसगच्छे भट्टारक श्रीकक्कसूरीणां ॥ विक्रमपुरे ॥ (वृ) सूत्रकृतांग वृत्ति (हस्तलिखित) यह प्रति 'गधेया पुस्तकालय' सरदारशहर की है। इसके पत्र ६० व पृष्ठ १८० हैं । प्रत्येक पत्र में १७ पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में ६० से ६७ के करीब अक्षर है। इसकी लम्बाई १० इंच व चौड़ाई ४ ॥ इंच है। प्रति सुन्दर व सूक्ष्म अक्षरों में लिखी हुई है। प्रति के अन्त में निम्न प्रशस्ति है शुभं भवतु संवत् १५२५ वर्षे श्री यवनपुर नगरे । श्रीखरतरगच्छे। श्रीजिनभद्रसूरियट्टालंकार श्री जिनचन्द्रसूरि विजयराज्ये । श्री कमल संयमे । महोपाध्यायैः स्ववाचनार्थ ग्रंथोय लेखितः Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीः॥ ब ॥श्रीः॥ श्री पदुमकी[पाठकेभ्यः पं० महिमसारगणिना प्रतिरियं प्रदत्ता स्वपुण्यार्थं ॥ (व०) सूत्रकृतांग वृत्ति मुद्रित श्री गोडीजी पार्श्वनाथ जैन देरासर पेढी। (चू०) सूत्रकृतांग चूणि मुद्रित श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्वर संस्था रतलाम । ठाणं प्राकृत में एक शब्द के अनेक रूप बनते हैं। आगमों में वे अनेक रूप प्रयुक्त भी हैं। आगम का संपादन करने वाले कुछ विद्वानों का यह आग्रह रहा है कि पाठ-संपादन में विभिन्न रूपों में एकरूपता लानी चाहिए। हमने पाठ-संपादन की इस पद्धति को मान्य नहीं किया है। यद्यपि प्रस्तुत सूत्र में 'नकार' और 'णकार' की एकता स्वीकार कर सर्वत्र ‘णकार' का ही प्रयोग किया है; पर रूप-भेदों में एकता लाने के सिद्धान्त का सर्वत्र उपयोग नहीं किया है। ३१३७३ में 'सुगती' और 'सुरगती'-ये दो रूप मिलते हैं। ३१३७५ में 'सोगता', 'सुगता' और 'सुग्गता-ये तीन रूप मिलते हैं। हमने उन्हें यथावत् रखा है। ग्रंथकार प्रयोग करने में स्वतन्त्र हैं। वे एकरूपता के नियम से बंधे हुए नहीं हैं, फिर संपादन कार्य में एकरूपता का प्रयत्न अपेक्षित नहीं लगता। आगमों में अनेक भाषाओं और वर्णादेशों के विविध प्रयोग मिलते हैं। उनमें एकरूपता लाने पर विविधता की विस्मृति की संभावना हो सकती है। 'वाएणं', 'कायसा'-ये दोनों रूप प्रयुक्त होते हैं। 'अंडजा' के 'अंडया' और 'अंडगा' तथा 'कर्मभूमिजा' के 'कम्मभूमिया' और 'कम्मभूमिगा'ये दोनों रूप बनते हैं। जिस स्थल में जो रूप प्राप्त हो उस स्थल में उसे रखना संपादन की त्रुटि नहीं है। प्रति परिचय (क) ठाणांग मूलपाठ (हस्तलिखित) गधैया पुस्तकालय, सरदारशहर से प्राप्त । इसके पत्र ७४ तथा पृष्ठ १४८ हैं। प्रत्येक पत्र में १२ पंक्तियां, प्रत्येक पंक्ति में ६० के करीब अक्षर हैं। यह प्रति १०॥ इंच लम्बी ४॥ इंच चौड़ी है । प्रति प्रायः शुद्ध है । लिपि संवत् १५६५ । प्रशस्ति में लिखा है शुभं भवतु ॥छ।। श्री खरतरगच्छे श्री सागरचन्द्राचार्यान्वये वा० दयासागरगणिभिः स्वशिष्य वा० ज्ञानमन्दिरगणिवाचनार्थं ग्रंथोऽयं लेखयांचक्र ।। संवत् १५६५ वर्षे जिनश्रीवर्धमानसंवत् २०३५ वर्षे चैत्रप्रयमाष्टम्यां श्री वोहिथिरागोत्रे मंत्रीश्वरवच्छराज नंदन प्रधान शिरोमणि मं० वरसिंहगेहिन्या मंत्रिणी वीऊलदेवी श्री विकया पुत्र मं० मेघराज मं० भोजराज मं० नगराज मं० हरिराज मं० अमरसिंह म० डूंगरसिंह पुत्रिका वीराई Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभृति पौत्रादि परिवारपरिवृतया मृपुण्यार्थं श्री ज्ञानभक्तिनिमित्तं श्री स्थानांग सूत्रवृत्तिसहितं लेखयित्वा बिहारितं श्रीखरतरगच्छे वृहतिथीवीकानयरे श्रीजिनहससूरि विजयिराज्ये वा० महिम राजगणीद्राणां शिष्य वा० दयासागगणीवराणां शिष्य वा. ज्ञानमन्दिरगणिदेवतिलकादिपरिवृतानां वाच्यमानं चिरं नंदतु । शुभं वोभोतु श्री चतुर्विध श्री संघाय ॥छ।। श्री रस्तु । (ख) ठाणांग मूलपाठ (हस्तलिखित) घेवर पुस्तकालय सुजानगढ़ से प्राप्त । इसके पत्र १०८ और पृष्ठ २१६ है। प्रत्येक पत्र में १३ पंक्तियां । प्रत्येक पंक्ति में ४५ करीव अक्षर हैं। यह प्रति १० इंच लम्बी तथा ४१ इंच चौड़ी है । प्रति प्रायः शुद्ध तथा स्पष्ट है । लिपि संवत् १६८५ है । गधैया पुस्तकालय, सरदारशहर से प्राप्त (वृत्ति की प्रति)। इसके पत्र २८३ और पृष्ठ ५६६ हैं। इसकी लम्बाई १२ इंच है तथा चौड़ाई ४६ इंच है। प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में ५८ से ६० तक अक्षर हैं। (घ) ठाणांग (मूलपाठ) यह प्रति लालभाई भाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर (अहमदाबाद) की है। इसके पत्र ६६ तथा पृष्ठ १३२ हैं। प्रत्येक पृष्ठ में १५ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में ६० से ६५ तक अक्षर हैं। इसकी लम्बाई १२ इंच तथा चौड़ाई ५ इंच है। पत्रों के दोनों ओर कलात्मक वापिका है। अन्त में लिखा है--- संवत् १५१७ वर्षे ठाणांग सूत्रं लेखयित्वा तेषामेव गुरुणामुपकारिता। साधुजनैर्वा चिरं नंदतात् ॥छ। 1100 समवाओ प्रस्तुत सूत्र का पाठ-संशोधन तीन आदर्शों तथा वृत्ति के आधार पर किया गया है। कूल स्थलों में पाठ-संशोधन के लिए अन्य ग्रन्थों का भी उपयोग किया गया है। प्रकीर्ण समवाय (सूत्र २३४) में प्रयुक्त आदर्शों में 'अस्ससेणे' पाठ नहीं है। यह चतुर्थ चक्रवर्ती के पिता का नाम है। इसके बिना अगले नामों की व्यवस्था विसंगत हो जाती है। उल्लिखित सूत्र की संग्रह गाथाओं में पद्मोत्तर नाम अतिरिक्त है। इसे पाठान्तर रूप में स्वीकार किया गया है। आवश्यक नियुक्ति (३९६) में 'अस्ससेणे पाठ उपलब्ध है। उसके आधार पर 'अस्ससेणे' मूल-पाठ के रूप में स्वीकृत किया गया है। प्रकीर्ण समवाय (सूत्र २३०) की संग्रह गाथा में बलदेव वासुदेव के पिता के नाम है। उक्त गाथा में स्थानांग (९।१६) तथा आवश्यक नियुक्ति (४११)के आधार पर संशोधन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है। तीसरे बलदेव-वासूदेव के पिता का नाम रुह है, किन्तु समवायांग की हस्तलिखित वत्ति में 'रुट' के स्थान में 'सोम' है । वस्तुतः 'सोम' के बाद रुट्ट' होता चाहिए। समवाय ३० (सूत्र १, गाथा २६) में सभी सभी आदर्शों में 'सज्झायवायं' पाठ मिलता है । वृत्तिकार ने भी उसकी स्वाध्यायवादं-- इस रूप में व्याख्या की है । अर्थ की दृष्टि से यह संगत नहीं है । दशाश्र तस्कन्ध (सूत्र २६) में उक्त गाथा उपलब्ध है। उसमें 'सज्झायवाय' के स्थान पर 'सब्भाववायं' पाठ है। दशा तस्कन्ध के वत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'सद्भाववाद' किया है । अर्थ-मीमांसा करने पर यह पाठ संगत प्रतीत होता है। प्राचीन लिपि में संयुक्त 'झकार' और संयुक्त 'भकार' एक जैसे लिखे जाते थे। इस प्रकार के लिपिहेतुक पाठ-परिवर्तन अनेक स्थानों में प्राप्त होते हैं। प्रति परिचय (क) समवायांग मूलपाठ यह प्रति जैसलमेर भंडार की ताडपत्रीय (फोटोप्रिंट) मदनचन्दजी गोठी, सरदारशहर द्वारा प्राप्त है। इसके पत्र ६४ तथा पृष्ठ १२८ हैं किन्तु २४ वां पत्र नहीं है। प्रत्येक पृष्ठ में ४ या ५ पंक्तियां हैं तथा प्रत्येक पंक्ति में ११० अक्षर हैं। लिपि सं० १४०१ । (ख) समवायांग मूलपाठ (पंचपाठी) यह प्रति गधया पुस्तकालय, सरदारशहर से प्राप्त है। बीच में मूलपाठ एवं चारों ओर वृत्ति लिखी हुई है। इसके पत्र १०६ तथा पृष्ठ २१२ हैं। प्रत्येक पृष्ठ में पंक्तियां तथा प्रत्येक पक्ति में ३०,३२ अक्षर हैं। यह प्रति १० इंच लम्बी तथा ४१ इंच चौड़ी है। इसके अन्त में संवत् दिया हुआ नहीं है। किन्तु पत्रों की जीर्णता व लिपि के आधार पर यह पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के लगभग की है। प्रति के अन्त में निम्न प्रशस्ति है-- ॥छ।। समवाउ चउत्थमंग 11छ। अंकतोपि ग्रंथान १६६७ ॥छ।। (ग) समवायांग मूलपाठ (पंचपाठी) यह प्रति गधया पुस्तकालय, सरदारशहर से प्राप्त है। बीच में मूलपाठ एवं चारों तरफ वृत्ति लिखी हुई है। इसके पत्र ८१ तथा पृष्ठ १६२ हैं। प्रत्येक पृष्ठ में ५ से १२ पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में ३२ से ४७ तक अक्षर हैं । यह प्रति १० इंच लम्बी तथा ४ इंच चौड़ी है । लिपि संवत् १३४५ लिखा है; पर संवत् की लिखावट से कुछ संदिग्ध सा लगता है। फिर भी प्राचीन है। अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है १. देखें, समवाप्रो, पइण्णगसमवामो सू० २३० का पाद-टिप्पण। २. देखें, समवायो, समवाय ३०, सू० १, गाथा २६ का दूसरा पाद-टिप्पण। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ |छ । समवाउ चउत्थमंग संमत्तं ॥ छ ॥ ग्रंथाग्र १६६७ ||छ | इस प्रति में पाठ बहुत संक्षिप्त है । अनेक स्थानों पर केवल प्रथम अक्षर ही लिखे गए हैं। श्रीमदभयदेवसूरिवृत्ति: ( मुद्रित ) - प्रकाशक -- श्रेष्ठी माणिकलाल चुन्नीलाल, कान्तिलाल, चुन्नीलाल- अहमदाबाद | संपादक -- मास्टर नगीनदास, नेमचन्द । सहयोगानुभूति - जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है । आज ये १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी हैं। देवद्धगणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उनके वाचना-काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए हैं। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी । आचार्यश्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका । अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, गवेषणापूर्ण तटस्थदृष्टि समन्वित तथा सपरिश्रम होगी तो वह अपने आप - सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगमवाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ । हमारी इस वाचना के प्रमुख आचार्य श्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापनकर्म के अनेक अंग हैं- पाठ का अनुसंधान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन तुलनात्मक अध्ययन आदि-आदि। इन सभी प्रवृत्तियों में हमें आचार्यश्री का सक्रिय योग, मार्ग-दर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त है । यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्ति-बीज है । मैं आचार्यश्री के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कर भार-मुक्त होऊं, उसकी अपेक्षा अच्छा है कि अग्रिम कार्य के लिए उनके आशीर्वाद का शक्ति-संबल पा और अधिक भारी बनूं प्रस्तुत ग्रन्थ के पाठ संपादन में मुनि सुदर्शनजी, मुनि मधुकरजी और मुनि हीरालालजी का पर्याप्त योग रहा है। मुनि शुभकरणजी इस कार्य में क्वचित् संलग्न रहे हैं। प्रतिशोधन में मुनि दुलहराजजी का पूर्ण योग मिला है । इसका ग्रंथ परिमाण मुनि मोहनलाल जी (आमेट) ने तैयार किया है । कार्य निष्पत्ति में इनके योग का मूल्यांकन करते हुए मैं इन सबके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ । आगमविद् और आगम-संपादन के कार्य में सहयोगी स्व० श्री मदनचन्दजी गोठी को इस अवसर पर विस्मृत नहीं किया जा सकता। यदि वे आज होते तो इस कार्य पर उन्हें परम हर्ष होता । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम के प्रबंध-संपादक श्री श्रीचन्दजी रामपुरिया प्रारंभ से ही आगम कार्य में संलग्न रहे हैं। आगम साहित्य को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ये कृत-संकल्प और प्रयत्नशील हैं। अपने सुव्यवस्थित बकालत कार्य से पूर्ण निवृत्त होकर अपना अधिकांश समय आगमसेवा में लगा रहे हैं। 'अंगसुत्ताणि' के इस प्रकाशन में इन्होंने अपनी निष्ठा और तत्परता का परिचय दिया है। जैन विश्व भारती के अध्यक्ष श्री खेमचन्दजी सेठिया, जैन विश्व भारती के कार्यालय तथा आदर्श साहित्य संघ के कार्यालय के कार्यकर्ताओं ने पाठ-सम्पादन में प्रयुक्त सामग्री के संयोजन में बड़ी तत्परता से कार्य किया है। एक लक्ष्य के लिए समान गति से चलने वालों की समप्रवत्ति में योगदान की परम्परा का उल्लेख व्यवहार-पूर्ति मात्र है। वास्तव में यह हम सबका पवित्र कर्तव्य है और उसी का हम सबने पालन किया है। मुनि नथमल अणुव्रत-विहार नई दिल्ली २५०० वां निर्वाण दिवस Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १. आगमों का वर्गीकरण जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है । समवायांग में आगम के दो रूप प्राप्त होते हैंद्वादशांग गणिपिटक' और चतुर्दश पूर्व नन्दी में श्रुत-ज्ञान (आगम) के दो विभाग मिलते हैं-- अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य। आगम-साहित्य में साधु-साध्वियों के अध्ययन विषयक जितने उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे सब अंगों और पर्यों से संबंधित हैं। जैसे १. सामायिक आदि ग्यारह अंगों को पढ़ने वाले----'सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ' (अंतगड, प्रथम वर्ग) यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य गौतम के विषय में प्राप्त है। 'सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ' (अंतगड, पंचम वर्ग, प्रथम अध्ययन) । यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि की शिष्या पद्मावती के विषय में प्राप्त है । 'सामाइयमाझ्याई एक्कारसअंगाई अहिजई' (अंतगड, अष्टम वर्ग, प्रथम अध्ययन)। यह उल्लेख भगवान् महावीर की शिष्या काली के विषय में प्राप्त है । 'सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ' (अंतगड, पष्ठ वर्ग १५वां अध्ययन)। यह उल्लेख भगवान महावीर के शिष्य अतिमुक्तककुमार के विषय में प्राप्त है। २. बारह अंगों को पढ़ने वाले--'दारसंगी' (अंतगड, चतुर्थ वर्ग, प्रथम अध्ययन)। यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य जालीकुमार के विषय में प्राप्त है। ३. चौदह पूर्वो को पढ़ने वाले--चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ (अंतगड, तृतीय वर्ग, नवम अध्ययन) । यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य सुमुखकुमार के विषय में प्राप्त है। 'सामाइय माइयाई चोद्दसपुबाई अहिज्जइ' (अंतगड, तृतीय वर्ग, प्रथम अध्ययन) । यह उल्लेख भगवान अरिष्टनेमि के शिष्य अणीयसकुमार के विषय में प्राप्त है। १, समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू०५८। २, वही, समवाय १४, सू०२। ३. नन्दी, सू०४३। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्व के साढ़े तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे। भगवान् महावीर के तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे । समवायांग और अनुयोगद्वार में अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य का विभाग नहीं है। सर्व प्रथम यह विभाग नन्दी में मिलता है। अंग-बाह्य की रचना अर्वाचीन स्थविरों ने की है। नंदी को रचना से पूर्व अनेक अंग-बाह्य ग्रन्थ रचे जा चुके थे और वे चतुर्दश-पूर्वी या दस-पूर्वी स्थविरों द्वारा रचे गये थे। इस लिए उन्हें आगम की कोटि में रखा गया। उसके फलस्वरूप आगम के दो विभाग किए गए--अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य । यह विभाग अनुयोगद्वार (वीर-निर्वाण छठी शताब्दी) तक नहीं हुआ था । यह सबसे पहले नंदी (वीर-निर्वाण दसवीं शताब्दी) में हुआ है। नंदी की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जाते हैं--पूर्व, अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य । आज 'अंग-प्रविष्ट' और 'अंग-बाह्य' उपलब्ध होते हैं, किन्तु पूर्व उपलब्ध नहीं हैं । उनकी अनुपलब्धि ऐतिहासिक दृष्टि से विमर्शनीय है। २. पूर्व जैन परम्परा के अनुसार श्रुत-ज्ञान (शब्द-ज्ञान) का अक्षयकोष 'पूर्व' है। इसके अर्थ और रचना के विषय में सब एक मत नहीं हैं। प्राचीन आचार्यों के मतानुसार 'पूर्व' द्वादशांगी से पहले रचे गए थे, इसलिए इनका नाम 'पूर्व' रखा गया। आधुनिक विद्वानों का अभिमत यह है कि 'पूर्व' भगवान पावं की परम्परा की श्रुत-राशि है। यह भगवान महावीर से पूर्ववर्ती है, इसलिए इसे 'पूर्व' कहा गया है। दोनों अभिमतों में से किसी को भी मान्य किया जाए, किन्तु इस फलित में कोई अन्तर नहीं आता कि पूर्वो की रचना द्वादशांगी से पहले हुई थी या द्वादशांगी पूर्वो की उत्तरकालीन रचना है। वर्तमान में जो द्वादशांगी का रूप प्राप्त है, उसमें 'पूर्व' समाए हुए हैं। बारहवां अंग दृष्टिवाद है । उसका एक विभाग है--पूर्वगत । चौदह पूर्व इसी 'पूर्वगत' के अन्तर्गत हैं। भगवान महावीर ने प्रारंभ में पूर्वगत-श्रुत की रचना की थी। इस अभिमत से यह फलित होता है कि चौदह पूर्व और वारहवां अंग--ये दोनों भिन्न नहीं हैं। पूर्वगत-श्रुत बहुत गहन था। सर्वसाधारण के लिए वह १. समबाओ, पइयणगसमवाओ, सू०१४ । २. वही, सू० १२ ३. समवायांग वृत्ति, पत्र १०११ प्रथनं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्व क्रियमाणत्वात् । ४. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २४० : अन्ये तु व्याचक्षते पूर्व पूर्वगतसूत्रार्थमहन् भाषते, गणघरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्रं विरचन्ति, पश्चादाचारादिकम्। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलभ नहीं था। अंगों की रचना अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए की गई। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने बताया है कि 'दृष्टिवाद में समस्त शब्द-ज्ञान का अवतार हो जाता है। फिर भी ग्यारह अंगों की रचना अल्पमेधा पुरुषों तथा स्त्रिया के लिए की गई । ग्यारह अगों को दे ही साधु पढ़ते थे, जिनकी प्रतिभा प्रखर नहीं होती थी। प्रतिभा सम्पन्न मुनि पूर्वो का अध्ययन करते थे । आगम-विच्छेद के कम से भी यही फलित होता है कि ग्यारह अंग दृष्टिवाद या पूर्षों से सरल या भिन्न-क्रम में रहे हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण वासठ वर्ष शद केवली नहीं रहे। उनके बाद सौ वर्ष तक श्रुत-केवली (चतुर्दश-पूर्वी) रहे। उनके पश्चात् एक सौ तिरासी वर्ष तक दशपूर्वी रहे। उनके पश्चात दो सौ बीस वर्ष तक ग्यारह अंगधर रहे। उक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि जब तक आचार आदि अंगों की रचना नहीं हुई थी, तब तक महावीर की श्रत-राशि 'चौदह पूर्व' या 'दृष्टिवाद' के नाम से अभिहित होती थी और जव आचार आदि ग्यारह अंगों की रचना हो गई, तब दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थापित किया गया। यद्यपि बारह अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्वो को पढ़ने वाले ये भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि चौदह पूर्वो के अध्येता बारह अंगों के अध्येता नहीं थे और बारह अंगों के अध्येता चतुर्दश-पूर्वी नहीं थे। गौतम स्वामी को 'द्वादशांगवित्' कहा गया है। वे चतुर्दश-पूर्वी और अंगधर दोनों थे। यह कहने का प्रकार-भेद रहा है कि श्रुतकेवली को कहीं 'द्वादशांगवित्' और कहीं 'चतुर्दश-पूर्वी' कहा गया है । ग्यारह अंग पूर्वो से उद्धृत या संकलित हैं । इसलिए जो चतुर्दश-पूर्वी होता है, वह स्वाभाविक रूप से द्वादशांगवित होता है। बारहवें अंग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं। इसलिए जो द्वादशांगवित होता है, वह स्वभावतः चतुर्दश-पूर्व होता है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आगम के प्राचीन वर्गीकरण दो ही हैं--चौदह पूर्व और ग्यारह अंग । द्वादशांगी का स्वतन्त्र स्थान नहीं है। यह पूर्वो और अंगों का संयुक्त नाम है। कुछ आधुनिक विद्वानों ने पूर्वो को भगवान् पार्श्वकालीन और अंगों को भगवान् महावीरकालीन माना है, पर यह अभिमत संगत नहीं है। पूर्वो और अंगों की परम्परा भगवान् अरिष्टनेमि और भगवान पार्श्व के युग में भी रही है। अंग अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए रचे गए, यह पहले बताया जा चुका है। भगवान् पार्व के युग में सब मुनियों का प्रतिभा-स्तर समान था, यह कैसे ---- -------------- १. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ५५४ : जइवि य भूतावाए, सव्वस्स वयोगयस्स भोयारो। निज्जूहणा तहावि हु, दुम्मेहे पप्प इत्थी य ।। २. जयधवला, प्रस्तावना पृष्ठ ४६ । ३. देखिए-भूमिका का प्रारम्भिक भाग। ४. उत्तयध्ययन, २३७॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माना जा सकता है ? प्रतिभा का तारतम्य अपने-अपने युग में सदा रहा है। मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर भी हम इसी बिन्दु पर पहुंचते हैं कि अंगो की अपेक्षा भगवान् पाश्व के शासन में भी रही है, इसलिए इस अभिमत की पुष्टि में कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है कि भगवान् पाश्र्व के युग में केवल पूर्व ही थे, अंग नहीं। सामान्य ज्ञान से यही तथ्य निष्पन्न होता है। कि भगवान महावीर के शासन में पूर्वो और अंगों का युग की भाव, भाषा, जी और अपेक्षा के अनुसार नवीनीकरण हुआ । 'पूर्व' पार्श्व की परम्परा से लिए गए और 'अंग' महावीर की परम्परा में रचे गए, इस अभिमत के समर्थन में सम्भवतः कल्पना ही प्रधान रही है। ३. अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य भगवान् महावीर के अस्तित्व-काल में गौतम आदि गणवरों ने पूर्वी और अंगों की रचना की, यह सर्व विश्रुत है । क्या अन्य मुनियों ने आगम ग्रन्थों की रचना नहीं की । यह प्रश्न सहज ही उठता है । भगवान् महावीर के चौदह हजार शिष्य थे। उनमें सात सौ केवली थे, चार सौ वादी थे। उन्होंने ग्रन्थों की रचना नहीं की, ऐसा सम्भव नहीं लगता। नदी में बताया गया है कि भगवान् महावीर के शिष्यों ने चौदह हजार प्रकीर्णक बनाए थे। ये पूर्वो और अंगो से अतिरिक्त थे। उस समय अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य ऐसा वर्गीकरण हुआ, यह प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है । भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् अर्वाचीन आचार्यों ने ग्रंथ रचे तब संभव है उन्हें आगम की कोटि में रखने या न रखने की चर्चा चली और उनके प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न भी उठा। चर्चा के बाद चतुर्दश-पूर्वी और दश-पूर्वी स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगम की कोटि में रखने का निर्णय हुआ किन्तु उन्हें स्वत: प्रमाण नहीं माना गया। उनका प्रामाण्य परतः था । वे द्वादशांगी में अविरुद्ध है, इस कसौटी से कसकर उन्हें आगम की संज्ञा दी गई। उनका प्रातः प्रामाण्य था, इसीलिए उन्हें अंग-प्रविष्ट की कोटि से भिन्न रखने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इस स्थिति के सन्दर्भ में आराम की अंग बाह्य कोटि का उद्भव हुआ । जिनमद्रगणि क्षमाश्रमण ने अंग-प्रविष्ट और जंग बाह्य के भेद निरूपण में तीन हेतु प्रस्तुत किए हैं--- १. जो गणवर कृत होता है, २. जो गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित होता है १. समवाओ, समवाय १४ ० ४ । २. नन्दी, सू० ७८ : स्वाणि भगवद्धमाण Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. जो ध्रुव-शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होता है, सुदीर्घकालीन होता है-वही श्रुत अंग-प्रविष्ट होता है। इसके विपरीत! १. जो स्थविर-कृत होता है, २. जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित होता है, ३. जो चल होता है, तात्कालिक या सामयिक होता है-उस श्रत का नाम अंग-बाह्य है। अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य में भेद करने का मख्य हेत वक्ता का भेद है। जिस आगम के वक्ता भगवान् महावीर हैं और जिसके संकलयिता गणधर है, वह श्रत-पुरुष के मूल अंगों के रूप में स्वीकृत होता है इसलिए उसे अंग-प्रविष्ट कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वक्ता तीन प्रकार के होते हैं-१. तीर्थंकर २. श्रु त केवली (चतुर्दश-पूर्वी) और ३. आरातीय' । आरातीय आचार्यों के द्वारा रचित आगम ही अंग-बाह्य माने गए है। आचार्य अकलंक के शब्दों में आरातीय आचार्य कृत आगम अंग-प्रतिपादित अर्थ से प्रतिबिम्बित होते हैं इसीलिए वे अंग-बाह्य कहलाते हैं। अंग-बाह्य आगम श्रुत-पुरुष के प्रत्यंग या उपांग-स्थानीय है। ४. अंग द्वादशागी में संगभित बारह आगमों को अंग कहा गया है। अंग शब्द संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के साहित्य में प्राप्त होता है। वैदिक साहित्य में वेदाध्ययन के सहायक-ग्रन्थों को अंग कहा गया है। उनकी संख्या छह है १. शिक्षा-शब्दों के उच्चारण-विधान का प्रतिपादक ग्रन्थ । २. कल्प-वेद-विहित कर्मों का क्रमपूर्वक व्यवस्थित प्रतिपादन करने वाला शास्त्र। ३. व्याकरण-पद-स्वरूप और पदार्थ-निश्चय का निमित्त-शास्त्र ४. निरुक्त-पदों की व्युत्पत्ति का निरूपण करने वाला शास्त्र । ५. छन्द -- मन्त्रोच्चारण के लिए स्वर-विज्ञान का प्रतिपादक-शास्त्र । ६. ज्योतिष-यज्ञ-याग आदि कार्यों के लिए समय-शुद्धि का प्रतिपादक शास्त्र : ...-..-- ----- ------ ------ १. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ५५२ : गणहर-थेरकयं वा, आएसा मुक्क - बागरणो वा। धुव • चल विसेसमो वा, अंगाणंगेसु नाणतं ।। २. तत्त्वार्थभाष्य, १२०: वक्त-विशेषाद् वैविध्यम् । ३. सर्वार्थसिद्धि, १.२० नयो वक्तार:- सर्वज्ञस्तीर्थकरः, इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति। ४. तस्वार्थ राजवातिक, ११२०: बारातीयाचार्यकृतांगार्थ प्रत्यासन्नरूपमंगबाह्यम् । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ वैदिक साहित्य में वेद-पुरुष की कल्पना की गयी है । उसके अनुसार शिक्षा वेद की नासिका है, कल्प हाथ, व्याकरण मुख, निरुक्त श्रोत्र, छन्द पर और ज्योतिष नेत्र है। इसीलिए ये वेदशरीर के अंग कहलाते हैं। पालि-साहित्य में भी, 'अंग' शब्द का उपयोग किया गया है । एक स्थान में बुद्धवचनों को नवांग और दूसरे स्थान में द्वादशांग कहा गया है। नवांग-- १. सुत्त-भगवान् बुद्ध के गद्यमय उपदेश । २. गेय्य-~-गद्य-पद्य मिश्रित अंश । ३. वैय्याकरण-व्याख्यापरक ग्रन्थ । ४. गाथा-पद्य में रचित ग्रन्थ । ५. उदान --बुद्ध के मुख से निकले हुए भावमय प्रीति-उद्गार । ६. इतिवृत्तक-छोटे-छोटे व्याख्यान, जिनका प्रारम्भ 'बुद्ध ने ऐसा कहा' से होता है। ७. जातक-युद्ध की पूर्व-जन्म-सम्बन्धी कथाए। ८. अन्भूतधम्म -- अद्भूत वस्तुओं या योगज-विभूतियों का निरूपण करने वाले ग्रन्थ । है. वेदल्ल-वे उपदेश जो प्रश्नोत्तर की शैली में लिखे गए हैं। द्वादशांग--- १. सूत्र, २. गेय, ३. व्याकरण, ४. गाथा, ५. उदान, ६. अवदान ७. इतिवृत्तक, ८. निदान, ६. वैपुल्य, १०. जातक, ११. उपदेश-धर्म और १२. अद्भुत-धर्म'। जैनागम बारह अंगो में विभक्त हैं--१. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. भगवती, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, ८, अन्तकृतदशा, ६. अनुत्तरोपपातिकदशा, १०. प्रश्न: व्याकरण, ११. विपाक और १२. दृष्टिवाद । "अंग' शब्द का प्रयोग भारतीय दर्शन की तीनों प्रमुख धाराओं में हुआ है। वैदिक और बौद्ध साहित्य में मुख्य ग्रन्थ वेद और पिटक हैं। उनके साथ 'अंग' शब्द का कोई योग नहीं है। जैन साहित्य में मुख्य ग्रन्थों का वर्गीकरण गणिपिटक है। उसके साथ 'अंग' शब्द का योग हआ है। गणिपिटक के वारह अंग हैं-'दुवालसंगे गणिपिडगे" । १. पाणिनीयशिक्षा, ४१।१२। २. सद्धर्मपुंडरीक सूत्र, पृ० ३४ ३. बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ 'अभिसमयालंकार' की टीका' पृ० ३५ : सूत्रं गेयं व्याकरणं, गायोदानावदानकम् । इतिवृत्तकं निदानं, वैपुल्यं च सजातकम् । उपदेशाद्भुतौ धर्मो, द्वादशांग मिदं वचः ।। ४. समवामो पइग्णगसमवाओ, सूत्र १८ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-परम्परा में श्रत-पुरुष की कल्पना भी प्राप्त होती है। आचार आदि बारह आगम श्रुत-पुरुष के अंगस्थानीय हैं। संभवतः इसीलिए उन्हें बारह अंग कहा गया। इस प्रकार द्वादशांग 'गणिपिटक' और 'श्रुत-पुरुष'-दोनों का विशेषण बनता है। आयारो नाम-बोध--- प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का पहला अंग है। इसमें आचार का वर्णन है, इसलिए इसका नाम 'आयारो' (आचार) है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं----आयरो और आयारचला। विषय-वस्तु समवायांग और नन्दी में आचारांग का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उसके अनुसार प्रस्तुत सुत्र आचार, गोचर, विनय, वैनयिक (विनय-फल), स्थान (उत्थितासन, निषण्णासन, और शयितासन), गमन, चंक्रमण, भोजन आदि की मात्रा, स्वाध्याय आदि में योग-नियुंजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गम-उत्थान, एषणा आदि की विशुद्धि, शुद्धाशुद्ध-ग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप, उपधान आदि का प्रतिपादक है। आचार्य उमास्वाति ने आचारांग के प्रत्येक अध्ययन का विषय संक्षेप में प्रतिपादित किया है। वह क्रमश: इस प्रकार है-- १. षड्जीवकाय यतना। २. लौकिक संतान का गौरव-त्याग । ३. शीत-ऊष्ण आदि परीपहों पर विजय : ४. अप्रकम्पनीय सम्यक्त्व। ५. संसार से उद्वेग! ६. कर्मों को क्षीण करने का उपाय । ७. वैयावृत्य का उद्योग। ८. तपस्या की विधि। है. स्त्री-संग-त्याग । १. मूलाराधना, ४१५६६ विजयोदया : श्रुतं पुरुषः मुखचरणाचंगस्थानीयत्वादंगशब्देनोच्यते । २. (क) समवाओ, पइण्णग समवानो, सू० ८६ । (ख) नंदी, सू००। ३. प्रशभरति प्रकरण, ११४-११७ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. विधि-पूर्वक भिक्षा का ग्रहण । ११. स्त्री, पशु, क्लीव आदि से रहित शय्या ! १२. गति-शुद्धि । १३. भाषा-शुद्धि । १४. वस्त्र की एषणा-पद्धति । १५. पात्र की एषणा-पद्धति । १६. अवग्रह-शुद्धि । १७. स्थान-शुद्धि । १८. निषद्या-शुद्धि । १६. व्युत्सर्ग-शुद्धि । २०. शब्दासक्ति परित्याग । २१. रूपासक्ति-परित्याग । २२. परक्रिया-वर्जन । २३. अन्योन्यक्रिया-वर्जन । २४. पंच महाव्रतों की दृढ़ता। २५. सर्वसंगों से विमुक्तता। नियुक्तिकार ने नव ब्रह्मचर्य अध्ययनों के विषय इस प्रकार बतलाए हैं--- १. सत्थपरिणा-जीव संयम । २. लोगविजय-बंध और मुक्ति का प्रबोध । ३. सीओसणिज्ज-सुख-दुःख-तितिक्षा। ४. सम्मत्त---सम्यक-दृष्टिकोण ! ५. लोग सार–असार का परित्याग और लोक में सारभूत रत्नत्रयी को आराधना । ६. धुय---अनासक्ति। ७. महापरिणामोह से उत्पन्न परीषहों और उपसर्गों का सम्यक सहन । ८. विमोक्ख-निर्याण (अंतक्रिया) की सम्यक -आराधना । ६. उ वहाणसुय--- भगवान् महावीर द्वारा आचरित आचार का प्रतिपादन। १. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३३, ३४ : जिअसंजमी अ लोगो जह बज्झइ जह य तं पजहियव्वं । सुहदुक्खतितिक्खाबिय, सम्मत्तं लोगसारो य॥ निस्संगया य छठे मोहसमुत्या परीसहुक्सम्मा। निजाणं अठ्ठमए नवमे य जिणेण एवंति । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य अकलंक के अनुसार आचारांग का समग्र विषय चर्या-विधान तथा अपराजित सुरि के अनुसार रत्नत्रयी के आचरण का प्रतिपादन है। जैन-परम्परा में 'आचार' शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहृत होता है । आचारांग की व्याख्या के प्रसंग में आवार के पांच प्रकार बतलाए गए हैं-१. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. चरित्राचार, ४. तपाचार और ५. वीर्याचार' । प्रस्तुत सूत्र में इन पांचों आचारों का निरूपण है सूयगडो नाम-बोध प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का दूसरा अंग है। इसका नाम 'सूयगडो' है। समवाय, नंदी और अनुयोगद्वार-जीनों आगमों में यही नाम उपलब्ध होता है। नियुक्तिकार भद्रबाहस्वामी ने प्रस्तुत आगम के गुण-निष्पन्न नाम तीन बतलाए हैं १. सूतगड-सूतकृत २. सूत्तकड-सूत्रकृत ३. सूयगड-सूचाकृत प्रस्तुत आगम मौलिक दृष्टि से भगवान महावीर से सूत (उत्पन्न) है तथा यह ग्रन्थरूप में गणधर के द्वारा कृत है, इसलिए इसका नाम 'सूतकृत' है । इसमें सूत्र के अनुसार तत्त्वबोध किया जाता है, इसलिए इसका नाम 'सुत्रकृत' है। इसमें स्व और पर समय को सूचना कृत है, इसलिए इसका नाम 'सूचाकृत' है। वस्तुतः सूत, सुत्त और सूय-ये तीनों सूत्र के ही प्राकृत रूप हैं। आकार भेद होने के कारण तीन गुणात्मक नामों की परिकल्पना की गई है। १. तत्वार्थ राजवार्तिक, १२० : ___ आचारे चर्याविधानं शुद्धयष्टकपंचसमितिनिगुप्तिविकल्पं कथ्यते । २. भूलाराधना, आश्वास २, ग्लोक १३०, विजयोदया: रत्नत्रयाचरणनिरूपणपरतया प्रथममंगमाचारशब्देनोच्यते । ३. समवाओ, पइण्णग समवाओ, सू० ८९: से समासमो पंचविहे पं० २–णाणायारे दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे वोरियायारे । ४. (क) समवाओ, पदण्णगसमवायो, सू० ८८ (ख) नंदी, सू०८०। (ग) अणुप्रोगदाराई, सू० ५० । ५. सूत्रकृतॉगनियुक्ति, गाथा २: सूतगडं मुत्तकडं सूयगडं चेव गोण्णाई। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी अंग मौलिक रूप में भगवान् महावीर द्वारा प्रस्तुत और गणधर द्वारा ग्रन्थरूप में प्रणीत हैं । फिर केवल प्रस्तुत आगम का ही सूत्रकृत नाम क्यों ? इसी प्रकार दूसरा नाम भी सभी अंगों के लिए सामान्य है। प्रस्तुत आगम के नाम का अर्थस्पर्शी आधार तीसरा है। क्योंकि प्रस्तुत आगम में स्वसमय और परसमय की तुलनात्मक सूत्रता के सन्दर्भ में आचार की प्रस्थापना की गई है। इसलिए इसका संबंध सूचना से है। समवाय और नंदी में यह स्पष्टतया उल्लिखित है --'सूयगडे णं ससमयासूइज्जति परसमया सूइज्जति ससमय-परसमया सूइज्जति । जो सूचक होता है उसे सूत्र कहा जाता है। प्रस्तुत आगम की पृष्ठभूमि में सूचनात्मक तत्त्व की प्रधानता है, इसलिए इसका नाम सूत्रकृत है। सूत्रकृत के नाम के सम्बन्ध में एक अनुमान और किया जा सकता है। वह वास्तविकता के निकट प्रतीत होता है । दृष्टिवाद के पांच प्रकार हैं-परिकर्म, सूत्र, पूर्वानुयो।, पूर्वगत और चूलिका। ___ आचार्य वीरसेन के अनुसार सूत्र में अन्य दार्शनिकों का वर्णन है। प्रस्तुत आगम की रचना उसी के आधार पर की गई इसलिए इसका सूत्रकृत नाम रखा गया। सूत्रकृत शब्द के अन्य व्युत्पत्तिक अर्थों की अपेक्षा यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है। सूतगड' और बौद्धों के 'सुत्तनिपात' में नामसाम्य प्रतीत होता है। अंग और अनुयोग द्वादशांगी में प्रस्तुत आगम का स्थान दूसरा है । अनुयोग चार हैं१. चरणकरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयोग। ४. द्रव्यानुयोग। चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत आगम चरणकरणानुयोग (आचार शास्त्र) है । शीलांकसूरि ने इसे द्रव्यानुयोग (द्रव्य शास्त्र) की कोटि में रखा है। उनके अनुसार आचारांग प्रधानतया चरणकरणानुयोग तथा सुत्रकृतांग प्रधानतया द्रव्यानुयोग है। १. (क) समवाओ, पइग्णगसमवायो, सू० ६० । (ख) नंदी, सू० ८२। २. कसायपाहुह, भाग १, पृ.० १३४ । ३. सूत्रकृतांगचूणि पृ०५। इह चरणाणुगोगे ण अधिकारो। ४. सूत्रकृतॉग वुत्ति, पत्न १ तनाचाराङ्ग चरण करणप्राधान्येन व्याख्यातम्, अधुना अवसरायातं द्रव्यप्राधान्यसूत्रकृताख्यं द्वितीयमङ्ग व्याख्यातुमारभ्यते । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय तथा नन्दी में द्वादशांगी का विवरण दिया हआ है। वहां सभी अंगों के विवरण के अंत में एवं चरणकरणपरूवणता' पाठ मिलता है। अभयदेवसूरी ने 'चरण' का अर्थ श्रमण धर्म और 'करण' का अर्थ पिण्डविशुद्धि, समिति आदि किया है। चुणिकार ने कालिकश्रुत को चरणकरणानुयोग तथा दृष्टिवादको द्रव्यानुयोग माना है।' द्वादशांगी में मुख्यतः द्रव्यशास्त्र दष्टिवाद है। शेष अंगों में द्रव्य का प्रतिपादन गौण है। द्रव्यशास्त्र में भी गौणरूप में आचार का प्रतिपादन हुआ है । चूर्णिकार ने मुख्यता की दृष्टि से प्रस्तुत आगम को आचार शास्त्र माना है और वह उचित भी है। वृत्तिकार ने इसमें प्राप्त द्रव्य विषयक प्रतिपादन को मुख्य मानकर इसे द्रव्यशास्त्र कहा है। इन दोनों वर्गीकरणों में सापेक्ष दृष्टिभेद है। ठाणं नाम-बोध प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का तीसरा अंग है। इसमें संख्या-क्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गई है इसलिए इसका नाम ठाणं है। विषय-वस्तु प्रस्तुत आगम में 'स्वसमय' (अर्हत् का दर्शन), 'परसमय' तथा स्वसमय और परसमयदोनों की स्थापना की गई है। जीव और अजीव, लोक और अलोक की स्थापना की गई है। इसमें संग्रह नय की दृष्टि से जीव की एकता और व्यवहार नय की दृष्टि से उसकी भिन्नता प्रतिपादित है । संग्रह नय के अनुसार चैतन्य की दृष्टि से जीव एक है । व्यवहार नय के दृष्टिकोण से प्रत्येक जीव विभक्त होता है, जैसे-ज्ञान और दर्शन की दष्टि से वह दो भागों में विभक्त है । कर्मचेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञान चेतना की दृष्टि से अथवा ध्रौव्य, उत्पाद और १. समवायांग वृत्ति, पन १०२: चरणम्--ब्रतश्रमणधर्मसंयमाद्यनेकविधम् । करणम्--पिण्डविशुद्धिसमित्याधनेकविधम् । २. सूत्रकृतांगणि, पु०५। कालियसुर्य चरणकरणाणुयोगो, इसिभासिओत्तरायणाणि धम्माणुयोगो, सूरपण्णत्तादि गणितानुयोगो, दिठ्ठ वातो दवाणुजोगोत्ति । ३. समवायो, पइयणगसमवाओ, सू० ६१॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विनाश की दृष्टि से वह तीन भागों में विभक्त है । गति । गति चतुष्टय में परिभ्रमण करने के कारण वह चार भागों में विभक्त है। पारिणामिकआदि पांच भावों की दृष्टि से वह पांच भागों में विभक्त है। भवान्तर में संक्रमण के समय पूर्व पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उष्वं और अध: इन छह दिनाओं में गमन करने के कारण वह छह भागों में विभक्त है । स्यादस्ति स्यादुनास्ति की सप्तभंगी की दृष्टि से वह सात भागों में विभक्त है । आठ कर्मों की दृष्टि से वह आठ भार्गो में विभक्त है। नौ पदार्थों में परिणमन करने के कारण वह नी भागों में विभक्त है पृथिवीकाधिक जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, साधारण वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रिवजाति चतुरिन्द्रियजाति और पंचेन्द्रियजाति की दृष्टि से वह दस भागों में विभक्त है।' इसी प्रकार प्रस्तुत आगम पुद्गल आदि के एकत्व तथा दो से दस तक के पर्यायों का वर्णन करता है। पर्यायों की दृष्टि से एक तस्य अनन्त भागों में विभक्त हो जाता है और द्रव्य की दृष्टि से वे अनन्त भाग एक तत्व में परिणत हो जाते हैं। प्रस्तुत आगम में इस अभेद और भेद की व्याख्या उपलब्ध है । नाम-बोध प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का चौथा अंग है। इसका नाम समवाओ हैं । इसमें जीव -अजीव आदि पदार्थों का परिच्छेद या समवतार है, इसलिए इसका नाम रामदाओ है। दिगम्बर साहित्य के अनुसार इसमें जीव आदि पदार्थों का साय-सामान्य के द्वारा निर्णय किया गया है, इसलिए इसका नाम समयाओं है । समवाओ समवाओं में द्वादशांगी का वर्णन है । यह द्वादशांगी का चौथा अंग है; इसलिए इसमें इसका विवरण भी प्राप्त है । द्वादशांगी का कम प्राप्त विवेचन नन्दी सूप में है उसके अनुसार समयाओ की विषयसूची इस प्रकार है--- १. जीव-अजीव, लोक अलोक और स्वसमय-परसमय का समवतार २. एक से सौ तक की संख्या का विकास । १. कसायपाहुड भाग पृ० १२३ २. समवायांग वृत्ति, पत्र १ : समिति सम्यपत्याविनयेन चयनमयः परिच्छेदो जीवाजीवादिविविधपदार्थसार्थस्य परम समवायः, समवयन्ति वा -- समवसरन्ति संमिलन्ति नानाविद्या आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसो समवाय इति । २. गोमटसार, जीवकाण्ड, जीवप्रबोधिनी टीका, याथा ३५६ [सं-संग्रहेष सादृश्यसामान्येन प्रज्ञायन्ते जीवादिपदार्था इथभावनाश्रित्य यस्मिन्निति समवायाङ्गम् ।” Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. द्वादशांग गणिपिटक का वर्णन । समवायांग के अनुसार समवाओ की विषय सूची इस प्रकार है१. जीव-अजीव, लोक-अलोक और स्वसमय-परसमय का समवतार । २. एक से सौ तक की संख्या का विकास । ३. द्वादशांग-गणिपिटक का वर्णन। ४. आहार १४. योग ५. उच्छ वास १५. इन्द्रिय ६. लेश्या १६. कषाय ७. आवास १७. योनि ८. उपपात १८. कुलकर है. च्यवन १६. तीर्थंकर १०. अवगाह २०. गणधर ११. वेदना २१. चक्रवर्ती १२. विधान २२. बलदेव-वासुदेव । १३. उपयोग दोनों विषय-सूचियों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि समवायांग की नदि- त.विषय-सूची संक्षिप्त है जौर समवाओ-गत विषय-सूची विस्तृत । विषय-सूची के आधार पर प्रस्तुत सूत्र का आकार भी छोटा और बड़ा हो जाता है। दोनों विवरणों में 'सौ तक एकोत्तरिका वृद्धि होती है' इसका उल्लेख है । अने कोतरिका वृद्धि का दोनों में उल्लेख नहीं है। नन्दीचूर्णी, हारिभद्रीयावृत्ति तथा मलयगिरीयावृत्ति-इन तीनों में अनेकोतरिका वृद्धि का कोई उल्लेख नहीं है। समवायांग की वृत्ति में अभयदेवसूरि ने अनेकोतरिका वृद्धि की चर्चा की है। उनके अनुसार सौ तक एकोत्तरिका वृद्धि होती है और उसके पश्चात् अनेकोतरिका वृद्धि होती है। वृत्तिकार का यह उल्लेख समवायांग के विवरण के आधार पर नहीं, किन्तु उपलब्ध पाठ के आधार पर है-ऐसा प्रतीत होता है। १. नन्दी, सू० ८३: से कि तं समवाए ? समवाए णं जीवा समासिज्जति, अजीवा समासिजति जीवाजीवा समासिज्जति । ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिज्जइ, ससमय-गरसमए समासिज्जइ । लोए समासिज्जइ, अलोए समासिरजइ, लोयालोए समासिज्जइ । समवाएणं एगाइयाणं एगुत्तरियाणं ठाणसयं-निवढ़ियाणं भावाणं परूवणा आधविज्जइ, दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लयम्ये समासिज्जइ ! २. समवानो, पइण्णगसमवाओ, सू०६२। ३. समवायांग, वृत्ति, पन्न १०५ : 'च शब्दस्य चान्यत्र सम्बन्धादेकोतरिका अनेकोतरिका च, तत्र शतं यावदेकोतरिका परतोऽनेकोत्तरिकेति।' Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों विवरणों की समीक्षा करने पर दो प्रश्न उपस्थित होते हैं १. नन्दी में समवायांग का जो विवरण है, उससे उपलब्ध समवायांग क्या भिन्न नहीं है ? २. क्या उपलब्ध समवायांग देवधिगणी की वाचना का है ? यदि है तो समवायांग के दोनों विवरणों में इतना अन्तर क्यों ? प्रथम प्रश्न के समाधान में यह कहा जा सकता है कि नन्दीगत समवायांग-बिवरण के अनुसार समवायांग सूत्र का अन्तिमवि षय द्वादशांगी के आगे अनेक विषय प्रतिपादित हैं। इससे ज्ञात होता है कि समवायांग का वर्तमान आकार नन्दीगत समवायांग-विवरण से भिन्न है। दुसरे प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन है, फिर भी इतना कहा जा सकता है कि आगमों की अनेक वाचनाएं रही हैं। इसीलिए प्रत्येक अंग के विवरण में अनेक वाचनाओं (परित्ता वाषणा) का उल्लेख किया गया है। अभयदेवसूरि ने समवायांग की वहद-वाचना का उल्लेख किया है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि नन्दी में लघु वाचना वाले समवायांग का विवरण है। अभयदेवसरि को प्रस्तुत-सूत्र के वाचनान्तर प्राप्त थे, ऐसा उनकी वृत्ति से ज्ञात होता है। समवायांग परिवर्धित आकार के विषय में दो अनुमान किये जा सकते हैं १. प्रस्तुत सूत्र देवर्धिगणी की वाचना से भिन्न वाचना का है। २. अथवा द्वादशांगी के उत्तरवर्ती अंश देवधिगणी के पश्चात् इसमें जोड़े गए हैं । यदि प्रस्तुत सूत्र भिन्न वाचना का होता तो इस विषय में कोई अनुश्रुति मिल जाती। ज्योतिटकरण्ड माधुरी वाचना का है--यह अनुश्रुति वराबर चलती आ रही है । उपलब्ध समवायांग भी यदि माथुरी वाचना का होता तो उस विषय को कोई अनुश्रुति मिल जाती। प्रथम अनुमान की पुष्टि की संभावना कम होने पर दूसरे अनुमान की संभावना बढ़ जाती है। किन्तु भगवती तथा स्थानांग से दूसरे अनुमान का भी निरसन हो जाता है। भगवती में कूलकर, तीथकर आदि के पूरे विवरण के लिए समवायांग के अन्तिम भाग को देखने की सूचना दी गई है। इसी प्रकार स्थानांग में भी बलदेव-वासुदेव के पूरे विवरण के लिए समवायांग के अन्तिम भाग को देखने की सूचना दी गई है। इससे ज्ञात होता है कि परिशिष्ट-भाग देवर्धिगणी के समय में ही जोड़ा गया था। १. (क) समवायांग वृत्ति, पत्र ५८ : बृहद्वाचनायामनन्तरोक्तमतिशयद्वयं नाधीयते । (ख) वही, पत ५६ : वृहद्वाचनायामिदमन्यदतिशयद्वयमधीयते । २. समवायांग वृत्ति, पन १४४ : वाचनान्तरे तु पर्युषणाकल्पोक्तक्रमेणेत्यभिहितम ३. भगवई शतक ५, उद्देशक ५। ४. ठाणं ३।१६,२० । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आगम के लिए एक संकलनकार के द्वारा दो प्रकार के विवरण (समवायांग तथा नंदी में) दिए गए--यह विचित्र बात है। माथूरी और वल्लभी-ये दो मुख्य वाचनाएं थीं। गौण वाचनाए अनेक थीं। इसीलिए अनेक वाचनान्तर मिलते हैं। ये वाचनान्तर संभवत: व्याख्यांश या परिशिष्ट जोड़ने से हो जाते। समवायांग में द्वादशांगी का उत्तरवर्ती भाग उसका परिशिष्ट भाग है-ऐसी कल्पना की जा सकती है। परिशिष्ट का विवरण समवायांग के विवरण में परिवधित किया गया, इसलिए उसकी विषयसूची नन्दीगत समवायांग की विषय-सूची से लम्बी हो गई। परिशिष्ट भाग में प्रज्ञापना के ग्यारह पदों का संक्षेप है, ये किस हेतु से यहां जोड़े गए, यह अन्वेषण का विषय है। कार्य-संपूर्ति प्रस्तुत आगमों के पाठ-संशोधन में अनेक मुनियों का योग रहा है। उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूँ कि उनकी कार्यजा शक्ति और अधिक विकसित हो । इसके सम्पादन का बहुत कुछ श्रेय शिष्य मुनि नथमल को है, क्योंकि इस कार्य में अहनिश वे जिस मनोयोग से लगे हैं, उसी से यह कार्य सम्पन्न हो सका है। अन्यथा यह गुरुतर कार्य बड़ा दुरूह होता । इनकी वृत्ति मूलतः योगनिष्ठ होने से मन की एकाग्रता सहज बनी रहती है। सहज ही आगम का कार्य करते-करते अन्तरहस्य पकड़ने में इनको मेधा काफी पैनी हो गई है। विनयशीलता, श्रम-परायणता और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव ने इनकी प्रगति में बड़ा सहयोग दिया है। यह वृत्ति इनकी बचपन से ही है। जब से मेरे पास आए, मैंने इनकी इस वृत्ति में क्रमशः वर्धमानता हो पाई है । इनको कार्य-क्षमता और कर्तव्य-परता ने मुझे बहुत संतोष दिया है। __मैंने अपने संघ के ऐसे शिष्य साधु-साध्वियों के बल-बूते पर ही आगम के इस गुरुतर कार्य को उठाया है। अब मुझे विश्वास हो गया है कि अपने शिष्य साधु-साध्वियों के निस्वार्थ, विनीत एवं समर्पणात्मक सहयोग से इस बृहत् कार्य को असाधारण रूप से सम्पन्न कर सकूँगा। भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के अवसर पर उनकी वाणी को जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव हो रहा है। अणुव्रत विहार, नई दिल्ली-१ २५००वां निर्वाण दिवस आचार्य तुलसी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Editorial Ayaro The text of the Āćāränga, adopted by us, does not depend on one specimen only. We have adopted it on the review with reference to the specimens in use, the Ćūrņi and the Vșitti. The three sūtras (27-29) in the second 'Uddeśaka' of the first Adhyayana of the 'Āyāro' are found in all the other five Uddeśakas also. In the specimens used in the redemption of the text as well as in the Acaranga Vșitti they are not found. In the Aćārānga Curņi, commenciog from the Sütrā "lajjamāņā pudhopasa' (Āyāro, Sü. 16, page 4) to the Sūtra 'Appege Sampamärae, Appege Uddawae' (Āyāro, Sū. 29, page 6), it is considered as Dhruvakandikā' (the one and the same text). On the basis of the indications found in the Čurņi, we have adopted the three Sütras in the second Uddeśaka in the rest five Uddeśakas. In place of Kumbhārāyatanamsi wā, in the Ćūrņia of the second Udde. saka (Sū. 21) of the cighth Adhyayana, many a word is found, e.g. 'uwattanagihe wā, gāmdeulie wā, kammagārasālāe wa, tantuwāyagasālāe wā, lohagarasālāe wā'. The Cūrnikāra further writes-Jaciyāo Sālā Sawwāo māniyawwão", Here it appears that the word 'Kumbhārāyatanamsi wā' was added with many other words meaning 'Sālā' or house but, in the course of time due to the faulty scribing, all the other words were left out. It is not possible to decide the text-system on the basis of the Curņi only. This is why it has not been included in the text. 1. See - Ayaro, page 8, footnote no 2, page 11 ; footnote no. 2, page 14; footnotc no 1, page 16; footnote no. 3, page 19; footnote no. 4. 2. Acaranga Curni, page 260 261 3. Acaranga Curni, page 261. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 We have completed the abridged text, too. The tradition to abridge the text was in vouge due to learning of the śruta by heart and making the scribing easy. Pandit Bećar Das Joshi had written to Acarya Tuisi, throwing light on this topic in an article, on 8th December 1966. He observes, "The traditional Jain Sramaņas considered the tendency to write and get written as sinful activities. They, nevertheless, adopted this path as an acception to safe-guard the scriptures. The less writing, the better, Taking this they, surely, tried to search out the way to reduce the sinful activity to the least for the safeguard of the scriptures. In the scarch of this path they found two novel words as 'Wannao' and 'Jāwa'. With the help of these two words, they could abridge thousands of Slokas and hundreds of sentences and their beginning was shortened as well as to deficiency occured in understanding the meaning of the scripture." Threc reasons--the system to learn the śruta by heart, convenience by the script and the intention to write briefly, are probable to cause the abridgement of the text. It has undoubtly, caused no deficiency in the meaning, but it has marred the charm of the text. The difficulties of the reader have also increased. The Munis, having the whole Āgama literature learnt by heart, can make out the antecedents and precedents referred to by the words Jāwa' and 'Wannaga' but the class of Munis learning with the help of the manuscripts cannot do so. The text, having the references of Jāwa' and 'Wannaga', has not proved to be much beneficial to them. We, too have been experiencing this difficulty apparently. To solve this difficulty and bring back the beauty of the text Ācārya Tulsi, our Vāćană-head, desired that the abridged text be recompleted. We have accordingly, completed the abridged text in most places. To indicate that 'dot-marks' have been given. In the first and the second appendices, the tables to point out the places of completion in the 'Ā yaro' and the 'Ayara.cala' have been added. According to Bećara Das Joshi, the text-abridgement was done by Devardhigani Kśamāśramaņa. He writes---"Devardhigaņi Kśamāśramana, while reducing the Agamas in writing, kept some important points in mind. Where ever he found similar readings he avoided the later one by using the words c.g. 'Jaha Uwawāie', Jaha Pannawanae' etc. to denote the omitted text. When some statement occured again and again in a work, he used the word “Jāwa' and wrote the last word of it refraining from the repetition, e. g. Näga Kumārā Jāwa wiharanti', 'Tena Kalena Jäwa Parisā Niggaya' etc." 1. Jain Sahitya ka Vrihat Itihas, page 81. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 The process of abridgement might have been started by Devar dhigani, but it developed in later period. In the specimens, available at present, the abridged text is not uniformal. A Satra has been abridged in one spécimen but written in its full version in the other. The commentators have also mentioned it in many places. In the Aupapatik Satra, for example, these two passages, "Ayapāyaṇi wa Jawa Anpayarain wa" and "Ayabandhanani wa'Jawa Annayaräin wa' are found. They were in the abridged form in the main. specimens the Vrittikära had, but their ful version too, was found in other specimens. The commentator himself has noted it'. Many a time, the scribes, according to their own convenience did not write the preceding text again others followed them in the later specimens. SUYAGADO We have adopted the text of the Sutra Krita depending not on one specimen only. It has been redeemed after the comparative study, based on the specimens used in the text-redemption, the Carni and the readings of the Vritti, and their critical review as well. The system to write was little popular in ancient times. Almost all the scriptures were maintained traditionally learnt by heart. This is why the 'Ghola-Suddhi' (correctness of pronounciation) was much stressed upon. This was a pious duty of the Acarya to correct the seat of utterence of the disciples. The Daśäśrutaskandha Sûtra says-to become 'Ghosa-Sudhi-Karka" is one of the virtues of an Acarya. Special arrangement was there to maintain the text and the meaning in the original form. The Chedasütras throws full light on it, Eight kinds of the Jänäćära have been enumerated. Of them, the three Acaras are concerned with the said arrangement. They are 1. (a) Aupapatika Vritti, patra 177. (b) Pustakantare Samagramidam Sutradwayamastyeveti. 2. Dasasrutaskandha, Dasa 4. 3. Nisithabhasya, Gatha 8, part 1, page 6: Kale vinaye bahumane, uwadhane taha aninhawane, wanjana-atthatadubhac, atthawidho nanamayaro. 4. Ibid, gatha 17, part 1, page 12: Sakkayamattabindu Annabhidhanena wa witam Attham, Wanjeti Jena Attham, wanjanamiti bhannate suttam. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 1. Vyanjana-To maintain the language, vowel-marks, nasal points and words of the text of Satra, as it is. 2. Artha-To maintain the purport (meaning) of the sutra as it is. 3. Vyanjana as well as artha-To maintain the Sütra and its meaning both in the original form. The Carpikira makes it clear with examples', 'Dhammoma ngalam mukkittham' is expressed in Prakrit language. To render this reading in Sanskrit 'Dharmo Mangalamutkṛistam' as such is a dialectical sin of Vyanjana. In the same way, to utter 'Sawwam sawwajjam Jogam paććakkhaami' as 'Sawwesäwajje joge paććakkhami' by changing its vowels is a diacritical sin of Vyanjana. likewise, to utter 'Namo arahantānani' as 'Namo arahantana' omitting the therepotent point of nasal sound and also to pronounce 'Namo aramhantapam adding the point of nasal sound with 'ra' when it is not there, is a nasal-point-change sin of Vyanjana. To bring in the synonyms, in place of the original words of 'Dhammo mangalam mukkittham', such as Punam Kallans mukk osam is also a different-word-sin of Vyanjana. The conclusion of all this account is to stress upon that the originality of language, vowel mark, point of nasal sound, word, word-number, and textorder must be maintained in all respects. Rules were laid down to expiate the sin against this arrangement. On changing the language, the vowelmark or the point of nasal sound one has to undergo the specified atonement. On doing the Sütra-Patha otherwise an expiation of four months followed. In the conclusion of the topic, the Cürnikära writes"-A change of Satra causes a change of meaning, a change of meaning causes a change of 1. Nisithabhasya curni, Part I, page 12. 2. Ibid. 3. Nisithbhasya, Gatha 18, Curnibhasya 1, page 12. Suttabbeya atthabbeo, atthabheya caranabheyo, caranabheya amokkho. Mokkhabhawat dikkhadayo Kiriyabheda aphala bhawanti. Taha vanjanabhedo na kayawwo. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 conduct and the change of conduct makes the salvation impossible. In that case all the rites, such as Dikśă etc. become futile. A change of Vyanjana, therefore, be not done. Likewise, a change of meaning also be not made. The meaning that is uncouth and not applicable be not carried out. On changing the meaning, an expiation for four months follows'. Similarly, on changing the Sūtra and its meaning together, both the aforesaid expiations fall on. A deep thinking had taken place to maintain the originality of the Sūtras and their meaning even in the period of composition of the Agamas. In the present Sūtra, it is clearly stated. A muni studying the work has been alerted that he in no way is set up a Sutra and its meaning differently or expound it otherwise. The Cūrņikāra annotates it thus". In no way a Sutra be dono otherwise. The meaning and that meaning only be carried out which is consistant with its own principle. The Vrittikara writess-A Sūtra be not added to intentionally or a Sútra or its meaning be not done otherwise. From the aforesaid account it is learnt that it was keenly endeavoured to maintain the Sutra and its meaning in its original form. As a result, it has been maintained also to some extent. We can, nevertheless, not say that it has not been changed. It has been done and the reasons for it are also there, e.g. 1. Forgetfulness 1. Nisithbhasya Curni, part 1, page 13. 2. Ibid. 3. Sutrakrita 1/14/26. No Suttamattha cakarcjja annam. 4. Sutrakrita Curni, page 296. Na Sutramanyat praddhesena karotyanyathawa. Jaha ranno bhattansino ujjawalaprasno namarthas tamapi nanyatha kuryat; Jaba "Awantike Awantieke Yawanti tamtogo wipparmsapti'. Sutram sarwathaiwanyatha na Kartawyam, arthavikalxastu swasiddhantavinuddho aviruddah syat. 5, Suttrarkitavitel, page 258. Na ca Sutramanyat Swamativikalpa natah swarparatrayi Kuritanyatha wa suttram todartha wa sansarattrayitrana sito jantunam na vidadhita. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. Change of script 3. Assimilation of the coinmentary with the text. 4. Intervention of time and place. When Silānkarsūri wrote his Vșitti on the "Sūtrakrita', he had its specimens and ancient commentary (Tika) both. In one place of the second Addhyayna of the second Srutāskandha, the reading was not similar to that of the specimens, and the reading, that was commented on, was not found consistant with that of any specimen. He, therefore, commented on the said passage honouring only one specimen. We have adopted the readings of the Cūrni in some places. In comparision to that of the specimens and the VỊitti they appear more relevant. In 2/6/45 the reading is ‘niho nisam'. It has been commented on in the Vțitti as 'ņiwo nisam'. We have adopted the reading of the Cūrni there? . We have discussed the changes in the text and their causes under the footnotes. It was keenly endeavourcd in the Vedic tradition also to maintain the originality of the text of the Vedas. But in their texts, too, there have been timely violations. Dr. Vißwabandhu writes__-"It is a fact accepted by all that great pains, which kuow no parallel in the world history of literature, were taken in this country to maintain the texts of the Vedic literature in their original and correct form by learning them by heart with great care and utmost reverence during the past five thousand ycars. Nevertheless, as the scholars, preceding to us, inicidently found here and there as we have largely seen during our incessant research work for the past forty years, these works, too, could not be saved from the effects of time bound damages and insufficient human hurlings. Had it becn mostly the other way, truly, it would be an incredible miracle." Continuing with the tradition of cramming and passing from one to the other age of script-change in the prolonged period. Some places of every work have deviated from their originality 1. Suttrakritavritti, page 79: That ca pravah sutradarsesu nanabbidhani Suttrabi drisyante, na ca tika sambadhckapyasmabhiradarsah samuphabdhot e kamadarsamangikrityasmabhi viwaranam kriyate. 2. See, Footnote on 2/6/45. 3. Akhilabharatiya praciya vidya Sammelan, Twentifourth gathering, Varanasi 1968, Mukhyadyaksiya speech, page, 8-9. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THĀNAM A word has different forms in Prākrit, and these different forms are used, too, in the Agamas. Some scholars, engaged in the editing work of the Āgamas, have stressed upon that the uniformity in the form of words should be brought up. We have not adopted this method of cditing. Although accepting the sameness of the sound 'na' and 'ra', only 'na' has been used in all the places, the principle to bring up uniformity in different forms everywhere has not been observed. In 3/373 two forms 'Sugati' and Suggati' are found; in 3/375 'Sogata', 'Sugata' and 'Suggata', three forms are found. We have adopted them as they are. The authors are frec in their usages. As they are not the bondsmen of the rule of uniformity, to try to bring uniformity in the editing-work does not seem desirable. The Agamas contain the usages of different languages and syllable changes. In bringing up uniformity in them, the probability to forget the multiformity may arise. 'Wayenam' as well as 'Kamasā' both the forms are used. Andaya' as well as 'Andagā for 'Andajah' and 'Kammabhumiya' as well as "Kammabhūmigā' for "Karmabhumijah' both the forms are formed. To keep up the form as found in a particular place is not a fault of editing. SAMAWÃO The text redemption of this Sutra is based on three specimens and the Vritti as well. In some places other works, too, have been used to redeem the text. In the specimens of the 'Prakirna Samawāya' (Sutra 234) the reading "Assasene' is not found. This is the name of the father of fourth Cakrawarti. In the absence of it, the arrangement of further names becomes inconsistent. In the Sangraha Gathas of the said Sūtra, the name 'Padmottara' is in excess. It has been taken as a recension. The reading 'Assascne' is found in the Awaśvaka Niryukti (399). Basing on it *Assasenc' has been adopted as the text-reading. In the Sangraha Gatha of the Prakirna Samawäya (Sūtra 230) BaldevaVasudeva's father's name are given. Basing on the Sthānānga (9/19) and the Awaśvaka Niryukti the amendment has been carried out. The name of the third Baladeva-Vasudeva's father is 'Rudda', but the manuscript of the Vritti of Samawävänga mentions it as 'Soma' instead of 'Rudda'. In fact, 'Rudda' should follow Soma'. 1. Sce, Samawao, painnaga samawao, Sutra. 230, the first footnote. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In all the specimens of the Samawāya 30 (Sütra 1, gatha 26) it reads Sajjhayawāyam'. The vrittikära, too, explains it as 'Swadhyāyawādam'. But it is not relevent as far as the meaning is concerned. The said 'gātha' is found in the Daśāşrutaskandha (Sūtra 26) where the reading is 'Sabbhāwawäyam' instead of 'Sajjhayawayam'. The Vțittikära of 'Daśāsrutaskandha' has given its Sanskrit form as 'Sadbhāwa wādam'. On reviewing the meaning critically, this reading appears to be relevent. 1, See, Samawao, Samawaya 30, Sutra, 1, the second footnote of Sutra 230, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Forward The Classification of the Agamas The most ancient part of the Jain literature is the Āgama. The Samawāyānga mentions two forms of the Āgama, such as, 1. Dwadasanga ganipitaka’ and 2. Caturadaśapūrwa?, In the Nandi, two divisions of the Śruta-Jyana (Agama) have been given. 1. Anga Pravişta and Angavāhya lhe accounts, found regarding the Adhyayanas of the Sadhus and Sadhwis (monks and nuns), pertain to the Angas and purwas, as 1. The readers of the eleven Angas beginning from the Sāmayika Sāmáiyamāiyāin ekkarasa-angāin ahijajai (Antagaça, Prathama Varga). This statement is found regarding Gautama, the disciple of lord Ariştanemi. Sāmāiyamáiyain ekkarasa angāin Ahijajai (Antāgada, Panćam Varga, Prathama Adhyayana). This statement relates to Padmavati, the disciple of lord Aristānemi. Sāmāiyamãiyāin ckkarasa-angăin (Antagada, Astama Varga, Prathama Adhyayana). This statement pertains to Kāli, the disciple of lord Mahavira. Sāmāiyamāiyain ekkarasa-angāin Ahijajai (Antagada Sasta Varga, 15th Adhyayana). This statement has been given regarding Atimuktakumara, the disciple of lord Mahavira, 2. The readers of the twelve Aogas The statement regarding Jālīkumāra, the disciple of lord Ariştanemi, is given as such Bārasangi (Antagada, Caturtha Varga, Prathama Adhyayana). 1. Samawayanga, Prakirnaka, Samawaya, Sutra. 88. 2. Ibid, Samawaya 14, Sutra. 2. 3. The Nandi, Sutra. 43. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. The readers of the fourteen Purwas Čauddasapuwwain ahijjai (Antagada, tritiya Varga, Navama Adhyayana). This is the statement found regarding Sumukhakumara the disciple of lord Aristanemi. 54 Samaiyamaiyain Čauddasapuwwain ahijjai (Antagada, triya Varga, Prathama Adhyayana). This statement is found regarding Aniyasakumāra, the disciple of lord Ariştanemi. There were three hundred and fifty Caturdaśa-pürw! munis of lord Pārśwa. There were three hundred éaturdașa- pürwi munis of lord Mahavira. The division, Anga-Pravista and Anga-Vahya, have not been given in the Samawayanga and Anuyogadwara. This division first have been made. in the Nandi. The later sthaviras composed the Anga-Vähya. Many angavahyas had been composed before the composition of the Nandi and they were done by the catûrdasa-pürwi or daša-pürwi sthaviras. They were, therefore, taken as solemn as the Agama and two divisions were made of it such as, 1. Anga-pravişta and 2. Anga-Vahya. This division is not found in the Anuyogdwära (sixth century of the Vira-Nirwana). This was first done in the Naudi (tenth century of the Vira-Nirwana) When the Nandi was composed, the Agama was classified threefold, 1. Parwa, 2. Anga-Pravista and 3. Anga-Vahya. What we have today is only Anga-Pravista and 'Anga-vahya'. The 'purwas' are extinct. Their extinction is a subject of delibration from the historical point of view. PURWA According to the Jaina tradition, the Purwa is the Aksaya-Kosa (in exhaustible lexicon) of the Śruta-Jyaña (word knowledge). All do not hold one and the same view about the meaning of the title and their composi tion. The ancient Adaryas hold that as they were composed before the 'Dwadasang they were given the title Purwa" But the modern, scholars 1. Samawayanga, Prakirnaka Samawaya, Sutra. 14. 2. Ibid, Sutra. 12. 3. Samawayanga vritti, Patra 101: Prathamam Purwam tasya Sarwa pravacnat purwam Kriyamanatwat. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ view that the ‘Pūrwa' was the Śruta- Rasi of the tradition of lord Pārswa and preceding to Lord Mahavira, it was, therefore called 'Purwa'. Whatever view of the two is accepted, the conclusion is the same that the Purwas' were composed before the 'Dwadaśāngi' or the 'Dwādaśangi' is a later composition than the 'Purwas". In the form the 'Dwādaśāngi' is now found, the 'Pūrwas' are assimilated. The twelfth Anga is 'Driştiwada'. One of its divisions is "Pūrwagata'. The fourteen 'Purwas' are included in it. The opinion that lord Mahāvira first composed the 'Purwagata Sruta', leads us to the conclusion that the forteen 'Purwas' and the twelfth Anga are one and the same. The 'Purwaśruta was very difficult to understand. The common people could not follow it. The Angas were composed for the benefit of less intelligent persons. Jinabhadra-gani Kšamāśramana says "The Dșiștiwāda contains all the word-knowledge (sabda-Jyaña). The eleven Angas, nevertheless, have been composed for the good of less intelligent people. The eleven Angas were studied only by those monks (Sadhus) who were not very intelligent. The intelligent munis studied the 'Pūrwas'. From the order of classification of the Agama, it is concluded that the eleven Angas are easier than Dţiştiwada or Purwas or have been in a different order from theirs. According to tbe Digambara tradition the Kewalis became extinct after 62 years of Vira-nirwāņa'. After that, for a hundred years only SrūtaKewalis (Caturdaśa-Pärwis) were found. Beyond that for one hundred and eightythree years only Daśapūrvīs were found. And, later to them for a period of two hundred and twenty years only the eleven-Angadharas were found.3 The discussion, given above, makes it quite clear that so long as the Ācāra etc. Angas were not composed, the Sruta-Rasî of lord Mahavira was called 'Caudaha Purwaś or 'Dțiştiwada'. When the eleven Acara 1. Nandi, Malayagiri vritti, Patra 240. Adye tu wyacaksate purwam purwagatasutrarthamarhan bhaste, Ganadhara api purwam purwagata Sutram Vira cayanti, Pascadaearadikam. Visesawasyaka Bhasya, Gatha 554. Ja-i-wi ya Bhutawa-e sawwassa waogayassa Nijjuhana Tahawi hu, dummehe pappa itthi oyaro ya. 3. Jayadhawala, Prastawapa, Page 49. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 etc. Angas were composed, the Dristiwāda was given in the form of the twelfth Anga. Though the two different accounts, such as, 'readers of the twelve Angas' and 'readers of the fourteen Purwas' are found, it cannot be said that the scholars in the fourteen Purwas were not scholars in the twelve Angas and vice-versa. Gautama Swami was called 'Dwādaśängavit. He was a *ćaturdaśa-purvī' as well as "Angadhara'. A 'śruta-kcwali' was somewhere called 'Dwadaśāngavit' and sometimes 'caturdaśa-pūrvi' as well. As the eleven Angas are taken from or a collection of the Purwas, a 'caturdasa-pūrvi' is, of course, a 'Dwādaśangi' also. As the fourteen Purwas are incorporated in the twelfth Anga, a 'Dwādaśāngavit' too. We, therefore, reach this conclusion that the Āgama had only two ancient classifications 1. the Fourteen Purwas and 2. the eleven Angas. The 'Dwādasangi' had no independent standing. This is the title given to the Purwas and the Angas jointly. Some modern scholars hold the Pūrwas, to be of the period of lord PärŚwa and the Angas of lord Mahāvira. But this view is not correct. The tradition of the Purwas and the Angas was prevelent at the time of lord Aristanemi and lord Pārswa too. That the Angas were composed for the use of less intelligent people has been told before. That the intelligence quotient of all the Munis at the time of lord Pārswa was equal is incredible. The intelligence quotients have always differed in each and every age. Considering from the psychological and practical view, we reach the conclusion that the necessity of the Angas prevailed in the order of lord PárŚwa too. To support this view that at the time of lord PärŚwa only the Purwas and not the Angas existed, no evidence is, thercfore, found. By common sense this fact is estabilished that the Purwas and the Angas were renovated according to the purport, language, style and necessity of the age in the order of lord Mahavíra. Fancy has, perhaps, played a main role to support the view that the Purwas were received traditionally from lord Pärswa and the Angas were composed in the tradition of Lord Mahāvīra. 3. Anga-Pravişta and Anga-Váhya It is heard by all that the gañadharas Gautama etc., composed the Pūrwas and the Angas at the time of lord Mahāvira. A simple question 1. See the beginning of the preface. 7 Ittaradhyavana 2317 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 arises if other Munis did not compose thc Agama works. There had been fourteen thousand desciples of lord Mahāvīra'. Of them seven hundred were 'Kewalīs' and four hundred 'Wādīs'. That they did not take part in the composition of the Āgamas does not seem credible. The Nandi says that the disciples of Lord Mahāvīra composed fourtcen thousand Prakirnakas'? besides the aforesaid 'Purwas' and 'Angas'. Nothing proves that the classification, such as 'Anga-Pravişta' and 'Aoga-Vābya' was done at that time. When the later Aćāryas compiled the works after the 'Nirwana' of lord Mabāvīra, the discussion was, perhaps, held to classify them under the Angamas or not and the question of their authenticity too, arose. After the discussion it was decided to classify the works, composed by the 'caturdasa-pūrvi' and the 'Dasa-pürvi' sthaviras, under the Agama but they were not considered authentic by themselves. Their authenticity depended on others. That they are consistent with the Dwādaśāngi was the touch-stone to give them the title of the Āgama. As their authenticity was dependent, the necessity was felt to keep them out of the class of the 'Anga Praviştà' and, in this content only, the 'AngaVabya' class of the Āgama took place. Jinabhadragani Kşmașramana ascertains the kinds of 'Anga-Pravista and 'Anga-Vahya' on three grounds, such as 1. That which is composed by a gañadhara. 2. That which is expounded by a Tirthankara on the query of a ganadhara. 3. That which is pertaining to the firm-eternal truths, and is perpetual and permanent; and that Sruta only is entitled as "Anga-Pravista'. Contrary to this 1. that Sruta which is composed by a Sthavira. temporary or suited to the times only is entitled as 'Anga-Vahya". The main ground to differenciate the Anga-Pravişta from the Anga 1. Samawayanga, Samawaya 14, Sutra 4. 2. Nandi, Sutra. 78. Coddaspa-i-onagasasahassani Bhagwa. Baddhamanassa, 3. Viscsavasyakabhasya, Gatha 552. Gapahara-therakatham wa, Aesa. Mukka-wagarana-O wa. Dhuva-cala visesawa, Anganamgesu Nanattam. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vähya is based on the difference of the person who has spoken it! The Agama delivered by Lord Mahavira and compiled by the ganadharas, is accepted as the basic Angas of the Śruta-Purușa. It is, therefore called the "Anga-Pravista,' According to Sarvárthsiddhi the speakers are of three kinds, 1. the Tirthankara, 2. the Sruta-Kewaii and 3. the Ārātiya?. The Āgamas Composed by the Ārātiya Aćāryas are regarded as 'Anga-Vähya'. According to Ācārya Akalanka, the Āgamas composed by the ArātiyaĀćārya reflect the meaning supported by the Angas'. They are, therefore, called the 'Anga-Vähyas.' The Anga-Vähya Agamas are as good as the Pratyanga or Upānga of the Śruta-purusa. ANGA The twelve Agamas incorporated in the Dwādaśãngi are called Angas. The word 'Anga' is found in the literature of Sanskrit and Prakrit both. In the Vedic literature the works assisting the study of Vedas are given the title of Abga' 'They are six 1. Siksa--The work that expounds the rules of utterence of the words. 2. Kalpa-The scripture that expounds the vedic rites and rituals in an order and agreement. 3. Vyakarana--The scripture that expounds the theories of morphology and meaning of the words. 4. Nirukta-The scripture that expounds etamology of the words. 5. Chandas - The scripture that expounds the theories of morpheme to recite the Mantras. 6. Jyotis--The scripture that expounds the theories to find correct time for the rites of Yajna-Yäga etc. The Vedas have been personified in the Vedic-literature. Accordingly the Sikşā' has been regarded as nose, the kalpa' as hands, the "Vyakarana' as mouth. the "Nirukta' as ears, the Chandas as feet and the Jyotis as eyes of the Veda-person. They are therefore, called the parts of the body of Vedas in the Pali-literature, too, the word 'Anga' has beenu sed. At one place the Buddha-Vaćanas' have been called 'Nawānga' and 'Dwadasānga' at the other. 1. Tatwartha-bhasya, 120. Waktri-viscsad dwaividhyam. 2. Sarvarthasiddhi. 1/20 Trayo waktaran - Sarvajna Tirthankarah, itaro wa Srutakewali Aratis asceti. 3. Tattwartha - Rajavaritika, 1/20. Aratiayacarya Kritangarthapratyasannarupamangavahyam. 4. Papipiyasiksa, 41, 12. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nawanga 1. Sutta-The sermons of lord Buddha in prose. 2. Geyya - The mixed portion of prose and verse. 3. Vaiyyakaraga - The works containing explanation. 4. Gatha – The works composed in verse. 5. Udana-The gistful and affectionate expressions deliverud from the mouth of lord Buddha. 6. Itibuttaka-Small lectures begianing with the words, 'Lord Buddha said thus'. 7. Jataka-The stories of the former births of lord Buddha. 8. Abbbutadhamma- The work that explains the mysterious things of the superhuman powers born of the "Yoga'. 9. Vedalla-Those sermons which have written in the form of dialogues. Dwadasanga 1. The Sutra, 2. the Geyya, 3. the Vyakarane, 4. the Gatha, 5. the Udana, 6. the Awadana, 7. The Itivșittáka, 8. The Nidura, 9. the Vaipālya 10. The Jataka, 11. the Upadeśa-dharma and, 12. the Adbhuta-dharma.? The Jaināgama has been divided into twelve Angas 1. The Aćara 2. The Sūtrakṣita 3. The Sthāpa 4. The Samawāya 5. The Bhagawati 6. The Jynātā Dharmekatha 7. the Upasakadaśa 8. the Antaksita 9. the Anuttaro papātika 10. the Prasaa-Vyākarana 11. the Vipāka and 12. the Dţiştiwada. The word 'Anga' has been used in the three chief Indian philosophical schools. The main works of the Vedic and Buddhist literature are the Vedas and the Pitakas respectively. Nowhere the word "Anga' has been added to them. The main works in the Jain literature have been classified as the Ganipitaka. The Ganipitaka has the twelve Angas-Duwälasange ganipitage 1. Saddharma Pundakrika Sutra, page 34. 2. Buddha Sanskrit Grantha 'Achisamayalankar' Kitika, Page, 35. Sutrama Geyam Vyakaranam, Gathoanavadacakam. Itibrittakam Nidanam, Vaipulayam ca Sajatakam. Upadesadbhutau dharman, Dwadasangamidam vacah. 3. Samawayanga, Prakirnaka Samawaya, Sutra 88. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The personification of "Sruta-Purusa' too, is found in the Jain-tradition. The twelve Agamas, Ācara etc., are like the parts of the 'Gruta Puruşa'. They are, therefore, called the twelve Angas. So the Dwādaśānga becomes the adjective of the Gaņipitaka and the Śruta-Purușa' both. AYĀRO The title This Agama is the first Anga of the 'Dwādaśāngi. As it contains the account of the conduct (Alära), the title 'AYĀRO' It has two Srutaskandhas-1. AYĀRO, 2. ĀYĀRAČULA The Contents The Samawâyānga and the Nandi give an account of the Āćārānga. According to that the present Sutra explains the Acara, Gocar. Vinava Vainavika (fruit of vinaya), (Utthitãsana, Nişaņāsana and Sayitäsana), Gamana, eamkramana, Dose of food etc.application of Yoga in self study ste language, Samiti, Gupti, Sayya, Upadhi, Bhakta-Päna (edibles and Udgama-Utthana, the purity of 'cşņā (motives) etc. the discernment of taking Suddhāśuddha, Vpita, Niyama, Tapas, Updhan etc. Akarya Umāswāti has expounded the topics of every Adhyayana in the Ācārāpga in brief That is given in the order as under :3 1. Sahajivakāya Y@tnã. 2. Renunciating the glory of the wordly off-springs. 3. Winning over of the Parişahas, such as cold-hot etc. 4. Vodaunted Samyaktwa. 5. Udvegas of the world, 6. The means of nullifying the 'Karmas' (deeds). 7. The endeavour to `Vaiyavritya'. 8. The way to penance. 1. Mularadhta 4/599, Vijayodaya : Srutam Purusah Mukhcaranadyangasthaniyatwadangasabdenocyate. 2. (a) Samawayanga, Prakirnaka Samawaya, Sutra. 89. (b) Nandi, Sutra. 80, 3. Prasamarati Prakarana,114-117, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 9. Renunciation of passion for woman. 10. Rules to receive the aims. 11. Bed without woman, Creature, eunuch et. 12. Purity in movement. 13. Purity of language. 14. Method of begging cloth. 15. Method of begging bowls. 16. Purity of habit (Avagraha). 17. Purity of Place (Sthāna). 18. Purity of 'Visadya'. 19. Purity of "Vyutsarga'. 20 Renunciation of attachment to sound 21. Renunciation of attachment to form. 22. Giving up ‘Parakriya'. 23. Giving up Anyonya-kriya'. 24. Steadfastness to the Five Mahāvsitas. 25. Libration from 'Sarvasangas' (all associations). The Niryuktikāra has enumerated the topics of the nine Adhyayanas ol Brahmacarya as under : 1. Satya Parinna-Jiva Samyama. 2. Loga Vijaya-Knowledge of bondage and libration. 3. Siosanijja--Equanimity of pleasure and pain. 4. Sammatta–Right vision. 5. Loga-Sara-Renunciation of worthless and adoration of the Ratna trayi, worthy in the world. Acaranga Niryukti, Gatha 33-34 : Jiyasamjamo a logo jaha bajjhai jaba ya am pajabiyay vam, Suhadukkhatitikkhaviya samimattam logasaro ya. Nissangaya ya chatthe mohasamuttha parisahuwasagga, Nijjatam atthamac nawame ya jinena evamti. 2, Tatwartha Rajavarttika, 1/20. Acare carya-vidhanam sudhyastaka paniasamiti-triguptivikalpam kathyate, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 6. Dluya--non-attachment. 7. Mahaparinna-Enduring properly the Parişahas and Upsargas born of 'Moha'. 8. Vimokkha --- Proper observanes of 'Niravaņā' (the final state). 9. Urahanasuya--Explanation of the conduct observed by lord Mahā viral. Acārya Akala ka bolds that the total matter of the Acūränga is concerning the Carya-Vidhana' (mode of behaviour and conduct). While Aparăjit Suri opines that it is the ascertainment of the conduct of the *Ratna-trayi' SUYAGADO The Title This Āgāma, the second part of the Dwadasângi, is given the title as Süyagado'. The Samawaya, the Nandi and the Anuyogadwar, all the three Āgāmas have this title only for it.2 Bhadrawähu-Swāmi, the Niryuktikāra has given three titles of this Agama according to its tributes. 1. Sūtagada--Sūtaksita 2. Suttakada-Sütrakrita 3. Süyagada-Sūćäkrita Originally this Agama is 'Sūta' (hails from) by lord Mahavira and was given the form of a work by ganadhara. This is, therefore, entitle as 'Sutakrita'. As the truth in it has been ascertained according to the 'Sütrā', it is 'Sutraksita'. As the 'Sućana' of 'Swa' and 'Para' Samaya has been given in it. it is called 'Suća-krita.' 1, Mularadhna, Aswasa 2, Stoka 130, vijayodaya : Ratnatrayacarana nirupanaparataya prathamabhangamacare sabdenocyate. 2. (a) Samawao, Paissagamawao, Sutra. 88. (b) Nandi, Satra. 80. (c) Anuogadwarain, Sutra. 50. 3. Sutrakritanga-oiryukti, Gatha 2: Sutagadam, suttakadam, suyagadam cewa gonna-in. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 Sūta, 'Sutta' and 'Sûya' are as a matter of fact, the Prakrit forms of *Sūtra' only. These different formations led to the imagination of the three attributive titles. Originally, all the Angas were delivered by lord Mahāvira and brought into a composed form by Ganadhara. Then, how can this Agama only be called "Sūtrakrita'? Similarly, the second title, too, is common to all the Angas. The third is the significant basis of the title of this "Āgama'. As the conduct has been ascertained in the context of a comparative prcception (Sütrnā) in this Agama, it is concerned with 'Sućana'. The Samawāya and the Nandi clearly state this Süyagade nam sasamayāsūhajjanti, Parasamaya Sühajjanti sasamaya. parasamaya suhajjanti.! What is preceptive is called a 'Sutra'. The background of this Agama mainly consists of preceptive element. Its title is. therefore, "Sūtrakṣita'. Another thought, which seems to touch the 'reality more closely, can be put forth regarding the title 'Sutrakrita'. The Driştiwäda is five fold-- 1. Parikarma 2. Sutra 3. Purwānuyoga 4. Pūrwägata 5. Calika According to Atarya Virasena the Sutra has an account of other philosophers. As this Agama was composed on that basis only, it was given the title 'Sūtrakrita. This meaning seems to be more logical than the other etomological meanings of the word 'Sutraksita'. The 'Suttagada' and the Suttanipata' of the Budhists seem to be identical in their titles. Anga and Anuyoga This Agama has the second place in the Dwādāśāngi. There are four kinds of Anuyoga--- 1. Čaranakaranānuooga. 2. Dharmakathānuyoga. 3. Ganitānuyoga. 4. Drawyānuyoga. 1. (a) Samawao, paissagasamawao, Sutra 90. (6) Nandi, Sutra. 82. 2. Kasayapa huda, Part 1, page 134. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 The Curņikāra holds that this Āgama is 'ćaranakaraṇānuyoga (treatise on conduct). Silänkasűri has classified it under Drawyānuyoga' (treatise on substances). According to him the Ācārānga is primarily a čaraņakaranayoga while 'Sūtrakritānga' is primarily a 'Drawyānuyoga", The Samawāya and the Nandi give an account of the 'Dwādaśängi." At the end of the account of the Angas, the lines read 'ewam carņakaranaparuwanayā'. Abhayadeva Súri connotes the meaning of 'carana' as Sramaņa-dharma' and of Karana' as 'Pinda-vićuddbi, Samiti etc.' The currikara has regarded the Kalikasrata as a 'caraṇakaranayoga' and the 'Driştiwäda' as a 'drawyanuyoga'.' The Dwadasangi primarily expounds the Driştiwāda, treatise on substances and secondarily the code of conduct. The Currikara legimately regards this Āgama primarily as a treatise on the code of conduct while the Vrittikāra lying stress upon its ascertainment of Dravya (substance), calls it Dravyašastra (a treatise on substance). Both of these classifications have a dialectical variation. THANAM The title This Agama is the third part of the Dwādaśāngi. It sets up the Jiva, Pudgala etc., in number-order. Hence the title , Thanam'. The Contents Swa-samaya (Achat-philosophy), Para-Samaya as well as swa-samaya and Para-samaya both have been set up in this Agama. The Jiya and the Ajīva, the Loka and the Aloka have been founded here. 5 One-ness of the Jiva and its sevarality, according to the views of the 'Sangraha Naya' and the "Vyavahāra Naya,' have been expounded 1. Sutrakritainga Curni, page 5. iha carananu-o-gena adhikaro. 2. Srirakritangaritti, page, 1. Tatracaranga carnakaranam pradhanyena Vyakhyatam, adhuna awasara yatam drawya pradhanyena sutrakritakhyam dwitiyamangam Vyakbyatumarabhyate. 3. Samawayangayritti, Patra 102. Caranam - Vratasramanadharma Samyamadyanekavidhan. Karanam-Pindavisuddhi Samityadyaneka vidham. Sutrakritanga CursiKaiyasuyam caranakarananuyogo isibhslottar ajjhayanani dhammanuyogo, Surpannattadi ganitanuyogo; ditthiwado dawwanujogotti. 5. Samawao, painnagasamawao, Sutra. 92 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 in it. According to the Sangraha Naya, the Jiva is one and the same far as the soul is concerned. From the view point of the 'vyavahāra-naya' each and every Jiva is parted with, i.e. it is divided into two parts according to the knowledge and appaerance, into three parts according to the 'Karma-letna' or 'Phrowge-utpāda' and 'Vināśa', into four parts because of its wandering in the four-fold motion; into five parts from the view point of Pariņāmikādi' five states; into six parts due to the accession to the six directions, such as the East, West, North, South, up-ward and down-ward at the time of transgression to other birth; into seven parts according to the seven kinds of 'Syādasti-Syádnāsti'; into eight parts according to the eight *Karmas'; into nine parts as it changes into the aine substances; and into ten parts from the view point of the *Prithivi-Kāyika', 'Jala Kāyika', 'Agni-Käyika', 'Wāyu-Kāyika', 'Pratyeka Vanaspati-Kāyika', 'Sadhārana Vanaspati-Káyika' species having two organs, species having three organs, species having four organs, and species having five organs. Likewise, this Agama gives an account of one-ness of "Pudgala' etc. and their various Paryāyas' (modifications) counting from two to ten. From the view of 'Paryāyas', one and the same element parts with into innumerable and unlimited parts, and, from the view point of the matter (Dravya), these innumerable parts conform into one and the same element. This exposition of conformity and deformity is well found in this Agama. Samawão The title The Agama is the fourth part of the 'Dwädaśāngi' having the title "Samawao'. The substances, Jiva-Ajiva etc., have been put into divisions or brought down properly in this Agama, therefore, the title “Samawão'. According to the Digamber literature, this Agama speaks of similarity of the Jivadi substances therfore, called the 'Samawão'. The 'Samawao' 1. Kasayapahuda, part 1, page 123. 2. Samawao-Vrithi, patra 1, Samit-Samyaka avetyadhikyena ayanamayah Paticchedo Jivajivadi-vividhapadartha Sarthasya yasaminnasan Samawayah Samawayanti wa, Samawasaranti Samuilanti nanawidha Atmadayo Bhawa Bhawa abhidheya.aya Yasminnasan Samawaya iti. 3. Gommatasara Jivakanda Jiyaprabodhni Tika, gatha 356. **Sam-Sangrahena Sadrisya-Samanyena Avayante joayante jivadipadartha dravya kalabhavan a sritya asmitnniti 'Samawayangam. Nandi, Sutra. 83 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gives an account of the 'Dwadasangi". And, as it is the fourth part of the 'Dwadasangi', it narrates the 'Samawão, too. The Nandi-Satra discusses the 'Dwadasangi in order. The table of contents of the 'Samawão' has been given in it as under: 1. The description of the Jiva-Ajiva, Loka-Aloka and Swa-Samaya as the well as Para-samaya. 2. The evolution of the number beginning from one to hundred. 3. The account of the Dwadasanga ganipitaka. According to the 'Samawayanga' the table of contents of the 'Samawa-o' is as follows: 1. The description of Jiva-Ajiva, Loka-Aloka and swa-samaya as well as Para-samaya, 66 2. The evolution of the number beginning from one to hundred 3. The account of the 'Dwadasanga-gani- pitaka". 4. Áhära 5. Uéchwäsa 6. Lesya 7. Awasa 8. Upapāta 9. Čyawana 10. Awagaha 11. Vedanä 12. Vidhana 13. Upayoga 14. Yoga 15. Indriya (organs) 16. Kaşaya 17. Yoni 18. Kulakara 1. Se kim tam samawae nam jiva samasijjanti, ajiva samaanjsa jti jivajiva samasijjanti. Sasamae samasijjai, para-samaye samasijjai, sasamaya para sama-e samasijja-i. Loc sa masijiai, aloc samasijjai, lo-a-loe samasijjai, samawaenam ega-i-yanam eguttariyanam thanasaya-niwaddhiyanam bhawanam paruwana adhhawijja-i duwalasa vihassa ya ganipidagssa pallawagge samasijja-i. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. Tirathankara 20. Ganadhara 21. Cakrawarti 22. Baladeva-Vasudeva!. A comparative study of both the tables of contents makes it clear that the table of contents given in the Nandi is a brief one, and that of the 'Samawa-o' large. The volume of the Sūtra, too, becomes short and long according to the tables of contents. That the 'ekoitarika Vriddhi' (Increasing one by one) takes place upto hundred is mentioned in both the accounts. In either of them, there is no mention of the 'Anekottarika Vriddhi'. The Anekottarika Vriddhi has not at all been mentioned in the Nandi Čūrni, Haribhadriya Vritti and the Malaya Giriyavritti, all the three Abhayadeva Sūri has discuss the Anekottarika Vriddhi in his Vșitti of Samawāyānga. According to him, the Ekottarika Vșiddhi takes place upto huodred and beyond that the Anekottarikā Vriddhi.2 It appears that the Vșittikāra has discussed it not on the account given in the 'Samawāyānga' but on the text then available to him. On reviewing both the accounts, two questions arise 1. Is not the present Samawāyānga different from the account of the Samawāyānga given in the Nandi ? 2. Is the present Samawāyānga is of the Vaćna by Devardhigani ? If so, why then such a variation in both the accounts of the 'Sama wäyānga'? In reply to the first question, it can be said that 'Dwādasānngi' is the final content of the Samawāyānga-Sutra according to the account, relating to the Samawāyānga, given in the Nandi. Many a content has been expounded beyond the 'Dwadaśangi in the present Samawāyānga. It is therefore, established that the present volume of the 'Samawāyānga' is different from that of the account of the Samawāyanga given in the Nandi. 1. Samawa-o, pa-i-nnagasawawo, Sutra. 92. 2. Samawa-o Vritts, patra 105. *ca sabdasya canyatra samband hatdkottarika anekottarika ca, tatra satam yawa tekottarika parata gnekottariketi, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 Difficult it is to give an assertive answer to the second question. So much, nevertheless, can be said that there had been various Vāćanās of the Āgamas. This is why a mention of various Väćanäs (Paritcā Vāyaṇā) has been made while giving the account of each and every 'Anga'. Abhayadeva Sūri gives a mention of the large (Brihat) Vāćanā of the Samawäyānga! From it, this may be inferred that the Nandi gives an account of the Samawāyānga relating to the short "Väćanä.' It is established from the Vțitti written by him, that Abhayadeva Súri had with him various Vāćanās of this Sutra, There can be two likelihoods regarding the enlarged edition of the 'Samawāyāaga.' 1. That this Sutra is based upon the Vāćanā different from that of the Vāćanā of Dewardhigari,' or 2. That the portions beyond the Dwadasāngi' have been added to it after 'Devardhigani'. Had this Sūtra depended on some different 'Väćanā,' there would have been some tradition mentioned. This agelong traditional mention has been coming down that the Jyotis- Kanda is based upon the 'Mathuri Vačana'. Had the present Samawāyānga, too, been based on the Mathuri Vaćanā, there would have been some traditional mention of it. The first likelihood lacking the probablity of its support, the second likelihood gains the ground. But it too, is refuted by the Bhagwati, and the Sthânănga, The Bhagwati refers to the final part of the Samawāyānga for the full account of Kulakar, Tirathankar ctc. Likewise, the final part of the Samawāyānga has been referred to for the full account of the BaldevaVasudeva by the Sthānănga also“. It is, therefore, obvious that the appendix 1. (a) Samawao Vritti, Patra 58 : Brihadvacanayamanantaroktamatisayadwayam cradhi yate. (6) Ibid, Patra 69: Brihadvacanayamidamanyadatisayadwayamadhiyate. 2. Samawao Vritti, Patra 144 : Vacanantaretu paryasana Kalpo tasramentyabhi hitan. 3. Bhagwati Satara 5; Uddesaka 5. 4. Sthananga, 9/19-20. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ was added in the time of Devardhigani only. It is strange that one and the same editor gave two different accounts in the Samawäyänga and the Nandi) of one and the same Āgama. There were two main Vācanās, the Māthuri and the Vallabhi. There were many other secondary Vācapās also. This is why there are many different readings. These different readings, probabily occured on adding the explanation or appendix portions. This can well be inferred that the later part of the Dwādasāngi in the Samawayānga is its appendix. The account of the appendix was added to the account of the Samawāyānga with the result that its table of contents swelled more than the table of the Samawāyānga found in the Nandi. There is a summary of eleven stenzas of the "Prajñāpna' in the appendix. It is a matter of investigation why they were added here? Accomplishment of the work In the accomplishment of this task, there has been the contribution of many a Muni. I bless them that their devotedness to the performance be ever more developed. For the editing of this Agama major amount of credit goes to my learned disciple Muni Shri Nath Mali. Day in and day out he has devoted himself to this arduous task. It is because of his concentrated efforts that the work has got such a nice accomplishment. Otherwise, it would not have been an easy job. On account of his in-born Yogic temperament he was capable of attaining that concentration of mind which was essential for achieving the end. On account of his constant devotion to the work of research in the field of Āgamic literature bis intellect has achieved sufficient sharpness in finding out immediately the hidden meaning and mysteries of Āgamic expositions. His keen sense of obedience, perseverance and absolute dedication have contributed much in developing his personality. The above qualities are seen in him since his early age. Right from the time when he joined the Sangha I have been an observor of these qualitics of his, which have so developed. His capacity to undertake to a big task has given me ever increasing satisfaction. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 I have undertaken this hard and tremendous task of editing the Agamas relying on the strength of such learned disciples in the Sangha. I am now, quite confident that I shall be able to complete this hazardous work with the help and assistance of my obedient, selfless and devout disciples. On the holy occasion of this 25th centinary of Lord Mahavira, I have a feeling of great pleasure in presenting to the people the teachings of the Lord. Anuvrata Vihar Acharya Tulasi Delhi Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो पढमं अज्झयणं श्लो० १-८८ पृ० २५३-२६३ बंध-मोक्ख-पदं १, पंचमहन्भूत-पदं ७, एगप्प-वाद-पदं , तज्जीव-तच्छरीर-वाद-पदं ११, अकारक-वाद-पदं १३, आयच्छटू-बाद-पदं १५, बुद्धाणं पंचक्खंध-चतुधातु-वाद-पदं १७, णिस्सारता-निर्दसण-पदं १६, णियति-वाद-पदं २८, अण्णाणिय-वाद-पदं ४१, सोगताणं कम्मोवचय-चिंता-पदं ५१, सुत्तका रस्स उत्तर-पदं ५६, पूइकम्म-आहार-दोस-पदं ६०, कयवाद-पदं ६४, अवतार-बाद-पदं ७०, अत्त-पवाद-पसंसा पदं ७२, सिद्ध-वाद-पदं ७४, उवसंहार-पद ७५, जावणा पदं ७६, लोग-वाय-पदं ८०, अहिंसा-पदं ८३, भिक्खूचरिया-पदं ८६ । बीयं अज्झयणं श्लो० १-७६ पृ० २६४-२७५ संबोधि-पदं १, अणिच्च-भावणा-पदं ५, कम्म-विवाग-पदं ७, कसाय-परिणाम-पदं ६, सिक्खा-पदं १०, वीर-पदं १२, कम्म-विधूणण-पदं १३, अणुलोम-परीसह-पदं १६, माणविवज्जण-पदं २३, समता-धम्म-पदं ३८, सामण्णस्स माहप्प-पदं ३२, सुहुम सल्ल-पदं ३३, एगचारि-पदं ३४, राय-संसग्ग विवज्जण-पदं ४०, अहिगरण-विवज्जण-पदं ४१, गिहि-भायण-पदं ४२, उत्तम-धम्म-गहण-पदं ४३, बंभचेर-पदं ४७, मुणीण विवेग-पदं ५०, आयहित-पदं ५२, सामाइय-पदं ५३, कम्मावचय-पदं ५५, काम-पुच्छा पदं ५६, आरंभपरिणाम-पदं ६३, परलोग-संदेह-पदं ६४, परलोग-सद्दहणा-पदं ६५, आयतुला-पदं ६६, अगारवासे-धम्म-पदं ६७, सच्चोवकम्म-पदं ६८, असरण-भावणा-पदं ७०, बोहि-दुल्लहपदं ७३, धम्मस्स तेकालियत्त-पदं ७४ । इलो०१-८२ तइयं अज्झयणं १० २७६-२५६ ओघ-उवसम्ग-पदं १, सीत-परीसह-पदं ४, गिम्ह-परीसह-पदं ५, जायणा-परीसह-पदं ६, वध-परीसह-पदं ८, अक्कोस-परीसह-पदं ६, फास-परीसह पदं १२, केसलोय-भचेर-परीसहपदं १३, वध-बंध-परीसह-पदं १४, उक्खेव-पदं १७, अणुकूल-परीसह-पदं १८, भोगनिमंतण-पदं ३२, अज्झत्थ-विसीदण-पदं ४०, परवाद-वयण-पदं ४७, अणुस्सुत-विसीदणपदं ६१, सात सातेण विज्जई-पदं ६६, अबंभचेर-समत्थण-तण्णिरसण-पदं ६६ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्भयणं इलो० १-५३ इत्सिंसग्ग- विवज्जण-पदं १, इत्थि आसत्तस्स विडंबणा-पदं ३ | इलो० १-५२ पंचमं अज्झयणं रग - वेदणा- पद १ । छट्ट अभयणं महावीर माहप्प - वण्णग-पदं १ । सत्तमं अजभयणं ओघतो कुसील - पदं १, १२, कुसील - उवालंभ- पदं सुसील - पदं २७ । गारसमं अज्झणं ७७ इलो० १-२६ बारसमं अज्झणं समोस रण- चउक्क पदं १, किरिय- वादि-पदं ११ । मग्ग-सार- पदं १, अहिंसा-पदं ७, २२, बोद्धदिट्ठी- समीक्खापदं २५, अ इलो० १-२७ पृ० ३१०-३१३ वीरिय-पदं १, बाल-वीरिय-पदं ४, पंडित वीरिय-पदं १०, अबुद्ध-परक्त पदं २३, बुद्धपरक्त पदं २४ । श्लो० १-३० १०, पासंड- कुसील - पदं ५, कुसील - विभाग- पदं १६, सलिंग कुसील-पदं २१, सुसील - पदं २२, श्लो० पृ० २८७-२६३ नवमं अभयणं श्लो० १-३६ पू० ३१४-३१८ धम्मपद १, मूलगुण-पदं ८, उत्तरगुण-पदं ११, भासा - विवेग पदं २५, ससंग्गि- वज्जण पदं २८, सामण्ण- चरिया-पदं २६ । पृ० २६४-३०० दसमं अज्झयणं पृ० ३१६-३२२ समाधि-पदं १, चरित -समाधि-पदं ४, असमाधि-पदं १६, मूलगुण समाहि-पदं २०' उत्तरगुणसमाहि-पदं २३ । पृ० ३०१-३०४ १० १-२४ पृ० ३०५ - ३०६ कुसील - दंसण-पदं कुसील - पद २३, · • श्लो० १-३८ पृ० ३२३-३२७ एसणा-पदं १३, भासा समिति-पदं १६, धम्म-दीव -पदं मग्ग-संघाण-पदं ३२ । इलो० १-२२ पृ० ३२८-३३१ अण्णाण वादि-पदं २, वेणइयवादि-पदं ४, अकिरिय-वादि-पदं ५ तेरसमं अज्झयणं श्लो० १-२३ पृ० ३३२-३३५ उक्खेव पदं १, सिस्स- दोस-गुण-पदं २, मद - परिहार- पदं १०, अणाणुगिद्ध पदं १७, धम्मवागरण - विवेग-पदं १८, निक्खेव पदं २३ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ चउद्दसमं अज्झयणं श्लो० १-२७ पृ० ३३६-३३६ बंभचेरवासे गंथसिक्खा-पदं १, बंभचेरवासे अणुसिट्टि-सहण-पदं ७, बंभचेरवास-फल-पदं १२, बंभचेरबासे लद्धगंथस्स कायव्व-पदं १८ । पणरसमं अज्झयणं अणेलिस-पदं १। श्लो० १-२५ पृ० ३४०-३४२ सोलसमं अज्झयणं पृ० ३४३-३४४ उक्खेव-पदं १, माहण-पदं ३, समण-पदं ४, भिक्खु-पद ५, निग्गंथ-पद६ । बीओ सुयक्वंधो पढमं अज्झयणं सू० १-७२ पृ० ३४५-३६७ पउमवरपोंडरीय-पदं १, पढम-पूरिसजात-पदं ६, दोच्च-पुरिसजात-पदं ७, तच्च-पूरिसजातपदं ८, चउत्श्र-पुरिसजात-पदं ६, भिक्खु-पदं १०, पुव्वुत्त-णातस्स अट्ठ-पदं ११, तज्जीवतस्सरीर-वादि-पदं १३, पंच महाभूतवादि-पदं २३, ईसरकारणिय-पदं ३२, णियतिवादिपदं ३६, भिक्खुणो भिक्खायरिया-समुद्राण-पदं ४६, भिक्खुणो लोगनिस्सा विहार-पदं ५३, अहिंसा-धम्म-पदं ५६, भिक्खुचरिया-पदं ५६, धम्म-देसणा-पदं ६६, भिक्खु-वयणिज्जपदं ७१। बीयं अज्झयणं पृ० ३६८-४०२ उक्खेव-पदं १, अधम्मपक्खे किरिया-पदं २, अट्ठादंड-पदं ३, अणहादंड-पदं ४, हिंसादंड-पदं ५, अकस्मादंड-पद ६, दिद्विविपरियासियादंड-पदं ७, मोसवत्तिय-पदं ८, अदिण्णादाणवत्तियपदंह, अज्झत्थिय-पदं १०, माणवत्तिय-पदं ११, मित्तदोसवत्तिय-पदं १२, मायावत्तिय-पदं १३, लोभवत्तिय-पदं १४, इरियावहिय-पदं १६, पावसुयज्भयण-पदं १८, चउद्दसविहकुरकम्मकरण-पदं १६, सप्पओयणं कुरकम्मकरण-पदं २०, सद्दादि विसएहिं विरुद्धस्स कूरकम्मकरणं-पदं २१, संपदायलित्तस्स असव्ववहारकरण-पदं २५, वीमंसरहियस्स करकम्मकरण-पदं २६, धम्मपक्खे भिक्खुणो भिक्स्त्रायरियासमुट्ठाण-पदं ३३, भिक्खणो लोगनिस्सा विहार-पदं ३७, अहिंसाधम्म-पदं ४०, भिक्खुचरिया-पदं ४३, धम्मदेसणा-पदं ५१, मीसगपक्ख-पदं ५६, अधम्म-पक्ख-पदं ५८, धम्म-पक्ख-पदं ६३, मीसग-पक्ख-पदं ७१, तिपद समोयार-पदं ७५, दुपद-समोयार-पदं ७६, अहिंसा-पदं ७७, उवसंहार-पदं०। तइयं अज्झयणं सू०१-१०२ १०४०३-४४८ उक्खेब-पदं १, पुढविजोणियरुखस्स आहार-पदं २, अज्झारोहरुक्खस्स आहार-पदं ६, पूढविजोणियतणस्स आहार-पदं १०, पुढविजोणियओसहिस्स-आहार-पदं १४, पुढविजोणियहरियस्स आहार-पदं १८, पुढविजोणियकुहणस्स आहार-पदं २२, उदगजोणियरुक्खस्स आहार-पदं २३, अज्झारोहरुक्खस्स आहार-पदं २७, उदगजोणियतणस्स आहार-पदं ३१ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ उदगजोणियोसहिस्स आहार-पदं ३५, उदगजोणियहरियस्स आहार-पदं ३६, उदगजोणिय-सेवालादिस्स आहार-पदं ४३, रुक्खजोणियतसपाणस्स आहार-पदं ४४, अज्झारोहजोणिय-तसपाणस्स आहारपदं ४७, तणजोणिय-तसपाणस्स आ हार-पदं ५०, ओसहिजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ५३,हरियजेणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ५६, कुहणजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ५६, रुक्खजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ६०, अज्झारोहजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ६३, तणजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ६६, ओसहिजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ६६, हरियजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ७२, सेवालादिजोणियतसपाणस्स आहार-पदं ७५, मणुस्सस्स आहार-पदं ७६, जलचरस्स आहार-पदं ७७, च उप्पय थलच. रस्स आहार-पदं ७८, उरपरिसप्पथलचरस्स आहार-पदं ७६, भुयपरिसप्पथलचरस्स आहार-पदं ८०, खहचरस्स आहार-पदं ८१, विगलिंदियस्स आहार-पदं ८२, आउकायस्स आहार-पदं ५५, अगणिकायस्स आहार-पदं ८६, वाउकायस्स आहार-पदं ६३, पुढविकायस्स आहार-पदं ७, निक्खेवपदं १०१। चउत्थं अज्झयणं सू० १.२५ पृ० ४४६-४५७ पइण्णा-पदं १, चोयगस्स अक्खेव-पदं २, हेउ-पदं ३, दिटुत-पदं ४, उवणय-पदं ५. णिगमणपदं ६, चोयगस्स अक्खेव-पदं ७, सण्णि-असण्णि-दिटुंत-पदं ८, सणि-असण्णि-दितस्स परिसेस पक्ष १८, संजय-पदं २१ पंचमं अज्झयणं श्लोक १-३३ पृ० ४५८-४६० सासय-असासय पदं १, सरिस असरिस-पदं ६, अहाकम्म-पदं ८, सरीरवीरिय-पदं १०, लोगादीणं अत्थित्त-सण्णा-पदं १२, वह-विवेग-पदं ३० । छटठं अज्झयणं श्लोक १-५५ पृ०४६०.४६७ गोसालम्स अक्खेव-पदं १, अद्दगस्स उत्तर-पदं ४, गोसालस्स अक्खेव-पद ७, अगस्स उत्तर-पदं ८, गोसालस्स अक्खेव-पदं ११, अगस्स उत्तर-पदं १२, गोसालस्स अक्खेव-पदं १५, अगस्स उत्तर-पद १७, गोसालस्स अक्खेव-पदं १६, अगस्स उत्तर-पदं २०, बुद्ध-भिक्खुणं साभिप्पाय-निरूवण-पदं २६, अद्दगम्स उत्तर-पदं ३०, वेय-वाईणं साभिप्पाय-निरूवण-पदं ४३, अगस्स उत्तर-पदं ४४, संख-परिवायगाण साभिप्पाय-निरूवण-पदं ४६, अगस्स उत्तर-पदं ४८, हस्थितवसाणं साभिप्पाय-निरू वण-पदं ५२, अद्द गस्स उत्तर-पदं ५३ । सत्तमं अज्झयणं सू०१-३८ पृ० ४६८-४८६ उक्खेव-पदं १, लेव-गाहावइ-पदं ३, उदगपेढालपुतस्स पहाणमइ-पदं ८, उदगपेढालपुत्तस्स पण्ड-पदं १०, भगवओ गोयमस्स उत्तर-पदं ११, उदगपेढालपुत्तस्स पडिपण्ह-पदं १२, भगवओ गोयमस्स पच्चूत्तर-पदं १३, उदगपेढालपुत्तस्स सपक्ख-ठावणा-पदं १५, भगवओ गोयमस्स पच्चुत्तर पदं १६, समणदिटुंत-पदं १७, पच्चक्खाणस्स विसय-उवदसण-पदं २०, णवभंगेहिं पच्चक्खाणस्स विसय उवदयण-पदं २६, तस-थावर-पाणाणं अव्वोच्छित्ति-पद ३०, उपसंहार-पदं ३१ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो सुयक्खंधो पढमं अज्झयणं पढमो उद्देसो बंध-मोक्ख-पदं १. बुज्झज्ज तिउट्टेज्जा बंधणं परिजाणिया । किमाह' बंधणं वीरे? किं वा जाणं तिउदृइ ? ।। २. चित्तमंतमचित्तं वा परिगिझ किसामयि । ___अण्णं वा अणुजाणाइ' एवं दुक्खा "' मुच्चई ।। ३. सयं तिवातए पाणे अदुवा अण्णेहि घायए। हणतं वाणुजाणाइ वेरं वड्डइ अप्पणो ।। ४. जस्सि' कुले समुप्पण्णे जेहिं वा संवसे गरे । ममाती लुप्पती बाले अण्णमण्णेहिं मुच्छिए ।। ५. वित्तं सोयरिया' चेव सव्वमेयं ॥ ताणइ । _ 'संधाति जीवितं चेव'' कम्मणा उ तिउट्टाइ ।। ६. एए गंथे विउक्कम्म एगे समणमाहणा । अयाणता विउस्सिता सत्ता कामेहिं माणवा ।। पंचमहाभूत-पदं ७. संति पंच महब्भूया. इहमेगेसिमाहिया । पुढवी आऊ तेऊ वाऊ आगासपंचमा ।। १. किमाहु (चू)। २. धीरे (चू)। ३. अणुजाणाए (क)। ४. एव (क)। ५. जेसिं (ख); जंसी (चू)। ६. सोअरिया (ख); सोदरिया (च)। ७. संवाए जीवियं चेव (क, ख, वृ, चुवा) । ८. कम्मुणा (ख); कम्मणो (१); कम्मणा (वृपा)। है. वियोसिया (विओसिता), विउस्सिता (च)। १०. महन्भूता (चू)। ११. आऊ य (ख)। २५३ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सूयगडो १ ८. एए पंच महत्भूया तेव्भो एगो त्ति आहिया । ____ अह एसि' ‘विणासे उ'' विणासो होइ देहिणो' । एगप्प-वाद-पदं & जहा य पुढवीथूभे एगे गाणा हि दीसइ । एवं भो ! कसिणे लोए विष्णू णाणा हि दीसए' ।। १०. एवमेगे ति जति मंदा आरंभणिस्मिया ! एगे किच्चा सयं पावं तिव्वं दुक्खं'" णियच्छइ ॥ तज्जीव-तच्छरीर-वाद-पदं ११. पत्तेयं कसिणे आया जे वाला जे य पंडिया। संति पेच्चा ण ते संति णत्थि सत्तोववाइया ।। १२. णत्थि पुण्णे व पावे वा णस्थि लोए इओ परे"। सरीरस्स विणासेणं विणासो अकारक-वाद-पदं १३. कुव्वं च कारयं चेव सव्वं कुव्वं ण विज्जइ"। एवं अकारओ अप्पा 'ते उ एवं पगभिया ।। १४. जे ते उ वाइणो एवं लोए तेसि कुओ" सिया? । __तमाओ ते तमं जंति मंदा आरंभणिस्सिया ।। १. ते भो (क, चूपा)। २. एक्को (क)। ३. अध (ब)। ४. तेमि (म्य, च) । ५. विशासेणं (क्य); विसयोगे (च) । ६. देहिण (क, ख, चू)। ७. वट्टा (क, दृ)। ८. एवमेगो (च)। ६. एगो (च)। १०. यण (क)। ११. तेणं निव्वं (क, चू); तेणं तिप्पं (चुपा)। १२. पच्चा (क्व)। १३. परं (च); वरे (क्व)। १४. देहिणं (ख, च)। १५. कारवं (चू)। १६. विज्जए (क)। १७. एवं एते (ख); एवमेगे (चू) । १८. कतो (ख)। १६. मोहेण पाउता (चूपा)। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झ्य णं (समए–पढमो उद्देसो) २५५ आयच्छट्ठ-वाद-पदं १५. संति पंच महन्भूया इहमेगेसि आहिया । ___ आयछट्ठा' पुणेगाहु आया लोगे य सासए । १६. दुहओ ते ण विणस्संति' णो य उप्पज्जए असं । सब्वेवि सव्वहा" भावा णियतीभावमागया ॥ बुद्धाणं पंचखंध-चतुधातु-वाद-पदं १७. पंच खंधे वयंतेगे वाला उ खणजोइणो । अण्णो अणण्णो णेवाहु हेउयं व अहेउयं ।। १८. पुढवी आऊ तेऊ य तहा वाऊ य एगओ। चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसु जाणगा ।। णिस्सारता-निदसण-पदं १६. अगारमावसंता वि आरण्णा" वा वि पन्वया"। __इम३ दरिसणमावण्णा सव्वदुक्खा विमुच्चंति" ।। २०. 'तेणाविमं तिणच्चा गं५ ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते ओहंत राऽऽहिया ॥ २१. तेणाविमं तिणच्चा ण ण ते धम्मविऊ जणा! जे ते उ वाइणो एवं संसारपारगा। २२. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते गब्भस्स पारगा।। २३. तेणाविमं तिणच्चा ण ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते जम्मस्स पारगा ।। १. आतच्छट्टा (चू)। ११. अरण्णा (ख)। २. पुणो आहु (क, ख)। १२. पव्वइया (क): ३. विण्णस्सति (क). १३. एतं (च)। ४. सव्वया (क, ख)। १४. विमुच्चई (क, ख)। ५. नियत्तीभाव (क, ख)। 'क' प्रतौ निम्न- १५. तेणा वि संधि णच्चा ण (क, ख, ब)। वृत्ती स्थाने नियती० इत्यपि लिखितमस्ति । प्रत्योश्चायमेव पाठो लभ्यते, किन्तु चूर्णिगत६. णेगाहु (चू)। पाठोर्थविचारणया प्रकरणपाती प्रतिभाति, ७. च (क्व)। तेनात्र मूले स एव स्वीकृतः । ८. ४ (क, ख)। १६. व्या० वि०.-द्विपदयोः सन्धिः-ओहंतरा ६. यावरे (वृ); जाणगा (वृपा)। आहिया। १०. आगार° (ख)। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ २४. तेणाविमं जे ते उ २५. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते वाइणो एवं ण ते तिणच्चा णं ण ते जे ते उ वाइणो एवं ण ते मारस्स २६. 'णाणाविहाई दुखाई अणुहवंति पुणो संसारचक्कवालम्मि वाहिमच्चुरा गच्छंता गब्भमेस्संतांत सो महावीरे एवमाह' २७. उच्चावयाणि णायपुत्ते नियति-वाद-पदं २८. आघायं वेदयंति सुहं दुक्खं २६. ण तं सयं कडं दुक्खं सुहं वा जइ 'वा दुक्खं" ३०. ण सयं कडं ण अण्णेहि संगइयं तं तहा तेसि ३१. एवमेयाणि णिययाणिययं ३२. एवमेगे उ एवं वट्टिया १. व्या० वि० एष्यन्ति अनन्तशः । २. ० माहू ( क ख ) 1 ३. संसारचक्रवालम्मि, भमता यि पुणो गुणो ] । उच्चावयं णिच्छंता, गब्भमे संतणंतसो ॥ (चू) ४. पुणिहेगेसि (च्) । ५. वेदयंती (चू) 1 ६. विलुप्यन्ते ( वृ) । ७. कओ (क, वृ); करतो ( ख ) | ८. वाऽसुहं (च) । धम्मविऊ जणा । दुक्खस्स पारगा ।। धम्मविऊ जणा । पारगा ।। पुणो । बोओ उद्देस 'पुण एगेसिं" उववण्णा पुढो जिया । अदुवा लुप्पति' ठाणओ || 'ण य" अण्णकडं च णं । सेहियं वा असे हियं ॥ वेदयंति पुढो जिया । इहमेगेसिमाहियं 11 जंपंता बाला पंडियमाणिणो" 1 संतं अयाणंता" अबुद्धिया || पासत्था 'ते भुज्जो " विप्पगब्भिया । संता णत्तदुक्खविमोयगा" 11 II । जिणोत्तमे ॥ -त्ति बेमि ॥ सूयगडो १ ε. á (at) i १०. सई (चु) । ११. पंडितवादिणो (चू) । १२. अयाणमाणा (च्) । १३. य (क ) 1 १४. अजाणता (चू) | १५. ० पवट्टिया ( क ) . • उवट्टिया ( ख ) ; व्या० वि० --- एवं + अपि + उवट्टिया । १६. न ते दुक्खविमोक्खया ( क, ख ) ; • विमोक्खया (वृ) | Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं (समए - बीओ उद्देसो) ३३. जविणो भिगा जहा संता असंकियाइं ३४. परिताणियाणि' तज्जिया' । असंकिणो ॥ असंकिणो । तहिं ॥ से बद्धे पयपासाई' तत्थ घायं ३५. अह तं पवेज्ज वज्भं आहे वज्भस्स वा वए । 'मुच्चेज्ज पयपासाओ" 'तं तु मंदो ण देहई " ॥ विसमं तेणुवागए " t ३६. अहियप्पाऽहियपण्णा' णियच्छइ ॥ अणारिया । असंकिणो ॥ मूढगा । अकोविया ॥ विहूणिया " । चुए ॥ ३८. धम्मपण्णवणा जा सा" "तं तु" संकंति आरंभाई" ण संकंति अवियत्ता ३६. सवप्पगं विउक्कस्सं" सव्वं णूमं अप्पत्तियं अकम्मंसे एयम मिगे ४०. जे एयं " णाभिजाणंति मिच्छदिट्टी" अणारिया | मिगा वा पासबद्धा ते घायमेसंतऽणतसो " 11 अण्णाणिय-वाद-पदं ४१. माहणा परिताणेण' संकंति संकियाई संकंता पासियाणि अण्णाणभयसंविग्गा संपलिति तहि ३७. एवं तु समणा एगे असंकियाई संकति" संकियाइं मिच्छदिट्ठी समणा एगे सव्वे गाणं सयं वए । 'सव्वलोगे कि जे पाणा ण ते जाणंति किंचणं ॥ ११. संकिती (चू) 1 १२. तु (चू) 1 १३. तीसे (चू) । ४. मुन्चेजा ( क ) ; वघेज्ज पदपासातो ( चू); १४. आरंभाय ( चु) । १५. विकास ( ) १६. विधुणिया (चू) | १. परियाणेण ( क, ख ) । २. वज्जिया (क, ख, वृ); तज्जिया (वृपा ) 1 ३. परियाणियाणि (क, ख ) । मुच्चेज्ज पदपानादी (चूना, वृपा) । ५. तं च मंदे ण पेहली ( चू); ° देहते ( क ) । ६. अहिते हित पण्णाणा (च्) । ७. विसमं तेणुवागते (नू); विसमंतेऽणुवायए (क, वृग ) ८.पपासे हि (च) । ९. घंतं (चु) । १०. मिच्छादिट्ठी (चू ) । १७. तेतं (चू) | १८. मिच्छा ० ( चु) । १६. व्या० वि एषयन्ति अनन्तशः । २०. सव्वलोगंसि (चू ) | २१. कंचणं ( क ) 1 २५७ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ४२. मिलक्खू अभिलक्खुस्स जहा हे से वियाणाई भासिय णाणं वयंता वि ४३. एवमण्णाणिया णिच्छयत्थं ण जाणंति मिलक्खु व्व अवोहिया || ४४. अण्णाणियाण वीमंसा 'अण्णाणे ण नियच्छइ । अप्पणो य परं णालं कतो' अण्णाणुसासिउं ? || ४५. वणे मूढे जहा जंतू मूढणेयाणुगामिए' 1 'दो वि एए अकोविया" तिव्वं सोयं नियच्छई" || ४६. अंधो अंध पहं णेंतो" दूरमद्वाण गच्छई आवज्जे उप्पहं जंतू" 'अदुवा पंथाणुगामिए" || गियागट्टी धम्ममाराहगा वयं । अहम्ममावज्जेण ते सब्वज्जुयं " वए || faraकाहिं णो अणं पज्जुवासिया | विक्काहि अयमंजू हि दुम्माई || साहेंता धम्माधम्मे अकोविया | पंजरं जहा ॥ परं वयं" । विउस्सिया " ॥ ४७. एवमेगे अदुवा " ४८. एवमे अप्पणो य ४६. एवं तक्काए दुक्खं ते णातिवद्धति" सउणी ५०. सयं सयं जे उ तत्थ १. ० भासती (चू) 1 २. त्रियाणेति (चू) । वृत्ताणुभास | तणुभास ॥ सयं सयं । पसंसंता गरहंता" विउस्संति 'संसारं ते ११. ति ( चू) । १२. जतो ( चु); जंतु ( चुपा) । १३. असक्खाणुगामिए ( क ) । १४. अपि (पा) । १५. सब्वज्जुयं (ख); सब्बुज्जुगं (चु) । १६. परं (वृ) 1 ३. ० भासती (चू) ४ अवोधिए (क, चू) । ५. णाणे क्षेत्र विच्छति (क, चू) । ६. वि (वृ) । ७. कुतो ( क ) 1 १७. तक्काड़ ( ख ) | ८. मुढेणे ० ( क, ख ); मुदं णेयाणुगच्छति (वृ); १८ नातिउट्टति ( क ); नाइतुति (ख, वृ); ण तिउट्ठेति (चूपा) । मूढ - मूढानुगामिए (तू) । ६. दुहतो वि अकोबिता ( चू); उभयो वि न १६. गरहंती (चू) । याति ( चुपा ) ! २०. वदि (चु) । १०. व्या० वि० उन्दोट्या एकवचनम् - २१. संसारे ते ( ख ); संसरते (चू । नियच्छति । २२. वि उसिया (वृपा ) 1 सूयगडो १ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम अज्झयणं (समए-बीओ उद्देसो) २५६ सोगताणं कम्मोवचय-चिता-पदं ५१. अहावरं पुरक्खायं किरियावाइदरिसणं' । कम्मचिंतापणट्ठाणं दुक्खखंधविवद्धणं ॥ ५२. जाणं काएणणाउट्टो' अबुहो 'जं च" हिंसइ । पूट्रो वेदेइ परं अवियत्तं खु सावज्जं ॥ ५३. मंतिमे तओ आयाणा जेहिं कीरइ पावगं । अभिकम्मा य पेसा य मणसा' अणुजाणिया ।। ५४. एए उ तओ आयाणा जेहिं कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए' णिव्वाणमभिगच्छइ ॥ ५५. पुत्तं 'पि ता. समारंभ आहार असंजए । भुजमाणो वि" मेहावी कम्मुणा" णोवलिप्पते"। सुत्तकारस्स उत्तर-पदं ५६. मणसा जे पउस्संति चित्तं तेसि ण विज्जइ। अणवज्ज अतहं तेसिं ण ते संवुडचारिणो।। ५७. इच्चेयाहिं दिट्ठीहि सायागारवणिस्सिया । सरण ति मण्णमाणा५ सेवंती पावगं" जणा।। ५८. जहा आसाविणि" णावं जाइअंधो दुरूहिया" । इच्छई" पारमागंतुं अंतराले विसीयई ॥ ५६. एवं तु समणा एगे मिच्छदिट्ठी" अणारिया। 'संसारपारकंखी ते २२ संसारं अणुपरियटुंति" ॥ -त्ति बेमि ॥ १. वाईण दरि (ख)। १३. लिप्पई (क, ख)। २. संसारस्म पवडणं (क, ख, वृथा)। १४ हियं (चू): ३. ०णाउट्ट चू)। १५. माणा तु (चू)। ४. ज व (क); जे य (चू) । १६. अहियं (चू)। ५. मणसा य (क)। १७. आस्साविणिं (चू)। ६. भावणसुद्धीए (चू)। १८. दुरुभिया (चू)। ७. व्वाण' (चू)! १६. इच्छेज्जा (क); इच्छतो (चू)। ८. पिया (क, ख); पिता (वृ)। २०. अंतराइ (क); अंतरा य (चू)। ६. समारब्भ (क्व)। २१. मिच्छा (चू)। १०. आहारेज्ज (क, ख)। २२. पारमिच्छंता (चू) । ११. य (क, ख)। २३. ° यट्टइ (क) १२. कम्मणा (ख)। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सूयगडो १ तइओ उद्देसो पूइकम्म-आहार-दोस-पद ६०. जं किचि वि' पूइकडं 'सड्डी' आगंतु' ईहिय" । सहस्संतरिय भुजे दुपक्खं चेव सेवई ।। ६१. तमेव अवियाणता विसमंसि' अकोविया । 'मच्छा वेसालिया चेव उदगस्सऽभियागमे ॥ ६२. उदगस्स प्पभावेणं 'सुक्कम्मि घातमेंति उ। ढंकेहि य कंकेहि य आमिसत्थेहि ते दुही । ६३. एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चेव" घायमेसंतणंतसो ॥ कयवाद-पदं ६४. इणमण्णं तु अण्णाणं इहमेगेसिमाहियं । देवउत्ते अयं लोए बंभउत्ते२ त्ति आवरे ॥ ६५. 'ईसरेण कडे" लोए पहाणाइ५ तहावरे। जीवाजीवसमाउत्ते" सुहदुक्खसमण्णिए ॥ ६६. 'सयंभुणा कडे" लोए इति वुत्तं महेसिणा। मारेण संथुया माया तेण लोए असासए“ ।। १. उ (ख, चू); १२. घंतमेसंत° (चू); व्या० वि-एष्यन्ति २. व्या० वि० ---विभक्तिरहितपदम्-सड्रीहिं। अनन्तशः। ३. ब्या० वि० -विभक्तिरहितपदं वर्णलोपश्च- १३. ° उत्ति (क, ख)। ___आगन्तुकान् उद्दिश्य । १४. इस्सरेण कते (चू)। ४ सलीमा गंतुमीहियं (क, ख) । १५. व्या वि०-पहाणाइ, अत्र 'कडे' इति वाक्य५. सहा संतरक ई (च)। शेषः । अ. सिममि (क)! १६. जीवाजीवेहिं संजुत्ते (चू) । ७. सारिया • (क); मच्छे वेतालिए चैव १७. कते (चू) । १८. नागार्जुनीयास्तु पठन्ति८. उदगम्त अभिमागमे (चू)। अतिवडियजीवा गं, ६. मुक्कसि ग्घात (ख); सूक्क्रसि धंतमेति(च)। मही विष्णवते प । १०. आमिसासीहि (चू)। ततो से माया संजुत्ते, ११. व्या० वि० चैव-~-इव । करे लोगस्सभिवा ।। (च) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अभयणं ( समए - चउत्थो उद्देसो) ६७. माहणा समणा एगे' आह असो तत्तमकासी य ६८. 'सएहिं परियारहि " तत्तं ते 'ण वियाणंति" ६६. अमणुण्णसमुपायं समुप्पायमजाणता अवतार-वाद-पदं ७०. सुद्धे अपावए आया 'पुणो ७१. इह संवुडे मुणी जाए विडं व जहा भुज्जो त-पवाद-पसंसा-पदं ७२. एयाणुवीर मेहावी पुढो पावाउया" सव्वे ७३. 'सए सए" उवद्वाणे 'अधो वि होति वसवत्ती" अंडकडे जगे । बए । अयाणंता मुसं 'लोगं बूया कडे त्ति य" । 'णायं णाऽऽसी" कयाइ वि || दुक्खमेव विजाणिया । किह' गाहिति संवरं ? ॥ कीडापदोसेणं से इहमेगेसिमाहियं तत्थ पच्छा णीरयं १. वेगे ( क, ख ) 1 २. सएण परियाएण (चू) । बूया ३. ०त्तिया ( क ); कडे विधि ( चू); लोए कडे विधि, लोकं बूया कडे तिच ( चूपा) 1 ४. नाभिजाणंति ( बृ ) । ५. न विणासी (क, ख, वृ) ६. कहं ( ख ) । ७. नार्हति ( ख ) । ८. कोलावण - प्पदीसेण, रजसा अवतारते । होइ I अवरभई ॥ सरयं 'बंभचेरं ण अक्खायारो सिद्धिमेव" ण सव्वकामसमप्पिए इह संवुडे भवित्ताणं सुद्धे सिद्धीए चिद्रुती । १४. पुणो कालेणऽणतेणं, तत्थ से अवरज्झती ॥ (चु) 1 अपावए । तहा " ॥ वसे । तं सयं सयं ॥ अण्णा । 11 • इह संवुडे भवित्ताणं, पेच्चा होति अपावए । (चूपा) । ६. बंभचेरेण ते वसे (क, वृ) । १०. पावादिया (चू ) । ११. सते सते (क) 1 १२. व्या० वि० मकारः अलाक्षणिक: 1 १३. अधो इहत्तवसमत्ती (क); इहेव होति • (च); अबोही होति ? (चूा); 'ख' प्रतौ 'अधोधि' इति पाठोस्ति, किन्तु लिपिदोषेण 'वि' स्थाने 'धि' जातः इति प्रतीयते । समपिओ (चू) । २६१ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सूयगडो सिद्ध-वाद-पदं ७४. सिद्धा य ते अरोगा य इहमेगेसि आहियं । सिद्धिमेवपुरोकाउ' सासए' गढिया णरा ।। उवसंहार-पदं ७५. असंवुडा अणादीयं भमिहिंति पुणो-पुणो । कप्पकालमुवज्जति ठाणा आसुरकिब्बिसिय ।। -त्ति बेमि ॥ चउत्थो उद्देसो जावणा-पदं ७६. एते जिया भो! 'ण सरणं"' 'बाला पंडियमाणिणो । हिच्चा णं' पुव्वसंजोगं सितकिच्चोवएसगा ॥ ७७. तं च भिक्खू परिणाय विज्जं 'तेसु ण" मुच्छए । अणुक्कस्से" अणवलीणे मज्झेण२ मुणि जावए । सपरिग्गहा य सारंभा इहमेगेसिमाहियं । 'अपरिगहे अणारंभे" भिक्खू जाणं" परिव्वए । कडेसू घासमेसेज्जा विऊ दत्तेसणं चरे । ___अगिद्धो विप्पमुक्को य ओमाणं परिवज्जए॥ लोगवाय-पदं ८०. 'लोगवायं णिसामेज्जा'५ इहमेगेसिमाहियं विवरीयपण्णसंभूयं 'अण्णवुत्त-तयाणुगं१७ ॥ १. ° पुरा° (क, चू); सिद्धमेव (ख)। १०. अणुकम्मे (क); अणुक्कसाए (चू); अणुक्कसे २. आसएहिं (चू)। (चूपा)। ३. कप्पकालुववज्जति (चू)। ११. अप्पलोणे (क, ख, वृ)। ४. किब्बिसिया (ख)। १२. मज्झिमेण (क, च)। ५. असरणं (चूपा)। १३. अपरिग्गहो अणारंभो (ख, वृ)। ६. जत्थ बालेऽवसीयइ (क, वृपा)। १४. ताणं (क, ख, वृ)। ७. जहिता (चू)। १५. लोगावायं० (च); लोकावादं णिसामेत्ता ८. सिताकिच्चोवदेसिता (क, वृपा); सिया- (चपा)। किच्चोवएसगा (ख); सितकिच्चोवगा सिया १६. विपरीतपण्णसंभूया (चू)। १७. अणुण्णु वुतिताणुगं (क); अन्नेहिं बुइयाणुगं ६. तेसि ण (क); ण तत्थ (चूपा)। (ख); अण्णोण्णबुइताणुगा (चू)। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं (समए - चउत्थो उद्देसो) ८१. अनंते णितिए लोए सासए अंतयं णितिए लोए 'इइ ८२. 'अपरिमाणं वियाणाइ" इहमेगेसि सव्वत्थ सपरिमाणं 'इह अहिंसा-पदं ८३. जे केइ तसा पाणा चिट्ठतदुव परियाए अतिथ से अंजू जेण ते 'विवज्जासं ८४. उरालं जगतो जोगं सव्वे अकंतदुक्खा" य ८५. एयं खु णाणिणो सारं अहिंसा समयं भिक्खु चरिया - पदं ८६. 'वुसिते विगयगिद्धी य" चरिया सणसेज्जा सु ८७. एतेहिं तिहि ठाणेहि उक्कसं" जलणं णूम ८८. समिए तु सया साहू सितेहि असिते भिक्खु चेव एयावंत पासति (च्) । २. अमितं जाणती वीरे (चू) । ३. इति वीरोऽधिपासती (चू) 1 ६. परिताए ( क ) । अओ जं ण ७. जायं (चू ) 1 ८. तेण (वृ) । ६. ओरालं ( क ) । ण विणसई 1 धीरोऽतिपासई" । आहिये । धीरोऽतिपासई" || सव्वे आयाणं भत्तपाणे 'संजए थावरा । तसथावरा || पलेति य" । अहिंसा" ।। कंचणं । वियाणिया || हिंसइ सारवखए । अंतसो || मुणी । च विचिए । य सययं १. इति धीरोतिपासति ( क ); इति वीरोऽधि- १०. विपरीय संपलेतिय (क): पलिति य (च्) । ११. अक्कंत० (वृ); अकत ० ( वृपा ) | १२. अहिंसा ( क ), अहिंसिया (ख, वृ ) | १३. किंचणं (ख, च ) | मज्झत्थं पंचसंवरसंबुडे आमोक्खाए परिव्वज्जासि ।। । -त्ति बेमि ॥ ४. केति ( क, ख ) 1 १४. इत्तावय (क ) 1 ५. चिट्ठति अदुव ( ख ) ; व्या० वि० – द्विपदयो १५. बुसेए य विगयगेही ( क ) ; वुसिए य विगतही सन्धिः - चिठ्ठति + अदुव (तू); अकसायी सदाऽधिगत गेधी (चूपा) । २६३ १६. संजमेज्ज सया (चू) । १७. उक्कास (च्) । १८. मं ( क, ख, वृ) | Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि-पदं पेच्च चयंति १. संबुज्झह' किण्ण' बुज्झहा संबोही खलु णो हूवणमंति राइओ णो सुलभं पुणरावि २. डहरा बुड्ढा य पासहा' गब्भत्था वि सेणे जह वट्टयं हरे एवं आउखयंमि ३. 'मायाहि पियाहि लुप्पई णो सुलहा सुगई य' 'एयाइ भयाइ" देहिया' आरंभा विरमेज्ज ४. जमिणं जगई पुढो जगा कम्मे हि सयमेव ' कडेहि गाहई" लुप्पति" णो तस्स " मुच्चे अणिच्च भावणा-पदं ५. देवा राया १. भो ! सबुह (चू) 1 २. किष्णु (चू) । ३. पासह ( ख ) । बीअं अज्झयणं वेयालिए पढमो उद्देसो गंधव्व रक्खसा गरसेट्टिमाहणा" ४. य (चू) । ५. वि (वृ) । ६. नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - माता पितरो य भातरो, विलभेज्जसु केण पेच्चए (चू) । ७. एयाई भयाई (क) 1 ८. पेहिया ( ख ) 1 असुरा भूमिचरा" "ठाणा ते २६४ दुल्लहा । जीवियं ॥ माणवा । ट्टई ॥ पेच्चओ " । सुव्व ॥ पाणिणो । अपुटुवं ॥ सिरीसिवा" । वि चयंति"" दुखिया ॥ ९. सुट्टिए (वृपा ) 1 १०. विलुप्यन्ते ( वृ) | ११. कडेहिं गार्हति (क); कडेऽवगाहए (चू) 1 १२. तरसा ( क, ख ) ; तेणं ( चु) । १३. पुट्ठव ( क ) । १४. भूमिगता (चू ) । १५. सरि० ( क ) । १६. णर-अधिपमाहणा ( चूपा) । १७. ते वि चयंति ठाणाई ( क ) । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीयं अज्झणं ( वेयालिए - पढमो उद्देसो) ६. 'कामेहि य संथवेहि य" ताले जह बंधणच्चुए कम्म- विवाग-पदं ७. जे यावि 'बहुस्सुए सिया" अभिणूमकडेहिं मुच्छिए । पास विवेगमुट्ठिए" हिसि" आरं कओ परं ? ८. अह कसाय परिणाम-पदं ९. जइ विय णिमिणे "किसे "चरे 'जे इह" मायादि" मिज्जई ५. भवे बहुस्सुता (च्) । ६. घम्मिय माहण (ख, वृ, चू) । कम्मसहा एवं ७. सुयी (चू) ! ८. करेहि (चू) । ६. मुच्छिया (चू) 1 १०. ते (वृ, चू) | ११. किच्चति (वृ, चू) । सिक्खापदं १०. पुरिसोरम" पावकम्मुणा" पलियंत सण्णा इह काममुच्छिया मोहं जंति १. कामेहि संथवेहि गिद्धा (वृ) । २. कम्मस (चू) | ३. आउखए वि (चू) 1 माहणे अत्र ४. व्या० वि० - बहुस्सुए धम्मिए भिक्खुए - सर्वत्रापि बहुवचनं युज्यते । बहुवचनान्तं क्रियापदं स्वीकृतम्, तेन वृत्तिकृता छान्दसत्वाद्बहुवचनं द्रष्टव्यम् इति लिखितम् । कालेण आउखयम्मि 'धम्मिए माहणे " भिक्खुए सिया | तिव्वं से" कम्मेहिं किच्चती" ॥ अवितिष्णे" इह भासई धुतं" । वेहासे कह किच्चई || जइ वि य भुजिय मासमंतसो | आगंता गब्भादणंतसो ॥ जंतवो । तुट्टई ॥ मणुयाण जीवियं । 'जरा असंवुडा" || १२. विवाग ० ( चूपा) । १३. अवि तिष्णे (पा) । १४. धुवं (क, ख, वृ) । १५. ण नेहिसि (चूपा ) 1 १६. निगणे ( क, ख ) 1 १७. कसे ( ख ) । २६५ १८. जइ विह (चू) । १९. मायाति (क ) ; मायाइ (ख); व्या० वि०विभक्तिरहितपदम् -- मायादिणा । २०. गब्भायणंतसो (क, ख, वृ); व्या० वि०.... गर्भादिअनन्तशः । २१. व्या० वि० - पुरुष ! उपरम । २२. ० कम्मणा ( ख ) 1 २३. अंसवुडा नरा (क) 1 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११. जययं विहराहि जोगवं 'अणुपाणा ___ अणुसासणमेव पक्कमे वीरेहि पंथा' सम्म दुरुत्तरा।। पवेइयं ॥ वीर-पदं १२. 'विरया वीरा समुट्ठिया कोहाकायरियाइपीसणा' पाणे ण हणंति सव्वसो पावाओ विरयाऽभिणिव्वुडा ॥ कम्म-विधूणण-पदं १३. ण वि ता अहमेव लुप्पए" लुप्पती लोगंसि' पाणिणो । __ एवं सहिएऽहिपासए' अणिहे से पुढेऽहियासए ॥ १४. धुणिया कुलियं व लेववं कसए देहमणासणादिहि । अविहिंसामेव पव्वए अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ ॥ १५. सउणी जह पंसुगुंडिया" विहुणिय धंसयई सियं रयं । एवं दविओवहाणवं कम्म खवइ तवरिस माहणे ॥ अणुलोम-परीसह-पदं गारमेसणं 'समणं ठाणठियं तवस्सिणं१२ । डहरा वुड्ढा य पत्थए अवि सुस्से ण य तं लभे जणा॥ १७. जइ कालुणियाणि कासिया" जइ रोयंति य पुत्तकारणा। दवियं णो 'लब्भंति ण सण्णवेत्तए॥ १. अणुपत्थि पाणा (चूपा)। २. प्रतिकामेद् (वृ); परक्कमे (चू) । ३. वोरा विरता हु पावका (चू)। ४. व्या० वि दीर्घत्वमलाक्षणिकम् । ५. लुप्पधे (चू)। ६. लोगम्मि (क)। ७. सहिएहि ° (क) । ८. पुट्ठो अहियासए (क)। १. किसए (ख)। १०. व्या०वि०-दीर्घत्वमलाक्षणिकम् । ११. गंडिया (ख)। १२. समणट्ठाणद्वितं तवस्सियं (चू) । १३. जणं (क); जणो (चु)! १४. से करे (च)। १५. रोवंति (चू)। १६. नन्भंति ण संठवेत्तए (क); लभिति न संठवित्त ए (७) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ati अभय (वेयालिए - पढमो उद्देसो) १८. जइ तं कामेहि लाविया 'जइ आणेज्ज तं बंधिता घरं " । 'तं जीवित' णावकंखिणं" 'णो लब्भंति तं सण्णवेत्तए " ॥ १९. सेहंति' य णं ममाइणो 'माय' पिया य सुया य भारिया" | पोसाहि णे पासओ तुमं 'लोगं परं पि जहासि पोसणे" || २०. अण्णे अण्णेहि मुच्छिया मोहं जंति विसमं विसमेहि गाहिया ते पावेहि २१. 'तम्हा दवि" इक्ख पंडिए पावाओ ' पणए वीरे महाविहि" सिद्धिपहं २२. वेयालियमग्गमागओ" याउयं मणवयसा काएण चिच्चा वित्तं च णायओ आरंभ च सुसंवडे १. वि य (ख); वि (वृ); णं (चू) । २. जति णेज्जाहि णं वंधिउं घरं ( क ) | ३. व्या० वि० - विभक्तिरहितपदम् - जीवितस्स । ४. ० कंखए ( ख ) ; णाभिखए (वृ ) । ५. जइ जीविय नावकखति ( क ) 1 ६. नो लब्भंति न संठवित्तए ( क, ख ) ; नो ब्र्भिति न संठवित्तए ( वृ) | बीओ उद्देसो माण-विवज्जण-पदं २३. तय" सं व जहाइ से रयं इइ संखाय मुणी गोयण्णतरेण माहणे" अहसेयकरी अण्णेसि ७. सेहिति (च्) । ८. माया (ख) ६. माति पिति यि पती य भायरो (चू ) | १०. परलोग पि जहाहि उत्तमं (चू) । ११. संबुडा नरा (क) । असंवुडा'" । पगब्भिया || विरभिणिबुडे | धुवं" ॥ संवुडो । चरे ॥ --त्ति बेमि ॥ 'णरा पुणो ण मज्जई । इंखिणी || २६७ १२. व्या० वि० - विभक्तिरहितपदम् - दविए । १३. दविए व सक्खि पंडिते ( चू); तम्हा दवि इक्ख पडिए (पा) । १४. पणता वीरा महाविधि ( चू); पणता वीधे तणुत्तरं (चूपा); पणया वीरा (ख, वृ); व्या० वि० -- छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् -महावीहि । १५. सिवं (चू); धुवं ( चुपा ) 1 १६. ० माओ ( क ) । १७. चरेज्जासि ( क, ख ) ; परिचएज्जासि ( चुपा ) 1 १८. व्या० वि० - विभक्तिरहितपदम्--तयं । १९. जे विदू ( चू, वृपा); माहणे (चूपा) । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सूयगडो१ २४. जो परिभवई परं जणं संसारे परिवत्तई मह। अदु इंखिणिया उ पाविया' इह संखाय' मुणी ण मज्जई ॥ २५. जे यावि अणायगे' सिया जे वि य पेसगपेसगे सिया । इद मोणपयं उवट्टिए णो लज्जे समयं सया चरे ।। २६. 'सम अण्णयरम्म संजम संसुद्धे समणे परिवए । जा आवकहा समाहिए दविए कालमकासि पंडिए । २७. दूरं अणुपस्सिया मुणी तीयं धम्ममणागयं तहा । पुढे फरसेहिं माहणे अवि हण्णू 'समयंसि रीयइ ॥ समता-धम्म-पदं २८. पण्णसमत्ते" सया जए समता'२ धम्ममुदाहरे" मुणी । सुहुमे" उ सया अलूसए ‘णो कुज्झ" णो माणि" माहणे । २९. बहुजणणमणम्मि संवुडे 'सव्वदे॒हिं णरे१८ अणिस्सिए । 'हरए व सया अणाविले" धम्म पादुरकासि कासवं ।। ३०. बहवे पाणा पुढो सिया पत्तेयं 'समयं समीहिया' । जे मोणपयं उवट्ठिए विरइं२२ तत्थ अकासि पंडिए ।। १. परियत्तती (चू)। व्या०वि०-समतयाः। २. महे (क); चिरे (ख, चू, वृपा)। १३. ° मुदाहरेज्ज (चू)। ३. पातिका (चूपा)। १४. सुहमे (क)। ४. संखाए (चू)। १५. कुप्पे (चू)। ५. अणातए (च)। १६. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम् —माणी। ६. पेस्सग ° (चू)। १७. कधयंतो ण परं [णु] कोवये (चूपा)। ७. जे (क, ख, वृ)। १५. सवढेसु सदा (च)। ८. समे° (क, ख); समयन्नरम्मि° (पू); १६. हरदे वतुमे [पतुमे ?] अणाउले (च); समयणतरम्मि वा सुते (चपा)। अणाउरे (चूपा); ° अणाइले (क, चूपा)। ६. जे (क, ख)। २०. प्रादु° (चू)। १०. समयाधियासए (वृपा, चपा)। २१. ° उवेहिया (क, वृपा); समियं उवेहाए (च); ११. ° समत्थे (क, ख); पण्हसमत्थे (चू, वृपा); समिया उवेहिता (चूपा)। पण्हसमत्ते (चपा)। २२. विरयं (क)। १२. समिया (क); समिता (च); २३. मकासि (च)। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ बीअं अज्झयणं (वेयालिए-धीओ उद्देसो) ३१. 'धम्मस्स य पारगे मुणी आरंभस्स य 'अंतए ठिए"। सोयंति य णं ममाइणो ‘णो य" लभंती णियं' परिग्गह" ।। सामण्णस्स माहप्प-पदं ३२. इहलोगे दुहावहं विऊ परलोगे य 'दुहं दुहावहं'। विद्धंसणधम्ममेव तं. इइ विज्जं को गारमावसे ? ॥ सुहम-सल्ल-पदं ३३. 'महया पलिगोव' जाणिया जा वि य वंदणपूयणा इह । ___ सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे विउमंता पयहिज्ज संथवं ॥ एगचारि-पदं ३४. एगे चरे ठाणमासणे" सयणे एगेर 'समाहिए सिया । भिक्खू उवहाणवीरिए वइगुत्ते अज्झत्थसंवुडे" ।। ३५. णो पीहे 'ण यावपंगणे १५ दारं सुण्णघरस्स संजए । पुढे ण उदाहरे व ण 'समुच्छे णो संथरे तणं ॥ ३६. जत्थत्थमिए अणाउले८ समविसमाणि मुणी हियासए । चरगा अदुवा वि भेरवा अदुवा तत्थ सिरीसिवा सिया ।। १. अंतिए ठिए (क); अंतिए ठित (चूपा)। ८. महयं (वृ); महता (वृपा)। २. न (क)। है. व्या० वि०-विभक्तिरहितपदम्-पलिगोवं। ३. निययं (क); णितियं (चू)। १०. नागार्जुनीयास्तु पठन्ति -पलिमंथ महं विजा४. नागार्जुनीया विकल्पयन्ति णिया, जाविय बंदण पूयणा इहं[इधं] । (चू); सोऊण तयं उवद्वित, सुहुमं सल्ल दुरुद्धर, केयि गिही विग्येण उद्विता। तंपि जिणे एएण पंडिए । (चू, वृ)। धम्मम्मि इधं अणुत्तरे, ११. ० आसणे (च)। तंपि जिणेज्ज इमेण पंडिते ॥ (च)। व्या०वि०-मकारः अलाक्षणिकः । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति १२. एग (ख, चू)। सोऊण तयं उवट्टियं, १३. समाहितो चरे (चू)। केह मिही विग्घेण उठ्ठिया । १४. अज्झप्प ° (चू। घम्मम्मि अणुत्तरे मुणी, १५. गावपंगुणे (क, ख); ° ऽवंगुणे (यू) । तंपि जिणिज्ज इमेण पडिए । (वृ)। १६. वयं (ख)। ५. विदा (ख, चू)। १७. समुच्छति णो संथडे तणे (चू)। ६. दुहा दुहावहा (चूपा)। १८. अणाइले (क)। ७. या (क, चू)। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सूयगडो? ३७. तिरिया मण्या' यदिव्वगा' उवसग्गा तिविहा धियासए । लोमादीयं पि' ण हरिसे सुण्णागारगए महामुणी ।। ३८. णो अभिकंखेज' जीवियं णो वि य पूयणपत्थए सिया । 'अब्भत्थमुवेति भेरवा' सुण्णागारगयस्स भिक्खुणो ।। ३६. उवणीयतरस्स ताइणो भयमाणस्स विविक्कमासणं । सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पाण" भए ण दंसए । राय-संसग्ग-विवज्जण-पदं ४०. उसिणोदगतत्तभोइणो धम्मठियस्स मुणिस्स हीमतो" ! संसग्गि" असाहु राइहिं असमाही उ तहागयस्स वि ॥ अहिगरण-वज्जण-पदं ४१. अहिगरणकरस्स५ भिक्खुणो वयमाणस्स पसज्झ दारुणं । ___अढे 'परिहायई बहू अहिंगरणं ण करेज्ज पंडिए" ।। गिहि-भायण-पदं ४२. सीओदग" पडिदुगंछिणो" अपडिण्णस्स लवावसक्किणो"। सामाइयमाहु तस्स जर जोर गिहिमत्तेऽसणं ण भुंजई ।। १. मणुसा (चू, वृ)। १४. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-संसग्गी २. द (क)। __ असाहू। ३. दिग्विया (च)। १५. मसाहु (क)। ४. हियासिया (ख, वृक्षा); विसे विया (चू)। १६. कडस्स (क, ख)। ५. x (ख)। १७. परिहायते धुवं (च)। ६. जावऽभिकख (च)। १८. संजए (च)। ७. अब्भत्थ मूवंति भेरवा (क); पठ्यते च- १६. व्या० वि०--विभक्तिरहितपदम सीओद गस्स। "अप्पुत्थमुवेति भेरवा" (च)। २०. दुगुंछिणो (च)। ८. विवित्त (क, च)। २१. ° सेक्किणो (क); ° संकिणो (ख); हस्त६. तं (चू)। लिखितवत्यादर्श-अवसक्किणोत्ति-अवस१०. व्या० वि०-विभक्तिरहितपदम्-अप्पाणं। पिणः । ११. ° भोयणी (च)। २२. तं (चू)। १२. धम्मट्ठिस्स (च)। २३. जं (चू)। १३. ह्रीमतो (च)। २४. भक्खति (चू)। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ बीअं अज्झषणं (वेयालिए--बीओ उद्देसो) उत्तम-धम्म-गहण-पदं ४३. ण य संखयमाहु जोवियं तह वि य वालजणो पगभई । बाले पावेहि मिज्जई इइ संखाय मुणी ण मज्जई ।। ४४. छदेण' पलेतिमा पया बहमाया मोहेण पाउडा। वियडेण पलेति माहणे सी उण्हं वयसा हियासए । ४५. कुजए अपराजिए जहा अक्खेहि कुसलेहि दीवयं । कडमेव गहाय णो कलि गो तेयं णो चेव दावरं ।। ४६. एवं लोगम्मि ताइणा' बुइए जे धम्मे अणुत्तरे । तं गिण्ह हियं ति उत्तमं कडमिव सेसऽवहाय पंडिए । बंभचेर-पदं ४७. उत्तर मणुयाण आहिया गामधम्म" इति मे अणुस्सुयं । जंसी'२ विरया समुट्ठिया कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ ४८. जे 'एय चरंति'१३ आहियं णाएण" महया महेसिणा। ते उद्विय ते समुट्ठिया अण्णोण्णं सारेति धम्मओ ।। ४६. मा पेह पुरा पणामए अभिकखे उहि धुणित्तए"। जे 'दूवण"ण ते हि“णो णया ते जाणंति समाहिमाहियं ।। मुणोणं विवेग-पदं ५०. णो काहिए" होज्ज संजए पासणिए ण य संपसारए। णच्चा धम्म अणुत्तरं कयकिरिए य ण यावि मामए । १. मज्जती (चूपा)। घ्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्गामधम्मे । २. छण्णण (चू)। १२. जंसि (ख)। ३. सीयुण्हं (चू)। १३. एयं ° (क) °करंति (च) । ४. दिव्वयं (क); दिववं (च) । १४. नायएण (चू)। ५. तीय (ख); त्रेतं (चू)। १५. व्या० वि०---विभक्तिरहितपदम्-उदिया ३. ताणिणो (क); ताइणो (च) । १६. हणित्तए (वृ)। ७. ऽयं (चू)। १७. व्या० वि०---विभक्तिरहितपदम्-दूवणया, ८. उत्तिम (क)। ये दुरूपनता: न ते हि समाधि जानन्ति, ये ६. व्या०वि० -विभक्तिरहितं सन्धिश्च -~-सेस नो नता:--विषयेषु न प्रणताः-सन्ति ते अवहाय । समाधि जानन्ति । १०. व्या०वि०----विभक्तिरहितपदम् --उत्तरा। १८. दूमणएहिं (क, वृपा)। ११. गामधम्मा (क)। १६. काधीए (च)। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सूयगडो ५१. छण्णं च पसंस' णो करे ण य उक्कोस' पगास माहणे । तेसिं सुविवेगमाहिए' पणया जेहि सुझोसियं धुयं ।। आय हित-पदं ५२. अणिहे सहिए सुसंवुडे धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । विहरेज्ज समाहिति दिए' 'आतहितं दुक्खेण लब्भते" ।। सामाइय-पदं ५३. ण हि गुण पुरा अणुस्सुयं अदुवा तं तह णो अणुट्ठियं । मुणिणा सामाइयाहियं णातएण" जगसव्वदंसिणा।। ५४. एवं मत्ता५ महंतरं१६ धम्ममिण सहिया बह जणा । गुरुणो छंदाणुवत्तगा विरया तिण्ण महोघमाहियं ।। -ति बेमि ॥ तइओ उद्देसो कम्मावचय-पदं ५५. संवुडकम्मस्स भिक्खुणो जं दुक्खं तं संजमओऽवचिज्जई९ मरणं हेच्च पुटुं अबोहिए। वयंति पंडिया ।। १. व्या० वि.-विभक्तिरहितपदम्-पसंस। ११. मऽणुस्सुतं (चू)। २. उक्कास (क, चू); व्या० वि०-विभक्ति- १२. ° समुट्ठियं (क, ख); अदुवाऽवितधं णो रहितपदम् - उक्कोस । अधिट्टितं (चू), अदुवाऽवितहं णो (पा)। ३. व्या० वि०-विभक्तिरहितपदम्—पगासं। १३. सामाइगं पदं (च)। ४. च विवेग (); सुविवेग° (वृपा)। १४. नाएणं (क)। ५. घम्मे (च)। १५. माता (चू)। ६. सुज्झोसियं (क, चू, वृपा)। १६. महत्तरं (चूपा, वृपा)। ७. धूयं (ख, वृ)। १७. मिमं (चू)। ८. अणहे (वृपा)। १८, मधोध ° (च)। ६. इंदिए (ख); °दिए (चू)। १६. विचिज्जती (च)। १०. आयहियं खु दुहेण लब्भइ (क, ख) 1 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ati hai ( वेयालिए -- तइओ उद्देसो) काम - मुच्छा-पदं ५६. जे विष्णवणाहिऽजोसिया' संतिष्णेहि 'तम्हा उड्ढे ति पासहा" अद्दवखू ५७. अगं वणिएहि आहिय धारेती ' एवं परमा महव्वया अक्खाया १. ० वणाहजोसिया (क); ● वणाकोसिया (ख); झोसिया (वृपा ); ऽभूसिया (चू ) । २. उड्ढ तिरियं अधे तहा (वृपा); उड्ढं तिरियं अधेतिधा (चूप ) 1 ३. आणियं (चू); आहितं (चूपा ) | ४. राईजिया ( क, ख ) 1 ५. एवं परमाणि महन्वताणि, अक्खाताणि सरातिभोयणाणि (चू) । ६. क्रिमण (चू. वृपा) । ५८. जे इह सायाजुगा जरा अज्झोववण्णा कामेहि मुच्छिया । किवणेण समं पगब्भिया ण वि जाणंति समाहिमाहियं ॥ ५६. वाहेण जहा व विच्छए अबले होइ गवं पचोइए । 'से अंतसो अपामए णाईचए अबले विसीय " ॥ ६०. एवं कामेणाविऊ' अज्ज सुए पयहेज्ज" अलद्ध" अणुसास" कामी कामे ण कामए लद्धे वा वि" ६१. मा पच्छ असाहुया भवे" अच्चेही " अहियं च असाहु" सोयई से थणई ६२. इह जीवियमेव पासहा" 'तरुण एव 'इत्तरवासं व बुज्भहा" गिद्ध" गरा परिदेवई ७. समा (वृ ८. जेण तस्स तहि अध्यथामता, raiतो खलु सेऽवसीदतो (च); से अंतर अप्पथामए, नातिए अवसे विसीदति ( चुपा ) | ६. कामेसणं विक ( क, ख, चूपा) । १०. पयहामि (च) ; पजहेज्ज (क, चूपा) । समं कामाई रायाणया इहं । सराइभोयणा || उ वियाहिया । रोगवं ॥ ११. x ( क ) । १२. अलद्धे (च्) । १३. तवे (च्) । वाससयस्स तुट्टई । कामेसु " मुच्छिया " ॥ संथवं । कण्हुइं ॥ अप्पगं । बहुं ॥ १४. व्या० वि० -- छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । १५. अणुसासे (च्) । १६. व्या० वि० -- छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । २७३ १७. परितप्ती (चू) १८. परसधा (चू) | १९. तरुणेव ० ( ख ); तरुणगो वासस्यस्स तिउद्वृति (च); दुब्बलवाससया तिउट्टति (चूपा ) : • वासस्याउ तुट्टति (वृपा ) । २०. इत्तर वासे य बुज्झह ( क ) । २१. व्या० वि० - विभक्तिरहितपदम् - गिद्धा । २२. कामेहिं (क) 1 २३. चिपिता (चू) 1 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सूयगडो १ आरंभ-परिणाम-पदं ६३. जे इह आरंभणिस्सिया आयदंड' एगंतलसगा। ___ गंता ते पावलोगयं चिरराय आसुरियं' दिसं ।। परलोग-संदेह-पदं ६४. ण य संखयमाहु जीवियं तह वि य बालजणो पगब्भई । __ पच्चुप्पण्णेण कारियं के दलृ परलोगमागए ? ।। परलोग-सद्दहणा-पदं ६५. अदक्खुव' ! दक्खुवाहियं सद्दहसू अदक्खुदंसणा ! । ___ हंदि । हु सुणिरुद्धदंसणे मोहणिज्जेण' कडेण कम्मुणा ।। आयतुला-पदं ६६. दुक्खी मोहे पूणो पुणो णिव्विदेज्ज सिलोगप्यणं । एवं सहिएऽहिपासए" 'आयतुलं पाणेहि संजए" ।। अगारवासे धम्म-पदं ६७. गारं पि य आवसे गरे अणुपुव्वं पाणेहि संजए। समया सव्वत्थ सुव्वए देवाणं गच्छे सलोगयं । सच्चोवक्कम-पदं ६८. सोचा भगवाणुसासणं सच्चे तत्थ करेज्जुवक्कम । सव्वत्थ विणीयमच्छरे उंछं भिक्खुर विसुद्धमाहरे ।। ६६. सव्वं णच्चा अहिट्ठए धम्मट्ठी उबहाणवीरिए । गुत्ते जुत्ते सया जए आयपरे परमायतट्ठिए । असरण-भावणा-पदं वित्तं पसवो य णाइओर 'तं वाले" सरणं ति मण्णई। एए मम 'तेसि वा १५ अहं णो ताणं सरणं ण६ विज्जई ! १.व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-आयदंडा । १०. करेह (क, च); करेज्ज° (ख); करेज्ज२. चिरकाल (च)। वक्कम (चूषा)। ३. आसूरियं (चू)। ११. अवणीत ° (वृ)। ४. को (ख)। १२. व्या० वि० -छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ५. अक्खुव (चू)। १३. नायता (क); णातयो (च)। ६. मोहणिएण (चू) १४. बालजणो (च)। ७. ऽधिपासिया (चू)। १५. तेसु वा (क); तेसु वि (ख); तेसु या (वृ); ८. •तुले पाणेहि भवेज्जसि (चू) । °वी ()। १६. च (चू)। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ बीअं अज्झयण (वियालिए-तइओ उद्देसो) ७१. अब्भागमियम्मि वा दुहे अहवोवक्कमिए भवंतिए। एगस्स गई य' आगई विदुमंता सरणं ण मण्णई ।। ७२. सव्वे सयकम्मकप्पिया अवियत्तेण दुहेण पाणिणो । हिंडंति भयाउला सढा जाइजरामरणेहिभिदुया ॥ बोहि-दुल्लह-पदं ७३. इणमेव' खणं वियाणिया णो सुलभं 'बोहिं च'' आहियं । एवं सहिएऽहिपासए' आह जिणे इणमेव सेसगा ।। धम्मस्स तेकालियत्त-पदं ७४. अविसु पुरा वि भिक्ख वो आएसा वि विसु सुव्वया ! एयाइं गुणाई आहु" ते कासवस्स अणुधम्मचारिणो । ७५. तिविहेण वि पाण" मा हणे आयहिए अणियाण'२ संवुडे । एवं सिद्धा अणंतगा" संपइ" जे य अणागयावरे ।। ७६. एवं" से उदाहु अणुत्तरणाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाणदंसणधरे । अरहा णायपुत्ते भगवं वेसालिए५ वियाहिए" ॥ -त्ति बेमि ।। १. अहवा उवक्कमिए (क)! १२. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम-अणियाणे। २. भवंतए (चू); भवंतरे (वृ); भवंतिए (वृता)। १३. अणंतसो (क, ख)। ३. व (क, चू)। १४. संपत (चू)। ४. वाधिजरामरणेहऽभिदुता (चू)। १५. तुलना-उत्तरज्झयणाणि ६.१७ । ५. इणमो य (चू, वृ)। १६. वेसालीए (चू)। ६. विताणिता (बू)। १७. 'क' प्रतो अस्यानन्तरमेक: श्लोकः अतिरिक्तो ७. बोधी य (चू)। लभ्यते८. हियासए (ख); हिपस्सिया (च); ऽधियासए इतिकम्मवियाल मुत्तम, (चूपा, वृपा)। जिणवरेण सूदेसियं सया ! है. भवंति (क, ख)। जे आचरंति आहिय, १०. आह (चू)। खवितरया वहिति ते सिव गति ॥ ११. व्या० वि० -विभक्तिरहितपदम्-पाणा। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं उवसग्गपरिपणा पढमो उद्देसो ओघ-उवसग्ग-पदं १. सूरं मण्णइ अप्पाणं जाव जेयं ण पस्सई । जुज्झतं दढधम्मा[न्ना?णं' सिसुपालो व महारहं ॥ २. पयाया सूरा रणसीसे संगामम्मि उवट्ठिए । माया पुत्तं ण जाणाइ जेएण परिविच्छए । ३. एवं सेहे वि अप्पुढे भिक्खुचरिया - अकोविए । सूरं मण्णइ अप्पाणं जाव लूहं ण सेवए ।। सीत-परीसह-पदं हेमंतमासम्म सीयं फुसइ सवायगं । तत्थ मंदा विसीयंति' रज्जहीणा व खत्तिया ।। गिम्ह-परीसह-पदं ५. . गिम्हाहितावेणं विमणे सुपिवासिए। तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा अप्पोदए जहा ।। जायणा-परीसह-पदं ६. सया दत्तेसणा दुक्खं जायणा दुप्पणोल्लिया। कम्मंता' दुब्भगा चेव इच्चाहंसु पुढोजणा ।। ४. जया १. कोष्ठकान्तर्वर्ती पाठश्चूर्ण्यनुसारी, यथा- दृढधन्वानम्। २. विच्छिए (क, ख)1 ३. भिक्खाचरिए (क); भिक्खाचरिया (ख )। ४. वसीयति (क)। ५. रट्ट (चू। ६. सुप्पिवासिए (क)। ७. कम्मत्ता (क, ख, वृ)। ८. दूहगा (ख)। २७६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झणं ( उवसग्गपरिण्णा-पढमो उद्देसो) सद्दे' अचायंता गामेसु एए गरे तत्थ मंदा विसीयंति संगामम्मि व ७. वध परीसह-पदं ८. अप्पे खुज्झियं भिक्खु सुणी डंसइ मंदा विसीयंति तेउपुट्ठा' व तत्थ अक्कोस परीसह-पदं &. अप्पेगे 'पडियारगया २०. अप्पेगे मुंडा ११. एवं तमाओ फास - परीसह पदं १२. पुट्ठो पडिभासंति' पाडिपंथिय मागया' १. सद्दा ( ख ) । २. य ( क ) | ३. भीरुया ( ख ) वई" एए" जे एए जुंजंति णिगिणा कंडू - विणदूंगा विप्पडवणेगे अप्पणा उज्जल्ला ' उ अजाणया । ते तमं जंति मंदा मोहेण पाउडा || य दसमसगेहिं तणफासमचाइया 1 ण मे दिट्ठे परे लोए किं" परं मरणं सिया ? 11 ४. भुज्भियं ( क, ख ) ; खुधियं ( क्व ) । ५. भिक्खू (चू) । ३. तेज ० (क) 1 केसलोय-बंभचेर-परीसह-पदं १३. संतत्ता केसलोएणं बंभचेरपराइया । तत्थ मंदा विसीयंति 'मच्छा पविट्ठा" व केणे || ७. परि० (क, चू)। ८. पडिपथिय (क, ख ) 1 o ६. परियार (क); तद्दारवेत्तणिज्जेते (चूपा) 1 वारे । भीरुणो ॥ लसए । पाणिणो ॥ 1 एव - जीविणो ॥ पिडोलगाहमा | असमाहिया || १०. एवं (क) 1 ११. वति ( ख ) | २७७ १२. चरगा (च्) | १३. उज्जाया (चूपा) १४. ० पाउता ( चू ); मतिमंदा इत्थिगाउया (चूपा) । १५. जइ (क, ख, वृ) १६. मच्छाविट्ठा (ख) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सुर्यगडो १ वध-बंध-परीसह-पदं १४. आयदंडसमायारा मिच्छासंठियभावणा हरिसप्पओसमावण्णा केई लूसंतिऽणारिया ॥ १५. अप्पेगे पलियतसि चारो' 'चोरो ति" सुब्वयं । बंधति भिक्खुयं बाला कसायवसणेहि य ।। १६. तत्य दंडेण संवीते मुट्ठिणा अदु फलेण वा। णाईणं सरई बाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ।। उक्खेव-पदं १७. एए भो कसिणा' फासा फरुसा' दुरहियासया। हत्थी वा सरसंवीता' कीवावसगा गया गिहं ।। –ति बेमि ॥ बीओ उद्देसो अनुकूल-परीसह-पदं १८. अहिमे सुहुमा संगा भिक्खूणं जे दुरुत्तरा। ___ जत्थ एगे" विसीयंति ण चयंति" जवित्तए" ।। १६. अप्पेगे णायओ" दिस्स रोयंति परिवारिया। पोस णे तात ! पुढो सि कस्स 'तात ! जहासि"णे !! १. लूसंत ° (क); लूसेंति ० (चू)। तिव्वसढा (वृपा); तिव्वसढगा (चूपा)। २. चारि (क, ख)। १०. अह इमे (ख); अथ इमे (चू) । ३ चोरित्ति (क)। ११. मंदा (चू)। ४. ° वयणेहि (क, ख, वृ) १२. चएत्ता (चू)। ५. फरुसा (च)। १३. जहित्तए (क); जवइत्तए (चू)। ६. कसिणा (चू)। १४. नातिगा (ख)। ७. दुरु° (क, ख)। १५. यारिया (क)। ८. ° संवीते (ख)। १६. तात चयासि (ख, वृ); परिच्चयासि (च)। है. कीवाऽवस (क, वृ); कीवा अवसा (ख); Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं /उवसन्गपरिणा-बीओ उद्देसो) २७६ २०. पिया ते थेरओ तात! ससा ते खुड्डिया इमा । भायरो ते सवा तात! सोयरा किं जहासि' णे ? ॥ २१. मायरं पियरं पोस एवं लोगो" भविस्सइ । एवं 'खु लोइयं तात ! जे 'पालेति उ मायरं । २२. 'उत्तरा महुरुल्लावा- पुत्ता ते तात ! खुड्डया। भारिया ते णवा तात! मा सा अण्णं जणं गमे ।। २३. एहि तात! घरं जामो मा तं कम्म" सहा वयं । बीयं पि ताव पासामो जामु ताव सयं गिहं ।। २४. गतुं तात ! पुणागच्छे १२ ण तेणाऽसमणो सिया। अकामगं परक्कमत" को त" वारेउमरहइ ? ।। २५. जं किंचि अणगं तात ! तं पि सव्वं समीकतं । हिरणं ववहाराइ तं पि दाहामु५ ते वयं ।। २६. इच्चेव णं सुसेहंति'' कालुणीयउवट्ठिया विबद्धो णाइसंगहि तओऽगारं पहावइ । २७. 'जहा रुक्खं वणे जायं. मालुया पडिबंधइ। एवं ण पडिबंधंति" णायओ असमाहिए। ---- -- - -- -- - ---------- १. व्या०वि० --शृण्वंतीति श्रवा :---- १३. परक्कम (क); परिकम (ख)। आणाउबवायवयणणिद्देसे य चिटुंति (चू)। १४. ते (क, ख)। २. सया (क); सगा (ख, वृ) । १५. दासामो (च)। ३. चयासि (ख, वृ)। १६. इच्चेवं (च)। ४ एस लोए (क)। १७. गुसेहित्ति (क); सुसिक्खंतं (चू); सुसेहिति ५. खलु लोय (ख)। (चपा)। ६. पोसइ (क); पालयति (ख)। १८. कालुणीयासमुट्ठिया (क); ° समुट्ठिया (ख); ७. पोसे पिउ (क्य)। ___कालुणतो° (चू)। ५. इतरा मधुरोल्लावा (चूपा)। १६. वणे जातं जेधा रुक्खं (च)। १. ताव (चू)। २०. एव (क)। १०. व्या० वि० --- 'अकृथाः' इति क्रियाशेषः । २१. परिवेढंति (च)। ११. तात (ख, वृ)। २२. असमाहिणा (क्व)। १२. पुगोगच्छे (क, ख)। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सूयगडो १ २८. विबद्धो णाइसंगेहि' हत्थी वा वि णवग्गहे । पिओ परिसप्पंति 'सूती गो व्व अदूरगा" ।। २६. एए संगा मणुस्साणं पायाला व अतारिमा। कीवा 'जत्थ य किस्संति" णाइसंगेहि मुच्छिया॥ ३०. तं च भिक्ख परिणाय सव्वे संगा महासवा। जीवियं णावकखेज्जा सोच्चा धम्ममणुत्तरं ।। ३१. अहिमे' संति आवट्टा कासवेण पवेइया। बुद्धा जत्थावसप्पति सीयंति अबुहा जहि ।। भोग-णिमंतण-पदं ३२. रायाणो रायऽमच्चा य माहणा अदुव खत्तिया। णिमंतयंति भोगेहिं भिक्खुयं साहुजीविणं ।। ३३. हत्थस्स-रह-जाणेहि विहारगमणेहि य। भंज भोगे इमे सग्घे" महरिसी ! पूजयामु तं॥ ३४. वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणिय। भुजाहिमाइं भोगाइं आउसो" ! 'पूजयामु तं"। ३५. जो तुमे णियमो चिण्णो भिक्खुभावम्मि सुन्वया ! । अगारमावसंतस्स सब्वो 'संविज्जए तहा॥ ३६. चिरं दूइज्जमाणस्स दोसो दाणि कुओ" तब ? । इच्चेव णं णिमंतति णीवारेण" व सूयरं ॥ ३७. चोइया भिक्खुचरियाए" अचयंता जवित्तए । तत्थ मंदा विसीयंति उज्जाणंसि व दुब्बला ।। १. विवद्धे (च)। ६. ते (च)। २. नाय ° (क)। १०. आयसो (च)। ३. अदूरए (क); सूतिय ब्व अदूरतो {चू)। ११. पूजयामि ते (चू) । ४. ° कीसंति (क); जत्थ विसण्णेसी (च); १२. उत्तमो (च)। __ जत्थ विसण्णासी, जत्थावकीसति (चूपा)। १३. सो चिट्ठती तधा (च); संविज्जते तथा ५. अह इमे (क); अहो इमे (चू, वृपा); अध (चूपा)। ___ इमे (चूपा)। १४. को (क)। ६. याऽवट्टा (चू); आवट्टा (चूपा)। १५. णीयारेण (चू)। ७. व्या० वि०-सन्धिपदमिदम् –हत्यि+अस्स। १६. भिक्खुवज्जाए (क) । ८. • सखे (क); भुंजाहिमाई भोगाई (चू)। १७. जवइत्तए (च) । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ तइयं अज्झयणं (उवसग्गपरिणा-तइओ उद्देसो) ३८. अचयंता व लूहेण उवहाणेण तज्जिया। तत्थ मंदा विसीयंति 'पंकसि व जरग्गवा ।। ३९. एवं णिमंतणं लद्धं मुच्छिया गिद्ध इत्थिसु । अज्झोववण्णा कामेहि चोइज्जंता 'गिहं गय" ।। -~त्ति बेमि ।। तइओ उद्देसो अज्झत्थ-विसीदण-पदं ४०. जहा संगामकालम्मि 'पिटुओ भीरु वेहई। वलयं गहणं मं को जाणइ पराजयं ? || ४१. मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स मुत्तो होइ तारिसो। पराजियाऽवसप्पामो इति भीरू उवेहई ।। ४२. एवं तु समणा एगे अबलं णच्चाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स अवकप्पंति मं सुयं ।। ४३. 'को जाणइ' वियोवातं. इत्थीओ उदगाओवा? । चोइज्जता पवक्खामो ण णे अत्थि पकप्पियं ।। ४४. इच्चेव पडिलेहति वलयाइ५ पडिले हिणो । वितिगिछसमावण्णा" पंथाणं व अकोविया ।। ४५. जे उ संगामकालम्मि गाया सूरपुरंगमा । ण ते पिटुमुवेहिति'१० कि परं मरणं सिया" ? ।। १. य (चू)। १०. हवति (क, चू)। २. सिरंसि व (क, वृ); उज्जाणंसि (ख); ११. के जाणंति (चू) (नियुक्ति गा० ४१)। थलंसि व (क्व)। १२. विउवायं (क)। ३. एयं (चू)। १३. नो (क)। ४. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-गिद्धा। १४. इच्चे व णं (क, ख)। ५. कामेसु (च)। १५. वलय (ख)। ६. गया गिहं (ख) 1 १६. विनिगिच्छं° (वृ)। ७. व्या वि०--विभक्तिरहितपदम्-भीरू। १७. नो ते पुट्ठ ° (ख); पिट्ठतो पेहंति (चू)। ८. पिदिओ० (क); पच्छतो भीरू वेहति (चू) ! १८. भवे (चू)। ६. मुहुत्ताण (क)। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सूयगडो १ ४६. एवं 'समुट्ठिए भिक्खू" वोसिज्जा' गारबंधणं। ___आरंभं तिरिय' कटु अत्तत्ताए' परिव्वए ॥ परवादवयण-पदं ४७. तमेगे परिभासंति भिक्खुयं साहुजीविण' । जे एवं परिभासंति' अंतए ते समाहिए। ४८. संबद्धसमकप्पा हु 'अण्णमण्णेसु मुच्छिया। पिंडवायं गिलाणस्स जं सारेह दलाह य॥ सरागत्था अण्णमण्णमणुव्वसा णट्ट-सप्पह-सब्भावा संसारस्स अपारगा। ५०. अह ते पडिभासेज्जा' भिक्ख मोक्खविसारए । एवं तुब्भे पभासंता दुपक्वं चेव सेवहा ।। ५१. तुब्भे भुजह पाएसु गिलाणाभिहर्डर ति य । तं च बीओदगं भोच्चा तमुद्देस्सादि जं कडं ।। ५२. लित्ता तिव्वाभितावेण" उज्झिया असमाहिया । ___णाइकंडूइयं सेयं अरुयस्सावरज्झई ५३. तत्तेण अणुसिट्ठा" ते अपडिण्णण जाणया । ण एस णियए" मग्गे असमिक्खा" वई किई ॥ १. समुट्टितं भिक्खं (च)। ११. दुवक्खं (चू)। २. बोसिच्चा (क) १२. गिलाणाभिहडम्मि (क); गिलाणोअभिहडं ३. (वि) तिरियं (चू)। ति (ख, चू) ४. आतत्ताए(क); आतत्ताए, आतथाए(चूपा)। १३. तमुहिस्सादि (क); तमुद्देसा य (ख) । ५. ०जीवियं (क)। १४. तिक्खा (ख); तिव्वाभिलेवेणं (चपा)। ६. ते उ० (क); तं उ एवं भासंति (चू)। । १५. उज्जया (क); उज्जुया (ख); उज्जाता (च)। ७. समाहिते (च); व्या०वि०-अत्र पञ्चम्येक- १६. साधु (च) । __वचने 'समाहीए' इतिरूपं भवति, किन्तु १७. अरुयस्स ° (क); अरुकस्सावरुज्झति (चूपा)। छन्दोहष्ट्या ह्रस्वत्वम् । १८, अणुसट्टा (क, चू)। ८. अण्णमण्णसमुच्छिता (चू); अण्णमण्णेहिं १६. णितिए (चू)। मच्छिया (च) (निर्यक्ति गा० ४१)। २०. व्या० वि०-अकारस्य दीर्घत्वम । ६. परिभासेज्जा (ख, वृ); परिभासिज्ज (क)। २१. कति (क, ख) । १०. पभासिता (क); ऽवभासंता (चू)। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अभय ( उवसग्गपरिण्णा -- चउत्थो उद्देसो) ५४. एरिसा जा' वई एसा 'अग्गे वेणु व्व गिहिणं' अभिहड सेयं भुजिउ ण सारम्भाण उ ५५. धम्मपण्णवणा 'जा सा'" ण उ एयाहि दिट्ठीहिं ५६. सव्वाहि अतीहि तओ वायं णिकिच्चा ५७. रागदोसाभिभूयप्पा मिच्छत्तेण अक्को से" सरणं जंति टंकणा पुव्वमासि अचयंता " ते भुज्जो ५८. बहुगुणप्पकप्पाई कुज्जा जेणणे ण विरुज्भेज्जा तेणं तं ५६. इमं च धम्ममायाय कासवेण कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए " ६०. संखाय पेसलं धम्मं दिट्टिमं उवसग्गे णियामित्ता" आमोक्खाए" अणुस्सुत-विसीदण-पदं ६१. आहंसु उत्थो उद्देसो महापुरिसा पुव्वि 'उदएण सिद्धिमावण्णा" तत्थ ३. गिहिणो (ख, चू) ४. व्या० वि० - छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ५. भिक्खुणी (ख, चू) 1 ६. एसा (चू) । ७. अचएंता (चू) 1 ८. गिरे किच्चा (चू); नरे किच्चा ( क ) । ९. रामदोस ० ( ख ) । जवित्तए । वि पगब्भिया || अभिया" । पव्वयं || अत्तसमाहिए" । समायरे ॥ इव करिसिया | भिक्खु ॥ विसोहिया | पगप्पियं ॥ पवेइयं" ! समाहिए || परिणिबुडे । परिव्वज्जासि || -त्ति बेमि ॥ मंदो १. भो (ख); भे (चूपा) १०. अभिदुया ( ख ) 1 २. अग्गवेणु° (ख); अग्गिवेल्लब्व करिसिता (चू); ११. आओसे ( ख ) | अग्गे वेलुव्व करिसिति ( चूपा) । १२. आतसमाहितो (चू) । १३. णो ( ख ) । १४. पवेदिदं (च) 1 १५. अगिण (चू ) । १६. अधियासेंतो (च्) । १७. अमोक्खाए (चू) 1 तत्ततवोधणा । विसीयइ || २८३ १८. भोज्जा सीतोदगं सिद्धा (च); मंदेऽवसीयत (क) । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ६२. अभुंजिया णमी वेदेही' बाहुए उदगं भोच्चा ६३. आसिले देविले चैव पारासरे दगं भोच्चा सातं सातेण विज्जई-पदं ६६. इहमेगे उ भासंति 'जे तत्थ" आरियं" मग्गं ६४. एए पुब्वं महापुरिसा भोच्चा बीयोदगं सिद्धा इइ' ६७. मा एवं अवमण्णंता रामउत्ते तहा ६८. 'पाणाइवाए अदिण्णादाणे दीवायण' बीयाणि ' ६५. तत्थ मंदा विसीयंति वाहच्छिण्णा व पिटुओ परिसप्पति पीढसप्पीव" आहिया य तारागणे सातं परमं अप्पेणं एयस्स अमोक्खा 'अयोहारि १. विदेहि (ख) 1 २. रामगुत्ते (क, बृ); रामाउते (चू); वृत्तिकारेण 'रामगुप्त' इति व्याख्यातम्, किन्तु ऋषिभाषितस्य संदर्भे नैतत्सम्यक् प्रतिभाति । ३. व (क) । ४. नारायणे (वृ); चूर्ष्या (पुण्यविजयजी द्वारा संपादित, पृ० १५) 'नारायणे' इति पाठो मुद्रितोस्ति, किन्तु ऋषिभाषितस्य संदर्भ 'तारागणे' पाठो युज्यते । संभवतो लिपिदोषेण 'तकार' स्थाने 'नकारो जातः । इह सातेण च" वट्टंता: 'मुसावाए वट्टंता मेहुणे य महारिसी । हरियाणि य ॥ 'पहा व्व १८ भुंजिया । रिसी ॥ संमया । मेयं ॥ गद्दभा । संभमे ॥ विज्जई | ॥ समाहि बहु जूरहा ॥ असंजया" । परिग्गहे ॥ ८. सीतोदगं ( चू) । ६ जह ( चू) 1 १०. अणुधावंति (च्) । ११. पिट्टु (क्व ) 1 १२. मन्नते ( चू, वृपा ) | १३. जितत्थ (च्) | १४. आयरियं (च ) | १५. ति (च्) । १६. समाधिता (चू ) । १७. बहु लुंध (नू) ५. व्या०वि० - विभक्तिरहितपदम् - दीवायणं । १५. अयहारी व (क, चू) । ६. बीताणि (चू) । ७. पुत्रि (चू ) । सूयगडो १ १६. पाणाइवाए व मक्ता ( क ) 1 २०. ०य संजया (क); मुमावादे वऽसंजता (चू) | Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ तइयं अज्झयणं (उवसग्गपरिणा-चउत्थो उद्देसो) अबंभचेर-समत्थण-तणिरसण-पदं ६९. एवमेगे' उ पासत्था पण्णवेंति अणारिया। ___'इत्थीवसं गया बाला जिणसासणपरंमुहा ७०. जहा गंड पिलागं वा परिपीलेत्ता महत्तगं। एवं विण्णवणित्थीसु' दोसो तत्थ कओ' सिया ? ।। ७१. जहा 'मंधादए णाम' थिमियं पियति दगं। एवं विण्णवणित्थीसु' दोसो तत्थ कओ• सिया? ॥ ७२. जहा विहंगमा पिंगा थिमियं पियति" दगं । एवं विष्णवणित्थीसु" दोसो तत्थ कओ५ सिया ? ॥ ७३. 'एवमेगे उ पासत्था४ मिच्छादिट्ठी अणारिया। अज्झोववण्णा कामेहिं पूयणा इव तरुणए" ॥ ७४. अणागयमपस्संता" पच्चप्पण्णगवेसगा । ते पच्छा परितप्पंति९ 'झीणे आउम्मि'२० जोव्वणे ।। ७५. जेहिं काले परक्कंतर 'ण पच्छा परितप्पए'२२ । ते धीरा" बंधणम्मुक्का णावखंति जीवियं ।। ७६. जहा णई वेयरणी दुत्तरा" इह सम्मता । एवं लोगंसि णारीओ दुत्तरा अमईमया ॥ १. एवमेते (चू)। मुदितोऽस्ति, किन्तु 'तष्णगे--छावके' इति २. य (क)। व्याख्यांशेन प्रतीयते मौलिकः पाठः 'तण्णगे' ३. इत्थीवसगा (क), इत्थीवसगता (च)। इति आसीत्, किन्तु कठिन शब्दानां सरली४. परिपोलिज्ज (क, ख); णिपीलेत्ता (च) । करणपद्धत्या अत्रापि परिवर्तनं जातमिति ५. °वणत्थीसु (चू)। संभाव्यते। ६. कुतो (चू)। १७. मपासंता (च)। ७. मंधायती नाम (क); मंधातइण्णाम (चू) । १८. मवेसए (क); °गवेसणा (च) । ८. मुंजती (क, ख)। १६. अणुसोयंति (च)। ६. वणत्थीसू (च)। २०. खोणे ° (ख); झीणाउम्मि (चू)। १०. कुओ (चू)। २१. परिवकलं (क, चू)। ११. भुंजती (क, ख) : २२. सुकडं तेसि सामण्ण (चू)। १२. °वणस्थीसु (चू)। २३. वीरा (क)। १३. कुओ (चू)। २४. दुरुत्तरा (ख)। १४. एवं तु समणा एगे (चू)। २५. दुरुत्तरा (ख); दुरुत्तराओ (चू)। १५. मिच्छदिट्ठी (ख)। २६. व्या० वि०-छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । १६. यद्यपि चूर्णीपाठे 'तरुणए' इत्येव पाठो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ७७. जेहिं 'णारीण संजोगा" पूयणा सव्वमेयं णि किच्चा ते ७८. एए ओघं तरिस्संति समुद्द जत्थ पाणा विसण्णासी' 'किच्चंती ७९. तं च भिक्खू परिण्णाय सुन्वए मुसावाय विवज्जेज्जा' 'ऽदिण्णादाण ८०. उड्डमहे तिरियं वा जे केई सव्वत्थ 'विरति कुज्जा" संति ८१. इमं च धम्ममायाय कासवेण कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए ८२. संखाय पेसलं धम्मं दिट्टिमं उवसग्गे णियामित्ता" आमोक्खाए १. ते णारि संजोगा (चू) । २. जिरेकिच्चा ( क, चू) । ३ सुसमाहिए ( क, ख ) 1 ४. X ( ख ) 1 ५. विसन्नास ( क ) ; विषण्णाः सन्तः (वृ ) | ६. ० सय कम्मणा ( ख ); कच्चति सह कम्मणा पिट्टओ किया | ठिया सुसमाहीए ॥ वहारिणो । व कम्णा" || चरे । समिए च" वोसिरे ॥ तसथावरा | निव्वाणमाहियं || पवेइयं । समाहिए || परिणिव्वुडे । परिव्वज्जासि ॥ -त्ति बेमि ॥ सूयगडो १ (चू) । ७. च वज्जिज्जा (ख); विवज्जेज्जा (चू) । ८. अदिष्णादि च (तू) 1 ९. विज्जं विरति ( चू) | १०. नियाएता ( क ) ; हिया सित्ता ( ख ); णिरेकिच्चा (चू) 1 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी संसग्ग-विवज्जण-पदं १. जे मायरं च पियरं च विप्पजहाय' पुव्वसंजोगं । विवित्तंसी' ॥ एगे सहिए चरिस्सामि आरतमेहुणी' सुमेणं तं परक्कम्म छण्णयएण इत्थीओ मंदा | 'उवायं पिताओ जाणंति" जह' लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥ पासे भिस णिसोयंति अभिक्खणं पोसवत्यं परिहिति । कार्य अहे वि दसंति 'बाहु मुद्घट्टु कक्खमणुव्वजे " || सयणासणेहिं जोगेहिं' इत्थीओ एगया णिमंतेंति । एयाणि चेव से जाणे पासाणि विरूवरूवाणि || णो तासु चक्खु संधेज्जा जो सद्धियं" पि विहरेज्जा २. ३. ४. ५. १. विप्पजधाय ( चू) । २. मेणो (च्) । चत्थं अभयणं इत्थिपरिणा पढमो उद्देसो विवित्तेस उवायं च (चू) ! ५. जहा ( ख ); जध (चू) | ६. ० वत्थ (क, ख ) । ३. विवित्सु (वृ); विवित्तमेसी ( चूरा ) | ६. तासि (चू) । ४. ० जाणिसु (क, ख, वृपा); जाणंति ता १०. साहसमभिजाणेज्जा ( क ) ; ° समभिजाणे ( ख ) ११. सहियं (ख) 1 १२. रक्खित्तु सेओ (चू) । १० णो वि य 'साहसं समणुजाणे । एवमप्पा 'सुरक्खिओ होइ" ।। ७. बाहु उद्धट्टु ० ( क ); बाहु मुद्वत्तु ° ( ख ) ; बाहु द्धट्टु कक्खं परामुसे (नृ ) । ८. जोगेहिं ( क, ख ) 1 ( बृपो ); २८७ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ६. आमंतिय 'ओसवियं वा" भिक्खु आयसा णिमंतेंति । एयाणि चेव से जाणे' सद्दाणि विरूवरूवाणि' || गेहिं कलुणविणीयमुवगसिताणं * 1 भासंति आणवयंति' भिण्णकहाहिं ॥ बंधणेह ७. अदु मंजुलाई सीहं जहा व कुणिमेणं णिग्भयमेगचरं पाणं । संवुड मेगतियमणगारं 11 रहकारो व णेमि अणुपुवीए । बंधति णमयंति पासेणं पच्छा विवागमायाए: णच्चा । फंदते विण मुच्चई ताहे ॥ भोच्चा पायसं व विसमिस्सं । एवं संवासो ण कप्पई दविए ॥ ११. तुम्हा उ" वज्जए इत्थो विसलित्तं व कंटगं ओए कुलाणि वसवत्ती आघाए" ण से विणिग्गंथे ॥ १२. जे एयं "उंछ तऽणुगिद्धा १४ अण्णयरा हु ते कुसीलाणं । सुतवस्सिए" वि से भिक्खू णो विहरे " सहणमित्थीसु ॥ १३. अवि" धूयराहिं सुहाहि धाईहिं अदुवा दासीहि । महतीहि वा कुमारीहि संथव से ण कुज्जा अणगारे || १४. अदु णाइणं व सुहिणं वा अप्पियं दठ्ठे एगया हो । 'गिद्धा सत्ता" कामेहिं रक्खणपोसणे १५. समणं 'पि दट्ठूदासीणं" तत्थ वि ताव एगे अदु" भोयणेहिं णत्थेहिं इत्थोदोससंकिणो ८. एवित्थियाओ अह तत्थ पुणो बद्धे मिए व १०. अह से प ε. १. ओविय ( ख ) ; ओसविया णं ( चुपा ) । २. जाणिया ( क ) : जाणि (चू) । ३. निमंतणादीणि (चु); ( चुपा) । ४. मुवागसित्ताणं ( क, ख ) ; मुपकम्मित्ताण १६. विरहे (चू) । (चू) । ५. आणमेयंति ( क ) ; आणमयंति (चू ) । ६. एवित्थिया ( क ) ; एवं इत्थिया ( ख ) । ७. अणुपुत्री (ख); अणुपुब्बीए (च) । ८. विवेग (क, ख, वृपा, चूषा); विवाग मण्णा (चू) | ६. नवि (ख) | १०. हु (क, चू) ११. आघाय (क) || कुप्पंति । होति ॥ १२. व ( क ) । १३. व्या० वि० सन्धिपदम् - तयणुगिद्धा । विरूवरूवाणि १४. उच्छं अणुमिद्धा ( क, ख ) 1 १५. सुतमसिए (चू ) । सूयगडो १ १७. सहणं इत्थीसु (क) 1 १८. अविए ( क ) 1 १९. महल्लीहि (चू) | २०. गिद्ध मत्ता ( ख ) | २१. पिट्ठू (ख); दट्ठूणुदासीणं (वृपा); पि दट्ठदासीणा (चूवा) २२. अह (क); अदुवा (ख); अथवा (वृ ) ! २३. भवंति (चू) | Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ चउत्थं अज्झयणं (इत्थिपरिणा-पढमो उद्देसो) १६. कुवंति संथवं ताहि पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं । तम्हा समणा ! 'ण समेंति आयहियाए" सण्णिसेज्जाओ।। १७. बहवे गिहाई अवहट्ट 'मिस्सीभावं पत्थुया एगे धुवमग्गमेव पवयंति वायावीरियं कुसीलाणं 11 १८. सुद्धं रवइ परिसाए अह रहस्सम्मि दक्कडं कणइ । जाणंति य ण तथा वेदा माइल्ले महासढेऽयं ति ।। १६. 'सयं दुक्कडं ण बयइ" 'आइट्टो वि" पकत्थई वाले । वेयाणवीइ मा कासी चोइज्जंतो गिलाइ से भुज्जो ।। उसिया वि इस्थिपोसेसु पुरिसा इत्थिवेयखेत्तण्णा । पण्णासमपिणया वेगे' णारीणं वसं उबकसंति ॥ २१. अवि हत्थपायछेयाए अदुवा वद्धमंसउक्कते" । अवि" तेयसाभितावणाई तच्छिय" खारसिंचणाइं च ।। २२. अदु कण्णणासियाछेज्ज" कंठच्छेयणं तितिक्खंती । इति एत्थ पाव-संतत्ता ण य वेंति पुणो ण काहिति" ।। २३. सुयमेयमेवमेगेसि 'इत्थीवेदे वि' हु सुयक्खायं । एयं पि ता वइत्ताणं अदुवा' कम्मुणा" अवकरेंति ॥ १. न समेंति आयाहियाय (क); तु जधाहि १३. एगे (चू) । आतहिओ (चू); उ जहाहि आअहिताओ १४. उवणमति (च)। (वृपा); ण समिति (समेंति) आतहिओ १५. अदु (चू) । (चूपा)। १६. ०च्छेदाति (क); °च्छेज्जाई (च) । २. मिस्सीभाव पण्णता एगे (क); मिस्सीभाव- १ १७. ° उक्त का (क); मंसं उक्कने (च) पण्हया (च); मिस्मीभावपत्थया (वृ); १८. अदु (च)। मिस्सीभावं पणता (दी)। १६. तवणाई (क, च। ३. धुय ° (क)। २०. तच्छेतु (च)। ४. भासिंसु (चू)। ५. करेत्ति (ख)। २१. अह (क)। २२. नासज्ज (ब); काणच्छेज्ज नास वा ६. तधावेता (चू); तथाविदः (वृ) । ७. सयदुक्कड च अवदते (क); सयदुक्कडं अवदते (च)। २३. कंठकिज्जणं (च)। ८. आइट्टे व (क); आउट्ठो वि (चू) । २४. करिस्सामो (चू); काहिंति (चूपा) । ६. पकप्पई (क)। २५. सुतमेवमेतमेगेसि (च)। १०. वेयाणुवीयी (चू)। २६. इत्थीवेदम्मि य (क); इत्थीवेदेत्ति (ख) । ११. पोसेहिं (चू)। २७. अहवा (क); अध पुण (चू)। १२. ° खेदन्ना (ख, चू)। २८. कम्मणा (ख) (चू)। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सूयगडो १ २४. अण्णं मणेण चितेंति 'अण्णं वायाए कम्मुणा" अण्णं । तम्हा 'ण सद्दहे भिक्खू" बहुमायाओ इथिओ णच्चा । २५. जुवती समणं बूया चित्तवत्थालंकारविभूसिया । विरया चरिस्सहं रुक्खं धम्माइक्ख णे भयंतारो ! ।। २६. अदु सावियापवाएणं अहगं साहम्मिणी 'य तुब्भं ति। जउकुम्भे जहा उवज्जोई संवासे' विऊ विसीदेज्जा ।। २७. जउकुम्भे जोइसुवगूढे आसुभितत्ते णासमुवयाइ । एवित्थियाहिं अणगारा 'संवासेण णासमुवयंति" ।। २८. कुव्वंति 'पावगं कम्म"० पुट्ठा वेगेवमाहंसु" । णा हं करेमि पावं ति अंकेसाइणी ममेस ति॥ २६. बालस्स मंदयं बीयं जं च कडं अवजाणई भुज्जो। दुगुणं करेइ से पावं पूयणकामो" बिसण्णेसी । ३०. संलोकणिज्जमणगारं आयगयं णिमंतणेणाहंसु । वत्थं वा" ताइ ! पायं वा अण्णं पाणगं पडिग्गाहे ।। ३१. णीवारमेवं६ बुज्झज्जा णो 'इच्छे अगारमागत् । 'बद्धे विसयपासेहिं मोहमावज्जइ" पुणो मंदे ।। -त्ति बेमि ॥ १. वाया अन्नं च कम्मणा (ख) । १०. पावकम्म (चू, वृ)। २. तम्हा णो सद्दहेनव्वं (च)। ११. वेगे एव माहंस (क, ख)! ३, य चित्तलंकारवत्थगाणि परिहिता (क, ख)। १२. नो (ख)। ४. लूई (ख, चू); मोणं (वृपा) । १३. बितियं (ख, च) । ५. समणाणं (क, ख)। १४. पूयण-कामए (क, च)। ६. संवासेण (चू)। ७. ° सुवगृहे (क); अवगूढे (ख); जोतिमुवगूढे १६. णीयार° (च); णीयारमन्तं (चूपा)। (च); व्या० वि-द्विपदयोः सन्धिः--- १७. °आगार (ख); इच्छेज्ज अगारं गंतु जोइसा+उवगूढे । (च); इच्छेज्ज अगारमावत्तं (चूपा, वृपा)। ८. एवित्थिगास (च)। १५. बद्धे य विसयदामेहि (क); संबद्धोविसयदा६. °णासमति (क); संवासेणासुविणस्संति मेहि (च) । १६. मागच्छति (व)। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं (इत्थिपरिणा-बीओ उद्देसो) २६१ बीओ उद्देसो इत्थी-आसत्तस्स विडंबणा-पदं ३२. ओए सया ण रज्जेज्जा भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा । भोगे' समणाण सुणेहा 'जह भुजति भिक्खुणो एगे ।। ३३. अह तं तु भेयमावणं मुच्छियं भिक्खु काममइवटैं। पलिभिदियाण तो पच्छा पादुद्धदु मुद्धि पहणति' ।। ३४. जइ केसियाए मए भिक्ख! णो विहरे सहणमित्थीए। 'केसे वि अहं लुचिस्स" णण्णत्थ मए चरेज्जासि ॥ ३५. अह णं से होइ उवलद्धे 'तो पेसेंति तहाभूएहि । अलाउच्छेयं" पेहेहि वग्गुफलाइं आहराहि ति ।। ३६. दारूणि सागपागाए" पज्जोओ वा भविस्सई राओ। पायाणि य मे रयायेहि एहि य ता मे 'पट्टि उम्मद्दे ।। ३७. वत्थाणि य मे पडिले हेहि 'अण्णं पाणमाहरा हि त्ति । ___'गंधं च रओहरणं च 'कासवगं च समणुजाणाहि ॥ ३८. अदु अंजणि अलंकारं कुक्कययं मे पयच्छाहि । लोद्धं च लोद्धकुसुमं च वेणुपलासियं" च गुलियं च ।। ३६. को? 'तगरं अगरं च संपिटुं सहारे उसीरेणं'। तेल्लं 'मुहे भिलिंगाय'४ वेणुफलाई सण्णिहाणाए । १. विरज्जेज्जा (चू); विरज्जेज्ज (चूपा)। २. भोग (क) । ३. एगे किल जधा भुंजते (चू)! ४. कामेसु अतिअट्ट (चू)। ५. ततो (ख)। ६ पहणंतु (क); पहणंति (क्व)। ७. केसियाण (क, ख)। ८, केसाणविहु लुचिसु (क)। ६. विचरेज्जासि (चू)। १०, ततो गं देसे ति तधारूवेहिं (चू) । ११. लाउच्छेयं (क, ख)। १२. पेहाहि (ख)। १३. अण्णपागाए (चू, वृपा)। १४. पट्टि उम्महे (चू)। १५. अन्नपाणं च आहराहि (क, ख); अण्णपाणं वा मे आहराहि (चू)। १६. गंथं व (चूपा, वृपा)। १०. कासव समणाणुजाणाहि (वृ); कासवगं में आणयाहि (चू)। १८. कुकुहगं (चू)। १६. वेलुपलासी (च)। २०. कुटुं (क)। २१. अगरु तगरं च (ख)। २२. सम (च)। २३. हिरिवे रेणं (च)। २४. मुहिं भिलिजाए (क); मुहिं भिजाए (ख), मुहं भिलिजाए (वृ)। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडी १ २६२ ४०. गंदीचुण्णगाइं पाहराहि' 'छत्तोवाहणं च जाणाहि । सत्थं च सूवच्छेयाए आणीलं च वत्थं रावेहि ।। ४१. सुफणि च सागपागाए' आमलगाई दगाहरणं' च । तिलगकरणि' अंजणसलागं घिसु मे विहुयणं' विजाणाहि ॥ संडासगं च फणिहं च" सीहलिपासगं च आणाहि । आयंसगं च पयच्छाहि दंतपक्खालणंर पवेसेहि ।। ४३. पूयफलं तंबोलं च 'सूई-सुत्तगं च जाणाहि''। कोसं च मोय मेहाए 'सुप्पुक्खल-मुसल-खारगलणंच। ४४. वंदालगं च करगं च वच्चघरगं च आउसो ! खणाहि। सरपायगं च जायाए गोरहगं च सामणेराए । ४५. 'घडिगं सह डिडिमएण'१९ चेलगोल कुमारभूयाए। वासं इममभिआवण" आवसह 'जाणाहि भत्ता'" ! ॥ ४६. आसंदियं च णवसुत्तं पाउल्लाई संकमट्ठाए। 'अदु पुत्तदोहलढाए" 'आणप्पा हवंति दासा वा'" । १. पहराहिं (क, ख)। सुप्पुदुक्खलं च खारगलणं च (वृ) । २. छत्तग जाणाहि उवाहणा उ वा (च)। १६. चंदालगं (क, ख, व) ब-च वर्णयोः ३. रयावेहि (क, ख)। लिपिसादृश्यहेतूकमिदं परिवर्तन संभाव्यते । ४ सूवपाताए (चू)। १७. वच्चघरं (व)। ५. मामलगा (चू)। १८. सरपायं (ख); सरपादन (च)। ६. दगाहरणि (चू)। १६. घडियं च सडिडिमयं च (क, ख) । ७. तिलकरणि (चूपा)। २०. समणाहियावणं (क); समभिआवण्णं (ख) । ८. विणयं (वृ); विधूवणं (चू)। २१. च जाण भत्तं च (क, ख, वृ)। अत्र ६. जाणाहि (च)। संभाव्यते 'भत्ता' शब्दस्य अर्थानवधारणतया १०. फणिगं (चू)। लिपिकारः 'भत्तं च' इति पाठः उल्लिखितः । ११. ४(क)। वृत्तिकारस्य सम्मुखे एष एव पाठः आसीत्, १२ पक्खालग च (क)। तेनासावेद व्याख्यातः । १३. पूयप्फल (चू)। २२. पाउल्लाइ (क); पाउल्लगाई (चू)। १४. सूचि (व); सूचि जाणाहि सुत्तगं (च)। २३. पुत्तस्स डोहलढाए (क, चूपा)। १५. सुप्पुकाबलगं च खारगलणाए (क); २४. आणप्पे भवति दासमिव (चू)। सप्पुक्खलगं च खारगालगं च (ख); Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ चैउत्यं अज्झयणं (इत्थिपरिणा-बोओ उद्देसो) ४७. जाए फले समुप्पण्णे 'गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि । अह पुत्तपोसिणो एगे 'भारवहा हवंति उट्टा वा ।। ४८. 'राओ वि उठ्ठिया संता" दारगं 'संठवेंति धाई वा" । सुहिरीमणा वि ते संता बत्थधुवा हवंति हंसा' वा ॥ ४६. एवं' बहुहिं कयपुव्वं भोगत्थाए जेभियावण्णा । दासे मिए व पेस्से' वा पसुभूए व से ण वा केई ।। ५०. 'एवं खु तासु विण्णप्पं संथवं संवासं च चएज्जा । तज्जातिया इमे कामा वज्जकरा य एव मक्खाया ।। ५१. 'एवं भयं ण सेयाए 'इइ से अप्पगं णिरुंभित्ता। णो इत्थि णो पसु भिक्खू गो सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा५॥ ५२. सुविसुद्धलेसे मेहावी परकिरियं च वज्जए गाणी। मणसा वयसा" काएणं सव्वफाससहे अणगारे ।। ५३. इच्चेवमाहु से वीरे 'धुयरए धुयमोहे से भिक्खू । तम्हा अज्झत्थविसुद्धे सुविमुक्के" 'आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ।। -त्ति बेमि ।। १. गेण्हाहि व णं छड्डेहि व णं (चू)। २. भरवाहो भवति उट्टो वो लहितओ (चू)। ३. एगे राओ वि उद्वित्ता (क)। ४. सग्णवेंति धाव इवा (चू)। ५. वत्थघोवा (क, ख); वत्थाधुवा (चू)। ६. हंसो (चू)। ७. एतं (चू)। ८. इत्थिआभिआवण्णा (च) । ६. पेसे (क, ख)। १०. केति (चूपा)। ११. एतं खु तासि वेण्णप्प (च)। १२. वज्जेज्जा (ख) । १३. एतं भयण्ण (च)। १४. इह सेयऽप्पगं (चू)। १५. पसू (चू)। १६. णिलेज्ज (चू)। १७. वयस (क)। १८. धूतरायमग्गे सभिक्खू (च); धूतरायमग्गे स भिक्खू (वृपा)! १६ x (चू); सुमुक्के (व) । २०. विहरेज्जामुक्खाए (क)। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं णरयविभत्ती पढमो उद्देसो गरग-वेदणा-पद १. पुच्छिसुह' केवलियं महेसि कहंऽभितावा गरगा पुरत्था ? | अजाणओ मे मुणि बूहि' जाणं कह णु बाला णरगं उति ? ॥ २. एवं मए' पुढे महाणुभावे' इणमब्बवी' कासवे आसप्पण्णे। पवेयइस्सं दुहमट्ठदुग्गं आदीणियं दुक्कडिणं पुरत्था ।। ३. जे केइ बाला इह जीवियट्ठी पावाई" कम्माइँ करेंति रुद्दा। ते घोररूवे तिमिसंधयारे तिव्वाभितावे" णरए पडंति ।। ४. तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य जे हिंसई आयसुहं पडुच्चा"। जे लसए होइ अदत्तहारी ग सिक्खई सेयवियस्स किंचि ॥ ५. पागब्भि पाणे बहुणं तिवाई" अणिन्वुडे घायमुवेइ.५ बाले। ____ 'णिहो णिसं'" गच्छइ अंतकाले अहोसिरं कटु उवेइ दुग्गं ।। ६. हण 'छिदह भिंदह णं दहेह सद्दे सुणेत्ता परधम्मियाणं । ते णारगा ऊ" भयभिण्णसण्णा कंखंति कं णाम दिसं वयामो? ॥ १. पुच्छिस्सहं (ख)। ११. तिन्वाणुभावे (च)। २. अविजाणओ (च)। १२. पडुच्च (ख)। ३. ब्रूहि (चू)। १३. तिवाती (क); तिवादि (च)। ४. मया (चू)। १४. अनिव्वुए (घ)। ५. भागे (च); भावे (चूपा)। १५. घातगति उति (चू)। ६. इणमो° (वृ)। १६. णिधोणत (चू)। ७. आदाणियं (च), आदीणियं (चपा) । १७. डहाह (क); छिदध भिदध णं दहह (च) : ८. दुक्कडियं (ख, वृ); दुक्कडिणं (वृपा)। १८. सुणंति (क) । ६. जीवियट्ठा (क)। १६. तू (क)। १०. कूराई (चू)। २६४ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अज्झयणं (णरयविभत्ती-पढमो उद्देसो) २६५ ७. इंगालरासिं जलियं सजोइं ओवमं भूमिमणुक्कमंता'। ते डझमाणा कलुणं थणंति अरहस्सरा तत्थ चिरट्टिईया ।। ८. जइ ते सुया वेयरणीऽभिदुग्गा "णिसिओ जहा खुर इव तिक्खसोया। तरंति ते वेयरणीऽभिदुग्गं उसुचोइया' सत्तिसु हम्ममाणा ।। ६. कोलेहि विज्झति असाहुकम्मा णावं उर्वते' सइविप्पहूणा । 'अण्णे तु“सूलाहि तिसूलियाहिं दीहाहि विळूण अहे करेंति ।। १०. 'केसि च बंधित्तु गले सिलाओ उदगंसि बोलेंति महालयंसि । कलंबुयावालुयमुम्मुरे य लोलेंति पच्चंति य तत्थ अण्णे" ।। ११. असूरियं णाम महाभितावं अंधं तमं दुप्पतरं महंतं । उड्ढे अहे यं तिरियं दिसासु समाहिओ" जत्थगणी झियाइ" ॥ १२. जंसी गुहाए जलणेऽतिवट्टे अविजाणओ" डज्झइ लुत्तपण्णो । 'सया य कलुणं"पुण घम्मठाणं गाढोवणीयं अइदुक्खधम्म ।। १३. चत्तारि अगणीओ समारभेत्ता जहि कूरकम्मा भितवेंति बालं"। ते तत्थ चिटुंतऽभितप्पमाणा" मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता । १४. संतच्छणं णाम महाभितावं ते णारगा जत्थ असाहकम्मा"। ___ हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था ।। १५. रुहिरे पुणो वच्च-समुस्सियंगे२२ भिष्णुत्तिमंगे५ परिवत्तयंता। __ पयंति णं गेरइए फुरते सजीवमच्छे" व अयो-कवल्ले ।। १. अगोक्कमंता (च)। २. खुरो जया णिसितो तिक्खसोता (च) । ३. असि ° (चू)। ४. कालेहि (क); कोलेहि (ख)। ५. उती (चू)। ६. भिन्नेत्थ (चू)। ७. पययंति (ख) ८. x (चू)। ६. महब्भियावं (क)। १०. या (च)। ११. समूसिओ (ख); समूसिते (चूपा, वृपा)। १२. झियायती (क)। १३. जलणातियट्टे (चू)। १४. अजाणतो (वृ)। १५. लूयपन्ने (क)। १६. ४ (चू)। १७. सया य कसिण (वृपा) ! १८. मदा (चू)। १६. चिटुंति अभि° (क); चिट्ठति भित ' (ख) । २०. जीव उवजोति° (चू); व्या० वि०-- द्विपदयोः सन्धिः-जीवंता+उवजोइपत्ता । २१. कम्मी (च)। २२. समूसितंतो (वृ); समूसितंगा (वृपा) । २३. भिदुत्तमंगे (ख)। २४. ° मच्छा (क); सज्जो व्व मच्छे (च); सज्जोक्कमत्थे (चपा)। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सूयगडो १ १६. णो चेव ते तत्थ मसीभवंति ण मिज्जई तिव्वभिवेयणाए। तमाणुभाग अणुवेययंता दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ।। १७. 'तहिं च ते लोलणसंपगाढे गाढं सुतत्तं अर्गाण वयंति । ण तत्थ सायं लभंतीऽभिदुग्गे अरहियामितावे" तह वी तवेंति ।। १८. से सुब्बई१२ णगरवहे व सद्दे 'दुहोवणीताण पदाण'' तत्थ १५ । उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा पुणो पुणो ते सरह दुहेति ॥ १६. पाणेहि णं पाव" विओजयंति तं भे पवक्खामि जहातहेणं । दंडेहि तत्था सरयंति बाला सव्वेहि दंडेहि पुराकएहिं ।। ते हम्ममाणा' 'णरगे पडंति२० पुण्णे दुरूवस्स महाभितावे । ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभक्खी तुटूंति कम्मोवगया किमोहिं ।। २१. सया“ कसिणं पुण घम्मठाणं गाढोवणीयं अइदुक्खधम्म । अंदुसु पक्खिप्प "विहत्तु देह"५ 'वेहेण सीसं सेऽभितावयंति। २२. छिदंति बालस्स खुरेण णक्क ओढे वि छिदंति दुवे वि कण्णे । जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमेत्तं तिक्खाहि सूलाहि भितावयंति ॥ २३. ते तिप्पमाणा 'तलसंपुड व राइंदियं तत्थ थणंति बाला। 'गलंति ते सोणियषयमंसं २ पज्जोइया खारपदिद्धियंगा"। १. भवेति (चू)। १८. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-पावा। २. तिब्बतिवे° (चू)। १६. हिंसमाणा (क); हम्ममाणे (च)। ३. तमाणुभाव (ख); कम्माणभागं (चू)। २०. गरगं उर्वति (चू) ४. अणुवेदयंती (च)। २१. पुण्णं (चू)। ५. दुक्खा (क); सोयं (चू)। २२. महभियावे (क); महभितावं (च) । ६. दुक्कडाणं (क)। २३. कम्मोवसगा (चू)। ७. तेहिं पि (च)। २४. सया य (क)। ८. लोलुअसं ° (क, चू); लोलेण° (ख)। २५. हणति वाल (चू)। ६. सादं (चू)। २६. वेहेण तं सेभितविति सीसं (क); वेधेहिं १०. लहईभिदुग्गे (क, ख)। विधीत सिराणि तेसि (च); वेढेण ताति ११. अरहभियावा (क); °तावा (ख)। सिराणि तेसि (चपा)। १२. सुच्चई (ख)। २७. नासं (क)। १३. गामवघे (चू)। २८. विशिकिस्स (च)। १४. याणि पयाणि (ख); उदिण्णकम्माए पश्य २६. तिवातयंति (क); निपातयंति (च)। ३०. तलसंपुडच्चा (च)। १५. तत्था (क) ३१. मंदा (च)। १६. सहरिसं (च)। ३२. समीरिता सरुधिर-मंसदेहा (च)। १७. विधंति (चूपा)। ३३. खारपच्छितंगा (च)। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ पंचमं अज्झयणं (णरयविभत्ती-पढमो उद्देसो) २४. जइ ते सुया लोहियपूयपाई बालागणी तेयगुणा परेणं । ___कुंभी महंताऽहियपोरुसीया' समूसिया लोहियपूयपुण्णा ।। २५. पक्खिप्प तासु पपचंति बाले अट्टस्सरे ते कलुणं रसंते। तण्हाइया ते तउतंबतत्तं पज्जिज्जमाणट्टयरं रसंति ।। २६. अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता भवाहमे 'पुव्वसए सहस्से । चिट्ठति तत्था" बहुकूरकम्मा 'जहाकडे कम्म"तहा से भारे ।। २७. समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा इटेहि कंतेहि य विप्पहूणा" । ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ।। –त्ति बेमि ॥ बोओ उद्देसो परग-वेदणा-पदं २८. अहावरं सासयदुक्खधम्मं तं भे पवक्खामि जहातहेणं । बाला जहा दुक्कडकम्मकारी वेयंति कम्माई" पुरेकडाई ।। २६. हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं 'उदरं विकत्तंति खुरासिएहि । गेण्हित्तु बालस्स विहत्तु" देहं बद्धं थिरं पिट्ठउ उद्धरंति ।। ३०. बाहू पकत्तंति य मूलओ से थूल" वियासं मुहे आडहति । रहंसि जुत्तं सरयंति बालं आरुस्स विज्झति"तुदेण पढे ।। वृत्तौ 'क्षरप्रासिभिः' इति व्याख्यातमस्ति २. लोहितापागपायी (चू)। अस्यानुसारेण 'खुरप्पसोहिं' इति पाठस्य ३. पोरिसीणा (क); °पोरसीया (ख) ! परिकल्पना जायते। ४. °स्सरं (क, चू)। १३. गिहित्तु (क)। ::. अप्पाण (च)। १४. वित्त (क); विविधं हतं (वृ); विहण्ण ६. पुवा सतसहस्से (च)। ७. व्या० वि०-छंदोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । १५. वज्झ (क, चू)1 ८. कडे कम्मे (क); जधकडे कम्मे (चू)! १६. व्या० वि०-छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ६. सि (ख)। १७. पकप्पंति (क)। १०. विघ्पहीणा (च)। १८. थुलं (क)। ११. पावाई (क)। १६. विधति (ख, चू)। १२. उदराई फोडेंति खुरेहिं तेसिं (चू); २०. पिट्टे (चू। ० खुरासितेहि, खुरासिगेहिं (चूपा); Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सूयगडो१ ३१. अयं व तत्तं जलियं सजोइं तओवम भूमिमणुक्कमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति उसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता ॥ ३२. बाला बला भूमिमणुक्कमंता' पविज्जलं लोहपहं व तत्तं । जंसीऽभिदुग्गंसि पवज्जमाणा' पेसे व" दंडेहि पुरा करेंति ।। ३३. ते संपगामि पवज्जमाणा सिलाहि हम्मति भिपातिणीहि । संतावणी णाम चिरट्टिईया संतप्पई जत्थ असाहुकम्मा" ।। ३४. कंसु पक्खिप्प पयंति बालं तओ विदड्डा पुण उप्पतंति"। ते उड़काएहि पखज्जमाणा अवरेहि खज्जति सणफएहि ।। ३५. समुसियं णाम विधूमठाणं 'जं सोयतत्ता कलुणं थणंति । अहोसिर कट्टु वित्तिऊणं" अयं व सत्थेहि समूसति ।। ३६. समूसिया तत्थ विसूणियंगा पक्खीहि खजंति अओमुहेहि । संजीवणी" णाम चिरट्टिईया जंसी पया हम्मइ८ पावचेया ।। ३७. तिक्खाहि सूलाहि ऽभितावयंति: वसोवगं सावययं" व लद्धं । ते सूलविद्धा कलुणं थणंति एगंतदुक्खं दुहओ गिलाणा ।। ३८. सया जलं ठाण५ णिहं महंतं जसी 'जलंतो अगणी अकट्टो २ ॥ चिटुंति तत्था" बहुकूरकम्मा अरहस्सरा" केइ चिरट्टिईया ॥ १. तत्तोवम (क); चूर्णीकृता प्रथमोदेश- १२. उप्फिडति (च)। कस्य सप्तमश्लोके 'ततोवमं' पाठो १३. पक्खिज्जमाणा (ख); विलुप्पमाणा (चू)। व्याख्यात :--तशयसकभल्लतुल्लं, अऋतु १४. ज सामितत्ता (क); विगिच्चमाणा (च); 'तदोबम' पाठो व्याख्यातः, तदस्या ओपम्यं जसि विउक्कता, जसि उवियता (चपा)। तदोपमा । वृत्तिकारस्य व्याख्यायां उभयत्रापि १५. अहे ० (क)। साम्यमस्ति। १६. विगति ° (च)। २. मणोक्कमेत्ता (क); ° मणोक्कमंता (चू)। १७. संजीवणा (च)। ३. भूमिअणोक्कमता (चू)। १८. हम्मति (क)। ४. विपज्जल (चू); पविज्जलं (चूपा) । १६. निवाययंति (क); वधेति वाला (च); ५. °दुग्मा (चू)। __ तिवाययंति (क्व)। ६. बहुकूरकम्मा (च)। २०. सोयरिय (क); सोवरिया (च); सावरिया ७. ब्व (क)। (चूपा)। ८. ऽभिपातिमाहिं (चू)। २१. नाम (ख, चू)। ६. सतप्पते (च)। २२. जलंती अगणी अकट्ठा (क, चू)। १०. ° कम्मी (क, चू)। २३. बद्धा (ख, वृ)। ११. कंडू (चू)। २४. अरहितस्सरा (चू)। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अणं ( णरयविभत्ती - बीओ उद्देसो) ३६. चिया महंतीउ' समारभित्ता छुब्भंति ते तं आवट्टई तत्थ असाहुकम्मा सप्पी जहा छूढं ४०. सथा कसिणं पुर्ण धम्मठाणं गाढोवणोयं हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं ४१. भजंति बालस्स वहेण पट्टि ते भिण्णदेहा फलगा व तट्ठा ४२. अभिजुंजिया रुद्द ' असा हुकम्मा एवं दुहितु दुवे तओ वा ४३. बाला बला भूमिमणुक्कमंता' पविज्जलं कंटइलं महंतं । विवद्धतप्पेहि विसरणचित्ते" समीरिया ४४. वेयालिए णाम महाभितावे एगायए हम्मति तत्था चहुकूरकम्मा परं सहस्साण ४५. संबाहिया दुक्कडिणो थणंति अहो य राओ परए महंते कूडेण तत्था विसमे पुव्वमरी सरोस समुग्गरे ते मुसले कोट्टबलि करेंति ।। पव्वयमंतलिक्खे | मुहुत्तगाणं ॥ परितप्यमाणा । हया उ || एगंतकूडे ४६. 'भंजति णं गहेउ । ।। ! ते भिण्णदेहा रुहिरं वमंता ओमुद्धगा धरणितले पडति ४७. अणासिया णाम महासियाला पगब्भिया" तत्थ सयावकोवा" । खज्जति" तत्था बहुकूरकम्मा अदूरया" संकलियाहि बद्धा || भिदुग्गा पविज्जला " लोहविलीणतत्ता । पवज्जमाणा एमायताऽणुक्कमणं" करेंति ॥ फुसंति बालं णिरंतरं तत्थ चिट्ठियं " | हम्ममाणस्स उ होइ " ताणं एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं ॥ ४८. सयाजला णाम सीभिदुग्गंसि ४६. एयाइँ फासाइँ १. व्या० वि० - चत्र बोकारस्य ह्रस्वत्वम् । २. पडियं (च्) । ३. सत्तुव्व (क्व ) । ४. पुट्ठि (ख) 1 ५. भजंति (चू) ६. व्या० वि० -- विभक्तिरहितपदम् — रुदं । ७. हत्तुल्लं (च) । कलुणं रसंतं । जोइमज्भं ॥ अइदुक्खधम्मं । "सत्तुं व" दंडेहि समारभंति || सोसं पि भिदति अयोवणेहिं । तत्ताहि आराहि नियोजयंति || उसुचोइया हत्थिवहं वहति । 'आरुस्स विजयंति ककाणओ से || ११. मुत्तस्स ( ) | १२. X (चू)। १३. पगभिणो ( क ) ; पागब्भिणो ( ख ) । १५. खायंति (चू) । १६. अदूरिया ( क ) 1 ८० ककाणुओ से ( क ) आरुम्भ विधति १७. विज्जलं (वृ) | किंकाणतोसि (चू) । ६. भूमिअणोक्ता (चू) 1 १८. एकाणिका (च) 1 १६. चिट्ठिया ( ) | २०. अत्थि (च) १०. त्रिवण्ण ० ( क, ख ) । १४. सताय ० ( क ) ; सयाप ( ख ); सदावsकोप्या (च); सदावsकोप्पं (चूपा) । २६६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५०. जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं तमेव' आगच्छइ संपराए । एगंतदुक्खं भवमज्जिणित्ता 'वेदेति दुक्खी तमणंतदुक्खं ।। ५१. एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे ण हिंसए कंचण' सव्वलोए । एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ बुझज्ज लोगस्स' वसं ण गच्छे ।। ५२. एवं तिरिक्खमणुयामरेस चउरतणंतं तयणूविवागं । स सव्वमेयं इइ. वेयइत्ता कंखेज्ज कालं धुयभायरते ॥ -त्ति बेमि ॥ ---- --.-- -- - ----- -- ---- १. तधेव (च)। २. वेदेति एगो तमणंतकालं (च) । ३. किंचण (ख)। ४. य (च)। ५. लोभस्स (चू)। ६. तिरिक्खमणुयासुरेसुं चतुरंतणं न तयणु विवागं (ख); तिरिनेसु वि चातुरंत, अगंतकालं तदणुविवागं (चू)। ७. से (ख)। ५. इध (चू)। है. मायरेज्ज (ख); मायरंति (च)। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठं अज्झयणं महावीरत्थुई महावीर-माहप्प-वण्णग-पदं १. पुच्छिसु णं समणा माहणा य अगारिणो' या परतित्थिया य। से के 'इमं णितियं" धम्ममाहु अणेलिसं? साहुसमिक्खयाए । २. कहं व णाणं? कह दंसणं से? सील कहं णायसूयस्स आसि? । जाणासि णं भिक्ख ! जहातहेणं अहासुयं ब्रूहि जहा णिसंतं ।। ३. 'खेयण्णए से कुसले मेहावी ६ अणंतणाणी य अणंतदंसी । जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स जाणाहि धम्मं च धिइं च पेह ।। ४. 'उड्ढे अहे यं तिरियं दिसासु 'तसा य जे थावर जे य पाणा"। से णिच्चणिच्चेहि'" समिक्ख पपणे 'दीवे व धम्म समियं उदाहु' ।। ५. से सव्वदंसी अभिभूयणाणी णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा । अणुत्तरे" सव्वजगंसि विज्जं गंथा अतीते' अभए अणाऊ ॥ ६. से भूइपणे अणिएयचारी ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । अणुत्तरं तवति सूरिए५ वा वइरोयणिदे" व 'तमं पगासे'" ।। १. अकारिणो (च)। १०. जे थावरा जे य तसा य पाणा (च)। २. इणेगंतहियं (क, चू); इमं हितगं (चूपा)। ११. स णिच्चणिच्चे य (च) । ३. याते (क); साधुसमिकाव दाए (चू)। १२. समिया एवं दीवसमो तहा ह (च) । ४. च (क, ख)। १३. अणुत्तरं (चू)। ५. आसुपश्णे (); महेसी (वृपा)। १४. ०अदीते (क); गथातीते (च) । ६. खेतण्णे कुसले आसुपण्णे महेसी (चू)। १५. तप्पति (क, ख)। ७. पिहा (क); पेछं (चू); वेहि (वृपा)। १६. वडरोब ° (क); वेरोयणेदो (चू)। ८. °य (); उड्ढे अधे वा (चू)। १७. तमप्पगासे (क); °भासे (ख): ६. व्या वि०---विभक्तिरहितपदम्----थावरा। ३०१ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ७. अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं इंदे व देवाण महाणुभावे ८. से पण्णया अक्खयसागरे वा अणाइले या अकसाई' मुक्के ६. से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए सुरालए 'वा वि" मुदागरे से १०. सयं सहस्साण उ जोयणाणं से जोयणे णवणउति" सहस्से ११. पुट्ठे गभे चिट्ठइ भूमिर्वाट्ठिए" से हेमवण्णे बहुणंदणे य" १२. से" पव्वए सहमहप्पगासे अणुत्तरे गिरिसु" य पव्वदुग्गे १३. महीए" भज्भम्मि ठिए गगिंदे एवं सिरीए उ स भूरिवण्णे" १४. सुदंसणस्सेस" जसो गिरिस्स" एतोव मे समणे णातपुत्ते" १५. गिरीवरे वा णिसढायताणं ततो मे से जगभूतिपणे १. कासव ( ख ) । २. ●ोता (चू); ३. दिविण (चू) । ४. पन्नसा (चु) । ५. से (चू) । ०ता ( चुपा) । ६. अक्साय (चू) | ७. भिक्खु (क, ख, चू, वृपा) । ८. वासि (ख, वृ) । ९. तिकंड से (क, चू); तिकंड से ( ख ) 1 १०. णवणवते ( क, ख ) । ११. उड्दुस्थिते (चू); उड्ढ थिरे (चूपा ) । १२. भूमिते ठिते (क, चू) । १३. या (क ) 1 १४. व्या० वि० -- छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । १५. स (च) । णेता मुणी कासवे' आसुपणे । सहस्सणेता' ' दिवि णं" विसिट्टे || महोदही वा वि अनंतपारे । सक्के व देवाहिवई जुईमं || सव्वसेट्टे । वा सुदंसणे विराय तिकंडगे उद्धस्सिए" yade || पंडगवेजयंते । हेट्ठ सहस्समेगं ॥ अणुपरिवट्टयंति । वेययई महिंदा || कंचणमवण्णे । जलिए व भोमे ॥ जं सूरिया जंसी" रई विरायती गिरीवरे से पण्णायते सूरियसुद्धले से" । मणोरमे 'जोयति अच्चिमाली " || पवुच्चती महतो जाती-जसो दंसण णाण - सीले ॥ रुयगे व सेट्टे वलयायताणं । मुणीण 'मज्भे तमुदाहु" पण्णे || पव्वतस्स । १६. व्या० वि० - अत्र सप्तम्याः बहुवचने 'गिरीसु इति रूपं भवति, किन्तु छन्दोदृष्ट्या हस्वत्वम् । १७. महीय (ख, चू) । सूयगडो १ १८. सूरियले सभूते ( चू) । १६. भूतिवणे ( ) | २०. अच्चीसहस्समालिणी ( गो ? ) (चू) । २१. ० स्सेव ( क, ख ) । २२. गिरिस्सा ( क ) । २३. नाय ० ( क, ख ) 1 २४. व्या० वि० - द्विपदयो; सन्धिःणिसढे+आयताणं । २५. भूतपणे (चू) २६. मावेदमुदाहु ( चू) । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छुटुं अज्झयणं (महावीरत्युई) १६. अणुत्तरं धम्ममुदी रइत्ता अणुत्तरं झाणवरं मियाइ । सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुक्कं संखेंदुवेगंतवदातसुक्क' ॥ १७. अणुत्तरगं परमं महेसी 'असेसकम्मं स विसोहइत्ता। सिद्धि गति साइमणंत पत्ते णाणेण सीलेण य दंसणेण" ॥ १८. 'रुक्खेसु णाते जह सामली वा" जंसी रति वेययंती' सुवण्णा । वणेसु या णंदणमाहु सेटु णाणेण सीलेण य" भूतिपण्णे ॥ १६. थणितं व सहाण अणुत्तरं उ चंदे व ताराण महाणभावे। गंधेसु वा चंदणमाहु सेहूँ एवं मुणोणं अपडिण्णमाहु ।। २०. जहा सयंभू उदहीण सेटे णागेसु वा 'धरणिंदमाहु से₹ । खोओदएर वा रस'"-वेजयंते तहोवहाणे" मुणि वेजयंते ।। २१. हत्थीसु एरावणमाहु णाते सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा । पक्खीसु या गरुले वेणुदेवे णिव्वाणवादीणिह" णायपुत्ते ।। २२. जोहेसु गाए जह वीससेणे पुप्फेसु वा 'जह अरविंदमाहु“ । खत्तीण से? जह दंतवक्के इसीण सेढे तह वद्धमाणे ।। २३. दाणाण सेढे अभयप्पयाणं सच्चेसु या अणवज्जं वयंति । तवेसु या उत्तम' बंभचेरं लोगुत्तमे समणे" णायपुत्ते ॥ २४. ठितीण सेट्ठा लवसत्तमा वा सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा । णिव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा ण णायपुत्ता परमत्थि णाणो । २५. पुढोवमे धुणती विगयगेही ण सणिहिं कुव्वइ आसुपण्णे। तरि समुदं व महाभवोघं अभयंकरे वीर२५ अणंतचक्खू ।। १. अपेव संखेंदुवदातसुद्धं (च); १२. खातोदए (क)। संखेंदुवेगंतवदातसुक्क (चूपा)। १३. रसतो (चू)। २. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-साइमणंतं । १४. तवो० (क, ख, ७)। ३. णाणेण सीलेण य दंसणेण । १५. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्—मुणी। अमेसकम्म स विसोधइत्ता, १६. ° माह (क)। सिद्धीगति सातियणंत पते (च)। १७. णेव्वाण ° (चू)। ४. रुक्खेहि जाता जह कूडसामली (चू)। १८. अरविंदं वदंति (चू)। ५. वेययती (क, ख)। १६. वा (क)। ६. सेटे (क)। २०. व्या० वि०-विभक्तिरहितपदम्-उत्तमं । ७. उ (चू)। २१. भगवं (चू)। ८. भागे (चू)। २२. जेव्वाण ° (चू)। ६. या (ख)। २३. तरित्तु (ख); तरित्ता (च)। .१०. सेटे (चू)। २४. व्या० वि०-विभक्तिरहितपदम्-वीरे । ११. धरणिदे आहु सेटे (क); धरणमाहुसेट्ठ (चू) । २५. वीरे (क, चू) । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सूयगडो १ २६. कोहं च माणं च तहेव मायं लोभं चउत्थं अज्झत्तदोसा। एताणि चत्ता अरहा महेसी ण कुव्वई पाव' ण कारवेइ ।। २७. किरियाकिरिय' वेणइयाणुवायं अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से सव्ववायं इह वेयइत्ता उवट्ठिए सम्म' स दोहरायं ॥ २८. सेवारिया इत्थि सराइभत्तं" उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए ! लोगं विदित्ता 'अपरं परं" च सव्वं पभू वारिय सव्ववारी ।। २६. सोच्चा य धम्म अरहंतभासियं" समाहियं अट्ठपदोवसुद्धं । तं सद्दहंताय" जणा अणाऊ 'इंदा व'" देवाहिव" आगमिस्सं"!! -ति बेमि ।। १. °दोस (क) २. पावं (क)। ३. किरियं अकिरियं (ख, चू।। ५. इति (क, ख, वृ)। ६. व्या वि०-अत्र अनुस्वारलोपः । ७. संजमदीहरायं (क, ख, वृ)। १०. सराय (क)। ११. आरं पारं (क, ख, वृपा)। १२. सव्ववारे (क); सव्ववारं (ख, वृ)। १३. अरिहंत (ख)। १४. व्या०वि०-द्विपदयोः सन्धिः वर्णलोपश्च सहहंता आदाय । १५. इंदा वि (क); इंदे व (ख) । १६. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम् -देवाहिवा। १७. आगमिस्संति (क, ख,व); आगमिस्से (च)। है. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम् - इतिथ। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अभयणं कुसीलपरिभासितं ओघतो कुसील-पदं • १. पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ जे अंडया जेय जराउ पाणा २. एताई कायाई पवेइयाई 'एतेहि काहि य" आयदंडे ३. जाईपह अणुपरिमाणे से जाति-जाति बहुकूरकम्मे ४. अस्सि च लोए अदुवा परत्था" संसारमावण्ण" 'परं परं ते" 'तण रुक्ख" बीया य तसा य पाणा । संसेवया जे रसयाभिहाणा ॥ एतेसु जाणे' पडिलेह सायं । 'पुणो- पुणो विप्परियासुवेति " ॥ 'तसथावरेहि विणिधाय मेति" । जं कुव्वती मिज्जति" तेण बाले ।। सयग्गसो वा तह अण्णा वा । बंधंति वेयंति य दुष्णियाणि" || वि० - विभक्तिरहितपदम् - तणा १. व्या० रुक्खा | २. व्या० वि० - विभक्तिरहितं वर्णलोपश्च - जराज्या | ३. जाणं (वृ) । ४. पडिलेहि ( क ) । ५. एएण कारण य ( ख ); एतेसु कासु तु (चू) 1 ६. एतेसु या विपरियासुविति ( क, ख, वृ); व्या० वि० -- द्विपदयोः सन्धिः विप्परियास मुवेति । ७. जावहं ( चू, वृपा ) | 0 ८. वरेसुं विणिग्धात (त्रु) । ९. जानि (वृ) 1 १०. मज्जते (पा) । ११. पुरत्या ( क ) । १२. व्या० वि० विभक्तिरहितपदम् - संसार मावण्णा । १३. परंपरेण (चू) 1 १४. व्या० वि० - बंधानुलोम्यात् 'दुण्णीयाणि' अत्र ईकारस्य ह्रस्वत्वम् । ३०५ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ पासंड-कुसील-पदं ५. जे मायरं च' पियरं च हिच्चा समणव्वए' अगणि' समारभिज्जा। अहाहु से लोए कुसीलधम्मे भूयाइ जे हिंसति आतसाते ।। ६. उज्जालओ पाणऽतिवातएज्जा णिवावओ अगणि"ऽतिवातएज्जा"। तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्म ण पंडिते अगणि१२ समारभिज्जा ।। ७. पुढवी वि जीवा आऊ वि जीवा पाणा यः संपातिम" संपयंति । संसदया कटूसमस्सिता य एते दहे अगणि समारभंते ।। ८. हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि आहार-देहाई पुढो सियाई । जे छिदई आतसुहं पडुच्च" 'पागब्भि-पण्णो बहुणं तिवाती ॥ ६. जाई च बुद्धि च विणासयंते बीयाइ 'अस्संजय आयदंडे' । ___ अहाहु से लोए अणज्जधम्मे बीयाइ" से हिंसइ आयसाते ।। कुसील-विवाग-पदं १०. गम्भाइ मिज्जति बुयाबुयाणा णरा परे५ पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम" थेरगा“य चयंति ते आउखए पलीणा ।। १. वा (क)। १५. संसेइया (क)। २. व (क)। १६. व्या० वि०-विभक्तिरहितपदम्-अगणि । ३. समणवदे (क); समणब्वते (ख)। १७. देहाय (ख, व) । ४. व्या० वि०-विभक्तिरहिनपदम- अगणि। १८. आयसातं (च)। ५. अथाऽऽह (च)। १६. पडुच्चा (क)। ६. अणज्जधम्मे (चू)। २०. पागम्भिपाणे (क, ख, वृ)। ७. उज्जालिया (च)। २१. व्या०वि० -छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ८. व्या० वि-द्विपदयोः सन्धिः -पाणा २२. निवाती (चू)। अतिवातएज्जा। २३. अस्संजति यायदडे (क) । ६. तिवातयंति (च); तिवात एज्जा (वपा) २४. हरियादि (क)। १०. व्या० वि०--द्विपदयो: सन्धिः -अगणि २५. वरे (क)। अतिवातएज्जा। २६. युवाणगा (च)। ११. निव्वातएज्जा (क); निपातएज्जा (चू)। २७. व्या० वि० -विभक्तिरहितपदम्-मज्भिमा। १२. व्या०वि० . विभक्तिरहितपदम्-अगणि। २८, पोरुसा (वृपा)। १३. ति (क); इ (ख)। २६, आउक्खए (क, ख)। १४. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-संपानिमा। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ सत्तमं अज्झयणं (कुसीलपरिभासितं) ११. 'बुज्झाहि जंतू ! इह माणवेसु दटुं भयं बालिएणं अलंभ"। एगंतदुक्खे जरिए हु' लोए सकम्मुणा विपरियासुवेति ।। कुसील-दसण-पद १२. इहेगे मूढा पवदंति मोक्खं आहा रसंपज्जणवज्जणेणं' । एगे य सीतोदगसेवणेणं हुतेण एगे पवदंति मोक्खं ।। १३. पाओसिणाणाइसुणत्थि मोक्खो खारस्स' लोणस्स अणासणेणं'। ते मज्जमंसं लसुणं 'चऽभोच्चा" अण्णत्थ वासं परिकप्पयंति ।। १४. उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति सायं च पातं उदगं फुसंता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी सिज्झिसु' पाणा बहवे दगंसि ।। १५. मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य मंगू य उद्दा" दगरक्खसा य । अट्ठाणमेयं कुसला वयंति उदगेण 'सिद्धि जमुदाहरंति'" । १६. उदगं जती कम्ममलं हरेज्जा एवं सुह इच्छामित्तमेव" । 'अंधं व':: णेयारमणुस्सरंता" पाणाणि चेवं विणिहति मंदा । १७. पावाई कम्माई पकुव्वओ हि सीओदगं तू जइ तं हरेज्जा। सिभिसू एगे दगसत्तघाती मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु । १८. हतेण जे सिद्धिमुदाहरंति" सायं च पायं अगणि फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तेसि" अगणि फुसंताण कुकम्मिर्ण पि ॥ १. संबुज्झहा जंतवो माणुसतं, ६. मम्गू (क, ख, वृ)। ठं भयं बालिसेणं अलंभो (क, ख, वृ)। १०. उट्टा (ख, ); अत्र लिपिसादृश्येन 'उहा' २. व (ख, दृ); अस्मिन् श्लोके चूर्णी वृत्तौ च स्थाने 'उट्टा' पाठोस्ति जातः । वृत्तिकारस्य पाठभेदोर्थ भेदश्चापि विद्यते । चूर्णीपाटोर्थ- सम्मुखे एष एवं पाठः आसीत् किन्तु जलचर विचारणया स्वाभाविक: प्रतिभाति, तेन स प्रकरणे 'उद्दा' पाठ एव संगतोस्ति स्वीकृतः। वृत्तिकारेण प्रतिदोषेण विपर्ययं ११. जे सिद्धिदाहरंति (क, ख, ३)। गतः पाठो लब्धस्तेन व्याख्यायां जटिलता १२. व्या० वि० --छन्दोरष्टया दीर्घत्वम् जातेति संभाव्यते। १३. पुण्ण (चू)। ३. आहारसपंचगवज्जणेणं (चूपा, वृपा); १४. इच्छामेत्ततो वा (क)। आहारओ पंचगवज्जणेणं (वृपा)। १५. अंधव्व (क)। ४. खाणस्स (क)। १६. °मणुसरित्ता (क, ख) । ५. अणासतेणं (क) १७. विहेढंति (चू)। ६. च भोच्चा (वृ); अत्र चूर्णी वृत्तौ च १८. सिओ()। महानऽर्थ भेदो विद्यते। १६. दगसिद्धि (क) 1 ७. गप्पयंति (क)। २०. मोक्खमुदा° (चू)। ८. सिझसु (क, ख)। २१. तम्हा (क, ख, वृ)। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ सूयगडो १ कुसील-उवालंभ-पदं १६. अपरिच्छ' दिदि' ण हु एव सिद्धी एहिति ते घातमबुज्झमाणा' । _ 'भूतेहिं जाण' पडिलेह सातं विज्ज गहाय तसथावरेहि ॥ २०. थणंति लुप्पंति तसंति कम्मी पुढो जगा परिसंखाय' भिक्खू ।। तम्हा विऊ विरए आयगुत्ते दटुं तसे य प्पडिसाहरेज्जा" ।। सलिंग-कुसील-पदं २१. जे धम्मलद्धं विणिहाय" भुंजे वियडेण साहस॒ य जे सिणाइ" । जे धावती' 'लूसयई व वत्थं" अहाहु से जागणियस्स" दूरे ॥ सुसील-पदं २२. कम्म परिण्णाय दगंसि धीरे वियडेण जीवेज्ज य''आदिमोक्खं । से बीयकंदाइ अ जमाणे विरए सिणाणाइसु इस्थियासु"॥ कुसील-पदं २३. जे मायरं च पियरं च हिच्चा गारं तहा पुत्तपसु धणं च । 'कुलाई जे धावति साउगाई८ अहाहु से सामणियस्स दूरे ।। २४. कुलाई जे धावति साउगाई 'आधाइ धम्म उदराणुगिद्धे। से आरियाणं गुणाणं'२० सतसे 'जे लावएज्जा असणस्स हेउं'२१ ।। २५. "णिक्खम्म दीणे परभोयणम्मि 'मुहमंगलिओदरियं पगिद्धे २५ । णीवारगिद्धे व महावराहे 'अदूर एवेहिइ घातमेव ।। १. अपरिक्ख (ख)1 १६. जे जीवति । चू)। २. दिटुं (क, ख, वृ)। १७. ते बीज-कंदादि भुंजमाणा, ३. घंतम° (बू)। विरता सिणाणा अदु इत्थिगातो (च)। ४. जाण (क, ख)। १८. आघाति धम्म उदराणुगिद्धो (चू)। ५. भूतेहि जाण पडिलेह सातं (आयारो २०५२)। १६. आधाति अक्खाइउदराओ गिद्धो (चू)। ६. तस° (क)। २०. अहाह से आयरियाण (क, ख)। ७. पुट्टो (क)। २१. जे लावए ता अमणादिहेतुं (चू)। ८. जगाई (चू)। २२. णिक्खंदहीणे (च)। ६. पडिसखाए (चू)। १३. परभोयत्थि (चू)। १०. या पडि (चू); यं पडिसंह (ख)। २४. व्या० वि०--द्विपदयोः सन्धिः-मुहमंग११. व णिहाय (क); व णिघाय (चू) 1 लिओ-+ओदरिय। १२. सिणाइ (क, ख)। २५. मुहमंगलिउदरियाणुगिद्धे (क); मुडमंगलिए १३. धोवति (ख) उदराणुगिद्धे (ख)। १४. लीसज्जा वि वत्थं (चूपा)। २६. अदूरए एहति (ख); अद्रते वेसति (चू) । १५. णं अणिय स्स (चू)। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं (कुसीलपरिभासित) ३०६ २६. अण्णस्स पाणस्सिहलोइयस्स अणुप्पियं भासति सेवमाणे । पासत्थयं चेव कुसीलयं च णिस्सारए होइ जहा पुलाए । सुसील-पदं २७. अण्णायपिंडेणऽहियासएज्जा णो पूयणं तवसा आवहेज्जा। 'सद्देहि रूवेहि असज्जमाणे सव्वेहि कामेहि विणीय गेहिं" ॥ २८. सव्वाइं संगाई अइच्च धीरे सव्वाई दुक्खाइं तितिक्खमाणे । अखिले अगिद्धे अणिएयचारी 'अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा" ।। २६. भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा' कंखेज्ज 'पावस्स विवेग भिक्खू । दुक्खेण पुढे धुयमाइएज्जा संगामसीसे 'व परं दमेज्जा'। ३०. 'अवि हम्ममाणे १२ फलगावतट्ठी" समागमं कंखइ अंतगस्स । णिद्धय कम्म ण अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि ।। १. ण (चू)। २. आवहुज्जा (चू)। ३. अण्णे य पाणे य अणागिद्धे, सम्वेसु कामेसु गियत्तएज्जा (चू)। ४. वीरे (क, ख)। ५. व्या० वि०-भिक्खू । ६. ण सिलोयकामी परिव्बएज्जा (च)। ७. जत्ता (क)। ८. व्या० वि०-मुगी। ६. भुंजमाणे (चू)। १०. यो पाद विवेग (च); व्या०वि०-विवेग । ११. च परं (क); अवरे दमेइ (च) । १२. प्रणिहम्ममाणे (चूपा)। १३. यतट्ठी (क)। १४. व्या० वि०-द्विपदयोः सन्धिः-पवंच उवेइ। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयणं वीरियं वोरिय-पदं १. दुहा वेयं सुयक्खाय' वीरियं ति पवुच्चई । किण्णु वीरस्स वीरितं' ? 'केण वीरो त्ति वुच्चति" ?।। २. कम्ममेव पवेदेति अकम्मं वा वि सुव्वया ॥ एतेहिं दोहि ठाणेहिं जेहि" दीसति मच्चिया ॥ ३. पमायं कम्ममासु अप्पमायं तहावरं। तब्भावादेसओ वा वि बालं पंडियमेव वा ॥ बाल-वीरिय-पदं ४. सत्थमेगे सुसिक्खंति अतिवातायन पाणिणं। एगे" मंते अहिज्जति पाणभूयविहेडियो १. चेतं (क, चू)। तृतीयान्तः पाठो नास्ति व्याख्यातः । तत्र २. समक्खात (चू)। 'एते एव द्वे स्थाने' इति पाठो व्याख्यातोस्ति ३. वीरत्तं (क, ख, वृ)। तेन 'एते एव दुवे ठाणे' इति पाठस्य कल्पना ४. कहं चेयं पुदुच्चति (क, ख)। जायते । यद्येष पाठः स्यात् तदा व्याख्याया ५. कम्ममेगे (क, ख, वृ); अत्र वृत्ति कृता 'एगे' जटिलतापि समाप्ता स्यात् । उत्तराध्ययने इति पाठः स्वीकृतः, किन्तु अत्र प्रवेदनं । (१२) पि एतत् सवादी पाठो लभ्यते-- तीर्थकराणां विद्यते, न तु मतान्तरसूचन- 'संतिमेव दुवे ठाणा' पुनश्च 'जम्मि' अथवा मस्ति तेन नासो पाठो घटते । 'जेहिं' इति पाठावपि सुसंगच्छाते; °जम्मि ६. परिणाय (च); पभासंति (चूपा)। ७. चा (व) १०. तब्भाव ° (चू)। ५. मुञ्चति (क); सुव्वया ! (व)। ११. अस्थ ° (चू)। ६. 'एतेहिं दोहिं ठाणेहि, जेहिं' अत्र तृतीया १२. ° वादाय (क) । करणेनार्थस्य जटिलता जाता। चूर्णौ १३. केइ (चू)। ३१० Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टम अज्झयणं (वीरियं) ३११ ५. माइणो कटु मायाओ 'कामभोगे समारभे । हंता छेत्ता पगतित्ता आय-सायाणगामिणो ॥ ६. मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो । ___आरतो परतो वा वि दुहा वि य असंजता ॥ ७. वेराइं कुव्वती वेरी 'ततो वेरेहि रज्जती"। पावोवगा य आरंभा दुक्खफासा य अंतसो ।। संपरायणियच्छंति अत्तदुक्कडकारिणो । रागदोसस्सिया बाला पावं कुव्वंति ते बहु ।। ६. एतं सकम्मविरिय' बालाणं तु पवेइयं । एत्तो अकम्मविरियं पंडियाणं मे॥ पंडित-वीरिय-पदं १०. दविए बंधणुम्मुक्के सव्वतो छिण्णबंधणे। पणोल्ल' पावगं कम्मं सल्लं 'कंतति अंतसो" ।। णयाउयं सुयक्खातं उवादाय समीहते। भुज्जो भुज्जो दुहावासं असुहत्तं तहा तहा ।। १२. ठाणी विविहठाणाणि चइस्संति ण संसओ। अणितिए अयं वासे 'गातीहि य९ सुहीहि य ।। १३. एवमायाय मेहावी अप्पणो २ गिद्धिमुद्धरे। आरिय उवसंपज्जे सव्वधम्ममकोवियं" ॥ १४. सहसंमइए णच्चा धम्मसारं वा। 'समुवट्ठिए अणगारे पच्चक्खाय पावए७॥ १. ° समायरे (क); ° समाहरे (च); आरंभाय १०. इमे (चू)। तिउट्टई (चूपा, वृपा)। ११. नायएहि (क, ख)। २. जेहिं वेरेहि कच्चति (चू)। १२. अप्पणा (च)। ३. संपराइ (क); संपरागं (च) । १३. आयरियं (ख, पा)। ४. निगच्छंति (च)। १४. सब्वे धम्मा अकोपिता (च); गोवियं ५. अत्ता' (चू)। (ख, वृपा)। ६. ०वीरिय (ख)। १५. सहसंमुइए (क); सह सम्मुत्तियाए (चू) । ७. पणोल्लो (क, ख)। १६. सुणेत्त (चू)। ८. कंतइ अप्पणो (वृपा)। १७. समुवट्ठिए उ० (ख); उवट्टिते य मेधावी ६. अणीयए (क, ख)! Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ सुयगडो १ १५. जं किंचुवक्कम जाणे 'आउखेमस्स अपणो। तस्सेव अंतरा खिप्पं सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए । १६. जहा कुम्मे सअंगाई सए देहे समाहरे । एवं 'पावेहि अप्पाणं अज्झप्पेण समाहरे ।। १७. साहरे हत्थपाए य मण" सबिदियाणि य । पावगं च परीणामं भासादोसं च पावगं । १८. 'अणु माणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए । 'सुतं मे इह मेगेसिं एवं वीरस्स वीरियं" ।। १६. 'उडमहे तिरियं दिसासु जे पाणा तस थावरा ।। सव्वत्थ विरति कुज्जा संति-णिव्वाणमाहितं ॥ २०. पाणे य णाइवाएज्जा अदिण्णं पि य णातिए । सातिय" ण मुसं बूया एस धम्मे सीमओ। २१. 'अतिक्कमंति वायाए मणसा वि ण पत्थए। सव्वओ संवुडे दंते आयाणं सुसमाहरे।। २२. कडं च कज्जमाण" च आगमेस्सं५ च पावगं । सव्वं तं णाणुजाणंति आयगुत्ता जिइंदिया ।। १. किन्तुवक्कम (क); किंचिउवक्कम (च); वीरियं (वृपा); आययटुं सुआदाय, एयं व्या०वि०-द्विपदयोः सन्धिः-किचि+ वीरस्स वीरियं (वपा) । उदक्कम । १०. ४ (क, ख); अयं च श्लोको न सूत्रादर्शधु २. आउक्खेमं च अप्पणो। तस्सेव अतरद्धा, दृष्टः, टीकायां तु दृष्टः इति कृत्वा खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिते (च)। लिखितः (व)। ३. पावाइं मेहावी (क, ख, वृ)। ११. नायए (क); णादिए (ख)। ४. संहरे (चू)। १२. साइयं (ख); सादियं (व)! ५. कायं (चू)। १३. सुसमाहिए (क); ६. तु (ख)। अयं भावरते निच्चं, ७. तारिस (क, ख, वृ) भवे भिक्खू सुसंवुडे । ८. अइमाणं (चूपा, वृपा)। अतिक्कम तिपादाए, ६. आयपटुं सुयादाय एवं वीरस्स वीरियं (क, मणसा वि ण पत्थए ॥ (चू)। ख); साया गारवणिहुते, उवसंते णिहे चरे १४. कीर० (चू)। (क, ख); साया गारवणिहुए, उवसंते णिहे १५. मिस्सं (ख)। चरे (व); सुयं मे इह मेगेसि, एवं धीरस्स १६. आउगुत्ता (क)। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयणं (वीरियं) अबुद्ध-परक्कंत-पदं २३. जे याऽबुद्धा' महाभागा' वीरा सम्मत्तदसिणो । असुद्धं तेसिं परक्कतं सफल होइ सव्वसो ।। बुद्ध-परक्कंत-पदं २४. जे उ बुद्धा महाभागा' वीरा सम्मत्तदंसिणो। सुद्धं तेसिं परक्कंतं अफलं होइ सव्वसो । २५. तेसिं तु तवोसुद्धो' णिक्खंता जे महाकुला। 'अवमाणिते परेणं तु ण सिलोग वयंति ते" ।। २६. अप्पपिंडासि पाणासि अप्पं भासेज्ज सुव्वए । खंतेऽभिणिव्वडे दंते 'वीतगेही सया जए। २७. झाणजोगं समाह्टु कायं वोसेज्ज सव्वसो। तितिक्खं परमं णच्चा आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ।। -त्ति बेमि ॥ १. अबुद्धा (क)। ७. जे य (क)। २. महानागा (चू)। ८. जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोग पवेयए ३. असमत्त ° (ख); ° दरिसिणो (चू) (क, ख, वृ)। ४. य (ख, वृ)। है. विगतगेधीण रज्जति (च)। ५. महानागा (चू)। १०. योग (चू)। ६. पि तबो ऽसुद्धो (क,वृ); तु तवो असुद्धो(ख)। ११. विउ (क, ख)। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म-पदं १. कयरे धम्मे अक्खाए' माहणेण २. ३. ४. ५. नवमं अज्झयणं धम्मो १. आघात (पु) । २. अजू (ख); अंजु (चू) । अंजुं धम्मं जहातच्च' 'जिणाणं तं माहणा खत्तिया वेस्सा" चंडाला एसिया वेसिया सुद्दा "जे य" परिहे णिविद्वाणं 'वेरं आरंभसंभिया कामा ण ते आघातकिच्च माहे णाइओ अण्णे हरति वित्तं 'कम्मी कम्मेहि 'माता पिता हुसा भाया णालं ते मम ताणाए भज्जा पुत्ता लुप्पंतस्स वृपा ) 1 ५. वेसा (क, ख ) । ६. जेऽन्ने ( क ) | ७. पावंतेसि (वृ); तेल पावं (चू); वेरं तेसिं (वृपा ) 1 ८. ० संवुता (चू); ° सम्मुता ( चुपा) । ममता ? | सुणेह मे ॥ अदु बोक्सा | आरंभणिस्सिया || तेसिं पवडई | दुक्खविमोगा || विससिणो । किञ्चती" ॥ ओरसा । कम्णा ॥ य ६. ० माधाए ( चु); ° माधेतुं ( चुपा ) | १०. जातो ( क ) । ३. अहा ° ( क ) ; जधातधा (चू) | ४. जण गा० ( ख ); जगगा तं सुणे धम्मे ( चुपा, १२. तव (क, ख, वृ) । ११. ० कच्चती (क); कम्मादाय एसति (चू) ३१४ १३. तुलना - माया पिया बहुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा । नालं ते मम ताणाय, लुप्तस्स सम्भुणा || - उत्तरज्भयणाणि ६ |३ | Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं (धम्मो ) ६. एयमट्ठ णिम्ममो 19. मूलगुण-पदं ८. 'चिच्च वित्तं च पुत्ते य 'चिच्चाण अंतगं सोयं" £. सपेहाए' परमट्टाणुगामियं निरहंकारी चरे भिक्खू 'तण रुक्ख 'पुढवी आऊ' अगणी वाऊ' अंडया 'पोय जराऊ रस संसेय" एतेहि छहिं काएहिं तं विज्जं ! मणसा कायवक्केणं णारंभी ण १०. मुसावार्य बहिद्ध च उग्गहं सत्थादाणाई लोगंसि तं विज्जं ! च णाइओ णिरवेक्खो १. व्या० वि० अत्र 'सं' शब्दस्य अनुस्वारलोपः -- 'संपेहाए' (संप्रेक्ष्य ) । सम्मंपेहाए (च) | 'स पेहाए' स प्रेक्षापूर्वकारी ( वृ ) । उत्तराध्ययन (६।४) संदर्भे चूणिव्याख्या समतास्ति । सपेहाए ( स्वप्रेक्षया ) इत्यपि पाठो भवितुमर्हति । २. ० या ( क ) ; चेच्चा पुसे य मित्ते य ( वू) ३. चेच्चाण अस्तगं सोतं (चू); चेच्चा अनंतगं सोयं (चुपा); चेच्चाण अंतकं सोयं चेच्चाण अत्तगं सोयं, चेच्चाणऽणतगं सोयं (वृपा ) । ४. पुढवाऽऽतु (चू)। ५. वायू (चु) । य उत्तरगुण-पदं ११. पलिउंचणं च भयणं च थंडिल्लुस्सयणाणि धुत्तादाणाणि" लोगंसि तं विज्जं ! १२. 'धावणं रयणं चेव वमणं च वत्किम्मं सिरोवेधे" तं विज्जं ! सिगाणं च दंतपक्खालणं च तं १३. गंधमल्लं " परिग्गहित्यिकम्मं विज्जं ! जिणाहियं ॥ ११. परिग्गहं । परिव्व ॥ सबीयगा । उब्भिया || परिजाणिया । परिग्गही । अजाइयं । परिजाणिया || य । परिजाणिया || विरेयणं । परिजाणिया || तहा । परिजाणिया || ६. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-तथा रुक्खा ७. व्या० वि० - विभक्तिरहितं वर्णलोपश्च -- पोयया जराउया रसया ससेइया । ( युग्मम् ) ८. वातं (चू) । ६. अजाइया (क, ख ); मजाइयं (च्) । १०. धूणायाणयं ( क ) ; धूणादाणाई ( ख ) ; वृत्ति ३१५ १२. ० मल्ल (ख, वू, चू । कृता 'धूप' इति पाठो व्याख्यातः धूनयेति प्रत्येक क्रिया योजनीया (वृ); किन्तु चूर्णीगतः पाठोट्या स्वाभाविकः प्रतिभाति । घोषणं रयणं चेव, वत्थीकम्म विरेयणं । दमणंजणपलीमंथं (क, ख, वृ) । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेव १४. उद्देसियं कीयगड पामिच्चं 'पूर्ति अणेसणिज्ज" च तं विज्जं ! १५. आसूणिमविखरागं' च गिद्धवघायकस्म उच्छोलणं च 'कक्कं च तं विज्जं ! १६. संपसारी कयकिरिए पसिणायतणाणि' सागारिय १. कीतकडं (चू) । २. पूइयं स ० ( क ); पूयं अणे ० ( ख ) । ३. आसूमियमक्खि ( चू) 1 0 य । पिडं चतं विज्ज ! परिजाणिया || १७. अट्ठापदं ण सिक्खेज्जा वेधादीयं च णो वए । हत्थकम्मं विवायं च तं विज्जं ! परिजाणिया || १८. उवाणहाओ" छत्तं च णलियं " तं विज्जं ! पर करियं अण्णमण्णं च १६. उच्चारं पासवणं हरितेसु ण वियडेण वावि साहट्टु णायमेज्ज" कयाइ" २० परमत्ते" अण्णपाणं ण भुजेज्ज कयाइ वि परवत्थं अचेलो वि तं विज्जं ! परिजाणिया || २१. आसंदी पलियंके य" णिसिज्जं च संपुच्छण सरणं वा तं विज्जं ! २२. 'जसं कित्ती " सिलोगं च जा सव्वलोगंसि जे कामा २३. जेणेह णिव्वहे भिक्ख अणुपदाणमसि ४. गेहुवधाय (चू) 1 ५. कक्केणं (चु) 1 ६. य कयकिरीते ( क, ख ) । ७. पासणिया (३) । o आह । परिजाणिया || अण्णपाणं त 1 परिजाणिया || विज्जं ! बालवीय" । परिजाणिया || य वंदणपूयणा । विज्जं ! परिजाणिया || हिंतरे । परिजाणिया || करे मुणी । वि ॥ तहाविहं । परिजाणिया ॥ १०. पाणहाओ य (क, ख, वृ) 1 ११. नालीयं ( ख ) | १२. ० वीयणी ( क ) । (च्) । १७. संपुच्छणं च (क, चू) । ८. अट्ठावयं ( ख ) । ६. हाईयं ( ख ) ; वेधातीत ( वृ); वेधादीयं १८. जस किति (ख, चू) । (वृपा) । १३. नाच ( ख ) । १४. कदादि ( क ) । १५. परते (1) १६. पलियंक च सूयगड १ १६. जणेहि ( क ) ; जेहिं (चू); जेणिह ( चुपा ) 1 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं (धम्मो) ३१७ ['सीलमंते असीले वा तेसि दाणं विवज्जए। गिज्ज रट्टाए दायव्वं तं विज्ज! परिजाणिया" ] || २४. एवं उदाहु णिग्गंथे महावीरे महामुणी । अणतणाणदंसी से धम्म देसितवं सुतं ।। भासा-विवेग-पदं २५. भासमाणो ण भासेज्जा ‘णो य" वम्फेज्ज मम्मयं । 'माइट्टाणं विवज्जेज्जा' 'अणुवीइ वियागरे ।। २६. 'संतिमा तहिया" भासा जं वइत्ताणुतप्पई । जं छणं तं ण वत्तव्वं एसा आणा णियंठिया ।। २७. होलावायं सहीवायं गोयवायं च णो वए । तुम तुमं ति अमणुण्ण सव्वसो तं ण वत्तए ।। संसग्गि-वज्जण-पदं २८. अकुसीले सदा भिक्खू णो य० संसग्गियं भए। सुहरूवा तत्थुवसग्गा पडिबुज्झज्ज ते विदू ।। सामण्ण-चरिया-पदं २६. 'णण्णत्थ अंतराएणं' परगेहे ण णिसीयए। गाम-कुमारियं किहुं णाइवेलं हसे मणी ।। ३०. 'अणुस्सुओ उरालेसु जयमाणो परिव्वए"। चरियाए अप्पमत्तो 'पुट्ठो तत्थऽहियासए"। ३१. हम्ममाणो ण कुप्पेज्जा वुच्चमाणो ण संजले । सुमणो अहियासेज्जा ण य कोलाहल करे ।। लभ्यते। १. अयं इलोकः केवलं चूर्णावेव व्याख्यातो . छन्नं (क, स्त्र, वपा)। ८. सोलवादं (चू); गोतावादं (चूपा)। २. णेय (क); नेव (ख)। ६. अपडिण्णे (चू)। ३. मामयं (क, वृपा)। १०. नेव (क, ख)। ४. मायाठाणं ण सेवेज्ज (चू)। ११. नन्नत्थंतरा (क)। ५. अणुवीय ° (क); अणुचितिय ° (ख); १२. अणिस्सिओ उरालेहिं, अपमत्तो परिवए । ० उदाहरे (व); अणुचितिय वाहरे (च)। (चू); अणिस्सिओ° (वृपा)1 ६. तत्थिमा तइया (क, ख, वृ) ! १३. पुढो सम्माधियासए (च)। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ विवेगे ३२. 'लद्धे कामे ण पत्थेज्जा आयरियाई' सिक्खेज्जा 'बुद्धाणं ३३. सुस्सुसमाणो उवासेज्जा सुपवणं वीरा' जे अत्तपणेसी धितिमंता ३४. गिहे दोवमपासंता' पुरिसादाणिया ते वोरा बंधणुम्मुक्का णावकंखति ३५. अगिद्धे सद्दफासेसु आरंभेसु 'सव्वं तं" समयातीतं जमेतं' लवियं ३६. अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय गारवाणि य सव्वाणि णिव्वाणं संध १. लद्वीकामे (चूपा, वृपा) । २. एम माहिए ( क ) ; एस आहिए ( ख ) । ३. आरियाई (वृ); आयरियाई (वृपा) । ४. सुबुद्धातिए (चू ) । ५. धीरा (वृपा) । 'एव अंतिए " माहिए" । सया || सुतवस्यिं । जिइंदिया || परा । जीवियं ॥ अणिस्सिए । बहु ॥ पंडिए । || ---त्ति बेमि || ६. मपस्संता ( क ) 1 ७. सव्वेतं (च्) । ८. जमिदं (च ) । ६. जेव्वाणं ( चु) 1 सूयगडो १ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि-पदं १. आधं मइमं अणुवीइ धम्मं अंजुं समाहिं तमिणं' सुह । अपडणे भिक्ख समाहिपत्ते 'अणिदाणभूते सुपरिव्वज्जा" || २. उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहि पादेहि य संजमित्ता' अदिष्णमण्णेसु य णो गहेज्जा ।। ३. सुक्खायधम्मे वितिमिच्छतिणे" लाढे चरे आयतुले पयासु" । आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी चयं ण कुज्जा सुतवस्सि" भिक्खू ॥ चरित -समाधि-पदं ४. सव्विदियाभिणिव्वुडे" पयासु चरे मुणी सव्वओ विप्पक्के । पासाहि पाणे य पुढो विसणे" "दुक्खेण अट्टे" परिपच्चमाणे" || १. मई ( ख ) | २. अंजू (क, ख ) । ३. धियं (च्) । ४. अडिग (क्व) दसमं अज्झयणं समाही ५. भिक्खू उ ( ख ) । ६. ० भूते परिवएज्जा (वृ); एज्जा (वृपा, चुपा); वृपा ) | ७. त ( क ); या (चु) 1 ० भूतेसु परिव्व० भूने सुपरि० ८. व्या० वि० थावरा | 8. संजमंतो (चू) | १०. वितिगिंछ ( चु) । o ११. पयासुं (चु) । १२. व्या० वि० - सुतवस्सी । १३. ० दियभि० (क); ° दियणिव्वुडे (चू) । १४. वि सत्ते (क, वृ); विसते ( चूपा) । १५. दुक्खट्टितट्टे (चुपा) । १६. परितप्यमाणे (ख, चू, वृपा) । ३१६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सूयगडो१ ५. एतेसु' वाले य' पकुव्वमाणे आवडतो' 'कम्मसु पावएसु*। अतिवाततो कीरति पावकम्म जिउंजमाणे उकरेड काम।। ६. आदीणवित्ती' वि करेति पावं मंता हु एगंतसमाहिमाहु। बुद्धे समाहीय' रए विवेगे पाणाइवाया विरते ठितप्पा ।। ७. सव्वं जगं तू समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। उद्याय 'दीणे तु" पुणो विसण्णे२ संपूयणं चेव सिलोयकामी ।। ८. आहाकड चेव णिकाममीणे ५ णिकामसारी५ य विसण्णमेसी । इत्थीसु" सत्ते य पुढो य बाले परिग्गहं चेव पकुव्वमाणे ॥ ६. 'वेराणुगिद्धे णिचयं करेति'८ इतो चुते से दुहमदुग्ग" ! तम्हा तु मेधावि समिक्ख धम्म चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के । १०. आय" ण कुज्जा इह जीवितट्ठी२ असज्जमाणो य" परिव्वएज्जा। जिसम्मभासो य विणीयगिद्धी हिंसण्णितं वा ण कहं करेज्जा! ११. आहाकडं वा ण णिकामएज्जा णिकामयते यण संथवेज्जा। धणे उरालं अणवेक्खमाणे२९ चेच्चाण सोयं अणवेक्खमाणे १२. एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा 'एतं पमोक्खे'८ ण मुसं ति पास । एसप्पमोक्खे अमुसेऽवरे" वी अकोणे सच्चरए तवस्सी" ।। १. एवं तु (वृषा, चूपा)। २. तु (चू)। ३. आउट्टती (चूपा, वृपा) ४. कम्मेहि पावहिं (चू)। ५. वि (ख)। ६. आदीणभोई (क, चू, वृपा)। ८. उ (क, स । ८. समाहीड (क)। ९. ठितच्चा, ठितच्ची (चूपा, पा) । १०. तं (ख)। ११. दीणो य (क, ख)। १२. विसत्तो (क)। १३. अघाकडं (चू)। १४. णियायमीणे (चूपा)। १५. नियामचारी (क, ख, वपा) । १६. इत्थीहिं (चू)। १७. ममायमाणे (चू)। १६. आरंभसत्ता णिचयं करेंति (च); आरंभ सत्तो (वृपा)। १६. ° दुगो (चू)। २०. व्या० वि०–ोधावी । २१. छंद (चु. वपा); आय (चूपा)। २२. जीवियट्ठी (वृ)। २३. उ (क)। २४. °गिद्धि (वृ); गेधी (चू) । २५. अणुवेहमाणे (ख, बृ)। २६. अणुपेहमाणे (क, व)। २७. ° मेयं (ख)। २८. एवं पमुक्खो (क, ख, वृ)। २६. वरे (वृ)। ३०. तपस्सी (चू)। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं अभयणं ( समाही ) अकुवा । १३. इत्थी या 'आरयमेहुणे उ" परिग्गहं चेव 'उच्चावसुं विसएसु ताई" "ण संसयं" भिक्खु ' समाहिपत्ते || १४. अरति रति च अभिभूय भिक्खू तणादिकासं तह सीतासं । सुमि च दुब्भि च तितिक्खएज्जा | लेसं समाहट्टु परिव्वएज्जा । सम्मिस्तिभावं पजहे पयासु ॥ 'उन्हं च दंसं " चहियासएज्जा १५. गुत्ते वईए य समाहिपत्ते हिं ण छाए ण वि छादएज्जा असमाधि-पदं १६. जे केइ लोगम्मि उ अकिरियाता" आरंभसत्ता गढिया य लोए १७. 'तेसि पुढो छंदा माणवाणं 'जातस्स बालस्स पकुब्व देहं " १८. आउक्खयं चैव अबुज्झमाणे अहो य राओ" परितप्पमाणे १६. जहाय वित्तं पसवो य सव्वे लालप्पई 'सेवि उवेति मोहं" १. ० मेहुणा उ ( ख, वृ); अरतमेधुणे या (चू ) । व्या०वि० – आ + अरत + मैथुन: -- विरतमैथुनः इत्यर्थः । २. अमायमीणे (चू) । ३. उच्चावएहि निहि ताया (चू ) । अण्णेण पुट्ठा धुतमादिसंति" । धम्मं ण जाणंति विमोक्खहेउं ॥ किरिया - अकिरियाण व पुढोवादं”। वेरमसंजयस्स || पवडती " ममाइ से साहसकारि ९० मंदे । अट्टे सुमूढे अजरामरे " ब्व || जे बंधवा जे य पिया य मित्ता । अण्णे जणातं सि" हरंति वित्तं ॥ माणवा तु किरियाकिरीणं च पुढो य वायं ( ख ); पुढो छंदा इह माणवा उ, किरिया किरियाणं च पुढोवायं (वृ) | ३२१ १३. जाताण बालस्स पगभगाए (चूपा); जायाए बालस्स पगब्भणाए ( वृपा ) । १४. पढते ( ) | ४. णिस्संसयं (क, ख, वृ); ण संसयं (वृपा) । ५. व्या० वि० - भिक्खु । ६. तेउं च (ख); ते च सद्दं (च्) । ७. गुत्तो ( क ) । १७. सहस्म (चू) | ८.छावएज्जा (क, ख ) 1 १८. रातोय (चू) । ६. सम्मिस्स ० ( क, ख, वृ); सम्मिस्सि० १६. ० मरि ( क, ख ) 1 (वृपा ) : २०. जहाहि (क, ख ) 1 १०. अकिरियात्रा (क); अकिरिय आया ( ख ) 1 ११. मादियंति ( चू) । १२. पुढो य छंदा इह माणवातो, किरियाकिरीण च पुढो य वायं ( क ); पुढो य छंदा इह २१. सेविय एइ मोहं ( क, ख ) ते वि उवेंति घंत (चू) 1 २२. से ( क ) । १५. आयु ० ( चू) | १६. व्या० वि० --- साहसकारी । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ मूलगुण समाहि-पदं २०. सीहं जहा खुद्द मिगा' चरंता दूरे' चरंती एवं तु महावि' सभिक्ख धम्मं २१. संबुज्झमाणे उ' परे मतीमं "हिंसप्पसूताणि दुहाणि" मत्ता' २२. मुसंण बूया मुणि" अत्तगामी" सयं ण कुज्जा ण वि कारवेज्जा उत्तरगुण- समाहि-पदं 'अमुच्छितो अणज्भोववण्णो" | २३. 'सुद्धे सिया जाएण दूस एज्जा" िितमं विमुक्य पूयणट्ठी ण सिलोयकामी " य परिव्वज्जा | २४. णिक्खम्म गेहाओ णिरावकखी कायं विओसज्ज" णिदाणछिष्णे । णो जीवितं णो मरणाभिकखी चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के || ---त्ति बेमि ॥ १. खुड्ड० (चू) । २. दुरेण (दृ) । ३. व्या० वि० - - मेहावी । ४. पावाणि दूरेण विवज्जएज्जा (चू) । ५. य (ख, चू) 1 ६. अप्पा ( क ) | ७. सुयाई दुहाई (क, ख ) 1 ८. मंता (क, ख ) 1 ६. णेव्वाणभूते व परिव्वज्जा (चू. वृपा) । १०. व्या० वि० - मुणी । परिसंकमाणा । 'दूरेण पावं परिवज्जएज्जा" || पावाओ अप्पाण' णिवट्टएज्जा । 'वेराणुबंधीणि महभाणि ॥ णिव्वाणमेय" कसिणं समाहि । करंतमण्णं" पि य णाणुजाणे ॥ ११. ० कामी (चू) | १२. ० मेवं (चू ) । सूयगडो १ १३. य (क, तू ) | १४. करें (चू) | १५ सुद्धेसिया जायण तुसएज्जा (चू) । १६. अमुच्छिए न य अभोववणे ( क, ख ) । १७. विप्पक्के ण ( चू) | १८. ०गामी (क, ख, वृ) । १६. विओस्सेज्ज ( क ) 1 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमं अज्झयणं मग्गे मग्ग-सार-पदं १. कयरे मग्गे अक्खाते' माहणेण मतीमता ? ! जं मग्गं उज्जु' पावित्ता ओहं तरति दुरुत्तरं ।। २. तं 'मग्गं अणुत्तरं'' सुद्धं सव्वदुक्खविमोक्खणं' । जाणासि' णं जहा भिक्खू! तं णे बुहि महामुणी ! ।। ३. जइ णे केइ पुच्छेज्जा 'देवा अदुव माणुसा। तेसिं तु कयरं मग्गं आइक्खेज्ज ? कहाहि णो ।। ४. जइ वो केइ पुच्छेज्जा देवा अदुव माणुसा । 'तेसिमं पडिसाहेज्जा मग्गसारं सुणेह मे ।। ५. अणुपुट्वेण महाघोरं कासवेण पवेइयं । जमादाय इओ पुवं समुद्दे ववहारिणो॥ १. आघाते (चू)। तच्चेत्थम् -"तिरिया मणुस्सा, उत्तरगुण२. अंजु (चू); व्या० वि.- उज्जु । लद्धि वा पडुच्च तियं (तिरिय ?) अपि ३. मगमगुत्तरं (ख)। कश्चिद् गिरा वत्ति (वि त ?), वयसा वि ४. ° मोखगं (क)। पुच्छेज्ज" ५. जाणेहि (चू)। ८. णे (चू)। ६. तेसिं तु इमं मग्गं, आइक्खेज्ज सुणेध मे ७. अत्र चूर्णीविवरणानुसारेण 'देवा तिरिय (चू. वृपा); तेसि तु° (चूपा)। माणुसा' इति पाठ परिकल्पना जायते, १०. समुदं व (चू) । ३२३ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ सूयगडो १ ६. अतरिंसु तरतेगे तरिस्संति अणागया। तं सोच्चा पडिवक्खामि जंतवो! तं सुणेह मे ॥ अहिंसा-पदं ७. पुढवीजीवा पुढो सत्ता आउजीवा तहागणी । वाउजोवा पढो सत्ता तण' रुक्खा सबीयगा। ८. अहावरे तसा पाणा एवं छक्काय' आहिया । 'इत्ताव एव" जीवकाए ‘णावरे विज्जती कए !! ६. सव्वाहि अणजुत्तीहिं मइमं पडिलेहिया। सव्वे अकंतदुक्खा य अतो सव्वे अहिंसया॥ १०. एयं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसति कंचणं । अहिंसा-समयं चेव एतावंतं विजाणिया । ११. 'उड्ढं अहे" तिरियं च जे केइ तसथावरा । 'सव्वत्थ विरति कुज्जा" संति णिव्वाणमाहियं ।। १२. पभू दोसे णिराकिच्चा" ण विरुज्झज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो ॥ एसणा-पदं १३. संवुडे से" महापण्णे धीरे" दत्तेसणं चरे । एसणासमिए णिच्चं वज्जयंते अणेसणं ।। १४. भूयाइं समारंभ" 'साधू उद्दिस्स'' जं कडं । तारिसं तु ण गेण्हेज्जा' अण्णपाणं सुसंजए॥ १. व्या० वि०-तणा। व्याख्यातः । इह च चूणिकृता 'सव्वस्थ २. °वरा (चू)। विरति कुज्जा' पाठः स्वीकृत:, वृत्तिकृता च ३. व्या० वि-छक्काया। 'सव्वत्थ विरतिं विज्जा' पाठो व्याख्यातः । ४. इत्तावये (क, ख); एनाव ता (चू) । ११. णिरे ° (चू)। ५. नावरे कोइ विज्जई (क्व)। १२. य (चू)। ६. अक्कत ° (ख)। १३. ° पुण्णे (क)। ७. न हिंसया (क, ब); अहिंसका (चू)। १४. वीरे (क) ८ किंचणं (क, ख)। १५. च समारंभ (क); च समारब्भ (ख)। ६. उड्ढं अहे य (ख); उड्ढमहे (चू)। १६. समुद्दिस्स य (क); समुद्दिस्सा य (ख); साहू १०. विज्जा (क, व) । ३।४।२० श्लोके चूणि- मुद्दिस्स (वृ); तमुद्दिस्सा य (क्व)। कृता 'सव्वत्थ विज्ज विरति' पाठः स्वीकृतः, १७. भुंजिज्जा (वृ)। वृत्तिकृता च 'सव्वत्थ विरतिं कुज्जा' पाठो १८. अण्णं ° (वृ)। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमं अज्झणं (मग्गे) १५. पूतिकम्मं ण सेवेज्जा' एस धम्मे जं किंचि अभिसंकेज्जा' सव्वसो' तं ण भासा समिति-पदं १६. 'ठाणाई संति सङ्घीण अथ वा णत्थि वा धम्मो ? १७. अत्थि वा णत्थि वा पुण्णं ? अधवा णत्थि पुण्णं ति १८. 'दाणट्टयाय जे पाणा" तेसि १६. जेसि तेसिं २०. जे य गामेसु गरे अस्थि धम्मो त्ति अस्थि पुण्णं ति एवमेय हम्मंति सारवखणट्टाए 'अत्थि पुष्णं ति" तं उवकप्पति 'अण्णं पाण" लाभंतरायं ति तुम्हा णत्थि त्ति दाणं पसंसंति" वधमिच्छति जे य णं पडिसेहंति वित्तिच्छेदं करेंति २१. दुहओ वि जे" ण भासंति आयं रयस्स हेच्चा णं धम्म-दीव - पदं २२. 'णिव्वाण - परमा बुद्धा तम्हा सया जए दंते १. पूती ( क ) । o १३ णक्खत्ताण णिव्वाण" २. सेवेज्ज (च्) । ३. अभिकखेज्जा (क, ख, वृ) । ४. सव्वतो (क) ५. भोत्तर (चू) । ६. हणतं नाणुजाणेज्जा, आयगुत्ते जिइदिए । ठाणाई संति सड्डीण, गामेसु नगरेसु वा ॥ तहा गिरं समारम्भ, अस्थि पुण्णं ति नो वए । अह वा नत् पुण्णं ति एवमेयं महत्भयं । (क, ख, वृ); इदं गाथा- द्वयमस्माभिरचूर्ण्यनुसारि स्वीकृतम् । अत्र वृत्त्यनुसारि गाथा - द्वयं त्रुटितप्रकरणमिवाभाति । श्रद्धालो: प्रश्न. परिपाटी चूर्णो स्वाभाविको विद्यते । षोडशे श्लोके धर्मोस्ति नवेति प्रश्नस्तदुत्तरं च । सप्तदशे श्लोके पुण्यमस्ति नवेति प्रश्नस्तदुत्तरं तसथावरा | णो वए । ताविहं । णो वए । पाणिणं । ते ॥ अत्थि वा गत्थि वा पुणो । णिव्वाणं" पाउणंति ** ते ॥ सीमतो कप्पते ॥ वा ! णो वते 11 णो वए । महभयं ॥ व चंदमा" । संधए मुणी ॥ च । वृत्तौ षोडशे श्लोके नास्ति धर्माधर्मसम्बन्धी कोपि प्रश्नः । सप्तदशे च पुण्यसम्बन्धी प्रश्नो नास्ति केवलमपृष्टस्य प्रश्नस्योत्तरमस्ति । एतेन प्रतीयते वृत्त्यनुसारी पाठो सम्बद्धोस्ति । ७. दाणट्टताए जे सत्ता (चू) ८. तम्हा अस्थि ति ( चू) ६ अण्णा (क, ख, वृ) । १०. पडिसेति ( चू) । ११. ते (क, ख, वृ) । १२. जेव्वाणं (च्) । ३२५ ० १३. णिव्वाणं परमं (क, ख, वृपा); णेव्वाण ( चु) । १४. चंदमा ( क ) । १५. णेव्वाणं (चू) । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ २३. वुज्झमाणाण पाणाणं किच्चंताणं' आघाति साधुतं * दीवं पतिट्ठेसा २४. आयगुत्ते सया दंते छिण्णसोए ' जे धम्मं सुद्धभक्खाति पडिपुण्णमणेलिस बोद्ध- समीक्खापदं २५. तमेव बुद्धा मोत्तिय मण्णता २६. ते य बीयोदगं चेव 'भोच्चा भाणं" भियायंति २७. जहा ढंकाय कंकाय मग्ग- संधाण- पर्द ३२. 'इमं तरे अविजाणता अबुद्धा अंतर १. कच्चं ० ( क ) । २. सकम्मुणा (चू) 1 ३. अक्खाति (चू) 1 तमुद्दिस्सा अखेतण्णा कुलला " मच्छेसणं झियायंति झाणं ते २८. एवं तु समणा एगे" मिच्छदिट्ठी " विसएसणं भियायंति कंका वा २६. 'सुद्ध मग्गं विराहित्ता इहमेगे उ उम्मग्गगया दुक्खं घातमेसंति ३०. जहा आसाविणि" गावं जाइअंधो अंतरा इच्छई १५ पारमागंतुं ३१. एवं तु समणा एगे सोतं मिच्छद्दिट्ठी कसिगमावण्णा आगंतारो च धम्ममादाय कासवेण सोयं महाघोरं अत्तत्ताए ५. सोते (चू) । ६. अणासवे ( क, ख ) 1 ४. साहुतं ( क, ख ); असो शब्द: 'साधुकं' अस्ति, तकारश्रुत्या 'साधुतं' जातमिति प्रतीयते । ७. बुद्धमाणिणो (क, ख, वृ) । ८. दूरतो (चू) । बुद्धवादिणो । समाहिए || जं कडं । असमाहिया || मग्गुका सिही | ते य सकम्मणा । पवुच्चई ॥ णिरासवे' । 11 य कलुसाधमं ॥ अणारिया | कलुसाधमा || दुमती | तहा* ॥ दुरूहिया | विसीदति ॥ अणारिया । महब्भयं ॥ पवेदितं । परिव्व ॥ १९६ सूयगडो १ ६. झाणं णाम (चू) ! १०. पिलजा (चू) | ११. वेगे (क) 1 १२. मिच्छा ० ( क ) 1 १३. चूर्णिकृता नासौ श्लोको व्याख्यातः । १४. आसाविणी ( चू) । १५. इच्छेज्जा (चू) । १६. इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । कुज्जा भिक्खु गिलाणस्स, अमिलाए समाहिए || Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ एगारसमं अज्झयणं (मग्गे) ३३. विरते गामधम्मेहिं जे केई जगई जगा! तेसि अत्तुवमायाए' थामं कुव्वं परिव्वए । ३४. अतिमाणं च मायं च तं परिणाय पंडिए । सव्वमेयं णिराकिच्चा णिव्वाण' संधए मुणी ॥ ३५. 'संधए साहुधम्म" च पावधम्म णिराकरें। उवधाणवीरिए भिक्खू कोहं माणं ‘ण पत्थए । ३६. जे य बुद्धा अतिक्कंता जे य बुद्धा अणागया। संती तेसिं पइट्ठाणं भूयाण' जगई जहा ।। ३७. 'अह गं वतमावण्ण" फासा उच्चावया फुसे । ण तेहिं विणिहण्णेज्जा वातेण व महागिरी ।। ३८. संवुडे से महापण्णे धीरे" 'दत्तेसणं चरे। कालमाकंखे एवं केवलिणो मतं ॥ --ति बेमि । संखाय पेसलं धम्म, दिट्टिमं परिणिबुडे । ३. णेन्वाणं (चू)। तरे सोतं महाघोर, अत्तताए परिव्वएज्जासि ॥ ४. सद्दहे साधुधम्म (चूपा, वृपा)। (च); क्वचित्पश्चार्धस्यान्यथा पाठ:- ५. णिरे करे (च)। 'कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समा- ६. च वज्जए {क, ख) । हिए' (वृ); उपरिनिर्दिष्टचूणिपाठस्य ७. भूयाण (क)। तुलना तृतीयाध्ययनस्य ८१,८२, श्लोकयोः ६. अधेणं भेदमावण्णं (चूपा)। षट्पदेभ्यो जायते। ९. तेसु (क,ख)। १. अत्तुवमाणेण (चू); ता उवमाऽऽताए १०. बुद्धे, (चू); वीरे (चूपा) ! (चूपा)। ११. दत्तेसणचरे (बू)। २. णिरेकिच्चा (चू)। १२. एतं (वृ)। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोस रण- चउक्क-पदं १ चत्तारि अण्णाणवादि-पदं २. ४. अण्णाणिया ता' कुसला वि संता अकोविया आहु अकोविएहि ३. 'सच्चं असच्चं इति चितयंता" ausearदि-पदं जेमे जणा वेणइया अणोवसंखा इति ते समोसरणाणिमाणि पावाया जाई किरियं अकिरियं विणयं ति" तइयं अण्णाणमाहंसु अरियवादि-पदं बारसमं यणं लवावसक्की" य समोसरणं १. विणइति ( क ) । २. ताव ( चू) । ३. व्या० वि० - वितिगिच्छं । ४. अकोविए ते ( क ); अकोवियाय ( ख ) | (पा) 1 ७. व्या० वि -- असाहुं । अणेगे उदाहु ५. वाई य ( ख ); ० वीयत्ति (च्) । ६. सच्चं मोसं° (चू); ° इति भासयंता । असंथुया णो वितिगिच्छ' तिष्णा । अणाणुवीईति मुसं वदति ॥ असाहु 'साहु त्ति" उदाहरंता । पुट्ठा वि अट्ठे स वयंति । च उत्थमेव ॥ अगएहिं णो किरियमाहंसु अकिरियआया । ८. साधुं ति ( चू) : ६. णामा (चू ) । १०. नो भाइ ( चुपा) । ३२८ पुढो भावं विणइंसु णाम || ओभासइ " अम्ह एवं । ११. लवावसंकी (क, ख ); लवं - कर्म तस्मादपशङ्कितुम् — अपसर्तुं शीलं येषां ते लवाप. शङ्किनः (वृ) १२. वाई (ख, वृ) 1 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसम अज्झयणं (समोसरणं) ३२६ ५. संमिस्सभावं सगिरा' गिहीते' से मुम्मुई होइ' अणाणुवाई । इमं दुपक्खं इममेगपक्खं आहंसु छलायतणं च कम्म । ६. ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा विरूवरूवाणिह अकिरियाता। जमाइइत्ता बहवेमणूसा भमंति संसारमणोवदग्गं ।। णाइच्चो उदेई ण अत्थमेइ ण चंदिमा वड्डति हायती वा। सलिला" ण संदंति ण वंति" वायार वझे णितिए" कसिणे हु लोए॥ जहा हि अंधे सह जोइणा वि रूवाणि णो पस्सइ हीणणेत्ते । संतं पि" ते एवमकिरियआता किरियं ण पस्संति णिरुद्धपण्णा ।। है. संवच्छरं सुविणं लक्खणं च णिमित्तदेहं च उप्पाइयं च। अटुंगमेयं बहवे अहित्ता लोगंसि जाणंति अणागताइं ।। १०. केई५ णिमित्ता तहिया भवंति केसिंचि ते विप्पडिएंति'२० गाणं । ते विज्जभावर अणहिज्जमाणा 'आहंसु विज्जापलिमोक्खमेव'२२ ।। किरियवादि-पदं ११. ते एवमक्खंति समेच्च लोगं 'तहा-तहार समणा माहणा य। सयंकडं गऽपणकडं च दुक्खं आहंसु 'विज्जाचरणं पमोक्ला५ ।। १२. ते चक्ख लोगस्सिह णायगा उ" मग्गाणुसासंति हियं पयाण । तहा तहा सासयमाहु लोए जसी पया माणव ! संपगाढा !! १. च गिरा (चू)। १७. सुमिणं (चू)। २. गहीते (ख)। १५. अधिज्जिता (चू)। १६. केयी (चू)। ४. मुम्मिया (क)। २०. तं विप्पडिएति (क, ख, व)। ५. होति (चू)। २१. भासं (चू); विज्जहरिसं (चूपा) । २२. जाणामु लोगसि वयंति मंदा (ख, वृपा)। ७. विरूवरूवाणि (वृ). २३. एयमक्खंते (चू)। ८. अकिरियवाई (क, ख, वृ)। २४. तधागता (चू); तथा तधा (चूपा)। ६. उतुति (चू)। २५. चरणप्पमोक्खं (ख)। १०. सरितो (चू)। २६. व्या०वि०-चक्खू । ११. वयंति (ख)। २७. लोगसिह (क, ख, वृ)। १२. वायवो (चू)। २८. ओ (क)। १३. नियते (क, ख, द)। २६. व्या० वि० -द्विपदयोः सन्धिः- मग्गं+ १४. य (क, चू)। अणुसासंति। १५. तु (चू)। ३०. पजाणं (चू)। १६. किरियवाई (क, ख, ५)। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० १३. 'जे रक्खसा जे जमलोइया वा" आगासगामी य पुढोसिया ते १४. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं । जंसी विसण्णा विसयंगणाहि' दुहतो वि लोयं अणुसंचरति ॥ १५. ण कम्मुणा कम्म खवेति बाला अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा । मेधाविणो 'लोभमया वतीता" संतोसिणो णो पकरेंति पावं || १६. ते तीत उप्पण्णमणागयाई " लोगस्स जाणंति तहागताई । तारो अण्णेसि" अणण्पणेया बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति || १७. ते व कुव्वंति ण कारवेंति भूताभिसंकाए " दुछमाणा । सदा जता विष्पणमंति धीरा विष्णत्ति" - वीराय भवंति एगे ॥ १८. डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे ते आततो पासइ सव्वलोगे । उबेहती" लोगमिणं महंतं 'बुद्धप्पमत्तेसु" परिव्वज्जा" ॥ १६. जे आततो परतो वा विणच्चा अलमप्पणी होति अलं परेसिं । तं जोइभूयं च सतताऽवसेज्जा" जे पाउकुज्जा अणुवीइ धम्मं ! 'जो आगति" जाणइ ऽणागति च । जाति मरणं च चयणोववातं ॥ २०. अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं जो सासयं जाण असासयं च १. जे रक्खसाया जमलोइया य ( क, ख, वृ) । २. या सुरा (वृ) । ३. जे (ख, वृ) ; य (चू) ४. समेति (च्) । ५. महणं (च) । ६. गणासु (चु) । ७. वीरा (वृ) | ८. लोभ भयादतीता (वृपा) । ६. व्या० वि० मकारः अलाक्षणिकः । १०. तीवमुप्पण्ण ( क ); तीयमुप्पण्ण (ख)। ११. मण्णेसि (चू) | १२. ० संकाति ( क ) 1 १३. विदित्तु (चू वृ), विष्णत्ति (चुपा, वृपा) । १४. उब्वेहती (ख, वृ) । ० जे आसुरा' पुणो पुणो गंधव्वा य काया । विप्परिया सुर्वेति ॥ सूगडो १ १५. व्या० वि० -- द्विपदयोः सन्धिः--बुद्धे + अप्पमत्तेसु । बुद्धे + पमत्तेसु । १६. बुद्धेऽप्पमते सुपरिव्वज्जा (चूपा) । १७. या (ख, चू) | १८. व्या० वि० द्विपदयोः सन्धिः सततं + आवसेज्जा | १६. सतावसेज्जा (क, ख ) २०. आताण ( चू); व्या० वि० - अत्ताणं । २१. गई च जो (क, ख ) ! २२. जाणइ ( ख ) ; व्या०वि० - अत्र इकारलोपः जाणइ । २३. जाती (क, ख ) 1 २४. जणोववायं (क, ख ) ; "पवादं (चू ) ! Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं अज्झयणं (समोसरणं) २१. अहो वि सत्ताण वि उट्टणं च जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च 'सो भासिउमरिहति किरियवाद ।। २२. सद्देसु रूवेसु असज्जमाणे 'रसेसु गंधेसु" अदुस्समाणे । णो जीवियं णो मरणाभिकखें आयाणगुत्ते 'वलया विमुक्के" ।। —त्ति बेमि ।। १. वा (चू)। २. आइक्खितु मरिहति सो (चूपा)। ३. अमुच्छमाणो (चू)। ४. गंधेसु रसेसु (क, ख); रसेहिं गंधेहि (चू)। ५. मरणाहिकखी (क, ख); मरण विपत्थए (च); व्या० वि०-द्विपदयोः सन्धिः-मरण +अभिकले। ६. माया विमुक्के (चूपा) । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झयणं आहत्तहीयं उपखेव-पदं १. आहत्तहीयं तु पवेयइस्सं णाणप्पगारं पुरिसस्स जात . सतो य धम्म असतो य सील संति असंति करिस्सामि पाउं ॥ सिस्स-दोस-गुण-पदं २. अहो य रातो य समुद्वितेहि तहागतेहि पडिलब्भ' धम्म । समाहिमाघातमजोसयंता सत्थारमेव फरुसं वयंति ।। ३. विसोहियं ते अणुकाहयते जे या ऽऽतभावेण वियागरेज्जा। ___अट्ठाणिए 'होइ बहूगुणाणं जे णाणसंकाए" मुसं वदेज्जा" ।। ४. जे यावि पुटा पलिउंचयंति आदाणमटुं३ खलु वंचयंति । __ असाहुणो ते इह साहुमाणी मायण्णिएहिति" अणंतघातं ॥ १. ०धिज्ज (चू)। २. पवेइयस्सं (ख)। ३. ० लंभ (चू)। ४. मझूसयंता (चू)। ५. • मेव (चू)। ६. वा (चू)। ७. आत° (चू)। ८. वियागरेंति (चू)। ६. होति बहूणिवेसे (चूपा, वृपा); व्या० वि०-- छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । १०. ° संकाइ (क)। ११. वदंति (चू)। १२. आवि (चू)। १३. आताण ° (क)। १४. ° एसिति (क, ख); °एसंति (क्व) व्या० वि०...द्विपदयोः सन्धिः--मायण्णिआ+ एहिति । ३३२ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अभयणं (आहत्तहीयं ) ६. ५. जे कोहणे होइ जगभासी अद्धे' व से दंडपहं गहाय 'जे विग्गहिए अ णायभासी " ओवायकारी य हिरीमणे' य ७. से पेसले सुहुमे पुरिसजाते बहुप असासिए जे तहच्ची" ८. जे यावि अप्पं वसुमं " ति मंता तवेण वाहं अहिए" ति मंता" ६. एगंत कूडेण तु से पलेइ जे माणणद्वेण विउक्कसेज्जा मद- परिहार- पदं १०. जे माहणे 'खत्तिए जाइए " वा जे पव्वइए" परदत्तभोई ११. ण तस्स जाती व कुलं व ताणं furaम्म से सेवइगारिकम्मं ८. अमायख्वी (चू) । ६. स उज्जुकारी (चू); सुउज्जुचारे (वृपा) । विओसितं 'जे य" उदीरएज्जा । अविओसिते घासति पावकम्मी ॥ ण से समे होइ अझपत्ते | एतदिट्ठी " जच्चण्णिते अमाइरूवे ॥ १०. तहच्चा ( क, ख, वृ ) । ११. सिमं (च्) । १२. अपरिक्ख (चू) 1 समे हु से संखाय वायं अण्णं जणं ण विज्जई वसुमण्णत रेण १९ ३. अंधे (क, ख, वृ) | ४. धासति ( क्व ) ; धृष्यते ( वृ ) । ५. जे विग्गही अन्नायभासी (क, ख, वृ); जे कोहणे होति उ णायभासी (चूपा); ● अन्ताभासी (क्व ) । अत्र 'अ नायभासी' इत्यस्य रूपान्तरं 'अन्नावभासी' इति जातम्, संभवतो लिपिदोषेणैव विपर्ययो २१ जातः । व्या० वि० णातिभासी । २० ६. हिरीमते (चू ) । ७. एगंतसड्ढी (वृपा) 1 य चेव होइ १. जगतट्ठ° (चू); जयट्ठ° (क, चुपा वृपा) । १३. सहिते त्ति (क, वृ); सहिउ ति ( ख ) | २. वा पुणो ( चू, वृ) 1 १४. मत्ता ( क्व ) : णच्चा (चू) । १५. पासइ ( ख ) | १६. विधभूतं (पा) । १७. य ( क ) । १८. गुत्ते ( क ); गोते ( ख ) । १६. वसु पण्णऽण्णतरेण (चू) । सुउज्जुयारे । अपत्ते ॥ अपरिच्छ" कुज्जा । पसति" बिंबभूतं " ॥ मोणपदंसि गोते" । अबुझमाणे || तहुग्गपुत्ते" तह लेच्छवी " वा । 'गोतेण जे थब्भति माणवद्धे " || पण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं । ण से पारए" होति विमोयणाए" ॥ जातिए खत्तिए ( क ); खत्तिय जायए (ख) तह उग्गपुत्ते (क, ख ) । २२. लेच्छए (क); लेच्छई (ख, वृ) । २३. पवईए ( ) | २४. गोत्तेण० (क, ख ); गोते ण जे थंभभिमाणबद्धे (वृ) । गारिअंगं (वृ); ऽगारिकम्मं (वृपा ) | २५. २६. पारगो (वृ); पारके (तू) | २७. विमोक्ख • ( ) । 0 ३३३ ० Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ सूयगडो १ १२. णिक्किचणे 'भिक्खु' सुलूहजीवी" जे गारवं' होइ सिलोगगामी । आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो पुणो-पुणो विप्परियासुवेति ।। १३. जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी पडिहाणवं' होइ विसारए य । आगाढपण्णे 'सुय-भावियप्पा" अण्णं जणं पण्णसा परिहवेज्जा ॥ १४. एवं ण से होति समाहिपत्ते जे पण्णसा भिक्खु" विउक्कसेज्जा। अहवा वि जे लाभमदावलित्ते अण्णं जणं खिसति बालपण्णे ।। १५. पण्णामदं चेव तवोमदं च णिण्णामए" गोयमदं च भिक्खू । ___ आजीवगं चेव च उत्थमाहु से पंडिए उत्तमपोमाले से ।। १६. एयाइं मदाई विगिच 'धोरा ताणि सेवंति'१५ सुधीरधम्मा। ते सनगोतावगता" महेसी उच्च अगोत" च गति वयंति ॥ अणाणुगिद्ध-पदं १७. भिक्खू मुतच्चे" तह दिट्ठधम्मे 'गाम व णगरं व'२१ अणुप्पविस्सा। से एसणं जाणमणेसणं च 'जो अण्णपाणे य" अणाणुगिद्धे ।। धम्म-वागरण-विवेग-पदं १८. अरति रति च अभिभूय भिक्खू बहुजणे वा तह एगचारी। एगतमोणेण वियागरेज्जा एगस्स जंतो गतिरागती य ।। १. निगिणेविया (च)। २. व्या० वि०-भिक्खू । ३. भिक्खू सलूह ° (क)। ४. व्या० वि०-अत्र वर्णलोपः—गारववं । ५. चूणों नासौ शब्दो व्याख्यातोस्ति । ६. व्या० वि०—भिक्खू । ७. पणिधाण (चू); पडिभाणवं (चूपा)। ८. सुवि० (ख, वृ)। ६. पण्णया (क्व)। १०. पण्णवं (ख)। ११. व्या० वि०भिक्खू । १२. °सेति (चू)। १३. लाभमदेण मत्ते (चू); जातिमदेण मत्तो (चूपा)। १४. तन्नामए (क)। १५. धीरे ण ताणि सेवेज्ज (क, चू) । १६. ० गोत्तावगया (क) : १७. अगोत्तं (क)। १८. उति (ख)। १.. सुयच्चा (क); भुयच्चा (ख)। २०. कइ (चू)। २१. गामं च गरं च (क, ख); गामे व णगरे व २२. अण्णस्स पाणस्स (क, ख, व) । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झयणं (आहत्तहीय) १९. सयं समेच्चा अदुवा वि सोच्चा भासेज्ज धम्म हितयं पयाणं ! जे गरहिता सणिदाणप्पओगा णताणि सेवंति सुधीरधम्मा ।। २०. केसिंचि तक्काए' अबुज्झ भावं खुई पि गच्छेज्ज असद्दहाणे । आउस्स कालातियारं वघात' लद्धाणुमाणे य' परेसु अद्वै ॥ २१. कम्मं च छंद च विगिच धीरे विणएज्ज तु सम्वतो आतभाव" । रूवेहिं लुप्पंति भयावहेहि" विज्ज गहाय तसथावरेहिं ।। २२. ण पूयणं चेव सिलोय" कामे पियमप्पियं कस्सइ" णो करेज्जा"। सव्वे अण? परिवज्जयंते अणाइले" या अकसाइ८१ भिक्खू ॥ निक्खेव-पदं २३. 'आहत्तहीयं समुपेहमाणे० सव्वेहिं पाणेहि णिहाय" दंडं । णो जीवियं णो मरणाहिकखेर 'परिव्वएज्जा वलया विमुक्के'" ।। --त्ति बेमि ॥ १. ताणि (क, ख)। २. तक्काइ (क)। ३. खुड्ड (क)। ४. अबुज्झमाणे (चू)। ५. वघाते (क)। ६. तु (चू)। ७. विविच (क)। ८. ओ (क, ख)। ६. सुव्वते (क)। १०. पाव ° (वृ); आय ° (वृपा)। ११. भयारएहि (क)। १२. गहाया (चु)। १३. पा०वि०-सिलोयं । १४. गामी (क); कामी (ख)। १५. कस्सति (क, चू)। १६. कहेज्जा (चू)। १७. अण्णाउले (क, ख, वृ) । १८. व्या० वि०-अकसाई । १६. अकसाय (क, ख)। २०. आहत्तधिज्जं समुपेधमाणे (चू)। २१. विहाय (क); णिखिप्प (चू); "णिहाय' अस्य संस्कृतरूपं 'निहाय' इति युज्यते । “निधाय' इत्यस्य 'परित्यज्य' इत्यर्थः कथं स्यात् ? २२. कंखी (क, ख, वृ, चू)। २३. चरेज्ज मेधावी वलय-विप्पमुक्के (व); चरेज्ज मेधावी वलया विमुक्के (चू)। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउद्दसमं अज्झयणं गंथो बंभचेरवासे गंथसिक्खा-पदं १. गंथं विहाय' इह सिक्खमाणो उद्याय' सुबंभचेरं वसेज्जा। ओवायकारी विणयं सुसिक्खे जे छेए से विप्पमादं ण कुज्जा।। २. जहा दिया-पोतमपत्तजात्तं सावासगा' पवितुं मण्णमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजार्य ढंकादि अव्वत्तगमं हरेज्जा ।। ३. एवं तु 'सिक्खे वि अपुटुधम्मे णिस्सारं बुसिमं मण्णमाणो" । दियस्स छावं व अपत्तजातं हरिसु णं पावधम्मा अणेगे । ४. ओसाणमिच्छे मणुए समाहि अणोसिते णंतकरे ति णच्चा। ओभासमाणे दवियस्स वित्तं ण णिक्कसे बहिया आसुपण्णो ॥ ५. जे ठाणओ या" सयणासणे यारे परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते । समितीसु गुत्तीसु य आयपणे वियागरते" य पुढो वएज्जा ।। १. विधाय (चू)। है. चूर्णो 'सदाणि सोच्चा' अयं पंचमः श्लोकः, २. इति (चूपा)। ___ 'जे ठाणओ या' असौ षष्ठः श्लोको वर्तते । ३. उत्थाय (चू)। १०. ठाणए (चू)। ४. छगे (चू)। ११. य (ख); व्या० वि०-- छन्दोदृष्ट्या ५. सवा० (चू)। दीर्घत्वम् । ६. मपक्खगं वा (चू)। १२. य (ख)। ७. सेहं पि अपुट्ठधम्म, णिस्सारियं वृसिमं मन्न- १३. आसुपण्णे (क) । माणा । (क, ख, व); °णिस्सार (पा)। १४. ० रेति (च)। क. व्या० वि०-ण+अतकरे । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउद्दसमं अज्झयणं (गंथो) ६. सहाणि सोच्चा अदु भेरवाणि अणासवे' तेसु परिव्वएज्जा । ____णिदं च भिक्खू ण 'पमाय' कुज्जा" कह कहं वी वितिगिच्छ' तिणे ॥ बंभचेरवासे अणुसिट्ठि-सहण पदं ७. डहरेण बुड्ढेण ऽणुसासिते तु रातिणिएणाऽवि' समव्वएणं । सम्म तयं थिरतो णाभिगच्छ णिज्जतए वावि अपारए से ।। ८. विउद्वितेणं समयाणसि?' डहरेण बुड्ढेण 'ऽणुसासिते तु' । अन्भुट्टिताएर घडदासिए वा अगारिण' वा समयाणुसि? ॥ ६. ण तेसु कुज्झे" ण य पव्वहेज्जा ण यावि किंची फरुसं वदेज्जा । तहा करिस्सं ति पडिस्सुणेज्जा" सेयं खु मेयं ण पमाद कुज्जा ।। १०. वणंसि मूढस्स जहा अमूढा मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । __ 'तेणा वि" मज्झ इणमेव सेयं जं मे बुधा सम्मऽणुसासयंति" ।। ११. 'अह तेण२१ मूढेण अमूढगस्स कायव्व पूया सविसेसजुत्ता। एतोवम तत्थ उदाहु वारे अणुगम्म 'अत्थं उवणेइ'सम्म ।। बंभचेरवास-फल-पदं १२. णेता जहा अंधकारंसि राओ मग ण जाणाति अपस्समाणे" । से सुरियस्सा" अब्भुग्गमेणं मग्गं वियाणाति पगासितंसि ।। १. अणासए (चू)। १५. °णेत्ता (चू) २. व्या० वि०--पमाय । १६. व्या० वि०-पमादं । ३. पमायएज्जा (चू)। १७. अमडे (चू)। ४. वा (च); व्या० वि०-छन्दोदृष्ट्या १८. व्या० वि० -द्विादयोः सन्धि:--मग्ग+ दीघत्वम् । ___ अणुसासंति। ५. वितिगिछ (क, ख); व्या० वि०-- १६. तेणेव (क, च)। वितिगिच्छ । २०. समणु (क); व्या० वि०--द्विपदयोः सन्धिः-सम्म । अगुमासयति । ७. ०ण वा (व)। २१. ते णावि (च) ८. तगं (चू)। २२. व्या० वि०.-कायबा । ६. ° सट्टे (व)। २३. एवोक्म (क)। १०. व चोइते उ (क); उ चोइते य (ख)। २४. धीरे (चू)। ११. अच्चुट्टिताए (व)। २५. अटुं उवणेति (चू)। १२. व्या० वि० छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । २६. अपासमाणे (चू) । १३. °रिणा (क)। २७. सूरियस्स (ख, चू); व्या० वि०---छन्दो१४. कुप्पे (चू)। दृष्ट्या दीर्घत्वम् । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ अबुज्झमाणे । धम्मं ण जाणाति सूरोदए पासइ ॥ १३. एवं तु सेहे वि अपुटुधम्मे से कोविए जिणवयणेण पच्छा १४. उड्ढ अहे य तिरिय' दिसासु 'सया जए तेसु परिव्वज्जा" १५. कालेण पुच्छे समियं पयासु तं सोयकारी य' पुढो पवेसे १६. अस्सि सुठिच्चा तिविहेण तायी ते एवमक्खति 'तसा य जे थावर" जे य" पाणा । मणप्पओसं अविकंपमाणे ॥ आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं । संखाइम केवलिय समाहिं ॥ एएसु या संति" णिरोधमाहु" । तिलोगदंसी ण भुज्जमेतं" ति पमायसंग || १७. णिसम्म से भिक्खु" समीहमट्ट" पडिभाणवं होति 'विसारदे य" । वोदाण-मोण उवेच्च 'सुद्धेण उवेइ मोक्खं " || आदाणमट्टी" बंभचेरवासे लद्धगंथस्स कायव्य-पदं १६. 'णो १८. संखाए " धम्मं च वियागरति ते पारगा दोण्ह विमोयणाए 'छादए णो वि यलूस एज्जा" ण याविपणे परिहास" कुज्जा २०. भूयाभिसंकाएं " दुर्गाछमाणे ण किंचिमिच्छे मणुए पयासुं १. कोवितो ( ) | २. हस्तलिखितवृत्तौ - --य । ३. तिरिया (तू) ४. व्या० वि० थावग | ५. जे बावरा जे य तसा य (च्) । ६. सदा जतो तंसि परक्कमतो (चू) । ७ समितं ( क ) । ८ X (क) 1 ९. सखाणि (वू ) | १०. व्या० वि०संती । ११. निरोह (क, ख ) । १२. भूय एतं (चु) 1 १३. व्या०वि० - भिक्खू १५. विसारता ( क ) । बुद्धा हु ते संसोधियः अंतकरा भवंति । हमुदाहरति ॥ माणं ण सेवेज्ज 'पगासणं च '" 'ण याऽऽसिसावाद वियागरेज्जा" | णणिव्वहे मंतपण गोयं । असाहुधम्माणि ण संवएज्जा " || २४. वियाक रेज्जा (चू) । २५. ० संकाइ (क, ख ) 1 २६. गुप्तं ( क ) । १४. समीहिय ( ख, वृ); व्या० वि० - समीक्ष्य - २७ कित्ति (चू) । मकारः अलाक्षणिकः । सूयगडो १ १६. आयाणअट्ठी ( ख ); व्या० वि० - मकारः अलाक्षणिकः । १७. सुद्धे ण उवेति मारं ( चू. वृग ) १८. संखाय (क, चूपा ) | १६. संमोहिया (चू. वृपा ) | २०. जो छादएज्जा ण य लूसिता वा (चू) । २१. पगास वा (चू) २२. ०० वि० परिहासं । २३. ण या सियावाय ( ख ); व्या०वि० आसिसावादं । २८. संठवेज्जा (बू); संघएज्जा ( चुपा) । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें अज्झणं (गंथो) २१. हासं पिणो संघए' पावधम्मे' णो तुच्छए णोय' विकत्थ एज्जा' २२. संकेज्ज 'या संकितभाव" भिक्खू भासादुगं धम्मसमुदितेहिं २३. अणुगच्छमाणे वितहं ऽभिजाणे ण कत्थई" भास" विहिंसएज्जा २४. समालवेज्जा पडिपुण्णभासी आणाए सिद्धं वयणं भिजुजे" २५. अहाबुइयाई सुसिक्खएज्जा से दिट्टिमं दिट्ठि" ण लूसएज्जा २६. अलूसए णो पच्छण्णभासी सत्थारभत्ती अणुवोचि वायं २७. से सुद्धसुत्तं उवहाणवं च आएज्जवक्के कुसले वियत्ते १. संधइ (ख) 1 २. ० धम्मं (च्) । ३. तहितं ( क ) ; तहीयं (चू) | ४. ऽभिजाणे (चू) । चुपा, वृपा); पर्कथएज्जा ( चूरा ) 1 ओए तहिय' फरुसं वियाणे । अणाइले ' या ' अकसाई' भिक्खू' ।। विभज्जवायं च वियागरेज्जा" । वियागरेज्जा समयाऽासुपण्णं" ।। तहा तहा साहु अकक्कसेणं । णिरुद्धगं बावि ण दीह एज्जा | णिसामिया " समियाअट्ठदंसी" । अभिसंघए" पावविवेग" भिक्खू || 'जएज्ज या" णाइवेलं वएज्जा । से जाणइ भासिउं तं समाहिं || 'णो सुत्तमत्थं च करेज्ज अण्णं । सुयं" च 'सम्मं पडिवाद एज्जा" | धम्मं च जे विंदति तत्थ तत्थ" । से अरिहइ भासिउं तं समाहिं || १२६ - ति बेमि ॥ ५. व (क) । २०. सुद्ध (क, ख ) 1 ६. पकत्यएज्जा ( चू) विकयएज्जा (क, ख, २१. भिउंजे ( क, ख ) २२. कज्ञ या (चू)। २३. व्या० वि० शवत्रिवेगं । ११. वितागरिजा (क); वियाकरेज्जा (चू) : १२. धम्मसु ० ( ख ); सम्मसमु° (च्) । १३. समया सुपणे (वृ) । १४. तिजा (क ) ; विजाणे ( ख ) 1 १५. व्या०वि० – साहू | १६. कुब्बइ ( क ) ; कथई ( ख ) । १०. व्या० वि० भासं । १८. णिसामियं (च) | १६. सम्मिया ० ( क ) । ७. अणाउले ( ख ) ८. अकमाए ( वृ); व्या०वि० - अक्साई | २४. जज्जसु (च्) । ६. अविरुद्धसेवी ( चु) २५. व्या० वि० - दिट्ठि | १०. वोसंकितभाव (चू); व्या० वि०—असं. २६. ०करेज्ज तानी ( क, ख ); णो सुत्तमण्णं कितभावे । च करेज्ज ताई ( वृ); णो सुत्तमत्थं • ( चू. वृपा ) ! २७. ० वीति ( क ) | २८. सोउं (चू) | २६. धम्मं पडिवाययंति ( ख ) | ३०. तत्था ( क ) | ३३८ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेलिस-पदं पण्णरसमं यणं जमईए १. जमतोतं पडुप्पणं आगमिस्सं च णायओ' । सव्वं मण्णति 'तं ताई" दंसणावरणंतए २. अंतए वितिगिच्छाए से जाणइ* 11 अणेलिसं । असिस् अक्खाया ण से होइ तहि तहिं || ३. तहिं तहिं सुक्खायं से य सच्चे सदा सच्चेण संपणे मेत्ति भूतेसु' ४. भूतेसु ण विरुज्भेज्जा एस सुआहिए । कप्पए || धम्मे वसीमओ । वुसीमं जगं परिण्णाय :- अस्सि जीवियभावणा !! ५. भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया । गावा व तीरसंपण्णा सव्वदुक्खा तिउट्टति || ६. तिउद्धृती" उ मेहावी जाणं लोगंसि पावगं । पावकम्माणि णवं कम्ममकुव्वओ ॥ तुट्टंति १. नातओ ( क ) ; जाणति ( चू) 1 २. मेधावी (चू) ३. गिछाए ( क ) | ४. संजापति (चू) । ५. अमेलिसो (चू) | ६. भूतेहि (क) 1 ७. भूतेहि (क) । ८. बुसिमं ( क ); साहू ( ख ) । ६. परिणाए (चू) । १०. ० संपत्ता ( क्व ) । ११. अतिउट्टती (चू) | १२. लोगस्स ( ) | १३. खिज्जंति (चू); अतिवट्टति (चूपा) । ३४० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णरसमं अज्झयणं (जमईए) ३४१ ७. अकुव्वओ णवं पत्थि कम्म णाम विजाणतो' । गाच्चाण' से महावीरे जे ण जाई ण मिज्जती ।। ८. ण मिज्जती' महावीरे जस्स पत्थि पुरेकर्ड। ___'वाऊ व जालमच्चेइ 'पिया लोगंसि" इथिओ ।। ६. इथिओ जे ण सेवंति आदिमोक्खा हु ते जणा। ते जणा बंधणुम्मुक्का पावकंखंति जीवितं ।। १०. 'जीवितं पिटुओ किच्चा अंत पावंति कम्मुणं"। कम्मुणा संमुहीभूता" जे मग्गमणुसासति ।। ११. 'अणुसासणं पुढो पाणी वसुमं पूयणा सते । अणासते जते दंते दढे आरतमेहुणे ॥ १२. 'णीवारे व ण लीएज्जा" छिण्णसोते अणाइले । अणाइले सदा दंते संधि पत्ते अणेलिसं ।। १३. अणेलिसस्स खेयण्ण६ ण विरुज्झज्ज केणइ। मणसा वयसा चेव कायसा चेव चक्खुम" ॥ १४. 'से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए । ___अंतेण खुरो वहती चक्कं अतेण लोट्टति ।। १५. अंताणि धीरा सेवंति तेण अंतकरा इहं। इह माणुस्सए ठाणे धम्ममाराहिउ" णरा।। १. विजाणति (ख, ३)। २. विन्नाय (ख, वृ)। ३. व्या० वि०---जायइजाई। ४. मिज्जति (क); मज्जती (चू)। ५. मज्जते (चू); भिज्जति (वृषा)। ६. परेरयो (चु)। ७. वाउ व्व (ख)। ८. जालं अचेति (चू)। ६. पियो लोगस्स (चू)। १०. अतीतं पिच्छतो (चू) । ११. कम्मुणा (क, ख, वृपा) १२. संमुहम्भूतो (चू)। १३. अणुसासति पुढो पाणे, बुसिम पूयणासंसति । अणासए सदा दंते (चू); °अणासवे सदा दंते (चूपा) १४, णीवारे य° (क); णीयारे व ण लिज्जेजा (पा)। १५. अणाविले (ख); अणाउले (चूपा, वृपा)। १६. खेतण्णे (चू)। १७. केणधि (चू)। १८. अंतए (चू)। १६. ०जं कंखाउ अंतए (क); से चक्खु लोगम्सिध, जं करवाय करेति अंतगं (चू)। २२. लोट्ठति (क्व)। २१. °माराहगा (चू)। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १६. णिद्वितढा व देवा व उत्तरीए त्ति 'मे सुतं"। सुतं च मतमेगेसिं अमणुस्सेसु णो तहा ॥ १७. अंतं करेंति दुक्खाणं इहमेगेसि आहितं । आघातं पुण एसि दुल्ल भेऽयं समुस्सए । इतो विद्धंसमाणस्स पुणो ‘संबोहि' दुल्लभा"। 'दुल्लभाओ तहच्चाओ जे धम्मटुं वियागरे" ॥ जे धम्म सुद्धमक्खंति पडिपुण्णमणेलिसं । अणेलिसस्स जं ठाणं तस्स जम्मकहा कुतो ? ।। कुतो कयाई मेहावी उप्पज्जति तथागता ? । तथागता अपडिण्णा चक्खू लोगस्सण त्तरा।। अणुत्तरे य ठाणे से कासवेण पवेदिते । जं किच्चा णिव्वुडा" एगे णिटुं पावेंति पंडिया ।। २२. पंडिए वीरियं लद्ध णिग्घायाय पवत्तगं" । धुणे पुवकड२ कम्मं णवं चावि ण कुव्वइ ।। २३. ण कुव्वइ महावीरे अणुपुव्वकर्ड रयं । रयसा संमुहीभूते" कम्म हेच्चाण जं मतं ।। २४. जं मतं सब्वसाहूणं तं 'मतं सल्लगत्तणं'" । साहइत्ताण तं तिष्णा देवा वा अविसु ते॥ २५. अभविसु पुरा वीरा" आगमिस्सा वि सुब्वया । दुण्णिबोहस्स मग्गस्स अंतं पाउकरा तिण्ण" ॥ -त्ति बेमि ।। १. इमं सुतं (क, ख)। ६. °त्तरं (क); अत्तस्स ° (चू)। २. व्या० वि०-संबोही। १०. णिव्वुत्ता (चू)। ३. बोही सुदुल्लहा (वृ)। ११. पव्वत्तए (चू)। ४. दुल्लभा य तधच्चा जे, धम्मट्ठी विदितप- १२. °कतं (चू)। रापर। (चू)। १३. ० भूता (ख, ८)। ५. कओ (ख)। १४. मदं सरूलकत्तणं (क); सम्मुहुन्भुता (चूपा)। ६. कताई (क); कदायि (चू)। १५. धीरा (क, ख)। ७. तहागया (क, ख)। १६. तिण्णे (ख)। ८. तथागता य (चू)। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खेव पदं ९. अहाह भगवं एवं से दंते दविए बोसटुकाए त्ति बच्चे' माहणे त्ति वा समणे त्ति वा, भिक्खू तिवा, णिग्गंथेत्ति वा ॥ माहण-पदं २. पडिआह' - भंते ! कहूं दंते दविए वोसट्टकाए त्ति वच्चे- माहणे ति वा ? मतवा ? भिक्खुत्ति वा ? णिग्गंथेत्ति वा ? तं 'णो बूहि " मह मुणी सोलसमं ज्यणं गाहा १. वुच्चे (क, ख ) । २. इ (क) सर्वत्र । ३. इतिविरत सव्वपावकम्मे ' पेज्ज - दोस- कलह - अब्भक्खाण-पेसुण्ण-परपरिवादअरतिरति मायामोस - 'मिच्छादंसणसल्ले विरते" समिए सहिए सया जाए, णो कुज्के णो माणी "माहणे " त्ति वच्चे || ३. आहु (चू) ४. कहं नु ( ख ) । ५. णे० (क, ख ); ° ब्रूहि (चू) ६. विरए सव्वपावकस्मेहिं ( ख ) । ७. ० सल्लविरते (ख, वृ) समण-पदं ४. एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च 'मुसावायं च " बद्धिं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेज्जं च दोसं च - इच्चेव 'जतोजतो" आदाणाओ" अप्पणी पद्दोस हेऊ" 'ततो- ततो पडविते सिआ" दंते दविए वोसट्टकाए "समणे" त्ति वच्चे || आदाणाओ पुव्वं ८. X (च्) ६. जातो जातो (च्) । १०. आदाणतो ( क ) । ११. ० हेतुं ( क ) 1 १२. तातो तातो (चू) 1 १३. पाणाइवायाओ (क, ख ) ; भवति (चू ) 1 ! ३४३ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ भिक्खु-पदं ५. एत्थ वि भिक्खू 'अणुण्णते णावणते" दंते दविए वोसट्टकाए संविधुणीय विरूव. रूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवहिए ठिअप्पा संखाए परदत्तभोई "भिक्खू" त्ति वच्चे ।। णिग्गंथ-पदं ६. एत्थ वि णिग्गथे एगे एगविदू' वुद्धे संछिण्णसोए सुसंजए सुसमिए सुसामाइए आतप्पवादपत्ते' विऊ दुहओ वि सोयपलिछिण्णे णो पूयासक्कारलाभट्ठी' धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवण्णे समियं चरे दंते दविए वोसट्टकाए "णिग्गंथे" त्ति वच्चे । 'से एवमेव जाणह जमहं भयंतारो। . त्ति बेमि ।। ग्रन्थ परिमाण कुल अक्षर २४३१७ अनुष्टुप श्लोक ७५६ अक्षर २६ - -- -- -- - -- - - -- - -- १. अण्णते विणीए नामए (क, ख); अणपणत्ते ५. आयवायपत्ते (७)। नामए (वृ); अणुणाए नावणए महेसी ६. सोतपलिच्छण्णे (चू) (उत्तरज्झयणं २१।२०); अणुन्नए नावणए ७. पूयणट्ठी (चू) । (दसवेआलियं ५।१११३)।। ६. समयं (वृ)। २. शुद्धात्मा शुद्धद्रव्यभूतः (वृ)। ६. विज्ज (चू)। ३. एगतिए विदू (चूपा); एगंतविदू (वृपा)। १०. सेवमायाणधभयंतारो (च)। ४. छिन्नसोते (चू)। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ सुयक्खंधो पढमं अज्झयणं पोंडरीए पउमवरपोंडरीय-पदं १. सुयं मे आउस ! तेणं' भगवया एवमक्खायं-इह खलु पोंडरीए णामझयणे । तस्स णं अयम? पण्णत्ते--से जहाणामए घोक्खरणी' सिया बहुउदगा बहसेया बहुपुक्खला लट्ठा पोंडरीकिणी' पासादिया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा ।। २. तीसे णं पोक्खरणीए तत्थ-तत्थ देसे-देसे तहि-तहिं बहवे पउमवरपोंडरीया बुइया-अणुपुवटिया ऊसिया रुइला वण्णमंता गंधमंता रसमंता फासमंता 'पासादिया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा ।। ३. तीसे णं पोक्खरणीए बहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमवरपोंडरीए२ बुइए अणपुव्व ट्ठिए ऊसिए रुइले वण्णमंते गंधमते रसमंते फासमंते पासादिए दरिस णीए अभिरूवे ° पडिरूवे ।। ४. सव्वावंति च णं तोसे पोक्खरणोए तत्थ-तत्थ देसे-देसे तहि-तहिं बहवे पउमवर पोंडरीया बुइया--अणुपुवट्ठिया ऊसिया रुइला" वण्णमंता गंधमंता रसमंता फासमंता पासादिया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा ॥ १. तेण (चू)। २. इहं (चू)। ३. पुक्खरिणी (क, ख) ४. बहूदगा (चू)। ८. दरिसणिज्जा (चू)। ६. पुन्छ ° (क)। १०. उस्सिता (चू)। ११. जाव पडिरूवा (क)। १२. पउमे (चू)। १३. सं० पा०--पासादिए जाव पडिरूवे । १४. सं० पा०--रुइला जाव पडिरूवा ! ६. पोंडरिगिणी (क, ख); पोंडरीगिणी (चू)! ७. पासादीया (ख, वृपा)। ३४५ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ ३४६ ५. सव्वावंति च णं तीसे पोक्खरणीए बहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइए - अणुपुन्वट्ठिए' ऊसिए रुइले वण्णमंते गंधमंते रसमंते फासमंते पासादिए दरिणीए अभिरूवे परूिवे || पढम- पुरिसजात-पदं o ६. अह पुरिसे पुरत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरणि, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एवं पउमवरपोंडरीय अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंत गंधमंतं रसमंतं फासमंत पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं । तए गं से पुरिसे एवं वयासी – अहमसि' पुरिसे 'देसकालणे खेत्तण्णे कुसले पंडिते वित्ते मेधावी अवाले मग्गण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति - आगतिण्णे परक्कमण्णू" । अहमेतं पउमवरपोंडरीयं 'उणिक्खिस्सामि त्ति वच्चा" से पुरिसे अभिक्कमेतं पुक्खरणि । जाव जावं च णं अभिक्कमेइ ताव-तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए 'गो पारा, अंतरा पोखरणीए सेयंसि विसरणे - पढमे पुरिसजाते" । पुरिसजात-पदं ७. ० अहावरे दोच्चे पुरिसजाते - अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरणि, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवर पोंडरीयं अणुपुव्वट्टियं ऊसियं रुइलं वण्णमंत गंधमंतं रसमंतं फासमंत पासादियं दरिसणीय अभिरूवं पडिरूवं । १. सं० पा०--- अणुपुब्वट्टिए जान पडिरूवे । २. पुक्खरिणि ( क, ख ); चूर्णिसम्मले पाठे सर्व त्रापि 'पोक्खरणी' अथवा 'पुक्खरणी' एवं रकारयुक्तः पाठो विद्यते । आदर्शयोः सर्वत्र 'करणी' एवं रिकारयुक्तः पाठो विद्यते । यद्यपि संस्कृतदृष्ट्यासौ पाठः समीचीनः प्रतिभाति किन्तु प्राकृतदृष्ट्या रकारयुक्तः पाठ: प्राचीनोस्ति । ३. सं० पा०—ऊसियं जाव पडिरुवं । ४. ० मंसी (चू) । ५. खेयन्ने कुसले पंडिते वियत्ते मेहावी अवाले मत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गइप रक्कमण्णू ( क, ख ); कुसले पंडिते धम्मण्णू देसकालण्णू तपणे वियत्ते मेधावी अवाले मग्गत्थे मग्गण्णे मग्गस्स गइपरकमण्णू (वृ) ० ६. उष्णिक्खिस्सामिति कट्टु इति वच्चा ( क, ख ); उक्खेस्सामि त्ति कट्टु इति वच्चा (वृ); उण्णेक्के समिति ( ) । अत्र 'इति कट्टु' इति पदमतिरिक्त संभाव्यते । चूर्णिकृता नैतद् व्याख्यातम् । वृत्तिकारस्य सम्मुखे उक्तपदयुक्त आदर्शः आसीत् तेन वृत्तिकृता तद् व्याख्यातम्, किन्तु व्याख्यायां काचिज्जटिलतैव प्रतीयते । ७. सग्गे, अउत्तरा विसणे-पढमे पुरिसे (च) सर्वत्र । तीसे संयंसि णि [वि ? ] सणे (वृ) ८. ज्जाए (च्) । ६. सं० पा० - अणुपुब्वद्वियं जाव पडिरुवं । o Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं (पोंडरीए) ३४७ तं च एत्थ' एगं पुरिसजाय पासइ पहीणतीरं, अपत्तपउमवरपोंडरीयं, णो हव्वाए ‘णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसपणं"। तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी-अहो ! णं इमे पुरिसे 'अदेसकालण्णे अखेत्तपणे अकुसले अपंडिए अविअत्ते अमेधावी बाले णो मग्गपणे णो भग्गविद् पो मग्गस्स गति-आगतिपणे णो परक्कमण्ण', जण्णं एस पुरिसे "अहं देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले 'पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे मम्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू, अहमेयं° पउमवरपोंडरीयं उण्णिविखस्सामि" णो य खलु एतं पउमवरपोंडरीयं एवं उण्णिक्खेयव्वं जहा णं एस पुरिसे मण्णे। अहमंसि पुरिसे देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्ण मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्ण, अहमेत पउमवरपोंडरीयं उण्णिक्खिस्सामि त्ति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पोक्खरणि । जाव-जावं च णं अभिक्कमेइ ताव-तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, णो हव्वाए णो पाराए, 'अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसरणे - दोच्चे पुरिसजाते । तच्च-पुरिसजात-पदं ८. अहावरे तच्चे पुरिसजाते - अह पुरिसे पच्चत्थिमाओ दिसाओ आगम्म त पोक्खरणि, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एग पउमवरपोंडरीयं अणुपुवट्ठियं 'ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंत पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं ।। ते तत्थ दोणि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, णो हव्वाए णो पाराए', 'अंतरा पोक्खरणीए ° सेयंसि विसणे । १. एत्थं (क); तस्थ (ख)। क्रमः पूर्वसूत्रात् भिन्नोस्ति । २. निसण्णं (ख);सऽग्गे, अउत्तरा विसणं (चू)। ४. अत्र ८,६,१० सुत्रानुसारेण 'एवं मण्णे' ३. अखेयपणे अकुसले अपंडिए अवियत्ते अमेधावी इनि पाठो यूज्यते । बाले णो मग्गत्थे णो मग्गविऊ णो मग्गस्स ५. सं० पा०—कुसले जाव पउमवरपोंडरीयं । गतिपरक्कमण्यू (क, ख); अखेयण्णे अकुसले ६. वृच्चा (ख)। अपंडिए अवियत्ते अमेधावी वाले णो मरगत्थे ७. अंतरा सेयंसि निसणे (क, ख)। णो मरगण्ण णो मम्गस्स गतिपरक्कमण्णू ८. सं० पा०..-अणपुवट्रियं जाव पडिरूवं । (ब)। वृत्तौ प्रथमपुरुषजातसूत्रे 'कुसले . सं० पा०-णो पाराए जाव सेयंसि । पंडिए खेयन्ने' असौ क्रमो विद्यते। प्रस्तुत १०. निसण्णे (क, ख)। सूत्रे च 'अखेयन्ने अकुसले अपंडिए' असौ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सूयगडो २ तए णं से पुरिसे एवं वयासी-अहो ! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला णो मग्गण्णा णो मग्गविद् णो मग्गस्स गति-आगतिण्णा णो परक्कमण्ण, जणं एते पुरिसा एवं मण्णे ---"अम्हे तं पउमवरपोंडरीयं उष्णिक्खिस्सामो" णो य खलु एतं पउमवरपोंडरीयं एवं उपिणक्खेयव्वं जहा णं एते पुरिसा मण्णे। अहमंसि पुरिसे देसकालण्ण खेत्तण्णे कुसले पंडिए विअत्ते मेधावी अबाले मग्गणे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उण्णिक्खिस्सामि त्ति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पोक्खरणि । जावजावं च णं अभिक्कमेइ ताव-तावं च णं महते उदए महंते सेए पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, जो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए ° सेयंसि विसण्णे---तच्चे पुरिसजाते ।। चउत्थ-पुरिसजात-पदं ६. अहावरे च उत्थे पुरिसजाते-अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पोक्खरणि, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति 'तं महं" एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वद्वियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंत रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरुवं पडिरूवं। ते तत्थ तिण्णि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते' 'पउमवरपोंडरीयं, णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए° सेयंसि विसण्णे । तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहो ! ण इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा' 'अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला णो मग्गण्णा णो मग्गविद् णो मग्गस्स गति-आगतिण्णा णो° परक्कमण्णू, जण्णं एते पुरिसा एवं मणे-"अम्हे एतं पउमवरपोंडरोयं उण्णिक्खिस्सामो" णो य खलू एतं पउमवरपोंडरीयं एवं उण्णिक्खेयव्वं जहा णं एते पुरिसा मण्णे। अहमंसि पुरिसे देसकालण्णे खेत्तण्णे 'कुसले पंडिए विअत्ते मेधावी अबाले मगण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिपणे° परक्कमण्ण, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उणिक्खिस्सामि त्ति वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पोक्खरणि । जाव-जावं च णं अभिक्कमेइ ताव-तावं च णं महते उदए महंते सेए 'पहोणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, णो हवाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे-.. चउत्थे पुरिसजाते ।। १. सं० पा०--सेए जाव सेयंसि । २. ४ (क, ख)। ३. सं० पा०-~-अणपुवाट्रिय जाव पडिरूव। ४. सं० पा०--अपत्ते जाव सेयंसि । ५. सं० पा०-अखेत्तण्णा जाव परक्कमण् । ६. सं० पा०-खेत्तपणे जाव परक्कमण्णू । ७. सं० पा०-~-सेए जाव विसणे । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं (पोंडरीए) भिक्खु -पदं 0 १०. अह भिक्खू लूहे तोरट्ठी देसकालणे खेत्तण्णे' "कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गणे मग्गविदू मग्गस्स गति - आगतिष्णे परक्कमण्णू अण्णत रीओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पोक्खरणि, तीसे पोक्खरणीए तोरे ठिच्चा पासति तं महं एवं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वद्वियं ऊसियं रुइलं वष्णमंत गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिवं । ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाते पासति पहोणे तीरं, अपत्ते' 'पउमवरपोंडरीयं, जो हवाए णो पारा, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसरणे । तणं से भिक्खू एवं वयासी- अहो ! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा ● अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला णो मग्गण्णा णो मग्गविदू णो मग्गस्स गति आगतिण्णा गो० परक्कमण्णू, जण्णं एते पुरिसा एवं मण्णे"अम्हे एवं पउमवरपोंडरीयं उष्णिक्खिस्सामो" णो य खलु एतं पउमवरपोंडरीयं एवं उणिक्यब्वं जहा णं एते पुरिसा मण्णे । अहमंसि भिक्खू लूहे तीरट्ठी देसकालण्णे खेत्तण्णे' 'कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले गणे मग्गविदू मग्गस्स गति आगतिणे परक्कमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उष्णिक्खिस्सामि त्ति बच्चा ' से भिक्खू णो अभिक्कमे पोक्खरणि, तीसे पोक्खरणीए तीरं ठिच्चा सद्दं कुज्जा- 'उप्पयाहि खलु भो ! परमवरपोंडरीया ! उप्पयाहि" । अह से उप्पतिते पउमवरपोंडरीए ॥ पुव्वुत्त-णातस्स अट्ठ-पदं १. सं० पा० - खेत्तणे जाव परक्कमण्णू २. सं० पा०---उमवरपोंडरीयं जाव पडिरुवं । ३. सं० पा० - अपत्ते जाव अंतरा । ४. सं० पा० - अखेत्तण्णा जाव परक्कमण्णू | ५. सं० पा० - तणे जाव परक्कमण्णू ! ६. कट्टु इति वच्चा (*); कट्टु इति वच्चा (ख) । ७. उप्पदाहि खलु भो पउमवर ! उप्पदाहि खलु भो पउमवर ! (तू); ऊर्ध्वमुत्पततोत्पतत (बु) 1 ३४९ ११. किट्टिए गाए समणाउसो ! अट्ठे पुण से जाणित वे' भवति । संतेति ! 'णिगंथा य णिग्गंथीओ य समणं भगवं महावीर" वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - किट्टिए जाए भगवया" अटुं पुण से ण जाणामो" । o ८. आजाणि (तू)। ६. समणं भगवं महावीरं निग्गंथा य निग्गंथीओ य (क, ख ) 1 १०. समणाउसो ( क, ख ); प्रयुक्ताप्रयुक्त प्रतिषु 'समणाउसो' इति पाठो लभ्यते, किन्तु अर्थविचारण्यासी न सम्यक् प्रतिभाति । चूर्णो से किट्टिते भगवता', वृत्तौ च'ज्ञातं भगवता' इति लभ्यते तेनात्र मूले 'भगवया' इति पाठः स्वीकृत: । ११. आयाणामो (च्) । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सूयगडो २ समणाउसोति ! समणे भगवं महावीरे ते बहवे णिगंथे य णिग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासो-हता समणाउसो ! आइक्खामि विभयामि' किट्टेमि पवेदेमि सअटुं सहेउं सणिमित्तं भुज्जो भुज्जो उवदंसेमि ।। १२. से बेमि-लोयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! सा पोक्खरणी बुइया । कम्म च खलु भए अप्पाहटु समणाउसो ! से उदए बुइए। कामभोगे य खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से सेए बुइए। जणजाणवए" च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! ते बहवे पउमवरपोंडरीया बुइया । रायाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से एगे महं पउभवरपोंडरीए बुइए। अण्णउत्थिया य खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! ते चत्तारि पुरिसजाया बुइया। धम्म च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से भिक्खू बुइए । धम्मतित्थं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से तोरे बुइए। धम्मकहं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! से सद्दे बुइए । णिव्वाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से उप्पाए बुइए। एवमेयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से एवमेयं बुइयं । तज्जीव-तस्सरीर-वादि-पदं १३. इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणस्सा भवति अणपुग्वेणं लोग उववण्णा", तं जहा---आरिया वेगं अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता" वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवति - महाहिमवंत"मलय-मंदर-महिंदसारे" जाव" पसंतडिवडमरं रज्ज पसाहेमाणे विहरति ।। १. ते य (ख)। है. लोगत्तं (क, ख)। २. निग्गंथा (क)। १०. उवउत्ता (क)। ३. विभावेमि (क, ख, व)। अत्र वत्तिकृता ११. उच्चामोत्ता (ख)। 'विभावयामि' इति व्याख्यातम, प्रत्योरपि १२. हुस्समता (क); रहस्समंता (क्व)। 'विभावेमि' पाठ उपलभ्यते. किन्त ६७ १३. महयाहिमवंत-महंत (ओ० स०१४)। सुत्रस्य सदर्भ विभयामि' इति चूणिगतपाठः १४. 'क' प्रती वृत्तौ च संक्षिप्तपाठो वर्तते । चू) राजवर्णको व्याख्यातोस्ति । 'ख' समीचीनोस्ति । प्रतौ संक्षिप्तपाठस्य पूर्तीकृतपाठस्य च ४. सकारण (चू)। मिश्रणं जातम् । पूर्व राजवर्णकस्यौपपा५. आह? (वृ); अप्पाह१ (वृपा) । तिकानुसारी पाठो लिखितोस्ति ततश्च ६. X(क, ख)। 'रायवण्णओ जहा उववाइए जाव पसंतडि७. वयं (क)। बडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति । ८. संति एगतिया (क)। १५. ओ० सू०१४॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अभय (पोंडरीए) १४. तस्स णं रण्णो परिसा भवति - उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, 'नागा नागपुत्ता", कोरव्वा कोरव्वपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, पसत्थारो पसत्यपुत्ता, सेणावई सेणावइपुत्ता' ॥ १५. तेसि च णं एगइए सड्डी भवति । कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिसु गमणाए । 'तत्थ अण्णतरेणं" धम्मेणं पण्णत्तारो, 'वयं इमेणं" धम्मेणं पण्णवइस्समो । से एवमायाणह भयंतारो ! जहा में एस धम्मे सुयक्खाते सुपण्णत्ते भवइ, तं जहा - उड्ढं पायतला, अहे केसग्गमत्थया, तिरियं तयपरियंते जीवे । एस ' आया पज्जवे कसिणे । एस जोवे जीवति, एस मए गो जीवति । सरीरे धरमाणे घरति, विट्टम्मि य णो धरति । एययंतं जीवियं भवति । आदहणाए परेहिं णिज्जइ । अगणिभामिए सरीरे कवोतवण्णाणि अट्ठीणि भवंति । आसंदीपंचमा पुरिसा गामं पच्चागच्छति । एवं असंते असंविज्जमाणे । १६. 'जेसि तं " सुक्खायं भवति - अण्णो भवइ जीवो अण्णं सरीरं, तम्हा' ते 'णो एवं विप्पडिवेदेति अयमाउसो ! आया दीहे ति वा हस्से" ति वा । परिमंडले ति वा वट्टेति वा तसे ति वा चउरंसेति वा आयते ति वा 'छलंसे ति वा t किन्हे ति वा णीले ति वा लोहिए ति वा हालिदे ति वा सुक्किल्ले ति वा । सुभिगंधेति वा दुब्भिगंधे ति वा । तित्तेति वा कडुए ति वा कसाए ति वा अंबिले ति वा महुरेति वा । कक्खडे ति वा मउए ति वा गरुए" ति वा लहुए ति वा सोए ति वा उसिणे तिवा गिद्धेति वा लुक्खेति वा । एवं असंते असंविज्जमा || १ नाया नायपुत्ता ( ख ) । २. चूर्णों केचिदन्येपि शब्दा द्रष्टव्यमोवाइयं सू० २३ ३. तत्थन्न ० ( क, ख ) 1 ४. वयमेते ( क ) । ५. मए (ख, वृ ) 1 ६. आयपज्जवे ( क, ख ) । व्याख्याताः । ७. एतंत ( क ); एयंत (क्व ) । ८. जेसि तं असंते असविज्जमाणे तेसि तं ( क, ख ); पुरोवर्तिसूत्रत्रयस्य (१६-१८) संदर्भसौ पाठोशुद्धः प्रतिभाति, लिपिदोषेण पाठपरिवर्तनं जातमिति प्रतीयते । वृत्ती पाठस्य स्पष्टता नोपलभ्यते किन्तु व्याख्यानु ३५१ सारेण निम्नपाठः कल्पितुं शक्यते - जेसितं असंतो असंविज्जमाणे तेसि तं सुयक्खाय भवति, जेसिं पुण अण्णो • । चूर्णिगतपाठो मूले स्वीकृतः । ६. व्या० वि० - जेसि त सुयवखायं भवति--- अण्णो भवइ जीवो अष्णं सरीरं, ते णो एव विपडिवेदेति, तम्हा ( तस्मादप्येवाsसुअवखातं - चु) इत्यन्वयः । १०. एवं नो ( ख ) । हस्से ( क ) 1 छलसिए ति वा असे ति वा ( ख ) । १३. गुरुए ( ख ) । ११. १२. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सूयगडो २ १७. जेसि तं सुयक्खायं भवइ -अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, तम्हा ते णो एवं उवलभंतिसे जहाणामए केई पुरिसे कोसीओ' असिं अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जाअयमाउसो! असो, अयं कोसो। एवमेव णत्थि केइ पुरिसे अभिणिव्यट्टित्ता णं उवदंसेत्तारो'- अयमाउसो ! आया, 'अयं सरीरे"। से जहाणामए केइ पुरिसे मुंजाओ इसियं अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जाअयमाउसो! मुंजे '[इमा ?] इसिया। एवमेव णत्थि केइ पुरिसे अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेत्तारो-अयमाउसो ! आया, 'अयं सरीरे । से जहाणामए केइ पुरिसे मंसाओ अढि अभिणिबट्टित्ता णं उवदंसेज्जाअयमाउसो! मंसे, अयं अट्ठी । एवमेव णत्थि केइ पुरिसे अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेत्तारो-अयमाउसो! आया, अयं सरीरे । से जहाणामए केइ पुरिसे करतलाओ आमलक अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा --अयमाउसो ! करतले, अयं आमलए। एवमेव णत्थि केइ पुरिसे अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेत्तारो--अयमाउसो ! आया, अयं सरीरे । से जहाणामए केइ पुरिसे दहीओ णवणीयं अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जाअयमाउसो! णवणीयं, अयं दही । एवमेव णत्थि केइ पुरिसे अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेत्तारो-अयमाउसो ! आया, अयं ° सरीरे । से जहाणामए के इ पुरिसे तिलेहितो तेल्लं अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जाअयमाउसो ! तेल्लं, अयं पिण्णाए । एवमेव *णत्थि केइ पुरिसे अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदसेत्तारो-अयमाउसो : आया, अयं सरीरे । से जहाणामए केइ पुरिसे इक्खूओं खोयरस अभिणिव्व द्वित्ताण उवदंसेज्जाअयमाउसो ! खोयरसे, अयं छोए । एवमेव" णत्थि केइ पुरिसे अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेत्तारो-अयमाउसो ! आया, अयं° सरीरे । से जहाणामए केइ पुरिसे अरणीओ अरिंग अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जाअयमाउसो ! अरणी, अयं अग्गी । एवमेव पत्थि केइ पुरिसे अभिणिव्वट्टित्ता १. केवि (क)। २. कोसओ (ख)। ३. उवदंसेइ (क, ख)। ४. इम सरीरं (ख)। ५. अयं असीया (क); इयं इसिया (ख)। ६. इदं सरीरं (ख) सर्वत्र। ७. स. पा.-केइ जाव सरीरे । ८. सं० पा०—एवमेव जाव सरीरे । ६. उक्खूतो (क)। १०. खोत्त° (क); खोत (ख)। ११,१२. सं० पा०-एवमेव जाव सरीरे। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम अज्झयणं (पोंडरीए) णं उबदसेत्तारो---अयमाउसो ! आया, अयं सरोंरे। एवं असंते असंविज्ज माण।। १५. जेसि तं सुयक्खायं भवइ, तं जहा ---अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, तम्हा, तं मिच्छा ।। १६. से हता' हणह खणह छणह उहह पयह आलुपह विलुपह सहसक्कारेह विपरा मुसह । एतावताव' जीवे, णस्थि परलोए।। २०. ते णी एवं विपडिवेदेति, तं जहा---किरिया इ वा अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहू इ वा असाहू इ वा सिद्धी इ वा असिद्धी इवा णिरए इवा अणिरए इवा । एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारं भेहि विरूवरूवाई कामभोगाई समारंभंति भोयणाए । २१. एवं एगे पागब्भिया णिक्खम्म मामगं धम्म पण्णवेति । तं सद्दहमाणा तं पत्तिय माणा तं रोएमाणा साधु सुयक्खाते समणेति ! वा माहणेति वा । कामं खलु आउसो ! तुमं पूययामो, तं जहा--असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा 'वत्थेण वा पडिग्रहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा । तत्थेगे पूयणाए समाउट्टिसु, तत्थेगे पूयणाए णिकाइंसु ॥ २२. पुवामेव तेसिं गायं भवइ-समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो, पावं कम्मं णो करिस्सामो समुद्राए। ते" अप्पणा अप्पडिविरया भवंति । सयमाइयंति, अपणे वि आइयाति, अण्णं पि आइयंत समणुजाणंति । एवामेव ते इत्थिकामभोगेहि मुच्छिया गिद्धा गढिया अझोपवण्णा लुद्धा रागदोसवसट्टा।। ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति, णो परं समुच्छेदेंति, णो अण्णाइं पाणाइं भूयाई जीवाइं सत्ताई समुच्छेदेति ! पहीणा पुव्वसंजोगा आरियं मगं असंपत्ता- इति ते णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेहि" विसण्णा । इति पढमे पुरिसजाए तज्जीवतस्सरीरिए" आहिए ।। १. हंता तं (ख)। वस्त्रगंधमाल्यालङ्करान् सूचयति द्रष्टव्यम्-- २. एतावता (ख)। रायपसेणइयं सू० ८०२ । ३. सुक्कडे (क, ख)। १०. णिगायइंसु (क)। ४. समारभनि (चू)। ११. व्या०वि०--आदी पच्छा' इति अध्याहतं५. रोयमाणा (क) । व्यम् । ६,७. त्ति (ख)। १२. संजोगं (क, ख)। ८. पूययामि (ख)। १३. कामभोगेसु (ख)। 1. गंधेण वा ४ (चू)। चतुःसंख्याङ्कः संभवतः १४. ० तच्छरीरए (क, ख)। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ पंचमहाभूतवादि-पर्व २३. अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहब्भूइए त्ति आहिज्जइ - इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीर्ण वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अणुपुव्वेणं' • लोगं उववण्णा, तं जहा- आरिया वेगे अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे । तेसि च णं मणुयाणं एगे राया भवति - महाहिमवंत मलयमंदर-महिंदसारे जाव' पसंतडिबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति ॥ २४. तस्स णं रण्णो परिसा भवति – उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, नागा नागपुत्ता, कोरव्वा कोरव्वपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, पसत्थारो पसत्यपुत्ता, सेणावई सेणावइपुत्ता ॥ २५. तेसि च णं एगइए सड्डी भवति । कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिसु गमणाए । तत्थ अण्णतरेणं धम्मेणं पण्णत्तारो, वयं इमेणं धम्मेणं पण्णव इस्समो । से एवमादाणह भयंतारो! जहा मे एस धम्मे सुयक्खाते सुपण्णत्ते भवति -- इह खलु पंचमहन्भूया जेहिं णो' कज्जइ किरिया इ वा अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहू इवा असाहू इ वा सिद्धी इ वा असिद्धी इ वा णिरए इ वा अणिरए इ वा, 'अवि अंतसो" तणमायमवि || २६. तं च पदोद्देसेणं' पुढोभूतसमवाय' जाणेज्जा, तं जहा - पुढवी एगे महब्भूते, आऊ दुच्चे महब्भूते, तेऊ तच्चे" महब्भूते, वाऊ चउत्थे महन्भूते, आगासे पंचमे महभूते । इते पंच महत्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया अकडा णो कित्तिमा' 'णो कडगा" अणादिया अणिघणा अवझा अपुरोहिता सतंता सासया || २७. आयछट्ठा पुण एगे एवमाह-सतो गत्थि विणासो असतो णत्थि संभवो । एताव ताव जीवकाए, एताव ताव अस्थिकाए, एताव ताव सव्वलोए, एतं मुहं लोगस्स करणयाए, अवि अंतसो" तणमायमवि || २८. से किणं किणावेमाणे, हणं घायमाणे, पयं पयावेमाणे, अवि अंतसो पुरिसमवि विविकणित्ता घायइत्ता, एत्थं पि जाणाहि णत्थित्थ दोसो || १. सं० पा० – अणुपुब्वेणं जाव सुपण्णत्ते । २. ओ० सू० १४ । ३. अस्माकम् (वृ) । ४. अवि यंतसो ( क ) ; इति० ( ख ) | ५. पिठुद्दे से ( क, ख ) । ६. समवायं (चू) | २ ७. ततिए ( क ) | ८. अणिमेता (क) । ९. कत्तिमा (चू ) | १०. x (चू) । ११. यंतसो (क) | १२. इत्थं पि जाणीहि (क); एत्थ वि जाण (चू) । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम अज्मयणं (पोंडरीए) ३५५ २६. ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा-किरिया इ वा' अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहू इ वा असाहू इ वा सिद्धी इवा असिद्धो इ वाणिरए इवा' अणिरए इवा। ‘एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाइं कामभोगाई समारंभंति भोयणाए। ३०. एवं ते अणारिया विप्पडिवण्णा मामगं धम्म पण्णवेंति' ? ] ! तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा' तं रोएमाणा साधु सुयक्खाते समणेति वा माहणे ति ! वा। कामं खलु आउसो ! तुम पूययामो, तं जहा-असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण बा। तत्थेगे पूयणाए समाउट्टिसु, तत्थेगे पूयणाए णिकाइंसु ॥ पुवामेव तेसि णायं भवइ–समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो, पावं कम्म णो करिस्सामो समुटाए। ते अप्पणा अप्पडिविरिया भवति । सयमाइयंति, अण्णे वि आइयाति अण्णं पि आइयंतं समणुजाणंति । एवामेव ते इत्थिकामभोगेहि मुच्छिया गिद्धा मढिया अज्झोववण्णा लद्धा रागदोसवसला। ते णो अप्पाणं समुच्छेदंति, णो परं समुच्छेदेंति, णो अण्णाई पाणाइं भूयाई जीवाई सत्ताइ समुच्छेदेति । पहीणा पुव्वसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ता - इति ते णो हव्वाए णो पाराए, 'अंतरा कामभोगेसु विसण्णा"। दोच्चे पुरिसजाते पंचमहब्भूइए त्ति आहिए। ईसरकारणिय-पदं ३२. अहावरे तच्चे पुरिसजाते ईसरकारणिए त्ति आहिज्जइ–इह खलु पाईणं वा" 'पडीण वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अणुपुव्वेणं लोगं उववण्णा, तं जहा-आरिया बेगे अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवति-महाहिमवंत-मलय-मंदर-महिंदसारे जाव' पसंतडिबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति ।। १. सं० पा०-किरिया इ वा जाव अणिरए। सुयक्खाते' इत्यादिपाठस्य संबन्धो न घटेत । २. एवमेव (ख)। ४. सं० पा०-पत्तियमाणा जाव इति । ३. प्रथमपुरुषप्रकरणे २१ सूत्रे वृत्तिकारेण-- ५. व्या० वि० --आदो 'पच्छा' इति अध्याहर्त सांप्रतं तत्प्रज्ञापितशिष्यव्यापारमधिकृत्याह- व्यम् । 'तं सहहमाणा' इति संबन्धयोजना कृता सा ६. जाव विसण्णे (क)। अग्रिमेषु त्रिष्वपि पुरुषेषु तथैव युज्यते । यदि ७. सं० पा०—पाईणं वा जाव सुयक्खाते । 'त सहहमाणा' इत्यादिपाठस्य कर्ता ते ८. ओ० सू० १४ । अणारिया विपडिवण्णा' स्यात् तदा 'साधु Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ सूयगडो २ ३३. तस्स णं रणो परिसा भवति-उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, नागा नागपुत्ता, कोरव्वा कोरव्वपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, पसत्थारो पसत्थपुत्ता, सेणावई सेणावइपुत्ता ।। ३४. तेसिं च णं एगइए सड्डी भवति । कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिसु गमगाए । तत्थ अण्णतरेणं धम्मेणं पण्णत्तारो, वयं इमेणं धम्मेणं पण्णवइस्सामो। से एवमायाणह भयंतारो ! जहा मे एस धम्मे° सुयक्खाते सुपण्णते भवति– इह खलु धम्मा पुरिसादिया' पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीवा पुरिससंभूता' पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति-- से जहाणामए गंडे सिया सरीरे जाए सरीरे संवुड्ढे' सरीरे अभिसमण्णागए सरीरमेव अभिभय चिह। एवमेव धम्मा वि परिसादिया परिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया परिससंभूता पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संवुड्डा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ । एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया 'पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूता पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिस मेव अभिभूय चिटुंति । से जहाणामए वम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंवुड्ढे पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिट्टइ । एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया 'पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूता पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति । से जहाणामए रुक्खे सिया पुढविजाए' 'पुढविसबुड्ढे पुढविअभिसमण्णागए' पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ । एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया" "पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूता पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति ! से जहाणामए पुक्खरिणी सिया" 'पुढविजाया पुढविसंवुड्डा पुढविअभिसमण्णागया° पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ । एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया १. व्या० वि०-पुरुष:-ईश्वरः । २. 'पुरिससंभूता पुरिसअभिसमपणागता' एते वाक्ये वृत्तौ न व्याख्याते। ३. बुड्ढे (क, वृ)। ४. सं० पा०-पुरिसादिया जाव पूरिसमेव । ५. अभिसंवुड्ढा (क, ख); वुड्डा (वृ)। ६. सं० पा०--पुरिसादिया जाव पुरिसमेव । ७. विम्मिए (ख)। ८. सं० पा० --पुरिसादिया जाव अभिभूय । ६. सं० पाल----पुढविजाए जाद पुढविमेव । १०. सं० पा०-पुरिसादिया जाव अभिभूय ! ११. सं० पा.-.-सिया जाब पुढविमेव । १२. सं० पा०-पुरिसादिया ज व अभिभूय । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं (पोंडरीए) ३५७ 'पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूता पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव ° अभिमूय चिट्ठति । से जहाणामए उदगपुक्खले सिया' 'उदगजाए उदगसंवुड्ढे उदगअभिसमण्णागए ° उदगमेव अभिभूय चिट्ठइ ! एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया' •पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूता पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति।। "से जहाणामए उदगबुब्बुए सिया उदगजाए उदगसंवुड्ढे उदगअभिसमण्णागए उदगमेव अभिभूय चिट्ठई। एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूता पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ॥ ३५. जंपि य इमं समणाणं णिग्गंथाणं उद्दिष्टुं पणीयं विअंजियं दुवालसंग गणिपिडगं, तं जहा.-आयारों' 'सूयगडो, ठाणं, समवाओ, वियाहपण्णत्ती, णायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाई, विवागसुयं °, दिट्ठिवाओ-सव्वमेयं मिच्छा, ण एतं तहियं, ण एतं आहातहियं । इमं सच्चं इमं तहियं इमं आहातहियं -ते एवं सणं कुव्वंति, ते एवं सपणं संठवेति, ते एवं सपण सोवट्ठवयंति । तमेवं ते तज्जातियं दुक्खं णातिवट्टति', सउणी पंजरं जहा ।। ३६. ते णो विप्पडिवेदेति तं जहा--किरिया इ वा 'अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहू इ वा असाहू इ वा सिद्धी इ वा असिद्धी इ वा णिरए इ वा ' अणिरए इ वा । एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमा रंभेहि विरूवरूवाइं कामभोगाई समारंभंति भोयणाए । ३७. एवं ते अणारिया विप्पडिवण्णा [मामगं धम्मं पण्णवेति ? ] 1 "तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा साधु सुयक्खाते समणेति ! वा माहणेति ! वा। काम खलु आउसो ! तुम पूययामो, तं जहा-~-असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेग वा पायपुंछणेण वा। तत्थेगे पूयणाए समाउटिंसु, तत्थेगे पूयणाए णिकाइंसु ॥ १. स. पा.-सिया जाव उदगमेव । २. सं० पा०--पूरिसादिया जाव चिट्ठति । ३. सं० पा०-एवं उदगबुब्बुए भणियब्वे । ४. पणियं (क, ख)। ५. सं०पा०-आयारो जाव दिदिवाओ। ६. ण तिउटटंति (वपा)। ७. स. पा.-किरिया इ वा जाब अणिरए । ८. एवमेव (क, ख)। है. सं० पा०एवं सद्दमाणा जाव इति। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ ३८. पुवामेव तेसिं णायं भवइ-समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो, पावं कम्म णो करिस्सामो समुट्ठाए। ते' अप्पणा अप्पडिविरया भवंति । सयमाइयंति, अण्णे वि आइयाति, अण्ण पि आइयंतं समणुजाणति । एवामेव ते इत्थिकामभोगेहि मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा लुद्धा रागदोसवसट्टा।। ते णो अप्पाणं समुच्छेदेंति, गो परं समुच्छेदेंति, गो अण्णाई पाणाई भूयाइ जीवाई सत्ताई समुच्छेदेति ! पहीणा पुव्वसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ताइति ते णो हव्वाए गो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा। तच्चे पुरिसजाते ईसरकारणिए त्ति आहिए ।। णियतिवादि-पदं ३६. अहावरे चउत्थे पुरिसजाते णियतिवाइए ति आहिज्जइ -इह खलु पाईणं वा' 'पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अणुपुश्वेणं लोगं उववण्णा, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे । तेसिं च ण मणुयाणं एगे राया भवति - महाहिमवंत-मलय-मंदर-महिंदसारे जाव' पसंतडिबडमरं रज्ज पसाहेमाणे विहरति ।। ४०. तस्स णं रण्णो परिसा भवति-उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, नागा नागपुत्ता, कोरव्वा कोरवपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, पसत्था रो पसत्थपुत्ता, सेणावई सेणावइपुत्ता ।। तेसिं च णं एगइए सडो भवति । कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिंसु गमणाए । तत्थ अण्णतरेण धम्मेण पण्णत्तारो, वयं इमेण धम्मेण पण्णवइस्सामो। से एवमायाणह भयंतारो! जहा मे एस धम्मे • सयक्खाते सुपण्णत्ते भवति । इह खलु दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे किरियमाइक्खइ, एगे पुरिसे णोकिरियमाइक्खई। जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ, जे य पुरिसे गोकिरियमाइक्खइ, दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठा कारणमावण्णा ॥ ४२. बाले पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावण्णे । अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा ___'जरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा", अहमेयमकासि ! परो १. व्या० वि० आदी पच्छा' इति ४. एककारणापन्नत्वादिति (वृ)। अध्याहर्तव्यम् । ५ तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा २. सं० पा०—पाईणं वा जाव सुयक्खाते। जूरामि वा (क, व); तप्पामि वा पीडामि वा ३. ओ० सू०१४1 परितप्पामि वा (चू)। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अभयण ( पोंडरीए) ३५६ वाजं दुक्खइ वा 'सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा, परो एयमकासि । एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावणे || ४३. मेहावी पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणभावण्णे । अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा णो अहं एयमकासि । परो वा जं दुक्खइ वा' 'सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा णो परो एयमकासि । एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं fatusवेदेति कारणमावणे || ४४. से बेमि - पाईणं वा पडोणं वा उदीणं वा दाहिणं वा जे तसथावरा पाणा ते एवं संघायमागच्छति, ते एवं विप्परियाय मावज्जंति, ते एवं विवेगमागच्छति, ते एवं विहाणमागच्छति, ते एवं संगइयंति उवेहाए || ४५. ते णो एयं विप्पडिवेदेति, तं जहा - किरिया इ वा 'अकिरिया इ वा सुकडे इ वादुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहू इ वा असाहू इ वा सिद्धी इ वा असिद्धी इ वा णिरए इ वा अणिरए इ वा । एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमा - रंभेहिं विरूवरूवाइं कामभोगाई समारंभंति भोयणाए || सद्दहमाणा तं ४६. एवं ते अणारिया विप्पडिवण्णा [ मामगं धम्मं पण्णवेति ? ] । तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा साधु सुयक्खाते समणेति ! वा माहणेति ! वा । कामं खलु आउसो ! तुमं पूययामो, तं जहा - असणेण वा पाणेण वा खाइमेण साइमेण वा वत्थे वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा । तत्थेगे पूणा समाउसु, तत्थेगे पूयणाए णिकाइंसु ॥ ४७. पुव्वामेव तेसि णायं भवइ समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो, पावं कम्मं णो करिस्सामो समुट्ठाए । अपणा अप्पडिविरिया भवंति । सय माइयंति, अण्णे वि आइयावेंति, अण्ण पिआइयंत समजाणंति । एवामेव ते इत्थिकामभोगेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अभोववण्णा लुद्धा रागदोसवसट्टा । ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति णो परं समुच्छेदेति णो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समुच्छेदेति । पहीणा पुव्वसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ता - इति ते णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा । उत्थे पुरिसजाते नियतिवाइए त्ति आहिए ।। ९. सं० पा० - दुक्ख वा जाव परितप्पs | २. सं० पा० - दुक्खामि वा जाव परितप्पामि । ३. सं० पा० - दुक्खइ वा जाय परितप्पड़ । ४. विपरियास ( क, ख ) । ५. सं० पा०-किरिया इ वा जाव णिरए इ वा जाव वउत्थे । ६. व्या० वि० आदी अध्याहर्तव्यम् । 'पृच्छा' इति Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सूयगडो २ ४८. इच्चेते चत्तारि पुरिसजाया णाणापण्णा णाणाछंदा ‘णाणासीला णाणादिट्ठी" णाणारुई णाणारभा णाणाअज्झवसाणसंजुत्ता 'पहीणा पुव्वसंजोगा" आरियं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसपणा ।। भिक्षुणो भिक्खायरिया-समुट्ठाण-पदं ४६. से बेमि--पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणस्सा' भवंति, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे', 'उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेग, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे ° दुरूवा वेगे। तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाणि भवंति, तं जहा-'अप्पयरा वा भज्जयरा" वा। तेसि च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाई भवंति, तं जहा'अप्पयरा वा भुज्जयरा' वा। तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्ठिया । सतो वा वि एगे णायओ य” उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समट्रिया । असतो वा वि एगे णायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिया ।। जे ते सतो वा असतो वा णायओ 'य उवगरण च" विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्रिया, पुत्वमेव तेहिं जातं भवति"-इह खलु पुरिसे “अण्णमण्णं" ममद्वाए" एवं विप्पडिवेदेति", तं जहा—खेत्तं मे वत्थू मे हिरण्णं मे सुवणं मे 'धणं में धण्ण मे कंसं मे दस मे विपल-धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-पवाल. रत्तरयण-संत-सार-सावतेयं मे सद्दा मे रूवा मे गंधा मे रसा में फासा में। एते खलु मे कामभोगा, अहमवि एतेसिं । से मेहावी पुत्वमेव" अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा -- इह" खलु मम अण्णतरे दुक्खे १. णाणादिट्ठी गाणासीला (क)) य अणायओ य उवगरणं च अणवगरणं २. पहीणपुव्वसंजोगा (क, ख); प्रहीण: पूर्व- च (चू)। ___ संयोगः यः (वृ)। १०. भवति, तं जहा (ख, वृ)। ३. मणूसा (क)। ११. अन्यद् अन्य वस्तु उद्दिश्य (व)। ४. सं० पा०-अणारिया वेगे जाव दुरूवा। १२. विप्परियावेति (क)। ५. अप्पयरो वा भुज्जयरो (क, ख)। १३. वत्थु (क)। ६. अप्पयरो वा भुज्जयरो (ख)। १४. धणम्मे (क)। ७. य अणातयो य (चू)। १५. पुव्वा ° (ख)। ८. च अणुवगरणं च (चू)। १६. तं इह (ख)। ६. य अणायओ य उवगरमं च (क, ख); Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम अज्झयणं (पोंडरीए) रोगातके समुप्पज्जेज्जा-अणि? अकंते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे दुक्खे णो सुहे। से हता! भयंतारो ! कामभोगा' ! मम अण्णतरं दुक्खं रोगायंक परियाइयह --अणि8 अकंतं अप्पियं असुभं अमणुण्ण अमणामं दुक्खं णो सुहं । माऽहं' दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा। इमाओ मे अण्णत राओ दुक्खाओ रोगातंकाओ पडिमोयह–अणिद्वाओ अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुण्णाओ अमणामाओ दुक्खाओ णो सुहाओ ! 'एवमेव णो लद्धपुव्वं भवति । इह खलु कामभोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा । पुरिसे वा एगया पुन्वि कामभोगे विप्पजहइ, कामभोगा वा एगया पुचि पुरिसं विप्पजहंति । अण्णे खलु कामभोगा, अण्णो अहमंसि । से किमंग पुण वयं अण्णमपणेहिं कामभोगेहि मुच्छामो ? इति संखाए णं वयं कामभोगे विप्पजहिस्सामो ।। से मेहावी जाणेज्जा-बाहिरगमेयं, इणमेव उवणीयतरग, तं जहा–माता मे पिता में भाया मे 'भगिणी मे भज्जा में पुत्ता में 'णत्ता मे धूया मे पेसा मे सहा में सुही मे सयणसंगंथसंथुया मे । एते खलु मम णायओ, अहमवि एएसि। से महावी पुत्वमेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा-इह खलु ममं अण्णयरे दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेज्जा - अणि?' अकते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे दुक्खे णो सुहे। से हता! भयंतारो ! णायओ! इमं मम अपणयरं दुक्खं रोगातंक परियाइयह' –अणिटुं 'अकंतं अप्पियं असुभं अमणुणं अमणामं दुक्खं ° णो सुहं। माऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा 'जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा । इमाओ मे अण्णतराओ दुक्खाओ रोगातकाओ परिमोयहा १. कामभोगाई (क, ख)1 ५. भज्जा मे भगिणी में (क)। २. ताऽहं (क, ख); द्रष्टव्यम्-५१ सूत्रस्य ६. धूया मे पेसा मे णता मे सुण्हा मे (ख)। 'मा में पदस्य पादटिप्पणम् । ७. एवं से (क, ख)। ३. लद्धपुव्वे (क); एवं णो० (ख); वृत्तौ- ८. सं० पा.--अणिटे जाव दुक्से । 'न चायमर्थस्तेन दुःखितेन 'एवमेवे' ति . परियादियध (क)। यथा प्राथितस्तथैव लब्धपूर्वो भवति, १०. सं० पा०- अणिटुं जाव णो सुहं । अग्रिमसूत्रे 'न चैतत्तेन दुःखितेन लब्धपूर्व ११. सं० पा०---सोयामि वा जाव परितप्पामि । भवति'. "एवमेव नो लब्धपूर्व भवति' इति १२. परिमोएह (क); पूर्वस्मिन् सूत्रे 'पडिमोयह' व्याख्यातमस्ति। इति पदमस्ति। ४. वयं च (ख)। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ अणिट्टाओ' 'अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुण्णाओ अमणामाओ दुक्खाओ • • णो सुहाओ । एवमेव' णो लद्धपुव्वं भवइ । तेसि वा विभयंताराणं मम णाययाणं अण्णयरे दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेज्जाafg' 'अकते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे दुक्ख • णो सुहे । o से हंता ! अहमेतेसि भयंताराण पाययाणं इमं अण्णतरं दुक्खं रोगातंक परियाइयामि - अणि अनंत अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं दुक्खं णो सुहं, ' मा मे" दुक्खंतु वा सोयंतु वा जूरंतु वा तिप्पंतु वा पीडंतु वा परितप्पंतु या । इमाओ अण्णयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ परिमोएमि-अणिट्ठाओ " "अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुण्णाओ अमणामाओ दुक्खाओ • णो सुहाओ । एवमेव ' णो लद्धपूव्वं भवति । अण्णस्स दुबखं अण्णो णो परियाइयई, अण्णेण कतं " अण्णो णो पडिसंवेदेइ, पत्तेयं जायइ, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं चयइ, पत्तेयं उववज्जइ, पत्तेयं भंझा, पत्तेयं सपणा, पत्तेयं मण्णा," पत्तेयं विष्णू, पत्तेयं वेदणा । इति खलु णातिसंजोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा । पुरिसे वा एगया पुव्वि णाइसंजोगे विप्पजहइ, गाइसंजोगा वा एगया पुव्वि पुरिसं विप्पजर्हति । अण्णे खलु णातिसंजोगा, अण्णो अहमंसि । से किमंग पुण वयं अण्णमण्णेहिं माइसंजोगेहि मुच्छामो ? इति संखाए णं वयं गातिसंजोगे विप्पजहिस्सामो ॥ ५२. से मेहावी जाणेज्जा - बाहिरगमेयं, इणमेव उवणीयतरगं", तं जहा - हत्था मे पाया में बाहा में ऊरू में उदरं मे सीसं मे आउं मे बलं मे वण्णो मे तथा मे ३६३ १. सं० पा०-- अणिट्ठाओ जाव णो सुहाओ । २. एवामेव ( क ); एवमेयं (बु) 1 ३. सं० पा०- अणिट्टे ४. सं० पा०-- अणि ५. मम ज्ञातयः (वृ) । जाव णो सुहे । जाव णो सुहं । अत्र 'मा' शब्दोस्ति तथैव पूर्ववर्ती द्वयोः संदर्भयोरपि 'मा' शब्दो युज्यते एकत्र 'मा' शब्द: प्रतिष्वपि लभ्यते, एकत्र च 'ताह' अथवा 'नाहं' इति अस्पष्टोल्लेखः प्राप्यते । उत्तरवर्तिसंदर्भानुसारेण प्रथमे संदर्भेपि 'मा' एव शब्दो युज्यते । ६. सं० पा०-- दुक्खंतु वा जाव मा मे परितप्पंतु । ७. सं० पा०- अणिट्टाओ जाव णो सुहाओ । ८. एवामेव ( ख ) । ९. पडिया दियति ( क ) ; परियादियति ( ख ) ; पडियाइयर (प्रत्यापिबति ) ( वृ ) । १०. कतं कम्मं (क); कडं कम्मं (वृ); कडं (नू)। ११. सं० पा०-- एवं विष्णू वेदणा । १२. ० तरागं ( क ) । १३. मे सीलं मे (क, ख ) । अत्र 'शील' शब्दोऽधिकः प्रतीयते । शीलस्य नात्र कश्चित् प्रसङ्गः । वृत्तिकृता लिखितमपि पुष्णातीदम् -- एतच्च हस्तपादादिकं स्पर्शनेन्द्रियपर्यवसानं शरीरावयवसंबन्धित्वेन विवक्षितम् । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्भवणं (पोंडरीए) ३६३ छाया मे सोयं मे चक्खुं मे धाण में जिन्भा मे फासा' मे ममाति, वयाओ परिजूरइ', तं जहा - आऊओ वलाओ वण्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ" • चक्खूओ घाणाओ जिन्भाओ फासाओ । सुसंधिता' संधी विसंधीभवति, वलितरंगे गाए भवति, किण्हा केसा पलिया भवति' । जं पि य इमं सरीरगं उरालं आहारोवचियं. एवं पिय में अणुपुब्वेणं विप्पजहियव्वं भविस्सति ॥ भिक्खुणो लोगनिस्सा विहार पर्व ५३. एवं संखाए से भिक्खु भिक्खायरियाए समुट्टिए दुहओ लोगं जाणेज्जा, तं जहा -- जीवा चेव, अजीवा चेव । तसा वेव, थावरा चैव ॥ ५४. इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा- जे इमे तसा थावरा पाणा - ते सयं समारंभंति, अण्णेण वि समारंभावेति, अण्णं पि समारंभंत समणुजाणंति । इह खलु गारत्धा सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा - जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते सयं परिगिण्हंति, अणेण वि परिगिण्हावेत, अण्णं पि परिगिण्हंतं समणुजाणंति । इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे । जे खलु गारत्था सारंभा सपरिगहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, एतेसिं चेव णिस्साए बंभरवासं वसिस्सामो । कस्स णं तं हेउ ? जहा पुव्वं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुव्वं । अंजू एते" अणुवरया अणुवट्टिया पुणरवि तारिसगा चेव । जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा परिग्गहा दुहओ पावाई कुव्वंति, इति संखाए दोहि वि अंतेहि अदिस्समाणो । इति भिक्खू रीएज्जा | १. स्पर्शनेन्द्रियम् (वृ) । २. ममातिज्जति ( क, ख ) 1 ३. पडिजूरइ ( ख ) । ४. सं० पा० सोयाओ जाव फासाओ । ५. सुसंधितो (क्व ) 1 ६. भवंति तं जहा (क, ख, बृ); अत्र 'तं जहा' इति पाठो नावश्यक प्रतिभाति, किन्तु वृत्तिकारेणादर्श लब्धः तेन व्याख्यातः । चूर्णो नैष लभ्यते । ७. ० वइयं ( ख ) ! X (ख) 1 सतं ( क ) 1 वेते ( क ) | ८. ६. १०. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ सूडो २ ५५. से बेमि- पाईणं वा पडीणं वा उदीर्ण वा दाहिणं वा एवं से परिण्णातकम्मे, एवं से ववेकम्मे, एवं से वियंतकारए भवइत्ति मक्खाय ॥ अहिंसा धम्मपदं ५६. तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - पुढवीकाए ' • आउकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए "तसकाए । से जहाणामए मम असायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा" वा कवालेण वा आउडिज्जमाणस्स' वा हम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिज्ज - माणस्स वा परिताविज्जमाणस्स वा 'किलामिज्जमाणस्स वा उद्द्विज्जमाणस्स वा" जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि – इच्चेवं जाण । सब्वे पाणा सब्वे भूया सव्वे जीवा सब्वे सत्ता दंडेण वा' 'अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लुणा वा कवालेण वा आउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्जमाना वा परिताविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्द्विज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारणं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति । एवं गच्चा सव्वे पाणा" "सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परितव्वा ण परितावेयव्वा" ण उद्दवेयव्वा ॥ ५७. से बेमि – जे " अईया, जे य पडुप्पण्णा, जे य आगमेस्सा" अरहंता भगवंतो" सब्बे एवमाइक्खति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति - सव्वे पाणा" सव्वे भूया सब्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वाण परितायव्वा ण उद्वेयव्वा ॥ ५८. एस धम्मे धुवे णितिए सासए समेच्च लोगं खेयहि पवेइए" ॥ भिक्खुचरिया पर्द ५६. एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाओ" "विरए मुसावायाओ विरए अदत्तादाणाओ १. विवेय ० ( क ); वियवेय ( ख ) 1 २. व्या० वि० - मकार : अलाक्षणिक: 1 ३. सं० पा० - पुढविकाए जाव तसकाए । ४. अस्सायं ( ख ) | ५. लेलूण ( ख ) । ६. आउट्टि ° ( ख ) 1 ७. वा ताविज्जमाणस्स वा ( क ) । ८. उद्द्विज्जमाणस्स वा किलामिज्जमाणस्स वा (क); किलाभिज्जमाणस्स वा (चू); परि क्लाम्यमानस्य (a ) । ६. सं० पा० - दंडेण वा जाव कवालेण । १०. सं० पा०- पाणा जाव सत्ता । ११. परितापेयव्वा ( क ) 1 १२. जे य ( क ) । १३. आगमिस्सा ( क, ख ) 1 १४. भगवंता ( क, ख ) 1 १५. सं० पा० पाणा जाव सत्ता । १६. तोलनीयम् - आयारो ४।१ २ । १७. सं० पा० - पाणाइवायाओ जाव विरए । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं (पोंडरीए) o विरए मेहुणाओ विरए परिग्गहाओ । णो 'दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा", जो अंजणं, गोमणं, णो विरेयणं, णो धूवणे, जो तं परियाविएज्जा' । ६०. से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिणिव्वुडे जो आसं पुरतो करेजा इमेण मे दिद्वेण वा सुएण वा मरण' वा विष्णाएण वा, इमेण वा सुचरिय-तव-नियम-बंभचेरवासेणं, इमेण वा जायामायाबुत्तिएणं' धम्मेणं इतो चुते पेच्चा' देवे सिया 'कामभोगाण वसवत्ती", सिद्धे वा अदुक्ख सुहे । एत्थ वि सिया, एत्थ वि णो सिया || ६१. से भिक्खू 'सदेह अमुच्छिए रूवेहिं अमुच्छिए गंधेहिं अमुच्छिए रसेहिं अमुच्छिए फासेहि" अमुच्छिए, विरए - कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादंसण सल्लाओ - इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते || ६२. से भिक्ख" जे इमे तस्थावरा पाणा भवंति - ते णो सयं समारंभइ, णो अण्णेहिं समारंभावेइ, अण्णे समारंभंते विण समणुजाणइ - इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्टिए पडिविरते || ६३. से भिक्खू -- जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा--ते णो सयं परिगिण्हइ, 'णो अणे" परिगिण्हावेइ, अण्णं परिगिण्हतंपि ण समणुजाणइ - इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते || ६४. से भिक्खू --जं पि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जइ- णो तं सयं करेइ, 'णो अण्णेणं* कारवेइ, अण्णं पि करेंतं 'ण समणुजाणइ " -- इति से महतो आदाओ उवसंते उवट्टिए पडिविरते ।। ६५. से" भिक्खू जाणेज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अस्सिपडियाए १. दंनवणेणं दंते धोवेज्जा (च्) । २. चूर्णो वृत्तो व 'विरेवणं' व्याख्यातमस्ति; प्रत्योः नोपलभ्यते । ३. ० दितेज्जा ( क ) | ४. कुज्जा ( ख ) 1 ५. मुण (क, ख ) । ६. ० वत्तिएणं ( ख ) 1 ७. पिच्चा ( क, ख ) 1 ३६५ ८. कामं कमी कामवसवती (चू) । ६. ० मसुभे ( ख ) 1 १०. सद्देसु जाव फासेसु ( क ) । १५. णाणुजाण (क, ख ) 1 ११. चूर्णो वृत्ती चास्य पाठांशस्य संबन्ध: पूर्वसूत्रेण १६. तोलनीयम् ' आयारचूला' १।१२ । योजितः, किन्तु 'से भिक्खु' 'जे इमे' इति सूत्रस्य कर्तृ पदमस्ति तेनास्माभिः प्रस्तुतसूत्रेणैवास्य सम्बन्धयोजना कृता । अग्रिमसूत्रे चूर्णिकृतापि इत्थमेव योजना कृतास्ति । १२. वण्णेहिं ( ख ) ; अत्र पारिपारिकप्रकरणे कारितानुमोदने प्रायः एकवचनमस्ति किन्तु अत्र बहुवचनं लभ्यते । १३. ठेवणे ( क ) । १४. नेवण्णं ( क, ख ) 1 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ सूयगडो २ एग साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूयाइं जीवाइं सत्ताई समारब्भ' समुहिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्ज अणिसटुं अभिहडं आहट्टद्देसियं, तं चेतियं सिया, तंणो सयं भुंजइ, णो अण्णं भुंजावेइ, अण्णं पि भुजंतं ण समणुजाणइ --इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते॥ ६६. से भिक्खू अह पुण एवं जाणज्जा-तं विज्जइ तेसिं परक्कमे । जस्सद्वाए चेतियं सिया, तं जहा–अप्पणो पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाण धातीणं णातीणं राईणं दासाणं दासोणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाणं' पुढो पहेणाए सामासाए पातरासाए सणिहि-सण्णिचओ कज्जति, इह एएसि माणवाणं भोयणाए। तत्थ भिक्खू परकड-परणिद्वितं उग्गमुप्पायणेसणासुद्धं सत्थातीतं सत्थपरिणामितं अविहिसितं एसितं वेसितं सामुदाणियं पण्णमसणं' कारणट्ठा पमाणजुत्तं अक्खोवंजण-वणलेवणभूयं, संजमजायामायावृत्तिय बिलमिव पण्णगभूतंणं अप्पाणेणं आहारं आहारेज्जा-अण्णं अण्णकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेण लेणकाले सयणं सयणकाले । धम्म-देसणा-पदं ६७. से भिक्ख मायण्णे अण्णयरि दिसं वा अणुदिसं वा पडिवणे धम्म आइक्खे विभए किट्टे, उवढिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए-'संतिं विरति" उवसमं णिव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लावियं अणतिवातियं ॥ ६८. सव्वेसि पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अणुवीइ किट्टए धम्म। ६६. से भिक्ख धम्म किट्टेमाणे-~णो अण्णस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। णो वत्थस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो लेणस्स हेर्ड धम्ममाइक्खेज्जा। णो सयणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। णो अण्णेसि विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा। णण्णत्थ कम्मणिज्जरटुयाए धम्ममाइक्खेज्जा ॥ १. समारम्भ (क)। २. आदेसाणं (ख)। ३. व्या० वि०प्राज्ञम् --पीतार्थेन उपातम् । ४. वत्तियं (ख)। ५. संतिविरति (क, ख, वृ); वृत्तिकारेण 'संतिविरई' इति संयुक्तपाठः स्वीकृतः, तथा च--शान्तिः–उपशम: क्रोधजयस्तत्प्रधाना प्राणातिपातादिभ्यो विरतिः शान्तिविरति:, यदि वा शान्ति:-अशेषक्लेशोपशमरूपा तस्य तदर्थ विरतिः शान्तिविरतिस्तां कथयेत् (वृ), किन्तु चूमिकारेण 'जहा धुते' इति समर्पणं कृतम् । आचारस्य धुताध्ययने (६।१०२) 'सति विरति' इति असंयुक्तः पाठोस्ति । तमनुसत्यास्माभिस्तथैव स्वीकृतः। ६. तथा सोयवियं (ख)। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ पढमं अज्झयणं (पोंडरीए) ७०. इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए' धम्म सोच्चा णिसम्म सम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समुट्ठिया। जे तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म सम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समुट्ठिया, ते एवं सम्वोवगता, ते एवं सव्वोवरता, ते एवं सव्वोवसंता, ते एवं सव्वत्ताए परिणिव्वुड त्ति बेमि ॥ भिक्खु-वणिज्ज-पदं ७१. एवं से भिक्खू धम्मट्ठो धम्मविऊ णियागपडिवण्णे, से जहेयं बुइयं, अदुवा पत्ते पउमवरपोंडरीयं, अदुवा अपत्ते पउमवरपोंडरीयं । ७२. एवं से भिक्खू परिणायकम्मे परिण्णायसंगे परिण्णायगेहवासे उवसंते समिए सहिए सया जए। से एय-वणिज्जे, तं जहा-समणे ति वा माहणे ति वा खंते ति वा दंते ति वा गुत्ते ति वा मुत्ते ति वा इसी ति वा मुणी ति वा कती' ति वा विदू ति वा भिक्खू ति वा लू हे ति वा तीरट्ठी ति वा चरणकरणपारविउ। -त्ति बेमि। समान ३. किती (ख)। १. अंतियं से (क)। २. एवं (ख)। कि( Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खेव-पदं १. सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु किरियाठाणे णामज्भयणे' पण्णत्ते । तस्स अयमट्ठे, इह खलु संजू हेणं दुवे ठाणा एवमाहिज्जंति, तं जहा - धम्मे चैव अधम्मे चैव, उवसंते चैव अणुवसंते चेव ।। अधम्मपक्खे किरियापदं २. तत्थ णं जे से पढमठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे, तस्स णं अयमट्टे, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवति, तं जहा आरिया वेगे अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे । तेसि च गं इमं एयारूवं दंडसमादाणं संपेहाए, तं जहा - रइएस तिरिक्खजोणिएसु माणुसेसु देवेसु जे यावण्णे तहप्पगारा पाणा विष्णू वेयणं वेयंति । तेसि पि य णं इमाई तेरस किरियाठाणाइं भवतीति मक्खायें, तं जहा - अट्ठादंडे, अणद्वादंडे, हिसादंडे, अकस्मादंडे, दिद्विविपरियासियादंडे, मोसवत्तिए. १. णाममज्झणे ( क ) । २. विहंगे ( क, ख ) 1 ३. हुस्स ० ( क ) । ati hai faरियाठाणे ४. डंड° (ख) 1 ५. मक्खायाई (क, चू) | ६. व्या० वि० - अत्र अकारस्य दीर्घत्वम् । ७. व्या० वि० - अत्र अकारस्य दीर्घत्वम् । ८. कम्हा ० ( क, ख ) ; इह चाकस्मादित्ययं शब्दो मगधदेशे सर्वेणाप्यागोपालाङ्गनादिना संस्कृत एवोच्चार्यत इति ( वृ०, सू० ६ ) | ९. ० विप्परि ० ( ख ) 1 ३६८ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ati अ ( किरियाठाणे) अट्ठादंड-पदं ३. ४. अदिण्णादाणवत्तिए, अज्झतिथए, माणवत्तिए, मित्तदोसवत्तिए, मायावत्तिए, लोभवत्तिए, इरियावहिए || अट्ठादंड-पर्द पढमे दंडसमादाणे अादंडवत्तिए' त्ति आहिज्जइ 'जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा पाइहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहे वा मित्त वा णागहेउं वा भूयहेउं वा जक्खहेउं वा तं दंडं तस्थावरेहिं पाणेहि सयमेव णिसिरति, अण्णेण वि णिसिरावेति अण्णं पि णिसितं समजापति । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए ति आहिए | अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणद्वादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति, ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए जो सोणियाए णो हिययाए णो पित्ताए णो बसाए जो पिच्छाए' णो पुच्छाए जो बालाए जो सिंगाए णो विसाजाए 'णो दंताए णो दाढाए" णो णहाए णो व्हारुणिए णो अट्ठीए णो अट्ठिमिजाए, 'णो हिंसिस मेत्ति, णो हिंसंति मे त्ति, णो हिंसिस्संति" मेत्ति, पुत्तपोसणा णो पसुपोसणाए" णो अगारपरिवहणयाए" णो समणमाहणवत्तणाहेउ णो तस्स सरीरगस्स 'किंचि विपरियाइत्ता" भवति । १. अट्ठादंडे (वृ) | २. केति (क, ख ) । ३. परियार ( ) | ४. अट्ठादंडे (क, ख ) 1 ३६ε से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता ओदवइत्ता" उज्झिउं वाले वेरस्स आभागी भवति - अणट्ठादंडे | से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवति, तं जहा - इक्कडा इवा ५. एवं हियाए पित्ताए (क. ख ) । ६. पिछाए ( क ) । ७. वृत्ती नैती शब्द व्याख्यास्त: 1 ८. मंजाए (ख) 1 ६. चूर्णी कालत्रयेपि एकवचनम् । १०. पसुपोसणयाए ( क ) । ११. परिवहणताएं ( क ) 1 १२. ० वत्तियहेडं ( क ) 1 १३. किंचि परियादित्ता ( क ); किञ्चित् परित्राणं (बु) । १४. उवद्दवता ( क ) । १५. भवति - से ( क ) 1 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० सूयगडो २ कडिणा' इ वा जंतुगा इ वा परगा इ वा मोरका इ वा तणा इ वा कुसा इ वा कुच्छगा' इ वा पव्वगा' इ वा पलाला' इ वा ते णो पुत्तपोसणाए' णो पसुपोसणाए णो अगारपरिवहणयाए' णो समणमाहणवत्तणाहेउं णो तस्स सरीरगस्स 'किंचि विपरियाइत्ता" भवति । से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता ओदवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवइ-अणट्ठादंडे । से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा मंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा वणंसि वा वणविदुग्गंसि वा 'पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय-सविय सयमेव अगणिकायं णिसिरति, अण्णण वि अगणिकायं णिसिरावेति, अण्णं पि अगणिकायं णिसिरंत समणुजाणति-अणट्ठादंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ । दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिए ॥ हिंसादंड-पदं ___ अहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ .. से जहाणामए केइ पुरिसे ममं वा ममियं" वा अण्णं वा अण्णिय वा हिसिंसु वा, हिंसंति वा, हिंसिस्संति'" वा, तं दंडं तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरइ, अण्णेण वि णिसिरावेइ, अण्णं पि णिसिरंत समणुजाणइ-हिंसादंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्ज" ति आहिज्जइ । तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिए त्ति आहिए । १. कठिणा (ख)। है. वत्ती नेमो शब्दी स्वीकृती स्तः, यथा--- २. कुच्चग (आयारचूला–२।६३)। कच्छादिकेषु दशसु स्थानेषु वनदुर्गपर्यन्तेषु । ३. पप्पगा (क, ख); पिप्पलगं (आयारचूला- १०. सावज्जे (क, ख)। ११. ममि (ख)। ४. पलालए (क, ख)। १२. अणि (ख)। ५. ° पोसणयाए (क) सर्वत्र । १३. वृत्तौ कालत्रये पि एकवचनमस्ति, किन्तु ६. अगारपोसणयाए (क, ख) 1 इतः पूर्वस्मिन् सूत्रे कालत्रये पि तन बहु७. समणमाहणपोसणयाए (क, ख)! वचनं व्याख्यातमस्ति । ८. किंचि परियादित्ता (क); किमपि परित्रा- १४. सावज्जे (क)। णाय (वृ)। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) अकस्मादंड-पदं ६. अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मादंडवत्तिए' त्ति आहिज्जइ से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा 'दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा मंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गसि वा वणंसि वा वणविद् गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा मियवत्तिए' मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता "एते मिय' त्ति काउं अण्णयरस्स मियस्स वहाए उसं' आयामेत्ता णं णिसि रेज्जा, से "मियं वहिस्सामि" त्ति कटट तित्तिरं वा वटा वा 'चडगं वा" लावगं वा कवोयगं वा कवि वा कविजलं वा विधित्ता भवति - इति” खलु से अण्णस्स अट्टाए अण्णं फुसइ-अकस्मादंडे ।। से जहाणामए केइ पुरिसे सालीणि वा वोहीणि वा कोद्दवाणि वा कंगूणि वा परगाणि वा रालाणि वा णिलिज्जमाणे अण्णयरस्स तणस्स वहाए सत्थं णिसिरेज्जा, से "सामगं तणगं मुकुंदुर्ग वीहीऊसियं" कलेसुयं तणं छिदिस्सामि" ति कट्ठ सालिं वा वीहिं वा कोद्दवं वा कंगं वा परगं वा रालयं वा छिदित्ता भवति इति खलु से अण्णस्स अट्ठाए अण्णं फुसति-अकस्मादंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज ति आहिज्जइ।। चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मादंडवत्तिए आहिए ॥ दिठिविपरियासियादंड-पदं ७. अहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिदिविपरियासियादंडवत्तिए"त्ति आहिज्जइ से जहाणामए केइ पुरिसे माईहिं वा पिईहिं वा भाईहिं वा भगिणीहि वा भज्जाहि वा पुत्तेहि वा धूयाहि वा सुण्हाहि वा सद्धि संवसमाणे मित्तं अमित्तमिति" मण्णमाणे मित्ते हयपुग्वे भवइ-दिट्ठिविपरियासियादंडे । से जहाणामए केइ पुरिसे गामघायंसि वा णगरघायंसि वा खेडघायंसि कब्बडघायंसि मडंबघायंसि वा दोणमुहघायंसि वा पट्टणघायंसि वा १. अकम्हा° (ख)। ७. इह (क, ख)। २. सं० पा.-कच्छंसि वा जाव पव्वयवि- ८. अकम्हा° (ख) सर्वत्र । दुग्गंसि वा; कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि ६. णितिज्जमाणे (ख)। वा (ख); कच्छे वा यावद् वनदुर्गे वा (व)। १०. मुकुंदगं (ख); कुमुदगं (क्व) 1 ३. वित्तिए (ख)। ११. वाहिरूसितं (क)। ४. उसुगं (क)। १२. सावज्जे (क)। ५. स (ख)। १३. ° दंडे (क, ख)। ६. x (क)! १४. अमित्तमेव (ख)। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ सूयगडो २ आसमघायंसि वा सण्णिवेसघायंसि वा णिगमधायंसि वा रायहाणिधायंसि वा अतेणं तेणमिति मण्णमाणे अतेणे हयपुव्वे भवइ --दिट्ठिविपरियासियादंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्ज' ति आहिज्जइ। पंचमे दंडसमादाणे दिट्ठिविपरियासियादंडवत्तिए त्ति आहिए ।। मोसवत्तिय-पदं ___ अहावरे छठे किरियट्ठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिज्जइ-- से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेडं वा णाइहे' वा अगारहेउं वा परिवारहेडं सयमेव मुसं वयति, अण्णेण वि मुसं वयावेइ, मुसं वयंत पि अण्णं समणुजाणति । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्ज ति आहिज्जइ । छ8 किरियट्ठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिए ।। अदिण्णादाणवत्तिय-पदं ६. अहावरे सत्तमे किरियट्ठाणे अदिण्णादाणवत्तिए त्ति आहिज्जइ से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा' 'णाइहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेडं वा सयमेव अदिण्णं आदियति, अण्णण वि अदिग्णं आदियावेति, अदिण्ण आदियंतं पि अण्णं समणुजाणइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ। सत्तमे किरियट्ठाणे अदिण्णादाणवत्तिए त्ति आहिए । अज्झत्थिय-पदं १०. अहावरे अट्ठमे किरियट्ठाणे अज्झथिए ति आहिज्जइ---- से जहाणामए केइ पुरिसे----णत्थि णं केइ किंचि विसंवादेइ-सयमेव होणे दीणे दट्टे दुम्मणे ओहह्यमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपविढे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्माणोवगए भूमिगयदिट्ठिए झियाति, तस्स णं अज्झत्थिया असंसइया चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जति, तं जहा–कोहे माणे माया लोहे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ। अट्ठमे किरियट्ठाणे अज्झथिए त्ति आहिए ।। ---- -- - -- १. सावज्जे (क) २. दंडे (क, ख)। ३. णाय ° (क, ख)। ४. सं० पा०-- आयहेउं वा जाव परिवारहे । ५. किरियाठाणे (क, ख)। ६. अज्झत्थवत्तिए (ख)। ७. ° सागरपविटे (वृ)। ८. आसंसइया (ख)। ६. लोहे । अज्झत्थमेव कोहमाणमायालोहे (क्व)। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयण (किरियाठाणे) ३७३ माणवत्तिय-पदं ११. अहावरे णवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिए त्ति आहिज्जइ--- से जहाणामए के इ पुरिसे जाइमदेण वा कुल मदेण वा बलमदेण वा रूवमदेण वा तवमदेण वा सुयमदेण वा लाभमदेण वा इस्सरियमदेण वा पण्णामदेण वा, अण्णयरेण वा मट्ठाणेणं मत्ते समाणे परं होलेति णिदेति खिसति गरिहति परिभवति अवमण्णति । "इत्तरिए' अयं, अहमंसि पुण विसिट्ठजाइकुलबलाइगुणोववेए"—एवं अप्पाणं समुक्कसे' । देहा चुए कम्मबिइए" अवसे पयाति, तं जहा-गब्भाओ गभं जम्माओ जम्मं माराओ मारं णरगाओ णरगं । चंडे थद्धे चवले माणी यावि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्ज ति आहिज्जइ। शवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिए त्ति आहिए ॥ मित्तदोसवत्तिय-पदं १२. अहावरे दसमे किरियट्ठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति आहिज्जइ से जहाणामए केइ पुरिसे माईहि वा पिईहिं' वा भाईहिं वा भइणीहि वा भज्जाहि वा धूयाहि वा पुत्तेहि वा सुण्हाहि वा सद्धि संवसमाणे तेसिं अण्णयरंसि अहालहुगंसि अबराहंसि सयमेव 'गरुयं दंडं णिव्वत्तेति", तं जहा --सीओदगवियडंसि वा कायं उब्बोलेत्ता भवइ, उसिणोदगवियडेण वा कायं ओसिंचित्ता भवइ, अगणिकायेणं कायं उद्दहित्ता भवइ, जोत्तेण वा वेत्तेण वा णेत्तेण वा तया' वा 'कसेण वा छियाए वा लयाए वा 'अण्णयरेण वा दवरएण'१४ पासाई उद्दालित्ता भवति, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा" वा कवालेण वा कायं आउट्टित्ता' भवति । १. गरहति (ख)। बकारहकारयोरपि सादृश्यमस्ति, ततो २. इत्तिरिए (क)। लिपिदोषेण 'उबो [ब्बो लेत्ता' स्थाने ३. समुक्कोसे (ख)। 'उच्छोलेत्ता' जातमिति प्रतीयते ।। ४. वितिए (क)। ६. उस्सिचिता चू)। ५. मादीहिं (क)। १०. उवडहिता (ख); उड्डहित्ता (चू) । ६. पितिहिं (ख)। ११. तयाइ (ख)। ७. गुरुयं डंडं बत्तेति (क)। १२. कमेण (क) कडएण (चू)। ८. उबोलेत्ता (क); उच्छोलित्ता (ख); १३. X (वृ)। उद्बोडयिता-अत्र 'बोल' धातु प्रयोगो १४. ४ (क, ख, चू)। वर्तते। वृत्तावपि 'बोलयिता' इति १५. ले लूण (ख)। व्याख्यातमस्ति। प्राचीनलिप्या संयुक्त- १६. उपताडयिता (ब)। बकारस्य तथा संयुक्छकारस्य, असंयुक्त Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सूयगडो २ तहप्पगारे पुरिसजाते संवसमाणे दुम्मणा भवंति, पवसमाणे सुमणा भवति । तहप्पगारे पुरिसजाते दंडपासी, दंडगरुए', दंडपुरक्खडे, अहिते इमंसि लोगंसि, अहिते परंसि लोगंसि, संजलणे कोहणे, पिट्ठिमंसियावि' भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तिय सावज्ज ति आहिज्जति । दसमे किरियट्ठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति आहिए ।। मायावत्तिय-पदं १३. अहावरे एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिए त्ति आहिज्जइ'-जे इमे भवंति गूढायारा तमोकासिया' उलूगपत्तलहुया पव्वयगुरुया, ते आरिया वि संता अणारियाओ भासाओ पउंजंति', अण्णहा संतं अप्पाणं अण्णहा मण्णंति, अण्णं पुटा अण्णं वागरेति, अण्णं आइक्खियव्वं अण्णं आइक्खंति । से जहाणामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले तं सल्लं णो सयं णीहरति, णो अण्णण णीहरावेति', णो पडिविद्धंसेति, एवमेव णिण्हवेति, अविउट्टमाणे अंतो-अंतो रियाति', एवमेव माई मायं कटु णो आलोएइ, णो पडिक्कमेइ, णो णिदइ, णो गरहइ, णो विउट्टइ, णो विसोहेइ, जो अकरणाए अन्भुढेइ, णो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जइ । माई अस्सि लोए पच्चायाति, माई परंसि लोए पच्चायाति", णिदइ, पसंसति, णिच्चरति, ण"णियट्टति, णिसिरिया" दंडं छाएइ, माई असमाहडसुहलेस्से" यावि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्ज ति आहिज्जइ । एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिए त्ति आहिए । लोभवत्तिय-पदं १४. अहावरे बारसमे किरियट्ठाणे लोभवत्तिए त्ति आहिज्जइ-जे इमे भवंति १. गुरुए (क, ख)। २. पट्ठि° (ख)। ३. आहिज्जइ, तं जहा--(व)। ४. तमोकाइया (चू)। ५. उलुग° (ख, चू)। ६. विउंजंति (क, चू); विप्पांजति (ख) । ७. सति (क)। ८. णीहारा (ख)। है. झियाति (ख); झोसियाति (च)] १०. माती (क), ११. पुणो पुणो पच्चा (वृ)। १२. निदइ महाय (क); निदइ गरहइ (ख); निंदा गरहा (चू)। १३. गो (चू)। १४. निसिरिय (ख, चू)। १५. मायी (क, ख)। १६. असमाहिद° (क); असमाहडलेस्से (चू) । १७. आहिज्जइ, तं जहा-(व)। १८. भवन्ति, तं जहा (ब)। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयण (किरियाठाणे) ३७५ आरपिणया आवसहिया गामंतिया कण्हईरहस्सिया' णो बहसंजया, णो बहुपडिविरया सबपाणभयजीवसत्तेहि, ते अप्पणा' सच्चामोसाइं एवं विउंजंति- अहं ण हंतव्वो अण्णे हंतव्वा, अहं ण अज्जावेयव्वो अण्णे अज्जावेयव्वा, अहं ण परिघेतवो अण्णे परिघेतव्वा, अहं ण परितावेयव्वो अण्णे परितावेयव्वा, अहं ण उद्दवेयव्वो अण्णे उद्दवेयव्वा । एवामेव ते इत्थिकामेहि मुच्छिया गिद्धा गढिया' अज्झोववण्णा जाव वासाई चउपंचमाई छ।समाई अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुंजित्तु भोगभोगाइं कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु आसुरिएसु किबिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवति । तओ' विप्पमुच्चमाणा भुज्जो ‘एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइमूयत्ताए पच्चायंति । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज ति आहिज्जइ । दुवालसमे किरियट्ठाणे लोभवत्तिए त्ति आहिए ।। १५. इच्चेताई दुवालस किरियट्ठाणाई दविएणं समजेणं वा माहणेणं वा सम्म सुपरिजाणियव्वाणि भवंति ।। इरियावहिय-पदं १६. अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिए ति आहिज्जइ-इह खलु अत्तत्ताए संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियस्स आयाणभंड-ऽमत्त-णिक्खेवणासमियस्स उच्चार-पासवण-खेल-'सिंघाण-जल्ल'-पारिद्वा १. कण्हुतीराहुसिया (क)। २।२।१८ एलमूयत्ताए तमंधयाए । २. अप्पणो (क)। २।२।५६ एलमूयत्ताए तमूयत्ताए। ३. गढिया गरहिया (क, ख); असौ 'गढिया' २७.२५ एलमूयत्ताए तमोरूवत्ताए। शब्दस्यैव रूपान्तरमस्ति। वृत्तिकारण २।२।१४ स्थाने चूर्णी 'तमोकाइयत्ताए' चत्वार एवं शब्दा व्याख्याता:, यथा- पाठोस्ति, २।२।१८, २.७।२५ अनयो; मूच्छिता गृद्धा ग्रथिता अध्युपपन्नाः । स्थलयोरपि तमोकाइयत्ताए' इत्यस्य ४. तातो (क)। तुल्यार्थतास्ति । तेन प्रतीयतेत्र तमोवाचकः ५. तम्मूय° (क); X (ख); तमोकाइयत्ताए पाठः प्रयुक्तोस्ति । 'तमूयत्ताए' इत्यपि 'तमोयत्ताए' [तमस्तया] इत्यस्य ऊकारकृतः ६. 'एलमूयत्ताए' इति पाठश्चतुर्ष स्थलेषु प्रयोगो वर्तते । अस्माभिः यस्मिन स्थले विद्यते। तत्र अग्रिमः पाठः सर्वत्र भिन्नोस्ति, यादशः पाठो लब्धः तादृशः एव स्वीकृतः । यथा ७. पडिलेहितव्वाणि (चू)। २।२।१४ एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइमूय- ८. तेरसे (क) । ताए। ९. जल्ल-सिंघाणग (क)। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ सूयगडो २ वणियासमियस्स मणसमियस्स वइसमियस्स' कायसमियस्स मणगुत्तस्स वइगुत्तस्स कायगुत्तस्स गुत्तिदियस्स गुत्तबंभयारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स' आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं णिसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस्स 'आउत्तं भुंजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स" आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवायमवि, अस्थि विमाया सुहमा किरिया इरियावहिया णाम कज्जइ-सा पढमसमए बद्धपुट्ठा बितियसमए' वेइया ततियसमए णिज्जिण्णा ! सा बद्धपुट्ठा उदीरिया वेइया णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्मयाऽवि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं आहिज्जइ । तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिए त्ति आहिए। १७. से बेमि-- जे य अईया जे य पडुप्पण्णा जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंता सव्वे ते एयाई चेव तेरस किरियाणाइं भासिंसु वा भासेंति वा भासिस्संति वा, पण्णवेंसु वा पण्णवेति वा पण्णवेस्संति वा, एवं चेव तेरसम किरियट्ठाणं सेविसु वा सेवंति वा सेविरसंति वा ॥ पावसुयज्झयण-पदं १८. अदुत्तरं च णं पुरिस-विजय-विभंगमाइक्खिस्सामि-इह खलु णाणापण्णाणं णाणाछंदाणं णाणासीलाणं णाणादिट्ठीणं णाणारुईण" णाणारंभाणं णाणाज्भवसाणसंजुत्ताणं 'इलोगपडिबद्धाणं परलोगणिप्पिवासाणं विसयतिसियाणं इणं" णाणाविहं 'पावसुयज्झयणं भवइ", तं जहा–१. भोमं २. उप्पायं ३ सुविणं १. वयसमि° (ख)। चौं वत्तौ चापि नास्ति स पाठो व्याख्यातः। २. वयगु° (ख)। चूर्णिकारेण स्पष्ट कृतमस्ति विवेचनम्३. आणपाणमाणस्स (चु)! हेदिल्ला पुण सावज्जा चेव बारस किरिया४. आउत्तं भुंजमाणस्स (ख);x (चू)। हामाई भवति, एवं पव्वइओ वा उप्पव्वइओ ५. बद्धा (ख)। वा, एवं सरागसंयतस्स सावज्जो चेव (चूर्णी ६. बिईय ° (क्व)। पृ०३५३) । वृत्तिकारेणापि 'सावज्ज' ७. अकम्मं या वि (च)। शब्दस्य नोल्लेखः कृतः । एवं तावद् वीतरा८. तोलनीयम्-भगवती ३११४८ । गस्येर्याप्रायकं कर्म 'आधीयते'--संबध्यते। ६. तप्पत्तियं सावज्जति (क, ख); प्रयुक्तप्रत्योः (वृत्तिपत्र ५८ पंक्ति ६)। तथान्येष्वपि प्रचुरेषु आदर्शषु 'सावज्ज' अथवा १०. तेरसे (क)। 'सावज्जे' पाठोत्र लभ्यते, किन्तु पूर्ववर्ति- ११. ° रुतीणं (क) । द्वादशक्रियास्थानगताभ्यासेन लिपिप्रमादोसौ- १२. X(क, ख)। जात इति प्रतीयते । अर्थविचारणया १३. पावसुत्तपसंग वण्णइस्सामि (चू); पावसुयनासौ पाठः संगतोस्ति। ईपिथिक्या: झयणं एवं भवइ (क, ख)। क्रियाया बन्धो न च नाम सावद्यो भवति । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) ४. अंतलिक्खं ५. अंगं ६. सरं ७. लक्खणं ८. वंजणं ६. इत्थिलक्खणं १०. पुरिसलक्खणं ११. हयलक्खणं १२. गयलक्खणं १३. गोणलक्खणं १४. मेंढलक्खण १५. कुक्कुडलक्खणं १६. तित्तिरलवखणं १७. वट्टगलक्खणं १८. लावगलक्खणं १६. चक्कलक्खणं २०. छत्तलक्खणं २१. चम्मलक्खणं २२. दंडलक्खणं २३. असिलक्खणं २४. मणिलक्खणं २५. कागणिलक्खणं २६. सुभगाकरं २७. दुब्भगाकरं २८. गब्भाकरं २६. मोहणकरं ३०. आहवणि ३१. पागसासणि ३२. दव्वहोम ३३. खत्तियविज्जं३४. चंदचरियं ३५. सूरचरियं ३६. सुक्कचरियं ३७. बहस्सइचरियं' ३८. उक्कापायं ३६. दिसादाह ४०. मियचक्क ४१. वायसपरिमंडल ४२. पंसुवुट्टि' ४३. केसवुट्टि ४४. मंसवुढेि ४५. रुहिरवुद्धि ४६. वेयालि ४७. अद्धवेयालि ४८. ओसोणि ४६. तालुग्घाडणि' ५०. सोवागि ५१. सावरि ५२. दामिलि ५३. कालिगि ५४. गोरि ५५. गंधारि ५६. 'ओवणि ५७. उप्पणि' ५८. जणि ५६. थंभणि ६०. लेसणि ६१. आमयकरणि ६२. विसल्लकरणि ६३. पक्कमणि" ६४. अंतद्धाणि ।। एवमाइयाओ विज्जाओ अण्णस्स हेउं पउंजंति", पाणस्स हेउं पउंजंति, वत्थस्स हेउं पउंजंति, लेणस्स हेउं पउंजंति, सयणस्स हेउं पउंजंति, अण्णेसि वा विरूवरूवाणं कामभोगाण हेउं पउंजंति, तेरिच्छं" ते विज्ज सेवंति", ते अणारिया विप्पडिवण्णा कालमासे कालं किच्चा 'अण्णयरेसु आसुरिएसु किब्बिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति । ततो वि विप्पमुच्चमाणा" भुज्जो एलमूयत्ताए तमंधयाए पच्चायति ॥ चउद्दसविह-कूरकम्मकरण-पदं १६. से एगइओ आयहेउं वा 'गाइहेउं वा“ अगारहेउं वा परिवारहेङ वा णायगं वा सहवासियं वा णिस्साए---१. अदुवा अणुगामिए २. अदुवा उवचरए १. पागसासणं (ख)। २. खत्तीविज्जं (ख)। ३. विहप्फति° (क)। ४. दिसीदाहं (क)। ५. पंसुवुट्ठी (क) ६. ओसोयणि (क)। ७. तालुग्घाडणं (ख)। ८. सावरि (क); शाम्बरी (व)। ६. दामलि (ख)। १०. उप्पतणि णिवडतणि कंपणि (च)। ११. Xचू)। १२. अंतद्वाणिं आयमणि (ख)। १३. विउंजंति (क) सर्वत्र। १४. तिरिच्छं (क्व)। १५. सेवेंति (क, ख)। १६. अण्णयराई आसुरियाई किब्बि सियाई ठाणाइ (क, ख)। १७. विप्पमुक्का (वृ)। १८. णायहेउं वा (क), णायहेउं वा सयणहेउं वा (ख)। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ सूयगडो २ ३. अदुवा पाडिपहिए ४. अदुवा संधिच्छेयए' ५. अदुवा गंठिच्छेयए' ६. अदुवा ओरभिए ७. अदुवा सोयरिए' ८. 'अदुवा वागुरिए ९. अदुवा साउणिए" १०. अदुवा मच्छिए ११. अदुवा गोवालए' १२. अदुवा गोघायए १३. अदुवा सोवणिए" १४. अदुवा सोवणियंतिए। से एगइओ अणुगामियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगमिय' हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेति - इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ उवचरगभावं पडिसंधाय तमेव उवचरिय' हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ-इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति। से एगइओ पाडिपहियभावं पडिसंधाय तमेव", पडिपहे ठिच्चा हंता छेत्ता भेत्ता लंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ- इति से महया पावेहिं कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ संधिच्छेदगभावं पडिसंधाय तमेव", संधि छेत्ता भेत्ता९ लपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ°-इति से महया पावेहिं कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ मंठिच्छेदगभावं पडिसंधाय तमेव, गठि छेत्ता भेत्ता 'लुंपइत्ता विलंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ ° ---इति से मया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं" उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ ओरभियभावं पडिसंधाय उरभं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता 'छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ. --इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं ° उवक्खाइत्ता भवति । १. पाडिवधिए (क)। अणुगमिय-अणुशमिय (क्व)। २. संधिछेदए (ख)। ६. चरितं (ख)। ३. गठिभेदए (क); गंठिछेदए (ख)! १०. व्या० वि०–तदेव प्रातिपथिकत्वं कुर्वन् । ४. सोवरिए (क, ख); अत्र लिपिदोषेण 'सोक- ११. व्या० वि०-'प्रतिपद्यते' इति क्रियाशेषः । रिए' अथवा 'सोयरिए' स्थाने 'सोवरिए' १२. सं० पा०--भेत्ता जाव इति । इति पाठो जातः । १३. व्या०वि०—'अनूयाति' इति क्रिया शेषः । ५. अदुवा साउणिए अदुवा वागुरिए (वृ)। १४. सं० पा०-भेत्ता जाव इति । ६. गोपालए (क)। १५. अप्पाणं (क, ख)। ७. सोवणितिए (क); सोतेणिए (ख) १६. सं० पा.-हता जाव उवक्खाइत्ता। ८. अणुगमियाणुगामित (क); अणुगामियाणु- १७. भवति । एसो अभिलावो सव्वत्थ (क, ख)। गमिय (ख); उपचर्य अनुव्रज्य च (वृ); Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) ३७६ से एगइओ सोयरियभावं' पडिसंधाय महिसं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता' 'छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ-इति से महया पावेहि कम्मेहिं अत्ताणं ° उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ वागुरियभावं पडिसंधाय मियं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता' 'छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ-इति से महया पावेहिं कम्मे हिं अत्ताणं° उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ साउणियभावं पडिसंधाय सउणि वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता' "छेत्ता भेत्ता लप इत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ-इति से महया पावेहि कम्मे हि अत्ताणं ° उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ मच्छियभावं पडिसंधाय मच्छं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता' 'छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ–इति से महया पावेहि कम्मे हि अत्ताणं ° उवक्खाइत्ता भवति ।। 'से एगइओ गोवालगभावं पडिसंधाय तमेव गोणं परिजविय" हता' 'छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ-इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं ° उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ गोधायगभावं पडिसंधाय गोणं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हता 'छेत्ता भेत्ता लपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ-इति से महया पावेहिं कम्मेहि अत्ताणं ° उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ सोवणियभावं पडिसंधाय सुणगं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हता" 'छेत्ता भेत्ता लंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ-इति से महया पावेहि कम्मेहिं अत्ताणं° उवक्खाइत्ता भवति । से एगइओ सोवणियंतियभावं पडिसंधाय मणुस्सं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हतार "छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ -इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति ।। १. सोवरिय० (ख) । चूर्णी क्रमप्राप्तं सौकरिक- २. सं० पा०–हता जाव उवक्खाइत्ता । पदं व्याख्यातं नास्ति । गोघातकभावस्या- ३,४,५. सं० पा०-हंता जाव उवक्खाइत्ता। नन्तरं "केइ पूण भणति--सोयरियभावं ति ६. गोणं वा (क, ख)। महिस, अण्णतरो तव्वत्तिरित्तो गोणादि"- ७. परिजविय-परिजविय (क) । (चूर्णी पृ० ३५७) इति उल्लेख: प्राप्यते । ८,९. सं० पा०-हंता जाव उवक्खाइत्ता । वत्तिकारस्य सम्मुखेपि सौकरिकपदस्य पाठः १०. से एगइओ गोधायगभावं 1 से एमइओ स्पष्टो नासीदिति प्रतीयते----"अत्रान्तरे गोवालगभाव ° । (क, ख)। सौकरिकपदं, तच्च स्वबुद्धया व्याख्येयम् ११. सं० पा०-~-हता जाव उवक्खाइत्ता। सौकरिका:-श्वपचाश्चाण्डाला:–खट्टिका १२. सं० पाल–हता जाव आहारं । इत्यर्थः" (वत्ति पत्र ६३ पं० २)। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० सूयगडो २ सप्पओयणं कूरकम्मकरण-पदं २०. से एगइओ परिसामज्झाओ उद्वेत्ता अहमेयं हणामि त्ति कटु तित्तिरं वा वट्टगं वा [चडगं वा' ? ] लावगं वा कवोयगं वा [कवि वा ? |' कविजलं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता' 'छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ-- इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं° उवक्खाइता भवति ।। सद्दादि विसएहि विरुद्धस्स कूरकम्मकरण-पदं २१. से एगइओ केणइ आदाणेणं विरुद्ध समाणे, अदुवा खलदाणेणं, अदुवा सुरा थालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं सस्साई झामेइ, अण्णण वि अगणिकाएणं सस्साइं झामावेइ, अगणिकाएणं सस्साई झामतं पि अण्णं समणुजाण इ-इति से महया पावकम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति । २२. से एगइओ केणइ आदाणेणं विरुद्धे समाणे, अदुवा खलदाणेणं, अदुवा सुरा थालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेइ, अण्णेण वि कप्पावेइ, कप्पंतं वि अण्णं समणुजाणइ-इति से महया' 'पावकम्मे हिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति ।। २३. से एगइओ केणइ आदाणेणं विरुद्धे समाणे, अदुवा खलदाणेणं, अदुवा सुरा थालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टसालाओ वा गोणसालाओ वा घोडगसालाओ वा गद्दभसालाओ वा कंटकबोंदियाए पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ, अण्णेण वि झामावेइ, झामतं पि अण्णं समणुजाणइ-इति से महया “पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति ॥ से एगइओ केणइ आदाणेणं विरुद्ध समाणे, अदुवा खलदाणेणं, अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा कुंडलं वा मणि वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ, अण्णेण वि अवहरावेइ, अवहरंतं पि अण्णं समणुजाणइ-इति से महया" *पावकम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति । २४. १. आहणामि (क)। अयमल्लेखः स्वतंत्रसूत्राणां संकेतोथवा २,३. अस्याध्ययनस्य षष्ठे सूत्रे इमो शब्दो व्याख्यामात्रमिति स्पष्टं न परिज्ञायते । स्तः । ६. घोडाण (क)। ४. सं० पा०-हता जाव उवक्खाइत्ता। ७,८. सं० पा०--महया जाव भवति । ५. चूर्णी अस्य सूत्रस्य व्याख्याया अन्ते 'एवं ६. वा गुणि वा (क)। फासे वि' 'आहतो भरितो वा केणइ असुइणा १०. सं० पा०--महया जाव भवति । खेलेणं उविद्वेण वा' इत्युल्लिखितमस्ति । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीअं अज्झयण (किरियाठाणे) ३८१ संपदायलित्तस्स असव्ववहारकरण-पदं २५. से एगइओ केणइ वि आदाणेणं विरुद्ध समाणे, समणाणं वा माहणाणं वा 'दंडगं वा छत्तगं वा भंडगं वा मत्तगं वा लट्ठिगं वा भिसिगं वा चेलगं' वा चिलिमिलिगं वा 'चम्मगंवा चम्मछेयणगं" वा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरइ', 'अण्णेण वि अवहरावेइ, अवहरंतं पि अण्णं° समणुजाणइ-इति से महया पावकम्मे हि अत्ताणं° उवक्खाइत्ता भवति ।। वोमंसरहियस्स कूरकम्मकरण-पदं २६. से एगइओ नो वितिगिछइ-गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणि काएणं ओसहीओ झामइ', 'अण्णेण वि अगणिकाएणं ओसहीओ झामावेइ, अगणिकाएणं ओसहीओ° झामेंतं पि अण्णं समणुजाणइ-इति से महया' *पावकम्मे हि अत्ताणं उवक्खाइत्ता' भवति ॥ २७. से एगइओ णो वितिगिछइ"--गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव धुराओ कप्पेइ, अण्णेण वि कप्पावेइ, अण्णं पि कप्पंतं समणुजाणइ"-'इति से महया पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवति ।। २८. से एगइओ णो वितिगिछइ-गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टसालाओ वा गोणसालाओ वा घोडगसालाओ वा° गद्दभसालाओ वा कंटकबोंदियाए पडिपेहिता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ", 'अण्णेण वि झामावेइ, झामंतं पि अण्णं° समणुजाणइ ।। १. समाणे, अदुवा खलदाणेणं, अदुवा सुराथा- केनचिन्निमित्तेन कुपितः सन्नेतत्कुर्यादित्याह । लगण (क, स्व); प्रस्तुतसूत्रं 'समणमाहणेन' २. छत्तगं वा दंडगं वा (ख), तोलनीयंसंबद्ध मस्ति, तेनाव 'अदुवा खलदाणेणं अदवा आयारचूला २१४६ ।। सुराथालएणं' इनि पाठो नैव युज्यते । पर्व- ३. चेलं वा (क)। ४. चम्मं वा चम्मछेदणं (क)1 वतिषु सूत्रेषु प्रवर्तमान: पाठोसो अत्रापि ५. सं० पा०—अवहरइ जाव समणुजाणइ । लिपिप्रमादेन पूर्वप्रनलिनक्रमाभ्यासेन वा ६. सं० पा०-महया जाव उवाखाइत्ता। लिवितोस्तीति प्रतीयते । चूर्णी वृत्तौ च ७. गिछद, तं जहा (ख, )। अपहरणस्य यानि कारणानि प्रदर्शितानि न ८. सं० पा०-झामेइ जाव झामेंतं । तेभ्योपि उक्तानुमानस्य परिपुष्टिर्जायते । ___६. सं० पा०-महया जाव भवति । चों यथा--"इमो अण्णो पासंडत्थाण १०. गिछइ, तंजहा (ख, व)। दिदिरागेणं वादे वा पराइतो सयमेव तेसिं ११. सं० पा०-समण जाण । अपणं किंचि णस्थि ज अस्थि तं अवहरति," १२. गिछइ, तंजहा (ख, ब)। वृत्तौ च यथा-"अर्थकः कश्चित्स्वदर्शनानु- १३. सं० पा.----उट्टसालाओ वा जाव गद्दभ । गगेण वा, वादपराजितो वाऽन्येन वा १४. म. पा.---झामेइ जाव' समणुजाण । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सूयगडो २ २६. से एगइओ णो वितिगिछइ'—गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा' 'कुंडलं वा मणि वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ', 'अण्णेण वि अवहरावेइ, अवहरंतं पि अण्णं समणुजाणइ ।। ३०. से एगइओ णो वितिगिछइ'-सभणाण वा माहणाण वा दंडगं वा' 'छत्तगं वा भंडगं वा मत्तगं वा लट्टिगं वा भिसिगं वा चेलगं वा चिलिमिलिगं वा चम्मगं वा चम्मछेयणगं वा सयमेव अवहरइ', 'अण्णेण वि अवहरावेइ, अवहरंतं पि अण्णं ° समणुजाणइ-इति से महया' 'पावकम्मेहि अत्ताण उवक्खाइत्ता भवति॥ से एगइओ समणं वा माहणं वा दिस्सा णाणाविहेहिं 'पावेहिं कम्मे हि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ, अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवइ, अदुवा णं फरसं वदित्ता भवइ, कालेण वि से अणुपविट्ठस्स 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा" णो दवावेत्ता भवति, "जे इमे" भवंति-वोणमंता भारक्कता अलसगा वसलगा 'किवणगा समणगा", ते इणमेव जीवितं धिज्जीवियं संपडिबहेंति"। णाइ ते 'पारलोइयस्स अट्टस्स" किचि वि सिलिस्संति", ते दक्खंति ते सोयंति ते जरंति ते तिप्पंति ते पिटुंति" ते परितप्पति ते दुक्खण-जूरण-सोयण-तिप्पणपिट्टण-परितप्पण-वह-बंध"-परिकिलेसाओ अपडिविरता भवंति। ते महता आरंभेण ते महता समारंभेण ते महता आरंभसमारंभेण विरूवरूवेहिं पावकम्म १. गिछइ, तंजहा (ख, व)। १३. किमणगा पव्वयंति (क); किवणगा समणगा २. सं० पा०-गाहावइपुत्ताण वा जाव पव्वयंति (ख); °श्रमणा भवंति--प्रव्रज्यां मोत्तियं । गृहन्ति (व)। ३. सं० पाo---अवहरइ जाव समणजाणइ। १४. अणमेव (क); इणामेव (ख) । ४. गिछइ, तंजहा (ख, वृ)। १५. धीजीवितं (क)। ५. सं० पा०-दंडगं वा जाव चम्मछेयणगं । जागरण १६. पारलोयस्स (क); पारलोयस्स अट्राए ६. सं० पा०—अवहरई जाव समणुजाणइ । (ख); पारलोइयं अत्थं (चू); पारलोइयस्स ७. स० पा०-महया जाव उवक्खाइत्ता। अदुस्स साहणं (व)। ८. पावकम्मे हि (क, ख)। १७. सिलीसंति (ख) ६. वि य (क)। १८. ११४२,४३,५१-निर्दिष्टाङ्कषु सूत्रेषु 'पीड' १०. असणं वा पाणं वा जाव (क); असणं वा ४ धातुप्रयोगो वर्तते, अत्र च तस्मिन्नेव प्रकरणे जाव (ख)। 'पिट' धातुप्रयोगो लभ्यते । नानयोः कश्चि११. अपरं च दानोद्यत निषेधयति तत्प्रत्यनीकतया, दर्थ भेद: संभाव्यते। एतच्च ब्रूते-ये इमे पाषण्डिका भवंति... १६. बंधण (ख) । २०. अप्पडिविरया (क्व) . १२. भारोक्कता (क, ख)। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) किच्चेहिं उरालाई माणस्सगाई भोगभोगाइं भुजित्तारो भवंति, तंजहा--अण्ण अण्णकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले । सपुव्वावरं च णं व्हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-'पायच्छित्ते सिरसा ग्रहाए कंठेमालकडे आविद्धमणि सुवण्णे कप्पियमालामउली पडिबद्धसरीरे वग्धारिय-सोणिसुत्तग-मल्ल-दामकलावे अहयवत्थपरिहिए चंदणोक्खित्तगायसरीरे'' महइमहालियाए कूडागारसालाए महइमहालयंसि सीहासणंसि इत्थीगुम्मसंपरिवुडे 'सव्व राइएणं जोइणा झियायमाणेणं" महयाहय-पट्ट-गीयवाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइय-रवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ। तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अवत्ता चेव अब्भद्रेतिभण देवाणुप्पिया! किं करेमो ? किं आहरेमो? कि उवणेमो ? कि उवट्ठावेमो ? कि भे हिय इच्छियं ? किं भे आसगस्स सयइ ? तमेव पासित्ता अणारिया एवं वयंति --देवे खलु अयं पुरिसे ! देवसिणाए खलु अयं पुरिसे ! 'देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरिसे" ! अण्णे वि य णं उवजीवंति । तमेव पासित्ता आरिया वयंति-अभिक्कतकूरकम्मे खलु अयं पुरिसे, अइधूए", अइआयरक्खे दाहिणगामिए णेरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लहबोहिए" यावि भविस्सइ ।। ३२. इच्चेतस्स ठाणस्स उद्वित्ता वेगे अभिगिझंति, अणुद्वित्ता वेगे अभिगिझंति, अभिझंझाउरा अभिगिज्झति ! एस ठाणे अणारिए अकेवले अप्पडिपुण्णे 'अणेयाउए असंसुद्धे" असल्लगत्तणे १. ओरालाई (क)। ६. एतावान् पाठो वृत्तौ नास्ति व्याख्यातः । २. मणुस्स ° (क, ख) । ७. आविद्ध वेमो (क), आचिट्ठामो, आविट्ठवेमो ३. यद्यपि चूणिकारवत्तिकाराभ्यां जे इमे (क्व)। भवति' इत: 'समणगा' पर्यन्तं अन्तर्वाक्यं ८. हियं ० (ख)। स्वीकृतं किन्तु यत्तदोः सम्बन्धेन बहुवचनस्य ६. चिन्हाङ्कित: पाठो वृत्तौ नास्ति व्याख्यातः । सम्बन्धेन च 'सयणं सयणकाले', पर्यन्तं १०. अइधुत्ते (क)। अन्तर्वाक्यं युज्यते । ११. बोहियाए (ख)। ४. ४(चू)। १२. उवट्ठिते (क)। ५. पायच्छिते कप्पियमालामउली पतिवद्धसरीरे १३. असंबुद्धे अणेयाउए (क); अणेयाऊए असंबुद्धे बग्धारियमोणिसुत्तगमल्लदामकलावे सिरसा (ख); वृत्तौ नैष पाठो व्याख्यातोस्ति । पहाए कठे मालकडे-वृत्तौ चिन्हित-पाठ- प्रत्यो: 'असंबुद्धे' पाठो लभ्यते किन्तु 'आवस्थाने एतावानेव पाठो निर्दिष्टक्रमेण व्याख्या श्यक' चतुर्थाध्ययने 'केवलियं पडिपुण्णं नोस्ति। याउयं संसुद्ध' अनेन क्रमेणासौ पाठो Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सूयगडो २ असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अणिव्वाणमग्गे' अणिज्जाणमग्गे' असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू। एस खलु पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ।। धम्मपक्खे भिक्खुणो भिक्खायरिया-समुट्ठाण-पदं ३३. अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा' भवंति, तं जहा-- आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं खेत्तवत्थुणि परिग्गहियाई भवंति, "तं जहा ... अप्पयरा वा भज्जयरा वा। तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाइं भवंति. त जहा-अप्पयरा वा भज्जयरा वा । तहप्पगारेहिं कुलेहि आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिया। सतो वा वि एगे णायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिया। असतो वा वि एगे णायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिया ।। ३४. जे ते सतो वा असतो वा णायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिया, पुव्वमेव तेहिं जातं भवति .. इह खलु पुरिसे अण्णमण्णं ममट्ठाए एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा. खेत्तं मे वत्थू मे हिरण्णं मे सुवण्णं मे धणं मे धणं मे कंसं मे दूसं मे विपुल-धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणसंत-सार-सावतेयं मे सहा मे रूवा मे गंधा मे रसा मे फासा मे। एते खलू मे कामभोगा, अहमवि एतेसि ।। से मेहावी पुत्वमेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा ...इह खलु मम अण्णतरे दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा -अणि? अकंते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे दुक्खे णो सुहे। से हंता! भयंतारो ! कामभोगा ! मम अण्णतरं दुक्खं रोगायक परियाइयहअणिटुं अकंतं अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं दुक्खं णो सुहं । माऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा । इमाओ मे अण्णतराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ पडिमोयह-अणिट्ठाओ अकंताओ विद्यते । तत् प्रतिपक्षरूपत्वेनात्र 'अणयाउए २. ४ (क, वृ)। असंसुद्धे' इति पाठो युज्यते । केषुचित् ३. मणुया (ख)। मुद्रितप्रतिषु इत्थं लभ्य मानोप्य स्ति, तेनास्मा- ४. सं० पा०—ासो आलावगो तहा यवो भिर्मलेसौ स्वीकृतः । जहा पोंडरीए जाव सव्वोवसंता सम्वतार १. अपरिणिब्वाणमग्गे (वृ) । परिनिव्वुड त्ति वेमि । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) अप्पियाओ असुभाओ अमणुग्णाओ अमणामाआ दुक्खाओ णो सुहाओ । एवमेव णो लद्धपुव्वं भवति । इह खलु कामभोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा । पुरिसे वा एगया पुवि कामभोगे विप्पजहइ, कामभोगा वा एगया पुचि पुरिसं विप्पजहंति । अण्णे खलु कामभोगा, अण्णो अहमंसि । से किमंग पूण वयं अण्णमण्णेहि कामभोगेहि मुच्छामो? इति संखाए णं वयं कामभोगे विप्पजहिस्सामो।। ३५. से मेहावी जाणेज्जा --बाहिरगमेयं, इणमेव उवणीयतरगं, त जहा ---माता मे पिता में भाया मे भगिणी मे भज्जा में पुत्ता में णत्ता मे धूया मे पेसा में सहा मे सुही मे सयणसंगंथसंथुया मे । एते खलु भम णायओ, अहमवि एएसि । से मेहावी पुवमेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा। इह खलु मम अण्णयरे दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा-अणिढे अकते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे दुक्खे णो सुहे ! से हता! भयंतारो ! णायओ ! इमं मम अण्णयरं दुक्खं रोगातंक परियाइयह – अणिटुं अकंतं अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं दुक्खं णो सुहं । माऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा । इमाओ मे अण्णतराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ परिमोयह-- अणिटाओ अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुग्णाओ अमणामाओ दुक्खाओ णो सुहाओ । एवमेवं णो लद्धपुव्वं भवइ । तेसि वा वि भयंताराणं मम णाययाणं अण्णयरे दुक्खे रोगात के समुप्पज्जेज्जाअणिटे अकते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे दुक्खे णो सुहे। से हता! अहमेतेसि भयंताराणं णाययाणं इमं अण्णतरं दुक्खं रोगातक परियाइयामि--अणि8 अकंतं अप्पियं असुभं अमणुगणं अमणाम दुक्खं णो सुहं, मा मे दुक्खंतु वा सोयंतु वा जूरंतु वा तिप्पंतु वा पीडंतु वा परितप्यतु वा । इमाओ णं अण्णय राओ दुक्खाओ रोगातकाओ परिमोएमि-अणिट्राओ अकंताओ अॅप्पियाओ असुभाओ अमणुण्णाओ अमणामाओ दुक्खाओ णो सुहाओ। एवमेव णो लद्धपुव्वं भवति । अण्णस्स दुक्खं अण्णो णो परियाइयइ, अण्णेण कतं अण्णो णो पडिसंवेदेइ, पत्तेयं जायइ, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं चयइ, पत्तेयं उववज्जइ, पत्तेयं झंझा, पत्तेयं सण्णा, पत्तेयं मण्णा, पत्तेयं विष्णू, पत्तेयं वेदणा! इति खलु णातिसंजोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा । पुरिसे वा एगया पुवि णाइसंजोगे विप्पजहइ, पाइसंजोगा वा एगया पुनि पुरिसं विप्पजहति । अपणे खलु णातिसंजोगा, अण्णो अहमंसि । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ सूयगडी २ से किमंग पुण वयं अण्णमणेहि गाइसंजोगेहि मुच्छामो ? इति संखाए णं वयं जातिसंजोगे विप्पज हिस्सामो || ३६. से मेहावी जाणेज्जा - बाहिरगमेयं, इणमेव उवणीयतरगं तं जहा - हत्था मे पाया में 'बाहा मे ऊरू में उदरं मे सीस मे आउं मे बलं मे वण्णो मे तया मे छाया मे सोयं मे चक्खु मे घाणं मे जिन्भा मे फासा मे ममाति, वयाओ परिजूरइ, तं जहा --- आऊओ बलाओ वण्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ चक्खूओ घाणाओ जिभाओ फासाओ । सुसंधिता संधी विसंधीभवति, वलितरंगे गाए भवति, किण्हा केसा पलिया भवंति । जं पि य इमं सरीरगं उरालं आहारोवचियं, एयं पिय मे अणुपुवेणं विष्पजहियव्वं भविस्सति ॥ भिक्खुणो लोगनिस्साविहार- पदं ३७. एयं संखाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुट्ठिए दुहओ लोग जाणेज्जा, तं जहा - जीवा चेव, अजीवा चेव । तसा चेव, थावरा चेव || ३८. इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा - जे इमे तसा थावरा पाणा ते सयं समारंभंति, अण्णेण वि समारंभावेति, अण्णं पि समारंभतं समणुजाणंति । इह् खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा - ते सयं परिगिव्हंति, विपरिगण्हावेंति, अण्णं पि परिगिण्हतं समणुजाणंति । इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे । जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, एतेसि चेव मिस्साए बंभचेरवासं बसिस्सामो । कस्स णं तं हेउं ? जहा पुव्वं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुव्वं । अंजू जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, दुहओ पावाई कुव्वंति, इति संखाए दोहि वि अंतेहि अदिस्समाणो । इति भिक्खू एज्जा | ३६. से बेमि- पाईणं वा पडीणं वा उदीर्ण वा दाहिणं वा एवं से परिण्णातकम्मे, एवं से ववेकम्मे, एवं से वियंतकारए भवइत्ति मक्खायं । अणुवरा अणुवट्टिया पुणरवि तारिसगा चेव । अहिंसाधम्मपदं ४०. तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - पुढवीकाए आउकाए ते उकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ati अ ( किरिया ठाणे) से जहाणामए मम असायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा आउडिज्ज माणस्स वा हम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परिताविज्जमागस्स वा किलामिज्जमाणस्स वा उद्द्विज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारणं दुक्न्वं भयं पडिसंवेदेमि – इच्चेवं जाण । सवे पाणा सव्वे भूया सब्वे जीवा सत्रे सत्ता दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लुणा वा कवालेण वा आउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्माणा वा परिताविज्जमाणा वा किलाभिज्जमाणा वा उद्विज्जमाणा ३८७ जाव लोमुक्खायमवि हिंसाकारणं दक्खं भयं पडिसंवेदेति । एवं णच्चा सब्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सब्वे सत्ता ण हतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेवाण परितावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा ॥ ४१. से बेमि-- जे अईया, जे य पडुप्पण्णा, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो सव्वे ते एवमाइक्खति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति सव्वे पाणा सव्वे भूया सब्वे जीवा सब्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेव्वा ण उवेयव्वा || ४२. एस धम्मे धुवे णितिए सासए समेच्च लोगं खेयण्णेहिं पवेइए || भिक्खुचरिया पर्द ४३. एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाओ विरए मुसावायाओ विरए अदत्तादाणाओ विरए मेहुणाओ विरए परिग्गहाओ | णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, णो वमणं, णो विरेयणं, णो धूवणे, णो तं परियाविएज्जा | ४४. से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिणिब्वुडे णो आसंस पुरतो करेज्जा – इमेण मे दिद्वेण वा सुरण वा भएन वा विण्णाए इमेण वा सुरिय-तव-नियम-वंभचेरवासेणं, इमेण वा जायामायावृत्तिएण धम्मेण इतो चुते पेच्चा देवे सिया कामभोगाण वसवत्ती, सिद्धे वा अदुक्खमसुहे । एत्थ वि सिया, एत्थ वि णो सिया || वा ४५. से भिक्खू सद्देहिं अमुच्छिए रूवेहिं अमुच्छिए गंधेहिं अमुच्छिए रसेहि अमुच्छिए फासेहिं अमुच्छिए, विरए - कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादंसणसल्लाओ इति से महतो आदाणाओ वसंते उट्टिए पडिविरते || ४६. से भिक्खू - जे इमे तस्थावरा पाणा भवंति - ते णो सयं समारंभइ, णो अहि समारंभावेइ, अण्णे समारंभंते वि ण समणुजाणइ - इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्टिए पडिविरते ॥ ४७. से भिक्खू - जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते णो सयं Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ परिगिण्हइ, गो अण्णेणं परिगिण्हावेइ, अण्णं परिगिण्हतंपि ण समणुजाणइइति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते !! ४८. से भिक्खू जंपि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जइ - णो तं सयं करेइ, जो अण्णेणं कारवेइ, अण्णं पि करेंतं ण समणुजाणइ – इति से महतो आदाणाओ वसंते उवट्ठिए पििवरते || ३८८ ४६. से भिक्खु जाणेज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्टं अभिहडं आहद्देसियं तं चेतियं सिया, तं सयं भुजइ, णो अण्णं भुंजावेइ, अण्णं पि भुंजतं ण समणुजाणइ - इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते ॥ ५०. से भिक्खू अह पुण एवं जाणेज्जा - तं विज्जइ तेसि परक्कमे । जस्सट्ठाए चेतियं सिया, तं जहा अप्पणो पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं धातीणं णातीणं राईणं दासाणं दासीण कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाणं पुढो पहेणाए सामासाए पातरासाए सष्णिहि सण्णिचओ कज्जति, इह एएसि माणवाणं भोयणाए । तत्थ भिक्खू परकड- परणिट्टित उग्गमुप्पायणेसणासुद्धं सत्थातीतं सत्थपरिणामितं अविहिसितं एसितं वेसितं सामुदाणियं पण्णमसणं कारणट्ठा पमाणजुत्तं अक्खोवंजण- वणलेवणभूयं संजमजायामायावृत्तियं बिलमिव पण्णगभूतेणं अप्पाणेणं आहारं आहारेज्जा - अण्णं अण्णकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले || धम्मदेसणा-पदं ५१. से भिक्खू मायणे अण्णयर दिसं वा अणुदिसं वा पडिवण्णे धम्मं आइक्ले विभए किट्टे -- उबट्टिएस वा अणुवट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए - संति विरति उवसमं णिव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणतिवातियं ॥ ५२. सन्वेसिं पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अणुवीइ कि धम्मं ॥ ५३. से भिक्खू धम्मं किट्टेमाणे- णो अण्णस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा | णो पाणस्स हेरं धम्ममाइक्खेज्जा । गो वत्थस्स हेउ धम्ममाइक्खेज्जा । णो लेणस्स हेउ धम्म माइक्खेज्जा | णो सयणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । गो अष्णसि विरूवरुवाणं कामभोगाणं हेउं धम्म माइक्खेज्जा । अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा । णण्णत्थ कम्मणिज्जरया धम्ममाइक्खेज्जा | ५४. इह खलु तस्स भिवखुस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म सम्मं उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्ति धम्मे समुट्ठिया । जे तस्स भिक्खुरस अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) ३८४ सम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समुट्ठिया, ते एवं सव्वोवगता, ते एवं सबोवरता, ते एवं सब्बोवसंता, ते एवं ° सव्वत्ताए परिणिव्वुड त्ति बेमि ।। ५५. एस ठाणे आरिए केवले 'पडिपुण्णो णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तहे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिज्जाणमग्गे ° सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू। दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंग एवमाहिए। मीसग-पक्ख-पदं ५६. अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभगे एवमाहिज्जइ--जे इमे भवंति आरणिया आवसहिया गामंतियाकण्हुईरहस्सिया' •णो बहुसंजया, णो बहुपडिविरया सव्वपाणभूयजीवसत्तेहि, ते अप्पणा सच्चामोसाई एवं विउं. जंति-अहं ण हंतवो अण्णे हंतव्वा, अहं ण अज्जावेयव्वो अण्णे अज्जावेयव्वा, अहं ण परिघेतव्वो अण्णे परिघेतव्वा, अहं ण परितावेयव्वो अण्णे परितावेयव्वा, अहं ण उद्दवेयव्वो अण्णे उद्दवेयव्वा । एवामेव ते इत्थिकामेहि मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा जाव वासाइं चउपंचमाइं छहसमाइं अप्पयरो वा भज्जयरो वा भुजित्तु भोगभोगाई कालमासे कालं किच्चा अग्णयरेसु आसुरिएसु किब्विसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति ° । तओ विप्पमुच्चमाणा भज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए पच्चायति ।। ५७. एस ठाणे अणारिए अकेवले 'अप्पडिपुण्णे अणेयाउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अणिव्वाणमग्गे अणिज्जाणमग्गे असव्वदुक्खप्पहीणमगे एगंतमिच्छे असाहू । एस खलु तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिए ।। अधम्म-पक्ख-पदं ५८. अहावरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति--महिच्छा महारंभा महापरिगहा अधम्मिया 'अधम्माणुया अधम्मिट्ठा" अधम्मक्खाई १. सं० पा०—केवले जाव सम्वदुक्ख । वर्ती पाठ एवास्माभिः स्वीकृतः। २. गामणियंतिया (क, ख); अस्याध्ययनस्य ३. कण्हईराहस्सिया (क); सं० पा०-कण्हईर चतुर्दशे सूत्रे 'गामंतिया' पाठोस्ति, चणौं हस्सिया जाव तओ। वृत्तौ च जाव शब्देन स एवात्र संगृहीतो ४. मूयत्ताए (क)। भवति । यद्यपि प्रत्यारत्र 'गामणियंतिया' ५. सं० पा०--अकेवले जाव असव्वदक्ख । पाठो लभ्यते, किन्तु उक्तसूत्रमनुसृत्य पूर्व- ६. अमिष्ठाः अधर्मानज्ञाः (व)। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ अधम्मपायजीविणो' अधम्मपलोइणो अधम्मपलज्जणा अधम्मसीलसमुदाचारा' अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, 'हण' 'छिद' 'भिद' विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उक्कंचण-वंचण-माया-णियडि-कडकवड-साइ-संपओगबहुला दुस्सीला दुव्बया दुप्पडियागंदा असाहू सव्वाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए', 'सव्वाओ मुसावायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मेहुणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए °, सव्वाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कोहाओ' 'माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए ,सव्याओ व्हाणुम्मद्दण-वण्णग-विलेवण-सद्द - फरिस - ‘रस-रूव" - गंध - मल्लालंकाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए. सव्वाओ सगड-रह-जाण-जग-गिल्लि-थिल्लि. सिय - संदमाणिया - सयणासण - जाण - वाहण - भोग-भोयण-पवित्थरविहीओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कय-विक्कय-मासद्धमास-रूवग-संववहाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सध्वाओ 'हिरण्ण-सुवण्ण-धण-धण्ण-मणिमोत्तिय-संख-सिल-प्पवालाओ"अपडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कूडतुल-कूड माणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ आरंभसमारंभाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ करण-कारावणाओ५ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ पयण-पयावणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कुट्टण"पिट्टण-तज्जण-ताडण-वह-बंधपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए । जे यावण्णे तहप्पगारा" सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जंति [ततो वि अप्पडिविरया जावज्जीवाए] १. अहम्मजीवी (ख)। वाक्यानि न सन्ति। २. ०पलोई (ख); °पविलोइणो (व)। ११. हिरण्णसुवण्णकोडियाओ (क)। ३. ° दायारा (ख)। १२. कारणाओ (क)। ४. दुस्सीला दुरणुणेया (चू)। १३. कंडनकुट्टण (वृ)। ५. सं० पाo---जावज्जीवाए जाव सध्वाओ। १४. तहप्पगारे (क, ख)। ६. सं० पा०-कोहाओ जाव मिच्छा । १५. वणकरा जे अणारिएहि (क, ख, व); ७. (क, ख)। असौ पाठः व्याख्यांश: प्रतीयते । ६३,७१ ८. वण्णगंध (क, ख) लिपिदोषेण 'वण्णग' एतयोः सूत्रयोरपि नासौ विद्यते । औपइत्यस्य स्थाने 'वष्णगंध' इति जातम् । पातिके (सू० १६१,१६३) ऽपि नासौ ६. रूवरस (वृ)। लभ्यते। १०. औपपातिके (मू० १६१) कानिचिद् १६. कोष्ठकान्तर्वर्ती पाठश्चूर्णी व्याख्यातो Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ati reai ( किरियाठाणे) ३६१ से जहाणामए केइ पुरिसे कलम-मसूर तिल मुग्ग-मास- णिप्फाव- कुलत्थआलिसंग पलिमंथगमा दिएहिं अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजति, एवमेव' तहप्पगारे पुरिसजाए तित्तिर- वट्टग लावग कवोय-कविजल मिय-महिस-वराहगाह-गोह- कुम्म - सिरीसिवमादिएहि अयते कूरे मिच्छादंडं' परंजति । जा विय से बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा - दासे इ वा पेसे इवा भयए इ वा भाइले इ वा कम्मकरए इ वा भोगपुरिसे इवा, तेसि पिय णं अण्णयरंसि अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव 'गरुयं दंड " णिव्वत्तेइ, तं जहा - इमं दंडे, इमं मुंडेह, इमं तज्जेह इमं तालेह, इमं अंदुयबंधणं' करेह, इमं णिबंधणं करेह, इमं हडिबंधणं करे, इमं चारगबंधणं करेह, इमं पियल जुयल - संकोडिय - मोडियं करेह, इमं हृत्थच्छिण्णयं करेह, इमं पायच्छिण्णयं करेह, इमं कण्णच्छिण्णयं करेह, इमं णक्कच्छिण्णयं 'करेह, इ" ओच्छयं करेह, इमं सीसच्छिण्णयं करेह, इमं मुहच्छिण्णय करेह, 'इमं वेयवहितं करेह, इमं अंगवहितं करेह, इमं फोडियपयं" करेह, इम णयप्पाडियं करेह, इमं दसणुप्पाडियं करेह, इमं वसणुप्पाडियं करेह, इमं जिप्पाडियं करेह, इमं ओलंबियं करेह, इमं घसियं करेंह, इमं घोलिय करेह, इमं सुलाइयं करेह, इमं सूलाभिण्णयं करेह, इमं खारपत्तियं करेह, इम वज्भपत्तियं" करेह, इमं सीहपुच्छियगं करेह, इमं वसहपुच्छियगं करेह. इमं कडfure" करेह, इमं कागणिमंसखावियगं करेह, इमं भत्तपाणणिरुद्धगं करेह, इमं जावज्जीवं वहबंधणं करेह, इमं अण्णतरेणं असुभेणं कु मारेणं मारेह | जावि य से अब्भितरिया परिसा भवइ, तं जहा- माया इ वा पिया इ वा भाया इवा भगिणी इ वा भज्जा इ वा पुत्ता इवा धूया इ वा सुहा नास्ति - ' परेषां प्राणा परितावेति दृष्टान्तः क्रियते निर्दयत्वे तेषां से जहाणामए--" | वृत्तौ स च व्याख्यातः, किन्तु तत्र अग्रिम - पाठस्य दृष्टान्तरूपेण सम्बन्धयोजना नास्ति -" पुनरन्यथा बहुप्रकारमधार्मिकपदं प्रतिपिपादयिषुराह" । स्ष्टान्तस्य स्पष्टबोधार्थमसौ पाठ: कोष्ठकान्तवर्ती कृतः । १. व्या० वि० - बहुवचनप्रकरणे पि यदेकवचनान्तं कर्तृपदम् तद् उपमानोपमेययोरनुरो धात् । २. पतिमिच्छग ( क ) । ३. एवा ० ( ख ) । - ४. मिच्छं ० ( क ) 1 ५. अवराहम्मि ( क ) । ६. गुरुय ० ( क ) । ७. निवत्तेइ ( ख ) | ८. अयं ० ( ख ) । ९. अतो 'इमं तथा करेह' इति पाठस्य प्रयोगः क्वचिद् क्वचिदेव विद्यते स चास्माभिः सर्वत्र पूरितः । १०. वेगच्छहियं अंगच्छहियं (क) 1 ११. पक्खाफोडियं ( क्व) 1 १२. वज्भवत्तियं (ख) 1 ३. दगडूयं ( ख ) | Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ सूयगडो २ इ वा, तेसि पि य णं अण्णयरंसि अहालहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं णिवत्तेति, तं जहा-सीओदगवियडंसि उब्बोलेत्ता' भवइ, “उसिणोदगवियडेण वा कायं ओसिचित्ता भवइ, अगणिकायेणं कायं उद्दहित्ता भवइ, जोत्तेण वा वेत्तेण वा णेत्तेण वा तया वा कसेण वा छियाए वा लयाए वा अण्णयरेण वा दवरएण पासाई उद्दालित्ता भवति, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा कायं आउट्टित्ता भवति, तहप्पगारे पुरिसजाते संवसमाणे दुम्मणा भवंति, पवसमाणे सुमणा भवंति, तहप्पगारे पुरिसजाते दंडपासी, दंडगरुए, दंडपुरक्खडे, अहिते इमंसि लोगंसि', अहिते परंसि लोगंसि । ते दुक्खंति सोयंति जूरंति तिप्पंति पिट्टति परितप्पंति । ते दुक्ख ण-सोयणजुरण - तिप्पण - पिट्टण-परितप्पण - बह-बंधण - परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवति ।। ५६. एवामेव ते इथिकामेहि मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा जाव वासाई चउपंचमाइं छद्दसमाई वा अप्पयरो वा भुज्जयरो वा काल भुजित्तु भोगभोगाई पसवित्तु वेरायतणाइं, संचिणित्ता बहूई कूराई कम्माई उस्सण्णाइ संभारकडेण कम्मुणा--- से जहाणामए अयगोले इ वा सेलगोले इ वा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदगतलमइवइत्ता अहे धरणितलपइट्टाणे भवति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाते वज्जबहुले 'धूयबहुले पंकबहुले' वेरबहुले अप्पत्तियबहुले दंभबहुले णियडिबहुले साइबहुले अयसबहुले उस्सण्णतसपाणघाती कालमासे कालं किच्चा धरणितल मइवइत्ता अहे ण रगतलपट्टिाणे भवति ।। ६०. ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया णिच्चंधगार तमसा" ववगय-गह-चंद-सूर-णक्खत्त-जोइसप्पहा मेद-वसा-मंस-रुहिर-पूय-पडलचिक्खल्ल" लित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा कण्ह"-अगणिवण्णाभा कक्खडफासा" दुरहियासा असुभा णरगा। असुभा णरएसु वेयणाओ । णो चेव १. उब्बोलेत्ता (क); उच्छोले ता (ख)। ८. नियइ (क)। २. सं० पा०-जहा मित्तदोसवत्तिए जाव ६. सादि० (ख)। ___ अहिते। १०. णिच्चंधतमसा (व); णिच्चंधगारतमसा ३. व्या० वि०--अस्यार्थसंबन्धः कज्जति' (वृपा)। पदानन्तरं योजनीयः । ११. ४ (वृ)। ४. पविसूइत्ता (क); परिसुइत्ता (ख) । १२. विस्सा (ख)। ५. पावाई (क)। ६. ओसण्णाई (क)। १३. कण्हा (क, ख)। ७. पंकबहुले धुन्नबहुले (क) १४. कक्कड (क)। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. एस ० बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) ३६३ ण णरएसू गैरइया णिहायंति वा पयलायति वा सई वा रई वा धिई वा मई वा उबलभते । ते णं तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिब्वं दुरहियास जेरइय-वेयणं पच्चणुभवमाणा' विहरंति ।। ६१. से जहाणामए रुक्खे सिया पव्वयग्गे जाए, मुले छिपणे, अग्गे गरुए, जओ णिणं जओ विसमं जओ दुग्गं तओ पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाते गब्भाओ गभं जम्माओ जम्म माराओ मारं णरगाओ णरगं दुक्खाओ दुक्खं' दाहिणगामिए जरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लभवोहिए यावि भवइ ।। एस ठाणे अणारिए अकेवले 'अप्पडिपुण्णे अणेयाउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुक्ति मग्गे अणिव्वाणमग्गे अणिज्जाणमग्गे ° असव्वदुक्खापहीण.. मग्गे एगंतमिच्छे असाहू। पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥ धम्म-पक्ख-पदं ६३. अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहाअणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा' धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा'० धम्मेणं' चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए', 'सव्वाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सब्वाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सब्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ पहाणुम्मद्दण-वण्णग-विलेवणसद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्लालंकाराओ पडिविरया जावज्जीबाए, सव्वाओ सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सिय-संदमाणिया-सयणासण-जाण - वाहणभोग-भोयण-पवित्थरविहीओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कय-विक्कय १. सुइ (ख)। इति पाठे 'शील' शब्दो विद्यते, धर्मपक्षवर्णने २. पच्च णुभवमाणा (ख)। केवलं 'धम्मसमुदायारा' पाठोस्ति । अत्र ३. व्या० वि०---'याति' इति क्रियाशेषः । शीलशब्दो न विवक्षितोऽथवा लिपिदोषेण ४. सं० पा०-अकेवले जाव असव्वदुक्ख । त्यक्तोभूदिति न निश्चेतुं शक्यम् । ५. सं० पाo.-धम्मिट्टा जाव धम्मेणं । ७. धम्मेण (क) 1 ६. अधर्मपक्षवर्णने 'अधम्मसीलस मुदाचारा' ८. सं० पा०--जावज्जीवाए जाव जे यावरणे । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजावाए। सूर्यगडो २ मासद्धमास-रूवग-संववहाराओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ हिरण्णसुवण्ण-धण-धण्ण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवालाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कूडतुल-कूडमाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ आरंभ. समारंभाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ करण-कारावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सवाओ पयण-पयावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ कुट्टण-पिट्टण-तज्जण-ताडण-वह-बंधपरिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवाए °, जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मता परपाणपरियावणकरा कज्जति. तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए। ६४. से जहाणामए अणगारा भगवंतो 'इरियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाण-भंड-ऽमत्त-णिक्खेवणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिद्वावणियासमिया मणसमिया वइसनिया' कायसमिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता' गुत्तिदिया गुत्तबंभयारी अकोहा अमाणा अमाया अलोभा संता पसंता उवसंता परिणिन्वुडा अणासवा अम्गंथा छिण्णसोया णिरुवलेवा, कंसपाई व मुक्कतोया, संखो' इव णिरंजणा, जीव इव अप्पडिहयगई, गगणतलं पिव णिरालंबणा, वायुरिव अप्पडिबद्धा, सारदसलिलं व सुद्धहियया, पुक्खरपत्तं व णिरुवलेवा, कुम्मो इव गुत्तिदिया, विहग इव विप्पमुक्का, खग्गविसाणं व एगजाया, भारुडपक्खी' व अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, वसभो इव जायथामा, सोहो इव दुद्धरिसा, मंदरो इव अप्पकंपा, सागरो इव गंभीरा, चंदो इव सोमलेसा, सुरो इव दित्ततेया, जच्चकणगं' व जायरूवा, वसुंधरा इव सव्वफास विसहा, सुहुयहुयासणो विव तेयसा जलंता ॥ १. वय° (क)। पदर्शने औपपातिकमाचाराङ्गसंबंधि प्रथम२. ४(क) मुपाङ्ग तत्र साधु गुणाः प्रबन्धेन व्यावय॑न्ते, ३. संख (ख)। तदिहापि तेनैव क्रमेण द्रष्टव्यमित्यतिदेश: ४. वाउ (ख)। यावद्भूतम्अपनीतं केशश्मश्रुलोमनखादिक ५. भारंडपंखी (ख)। यैस्ते तथा (वृत्ति: पृष्ठ ५७ पंक्ति ५) चूर्णि६. कंचणग (ख)। वृत्त्यनुसारेण सर्वोपि पाठः औपपातिकवद् ७. सुळुहुया(क)। युज्यते, बर्तमानादर्शषु औपपातिकपाठाद् ८, चूर्णी 'से जहाणामए केइ पुरिसा अणगारा भिन्नो पाठो लभ्यते । औपपातिक (सूत्र २७) इरियासमिता जाव सुहत' ० एप संक्षिप्त- गतपाठः इत्थमस्ति-इरियासमिया भासापाठो वतं ते, वृत्तौ च 'पञ्चभिः समितिभिः समिया एसणासमिया आयाण-भंड-मत्तसमिताः' अतः परं 'धूतकेस' ० पर्यन्तं सर्वोपि णिक्खेवणास मिया उच्चार-पासवण-खेलपाठः औपपातिकबत् समर्पितोस्ति, यथा-- सिंघाण-जल्ल-पारिट्रावणियासमिया मणगुत्ता ते पञ्चभिः समितिभिः समिताः, एवमित्यु वयगुत्ता काय गुत्ता गुत्ता गुत्ति दिया गुत्तबंभ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) ६५. णत्थि णं तेसिं भगवंताणं कत्थ वि पडिबधे भवइ। [से डिबंधे चउम्विहे पण त्ते, तं जहा–अडए इ वा पोयए इ वा उग्गहे इ वा पग्गहे इ वा ' जण्णंजण्णं दिसं इच्छंति तण्ण-तण्णं दिसं अप्पडिबद्धा सुइभूया लहुभूया अप्पगंथा' संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति ।। ६६. तेसि णं भगवंताणं इमा एयारूवा जायामायावित्ती होत्था, तं जहा-चउत्थे भत्ते छट्टे भत्ते अट्ठमे भत्ते दसमे भत्ते दुवालसमे भत्ते चउदसमे भत्ते अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते दोमासिए भत्ते तिमासिए भत्ते चउम्मासिए भत्ते पंचमासिए भत्ते छम्मासिए भत्ते। अद्त्तरं च णं उक्खित्तचरगा णिक्खित्तचरगा उविखत्तणिक्खित्तचरगा अंतचरगा पंतचरगा लहच रगा समुदाणचरगा संसट्टचरगा असंसट्टचरगा तज्जायसंसट्टचरगा दिट्ठलाभिया अदिट्ठलाभिया पुटुलाभिया अपुट्ठलाभिया भिक्खलाभिया अभिक्खलाभिया अण्णातचरगा' उवणिहिया संखादत्तिया परिमियपिंडवाइया सुद्धेसणिया अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा लहाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी पुरिमड्डिया आयंबिलिया णिव्विगइया अमज्जमंसासिणो णो णियामरसभोई ठाणाइया' पडिमट्ठाइया णेसज्जिया वीरासणिया दंडायतिया लगंडसाइणो अवाउडा अगत्तया अकंडुया अणि हा धुतकेसमंसु रामणहा सवगायपडिकम्मविप्पमुक्का चिति ।। ६७. ते णं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, ___ पाउणित्ता आवाहसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताइं पच्चक्खंति, यारी अममा अकिंचणा निरुवलेवा, कंसपाईव वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सहय-हयासणो मक्कतोया, संखो इव निरंगणा, जीवो विव इव तेयसा जलंता। अप्पडिह्यगई जच्चकणगं पिव जायस्वा, सूत्रकृताङ्गवत्तिकारनिर्दिष्ट: 'धूतकेसमंसुआदरिसफलगा इव पागडभावा, कुम्मो इब रोमनहा' इति पाठः औपपातिकस्य वाचनान्ततिदिया,पुक्ख रपत्तं व निरुवलेवा, गगणमिव रत्वेन स्वीकृतास्ति । निरालंबणा, अणिलो इव निरालया, चंदो १. असो कोप्ठकवर्ती पाठ: व्याख्यांशः प्रतीयते । इव सोमलसा, सूरो इव दित्ततेया, सागरो २. अणुप्पगथा (क)। इव गंभीरा, विहग इव सवओ विप्पमुक्का, ३. ०चरगा अण्णाइलोगचरगा (क); चरगा मंदरो इव अप्पकंपा, सारयसलिलं व सुद्ध- अण्णायलोगचरगा (ख)। हियया, खग्यविसागं व गजाया, भारुड- ४. निताम° (क)। पक्खी व अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, ५. ठाणादीता (क); ठाणाईया (ख) । वसभो इव जायत्थामा, सीहो इव दुद्धरिसा, ६. पडिमदादी (क)। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ सूयगडो २ पच्चविखत्ता 'बहूई भत्ताई' अणसणाए छेदेति, छेदित्ता" जस्सट्टाए की रइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणगे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसे ज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे लद्धावलद्धं' माणावमाणणाओ हीलणाओ णिदणाओ खिसणाओ गरहणाओ तज्जणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीस परीसहोवसग्गा अहियासिज्जंति, तमटुं आराहेंति, तमढें आराहेत्ता चरमेहि उस्सासणिस्सासेहि अणंतं अणुत्तरं णिव्वाघायं णिरावरण कसिणं पडिपुणं केवलवरणाणदसणं समुप्पा.ति', तओ पच्छा सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिणिवायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ।।। ६८. 'एगच्चाए पुण एगे भयंतारो भवति । ६६. अवरे पूण पुवकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, तं जहा--महड्डिएसु महज्जुइएसु महापरक्कमेसु महाजसेसु महन्वलेसु महाणुभावेसु महासोक्खेसु । ते णं तत्थ देवा भवंति महड्डिया महज्जुझ्या 'महापरक्कमा महाजसा महब्बला महाणभावा महासोक्खा हार-विराइय-बच्छा कडग-तुडिय-थंभिय-भुया अंगयकंडल-मटूगंडयल-कण्णपीढधारी विचित्तहत्था भरणा' विचित्तमाला-मउलिमउडा कल्लाणग-पवर-वत्थपरिहिया कल्लाणग-पवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं स्वेणं दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघाएणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिवाए जुत्तीए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभइया यावि भवंति ॥ ७०. एस ठाणे आरिए" 'केवले पडिपुण्णे णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे १. वासाहि (क, ख) उववत्तारो भवति । २. वृत्ती एष पाठो नास्ति व्याख्यातः । ६. महिड्डिया (क)। ३. लद्धावल दवित्तीओ (स्थानाङ्ग ६।६२) । ७. सं० पा०—महज्जुइया जाद महासोक्खा । ४. पा.ति २त्ता (ख) । ८. °वत्थाभरणा (क) । ५. अस्य सूत्रस्य रचना संक्षिप्ता वर्तते । ६. 'कल्लाणगंध' (क, ख) औपपातिके (सू०४७) 'पूख्वकम्मावसेसेणं' इत्यादि पदानि अग्रिम 'कल्लाणग' इत्येव पाठो लभ्यते । संभवतो सूत्रगतानि इह ग्रहीतव्यानि । औपपातिके लिपिदोषेणास्य स्थाने 'कल्लाणगंध' इति (सू० १६७) एतद्विषयकसूत्रस्य पूर्णा रचना पाठो जातः । लभ्यते—एगच्चा पूण एगे भयंतारो पुब्व- १०. वणमालाधरा (क)। कम्मावसेसेणं काल मासे कालं किच्चा ११. सं० पा०-आरिए जाव सव्वदुक्ख । उक्कोसेणं सव्वदसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) ३६७ मुत्तिमगे णिव्वाणमग्गे णिज्जाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू । दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए। मीसग-पक्ख-पदं ७१. अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदोणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, त जहा-अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया' धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा' धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू, एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया । *एगच्चाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ अदिण्णादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुप्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ पहाणम्मद्दणवण्णग-विलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्लालंकाराओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लिथिल्लि-सिय-संदमाणिया-सयणासण-जाण-वाहण-भोग-भोयण - पवित्थरविहीओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ कय-विक्कयभासद्धमास-रूवग-सववहाराओ पाडावरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडि. विरया । एगच्चाओ हिरण्ण-सुवण्ण-धण-धण्ण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवालाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ कूडतुल-कुडमाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ आरंभ-समारंभाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ करण-कारावणाओ पडिविरया जावज्जीबाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया । एगच्चाओ पय-पयावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ कुट्टण-पिट्टण-तज्जण-ताडण-वह-बंधपरिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया' । जे यावणे तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा १. सं० पा०--धम्माणया जाव धम्मेणं । २. सं० पा०- अप्पडिविरया जाव जे यावण्णे। mational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडी २ कज्जति, तओ वि 'एगच्चाओ पडिविरया जावज्जीवाए" एगच्चाओ अप्पडिविरया ॥ ७२. से जहाणामए समणोवासमा भवंति - अभिगयजीवाजीवा उवलद्ध पुण्णपावा आसव-संवर 'वेयण - णिज्जर- किरिय-अहिगरण - बंधमोक्ख- कुसला असहेज्जा' देवासुर-णाग - सुवण्ण जक्ख रक्खस किण्णर- किंपुरिस गरुल- गंधव्व - महोरगाइएहि देवगणेहिं णिग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जा, 'इणमो णिम्यंथिए पावणे" णिस्संकिया णिक्कखिया निव्वितिगिच्छा' लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा अट्ठिमिजपे माणुरागरता' "अयमाउसो ! णिग्गंथे पावणे अट्ठे अयं परमट्ठे सेसे अणट्ठे " ऊसियफलिहा अवगुयदुवारा 'चियत्तंतेउर-परघरदारप्पवेसा" चा उद्दसमुद्दिद्वपुण्ण मासिणोसु पडिपुण्ण पोसहं सम्म अणुपालेमाणा समणे णिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण- पाण- खाइम साइमेणं वत्थपडिग्ग्रह - कंवल- पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पीढ' - फलग - सेज्जासंथारएणं पडिला माणा बहूहि सीलव्वय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोस होववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवाकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहति ।। ७३. ते णं एयारूवेणं विहारेण विहरमाणा बहूई वासाइ समणोवासगपरियागं पाउणति, पाउणित्ता आबास उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खति, पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदित्ता आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, तं जहा - महड्डिएसु महज्जुइएसु" "महाप रक्कमेसु महाजसेसु ३६८ हब्बले महाणुभावेसु महासोक्खेसु । ते णं तत्थ देवा भवति - महड्डिया महज्जुइया महापरक्कमा महाजसा महब्बला महाणुभावा महासोक्खा हार -विराइय-वच्छा कडग- तुडिय-थंभिय-भुया अंगयकुंडल- मट्ठगंडयल - कण्णपीढधारी विचित्तहत्याभरणा विचित्तमाला-मउलिमउडा कल्लाणग-पवरवत्थपरिहिया कल्लाणग-पवरमल्लाणुलेवणधरा भासुर १. x ( क, ख ) ; प्रत्योः मुद्रितप्रतिषु च नैष पाठो लभ्यते, किन्तु प्रकरणानुसारेणासौ युज्यते । वृत्तावसौ व्याख्यातास्ति । औपपातिके (सूत्र १६१ ) ऽप्यसौ लभ्यते । २. वेणानिज्जराकिरियाहिगरण ( ख ) | ३. असहेज्ज (क); असा हेज्जं ( ख ) | ४. निग्ये पावणे ( ओवाइय सू० १६२ ) | ५. गिव्वितिगिद्धा ( क ) 1 (क, ख ) ; ६. अट्टिमिजाए ( ख ) | ७. अचियत्तंतेउरपरघरपत्रेसा अचियत्तंतेर ( वृ) ८. पाडिहारिएण य पीढ ( ओवाइय सू० १६२ ) । ६. अहापडि ० ( ख ) । o १०. समाहिं ( क ) | o ११. सं० पा० - महज्जुइएसु जाव महासोक्खे सु सेस तव एसट्टाने आरिए जाव एगत सम्मे । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अयण (किरियाठाणे ) ३६६ बोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं रूत्रेणं दिव्वेणं वृष्णं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संधारणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुत्तोए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभद्दया यावि भवंति ॥ ७४. एस ट्ठाणे आरिए केवले पडिपुणे णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निव्वाणमग्गे णिज्जाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमगे एगतसम्म साहू | तच्चरस ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिए | तिपद- समोयार-पदं ७५. अविरई पडुच्च बाले आहिज्जइ । विरई पडुच्च पंडिए आहिज्जइ । विरयाविरइं पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ । तत्थ णं जा सा सव्वओ, अविरई एसट्टाणे आरंभट्ठाणे अणारिए' 'अकेवले अप्पडिपुणे अयाउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अणिव्वाणमग्गे अणिज्जानमग्गे • असव्वदुक्खप्पहीणमगे एगंतमिच्छे असाहू | तत्थ णं जा सा विरईएसद्वाणे अणारंभट्टाणे आरिए' 'केवले पडिपुण्णे णेयाउए संसुद्धे सलगत्त सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिज्जाणमग्गे सव्वदुक्ख पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू | तत्थ णं जा सा विरयाविरई एट्ठाणे आरंभाणारंभट्ठाणे, एसद्वाणे आरिए • केवले पडिपुणे णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमगे णिज्जाणमग्गे • सव्वदुक्खप्पहीण मग्गे एगंतसम्म साहू | दुपद- समोयार-पदं ७६. एवामेव समणुगम्भमाणा इमेहिं चेव दोहि ठाणेहिं समोयरंति, तं जहा - धम्मे चेव, अधम्मे चेव । उवसंते चेव, अणुवसंते चेव ! १. सं० पा० - अणारिए जाव असब्वदुक्ख । २. सा सव्वओ (क, ख ) । ३. सं० पा० - आरिए जाव सव्वदुक्ख । ४. सा सव्वओ ( क, ख ) । तत्थ णं जे से 'पढमद्वाणस्स अधम्मपक्खस्स" विभंगे एवमाहिए, तस्स' णं इमाई तिणि तेवट्टाई पावादुसयाइं भवतीति मक्खाया, तं जहा - किरियावाईणं ५. अस्य पाठस्य पुनरुल्लेखः विशेषत्वसूचनार्थम्, यथा वृत्तिकार -- एतदपि कथञ्चिदार्यमेव । o ६. सं० पा० - आरिए जाव सव्वदुक्ख । ७. पढमस्स द्वाणस्स अधम्मस्स ० ( क ) ; पढमस्स अधम्म (चू) । 0 Co ८. तत्थ (वृ ) 1 ६. अक्खायाई (क) 1 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० सूयगडो २ अकिरियावाईणं अण्णाणियवाईणं वेणइयवाईणं । तेवि णिव्वाणमासु, तेवि पलिमोक्खमाहंसु, तेवि लवंति सावगा, तेवि लवंति सावइत्तारो ।। अहिंसा-पदं ७७. ते सव्वे पात्रादुया' आइगरा धम्माण, णाणापण्णा णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणाझवसाणसंजुत्ता एग महं मंडलिबंध किच्चा सव्वे एगओ चिट्ठति । पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुण्णं अओमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावादुए आइगरे धम्माणं, णाणापण्णे पाणाछदे णाणासीले णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभे° णाणाझवसाणसंजुत्ते एवं क्यासी-~हंभो पावादया ! आइगरा" ! धम्माणं, णाणापण्णा ! 'णाणाछंदा ! णाणासीला! णाणादिट्ठी ! जाणारुई ! णाणारंभा ! णाणाझवसाणसंजुत्ता ! इमं ताव तुम्भे सागणियाणं इंगालाण पाइं बहुपडिपुण्णं गहाय मुहुत्तगं-मुहुत्तगं पाणिणा धरेह। णो वहु संडासगं संसारियं कुज्जा, णो बहु अग्गिथंभणियं कुज्जा, णो बहु साहम्मियवेयावडियं कुज्जा, णो बहु परधम्मियवेयावडियं कूज्जा, उज्जुया णियागपडिवण्णा अमायं कव्वमाणा पाणि पसारेह -इति वुच्चा" से पुरिसे तेसि पावादुयाण" तं सागणियाणं इंगालाणं' पाइं बहुपडिपुण्ण 'अओमएणं संडासएणं गहाय पाणिसु णिसिरति । तए णं ते पावादुया' आइगरा धम्मागं, णाणापण्णा" *णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्टी णाणारुई णाणारंभा' णाणाझवसाणसंजुत्ता पाणि पडिसाहरंति" । तए णं से पुरिसे ते सव्वे पावादुए आइगरे धम्माण, *णाणापण्णे णाणाछंदे १. निजाण (क) परिणिव्वाण (व)। २. परि° (ख)। ३. पावाइया (क, ख) ! ४. आइकग (क)। ५. मंडल ° (क)। ६. पायं (क)। ७. अतोमतेण (क)। ८. पावाइए (क, ख)। ६. सं० पा०-गाणापण्ये जाव णाणाज्भव साण° । १०. पावाइया (क, ख)। ११. आदियरा (क)। १२. मं० पा.- णाणायण्णा जाव जाणाभव साण° । १३. वच्चा (क )। १४. पावादियाणं (क, ख) । १५. अंगालाणं (क)। १६. नागार्जुनीयान्तु 'अओमएण संडासरण गहाथ इंगाले णिसरति (च)। १७. पावाइया (क); पावादिया (ख)। १८. सं० पा०-~णाणापण्णा जाव णाणाझव साण । १६. पडिसाहरति (क) । २०. सं० पा०-धम्माणं जाव णाणाज्भवसाण °। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं (किरियाठाणे) ४०१ णाणासीले णाणादिट्टी णाणारुई गाणारभे णाणाझवसाणसंजुत्ते एवं वयासी-हंभो पावादुया ! आइगरा! धम्माणं, णाणापण्णा' ! *णाणाछंदा ! णाणासीला! णाणादिट्टी ! णाणारुई ! णाणारंभा° ! णाणाझवसाणसंजुत्ता ! 'कम्हा णं तुब्भे पाणि पडिसाहरह' ? 'पाणी णो डझज्जा ? दड्ढे कि भविस्सइ ? दुक्खं । दुक्खं ति मण्णमाणा पडिसाहरह ? एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे । पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे ॥ तत्थ णं जे ते समणमाहणा एवमाइक्खंति', 'एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेति - "सव्वे पाणा' 'सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे ° सत्ता हंतव्वा अज्जावेयव्वा परिघेतव्वा परितावेयव्वा किलामेयव्वा' उद्दवेयवा" -ते आगंत छेयाए ते आगंत' भेयाए. ते आगंतु जाइ-जरा-मरण-जोणिजम्मण-संसारपुणब्भव-गब्भवास-भवपवंच-कलंकलीभागिणो भविस्संति। ते बहूणं दंडणाणं बहूणं मुडणाणं बहूणं तज्जणाणं बहूणं तालणाणं बहूणं अंदुबंधणाण१२ बहणं घोलणाणं बहूणं माइमरणाणं बहूणं पिइमरणाणं बहूणं भाइमरणाणं बहणं भगिणीमरणाणं बहूणं भज्जामरणाणं बहूणं पुत्तमरणाणं बहूणं धूयमरणाणं वहूणं सुण्हामरणाणं वहूणं दारिदाणं बहूणं दोहग्गाणं बहूणं अप्पियसंवासाणं बहूणं पिय-विप्पओगाणं बहूणं दुक्ख-दोमणस्साण आभागिणो भविस्संति । अणादियं च णं अणवयम्गं दीहमद्धं चाउरंत"-संसार-कतारं भुज्जो-भुज्जो - . .--. १. सं० पा०—णाणापपणा जाव णाणाज्भव- ८,६. आगंतु (क); आगंतं (ख)। साण ° । १०. भेयाए जाव (क, ख); अत्रायं शब्दोनाव२. पडिसाहरेह (क); कम्हा पाणिं णो पसा- श्यक: प्रतिभाति । चूर्णी 'ते आगंतु छेयाए रेह (च) जाव कलकलीभावभागिणो भविस्संति' इति ३. पाणी डझेज्ज (चू)। संक्षिप्तपाठो विद्यते । प्रत्योः संक्षिप्तपाठस्य ४. पाणिं ण पसारेह (चू)। पूर्णपाठस्य च मिश्रणं जातमिति प्रतीयते । ५. सं० पा०—एवमाइक्वति जाव परूवेति। ११. आगंतुं (क)। ६. सं० पा० --पाणा जाव सत्ता। १२. अंदुबंधणाणं जाव (क, ख) अयमपि 'जाब' ७. आयारो ४।१,२०,२२,२३,५२१०१ सूयगडो शब्दो नावश्यकः प्रतिभाति । १६५६,५७,२।१४ उल्लिखितसूत्रेषु एष पाठो १३. दुम्मणसाणं (क)। नास्ति। १४. चतुरंत (क)। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ सूयगडो २ अणुपरियट्टिस्संति । ते णो सिज्झिस्संति णो बुज्झिस्संति' णो मुच्चिस्संति णो परिणिव्वाइस्संति° णो सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे। पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे ॥ ७६. तत्थ ण जे ते समणमाहणा एवमाइक्खंति', 'एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति--"सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा ण किलामेयव्वा ण उद्दवेयव्वा"ते णो आगंतु छेयाए ते णो आगंतु भेयाए 'ते णो आगंतु जाइ-जरा-मरणजोणिजम्मण - संसार • पुणब्भव - गब्भवास - भवपवंच - कलंकलीभागिणो भविस्संति । ते णो बहूणं दंडणाणं णो वहणं मुंडणाणं णो बहूर्ण तज्जणाणं णो बहूणं तालणाणं णो बहूणं अंदुबंधणाणं णो बहूणं घोलणाणं णो बहूणं माइमरणाणं णो बहूणं पिइमरणाणं णो बहूणं भाइमरणाणं णो बहूर्ण भगिणीमरणाणं णो बहणं भज्जामरणाणं णो बहणं पुत्तमरणाणं णो बहणं धूयमरणाणं णो बहूणं सुण्हामरणाणं णो बहूर्ण दारिद्दाणं णो बहूणं दोहग्गाणं णो बहूणं अप्पियसंवासाणं णो बहूणं पिय-विप्पओगाणं णो बहूणं दुक्ख-दोमणस्साणं आभागिणो भविस्संति । अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरतसंसार-कंतारं भुज्जो-भुज्जो णो अणुपरियट्टिस्संति । ते सिज्झिस्संति' 'बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिणिन्वाइस्संति सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति ॥ उवसंहार-पदं ८०. इच्चेतेहिं बारसहि किरियाठाणेहिं वट्टमाणा जीवा णो सिज्झिसु णो बुझिसु णो मुच्चिसु णो परिणिब्वाइंसु णो सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा णो करेंति वा णो करिस्संति वा। एयंसि' चेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिज्झिसु बुझिसु मुच्चिसु परिणिव्वाइंसु सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा ।। ८१. एवं से भिक्खू आयट्ठी आयहिए आयगुत्ते आयजोगी आयपरक्कमे आयरक्खिए आयाणुकंपए आयणिप्फेडए' आयाणमेव पडिसाहरेज्जासि । -त्ति बेमि॥ १. सं० पा०--बुझिसंति जाव णो सव्व । २. सं० पा०-एवमाइक्खंति जाव परूवेति। ३. जाव (क)। ४. सं० पा०—दंडणाणं जाव नो बहणं । ५. सं० पा०-सिज्झिस्सति जाव सव्व। ६. एतम्मि (क)। ७. जोगे (ख)। ८. ४ (ख, वृ)। ६. फोडए (ख)। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्लेव पदं तइयं अज्झयणं आहारपरिपणा १. सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु आहारपरिण्णा णामज्भ । तस्स णं अथम, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदोणं वा दाहिणं वा सव्वओ' सव्वावति च णं लोगंसि 'चत्तारि बीयकाया एवमाहिज्जंति, तं जहाअबीया मूलबीया पोरबीया खंधबीया" ।। थावर काय पगरणं पुढ विजोणिरुक्खस्स आहार पदं २. तेसि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवकमा', 'तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्वमा णाणाविह जोगियासु पुढवीसु रुक्खत्ताए विउति । ते जीवा तासि णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा १. सव्वाओ (क, चू) । २. नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - "वणस्सइकाइयाण पंचविहा बीजवक्कंती एवमाहिज्जइ, तं जहा - अग्गमूल पोरुक्खंध बीयरुहा छट्टावि एगिदिया संमुच्छिमा बीया जायंते " (वृ, चू) । ३. पुढविवुक्कमा ( क, ख, वृ); वृत्तिकृता सर्वत्र व्युत्क्रमपदं व्याख्यातमस्ति, किन्तु चूर्णीरेण सर्वत्र अवक्रमपदं व्याख्यातम् आयुर्वेद ४ ग्रन्थेष्वपि अस्मिन्नर्थे अवक्रान्तिशब्दो लभ्यते । ° तदुक्कमा ( क, ख ); तदुब्वुक्कमा (वृ); केसि चि आलावग चेव एस णत्थि, जेसि पि अतिथ तेसिपि उक्तार्थ एव (चू ) । ५. प्रत्योः अत्र 'तेसि' पाठो लभ्यते । असौ अशुद्धः प्रतिभाति । चूर्णो वृत्तो च 'तासि' इति पाठो विद्यते । ४०३ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ सूयगडो २ आहारति पुढविसरोरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तिसपाणसरीरं ? ] ' । 'णाणा विहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविक संतं ['सव्वप्पणत्ताए आहारेंति] 1 १. वणप्फइ (क)। प्रथमपद्धतेरालापकेषु 'तसपाणसरीरं' इति २. वनस्पतेरालापकानां पद्धतिद्वयं विद्यते । पाठः कोष्ठके नियोजित:, द्वितीयपद्धतेरालापप्रथमायां पद्धतौ द्विचत्वारिंशत् आलापका: केषु च आदर्शानुसारी पाठः स्वीकृतः । सन्ति । द्वितीयस्यां च द्वात्रिंशत् आलापकाः । 'तसपाणसरीर' इति पाठस्य नियोजनं निराद्वयोः पद्धस्योः को भेदोऽस्तीति चूर्णिव्याख्यया धारं नास्ति । 'णाणाविहाणं तसथावराणं न ज्ञातुं शक्यते । वृत्त्या दीपिकया च तत्रैका पाणाणं सरीरं अचित्तं कुब्वंति' इति पाठेन भेदरेखा खचितास्ति । प्रथमपद्धतौ-'ते जीवा स्वयमेव त्रसप्राणशरीरस्याहारः प्रतिपादितो आहारेंति पुढविसरीरं आ उसरीरं ते उसरीर भवति । वृत्तिकारेणाप्यस्य समर्थनं क्रियतेवाउसरीरं वणस्स इसरीरं' एतावान् पाठोस्ति । किंबहुनोक्तेन?, नानाविधानां त्रसस्थावराणां द्वितीयपद्धती-ते जीवा आहाति पूढवि- प्राणिनां यच्छरीर तत्ते समुत्पद्यमानाः सरीरं आउसरीर तेउसरीरं बाउसरीरं 'अचित्त' मिति स्वकायेनावष्टभ्य प्रासुकीवणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं'। अत्र 'तस- कुर्वन्ति (वृ) । यदि वनस्पति. असप्राणपाणसरीरं' इति विशिष्टमस्ति । वृत्तिकार- शरीस्याहारं न कुर्यात् तहि उक्तपाठस्य दीपिकाकाराभ्यां द्वितीयपद्धते ाख्याया अन्ते संगतिः कथं स्यात् ? अप्कायादिसूत्रेष्वपि उक्तवैशिष्ट्यस्य समर्थनं कृतमस्ति, यथा-- इत्थमेव लभ्यते । तेन उक्तपाठनियोजन सानां प्राणिनां शरीरमाहारयन्त्येतदवसाने सम्यक्त लिभाति । ३. नासौ पाठश्चूाँ व्याख्यातः । तत्रासौ द्रष्टव्यम् (व) । साना शरीरमाहारयन्तीति पाठान्तररूपेण उल्लिखितोस्ति, नागार्जअंते ज्ञेयम् (दीपिका)। हस्तलिखितादर्शषु नीयास्तु अवरं च णं असंबद्धं पुढविसरीरं प्रथमपद्धतेरालापका: पूर्ववद वर्तन्ते । द्वितीय जाव णाणाविधाणं तसथावराणं पाणाणं शरीर पद्धतेरालारकेषु 'तसपाणत्ताए विउति' अचित्तं कुव्वंति जंतवो, पुव्वविउटै चेव इति वैशिष्ट्यमस्ति । द्रष्टव्यः ४४ सूत्रस्य जीवेणं जीवसहगतं आहारत्ताए गेण्हति, तंपि पादटिप्पणगतः संक्षिप्तपाठः । जया सरीरत्ताए परिणामेति तदा अचेतनीयदि वृत्त्यनुसारी पाठ: स्वीक्रियेत तदा करोति,कथं वा अण्णण जीवेण परिग्गहितं ताव वनस्पतियोनिकाना सानां निरूपणं नान्य अण्णसरीरत्ताए परिणमेति ? जया पूण परित्रोपलभ्यते । चत्तं भवति, जीवेण जेणेव सरीरगं णिवत्तियदि च आदर्शानुसारी पाठः स्वीक्रियेत तदा तमासी तदा अण्णो जीवो आहरेति, (च)। वनस्पते: घसप्राणशरीरस्य आहारनिरूपणं l नान्यत्रोपलभ्यते । ५. सारूवियकडं (क, ख)। एतामभयमुखी समस्या समाधातुं अस्माभिः ६. आदर्शयो: 'संत' इति पदस्याग्रे क्रियापदं Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) ४०५ 'अवरे वि य णं" तेसि पुढविजोणियाणं रुक्खार्ण सरीराणाणावण्णा णाणागंधा जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ३. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा', तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा', कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएहि रुक्षेहि रुक्खत्ताए विउम॒ति । ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति --ते जीवा आरारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीर? || णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य ण तेसिं रुक्खजोणियाण रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ४. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा', कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु रुक्खत्ताए विउटुंति ।। ते जीवा तेसि रुखखजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेंति पढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं? ] | णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा *णाणागंधा नोपलभ्यते । चूर्णी 'संत' इदि पदं नास्ति भणंति (च)। व्याख्यातं, किन्तु 'सव्वप्पणत्ताए आहारेंति' २. रुक्खवूक्कमा (ख, ब)। इति क्रियापदं लभ्यते । वृत्तौ च सत्पदस्याग्रे ३. तदुवकमा (ख, ब)। तन्मयतां प्रतिपद्यते इति विवृतमस्ति । ४. °वक्कम (क); °वृक्कमा (ख, व)। १. नागार्जुनीयास्तु एवं सम्प्रतिपन्ना:-अवरे वि ५. रुक्खवूक्कमा (ख, व) सर्वत्र । यण, कतरं? संबद्धमसंबद्धं वा, जो पुढ- ६. तदुवकमा (ख, व) सर्वत्र । विकाइयसरीरेहि तस्यापतितोगः संश्लेष ७. तत्थवुक्कमा (ख, वृ) सर्वत्र । इत्यर्थः, तेसि तं पुढवितप्पढ़मताए सिणेह- ८. सरीरगं (ख)। माहारयति, असंबद्धं पुण ज पासत्तो पुढवि- ६. सं० पा०—णाणावण्णा जाव ते जीवा। सरीरं वा ते पुण पण्णत्ती आलावगा वि Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सूयगडो २ णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ५. अहावरं पुरक्खायं—इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउटुंति । ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्स इसरीरं [तसपाणसरीरं? 1 गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं 'पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं° सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं सि रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं' 'पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं' बीयाणं सरीरा णाणावण्णा गाणागंधा' *णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया °णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अज्झारोहरुक्खस्स आहार-पदं ६. अहावरं पुरक्खायं--इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोगिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएहि रुक्खेहि अज्झारोहत्ताए" विउद॒ति । ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ? ] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थ तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं° सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] अवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावण्णा' णाणा रसा जाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ७. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा' १. सं० पा०—सरीरं जाव सारूविकडं । २. सं० पा०-पवालाणं जाव बीयाणं। ३. सं० पा०—णाणागंधा जाव णाणाबिह: । ४. अज्झोरुह ° (क) सर्वत्र । ५. सं० पा०--पुढविसरीरं जाव सारूविकडं। ६. सं० पा०—णाणावण्णा जाव मक्खाय । ७. सं० पा०-अज्झारोहसंभवा जाव कम्मणियाणणं । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयण (आहारपरिणा) *अज्झारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा° कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु अज्झारोहेसु अज्झारोहताए विउद्धृति । ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं' अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति–ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्स इसरीरं [तसपाणसरीरं? ] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं • सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारति ?] अवरे वि य णं तेसि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावण्णा' *णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति° मक्खायं । ८. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा' 'अज्झारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा अज्झारोहजोणिए सु अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्साइसरीरं [तसपाणसरीरं ?] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं ° सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] 1 . अवरे वि य णं तेसि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावण्णा' 'णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ६. अहावरं पुरक्खायं-~-इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा' 'अज्झारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा° कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा अज्झारोहजोणिएसु अज्झारोहेसु मूलत्ताए' 'कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए° बीयत्ताए विउद॒ति । १. अज्झारोहजोणियाणं (ख), अशुद्ध प्रतिभाति। ५. सं० पा.--.पूढविसरीरं जाव सारूविकडं। २. सं० पा०--पूढविसरीरं जाव सारूविकडं। ६. सं० पा.---णाणावणा जाव मक्खाय । ३. सं० पा०–णाणावण्णा जाव मक्खाय। ७. सं० पा०-अज्झारोहसंभवा जाव कम्मणि४. सं० पा.--अज्झारोहसंभवा जाव कम्म- याणेणं।। णियाणेणं । ८. सं० पा०- मूलत्ताए जाव बीयत्ताए। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ सूयगडो २ ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेंति'_' जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तं उसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुब्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संत [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] ० ॥ अवरे वि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं मूलाणं 'कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुष्फाणं फलाणं ° बीयाणं सरीरा णाणावण्णा' *णाणागंधा णागारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति° मक्खायं ।। पुढविजोणियतणस्स आहार-पदं १०. अहावरं पुरक्खायं--इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा' 'पुढविवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु तणत्ताए विउट्ठति ।। ते जीवा तासि णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति --'ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ? ] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?} अवरे वि य णं तेसि पुढविजोणियाणं तणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ "अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसि पुढविजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेंति–ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं?]] जाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ? ॥ १. सं० पा०-सिणेहमाहारेति जाव अवरे। २. सं० पा०---मूलाणं जाव बीयाणं ।। ३. सं० पी०--णाणावण्णा जाव मक्खायं । ४. सं० पा०-पूढविसंभवा जाव णाणाविह° । ५. सं० पा०-सिणेहमाहारेंति जाव ते जीवा । ६. सं० पा०–एवं पुढविजोणिएसु तणेस तणत्ताए विउति जाव मक्खायं । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) अवरे वि य णं ते सिं पुढविजोणियाणं तणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा जाणासंठाणसठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउविया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। १२. "अहावरं पुरक्खायं—इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसिं तणजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेति –ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउस रीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?]। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तेसि तणजोणियाणं तणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा गाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।।। १३. “अहावरं पुरक्खायं- इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवकम्मा तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसि तणजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउस रोरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सवप्पणत्ताए आहारेंति ?]। अवरे वि य णं तेसि तणजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाणारसा णाणाफासा जाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति ति ° मक्खायं ।। पुढविजोणियओसहिस्स-आहार-पदं १४. “अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, १. सं० पा०–एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए जाव बीयत्ताए विउटेति । ते जीवा जाव विउति । तणजोणियं तणसरीर च आहा- मक्खायं। रेंति जाव मक्खायं। ३. सं० पा०--एवं ओसहीण वि चत्तारि २. सं० पा०--एवं तणजोणिएसुतणेसु मूलत्ताए आलावगा। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० १५. सूयगडो २ तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु ओसहित्ताए विउद्वंति। ते जीवा तासि णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारैति–ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ? | णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुन्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सिव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तासि पुढविजोणियाणं ओसहीणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा पाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहिवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा, पुढविजोणियासु ओसहीसु ओसहित्ताए विउद॒ति । ते जीवा तासि पुढविजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरोरं [तसपाणसरीरं?]। गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरोरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सबप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य णं तासि पुढविजोणियाणं ओसहीणं सरीराणाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहिवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा ओसहिजोणियासु ओसहीसु ओस हित्ताए विउद॒ति ।। ते जीवा तासि ओसहिजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति--ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?]णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ? ] 1 अवरे वि य णं तासि ओसहिजोणियाणं ओसहीणं सरीरा णाणावण्णा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउविया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। १७. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहि Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) ४११ वक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा ओसहिजोणियासु ओसहीसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउदृति । ते जीवा तासि ओसहिजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति–ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?] | णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सवप्पणत्ताए अ अवरे वि य णं तेसि ओसहिजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया जाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। पुढविजोणियहरियस्स आहार-पदं १८. “अहावरं पुरक्खायं—इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढवि वक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थबक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु हरियत्ताए विउम॒ति । ते जीवा तासि णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं बाउसरीरं वणस्स इसरीरं [तसपाणसरीरं?] | जाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुमति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संत [सव्वप्पणत्ताए आहारैति ?] । अवरे वि य णं तेसि पुढविजोणियाणं हरियाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएसु हरिएसु हरियत्ताए विउद्भृति । ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति–ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?]। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं १. सं० पा०-एवं हरियाण वि चत्तारि आलावगा। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rest २ सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारति ? ] । अवरे वियणं तेसि पुढविजोणियाणं हरियाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ २०. अहावरं पुरखायं - इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कम्मा, तज्जोगिया तस्संभवा तव्ववकमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा हरियजोगिएसु हरिएसु हरियत्ताए विउट्टंति । ४१२ ते जीवा तेसि हरियजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति--ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ? ] | णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारति ? | | अवरे वि य णं तेसि हरियजोणियाणं हरियाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउब्विया. ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ २१. अहावरं पुरक्खायं -- इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा हरियजोगिएसु हरिएसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुष्कत्ताए फलत्ताए वीयत्ताए विउट्टंति । ते जीवा तेसि हरियजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउस रीरं वणस्स इसरीरं [तसपाणसरीरं ? ] । पाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुब्व्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ? ] | अवरे वि य णं तेसि हरियजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालानं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाणारसा जाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ पुढ विजोणिय कुहणस्स आहार -पदं २२. अहावरं पुरक्खायं -- इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा' 'पुढविवक्कमा, १. सं० पा० पुढविसंभवा जाव कम्म° । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) ४१३ तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा० कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु आयत्ताए' कायत्ताए कुहणत्ताए कंदुकताए' उव्वेहलियत्ताए णिव्वेहलियत्ताए सछ [त्त ? ] त्ताए' छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए करत्ताए विउति। ते जीवा तासिं जाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीर वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं?] । णाणाविहाणं तसथावराण पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] | अवरे वि य णं तेसि पुढविजोणियाणं आयाणं कायाणं कुहणाणं कंदकाणं उन्वेहलियाणं णिव्वेहलियाणं सछत्ताणं छत्तगाणं वासाणियाणं° कूराणं सरीरा णाणावपणा' 'णाणागंधा जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउब्विया। ते जोवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खाय। 'एक्को चेव आलावगो, सेसा तिण्णि णत्थि" ।। उदगजोणियरक्खस्स आहार-पदं २३. अहावरं पुरक्खाय-इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा' 'उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा' कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु रुक्खत्ताए विउटुंति ।। ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारति पुढविसरीरं" 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउस रोरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ?] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीर अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सव्वप्पणताए आहारेंति ? ] अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा *णाणागंधा १. आयत्ताए वायत्ताए (क) । ७. सं० पा०--णाणावण्णा जाव मक्खायं । २. कुदुकत्ताए (क): कंदुत्ताए (ख)। ८. कुहणेषु त्वेक एवालापको द्रष्टव्यः, तद्यो३. सछत्ताए सज्झताए (क)। निकानामपरेषामभावादिति भावः (ब)। ४. वासि (क)। ६. सं० पा०-~-उदगसंभवा जाव कम्म° | ५ सं० पा०---पुढविसरीरं जाव संतं । १०. सं० पा०-पुढविसरीरं जाव संतं। ६. आयत्ताण (ख); सं० पा०-आयाणं जाव ११. सं० पा०--णाणावण्णा जाव मक्खायं। कूराणं। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ सूयगडो २ २४. णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोमालविउम्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। "अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएहि रुक्खेहिं रुक्खत्ताए विउम॒ति । ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेति –ते जीवा आहारेंति पढविसरोरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?]। जाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरोरं अचित्तं कुवंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा पाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउविया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ २५. अहावरं परक्खाय-इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियागेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु रुक्खेसु रुक्खत्ताए विउम॒ति । ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पढविसरीरं आउसरोरं ते उसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?]। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?]। अवरे विय सेसि उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। २६. अहावरं पुरक्खायं -इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु रुखेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुष्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाण १. सं० पा०---जहा पुढविजोणियाण रुक्खाण चत्तारि गमा अज्झारोहाण वि तहेव, तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियव्वा एक्केक्के। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्मयणं (आहारपरिण्णा) सरीरं ?] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सब्वप्पणत्ताए आहारेति ?] अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताण पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरोरपोग्गल वि उब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अज्झारोहरुक्खस्स आहार-पदं २७. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्त। रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएहि रुक्खेहि अज्झारोहत्ताए विउद्वंति। ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति--ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरोरं [तसपाणसरीरं ? ] । णाणाविहाणं तसथावराण पाणाणं सरोरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। २८. अहावरं पुरक्खायं --इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसभवा अज्झारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउट्टति । ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारति पूढविसरीर आउसरीर तेउसरार बाउसरीर वणस्सइसरीर [तसपाणसरीरं ? ] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारैति ? ] । अवरे वि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीराणाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीर पोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। २६. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा अजमारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. ४१६ सूयगडो २ तत्थवक्कमा अज्झारोहजोणिएस अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं ते उसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं ?] । णाणाविहाणं तसथाव राणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणताए आहारति?] । अवरे वि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्बिया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं --इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा अज्झारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा अज्झारोहजोणिएसु अज्झारोहेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउदृति। ते जीवा तेसि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति--ते जीवा आहारेंति पुढविस रोरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तिसपाणसरीरं ? ] । णाणाविहाण तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वति । परिविद्वत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारति ? ]। अवरे वि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं मूलाण कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं वीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउब्विया। ते जीवा कम्मोववष्णगा भवंति त्ति मक्खायं । उदगजोणियतणस्स आहार-पदं ३१. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु तणत्ताए विउटुंति। ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति--ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं (तसपाणसरीरं ? ] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं सतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] | अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं तणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ तइयं अज्झयणं (आहारपरिण्णा) ३२. अहावरं पुरखायं - इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उणिएतसुतणत्ताए विउति । ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारैतिने जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ? ] | णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुठति । परिविद्वत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] | अवरे वियणं तेसि उदगजोणियाणं तणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायें || ३३. अहावरं पुरखायं -- इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा जोणिसुतणेसु तत्ताए विउट्टंति । ते जीवा तेसि तणजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं बाउसरोरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ? ] | णाणाविहाणं तस्थावराणं पाषाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं । सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे विय णं तेसि तणजोणियाणं तणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोवणगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ३४. अहावरं पुरक्खायं -- इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्मा, कम्मोवगा कम्मणियाणेण तत्थवक्कमा तणजोगिएसुतणेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुष्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउद्धृति । ते जीवा तेसि तणजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेंति पुढविसरोरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ? ] 1 णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुत्राहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संत [ सम्वप्पणत्ताए आहारति ? ] | Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ सूयगडो २ अवरे वि य णं तेसिं तणजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं वीयाणं सरीरा णाणावणा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा जाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउविया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ उदगजोणियओसहिस्स आहार-पदं ३५. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा गाणाविहजोणिएसु उदएसु ओसहित्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तिसपाणसरीरं ?] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] ! अवरे वि य णं तासि उदगजोणियाणं ओसहीणं सरीरा णाणावण्णा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा गाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ३६. अहावर पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहि वक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणियासु ओसहीसु ओसहित्ताए विउद॒ति । ते जीवा तासि उदगजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ? || णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकर्ड संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] 1 अवरे वि य णं तासिं उदगजोणियाणं ओसहीणं सरीरा पाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मवखायं । अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहिवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा ओसहिजोणियासु ओसहीसु ओसहित्ताए विउद॒ति । ते जीवा तासि ओसहिजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तिसपाणसरीरं ?] | णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं ३७. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिण्णा) ४१६ कुवंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुन्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तासि ओसहिजोणियाणं ओसहीण सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहिवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा ओसहिजोणियासु ओसहीसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउम॒ति । ते जीवा तासि ओसहिजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ?] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सव्वप्पणत्ताए आहारति? अवरे वि य गं तेसि ओसहिजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा गाणाफासा गाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गलविउन्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। उदगजोणियहरियस्स आहार-पदं ३६. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्ववकमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु हरियत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारति पढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं ? ] 1 णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सव्वप्पणत्ताए अ अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं हरियाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउम्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु हरिएसु हरियत्ताए विउद॒ति । ग Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० सूयगडो २ ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति---ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तिसपाणसरीर? ] ! णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारति ?]। अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं हरियाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा गाणासठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउन्विया । ते जीवा कम्मोववरणगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा हरियजोणिएसु हरिएसु हरियत्ताए विउद॒ति ।। ते जीवा तेसि हरियजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?] । णाणाविद्वाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कन्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकर्ड संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तेसि हरियजोणियाणं हरियाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ४२. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा, कम्मणियाणेषं तत्थवक्कमा हरियजोणिएसु हरिएसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसि हरियजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति–ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं दणस्स इसरीरं [तसपाणसरीरं? ] । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तेसि हरियजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति ति मक्खायं ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) ४२१ उदगजोणियसेवालादिस्स आहार-पदं ४३. अहावरं पुरवखायं-इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा' 'उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा' कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालत्ताए कलंबुगत्ताए हढत्ताए' कसेरुगत्ताए कच्छभागियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुयताए णलिणत्ताए सुभगत्ताए सोगंधियत्ताए पोंडरीयत्ताए महापोंडरीयत्ताए सयपत्तत्ताए सहस्सपत्तत्ताए कल्हारत्ताए कोकणयत्ताए अरविदत्ताए तामरसत्ताए भिसत्ताए भिसमुणालत्ताए पुक्खलत्ताए पुक्खलच्छिभगत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसिं जाणाविहजोणियाण उदगाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेति पुढविसरीर' 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं ?। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं • संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं अवगाणं पणगाण सेवालाणं कलंबुगाणं हढाणं कसे रुगाणं कच्छभाणियाणं उप्पलाणं पउमाणं कुमुयाणं णलिणाणं सुभगाणं सोगंधियाणं पोंडरीयाणे महापोंडरीयाणं सयपत्ताणं सहस्सपत्ताणं कल्हाराणं कोकणयाणं अरविंदाणं तामरसाणं भिसाणं भिसमुणालाणं पुक्खलाणं पुक्खलच्छिभगाणं सरीरा णाणावण्णा' 'णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति ति° मक्खायं । रुक्खजोणियतसपाणस्स आहार-पदं ४४. "अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, १. सं० पा०----उदगसंभवा जाव कम्म । २. X (क, ख)। ३. हठत्ताए (क)। ४. पोक्खलत्थिभगत्ताए (क)। ५. सं० पा०—पूढविसरीरं जाव संतं । ६. पोक्खलत्थिभगत्ताणं (क, ख)। ७. सं० पा०--णाणावण्णा जाव मक्खायं । ८. सं० पा०-अहावरं पुरक्खायं--इहेगइया सत्ता तेहि चेव (१) पुढविजोणिएहिं रुक्खेहि, (२) रुक्खजोगिएहि रुक्खेहि, (३) रुक्ख जोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहि । (४) रुक्ख जोणिएहिं अज्झोरुहेहि; (५)अज्झोरहजोणिएहिं अज्झोरुहेहिं, (६) अज्झोरुहजोणिएहिं जाव बीएहिं । (७) पढविजोणिएहि तणेहि, (८) तणजोणिएहि तहिं, () तणजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहि । (१०-१२) एवं ओसहीहि वि तिग्णि आलावगा। (१३-१५) एवं हरिएहि वि तिषिण Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ सूयगडो २ तज्जोणिया तस्संभवा तव्ववकमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएहिं रुक्षेहि तसपाणत्ताए' विउद॒ति । ते जीवा तेसि पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेति–ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] | अवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा गाणावण्णा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं—इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा रुवखजोणिएहि रुक्खेहिं तसपाणत्ताए विउद्भृति । ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुन्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ? ] | कूरेहि। आलावगा। तणजोणियाण ओसहिजोणियाणं हरियजोणि(१६) पुढविजोणिएहिं आएहि जाव याणं रुक्खाणं अज्झोरुहाणं तणाणं ओसहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं (१) उदगजोणिएहिं रुक्खेहि, (२) रुक्खजा- कायाणं जाव कुरवाणं उदगाणं जाव पुक्खणिएहि रुक्खेहि, (३) रुक्खजोणिएहिं मूलेहि लच्छिभगाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा जाव बीएहि । आहारेति पुढविस रोरं जाव संतं । (४-६) एवं अन्झोरुहेहिं वि तिण्णि । अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झो(७-६) तणेहिं वि तिण्णि आलावगा। रुहजोणियाण तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं (१०-१२) ओसहीहि वि तिष्णि । हरियजोणियाणं मूलजोणियाण जाव बीयजो(१३-१५) हरिएहि वि तिण्णि । णियाण आयजोणियाण कायजोणियाणं जाव (१६) उदगजोणिएहि उदएहि अवएहिं जाव कुरवजोणियाणं उदगजोणियाणं अवगजोणिपुक्खलच्छिभएहि तसपाणत्ताए विउति । याणं जाव पुक्खलच्छिभगजोणियाणं तसपा. ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं, उदगजोणि- णाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं । याणं रुक्खजोणियाणं अज्झोरुहजोणियाण १. चूर्णी वृत्तौ च सर्वत्रापि नासो व्याख्यातः। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयं अभयणं (आहारपरिण्णा) ४२३ अवरे वियणं तेसि रुक्खजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मो ववणगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ४६. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएहि मूलेहिं कंदेहि खंधेहि तयाहि सालाहि पवालेहि पत्तेहि पुप्फेहि फले हि बीएहिं तसपाणत्ताए विउति । ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेति - ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकर्ड संतं [ सव्व पणत्ताए आहारेंति ? ] 1 अवरे वियण तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियाणं पुप्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीजोणियाण तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरी रपोग्गल विउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ अझारोह जोणिय-तसपाणस्स आहार- पदं ४७. अहावरं पुरखायं -- इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुवखसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएहि अज्झारोहेहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वपणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे विय णं तेसि अज्झारोहजोगियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा गाणगंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोगलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ४८. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा अज्झारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा अज्झारोह जोणिएहि अज्झारोहेहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ सूयगडो २ ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं ते उसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरोरं अचित्तं कुब्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारति ?] 1 अवरे वि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं । ४६. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा अज्झारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा अज्झारोहजोणिएहि मूलेहि कंदेहि खंधेहिं तयाहिं सालाहि पवालेहिं पत्तेहिं पुप्फेहि फलेहिं बीएहिं तसपाणत्ताए विउटुंति । ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं मूलाणं कदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सिव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य णं तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियाणं पुप्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीयजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ तणजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ५०. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएहि तणेहि तसपाणत्ताए विउद॒ति ।। ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं ते उसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] | अवरे वि य णं तेसि तणजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ५१. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जो णिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाण्णं तत्थवक्कमा तणजोणिएहि तणेहि तसपाणत्ताए विउट्ठति । ते जीवा तेसिं तणजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं ते उसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुब्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?|| अवरे वि य णं तेसि तणजोणियाणं तसपाणाणं सरोरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा गाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ५२. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेण तत्थवक्कमा तणजोणिएहि मूलेहिं कंदेहि खंहिं तयाहि सालाहिं पवालेहि पत्तेहिं पुप्फेहिं फलेहिं बीएहिं तसपाणत्ताए विउम॒ति ।। ते जीवा तेसिं तणजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं वीयाण सिणेहमाहारेति--ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सवप्पणत्ताए आहारेति ? अवरे वि य णं तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियाणं पुप्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीयजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउन्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं । ओस हिजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ५३. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणियाहिं ओसहीहिं तसपाणत्ताए विउद्भृति । ते जीवा तासि पुढविजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ सूयगडो २ पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकड संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तेसि ओसहिजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं-इहेगझ्या सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहिवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा ओसहिजोणियाहिं ओसहीहि तसपाणत्ताए विउद॒ति ।। ते जीवा तासि ओसहिजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं त सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणय सारूविकड संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?]। अवरे वि य ण तेसि ओसहिजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउ व्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ५५. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहि वक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेण तत्थवक्कमा ओसहिजोणिएहिं मूलेहि कंदेहिं खंधेहिं तयाहिं सालाहि पवालेहि पत्तेहि पुष्फहि फलेहि बीएहि तसपाणत्ताए विउदृति । ते जीवा तेसि ओसहिजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाण पत्ताणं पुष्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीर पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तैसि मलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाण सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियाणं पुप्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीयजोणियाणं तसपाणाणं सरीराणाणावण्णा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झणं (आहारपरिण्णा) हरियजोणिय तसपाणस्स आहार - पर्द ५६. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएहि हरिएहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । जीवासि पुढविजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । पाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे वि य णं तेसि हरियजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ५७. अहावरं पुरक्खायं -- इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थववकमा हरियजोणिएहिं हरिएहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । ४२७ ते जीवा तेसि हरियजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेति - ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । जाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्यं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडे संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे विणं तेसि हरियजोणियाणं तसपाणाण सरीरा णाणावण्णा पाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरी रपोग्गल विउब्विया । ते जीवा कम्मोववणगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ५८. अहावरं पुरक्खायं -- इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, तज्जोगिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा हरियजोणिएहि मूलेहि कदेहि संधेहि तयाहि सालाहि पवालेहि पत्तेहिं पुप्फेहि फलेहि वीएहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । ते जीवा तेसि हरियजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सब्वप्पणत्ताए आहारैति ? ] । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ सूयगडो २ अवरे वि य णं तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियाणं पुष्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीयजोणियाणं तसपाणाणं सरीराणाणावपणा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। कुहणजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ५६. अहावरं पुरक्खायं—इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढविजोणिएहिं आएहिं काएहिं कुहणेहिं कंदुकेहि उव्वेहलिएहि णिवेहलिएहि सछत्तेहिं छत्तगेहिं वासाणिएहिं कूरेहिं तसपाणत्ताए विउटुंति । ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं आयाणं कायाणं कुहणाणं कंदुकाणं उब्वेलियाणं णिव्वेहलियाणं सछत्ताणं छत्तगाणं वासाणियाणं कुराणं सिणेहमाहारेति–ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरोरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराण पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य णं तेसिं आयजोणियाणं कायजोणियाणं कुहणजोणियाणं कंदुकजोणियाणं उव्वेहलियजोणियाणं णिव्वेहलियजोणियाणं सछत्तजोणियाणं छत्तगजोणियाणं वासाणियजोणियाणं कूरजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववष्णगा भवंति त्ति मक्खायं। एक्को चेव आला वगो, सेसा दो णत्थि। रुक्खजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ६०. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएहिं रुक्खेहिं तसपाणत्ताए विउटुंति ।। ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरोरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] अवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ तइयं अज्झयणं (आहारपरिण्णा) जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरी रपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ६१. अहावरं पुरखखायं - इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थववकमा रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहिं तसपाणत्ताए विउति । ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाषाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वष्णत्ताए आहारेति ? ] | अवरे विय गं तेसिं रुक्खजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ६२. अहावरं पुरखखायं - इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं कंदेहि खंधेहि तथाहि सालाहि पवालेहिं पत्तेहिं पुप्फेहि फलेहिं बीएहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । गाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्यणत्ताए आहाति ? ] । अवरे वि य णं तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियागं पुप्फजोणियाणं फलजोगियाणं बीयजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ अभारोहजो णिय-तस पाणस्स आहार-पदं ६३. अहावरं पुरखायं --- इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वकम्मा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्यवक्कमा रुक्खजोणिएहि अभारोहेहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ? ] । अवरे वि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ अहावरं पुरक्खाय - इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा अज्झारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवग्गा कम्मणियाणणं तत्थवक्कमा अज्झारोहजोणिएहि अज्झारोहेहिं तसपाणत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसिं अज्झा रोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति--ते जीवा आहारेंति पढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सिव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?]। अवरे वि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा गाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं---इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा अज्भारोहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियागणं तत्थवक्कमा अज्झारोहजोणिएहिं मूलेहिं कंदेहिं खंधेहि तयाहिं सालाहिं पवाले हिं पत्तेहिं पुप्फेहि फलेहि बीएहिं तसपाणत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसि अज्झारोहजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेति ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सिव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] ! अवरे वि य णं तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियाणं पुप्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीयजोणियाणं तसपागाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ६५. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) ४३१ तणजोणिय-तसपाणस्स आहार-पदं ६६. अहावरं पुरक्खायं-- इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएहि तहिं तसपाणत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेंति--ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं आउसरीरं ते उसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सवप्पणत्ताए आहारेंति ? अवरे विय णं तेसि तणजोणियाणं तसपाणाणं सरीराणाणावपणा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउविया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ६७. अहावरं पुरक्खायं—इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा तणजोणिएहि तणेहिं तसपाणत्ताए विउद्भृति। ते जीवा तेसि तणजोणियाणं तणाणं सिणेहमाहारेंति--ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?}। अवरे वियतेसि तणजोणियाणं तसपाणाणं सरीराणाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ६८. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता तणजोणिया तणसंभवा तणवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा तणजोणिएहिं मूलेहि कंदेहि खंधेहिं तयाहिं सालाहि पवालेहिं पत्तेहिं पुप्फेहि फलेहिं बीएहि तसपाणत्ताए विउद्भृति । ते जीवा तेसि तणजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेंति--ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ सूयगडो २ अवरे वि य णं तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोगियाणं पत्तजोणियाणं पुप्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीयजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ओस हिजो जिय-तसपाणस्स आहार-पदं ६६. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोगियाहि ओसहीहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । ते जीवा तासि उदगजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइस रीरं तसपाणसरीरं । णाणा विहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्यणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे वि य णं तेसि ओसहिजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ७०. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहिवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्वमा ओसहिजोणियाणं ओसहीहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । ते जीवा तासि ओसहिजोणियाणं ओसहीणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वष्पणत्ताए आहारैति ? ] । अवरे वियणं तेसि ओसहिजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं || ७१. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता ओसहिजोणिया ओसहिसंभवा ओसहिवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवककमा ओस हिजोणिएहि मूलेहि कंदेहि खंधेहिं तयाहि सालाहि पवालेहि पत्तेहि पुप्फेहि फलेहि बीएहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । ते जीवा तेसि ओसहिजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेंति Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिण्णा) ४३३ पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । पाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुण्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ? ] । अवरे वि य णं तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियाणं पुप्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीयजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा गाणारसा गाणा फासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मो वण्णा भवति त्ति मक्खायं । हरियजोणिय तसपाणस्स आहार-पर्व ७२. अहावरं पुरखखायं - इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्यक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएहि हरिएहिं तसपाणत्ताए विउति । ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । ाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ? ] 1 अवरे वियणं तेसि हरियजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा पाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंडिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ७३. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा हरियजोणिएहि हरिएहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति | ते जीवा तेसि हरियजोणियाणं हरियाणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारति पुढत्रिसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । पाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ? ] | अवरे विय गं तेसि हरियजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं || ७४. अहावरं पुरखखायं - इहेगइया सत्ता हरियजोणिया हरियसंभवा हरियवक्कमा, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ सूयगड २ तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा हरियजोणिएहिं मूलेहिं कंदेहि खंधेहिं तयाहि सालाहि पवालेहिं पत्तेहिं पुप्फे हिं फलेहिं बीएहिं तसपाणत्ताए विउट्टंति । - ते जीवा तेसि हरियजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं पत्ताणं पुप्फाणं फलाणं बीयाणं सिणेहमाहारेति ते जीवा आहारति ढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुब्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुण्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्यणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे वि य णं तेसि मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं खंधजोणियाणं तयजोणियाणं सालजोणियाणं पवालजोणियाणं पत्तजोणियाणं पुप्फजोणियाणं फलजोणियाणं बीयजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा गाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववणगा भवंति त्ति मवखायं ॥ सेवालादिजोणिय तसपाणस्स आहार पदं ७५. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कम्मा उदगजोणिएहिं उदगेहिं अवगेहिं पणगेहिं सेवालेहि कलंबुगेहिं हढेहि कसेरुगेहि कच्छभाणिएहि उप्पलेहिं परमेहिं कुमुएहिं णलिणेहिं सुभगेहिं सोगंधिएहि पोंडरीएहि महापोंडरीएहिं सयपत्तेहि सहस्सपत्तेहि कल्हारेहि कोकणएहि अरविदेहि तामरसेहि भिसेहि भिसमुणालेहिं पुक्खलेहिं पुक्खलच्छिभगेहि तस पाणत्ताए विउति | ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं अवगाणं पणगाणं सेवालाणं कलंबुगाणं हढाणं कसेरुगाणं कच्छभाणियाणं उप्पलाणं परमाणं कुमुयाणं णलिणाणं सुभगाणं सोगंधियाणं पोंडरीयाणं महापोंडरीयाणं सयपत्ताणं सहस्सपत्ताणं कल्हाराणं कोकणयाणं अरविदाणं तामरसाणं भिसाणं भिसमुणालाणं पुक्खलाणं पुक्खल च्छिभगाणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं पणगजोणियाणं सेवालजोणियाणं कलंबुगजोणियाणं हृढजोणियाणं कसेरुगजोणियाणं कच्छभाणिय 1 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्भयणं (आहारपरिणा) ४३५ जोणियाणं उप्पलजोणियाणं पउमजोणियाणं कुमुयजोणियाणं णलिणजोणियाण सुभगजोणियाणं सोगंधियजोणियाणं पोंडरीयजोणियाणं महापोंडरीयजोणियाणं सयपत्तजोणियाणं सहस्सपत्तजोणियाणं कल्हारजोणियाण कोकणयजोणियाणं अविदजोणियाणं तामरसजोणियाणं भिसजोणियाणं भिसमुणालजोणियाणं पुक्खलजोणियाणं पुक्खलच्छिभगजोणियाणं तसपाणाण सरीर णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउविया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ तसकाय-पगरणं मणुस्सस्स आहार-पदं ७६. अहावरं पुरक्खायं-णाणाविहाणं मणुस्साणं, तं जहा–कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खूण । तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणिए, एत्थ णं मेहुणवत्तियाए णामं संजोगे समुप्पज्जइ। ते दुहओ वि सिणेहं संचिणंति । तत्थ णं जीवा इस्थित्ताए पुरिसत्ताए गपुंसगत्ताए विउटुंति । 'ते जीवा माउओयं पिउसुक्क तदुभय-संसटुं कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारमाहारेति । तओ पच्छा जं से माया गाणाविहाओ रसवईओ" आहारमाहारेति, तओ एगदेसेणं ओयमाहारेति । अणुपुट्वेणं वुड्डा पलिपागमणुपवण्णा', तओ कायाओ अभिणिवट्टमाणा इत्थि वेगया जणयंति, पुरिसं वेगया जणयंति, णसगं वेगया जणयंति । ते जीवा डहरा समाणा 'माउक्खीरं सप्पि आहारेति, अणपुटवेणं वुड्डा ओयणं कुम्मासं तसथावरे य पाणे-ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं? 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं १. मिलक्खुयाणं (क)। ८. पनियागमणुचिण्णा (क); पलिभागमणु२. अहावकासेणं (क, ख) चिन्ना (ख)। ३. पा. वि.व्याकरणदृष्ट्या सप्तम्येकवचने ६. वेगइया (ख) सर्वत्र । दीर्घत्वं स्यात् । १०. चूौं 'माउसवीर' शब्दस्याऽनन्तरमेव 'सप्पि' ४. माओउयं (चू)। शब्दः व्याख्यातः, यथा---खीर मातु: स्तन्यं, ५. पिय° (ख)। सप्पि घृत वाणवणीतं वा । वृत्ती 'वूड्डा' इति ६. चूणौं असो पाठः –माओउयं सोणियं पितः शब्दस्याऽनन्तरं-नवनीतदध्योदनादिकं याव शुक्रम्--एतावानेव व्याख्यातोस्ति, वृत्ती च कुल्माषान् भुञ्जते । प्रतिषु नेत्थं लभ्यते । नास्ति व्याख्यात:। ११. सं० पा० --पूहविसरीरं जाव सारूविकडं। ५. रमविहीओ (क); रसविगईओ (चू)। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ सूयगडो २ वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुन्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणताए आहारति ?] । अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं मणुस्सगाणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खूणं सरीरा णाणावण्णा' 'णाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोवण्णगा° भवंति त्ति मक्खायं ॥ जलचरस्स आहार-पदं ७७. अहावरं पुरक्खायं—णाणाविहाणं जलचराणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जहा–मच्छाणं' 'कच्छभाणं गाहाणं मगराणं ° सुंसुमाराणं । तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्म' कडाए जोणिए, एत्थ णं मेहुणवत्तियाए णाम संजोगे समुप्पज्जइ। ते दुहओ वि सिणेहं संचिति । तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पूरिसत्ताए णपंसगत्ताए विउदति। ते जीवा माउओयं पिउसुक्कं तदुभय-संसटुं कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारमाहारेति । तओ पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रसवईओ आहारमाहारेति,° तओ एगदेसेणं ओयमाहारेति । अणुपुब्वेणं वना पलिपागमणुपवण्णा', तओ कायाओ अभिणिवट्टमाणा अंडं वेगया जणयंति, पोयं वेगया जणयंति, से अंडे उभिज्जमाणे इत्थि वेगया जणयंति, परिसं वेगया जणयंति. णपंसर्ग वेगया जणयंति। ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारेंति, अणुपुत्वेणं वुड्डा वणस्सइकायं तसथावरे य पाणे ते जीवा आहारेंति पुढविसरोरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ° संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य णं तेसि णाणाविहाणं जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं' 'कच्छभाणं गाहाणं मगराणं ° सुंसुमाराणं सरीरा णाणावण्णा' *णाणागंधा १. सं० पा०-णाणावण्णा जाव भवंति। ५. जे (क)। २. सं० पा.----प्रच्छाण जाव सुंसुमारणं । ६. सं० पा०-पुढविसरीरं जाव संतं । ३. सं० पा०--कम्म तहेव जाव तओ। ७. सं० पा०--मच्छाणं जाव सुंसुमाराणं । ४. पलिभागमणुचिन्ना (क); पलितागमणुचिन्ना ८. सं. पा.--णाणावण्णा जाव मक्खायं । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। चउप्पयथलचरस्स आहार-पदं ७८. अहावरं पुरक्खायं—णाणाविहाणं च उप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जहा–एगखुराणं दुखुराणं मंडीपदाणं सणप्फयाणं । तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्म"कडाए जोणिए, एत्थ णं' मेहुणवत्तिए णामं संजोगे समुप्पज्जइ । ते दुहओ वि सिणेहं संचिति । तत्थ णं जीवा इस्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए ° विउद॒ति । ते जीवा माउओयं पिउसुक्क' 'तदुभय-संसटुं कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारमाहारेंति । तओ पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रसवईओ आहारमाहारेति, तओं एगदेसेणं ओयमाहारेति । अणुपुब्वेणं वुड्डा पलिपागमणुपवपणा तओ कायाओ अभिणिवट्टमाणा' इत्थि वेगया जणयंति, पुरिसं वेगया जणयंति, णपुंसगं वेगया जणयंति । ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सप्पि आहारेंति, अणपूव्वेणं बड़ा वणस्सइकायं तसथावरे य पाणे-ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कव्वति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ° संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?]। अवरे वि य णं तेसिं गाणाविहाणं चउप्पयथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुराणं 'दुखुराणं गंडीपदाणं° सणप्फयाणं सरीरा णाणावण्णा *णाणागंधा णाणारसा जाणाफासा णाणासंठाणसं ठिया णाणाविहसरीरपोग्गलबिउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। उरपरिसप्पथलचरस्स आहार-पदं ७९. अहावरं पुरक्खायं-णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणि याणं, तं जहा--अहीणं अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं । तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स *य कम्मकडाए जोणिए, एत्थ णं १. सणपयाण (क)। २. सं० पा०-कम्म जाव मेहुणवत्तिए। ३. सं० पा०—पुरिसत्ताए जाव विउऐति। ४. सं० पा०–एवं जहा मणुस्साणं जाब इत्थि। १. सं० पा०-पुढविसरीरं जाव संतं । ६. सं० पा०–एगखुराणं जाव सणप्फयाणं । ७. सं० पा०—ाणावण्णा जाव मक्खायं । ८. सं० पा० - पुरिसस्स जाव एत्थ णं मेहणे एवं तं चेव नाणत्त । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ सूयगडो २ मेहुणवत्तियाए णामं संजोगे समुप्पज्जइ। ते दुहओ वि सिणेहं संचिणंति । तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुसगत्ताए विउति ।। ते जीवा माउओयं पिउसुक्कं तदुभय-संसटुं कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारमाहारेति ! तओ पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रसवईओ आहारमाहारेति, तओ एगदेसेणं ओयमाहारेति। अणुपुत्वेणं वुड्डा पलिपागमणुपवण्णा, तओ कायाओ अभिणिवट्टमाणा ° अंडं वेगया जणयंति, पोयं वेगया जयंति । से अंडे उब्भिज्जमाणे इत्थि वेगया जणयंति, पुरिसं 'वेगया जणयंति', गपुंसगं 'वेगया जणयंति। ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारंति, अणुपुत्वेणं वुड्डा वर्णस्सइकायं तसथावरे य पाणे-ते जीवा आहारति पढविसरीरं 'आउसरीर तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ° संत [ सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं अहीणं अवगराणं आसालियाणं° महोरगाणं सरीरा गाणावण्णा *णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववष्णगा भवंति त्ति ° मक्खायं । भुयपरिसप्पथलचरस्स आहार-पदं ८०. अहावरं पुरवखायं-णाणाविहाणं भुयपरिसप्पथलचरपंचिदियतिरिक्खजोणि याणं, तं जहा-गोहाणं णउलाणं सेहाणं सरडाणं सल्लाणं सरवाणं खाराणं घरकोइलियाण विस्संभराणं मूसगाणं मंगुसाणं पयलाइयाणं विरालियाणं जाहाणं चाउप्पाइयाणं । तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए परिसस्स य *कम्मकडाए जोणिए, एत्थ णं मेहुणवत्तियाए णामं संजोगे समुप्पज्जइ । ते दहओ वि सिणेहं संचिणंति । तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए गपुंसगत्ताए विउद॒ति । ते जीवा माउओयं पिउसुक्कं तदुभय-संसटुं कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारमाहारेति । तओ पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रसवईओ आहारमाहारेति, तओ एगदेसेणं ओयमाहारेति । अणुपुव्वेणं वुड्डा पलिपागमणुपवण्णा, तओ कायाओ अभिणिवट्टमाणा अंडं वेगया जणयंति, पोयं वेगया जणयंति । से अंडे १,२. पि (क, ख)। ३. स० पा०-पुढविसरीरं जाव संत । ४. सं० पा०-अहीणं जाव महोरगाणं ५. सं० पा०–णाणावण्णा जाव मक्खायं । ६. घरकोल्लि (क)। ७. सं० पा०--जहा उरपरिसप्पाणं तहा भागियव्वं जाव सारूविकडं। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिण्णा) उब्भिज्जमाणे इत्थि वेगया जणयंति, पुरिसं वेगया जणयंति, गपुसगं वेगया जणयति । ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारेति, अणुपुवेणं वुड्डा वणस्स इकायं तसथावरे य पाणे-ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुम्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं भयपरिसप्पपंचिदियथलचरतिरिक्खजोणियाणं गोहाणं ण उलाणं सेहाणं सरडाणं सल्लाणं सरवाणं खाराणं घरकोइलियाणं विस्संभ राणं मूसगाणं मंगुसाणं पयलाइयाणं विरालियाणं जाहाणं चाउप्पाइयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया जाणाविहसरीरपोग्गलविउविया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। खहचरस्स आहार-पदं ८१. अहावरं पुरक्खायं–णाणाविहाणं खहचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं', तं जहा–चम्मपक्खीणं लोमपक्खोणं समुग्गपक्खीणं विततपक्खीणं । तेसि च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए "पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणिए, एत्थ णं मेहुणवत्तियाए णामं संजोगे समुप्पज्जइ । ते दुहओ वि सिणेहं संचिणंति । तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए विउम॒ति । ते जीवा माउओयं पिउसुक्कं तदुभय-संसट्ठ कलुसं किब्बिसं तप्पढमयाए आहारमाहारेंति । तओ पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रसवईओ आहारमाहारेति, तओ एगदेसेणं ओयमाहारेति । अणुपुब्वेणं वुड्डा पलिपागमणुपवण्णा, तओ कायाओ अभिणिवट्टमाणा अंडं वेगया जणयंति, पोयं वेगया जणयंति । से अंडे उब्भिज्जमाणे इत्थि वेगया जणयंति, पुरिसं वेगया जणयंति, णसगं वेगया जणयंति । ते जीवा डहरा समाणा माउगायसिणेहमाहारैति, अणुपुव्वेणं बुड्डा वणस्सइकायं तसथावरे य पाणे-ते जीवा आहारेति पुढविसरीर' 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ° संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । १. सं० पा०-गोहाणं जाव मक्खायं । २. खचर ° (क)। ३. सं० पा०—जहा उरपरिसप्पाणं नाणतं० । ४. पुवेणं च णं (क)। ५. सं० पा०—पुढविसरीरं जाव संत। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० सूयगडो २ अवरे वि य णं तेसि णाणाविहाणं खहचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चम्मपक्खीणं' 'लोमपक्खीणं समुग्गपक्खीणं विततपक्खीणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा जाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति° मक्खायं ।। विलिदियस्स आहार-पदं ८२. अहावरं पुरक्खायं--इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा णाणाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अणुसूयत्ताए विउटुंति । ते जीवा तेसिं गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ° संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अणुसूयगाणं' सरीरा णाणावण्णा' *णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया जाणाविहसरीर पोग्गलविउव्विया ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति ° मक्खायं ।। ८३. "अहावरं पूरक्खायं—इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा णाणाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं मणुस्साणं तिरिक्खजोणियाण य सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा दुरूवसंभवत्ताए विउम॒ति । ते जीवा तेसि णाणाविहाणं मणुस्साणं तिरिक्खजोणियाण य सिणेहमाहारेंतिते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीर तसपाणसरीरं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति। १. सं० पा०-चम्मपक्खीणं जाव मक्खायं । आदर्शन्यत्रासौ पाठो नोपलब्धस्तेन प्रायः २. तत्थोवकमा (ख); ८२ सूत्रस्य वृत्ती 'तत्र सर्वत्रापि तत्थवक्कमा' इति पाठः स्वीकृतः । उपक्रम्य' तथा ८५ सूत्रस्य वृत्तौ 'तत्र ३. सं० पा०---पूढविसरीरं जाव संतं । व्युत्क्रम्य' इति व्याख्यातमस्ति । अन्यत्र ४. अणुसूयाणं (क)। सर्वत्रापि तत्र व्युत्क्रमा' इति व्याख्यातम् । ५. सं० पा०—णाणावण्णा जाव मक्खायं । लिपिदोषेणैकरूपस्यापि पाठस्य भिन्नता ६. सं० पा०–एवं दुरूवसंभवत्ताए एवं जातेति प्रतीयते । सर्वत्रापि तत्थावक्कम्म खुरदुगत्ताए। (तत्रावक्रम्य) इति पाठो युज्यते । किन्तु Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिण्णा) ८४. परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संत [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य णं तेसिं मणुस्सतिरिक्खजोणियाणं दुरूवसंभवाणं सरीरा णाणावण्णा जाणागंधा जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववष्णगा भवंति त्ति मक्खायं । __ अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा णाणाविवक्क्रम्मा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कम्मा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा खुरदुगत्ताए' विउ,ति । ते जीवा तेसि णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वं ति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] | अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं खुरदुगाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाणारसा जाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीर पोग्गलविउविया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। आउकायस्स आहार-पदं ८५. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया 'णाणाविहसंभवा णाणाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा [उदगत्ताए विउद॒ति ? ] : तं सरीरगं वायसंसिद्धं वायसंगहियं वायपरिगयं उडदवाएस उडढंभागी भवइ. अहेवाएस अहेभागी भवइ, तिरियंवाएसु तिरियभागी भवइ, तं जहा--उस्सा' हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए। ते जीवा तेसि णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं 'आउसरीरं ते उसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराण पाणाणं सरीरं अचित्तं कुठवंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारति ? ] । --. -.-... ---- १. खुरुडुगत्ताए (चू)। ३. ओसा (क)। २. सं० पा०-~णाणाविहजोणिया जाव कम्म। ४. सं० पा०-पुढविसरीरं जाव संतं । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ सूयगडो २ अवरे वि य णं तेसि तसथावरजोणियाणं उस्साणं' 'हिमगाणं महिगाणं करगाणं हरतणुगाणं सुद्धोदगाणं सरीरा णाणावण्णा *णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवति त्ति° मक्खायं । ८६. अहावरं पुरक्खायं ... इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा' 'उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा' कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा तसथावरजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउद॒ति ।। ते जीवा तेसि तसथावरजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति--ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्स इसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ° संतं [सब्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] । अवरे वि य णं तसथावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाणावण्णा' *णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा गाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ८७. अहावरं पुरक्खायं--इहेगइया सत्ता उदगजोणिया 'उदगसंभवा उदगवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा' कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति --ते जीवा आहारेंति पढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरोरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुब्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सब्बप्पणताए आहारेति ?] 1 अवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाणावण्णा •णाणागंधा णासारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ८८. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता उदगजोणिया 'उदगसंभवा उदगवक्कमा, १. सं० पा०-- उस्साणं जाव सुद्धोदगाणं। २. सं० पा०---णाणावण्णा जाब मक्खायं । ६. सं० पा०-उदगसंभवा जाव कम्म । ४. सं० पा०-पुढविसरीरं जाव संतं । ५. सं० पा०----याणावण्णा जाव मक्खायं । ६. सं० पा०-उदगजोणिया जाव कम्म; उदगजोणियाणं (ख) अशुद्ध प्रतिभाति । ७. सं० पा०--पुढविसरीरं जाव संतं । ८. सं० पा०-णाणावण्णा जाव मक्खायं । ६. सं० पा०-उदगजोणिया जाव कम्म । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा' कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु उदएसु तसपाणत्ताए विउति ।। ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति-ते जीवा आहारेति पुढविसरीर' आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्स इसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुब्बाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ° संतं सिव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] | अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा' *णाणागंधा जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया। ते जीवा कम्मोववष्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ अगणिकायस्स आहार-पदं ८६. अहावरं पुरक्खाय-इहेगइया सत्ता गाणाविहजोणिया' *णाणाविहसंभवा णाणाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तन्वक्कमा, कम्मोवगा° कम्मणियाणेण तत्थवक्क मा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्ते वा अगणिकायत्ताए विउद॒ति । ते जीवा तेसि णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति–ते जीवा आहारंति पूढविसरोरं 'आउसरीरं तेउसुरीरं वाउसरीरं वणस्सडसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ° संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारति ?] । अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अगणीणं सरीरा णाणावण्णा' *णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउविया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं । १०. "अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता अगणिजोगिया अगणिसंभवा अगणि वक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा तसथावरजोणिएसु अगणीसु अगणिकायत्ताए विउति। ते जीवा तेसि तसथावरजोणियाणं अगणीणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्स इसरीरं तसपाणसरीरं । १. सं० पा०--पुढविसरीर जाव संत । २. सं० पा०-पाणावण्णा जाव मक्खायं । ३. सं० पा.---णाणाविहजोणिया जाव कम्म, ४. सं० पा०---पुढविसरीरं जाव संतं । ५. सं० पा०-~णाणावण्णा जाप मक्खायं । ६. सं० पा०-सेसा तिणि आलावगा जहा उदगाणं । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ सूयगडो २ ६१. णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] | अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अगणीणं सरीराणाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया जाणाविहस रीरपोरगलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता अगणिजोणिया अगणिसंभवा अगणिवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा अगणिजोणिएस अगणीसु अगणिकायत्ताए विउदति । ते जीवा तेसि अगणिजोणियाणं अगणीण सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य णं तेसि अगणिजोणियाणं अगणीणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ६२. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता अगणिजोणिया अगणिसंभवा अगणि वक्कमा, तज्जोणिया तस्ससंभवा तव्बक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थबक्कमा अगणिजोणिएसु अगणीसु तसपाणत्ताए विउदृति। ते जीवा तेसि अगणिजोणियाणं अगणीणं सिणेहमाहारेंति-- ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति। परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सवप्पणत्ताए आहारेंति ?]। अवरेविय णं तेसिं अगणिजोणियाणं तसपाणाणं सरीराणाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा गाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। वाउकायस्स आहार-पदं ६३. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया' *णाणाविहसंभवा णाणाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणिया ,. सं० पा०–णाणाविहजोणिया जाव कम्म । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं (आहारपरिणा) ४४५ णेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा वाउक्कायत्ताए विउद॒ति । "ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति–ते जोवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वति । परिविद्धत्थं तं सरोरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेति ?] । अवरे वि य गं तेसि तसथावरजोणियाणं वाऊणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। ६४. अहावरं पुरक्खायं----इहेगइया सत्ता वाउजोणिया वाउसंभवा वाउवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा तसथावरजोणिएसू वाऊसू वाउकायत्ताए विउट्रात। ते जीवा तेसि तसथावरजोणियाणं वाऊणं सिणेहमाहारेति-ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] | अवरे वि य णं तेसि तसथावरजोणियाणं वाऊणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरोरपोग्गलविउम्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता वाउजोणिया वाउसंभवा वाउवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा वाउजोगिएसु वाऊसु वाउकायत्ताए विउम॒ति ।। ते जीवा तेसिं वाउजोणियाणं वाऊणं सिणेहमाहारेंति–ते जोवा आहारति पढविसरीरं आउसरीरं तेउसरोरं वाउसरीरं वणस्स इसरीरं तसपाणसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] अवरे वि य ण तेसि वाउजोणियाणं वाऊणं सरीराणाणावण्णा णाणागंधr जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। १. सं० पा०--जहा अगणीणं तहा भाणियब्वा चत्तारिगमा। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ सूयगडो २ ६६. अहावरं पुरखखायं - इहेगइया सत्ता वाउजोणिया वाउसंभवा वाउवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थववकमा वाउजोणिएसु वाऊ तसपाणत्ताए विउति । ते जीवा तेसि वाउजोणियाणं वाऊणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । गाणाविहाणं तस्थावराणं पाषाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वष्णत्ताए आहारैति ? ] । अवरे विणं तेसि वाउजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाणारसा णाणाकासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं || 0 पुढविकायस्स आहार पदं ७. अहावरं पुरक्खायं - इहेगइया सत्ता णाणाविहजोगिया' 'णाणाविहसंभवा णाणाविहवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्ववकमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए सक्करत्ताए वालुयत्ताए जाव' सूरकंतत्ताए विट्टेति । ते जीवा तेसि णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति - ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं 'आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तपाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । १. सं० पा०-- जाणाविहजोणिया जाव कम्म | २. जाव शब्दस्य पूरकपाठः -- इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ १. पुढवी व सक्करा वालुया य, उथले सिला य लोणू से | अय तउय तम्ब सोसग, रूप्प सुवण्णे य वइरे य ॥ २. हरियाले हिंगुलुए, मणोसिला सासगंजणपवाले । अब्भपडलब्भवालय, arrरकाए मणिविहाणा || ३. गोमेज्जए य रुपए, अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले, ४. चंदणगेरुय हंसगन्भ मदनी ॥ पुलए सोगंधिए य वोद्धव्वे । चंदप्पभवे रुलिए, जलकंते सूरकंते य ! एयाओ एएसु भाणियव्वाओ गाहाओ( क, ख ) 1 उल्लिखितसंग्रहगाथानां चूण वृत्तौ च कोपि संकेतो नोपलभ्यते । ३. सं० पा० - पुढविसरीरं जाव संतं । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झणं (आहारपरिण्णा) संत परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं ० [ सव्वष्पणत्ताए आहारेंति ? ] | अवरे वि य णं तासि तसथावरजोणियाणं पुढवीणं' 'सक्कराणं वालुयाणं जाव° सूरकंताणं सरीरा णाणावण्णा' 'णाणागंधा जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहारीरपोग्गलवि उव्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ ६८. अहावरं पुरखायें -- इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थववकमा तसथावरजोणियासु पुढवीसु पुढवित्ताए विउति । ४४७ ते जीवा तासि तसथावरजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीर वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तस पाणसरीरं । णाणाविहाणं तस्थावराणं पाषाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वष्णत्ताए आहारेति ? 1 1 अवरे वि य णं तासि तसथावरजोणियाणं पुढवीणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया । ते जीवा कम्मोववणगा भवति त्ति मक्खायं ॥ ६६. अहावरं पुरखायं - इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्त्रक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेगं तत्थवक्कमा ढविणयासु पुढची पुढवित्ताए विउति । ते जीवा तासि पुढवजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति - ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं तसपाणसरीरं । गाणाविहाणं तस्थादराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वति । परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [ सव्वप्पणत्ताए आहारेति ? ] । अवरे वि य णं तासि पुढविजोणियाणं पुढवीणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा गाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गल विउब्विया । ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ॥ १००. अहावरं पुरखखायं - इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा पुढ विजोगियासु पुढवी तसपाणत्ताए विउति । १. सं० पा०-- पुढवीणं जाव सूरकंताणं । २. सं० पा० णाणावण्णा जाव मक्खायं । ३. सं० पा० - सेसा तिष्णि आलावगा जहा उदगाणं । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ सूयगडो २ ते जोवा तासिं पुढविजोणियाणं पुढवोणं सिणेहमाहारेति–ते जीवा आहारेंति पुढविसरोरं आउसरीरं ते उसरोरं वाउसरोरं वस्तइस रोरं तसपाणसरीरं । णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति। परिविद्धत्थं त सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं [सव्वप्पणत्ताए आहारेंति ?] | अवरे वि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया पाणाविहसरोरपोग्गलविउध्विया। ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंति त्ति मक्खायं ।। निक्खेव-पदं १०१. अहावरं पुरक्खायं-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता णाणाविह जोणिया गाणाविहसंभवा गाणाविहवक्कमा, सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरवक्कमा, सरीराहारा कम्मोवगा कम्मणियाणा कम्मगइया कम्मठिइया कम्मणा' चेव विप्परियासमुति ।। १०२. सेवमायाणह' सेवमायाणित्ता' आहारगुत्ते समिए सहिए सया जए । --त्ति बेमि॥ १. कम्मुणा (क)। २, ३. से एव ° (ख)। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं पच्चक्खाणकिरिया पइण्णा -पदं सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु पच्चक्खाणकिरियाणामज्झयणे। तस्स णं अयमद्वे-आया अपच्चक्खाणी यावि भवइ । आया अकिरियाकुसले यावि भवइ। आया मिच्छासंठिए यावि भवइ । आया एगंतदंडे यावि भवइ । आया एगंतबाले यावि भवइ । आया एगंतसुत्ते यावि भवइ । आया अवियार-मण-वयण-काय-वक्के यावि भवइ । आया अप्पडिहयपच्चक्खाय'-पावकम्मे यावि भवइ। एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे सकिरिए असंवडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते । से बाले अवियार-मण-वयण काय-वक्के सुविणमवि ण पस्सइ, पावे य से कम्मे कज्जइ ।। चोयगस्स अक्खेव-पदं २. तत्थ चोयए पण्णवर्ग एवं वयासो-असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वईए पावियाए, असंतएणं काएणं पावएणं, अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियार-मणवयण'-काय-वक्कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे णो कज्जइ । कस्स णं तं हेउं ? चोयए एवं ब्रवीति'-अण्णयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अण्णयरीए वईए पावियाए वइवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अण्णयरेणं १. अपच्चक्खाय (ख)। २. वयस (क, ख)। ३. बवीति (क्व)। ४. पत्तिए (क)। ४४६ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० सूयगडो २ कारणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, हणंतस्स समणक्खस्स सवियारमण-बयण-काय-वक्कस्स सुविणमवि पासओ-एवंगुणजातीयस्स पावे कम्मे कज्जइ। पुणरवि चोयए एवं ब्रवीति –तत्थणं जेते एवमाहंसु-असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वईए पावियाए, असंतएणं काएणं पावएणं, अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियार-मण-वयण-काय-वक्कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइ--- [तत्थ णं जे ते एवमाहंसु] ' मिच्छं ते एवमासु ।। हेउ-पदं ३. तत्थ पण्णवए चोयगं एवं वयासी-जं मए पुव्वं वुत्तं असंतएणं मणेणं पावएणं, असंतियाए वईए पावियाए, असंतएणं काएणं पावएणं, अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियार-मण वयण-काय-वक्कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइतं सम्म। कस्स णं तं हेउं? आचार्य आह-तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहापढविकाइया' 'आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया. तसकाइया । इच्चेतेहि छहि जीवणिकाएहिं आया अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे, णिच्च पसढ-विओवात-चित्त-दंडे, तं जहा—'पाणाइवाए' 'मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे "माणे मायाए लोहे पेज्जे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरईए मायामोसे° मिच्छादसणसल्ले ॥ १. एतत् पुनरुक्तं वर्तते तेन कोष्ठके विन्यस्तम् ।। अदिण्णादाणचित्तदंडे भवइ । मेहणे आया २. सं० पा०-पुढविकाइया जाव तसकाइया। अपडियपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्च पसढ३. विउवाय (क, ख)। मेहणचितदंडे भवइ । परिग्गहे आया अप्पडि४. सं० पा०-पाणाइवाए जाव परिग्गहे । हयपच्चखाय-पावकम्मे णिच्च पसढपरिगह५. सं० पा० --कोहे जाव मिच्छा । चित्तदंडे भवइ। कोहे आया अप्पडिय६. प्राणातिपातादारभ्य मिथ्यादर्शनशल्यपर्यन्तं पच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्चं पसढकोहचित्तदंडे संक्षिप्तपाठो वर्तते। चूणिवृत्त्योरनुसारेण स भवइ । माणे आया अप्पडिहयपच्चक्खायएवं विस्तृतो भवति–पाणाइवाए आया पावक्कमे णिचं पसढमाणचितदंडे भवइ । अपडियपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्चं पसढ- मायाए आया अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे पाणाइवायचित्तदंडे भवई। मुसावाए आया णिच्च पसढमायचित्तदंडे भवइ । लोहे आया अपडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्चं पसढ- अप्पडिहयपच्च क्खाय-पावकम्मे णिचं पसद्धमूसावायचित्तदंडे भवइ । अदिण्णादाणे आया लोहचित्तदंडे भवइ। पेज्जे आया अप्पडिहयअप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्च पसढ- पच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्चं पसढ़पेज्जचित्तदंडे Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च उत्थं अज्झयणं (पच्चक्खाणकिरिया) दिळंत-पदं ४. आचार्य आह-तत्थ खलु भगवया वहए दिटुंते पण्णते-से जहाणामए वहए सिया गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा खणं णिदाए पविसिस्सामि खणं लक्ष्ण वहिस्सामित्ति पहारेमाणे । से कि णु हु णाम से वहए 'तस्स वा' गाहावइस्स तस्स' वा गाहावइपुत्तस्स तस्स' वा रण्णो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं णिदाए पविसिस्सामि खणं लद्धणं वहिस्सामित्ति पहारेमाणे" दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढ-विओवाय-चित्तदंडे भवइ ? एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे ? चोयए-हंता भवइ ।। उवणय-पदं ५. आचार्य आह-जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स तस्स वा गाहावइपुत्तस्स तस्स वा रण्णो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं णिदाए पविसिस्सामि खणं लळूण वहिस्सामित्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्च पसढ-विओवाय-चित्तदंडे, एवामेव बाले वि सव्वेसि पाणाणं "सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सब्वेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा भवइ । दोसे आया अप्पडिहयपच्चक्खाय- पसढमिच्छादसणसल्लचित्तदंडे भवइ । पावकम्मे णिच्चं पसढदोसचित्तदंडे भव। १. X (ख)। कलहे आया अप्पडिहयपच्चक्खाय-पाव कम्मे २, ३, ४. X (ख)। णिच्च पसढकलहचित्तदंडे भवइ । अन्भक्खाणे ५. °पुरिसस्स वा (ख) । आया अप्पडिहय गच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्चं ६. नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-'अप्पणो अक्खणपसढअब्भक्खाणचित्त दंडे भवइ । पेमण्णे आया याए तस्म वा पुरिसस्स छिदं अलभमाणे णो अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्वं पसढ़- वहेइ, तं जया मे खुणो भविस्सइ तस्स पेसुण्णचित्तदंडे भवइ । परपरिवाए आया पुरिसस्स छिदं लंभिस्सामि तया मे स पुरिसे अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्चं पसढ- अबस्सं वहेयन्वे भविस्सइ, एवं मणो पहारेपरपरिवायचित्तदंडे भवइ । अर इरईए आया मागे (चू, वृ)। अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्वं पसढ- ७. विउवाय (क, ख)। अरइरईचितवंडे भवइ। मायामोसे आया ८. ०मीति (क)। अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्चं पसढ- ६. वित्तिवाय (क)। मायामोसचित्तदंडे भवइ । मिच्छादसणसल्ले १०. सं० पा.-.-पाणाणं जाव सव्वेसि । आया अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे णिच्च Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ सूयगड २ सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढ - विओवाय'चित्तदंड, तं जहा - पाणाइवाए जाव' मिच्छादंसणसल्ले' । एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडियपच्चक्खाय - पावकम्मे सकिरिए असंवुड़े एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते 'यावि भवइ" । से बाले अवियारमण-वयण'- काय वक्के सुविणमवि ण परसइ, पावे य से कम्मे कज्जइ || निगमण-पदं ० ६. जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स" "तस्स वा गाहावइपुत्तस्स तस्स वा रण्णो' तस्स वा रायपुरिसस्स 'पत्तेयं - पत्तेय" चित्तं समादाय" दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढ- विओवायचित्तदंडे भवइ, एवामेव वाले सव्वेसि पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं • सव्वेसि सत्ताणं पत्तेयं-पत्तेयं चित्तं समादाय दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढ - विओवाय-चित्तदंडे भवइ ॥ चोयगस्स अक्खेव पदं ७. 'णो इणट्टे समट्टे""-इह खलु बहवे पाणा, जे इमेणं सरीरसमुस्सएणं णो दिट्ठा वा सुया वा णाभिमया" वा विष्णाया वा, जेसि णो पत्तेयं-पत्तेयं चित्तं समादाय" दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढ - विओवाय चित्तदंडे, तं जहा- 'पाणाइवाए जाव" मिच्छादंसणसल्ले" || १. विउवाय ( क, ख ) । २. सू० २/४१३ । ३. णिच्च पसढपाणाइवायचित्त दंडे णिच्चं पसढमुसावायचित्तदंडे, णिच्चं पसढअदिण्णादाण चित्तदंडे एवं ‘मिच्छादंसणसल्ल' पर्यन्तं पाठयोजना कार्या । द्रष्टव्यम् - तृतीयसूत्रे एततुल्यपाठस्य पादटिप्पणम् । ६. वयस ( क ) | ७. सं० पा०- गाहावइस्स जाव तस्स | ८. पत्ते (क, ख ) । ६. चित्तसमादाए (क, ख ) 1 १० ११. सं० पा० पाणाणं जाव सव्वेसि | णो हत्थे समत्थे चोयकः ( क ); णो इण्डे ४. एवं ( ख ) । ५. प्रथम सूत्रे एतत्तुल्यवाक्ये 'यावि भवइ' इति १४. सू० २१४ | ३ | पाठांशो नास्ति । चोदकः ( ख ) 1 १२. णाभिमुत्ता ( क ) 1 १३. चित्तसमादाए ( क, ख ) 1 १५. द्रष्टव्यम् - पंचसूत्रे एतत्तुल्यपाठस्य पादटिप्पणम् । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं (पच्चक्खाणकिरिया) ४५३ सण्णि-असण्णि-दिद्वैत-पदं ८. आचार्य आह - तत्य' खलु भगवया दुवे दिटुंता पण्णत्ता, तं जहा–सपिणदिटुंते य असण्णि दिटुंते य॥ ६. से कि तं सण्णिदिद्रुते ? सण्णिदिटुंते-जे इमे सण्णिपंचिदिया पज्जत्तगा। एतेसि णं छज्जीवणिकाए पडुच्च, [पइण्णं कुज्जा ?] । १०. से एगइओ पुढविकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि । तस्स णं एवं भवइ - एवं खल अहं पढविकाएणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि। जो चेव णं से एवं भवइ–इमेण वा इमेण वा । से ‘य तेणं"पुढविकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि। से य तओ" पुढविकायाओ असंजय-अविरय-अप्पडिहयपच्चक्खाय पावकम्मे यावि भवइ।।। ११. "से एगइओ आउकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि । तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं आउकाएणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि । णो चेव णं से एवं भवइ-इमेण वा इमेण वा। से य तेणं आउकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि ! से य तओ आउकायाओ असंजय-अविरय-अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे यावि भवइ । १२. से एगइओ तेउकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि। तस्स णं एवं भवइ - एवं कारणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि । णो चेव णं से एवं भवइइमेण वा इमेण वा । से य तेणं तेउकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि । से य तओ तेउकायाओ असंजय-अविरय-अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे याविभवइ।। १३. से एगइओ वाउकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि । तस्स णं एवं भवइ - एवं खलु अहं वाउकाएणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि । णो चेव णं से एवं भवइइमेण वा इमेण वा। से य तेणं वाउकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि । १. अत्र पूरकपाठरूपेण चूर्णिगतविवरणं लभ्यते एवं चोदएण वृत्ते पण्णवतो भणति-जइ वि तस्स अपच्चक्खाणियस्स अणवकारेसु अणुवजुज्जमाणेसु यतः सन्निकृष्टेसू विप्रकृष्टेस् वधचित्तं ण उप्पज्जति तहा वि सो तेसु अविरति प्रत्ययादमुक्तवरो भवति । २. पडूच्च, त जहा--पुढविकायं जाव तसकायं (क, ख); व्याख्यांशोयं प्रतीयते । ३. एवं भूतां प्रतिज्ञा-नियम कुर्यात् । तद्यथा अहं षट्सु जीवनिकायेषु मध्ये पृथिवीकायेनवैकेन वालुकाशिलोपललवणादि स्वरूपेण 'कृत्य' कार्य कुर्या, स चैवं कृतप्रतिज्ञस्तेन, तस्मिन् तस्मात्तं वा करोति कारयति च (व)। ४. एतेणं (ख)। ५. ताओ (क, ख) ।। ६. सं० पाoएवं जाव तसकाए त्ति भाणि यवं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ सूयगडो २ से य तओ वाउकायाओ असंजय-अविरय-अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे यावि भवइ॥ १४. से एगइओ वणस्सइकाएणं किच्च करेइ वि कारवेइ वि । तस्स णं एवं भवइ--- एवं खलु अहं वणस्सइकाएणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि। णो चेव णं से एवं भवइ-इमेण वा इमेण वा । से य तेणं वणस्सइकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि। से य तओ वणस्सइकायाओ असंजय-अविरय-अप्पडिहय पच्चक्खाय-पावकम्मे यावि भवइ ।। १५. से एगइओ तसकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि। तस्स णं एवं भवइ---एवं खलु अहं तसकाएणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि । णो चेव णं से एवं भवइइमेण वा इमेण वा । से य तेणं तसकाएणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि । से य तओ तसकायाओ असंजय-अविरय-अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे यावि भवइ ° ॥ १६. से एगइओ छज्जीवणिकाएहि किच्चं करेइ वि कारवेइ वि । तस्स णं एव भवइ---- एवं खलु छज्जीवणिकाएहिं किच्च करेमि वि कारवेमि वि । णो चेव णं से एवं भवइ–इमेहिं वा इमेहि वा। से य तेहिं छहिं जीवणिकाएहि' किच्चं करेइ वि° कारवेइ वि । से य तेहिं छहिं जीवणिकाएहि असंजय-अविरय-अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे, तं जहा—'पाणाइवाए जाव' मिच्छादसणसल्ले"। एस खलु भगवया अक्खाए अस्संजए अविरए अप्पडियपच्चक्खाय-पावकम्मे सुविणमवि ‘ण पस्सइ" पावे य से कम्मे कज्जइ। -से तं सण्णिदिद्रुते ।। १. सं० पा.--जीवणिकाएहिं जाव कारवेइ। निर्दिष्टा पाठपद्धतिः प्रजायते-से एगइओ २. सू० २।४।३। मुसं बयइ वि वाएइ वि । तस्स शं एवं ३. एवं मुसावाते वि, ण तस्स एवं भवति-इदं भवइ~-एवं खलु अहं सब्वदन्वेसु मुस वएमि मया वक्तव्यमन्तं इदं नो वत्तव्वमिति, से य वि, वाएमि वि । णो चेव णं से एवं भवइततो मुसावायातो तिविहेण असंजते । इमं वत्तव्यं, इमण वत्तन्वं । से य सव्वदव्वेसु अदिण्णादाणे इदं मया घेत्तव्वं अमुगस्स ण । मुसं वयइ वि, वाएइ वि । से य ण तओ मेथुणं इमं से वियब्वं इमं ण । परिग्गहे इमं मुसावायाओ असंजय-अविरय-अप्पडियघेत्तब्वं इमं ण। कोहे इमस्स रूसितव्वं इमस्स पच्चक्खाय-पावकम्मे । एवं 'मिच्छादसणण । एवं जाव परपरिवाए इमं वा विभासा । सल्ल' पर्यन्तं पाठयोजना कार्या। मिच्छादसणे इमं तत्त्वमिति शेषमतत्त्वमिति ४. ०अपच्चक्खाय (क, ख)। (च)। अस्य चणिविवरणस्याधारेण निम्न- ५. अपस्सओ (क, ख)। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं (पच्चक्खाणकिरिया) ४५५ १७. से कि तं असणिदिद्रुते ? असण्णिदिटुंते-जे इमे असणिणो पाणा, तं जहा-पुढविकाइया' आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया ° वणस्सइकाइया छट्ठा वेगइया तसा पाणा । जेसिं णो तक्का इ वा सण्णा इ वा पण्णा इ वा मणे इ वा वई इ वा सयं वा करणाए, अण्णेहि वा कारवेत्तए, करेंत वा समणुजाणित्तए, ते वि णं बाला सव्वेसि पाणाणं' 'सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं° सव्वेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सूत्ता' वा जागरमाणा' अमित्तभूया मिच्छासंठिया णिच्च पसढ-विओवाय. चित्तदंडा, तं जहा--'पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले"। इच्चेवं जाणे णो चेव मणो णो चेव वई पाणाणं 'भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए पिट्टणयाए परितप्पणयाए, ते दुक्खण-सोयण' 'जूरण - तिप्पण - पिट्टण °-परितप्पण-वह-बंध-परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति। इति" खलु ते असणिणो वि संता अहोणिसं पाणाइवाए उवक्खाइज्जति जाव" अहोणिसं मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति ॥ सण्णि-असण्णि-दिद्रुतस्स परिसेस-पदं १८. सव्वजोणिया वि खलु सत्ता ..सणिणो हुच्चा असणिण्णो होति, असण्णिणो हच्चा सण्णिणो होति, होच्चा सण्णी अदुवा असण्णी। तत्थ से अविविचित्ता अविधूणित्ता" असमुच्छित्ता अणणुतावित्ता असग्णिकायाओ वा सण्णिकायं संकमंति, सष्णिकायाओ वा असण्णिकायं संकमंति, सणिकायाओ वा सपिणकायं संकमंति, असण्णिकायाओ वा असणिकायं संकमंति ।। १६. जे एए सण्णी वा असण्णी वा सब्वे ते मिच्छायारा णिच्चं पसढ-विओवाय चित्तदंडा, तं जहा-'पाणाइवाए जाव" मिच्छादसणसल्ले" । १. सं० पा०-~पूढविकाइया जाव वणस्सइ- ६. सं० पा०--सोयण जाव परितप्पण। काइया। १०. बंधण (क, चू)। २. सं० पा०पाणाण जाव सव्वेसिं। ११. इह (क)। ३. सुत्ते (क, ख)। १२. ये (वृ)। ४. जागरमाण (क, ख)। १३. सू० २।४।३। ५. सू० २।४।३। १४. अविधुणिता (क) ; अविधूणिता (ख)। ६. द्रष्टव्यम् --पञ्चमसूत्रे एतत्तुल्यपाठस्य पाद- १५. सू० २।४।३ । टिप्पणम् । एकवचनस्य स्थाने बहुवचनं १६. द्रष्टव्यम्-पंचमसूत्रे एतत्तुल्यपाठस्य पादकार्य मिति विशेषः । टिप्पणम् । एकवचनस्य स्थाने बहुवचनं कार्य७. जाण (क); जाव (ख)। मिति विशेषः । ८, सं० पा०—पाणाणं जाव सत्ताणं । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ सूयगडो २ २०. एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिय-पच्चक्खाय-पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते । से बाले अवियारमण-वयण-काय-वक्के सुविणमवि ण पासइ, पावे य से कम्मे कज्जइ॥ संजय-पदं २१. चोयग:-से किं कुव्वं ? कि कारवं? कहं संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय पावकम्मे भवइ? आचार्य आह-तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकायाहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-पुढवीकाइया' 'आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्स इकाइया' तसकाइया । से जहाणामए मम अस्सातं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा' वा कवालेण वा आतोडिज्जमाणस्स वा' 'हम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परिताविज्जमाणस्स वा किलामिज्जमाणस्स वा उवद्दविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि-इच्चेवं जाण । सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता दंडेण वा 'अट्ठीण वा मुद्रीण वा लेलुणा वा कवालेण वा आतोडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा तालिज्जमाणा वा परिताविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उवद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति,-एवं णच्चा सव्वे पाणा" 'सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा' 'ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा° ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे धुवे णिइए सासए समेच्च लोग खेत्तण्णेहिं पवेइए॥ २२. एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाओ जाव' मिच्छादसणसल्लाओ ।। २३. से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, णो वमणं, णो धूवणेत्तं पिआइए ॥ १. सं० पा.-पुढविकाइया जाव तसकाइया। ६. सं० पा०–तालिज्जमाणा वा जाव उवद्द२. लेलूण (क, ख)। विज्जमागा। ३. सं० पा०-आतोडिज्जमाणस्स वा जाब ७. सं० पा०--पाणा जाव सव्वे । उवद्दविज्ज । ८. सं० पा०-हंतव्वा जाव ण उद्दवेयवा। ४. हिंसक्कारं (क, ख)। ६. सू० २।४१३ । ५. सं० पा०--दंडेण वा जाव कवालेण । १०. पिआदिते (क, ख)। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं (पच्चक्खाणकिरिया) ४५७ २४. से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे' अमाणे अमाए ° अलोभे उवसंते परि णिव्वुडे ।। २५. एस खलु भगवया अक्खाए संजय - विरय - पडिहय - पच्चक्खाय-पावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए यावि भवइ। -त्ति बेमि ॥ १. सं० पा०--अकोहे जाव अलोभे। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. 'आदाय बंभचेरं च" अस्सि धम्मे अणायारं सासय- असासय-पदं २. अणादीयं परिण्णाय' वा* ठाणेह ठाणेहि ४. समुच्छिज्जिहिति सत्थारो गठिगा वा " भविस्संति, ५. एएहि दोहि ठाणेहिं एएहि दोहि ठाणेह सासयमसासए ३. एएहि दोहि एएहि दोहि सरिस - अस रिस-पदं ६. जे केइ खुहुगा पाणा तेहि वेरं ति दोह ठाणेहिं दोहि ठाणेहिं सरिसं ७. एएहि एएहिं पंचमं अभयणं यारसुर्य १. बंभवेरं आदाय (1) । २. परिण्णा ( क ) । ३. ०दग्गे ( क ), अणवयग्गे (क्व ) | ४. वा बि (क, ख ) । • आपणे इमं बई । णायरेज्ज कयाइ वि ॥ अणवदग्गं ति वा पुणो । इइ दिट्ठि ण ववहारो ण धारए || विज्जई | अणायारं विजाए || सव्वे पाणा अणेलिसा | सासयं ति व णो वए । विज्जई । ववहारो ण अणायारं विजाणए ॥ अदुवा संति असरिसं ति य ववहारो अणायारं महालया । णो वए ॥ ण विज्जई । विजाण ॥ ५. तु जाणए ( क, ख ); तु विजाणए (वृ) सर्वत्र ६. समुच्छेहिति ( ख ) ; वोच्छिज्जिस्संति ( चू) 1 ७. व (ख)। ८. विशदृशम् -- असदृशम् (वृ) । ४५८ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं (आयारसुर्य) अहाकम्म पर्द ८. अहाकम्माणि ' भुजति उवलित्ते त्ति जाणिज्जा ६. एएहिं दोहिं एएहि दोहिं ठाणेहिं ठाणेह सरीरवीरिय-पदं १०. जमिदं ओरालमाहारं सव्वत्थ वीरियं अत्थि ठाणेहिं दोहि दोहि ठाणेहिं ११. एएहि एएहिं लोगादीणं अस्थित्त-सण्णा-पदं १२. णत्थि लोए अत्थि लोए १३. णत्थि जीवा अस्थि जीवा १४. णत्थि धम्मे अत्थि धम्मे १५. णत्थि बंधे अत्थि बंधे १६. णत्थि पुण्णे अस्थि पुण्णे व १७. णत्थि आसवे अलोए वा अलोए वा अजीवा वा अजीवा वा अधम्मे वा २०. णत्थि संवरे वा अस्थि आसवे १५. णत्थि वेयणा णिज्जरा वा अत्थि वेयणा णिज्जरा वा १६. णत्थि किरिया अकिरिया वा अस्थि किरिया अकिरिया वा कोहे व माणे वा अस्थि कोहे व माणे वा अधम्मे वा व मोक्खे वा व मोक्खे वा व पावे वा पावे वा संवरे वा १. आहाकडाति ( क ); अहाकडाणि ( ख ) । २. चूर्णी 'भुंजंति' इति शब्दो नास्ति व्याख्यातः । ३. अन्नमन्नेसु कम्मुणा ( ख ); अण्णमणस्स 'अण्णमण्णे सकम्मुणा" । अणुवलितेति वा पुणो ॥ ववहारो ण विज्जई | अणायारं विजाणए || कम्मगं च णत्थि सव्वत्थ ववहारो ण अणायारं णेवं सण्णं एवं सण्णं वं सणं एवं सण्णं णेवं सण्णं एवं सरणं णेवं सण्णं एवं सण्णं वं सण्णं एवं सण्णं णेवं सण्णं एवं सण्णं णेवं सण्णं तमेव य । वीरियं ॥ विज्जई ! विजाणए ॥ एवं सण्णं णेवं सण्णं णिवेसए । णिवेसए || णिवेसए । णिवेसए || णिवेसए । णिवेसए || णिवेसए । णिवेसए || णिवेसए । णिवेसए || णिवेसए । णिवेसए || णिवेसए । णिवेसए ॥ णिवेसए । एवं सण्णं णेवं सण्णं णिवेसए || णिवेसए एवं सणं णिवेसए || कम्णा (च्) । ४. तहेव ( ख ) । ४५६ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० २१. गत्थि अत्थि २२. णत्थि माया व लोभे वा माया व लोभे वा पेज्जे' व दोसे वा अस्थि पेज्जे व दोसे वा २३. पत्थि चाउरंते अत्थि चाउरते २४. णत्थि देवो व देवी वा वा अतिथ देवो व देवी २५. णत्थि सिद्धी असिद्धी वा अत्थि सिद्धी असिद्धी वा २६. णत्थि सिद्धी णियं ठाणं अत्थि सिद्धी णियं ठाणं २७. पत्थि साहू साहू वा अत्थि साहू असाहू वा २८. णत्थि कल्लाणे पावे वा अस्थि कल्लाणे पावे वा २६. कल्ला पावए वा वि जाणंति जं वेरं तं ण as - विवेग-पदं ३०. असेस अक्खयं वावि वज्झा पाणा 'अवज्भ त्ति" दीसंति णिहुअप्पाणो 'एए मिच्छोवजीवित्ति" ३२. दक्खिणाए पडिलंभो ३१. मेहावी, ठाणेहिं ण वियागरेज्ज ३३. इच्चे एहिं संसारे संसारे धारयंते उ' १. रागे (क्व ) । २. सव्व (क, ख ) 1 ३. अब ति ( ख ) । ४. णीसरे (ख) ५. समियाचारा (क, ख, वृपा) । अप्पाण णेवं सण्णं णिवेसए । एवं सण्णं णिवेसए ॥ णेवं सण्णं णिवेसए । एवं सणं णिवेसए ॥ णेवं सण्णं णिवेसए । एवं सण्णं णिवेसए || णेवं सण्णं णिवेसए । एवं सण्णं णिवेसए || णेवं सण्णं णिवेसए । एवं सण्णं णिवेस ॥ वं सण्णं णिवेसए । एवं सण्णं णिवेसए || वं सण्णं णिवेसए । एवं सण्णं णिवेसए || णेवं सण्णं णिवेसए । एवं सणं णिवेसए | ववहारो ण विज्जइ । समणा बालपंडिया || धारए ॥ सव्वं दुक्खे ति वा पुणो । इति वायं ण णीसिरे ॥ भिक्खुणी साहुजीविणो । इति दिट्ठि ण 'अत्थि वा णत्थि वा संतिभग्गं च बूहए ॥ जिर्णे दिट्ठेहि संजए । आमोक्खाए परिव्वज्जासि ॥ पुणो । -त्ति बेमि ॥ ६. ते य मिच्छाय जीवंति (क) 1 ७. अस्थि णत्थि त्ति वा (क) 1 ८. जिणु (क्व ) ! ६. तु (क) 1 १०. अप्पाणी (क) । सूयगडो २ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. गोसालगस्स अक्खेव पदं १. पुराकडं' अद्द ! इमं सुणेह, से भिक्खवो उवणेत्ता अणेगे साडाजीविया पट्ठवियाऽथिरेणं आइक्खमाणो बहुजण्णमत्थं एतमेव" अदुवा वि इव्हि अद्दगस्स उत्तर-पदं ३. ४. ५. छट्ठ अभयणं अदइज्जं 'पुव्वि च इण्हि च अणागयं च " समेच्च लोगं तस्थावराणं आइक्खमाणो वि सहस्समझे धम्मं कहंतस्स उ णत्थि दोसो भासाय" दोसे य विवज्जगस्स 0 १. पुरे (ख, चू) । २. भिक्खुणो ( ख ) । ३. आइखतेहिं ( क ) । ४. संधियाति (क ) । ५. • मेवं (ख) । ६. ० अणागतं वा ( क ); पुव्वि व पच्छं व अणागतं व (च्) । ७. ° मेवं (ख) 1 एगंतचारी समणे पुरासी । आइक्खतिन्ह' पुढो वित्थरेणं ॥ सभागओ गणओ भिक्खुमज्भे । ण संधयाई* अवरेण पुव्वं ॥ दोsaणमण्णं ण समेंति जम्हा । पडसंधयाइ" || "एगंतमेव" खेमंकरें समणे माहणे वा । एगंतयं सारयई तहच्चे !! खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स । गुणे य भासाय" णिसेवगस्स || ८. एगंतमेवं पडिसंदधाती' ति वक्तव्ये ग्रन्थानुलोम्यात्सुखमोक्खोच्चारणाद् वृत्तवन्धानुवृत्तेश्च पत्थं याति (तू) । ९. लोगे ( ख ) । १०,११. व्या० वि० --- बन्धानुलोम्यात् 'भासाए' इति षष्ठ्यन्तपदस्य स्थाने ' भासाय' इति मृदूच्चारणं कृतम् । ४६१ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ६. गोसाarta अक्खेव पदं ७. सीओदगं सेवउ बीयकार्य एतचारिसिह अम्ह धम्मे, य महम्वए पंच अणुब्वए विर इह स्सामणियम्म पणे अद्दगस्स उत्तर-पदं सीओदगं वा* तह बीयकार्य एयाई जाणे पडिसेवमाणा सिया य बीयोदगइत्थियाओ अगारिणो वि' समणा भवंतु १०. जे यावि बीओदगभोइ भिक्ख ते 'णाइसंजोगमविहाय " ८. ६. गोसालगस्स अक्खेव पदं ११. इमं वयं तु तुम पाउकुब्वं पावाइणो" पुढो किट्टयंता अगस्स उत्तर-पदं १२. ते अण्णमण्णस्स उ" गरहमाणा सतो य अत्थी असतो य णत्थी १३. ण किंचि रुवेणऽभिघारयामो मग्गे इमे किट्टिए आरिएहि १. व्या० वि० - विभक्तिरहितपदम् - पंचासवे । २. पुणे (वृ); पण्णे (वृपा ) 1 ३. आहार (क ) | ४. च (क, ख ) । ५. जाणं ( क ) 1 ६. वी (क्व ) । तहेव पंचासव' संवरे य । लवावसक्की समणे त्ति बेमि ॥ सूयगड २ आहायकम्म तह इत्थियाओ । तवसिणो णाभिसमेइ पावं ॥ आहायकम्मं तह इत्थियाओ । अगारिणो अस्समणा भवंति ॥ डिसेवमाणा समणा भवंतु । सेवंति उ ते वि तहप्पारं ॥ भिक्खं विहं जायइ जीवियट्ठी । काओवगा तकरा भवंति ॥ पावाइणो गरहसि सव्व एव । सयं सयं दिट्टि" करेंति पाउं" ॥ अक्खति ऊ समणा माहणा य । हामी दिट्ठण गरहामो किंचि ॥ सदिट्टिमग्गं तु करेमो " पाउं । अणुत्तरे सप्पुरिसेहि अंजू ॥ ७. जं (क्व) । ८. व्या०वि० - विभक्तिरहितपदम् — बीयोदग- १५. करेमु (क्व ) । भोई । ६. ० संजोग य विप्पजहाय ( क ) | १०. गरिहसि ( ख ) । ११. पावाइणो उ ( क ) 1 १२. पदिट्ठि (क्व ) ; व्या० वि० - विभक्तिरहितपदम् — दिट्ठि | १३. पावं (क, ख ) अशुद्धमेतत् । १४. वि ( ख ) । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ छटुं अज्झयणं (अद्दइज्ज) १४. उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु तसा य जे थावर' जे य पाणा। भूयाभिसंकाए' दुगुंछमाणे णो गरहइ बुसिमं किंचि लोए।। गोसालगस्स अक्खेव-पदं १५. आगंतगारे आरामगारे' समणे उ भीते ण उवेइ वासं । दुक्खा हु संती बहवे मणुस्सा ऊणातिरित्ता य लवालवा य ।। १६. मेहाविणो सिक्खिय बद्धिमंता सत्तेहि अत्थेहि य णिच्छयण्ण' । पुच्छिसु माणे अणगार अण्णे इति संकमाणो ण उवेइ तत्थ ।। अद्दगस्स उत्तर-पदं १७. णाकामकिच्चा ण य बालकिच्चा रायाभियोगेण कुओ भएणं ? वियागरेज्जा पसिणं ण वा वि सकामकिच्चेणिह आरियाणं ।। १८. गंता व तत्था अदुवा अगंता वियागरेज्जा समियासुपणे । ____ अणारिया दंसणओ परित्ता इति संकमाणो ण उवेइ तत्थ ।। गोसालगस्स अक्खेव-पदं १६. पण्णं जहा वणिए उदयट्ठी आयस्स . हेउं पगरेइ संग । तओवमे समणे णायपुत्ते इच्चेव मे होइ मई वियक्का ।। अद्दगस्स उत्तर-पदं २०. णवं ण कुज्जा विहुणे पुराणं चिच्चा ऽमई 'ताइ" य साह एवं । एतावता" बंभवति त्ति वुत्ते तस्सोदयट्ठी समणे त्ति बेमि ।। २१. समारभंते वणिया भूयगामं परिग्गहं चेव ममायमाणा" । ते णाइसंजोगमविप्पहाय आयस्स हेउं पगरेति संगं । १. विभक्तिरहितपदम्-थावरा । पाठश्चूर्णि-वृत्त्यनुसारी स्वीकृतः । क्वचित्२. भूयाहि° (ख)। प्रयक्तदीपिकादर्श पि इत्थमेव पाठो लब्धः । ३. आरामा ० (क)। १०. भतेण (क)। ४. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-सिक्खिया। ११. ततोवमे (क)। ५. निच्छियण्णू (ख) निच्छियन्ना (क्व)। १२. चेच्चा (क)। ६. गो (क)। १३. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-ताई। ७. व्या० वि०-विभक्ति रहितपदम्-अणगारा । १४. ताति हि आह (वृ)। ८. एगे (क)। १५. एत्तावता (क, ख) । है. नो काम (क, ख); 'णाकाम' ० इति १६. ममायमीणा (क)। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ २२. वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा ते भोयणट्ठा वणिया वयंति । वयं तु कामेहिं अज्झोववण्णा अणारिया पेमरसेसु गिद्धा ।। २३. आरंभगं चेव परिग्गहं च अविउस्सिया णिस्सिय' आयदंडा। तेसिं च से उदए जं वयासी चउरंतणताय' दुहाय' णेह' ।। २४. गंति णचंति तओदए से वयंति ते दो वि गुणोदयम्मि। से उदए साइमणंतपत्ते तमुदयं सायइ ताइ' णाई ॥ २५. अहिंसयं सव्वपयाणुकंपी धम्मे ठियं कम्मविवेगहेउं । तमायदंडेहि समायरंता अबोहिए ते पडिरूवमेयं ।। बुद्ध-भिक्खूणं साभिप्पाय-निरूवण-पदं २६. पिण्णागपिंडीमवि विद्ध" सूले केई पएज्जा पुरिसे इमे त्ति । अलाउयं वा वि कुमारग त्ति" सर लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ।। २७. अहवावि विद्धण मिलक्खु सूले पिण्णागबुद्धीए णरं पएज्जा । कुमारगं वा वि अलाउए त्ति ण लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ।। २८. पुरिसं च विद्धण कुमारगं" वा । सूलंमि केइ पए जायतेए। पिण्णागपिंडि सइमारुहेत्ता । बुद्धाण तं कप्पइ पारणाए । २६. सिणायगाणं तु दुवे सहस्से । जे भोयए णितिए भिक्खुयाणं । ते पुण्णखधं सुमहऽज्जणित्ता५ भवंति आरोप" महंतसत्ता" ॥ अगस्स उत्तर-पदं ३०. अजोगरूवं इह संजयाणं पावं तु पाणाण पसज्झ" काउं। अबोहिए दोण्ह वि तं असाहु वयंति जे यावि पडिस्सुणंति" ।। ३१. उड्ढ अहे य तिरियं दिसासु विण्णाय लिंगं तसथावराणं । भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणे वदे करेज्जा वा कुओ विहऽत्थि" ? १. व्या० वि-विभक्तिरहितपदम्-णिस्सिया। १३. मिलक्ख (क); मिलक्खू (ख, चू)। २. णताए (क)। १४. कुमारकं (क) ३. दुहाए (क)। १५. सुमहज्जिणित्ता (क, ख)। अय पाठः ४. णे य (ख)। क्वचि प्रयुक्तदीपिकादर्शाधारण स्वीकृतः । ५. साय० (क)। ४३ श्लोके चूर्णी वृत्तौ च सुमहऽज्जणित्ता ६. व्या० वि०-विभक्तिरहितपदम्-ताई। इत्येव पाठः समुपलभ्यते । ७. व्या० वि०-अहिंसयन् । १६. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-आरोप्पा । ८. ° पदाणु' (क); ° सत्ताणुकंपी (चू)! १७. महत्त° (क)। ६. समाणयंता (चूपा)। १८. पसज्ज (ख)। १०. व्या० वि-विभक्तिरहितपदम् --विद्धं । १६. पडिसुर्णेति (क)। ११. कुमारएत्ति (ख) २०. उड़ढे (क)। १२. से (क)! २१. व्या०वि०- वि-इह-|-अस्ति । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ अभय (अद्दइज्जं ) ३२. पुरिसेति विष्णत्ति' ण एवमत्थि' को संभवो पिण्णगपिंडियाए ३३. वाघाभिओगेण' जमावहेज्जा अट्ठाण मेयं वयणं गुणाणं ३४. लद्धे अह अहो एव' तुब्भे पुण्वं समुद्दं अवरं च पुट्ठे ३५. जीवाणुभागं सुविचितयंता ण वियागरे छण्णपओपजीवी" ३६. सिणायगाणं तु दुवे सहस्से असंजए लोहियपाणि" से ऊ ३७. थूलं उरुभं इह मारियाण तं लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता ३८. तं भुजमाणा पिसियं पभूयं इच्चेवमाहंसु अणज्जधम्मा" ३६. जे यावि भुजंति तहप्पगारं 'भणं ण एवं कुसला करेंति" ४०. 'सव्वेसि जीवाण दट्टयाए तस्संकिणो इसिणो णायपुत्ता ४१. भूयाभिसंकाए दुगुछमाणा तम्हा ण भुंजंति तहप्पगारं १. विष्णत्ति (क, ख ) । व्या० वि० – विभक्तिरहितपदम् - विष्णती । २. एयअस्थि (क, ख ) । ३. पिण्णाग ० (क); छंदोदृष्ट्या 'पिण्णाग' शब्दस्य ह्रस्वत्वं 'ख' प्रत्यनुसारेण स्वीकृतम् । ४. ० जोएण ( क ) । ५. ० मेवं ( क ) । ६. जे ( क ); जिण ( ख ) 1 पुरिसे तहा हु । अणारिए से वाया वि एसा बुझ्या असच्चा ॥ णो तारिसं वायमुदाहरेज्जा | णो' दिखिए बूय सुरालभेयं ॥ जीवाणुभागे सुविचिति । ओलोइए पाणितलट्ठिए वा ॥ आहारिया अण्णविहीए सोहि । सोऽणुधमोह संजाणं || जे भोयए frfar भिक्खुयाणं | णियच्छई गरहमिहेव लोए ॥ उद्दिभत्तं च पगप्पएता । सपिप्पलीय पगरंति मंसं ॥ णो उवलिप्पामो वयं रएणं । अणारिया बाल" रसेसु गिद्धा || सेवंति ते वाया कि एसा बुझ्या उ मिच्छा ॥ सावज्जदोसं भ पावमजाणमाणा । सव्वेसि पाणाण सोऽणुधम्मो ह परिवज्जयंता | परिवज्जयंति || निहाय दंडं । संजयाणं ॥ मस्ति । ६. ओधारिया (च्) । १०. छणणपदोपजीवी ( वूपा ) । ११ व्या० वि० - विभक्तिरहितपदम् लोहिय पाणी । ७. आकारस्य ह्रस्वत्वम् । 5. एवं ( क ); छंदोट्या 'एव' इति जात- १५. सब्वेसि जीवाणं (क) 1 ४६५ १२. अणज्जबुद्धो (चू) १३. व्या० वि० विभक्तिरहितपदम् — बाला । १४. खणं ग एवं कुसला वदंति ( चू); मणं ण एयं कुसल करेंति ( चुपा ) 1 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ ४२. 'णिग्गंथधम्मम्मि इमा समाही' अस्सि सुठिच्चा अणिहे चरेज्जा । बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए 'इहचणं पाउणई सिलोग" ॥ वेय-वाईणं साभिप्पाय-निरूवण-पदं ४३. सिणायगाणं तु दुवे सहस्से जे भोयए णितिए माहणाणं । ते पुण्णखंधं सुमहज्जणित्ता' भवंति देवा इइ वेयवाओ। अगस्स उत्तर-पदं ४४. सिणायगाणं तु दुवे सहस्से जे भोयए णितिए कुलालयाणं । से गच्छई लोलुवसंपगाढे तिव्वाभितावी गरगाभिसेवी ।। ४५. दयावरं 'धम्म' दुगुंछमाणे" वहावहं धम्म पसंसमाणे । एगं पिजे भोययई असील 'णिहो णिसं गच्छइ अंतकाले ।। संख-परिवायगाणं साभिप्पाय-निरूवण-पदं ४६. दुहओविधम्मम्मि समुठियामो अस्सि सुटिच्चा तह एस कालं"। आयारसीले बुइएह णाणे२ ण संपरायम्मि" विसेसमस्थि ।। ४७. अव्वत्तरूवं पुरिसं महंत सणातणं अक्खयमस्वयं च । सव्वेसु भूएसु" वि" सव्वओ से चंदो व ताराहि" समत्तरूवे ।। १. जिग्गंथं धम्माण इमो० (च); ० इम णिधो (च); णिव्वो णिसं जाइ कओऽसुरेहि समाहि (वृ)। (क्व); अत्र लिपिदोषेण 'णिहो' स्थाने २. इच्चत्थतं° (क, ख); अच्चत्थतं पाउण- 'णिवो' इति पाठः संजातः । वृत्तिकारण तीसिलाहं (व); अयं पाठश्चूर्ण्यनुसारी तादृश एव आदर्श उपलब्धस्तेन स पाठस्तथैव स्वीकृतः । चूणो श्लोको नाम श्लाघा इति व्याख्यातः । 'जाइ कओऽसुरेहिं' इति पाठस्य व्याख्यातमस्ति, वृत्तौ च श्लाघा मूलत्वेन परिवर्तनं जातमथवा वाचनाभेदोयमिति स्वीकृतास्ति । न निश्चयेन वक्तुं शक्यते। प्रस्तुतसूत्रे ३. सुमहज्जि णित्ता (क, ख)। (१।२५) 'णिहो णिसं गच्छइ अंतकाले' ४. लोलग ° क), लोलुय° (ख) । इति पदं विद्यते । तदेवात्रास्तीति चणि५. तिव्वाणुतावे गरए वयंति (चू); तिव्वाभि- व्याख्यया प्रतीयते। तावी गरगाभिसेवी (चूपा)। ११. काले (ख)। ६,८. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम् --धम्म । १२. नाणा (क)। ७. धम्म दूसेमाणो (चू), धम्म दुगुंछमाणो १३. संपरागंमि (क)। (क, चूपा)। १४. पाणेसु (चू)। ६. कुसीलं (चू) १०. णिवो णिसं जाइ कओऽसुरेहि (क, ख, वृ); १६. तारेहिं (क)। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ ण' माहणा' खत्तिय-वेस-पेसा। णरा य सम्वे तह देवलोगा । कहिंति जे धम्ममजाणमाणा। संसार घोरम्मि अणोरपारे ।। पुण्णेण णाणेण समाहिजुत्ता। तारेति अप्पाण' परं च तिण्णा ॥ जे यावि लोए चरणोववेया। अहाउसो! विप्परियासमेव ।। छुटुं अज्झयणं (अद्दइज्ज) अगस्स उत्तर-पदं ४८. एवं ण मिज्जति ण संसरंति' कीडा य पक्खी य सरीसिवा' य ४६. लोगं अयाणित्तिह केवलेणं णासेंति अप्पाण' परं च गट्टा ५०. लोगं विजाणंतिह केवलेणं धम्म समत्तं च कहिति जे उ ५१. जे गरहियं ठाणमिहावसंति उदाहडं तं तु समं मईए हत्थितावसाणं साभिप्पाय-निरूवण-पदं ५२. संवच्छरेणावि य एगमेगं सेसाण जीवाण दयट्ठयाए अगस्स उत्तर-पदं ५३, संवच्छ रेणावि य एगमेगं सेसाण जीवाण वहेण लग्गा ५४. संवच्छरेणावि य एगमेगं __ आयाहिए से पुरिसे अणज्जे ५५. बुद्धस्स आणाए इमं समाहिं तरिउं" समुदं व महाभवोघं वाणेण मारेउ महागयं तु । वासं वयं वित्ति पकप्पयामो । असारस रनर-पत्र पाणं हणंता अणियत्तदोसा। सिया य थोवं गिहिणो वि तम्हा ॥ पाणं' हणते 'समणव्वते । ण 'तारिसं केवलिणो भणंति॥ अस्सि सुठिच्चा तिविहेण ताई। आयाणवं धम्ममुदाहरेज्जासि'" ।। --त्ति बेमि ॥ १. संचरंति (ख)। १०. ०व्वएम (ख, वृ) । २. ते (क)। ११. तारिसा केवलिणो भवंति (क); तारिसे ३. बंभणा (चू)। केवलिणो भवंति (ख, वृ, चूपा)। अत्र चूणि४. सिरीसवा (क); सिरीसिवा (ख)। पाठोर्थसमीक्षया समीचीनः प्रतिभाति तेन स ५. व्या० वि०-विभक्तिरहितपदम् –अप्पाणं । स्वीकृतः । ६. व्या०वि०-विभक्तिरहितपदम्-अप्पाण। १२. ताती (क); तारी (ख)। ७. पाणेण (क); वाणेण (ख) । १३. तरित्ता (क, चू)। ८. वित्ति (ख)। १४. आयाणबंध समुदाहरिज्जासि (क); आयाणं ६. पाणे (क)। वंध समुदाहरेज्जासि (ख)। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं नालंदइज्जं उवखेत्र - पदं १. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था - रिद्धत्थिमियसमिद्धे' जाव' पsिa || २. तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया' उत्तरपुरत्थि मे दिसीभाए, एत्थ णं णालंदा णामं बाहिरिया होत्था - अगभवणसयसणिविद्वा" "पासादीया दरिसणीया अभिरूवा ° पडिरूवा ॥ लेव-गाहावइ-पदं ३. तत्थ णं णालंदा बाहिरियाए लेवे णामं गाहावई होत्था - अड्ढे 'दित्ते वित्ते" विच्छिण्ण' - विपुल - भवण-सयणासण जाणवाहणा इण्णे बहुधण- बहुजायरूवरजए आओग-पओग-संपत्ते विच्छड्डिय-पउर भत्तपाणे बहुदासी - दास - गो-महिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्या || ४. से णं लेवे णामं गाहावई समणोवासए यावि होत्था - अभिगयजीवाजीवे' "उवलद्धपुण्णपावे आसव-संवर- वेयण - णिज्जर किरिय-अहिगरण-बंध मोक्खकुसले असहेज्जे देवासुरणाग सुवण्ण-जक्ख- रक्खस किण्णर- किंपुरिस गरुलगंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं णिग्गंथाओं पावयणाओ अणतिक्कम णिज्जे, १. रिद्धि ० ( क ) 1 २. वण्णओ जाव (क, ख ); ओ० सू० १ । ३. बहिता ( क ) | ४. सं० पा० - अणेगभवणसय सण्णिविट्ठा जाव पडिल्दा | ५. लेए ( क ) । ६. दित्तचित्ते (च्) | ७. वित्थण (क्व ) 1 ८. सं० पा० - अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । ४६८ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तम अज्झयणं (णालंदइज्ज) ४६६ इणमो णिग्गंथिए पावयणे णिस्संकिए णिक्कंखिए णिन्वितिगिच्छे लढे गहिय? पुच्छिय? विणिच्छिय? अभिगयटे अट्टिमिंजपेम्माणुरागरत्ते “अयमाउसो ! णिगंथे पावयणे अटे अयं परमट्ठ सेसे अणद्वे" ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चियतंते उर-परघरदारप्पवेसे चाउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणपालेमाणे समणे णिगंथे फासएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थपडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पीढ-फलग-सेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहापरि ग्गहिएहिं तवोकम्मे हिं अप्पाणं भावेमाणे० विहरइ ।। ५. तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स णालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरथिमे दिसिभाए, एत्थ णं सेसदविया णाम उदगसाला होत्था-अणेगखंभसयसण्णिविट्ठा पासा दीया' 'दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा ।।। ६. तीसे णं सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरथिमे दिसिभाए, एत्थ णं हत्थिजामे ___णामं वणसंडे होत्था-किण्हे वण्णओ वणसंडस्स' ।। ७. तस्सि च णं गिहपदेसंसि भगवं गोयमे विहरइ, भगवं च णं अहे आरामंसि ॥ उदगपेढालपुत्तस्स पण्हाणुमइ-पदं ८. अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावच्चिज्जे णियंठे मेदज्जे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोयम एवं वयासीआउसंतो ! गोयमा! अत्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियव्वे, तं च मे आउसो ! अहासुयं अहादरिसियमेव वियागरेहि ।। ६. सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी--अवियाइ आउसो ! सोच्चा णिसम्म जाणिस्सामो।। उदगपेढालपुत्तस्स पण्ह-पदं १०. सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-आउसंतो! गोयमा ! अत्थि खलु कम्मारपुत्तिया णाम समणा णिग्गंथा तुम्हागं पवयणं" पवयमाणा १. ° पुरच्छिमे (ख)। ८. आउसो ! (ख)। २. सं० पा...पासादीया जाव पडिरूवा। ६. कुमारपुत्तिया (क, ख, वृ); अत्र लिपिदोषेण ३. ओ० सू० ४-७। 'कम्मार' शब्दस्य स्थाने 'कुमार' इति ४. मेतज्जो (क)। रूपान्तरं जातं इति संभाव्यते । ५. जेणामेव (क, ख)। १०. तुब्भागं (क)। ६. तेगामेव (ख)। ११. पवदणं (क)। ७. सवादं (क)। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० सूयगडो २ गाहावई समणोवासगं उवसंपण्णं एवं पच्चक्खाति-"णण्णत्थ अभिजोगेणं', गाहावइ-चोरग्गहण-विमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहि णिहाय दंडं ।” एवं ण्हं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ। एवं ण्हं पच्चक्खावेमाणाणं दुपच्चक्खावियं भवइ । एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अइयरंति सयं पइण्णं । कस्स णं तं हे। संसारिया खलु पाणा-थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायति । तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायति । थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जति । तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जति । तेसिं च णं थावरकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं धत्तं । एवं ण्हं पच्चक्खंताणं सुपच्चक्खायं भवइ । एवं ण्हं पच्चक्खावेमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवइ । एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा गाइयरंति सयं पइण्णं—“णण्णत्थ अभिजोगेणं, गाहावइ-चोरग्गहण-विमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहि णिहाय दंडं ।" एवं सइ 'भासाए परिकम्मे" विज्जमाणे जे ते कोहा वा लोहा वा परं पच्चक्खावेंति । अयं पिणो' उवएसे कि णो णेयाउए भवइ ? अवियाइं आउसो ! गोयमा ! तुब्भं पि एयं एवं रोयइ ? भगवओ गोयमस्स उत्तर-पदं सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो! उदगा ! णो खलु अम्हं एयं एवं रोयइ । जेते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति', 'एवं भासेंति, एवं पण्णवेति, एवं ° परूवेंति णो खलु ते समणा वा णिगंथा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अब्भाइक्खंति खलु ते समणे" समणोवासए वा । जेहिं वि अण्णेहिं पाणेहि भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमयंति ताणि वि ते अन्भाइक्खंति । कस्स णं तं हेउं ? १. गाहावइ (क, ख)। ख्यानस्य चर्चा कृतास्ति तेन पराक्रमापेक्षया २. x (क, ख)। परिकर्मशब्दोऽधिकं समीचीनोस्ति । ३. राआभिवाएणं (ख); अभिजोगेणं तंजहा- ६. पि भे (क, वृ)। रायाभियोगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं ७. अस्माकम् । ८. X (ख)। ४. एवामेव (क); एवमेव (ख) ६. सं० पा०-एबमाइक्खंति जाव परूवति । ५. भासापरक्कमे (क); भासाए परक्कमे (ख, १०. अणुगाणियं (चू)। वृ)। 'परिकम्मे' इति पाठश्चूाधारण ११. समणा (क)। स्वीकृतः। अत्र सविशेषणनिविशेषणप्रत्या Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तम अज्झयणं (णालंदइज्ज) संसारिया खलु पाणा-तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायति । थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायति । तसकायाओ विप्पमूच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जति । थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जति । तेसिं च णं तसकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं अघत्तं ।। उदगपेढालपुत्तस्स पडिपण्ह-पदं १२. सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी—कयरे खलु आउसंतो ! गोयमा ! तुब्भे वयह तसपाणा तसा 'आउ' अण्णहा" ? भगवओ गोयमस्स पच्चुत्तर-पदं १३. सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी--आउसंतो! उदगा! जे तुब्भे वयह तसभूया पाणा तसा ते 'वयं वदामो'' 'तसा पाणा तसा । जे वयं वयामो तसा पाणा तसा ते तुब्भे वदह तसभूया पाणा तसा । एए संति दुवे ठाणा तुल्ला एगट्ठा। किमाउसो ! इमे भे सुप्पणीयतराए भवइ-तसभूया पाणा तसा ? इमे में दुप्पणीयतराए भवइ-तसा पाणा तसा ? तओ एगभाउसो ! पलिकोसह", एक्कं अभिणंदह । अयं पि 'भे उवएसे १ णो णेयाउए भवइ। भगवं च णं उदाहु---संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ - णो खलू वयं संचाएमो मडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। 'वयं गं" अणुपुत्वेणं गोत्तस्स" लिस्सिस्सामो"। 'ते एवं संखसावेति १. अदु—उत । पाठोस्ति तथा चूर्णी 'उपदेशः' इति व्याख्यात२. आउमन्नहा (क); अह अण्णहा (ख)। मस्ति । तदाधारेणासौ पाठः स्वीकृतः । ३. वतह (क)। १२. मणुस्सा गब्भवक्कतिया संखेज्जवासाउया ४. तसब्भूया (क)। आरिया (च) ५. वदं वतामो (क)। १३. वयण्णं (क); वय णं (ख) । ६. तसा पाणा २ (क); तसा पाणा (ख) सर्वत्र । १४. गुत्तत्तस्स (क); गुत्तस्स (क्व) । ७, ८. ते (ख)। १५. लिसिस्सामी (ख)। १. तो (क)। १६. ते एवं संख ठवयंति ते एवं संखं सोवठवयंति १०. पडिकोसह (ख)। (क); ते एव संखं ठवयंति ते एवं संखं ११. भेदो से (क, ख); भे (वृ); 'भे उवएसे' इति ___ सोवठावयंति (ख); ते एवं संखं ठावेंति पाठस्य स्थाने लिपिदोषेण 'भेदो से' इति (चू); नागार्जुनीयास्तु-एवं आपाणं संकजातम् । दशमे सूत्रे ' पिणो उवएसे' इति सावेंति (चू); ° संठवयंति (क्व)। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ सूयगड २ “णण्णत्थ अभिजोगेणं गाहावइ-चोरगहण - विमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहि निहाय दंडं" । तं पितेसि कुसलमेव भवइ ॥ १४. तसा वि वुच्चति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा, णामं चणं अब्भुवगयं भवइ । 'तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवइ, तसकायट्ठिइया ते तओ आउयं विप्पजहंति, ते तओ आउयं विष्पजहित्ता थावरत्ताए पच्चायंति" । थावरा वि वुच्चंति थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा, णामं च णं अब्भुवगयं भवइ । 'थावराज्यं चणं पलिक्खीणं भवइ, थावरकायट्टिइया ते तओ आउयं विप्पजहंति, ते तओ आउयं विप्पजहित्ता भुज्जो पारलोइयत्ताए पच्चायति । ते पाणा वि बुच्चति', ते तसा वि वुच्छंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया ॥ उदगपेढालपुत्तस्स सपक्ख ठावणा-पदं १५. सवायं उदए पेढालपुत्ते भयवं गोयमं एवं वयासी-आउसंतो ! गोयमा ! णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स 'एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते" । कस्स णं तं हेउं ? संसारिया खलु पाणा -- थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायति । तसा विपाणा थावरत्ताए पच्चायति । थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे तसकायंसि उववज्जंति । तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकायंसि उववज्र्ज्जति । तेसि च गं थावरकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं घत्तं ॥ भगवओ गोयमस्स पच्चत्तर-पदं १६. सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी - णो खलु आउसो ! अस्माकं * वत्तव्वएणं तुब्भं चेव अणुप्पवाएणं अस्थि णं से परियाए जेणं समणोवासगस्स सव्वपाणेहिं सव्वभूएहि सव्वजीवेहि सव्वसत्तेहि दंडे णिक्खित्ते भवइ । कस्स णं तं हेउं ? १. जाव तसाऊ अपलिक्खीणं भवइ० (चू ) नागार्जुनीयास्तु — आउयं च गं पलिक्खीणं भवति तसकायद्वितीए वा ततो आउयं विप्पजहित्ता तिन्हं थावराणं अष्णतरेसूववज्जति (चू) | २. जाव थावराऊ अपलिक्खीणं भवई (चु) । ३. वुच्वंति भूता जाव सत्ता वि (चू) । ४. परितोए ( क ) 1 ५. जण्णं (क, ख, चू) । ६. एगपाणा इवाय विरए वि दंडे णिक्खित्ते (क, ख ) ; एक प्राणातिपात विरमणेपि (वृ); अग्रिमसूत्रे 'एगपाणाए वि' इति पाठो लभ्यते, स च समीचीनः प्रतिभाति तेनाऽत्रापि स एव स्वीकृत: । जाव सव्वपाणेहि दडे णिक्खित्ते (च्) । ७. अस्माकमित्येतन्मगधदेशे आगोपालाङ्गनादिप्रसिद्धं संस्कृतमेवोच्चार्यते तदिहापि तथैवोउच्चारितमिति (वृ) | Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तम अज्झयणं (णालंदइज्ज) संसारिया खलु पाणा- तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायति । थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायति । तसकायाओ विप्पमच्चमाणा सव्वे थावरकायंसि उववज्जति । थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे तसकायंसि उववज्जति । तेसि च णं तसकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं अघत्तं । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया । ते बहुयरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्रियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह-"णत्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते"। अयं पि 'भे उवएसे" णो णेयाउए भवइ । समणदिद्वैत-पदं १७. भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छ्यिव्वा-आउसंतो! णियंठा ! इह खल संतेगइया मणुस्सा भवंति । तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्ता, एएसि णं आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते । जे इमे अगारमावसंति, एएसि णं आमरणताए दंडे णो णिक्खित्ते । 'केई च णं समणे" जाव वासाइं च उपंचमाइं छद्दसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दूइज्जित्ता 'अगारं वएज्जा ? हंता वएज्जा। तस्स गं तमगारत्थं वहह्माणस्स' से पच्चक्खाणे भग्गे भवइ ? णेति । एवमेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहि दंडे णिक्खित्ते, थावरेहि पाहि दंडे णो णिक्खित्ते । तस्स णं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भग्गे भवइ । सेवमायाणहणियंठा ! सेवमायाणियव्वं ।।। १८. भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो! णियंठा ! इह खल गाहावइणो वा गाहावइपुत्ता वा तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म धम्मस्सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा? हंता उवसंकमेज्जा। १. जण्णं (क); जम्मि (क्व) । २. भेदे से (क, ख) ३. केसि (क, ख); अशुद्धं प्रतिभाति, केचन श्रमणाः (वृ)। ४. अगारमावसेज्जा (ख, वृ)। ५. तं गारत्थं (क); गृहस्थं (ख)। ६. ८. वहेमाणस्स (क)। ७. णोति (ख)। ६. सेएव० (ख)। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ तेसि च णं तहप्पगाराणं धम्मे आइक्खियव्वे ? हंता आइक्खियव्वे | किं ते तहप्पगारं धम्मं सोच्चा णिसम्म एवं वएज्जा -- इणमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं 'णेयाउयं' संसुद्ध" सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं णिज्जाणमग्गं णिव्वाणमगं" अवितहं असंदिद्धं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं । एत्थ ठिया जीवा सिज्भंति बुज्भंति मुच्चंति परिणिव्वंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । इमाणाए' तहा' गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसीयामों तहा तुयट्टामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्टेमो तहा उट्ठाए उट्ठेत्ता' पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो त्ति वएज्जा ? हंता वएज्जा । किं ते तहप्पगारा कप्पंति पब्वावेत्तए ? हंता कप्पति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावेत्तए ? हंता कप्पति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावेत्तए ? हंता कप्पंति । १. ताउ ( क ) । २. संसुद्धं याजयं (ख) 1 ३. जेज्जाणमग्गं जेव्वाण ( क ) । ४. परिणिव्वायंति (ख) कि ते तहप्पगारा कप्पंति उवद्वावेत्तए ? हंता कप्पति । तेसि च णं तहप्पगाराणं सव्वपाणेहिं" सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्ते हिं दंडे णिक्खित्ते ? हंता णिक्खित्ते । ते" णं एयारूवेणं विहारेण विरमाणा जाव वासाई चउपंचमाई छद्दसमाई वा अप्पयरो वा भुज्जरो वा देसं दृइज्जित्ता" अगारं वएज्जा" ? हंता वएज्जा । ५. तमाणाए (ख) । ६. तह (क) सर्वत्र । ७. णिसियामो ( क ); णिस्सियामो ( ख ) । सूयगडो २ 5. अट्ठामो ( ख ) । ह वट्टेति ( ख ) । १०. सं० पा० - सव्वपाणेहिं जाव सव्वसतेहि । ११. से (क, ख ); अशुद्धं प्रतिभाति । १२. छद्दसमणि ( क, ख ) । १३. दूतिज्जित्ता ( क, ख ) । १४. वदेज्जा ( क ) । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं (णालंदइज्जं ) ४७५ तस्स णं सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहि सव्वसत्तेहि दंडे णिक्खित्ते' ? णेति । से जे से जीवे जस्स परेण सव्वपाणेहिं सव्वभूएहि सव्वजीवेहि सव्वसत्तेहि दंडे णो णक्खित्ते । से जे से जीवे जस्स आरेणं सव्वपाणेहिं' 'सव्वभूएहि सव्वजीवेहिं सव्व ° सत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते । से जे से जीवे जस्स इयाणि सव्वपाणेहिं' 'सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्व ' सत्तेहि दंडे णो णिक्खित्ते भवइ । परेण अस्संजए, आरेणं संजए, इयाणि अस्संजए । अस्संजयस्स णं सव्वपाणेहिं सव्वभूएहि सव्वजीवेहि सव्व सत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवइ । सेवमायाह नियंठा ! सेवमायाणियव्वं ॥ १६. भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छिय०वा - आउसंतो ! णियंठा ! इह खलु परिव्वायया वा परिव्वाइयाओ वा अण्णयरेहितो तित्थायतणेहिंतो आगम्म धम्मस्वणवत्तियं उवसंकमेज्जा ? हंता उवसंकज्जा | 'किं तेसि" तहप्पगाराणं धम्मे आइक्खियव्वे ? हंता आइक्खियन्वे । किं ते तपगार धम्मं सोच्चा जिसम्म एवं वएज्जा - इणमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं णेयाउयं संसुद्धं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं णिज्जाणमग्गं णिव्वाणमग्गं अवितहं असंदिद्धं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं । एत्थ ठिया जीवा सिज्भति बुज्भंति मुच्चंति परिणिव्वंति सव्वदुक्खाणमंत करेंति । इमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसीयामो तहा तुयट्टामो तहा भुजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्टेमो तहा उट्ठाए उट्ठेत्ता पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो त्ति वएज्जा ? हंता वएज्जा । किं ते तपगारा कष्पति पव्वावेत्तए ? हंता कप्पंति । कि ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तहपगारा कप्पंति सिक्खावेत्तए ? हंता कप्पति । १. सं० पा०—- सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि । २. गोणिक्खित्ते ( क ) । ३. णोत्ति ( क ) ; गोति ( ख ) । ● ८. सं० पा० - सध्वपाणेहि जाव सत्तेहि । ९. इ इह (ख) | १०. परिवाइया ( क ) ; परिव्वाया (क्व ) । ४,५,६. सं० पा० – सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि । ११. पूर्वसूत्रात् किंचित् शब्दभेदः । 19. varför (5) 1 १२. सं० पा०-- तं चैव जाव उवद्वावेत्तए । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २ किं ते तहप्पगारा कप्पंति उवट्ठावेत्तए ? हंता कप्पति । किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभंजित्तए ? हंता कप्पंति । ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा "जाव वासाइं चउपंचमाइं छहसमाइं वा अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दुइज्जित्ता अगारं वएज्जा? हंता वएज्जा। ते णं तहप्पगारा कप्पंति स जित्तए ? णो इण8 समढे। से जे से जीवे जे परेणं णो कप्पंति संभंजित्तए। से जे से जीवे जे आरेणं कप्पंति संभंजित्तए । से जे से जीवे जे इयाणि णो कप्पंति संभंजित्तए । परेणं अस्समणे, आरेणं समणे, इयाणि अस्समणे । अस्समणेणं' सद्धि णो कप्पंति समणाणं णिग्गंथाणं संभुजित्तए । सेवमायाणह णियंठा ! सेवमायाणियव्वं ।। पच्चक्खाणस्स विसय-उवदंसण-पदं भगवं च णं उदाहु-णियंठा खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो! णियंठा ! इह खलु • संतेगइया समणोवासगा भवंति । तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइणो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, वयं णं चाउद्दसट्टमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्ण पोसह सम्म अणुपालेमाणा विहरिस्सामो। 'थूलग पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो", एवं थूलगं मुसावायं थूलगं अदिण्णादाणं थूलगं मेहुणं थूलगं परिम्गहं पच्चक्खाइस्सामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो दुविहं तिविहेणं । मा खलु ममट्ठाए किचि वि करेह वा कारवेह वा तत्थ वि पच्चक्खाइस्सामो। ते णं अभोच्चा' अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ" पच्चोरुहित्ता" ते तह कालगया कि वत्तव्वं सिया? सम्म काल्गय त्ति वत्तव्वं सिया। १. सं० पा.--तं चेव जाद अगारं वएज्जा। सामाइयकडेऽहिकाउं'सव्वपाणातिवातं पच्च२. तिणटे (क, ख)। क्खाइस्सामो' तद्दिवसं (चू)। ३. तेणं (क)। ८. अदिण्णं (क, ख)। ४. सं० पा०-उदाह"संतेगइया । ६. अभोच्चाए (क, ख)। ५. बयं च (क)। १०. पीठियाओ (क): ६. पोसधं (क)। ११. पच्चोरुभित्ता (ख)। ७. ° पच्चाइक्खिस्सामो (क);नागार्जुनीयास्तु---- Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झणं (णालंदइज्ज ) ते पाणा वि वुच्चति, ते तसा वि बुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया । ते बहुतरंगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से' महया' "तसकायाओ उवसंतस्स उवद्वियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह-" णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते अयं पि 'भे उवएसे" णो णेयाउए भवइ || Q २१. भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियव्वा - आउसंतो ! णियंठा ! इह खलु संतेगइया समणोवासमा भवंति । तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ - णो खलु वयं संचाrat मुंडा भवित्ता अगाराओ' 'अणगारियं पव्वइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसमुद्दिष्णमासिणीसु' 'पडिपुण्ण पोसहं सम्मं० अणुपालेमाणा विहरित्तए । वयं णं अपच्छिममारणंतियसले हणा भूसणाभूसिया भत्तपाणपडियाइक्खिया' कालं अणवकखमाणा विहरिस्सामी । सव्र्व्वं पाणाइवायं पच्चक्खा इस्लामो, "एवं सव्वं मुसावायं सव्वं अदिण्णादाणं सव्वं मेहुणं • सव्वं परिग्गहं पच्चक्खाइस्सामो 'तिविहं तिविहे " मा खलु ममट्ठाए किंचि वि' 'करेह वा कारवेह वा करंतं समणुजाणेह वा तत्थ वि पच्चक्वाइस्सामो । तेणं अभोच्चा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पच्चोरुहित्ता ते तह कालगया कि वत्तव्वं सिया ? सम्म" कालगय त्ति वत्तव्वं सिया । ते पाणा वि वुच्चति", "ते तसा वि बुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया । ते बहुतरगा पाणा जेहि सम्णोवासगस्स सुपच्चवखायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चवखायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवद्वियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह - " णत्थि गं से १. इति मे ( क, ख ) । २. सं० पा० - से महया "जं णं तुभे वयह तं चैव जाव अयं । ३. भेदे से (क, ख ) । ४. सं० पा० - अगाराओ जाव पव्त्रइत्तए । ५. सं० पा०-- चा उद्दसमुद्दिट्टपुष्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा ! - ४७७ ६. जाव ( क ) 1 ७. सं० पा० पच्चक्वाइस्सामो जाव सव्वं परिग्रहं । ८. तिविहेणं तिविहं (क) । ९. सं०पा० - किंचि वि जाव आसंदीपेढियाओ । १०. समणा ( क ) । ११. सं० पा० - वुच्चति जाव अयं । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ सूयगडो २ केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ ।। २२. भगवं च णं उदाहु-संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया' 'अधम्माणुया अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मपलोइणो अधम्मपलज्जणा अधम्मसीलसमुदाचारा अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, 'हण' 'छिंद' 'भिद' विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उक्केचण-वंचण-माया-णियडि-कूड-कवड-साइसंपओगबहुला दुस्सीला दुव्वया दुप्पडियाणंदा असाहू । सव्वाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मुसावायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मेहुणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए °, सव्वाओ परिगहाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए' दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता भुज्जो सगमादाए दोग्गइगामिणो भवंति। ते पाणावि वुच्चंति', 'ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरटिइया । ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ। से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्टियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह"णत्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते।" अयं पिभे उवएसे णो णयाउए भव।। भगवं च णं उदाह-संतेगइया मणस्सा भवंति, तं जहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया" 'धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू । सव्वाओ पाणाइवायाओ पडि विरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, सव्वाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए °, सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमर २३. १. येषु सूत्रषु प्रश्नोत्तरक्रमो विद्यते तत्रव ३. आमरणतिआए (क)। 'णियंठा खलू पुच्छियव्वा' इत्यादि पाठो ४. सं० पा०--वुच्चंति ते तसा ए महा ते गृहीतः अतः परवतिसूत्रेषु प्रश्नोत्तरक्रमो चिर ते बहुतरगा आयाणसो इती से महता नास्ति तेन तस्य पाठस्य नास्ति तत्रावकाशः। जेणं तुम्भे णो णेयाउए । २. सं० पा० -अहम्मिपा जाव दुप्पडियाणंदा ५. सं० पा०-धम्माणुया जाव सव्वाओ। जाव सव्व ओ परिग्गहाओ। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं (णालंदइज्ज) ४७६ . २४. णताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, विप्पजहिता ते तओ भुज्जो सगमायाए सोग्गइगामिणो भवंति । ते पाणावि वुच्चंति', 'ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया। ते बहुतरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह"णत्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे° णो णेयाउए भवइ ।। भगवं च णं उदाहु-संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया 'धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सूवया सुप्पडियाणंदा सुसाहू। एगच्चाओ पाणाइवायाओपडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ अदिण्णादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ° अप्पडिविरया । जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता ते तओ भुज्जो सगमादाए सोग्गइगामिणो भवंति । ते पाणा वि वुच्चंति, 'ते तसावि दुच्चंति ते महाकाया, ते चिरद्विइया। ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जंणं तुभे वा अण्णो वा एवं वयह"णत्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे' णो णेयाउए भवइ ।।। २५. भगवं च णं उदाहु-संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-आरण्णिया आव सहिया गामंतिया कण्हुईरहस्सिया-जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरगंताए दंडे णिक्खित्ते भवइणो बहुसंजया णो बहुपडिविरया सव्वपाणभूय १. सं० पा०–बुच्चंति जाव णो णेयाउए। २. सं० पा०-धम्माणुया जाव एगच्चाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया। ३. सं० पा०-वच्चंति जाव णो णेयाउए । ४. गामणियंतिया (क, ख, वृ); द्रष्टव्यम् २०५६ सूत्रस्य पादटिप्पणम् । ५. कण्हंतिरहस्सिया (क)। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० सूयगडो २ जीवसत्तेहि अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विउति'---अहं णं हतव्वो अण्णे हंतव्वा', 'अहं ण अज्जावेयव्वो अण्णे अज्जावेयव्या, अहं ण परिघेतव्वो अण्णे परिघेतब्वा, अहं ण परितावेयव्वो अण्णे परितावेयवा, अहं ण उद्दवे यवो अण्णे उद्दवेयवा। एवामेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा जाव वासाई चउपंचमाई छद्दसमाई अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भुंजित्तु भोगभोगाई कालमासे कालं किच्चा अण्णयराई आसुरियाई किब्बिसियाई 'ठाणाइं० उववत्तारो भवंति । तओ वि विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमोरूवत्ताए पच्चायति । ते पाणा वि वुच्चंति', 'ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया । ते चिरद्विइया, ते बहुत रगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्रियस्स पडिविरयस्स ज णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह-"णत्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते' । अयं पि भे उवएसे ' णो णेयाउए भवइ ।।। २६. भगवं च णं उदाहु-संतेगइया पाणा दीहाउया, जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते भवइ । ते पुवामेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायति । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरिट्टिइया, ते दीहाउया । ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स' "सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्रियस्स पडिविरयस्स ज ण तुम्भे वा अण्णो वा एवं वयह—"पत्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे° णो णेयाउए भवइ ।। २७. भगवं च णं उदाहु-संतेगइया पाणा समाउया, जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते भवइ । ते सममेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायति । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया, ते समाउया । ते १. पाणभूय ° (क, ख)। २. विप्पडिवेदेति (क, ख, वृपा)! ३. सं० पा०---हंतवा जाव कालमासे । ४. सं० पा०—किब्बिसियाइ जाव उवदत्तारो। ५. तमूयत्ताए (क); तमोतत्ताए (ख) । ६. सं० पा०–बुच्चंति जाव णो णेयाउए । ७. सं० पा०-समणोवासगस्स जाव णो णेयाउए । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं (णालंदइज्ज) ४८१ बहुयरगा' 'पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उर्वाट्टयस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह"णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे° णो णेयाउए भवइ ।। भगवं च णं उदाह-संतेगइया पाणा अप्पाउया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे मिक्खित्ते भवइ । ते पुनामेव कालं करति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायति । ते पाणा वि वच्चंति, ते तसावि वच्चंति, ते महाकाया, ते अप्पाउया। ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा गोवामगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया 'तसकायाओ उवसंतस्स उद्वियस्स पडिविरयस्स जं णं तुम्भे वा अण्णो वा एवं वयह-"णस्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे ° णो णेयाउए भवइ ।। णवभंगेहि पच्चक्खाणस्स विसय-उवदंसण-पदं २६. भगवं च णं उदाहु-संतेगइया समणोवासगा भवंति । तेसिं च णं एवं वृत्तपुवं भवइ—णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता' 'अगाराओ अणगारियं. पव्वइत्तए । णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह अणपालित्तए । णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिम 'मारणंतियसलेहणाअसणाझसिया भत्तपाणपडियाइक्खिया कालं अणव कंखमाणा विहरित्तए । वयं णं सामाइयं देसावगासियं" --पुरत्था पाईणं पडीणं दाहिणं उदीण एतावताव सव्वपाहिं' सबभूएहि सव्वजीवेहि सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते पाणभूयजीवसत्तेहिं खेमंकरे अहमंसि । १. तत्थ आरेणं जे तसा पाणा, जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा, जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिविखत्ते, तेसु पच्चायंति तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । १. सं. पा.-~बहुयरगा जाव णो जयाउए । २. सं० पा.-महया जाव णो णेयाउए । ३. स. पा.---भवित्ता जाव पव्वइत्तए। ४. सं० पा० अच्छिमं जाव विहरित्तए । ५. व्या० दि–'अणुपालेमाणा विहरिस्सामो' इति अध्याहर्तव्यम् । ६. सं० पा०-सव्वपाणेहि जाव सम्वसत्तेहि । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ सूयगडो २ ते पाणा वि' 'वुच्चति, ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया । ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स afge पsिविरयस्स जं गं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह - " प्रत्थि णं से hs परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पिभे उवएसे णो णेयाउए भवइ । " २. तत्थ आरेण जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायति । तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खिते अगट्ठाए दंडे णिक्खित्ते ! ते पाणावि वुच्चति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया । ते बहुतरंगा पाणा जहि समणोवासगस्स सुपच्च क्वायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उagयस पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह - " णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि उवएसे णो णेयाउए भवइ । ० ३. तत्थ 'आरेणं जे" तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे क्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ परेणं चेव जे तसा थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते पच्चायति । तेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ | ते पाणावि वुच्चति, ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया । ते बहुतरंगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स वयस पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह - "णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खिते ।" अयं प में उनसे णो णेयाउए भवइ 10 ४. तत्थ 'आरेणं जे" थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अट्ठाए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं १. सं० पा०-- पाणावि जाव अयं पि भेदे से २. स० पा० -- ते तसा ते चिर जाव अर्थ पि भेदे से । ३. जे आरेणं ( क, ख ) । ४. सं० पा०-- पाणावि जाव अयं पि भेदे । ५. जे आरेणं ( क, ख ) । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झणं (नालंदइज्जं ) ४५३ चेव जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायति । तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चवखायं भवइ । ते पाणावि वच्चति ते तसावि वुच्चति से महाकाया, ते चिरट्टिइया । ते बहुरंगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चवखायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चवखायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उट्ठियस पडिविरयस्स जं गं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह - " णत्थि पं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ ॥ ° ५. तत्थ 'आरेणं जे" थावरा पाणा, जेहि समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अट्ठा दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता ते तत्थ आरेणं देव जे थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पञ्चायति । तेहि समणोवासगस्स 'अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्टाए दंडे णिक्खित्ते" । ते पाणावि बुच्चति ते तसावि वुच्चति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया । ते बहुरंगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चवखायं भवइ । अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स यस पडिवियस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह -- "णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । ० ६. तत्थ ‘परेणं जे'' थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अाए दंडे क्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्वजहित्ता तत्थ परेणं चैव जे तसा थावरा पाणा, जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायति । तेहि समणोवासगस्स सुपच्चवखायं भवइ । ते पाणावि वुच्चति, ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया । ते बहुरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरंगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चवखायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स वयस पडिविरयस्स जं णं तुठभे वा अण्णो वा एवं वयह- " णत्थि णं से hs परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते । "० अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । १. सं० पा० - पाणावि जाव अयं पि भे । २. जेते आरेणं ( क, ख ) 1 ३. सुपच्चक्खायं भवंति ( ख ) । ४. सं० पा०-- पाणावि जाव अयं पि भेदे । ५. जेते परेण (क, ख ) । ६. सं० पा० - पाणावि जाव अयं । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ सूयगडो २ ७. तत्थ 'परेणं जे" तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिविखत्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायंति । तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ। ते पाणावि' 'वुच्चंति, ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया । ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ। ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जंणं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह-"णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" ० अयं पि भेउवएसे णो णेयाउए भवइ । ८. तत्थ 'परेण जे तसथावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खिते, ते तओ आउं विप्पजहंति,विप्पज हित्ता तत्थ आरेणं जे थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायति । तेहि समणोवासगस्स सूपच्चक्खायं भवइ। ते पाणावि 'वुच्चंति, ते तसावि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्विइया । ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जहि समणोबासगस्स अपच्चक्खायं भवइ। से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्टियस्स पडिविरयस्स जं णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह---"णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिखित्ते।" अयं पि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ ।' ६. तत्थ 'परेणं जे' तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता ते तत्थ परेणं चेव जे तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, तेसु पच्चायति । तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते पाणावि 'वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया । ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जं गं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह-"णत्थि णं से केइ ---- -- - १. जे परेणं (क); जेते परेण (ख)। २. सं० पा०--पाणावि जाव अयं । ३. जे परेण (क); जेते परेणं (ख)। ४. सं० पा०-पाणावि जाव अयं पि भेदे...। ५. जे परेणं (क, ख)। ६. सं० पा०-पाणावि जाव अयं पि भेदे Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं (णालंदइज्ज) ४८५ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते।" अयं पिभे उवएसे णो णेयाउए भवइ ।। तस-थावर-पाणाणं अव्वोच्छित्ति-पदं ३०. भगवं च णं उदाहु-ण एवं भूयं ण एयं भव्वं 'ण एवं भविस्स" जणं-तसा पाणा वोच्छिज्जिहिति', थावरा पाणा भविस्संति । थावरा पाणा वोच्छिज्जिहिंति, तसा पाणा भविस्संति । अवोच्छिण्णेहिं तसथावरेहि पाहि जण्णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वदह-"णत्थि णं से केइ परियाए' 'जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते ।" अयं पि भे उवएसे ° णो णेयाउए भवइ ।। उवसंहार-पदं ३१. भगवं च णं उदाह--आउसंतो! उदगा ! जे खल समणं वा माहणं वा परिभा सइ मित्ति' मण्णइ आगमित्ता णाणं, आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [उट्ठिए" ?], से खलु परलोगपलिमथत्ताए चिट्ठइ। जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता णाणं, आगमित्ता दसणं, आगमित्ता चरितं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [ उहिए ? ], से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ ॥ ३२. तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम अणाढायमाणे जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पहारेत्थ गमणाए॥ ३३. भगवं च णं उदाहु---आउसंतो ! उदगा ! जे खलु तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म अप्पणो चेव सुहमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लंभिए समाणे सो वि ताव त आढाइ परिजाणेइ वंदई णमंसइ सक्कारेइ सम्माणइ“ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ ॥ १. भवइ (ब); X (च)। २. वोच्छिज्जिस्संति (क)। ३. सं० पा०-परियाए जाव णो णेयाउए । ४. मेत्ति (क, ख); मंत्री मन्यमानोऽपि (द); स्वीकृतपाठश्चूर्ण्यनुसारी वर्तते । व्या० वि०- मामिति । ५. प्रत्योष पाठो लभ्यते, चावपि नास्ति। वृत्तावस्ति व्याख्यातः। ६. मेत्ति (क, ख); मैत्री मण्यते (व)। ७. नागार्जुनीयास्तु-गो खलु समणं वा हील माणो परिभास ति मणसा वायाए कारणं आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरितं पावाणं कम्माणं अकरणयाए, से खलु परलोगपडि मंथत्ताए चिट्ठति (च) । ८. परिजाणाइ वंदति णमंसति (क);x (व)। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ सूयगडो २ ३४. तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-एएसि णं भंते ! पदाणं पुदि अण्णाणयाए अस्सवणयाए अबोहीए अणभिगमेणं अदिवाणं अस्सुयाण अमुयाणं अविण्णायाणं अणिज्जूढाणं' अव्वोगडाणं अव्वोच्छिण्णाणं अणिसिट्टाणं अणिवूढाणं अणुवहारियाणं एयमटुं णो सद्दहियं णो पत्तियं णो रोइयं । एएसि णं भंते ! पदाणं एण्हि जाणयाए सवणयाए बोहीए' अभिगमेणं दिवाणं सुयाणं मुयाणं विण्णायाणं णिज्जूढाणं वोगडाणं वोच्छिण्णाणं णिसिट्टाणं णिवढाणं ° उवधारियाणं एयमटुं सहहामि पत्तियामि रोएमि 'एवामेयं जहा णं", तुब्भे वदह ॥ ३५. तए णं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुत्तं एवं वयासी-- सद्दहाहि णं अज्जो ! पत्ति याहि णं अज्जो ! रोएहि णं अज्जो! एवमेयं जहा णं अम्हे वयामो॥ ३६. तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतिए' चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहन्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जि त्ताणं विहरित्तए । ३७. तए णं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीइच्छामि गं भंते ! तुब्भं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेहि ॥ ३८. तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। -त्ति बेमि ॥ ग्रन्थ-परिमाण कुल अक्षर ८४६२२ अनुष्टुप् श्लोक २६४४, अक्षर १४ १. x(क)। २. सं० पा०-बोहोए जाव उवधारियाणं । ३. एवमेव से जहेयं । ४. अंतियं (क)। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टः Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- १ संक्षिप्त-पाठ, पूर्त-स्थल और पूर्ति आधार स्थल आयारो संक्षिप्त-पाठ, अहमसी जाव अण्णयरीओ आगममाणे जाव समत्तमेव एवं जं परिघेतव्वं ति, मन्नसि जं एवं हिययाए पित्ताए बसाए पिच्छाए पुच्छाए बालाए सिंगाए विसाणाए दंताए बाढाए नहाए हारुणीए अट्टीए अट्ठमिजाए अट्ठाए अट्ठाए गामं वा जाव रायहाणि जाएजा जाव एवं धारेज्जा जाव गिम्हे परक्कमेज्ज वा जाव हुरत्था समारम्भ जाव चेएइ अंतक्खिजाए जाव णो अरियं जाव अभूतोवघाइयं अक्कोति वा जाव उवंति अक्कोति वा तहेव तेल्लादि सिणाणादि itsarfarara णिगिणाइ य जहा सिज्जाए आलावगा णवरं ओग्गहवत्तव्वया अक्को सेज्ज वा जाव उवेज्ज अणुवयंति तं चैव जाव णो सातिज्जति बहुवणेणं भाणियव्व पूर्त-स्थल १३ ८६५,१६,१२३,१२४ ५/१०१ १।१४० ८।१२६ ८६४-६७ ८-१२ पा२३ ८२४ आयारचूला ५३३७, ३८ ४।११ ३।६१ ७११६-२० शह ५।४७ पूर्ति प्राधार स्थल ११ ८७८८० ५।१०१ १।१४० ८१०६ ८।४४-४८ ८।४६-५० ८२१ ८२३ ५/३६ ४/१० २२२ २५१-५५ २२ ५।४६ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११२ १:४ १४ ११४ ११४ २।२२ १११५५ ७२७,२८ १६१७ १।१७:११४ श१७ १।१७ २८ १।१२ २२ अणेगाहगमणिज्जं जाव णो गमणाए ३.१३ अणेसणिज्ज जाव णो १।१७,६३,१०६,१३६ असणिज्जं जाव लाभे १।१०८,१२१ अणेसणिज्ज.."णो श२१ अणेसणिज्ज"लाभे ११८५,९७,८।१६।१ अणेसणिज्ज"लाभे संते जाव' णो १४१३५ अण्णमण्णमक्कोसंति वा जाव उद्दवेंति २०५१ अण्णयरं जहा पिंडेसणाए ७१५६ अतिरिच्छच्छिन्नं तहेव तिरिच्छच्छिन्नं तहेव ७४३४,३५ अपरिसंतरकडं जाव अणासेवितं ११२१,११२ अपुरिसंतरकडं जाव णो १।२४ अपरिसंतरकडं जाव बहिया अणीहडं वा... अन्नयरंसि १०६ अपूरिसंतरकडे जाव अणासेविए (ते) २।१०,१२ अपुरिसंतरकडे जाव णो २११४,१६ अपूरिसंतरकडे वा जाव अणासे विते २१३ अप्पंडए जाव संताणए १।१३५ अप्पंडं जाव पडिगाहेज्जा अतिरिच्छच्छिन्नं तिरिच्छच्छिन्न नहेव ७१३७,३८ अप्पडं जाव मक्कडा ६२ अप्पंडं जाव संताणगं (य) रा५८-६१,६६,५।२६,३०,७४२७,२८,३०,३१,३४ अप्पंडा जाव संताणगा ११४३,३१५ अप्पडे जाव चेतेज्जा २१३२ अप्पापाणं जाव संताणगं २०२ अप्पपाणंसि जाव मक्कडा १०।२८ अप्पवीयं जाव मक्कडा १०१३ अप्पुस्सुए जाव सयाहीए ३1२६,५९,६१ अफासुयं जाव णो १११२,६४,८२,८३,८७,६२,६६, १०७,११०,१११,१२८,१३३; २१४८,५।२२,२३,२५,२८,२६; ६।२६,४६,७।२६,२७,२६,३० अफासुय जाव लाभे १११०६ अफासुयं 'लाभे ११८४,१०२,१०४,१२३ अफासुयाई जायणो ६।१३,१४ १. अत्र 'जाव' शब्दस्य व्यत्ययोपि वर्तते। ७।३०,३१ १२ श२ १२ १२२ ३१२२ १४४ ११४ ११४ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भगेत्ता वा तहेव सिणाणाइ सहेव सीओ दगादि कंदादि तहेव अभिकखसि सेसं तव जाव णो अभिहणेज्ज वा जाव उद्दवेज्ज अभिहणेज्ज वा जाव ववरोवेज्ज अयं तेण तं चैव जाव गमणाए अयबंधणाणि वा जाव चम्मबंधणाणि असणं वा ४ अफासुय असणं वा ४ जाव लाभे असणं वा ४ लाभ असत्यपरिणयंजाव णो असावज्जं जाव भासेज्जा अपिडियाए एवं साहम्मियं समुद्दिस्स अपिडिया बहवे साहम्मिया समुद्दिस्स अस्सिपडियाए एगं साहम्मिणि समुद्दिस्स अपिडियाए बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स अपिडियाए बहवे समणमाहण पराणियपगणिय समुद्दिस्स पाणाई ४ जाव उद्देसिय चेतेति, तहप्पगार थंडिलं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा जाव वहिया णीहडं वा अणी वा आइक्खह जाव दुइज्जेज्जा आसणाणि वा जाव भवणगिहाणि आगंतारेसु वा जाव परियावसहेसु आगंतारेसु वा जावोम्गहियंसि आमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज आयरिए वा जाय गणावच्छेइए इक्कडे वा जाव पलाले ईसरे जाव एवोग्गहियंसि उवज्झाएण वा जाव गणावच्छेइएण एवं अतिरिच्छच्छिन्ने वितिरिच्छच्छिन्ने जाव पडिगाज्जा एवं आउतेउवाउवणस्सइ ३ ६१२२-२५ ५१२४ १५१४७,४८ २११६,४६ ३।११ ६।१४ १६२ ११६० १।३६,४१,८८, ११ १।११३,११५-११६ ४२२ १०१४-८ ३।५५ ३ ४७ २/३४, ३५ ७ ४६, ४७ ३१३६; ६/४८ १।१३१ २१६५७१५४ ७/३२,३३ २२७२ _७/४४, ४५ २१४१ ५।२३-२५ ५/२३ १५।४४ १८८ ३३६,१० ६।१३ ११६७ ११४ १४ ११२२; ११४ ४|११ १।१२-१६ ३५४ २।३६ २३३ ७।२३, २४ १।५१ १1१३० २/६३ ७/२५, २६ १/१३० ७/३०,३१ २४१ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं गायब्वं जहा सह-पडियाए सव्वा वाइत्तवज्जा रूव-पडियाए वि एवं तसकाए वि एवं पादणक्ककण्णउछिन्नेति वा एवं बहवे साहम्मियया एवं साहम्मिणि बहवे साहमणीओ एवं बहवे साहम्मिया एवं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ बहवे समणमाहणस्स तहेव, पुरिसंतरं जहा पिंडेसणाए एवं बहवे साहम्मिया एवं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स चत्तारि आलावगा भाणियव्वा एवं बहिया विचारभूमि वा विहारभूमि वा गामाशुगामं दुइज्जेज्जा अहपुणेवं जाणेज्जा तिव्बदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए णवरं सव्वं चीवरमायाए एवं वहिया बियारभूमि वा विहारभूमि वा गामाणुगामं दूइज्जेज्जा । तिव्वदेसियादि जहा बिइयाए वत्थेसणाए णवरं एत्थ पडिग् एवं सेज्जागमेणं णेयब्वं जाव उदगपसूयाई ति एवं सेज्जागमेणं णेयव्वं जाव उदगप्पसूयाइंति एवं हिट्ठियो गमो पायादि भाणियव्वो एसणिज्जं जाव पडिगाहेज्जा एसणिज्जं जाव लाभे एसणिज्जं लाभे एस पइन्ना जं ओवयं हि य जाव उप्पिजलगभूए कंदाणि वा जाव बीयाणि कंदाणि वा जाव हरियाणि कसि जाव समुप १२।२-१७ १८ ४|१६ २१४, ५, ६ ५।६-११ १।१३-१ः ५१४३-४५ ६१५१-५८ ८२-१५ १३-१५ १३१४०-७५ १।१८,२३,२/६४ १७, १४३ २/६३, हार ६।२८, ४५ १५/४० . १०/१५ ५।२५ १५.४० १११५-२० १६२ ४१६ २३ १।१३-१८ १।१२ १३८-४० ५१४३-५० २/२-१५ २१३-१५ १३।३-३८ ११५ १५. १५ ११५६ १५/६ २१४ २।१४ १५/३८ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुट्ठीति वा जाव महुमेहणी कुलियंसि वा जाव णो खंसि वा अण्णयरे वा तहप्पगारे जाव णो खलु जाव विहरिस्सामो मंडे या जान भगंद गच्छेजा जाव अपुत्सुए ती गच्छेजा जाय गाभाणुनाम गच्छेज्जा तं चैव अदिण्णादाणवत्तव्वया भाणियध्वा जाव वोसिरामि गामं वा जाव गामं वा जाव रायहाणि गामंसि वा जाव रायहा रणिसि गामे वा जान रायहाणी माहावई वा जाव कम्मकर गाहाबद-कुल जान पविद्वे गाहाव- कुलं जाव पविसितुकामे गाहाब- कुलं पविसितुकामे गाहावई वा जाव कम्मकरीओ गोलेति वा इत्पी गमेणं तवं छत्तए वा जाव चम्म छेदणए छत्तगं वा जाव चम्मछेयणगं जनसाणि वा जाब सेणं जहा पिंडेसणाए जाव संचारण जाएजा जाव परिगाज्जा जाएजा जाव विहरिस्सामो जावज्जीवाए जाव वोसिरामि जीवपट्टियंसि जाब मक्का झामथंडिलंसि वा जाव अण्णयरसि झामथंडिलसि वा जाव पमज्जिय ठाणं तेज्जा ठाणं वा जाव चेतेज्जा जगरं वा जाव रायहाणि ५ ** ७/१२ ७११३२ ७ २५ १३०३०-३३ ५४८ ५४६ १५।६४ ७२ ११३४,१२२:२११:३१२:६११ १०३४, १२२,३१२ ३:४५, ५७ ११६३,५११८६११७ १।१६,१७ ११८,४४ १/३७ ११२१, १२२, १४३; २।२२,३६,५१७१६ ४/१४ ७१२४ ३।२४ ३१५६ २।१२ १।१४५: ५। १९६०१६, १७ ७१४६ १५।५७ १०।१४ १५/१५/३६ १।१३५ २२८,२६ २१२७.५१-५५ ८१ आयारो ६८ ५। ३७ ५३८ ७।२३ १३।२८ ३।५९ २०५१ १५।५७ ११२८ ११२८ ११२८ ११२८ १२५ ११ १११६ tree ११४६ ४१२ २४६ २।४६ ३१४३ १।२६ १।१४१ ७/२२ १५४४३ १५१ ११३ १।३ २।१ २१ ११२५ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५८ ७११४ १३२८ १६४२ १३१४८-१५४ ११११४ ११३१२-१४,१६ १११७-११,१५ ७।३६-४२ श१४१-१४७ ११४,९२ १११५ १०५ ७.२५-२८ ७।३ णगरस्स वा जाव रायहाणीए णिक्खमणपवेसाए जाव धम्माणु ओग तं चेव भाणिय व्वं गवरं चउत्थाए णाणत से भिक्खू वा जाव समाणे सेज्ज पुण पाणग-जायं जाणेज्जा तंजहा तिलोदगं वा तुसोदगं वा जवोदग वा आयाम वा सोवीरं वा सुद्धवियर्ड वा अस्सि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे तहेव पडिगाहेज्जा तहप्पगार जाव को तहप्पगाराइं णो तहप्पगाराई."सहाई.''गो तहेव तिन्निवि आलाधगा वर ल्हसुण दंडगं वा जाव चम्मछेदणगं | दस्सुगायतणाणि जाव बिहारवत्तियाए दुब्बद्धे जाव णो देज्जा जाव पडिगाहेज्जा देज्जा जाव' फासुयं 'पडिगाहेज्जा देज्जा जाव' फासुयं"लाभे दोहिं जाव सण्णिहिसपिणचयाओ निक्खमणपवेसाए जाव धम्माणु ० निक्खिवाहि जहा इरियाए णाणत्तं वत्थपडियाए पइण्णा जाब जं पगिझिय जाव णिज्झाएज्जा पडिक्कमामि जाव वोसिरामि पडिम जहा पिंडेसणाए पडिमाणं जहा पिंडेसणाए पडिमाणं जाव पगहियतरागं पडिवज्जमाणे तं चेव जाव अण्णोष्णसमाहीए ३९ ७११ १११४४ ११४७ ५१८ १६२४ ३१२ १११४१ १११४१ १३१४१ ११२१ १।४२ ५१५० २११६,२२,६।२८,४५ ३।४८,४६ १५२५० ६२२० ५२१ ८।२१-३० ३१६१ ११५६ ३४७ १५२४३ १११५५ १४१५५ २०६७-७६ २०६७ १११५५ - - १,२. अन्न 'जाव' शब्दस्य व्यत्ययोपि वर्तते । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णस्स जाव चिताए २१५०-५६,७।१५,२१ ११४२ पमज्जेता जाव एगं ३२३४ ३।१५ परक्कमे जाव णो ३७ पागाराणि वा जाव दरीओ ३१४७ ३१४१ पाडिपहिया जाव आउरांतो ३१५७ ३१५४ पाणाइं जहा पिंडेसणाए पाणाई जहा पिडेसणाए चत्तारि आलावगा 1 पंचमे बहवे समणमाहणा पगणिय-पगणिय तहेव से भिक्खू वा २ अस्संजए भिक्खुपडियाए बहवे समणमहणा वत्थेसणालावओ ६॥४-१२ १।१२-१८:५१५-१३ पाणाणि वा जाव ववरोवेज्ज २१७१ ११८८ पायं वा जाव इंदिय २०४६ ११८८ पायं वा जाव लूसेज्ज २०७१ ११८८ पिहयं वा जाव चाउलपलबं १७.१४४ पुढविकाए जाव तसकाए १५॥४२ २१४१ पूढवीए जाव संताणए १।१०२,५१३५,७४१० ११५१ पूरिसंतरकड जाव आसे वियं १२२ १२१८ पुरिसंतरकडं जाव पडिगाहेज्जा परिसंतरकडं जाव बहिया णीहडं अण्णयरंसि १०।१० पुरिसंतरकड़े जाव आसे विए २।६,११,१३ १११८ परिसंतरकडे जाव चेतेज्जा २०१५,१७ राह पूवोवदिवा जाव चेतेज्जा २१३० २।२७ पुवोवदिट्ठा जाव ज १६१:२।२३,२४,२५,२७,२८,२६,३।६,१३,४६,५१२७ ११५६ पुवोवदिट्ठा जाव णो १९५ ११६१ पहाए जाव चिताचिल्लड ३१५६ फलिहाणि वा जाव सराणि १११५ नि० १७११४१ फासिए जाव आणाए १२४९ फासिए जाव आराहिए १०७० १५१४६ फासूयं जाव पडिगाहेज्जा १२२,२५,८१,१००,१४६,५२०,३०,७१२८,३१ ११५ फासुयं"पडिगाहेज्जा १११४१ ११५ फास्य "लाभे संते जाव' पडिगाहेज्जा १११०१,१२८,५११८ बहुकंटगं"लाभे संते जाव' णो १११३४ ११४ ५१११ १११८ १२५२ ११५ १.२. अन 'जाव' शब्दस्य व्यत्ययोपि वर्तते। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३॥४ १२२ १२२ बहुपाणा जाव संताणगा बहुवीया जाव संताणगा बहुरयं वा जाव चाउलपलंब भगवंतो जाव उवरया भिक्खुगी वा जाव पबिट्रे १२६ ३३१ ११८२ २।२५ ११५,६,७,११,१२,४२,६२,६२,६६,६६, १०१,१०४,१०५,१०७-१०६,१११ १।१२१ ११ १२९३,६४ शहर भिक्खूणी वा सेज्ज पुण जाणेज्जा असणं वा ४ आउकायपइट्रियं तह चेव । एवं अगणिकायपइद्रियं लाभे भिक्खू वा जाव पग्गहिय. भिक्खू वा जाव पविढे भिवत्र वा २ जाव सद्दाई भिक्खू वा जाव समाणे १११४५ ११२३,४६,५०,५२ ११०२ १३५३,५५,५८,६१,८३,८४,८७,८६, ६०,६७,१०२,१०६,११०,११२-११६, १२४,१२५,१२६,१३५,१३६, १४५,१४७,१५१ ११.१४,१५ ११८२,१२८,१३३,१३४,१४४ ५२७ ११ ११ रा२४ ४।२५ १२१४२ भिक्खू वा २ जाव सुणेति भिक्खू वासेज्ज मणी वा जाव रयणावली मणुस्सं जाव जलयर मत्ते तहेव दोच्चा पिंडेसणा महद्धणमोल्लाई.."लाभे महन्वए" मासेण वा जहा वत्थेसणाए मूलाणि वा जाव हरियाणि रज्जमाणे जाव विणिग्घाय रज्जेज्जा जाव गो लाढे जाव णो वएज्जा जाव परोक्खवयणं वत्थाणि..'लाभे वप्पाणि वा जाव भवणगिहाणि वायण जाव चिताए वित्ती जाव रायहाणि सअंडं जाव णो १५१५६,६३,८४,९१ ६१२१ १०११२ १५७३,७४ १५०७३,७४ ३१२ ४४ ५१५ ४।२१ २०४६ १११४१ १६४ १५१४६ श२२ २।१४ १५१७२ १५१७२ ३ ४१३ ११४ ३१४७ ३।३ ७.३३ १४३,३१२ ७।२६ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.२६ १२ १२२ ५।२८-३४ ११२ १५०६५ १५।६५ ११५ १५१४५ १५७२ १५२७२ सअंडं जाव णो ७१३६,४३ सअंडं जाव मक्कडा ८।१६।१ सअंडं जाव संताणयं (गं) २।१,५७,६८,५।२८,७१२६,२६ सअंडादि सब्बे आलावगा जहा वत्थेसणाए णाणत्तं तेल्लेण वा धएण वा णवणीएण वा बसाए वा सिणाणादि जाव अग्णयरसि वा ६२६-४२ सअंडे जाव संताणए संतिभेया [दा] जाव भंसेज्जा १५॥६७,६८,६९,७५ संतिविभंगा जाव धम्माओ संतिविभंगा जाव भंसेज्जा १५५७३,७४ संथारगं."लाभे २।५७,५८,५६,६० संथारयं जाव लाभे सकिरिया जाव भूओवघाइया १५:४६ सज्जमाणे जाव विणिग्घाय १५।७५,७६ सज्जेज्जा जाव णो १५७५ सत्ताई जाव चेएइ तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए २१७,८ सपाणं जाव मक्कडा १०१२ सपाणे जाव संताणए १३५१ समण जाव उवागया समणमाहण जाव उवागमिस्संति ११४३ समगुजाणिज्जा जाव वोसिरामि समारंभेणं जाव अगणिकाए २०४२ सम्म जाव आणाए १५१६३ सयं बा जाव पडिगाहेज्जा सयं वा णं जाव पडिगाहेज्जा ६।१६ ससिणिद्धेण सेसं तं चेव एवं ससरक्खे मट्टिया ऊसे, हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे गेरुय वणिय सेडिय, पिटु कुक्कस उक्कुट्ट संसद्वेण ११६५-८० सामग्गिय १६४८,६०,८६,१०३,१२०,१२६,१३७; २।२६,४३ सामग्गियं ३.४६५१४०,५१७१२२,५८ सामग्गियं जाव जएज्जासि ८१३१,१०।२६।११।२० १।१६,१७ ३१२ ११४२ १५१४३ २१४१ १५१४६ १११४१ १३१४१ १६६४ ११२० २।७७ २।७७ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ४॥२१ ५२२३ ५॥३१ ४।१० २।२० २।२१ सावज्जं जाव णो सिणाणेण वा जाव आघंसित्ता सिणाणेण वा जाव पधसेज्ज सिणाणेण वा तहेव सीओदगवियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा आलावओ सिया जाव समाहीए सिलाए जाव मक्कडासंताणए सिलाए जाव संताणए सीओदग-वियडेण वा जाव पधोएज्ज सीलमंता जाव उवरया से आगंतारेसु वा जाव सेसं तं चेव, एयं खलु० जइज्जासि हत्थं जाव अणासायमाणे हत्थं वा जाव सीसं हत्थिजुद्धाणि वा जाव कविजल हत्थिट्राणकरणाणि वा जाव कविजल ३१४४ १८२ १।८३ ५.३२ ॥३८ ७.६,८ १४१३-८० ३१५०,५२ २।१६ ५॥३१,३२ ३।२६ ११५१ १५१ २१२१ १११२१ ७४ १३१३-८० रा७४ ११८८ १०।१८ १०१८ ११।११ २१३२ २१५८ ७२० ३२ अकेवले जाव असव्वदुक्ख० अकोहे जाव अलोभे अखेत्तण्णा जाव परक्कमण्णू अगाराओ जाव पब्वइत्तए अज्भारोहसंभवा जाव कम्माणियाणेण अणारिए जाव असव्वदुक्ख० अणारिया वेगे जाव दुरूवा अणिटुं जाव णो सुह अणिट्ठाओ जाव णो सुहाओ अगिटे जाव णो सुहे अणिढे जाव दुक्खे अणपुवट्ठिए जाब पडिरूवे अणुपुवट्रियं जाव पडिरूवं अणुपुव्वेणं जाव सुपण्णत्ते अणेगभवणसयस णिविट्ठा जाव पडिरूवा अपच्छिमं जाव विहरित्तए सूयगडो २१५७,६२ ४।२४ २१९,१० ७२१ ३१७,८,९ રાષ્ટ્ર ०४६ ११५१ २५१ ११५१ ११५१ श५ १७,८,९ १२२३-२५ ७२ ७१२६ १११३ १९५० ११५० १९५० ११५० ११३ १११३-१५ ७.५ ७१२१ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ २०५८ २।७२ २।२४ २१५८ अपत्ते जाव अंतरा १११० अपत्ते जाव सेयंसि १६ अप्पडिविरया जाव जे यावण्णे २२७१ अभिगयजीवजीवे जाव विहरइ ७.४ अवहरइ जाव समणुजाणइ २।२५,२६,३० अहम्मिया जाव दुप्पडियाणंदा जाव सव्वाओ परिगहाओ ७२२ अहावर पुरक्खायं इहेगइया सत्ता तेहिं चेव (१) पुढविजोणिएहिं रुक्खेहि (२) रुक्खजोणिएहि रुक्खेहि (३) रुक्खजोणिएहिं मूलेहि जाव बीएहि (४) रुक्खजोणिएहिं अज्झारोहेहि (५) अज्झोरुहजोणिएहिं अज्झोरहेहि (६) अज्झोरुहजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं (७) पुढविजोणिएहि तणेहिं (८) तण जोणिएहिं तणेहिं (६) तणजोणिएहि मूर्ताह जाव बीएहिं (१०-१२) एवं ओसहीहिं वि तिण्णि आलावगा' (१३-१५) एवं हरिएहि वि तिण्णि आलावगा (१६) पुढविजोणिएहि वि आएहिं जाव कूरेहिं । (१) उदगजोणिएहिं रुक्षेहि (२) रुक्खजोणिएहिं स्वखेहि (३) रुक्ख जोणिएहि मूलेहिं जाव बीएहि (४-६) एवं अज्झोरहेहिं वि तिणि (७-६) तणेहिं वि तिषिण आलावगा (१०-१२) ओसहीहि वि तिषिण (१३-१५) हरिएहि वि तिषिण (१६) उदगजोणिएहिं उदएहिं अवएहिं जाव पुक्खलच्छिभएहि तसपाणत्ताए बिउटति । ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं, उदगजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झोरुहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं १. येषां चत्वार इचत्वार पालापकास्तेषां तुतीय पालापको न ग्राह्यः । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरियजोणियाणं स्त्रखाणं अज्भोरुहाणं तणाणं ओसहीण हरियाणं मूला जाव बीयाणं आयाणं कायाणं जाव कूरवाण उदगाणं जाय पुच्छिभगाणं सिणेहमाहारेति जीवा आहारेति पुढविसरीरं जान संत अवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं 1 अज्भोरुह जोणियाण तणजोणियाण ओस हिजोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं जाव वीयजोणियाणं आयजोणियाणं कावजीणियाणं जाय कूरवजोगियान उदगजोणियाणं अवमजोणियाणं जाव पुनखल भगणियाणं तसपाणाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं । अहोणं जाव मोहरगाणं आतोडिजमाणस्स वा जाव उवद्विज्ज० आहे वा जाय परिवारहेड आयाण जाव कूराणं जाया जाव दिवाओ आरिए जाव सव्वदुक्ख • अट्टालाओ वा जाव गर्भ० उदगजोणिया जाय कम्म० उदगसंभवा जाव कम्म० उदाहू......संवेगइया उस्साणं जाव सुद्धोदगाणं ऊसियं जाव पडिरूवं एमसुराणं जाव सणफयाणं एवं उदगबुब्बुए भणियब्वे एवं ओसहीण विचत्तारि आलावगा एवं जहा मणुस्सा जाब वि एवं जाव तसकाए ति भाणियन्व एवं तपजोगिएसुतणेगु तणस्साए विउति तणजोणियंतपसरीरं च आहारेति जाव मक्खाय १२ ३४४-७९९ ३१७६ ४२१ २६ ३।२२ ११३५ २७०, ७५ २२२६ ३१८७,८८ ३।२३,४३,८६ ७१२० ३१८५ १६ ३।७८ १३४ ३१४-१७ ३२७८ ४।११-१५ ३१२ ३।२-४३ ३.७६ १५६ २३ ३/२२ नंदी सू० ८० २/३२ २।२३ ३१६६ ३१२ ७१७ ३२८५ ११३ 3105 ११३४ ३।२-५ ३।७६ ४११०,३ ३।४ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ ३१८२, चूणि, वृत्ति ११५१ ११२१,२२ ३।२-५ २१४१ १२१७ ११४६-७० २१४ २०१४ एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउति ते जीवा जाव मक्खायं ३१३ एवं दुरूव संभवत्ताए एवं खुरदगताए ३२८३,८४ एवं पुढविजोगिएसु तणेसु तणत्ताए विउट्ट ति जाव मक्खायं ३३११ एवं विष्णू वेदणा ११५१ एवं सद्दहमाणा जाद इति ११३७,३८ एवं हरियाण वि चत्तारि आलावगा ३११८-२१ एवमाइक्खंति जाव परूवेति २२७८,७६;७१११ एवमेव जाव सरीरे १११७ एसो आलोगो तहा यवो जहा पोंडरीए जाव सब्दोवसंता सब्दत्ताए परिणिबुड त्तिबेमि २।३३-५४ कच्छसि वा जाव प०वयविदुग्गंसि २०६ कण्हुईरहस्सिया जाव तओ २०५६ कम्म जाव मेहुणवत्तिए ३१७८ कम्म तहेव जाव तओ ३१७७ किंचिदि जाव आसंदीपेढियाओ १२१ किब्बिसियाई जाव उववत्तारो ७२५ किरिया इ वा जाव अणिरऐ श२६,३६ किरिया इ वा जाव णिरए इवा जाव चउत्थे ११४५-४७ कुसले जाव पउमवरपोंडरीयं १७ केइ जाव सरीरे १।१७ केवले जाव सव्वदुक्ख० २१५५ कोहाओ जाव मिच्छा० २।५८ कोहे जाव मिच्छा. ४१३ खेत्तण्णे जाव परक्कमण्णू १।६,१० गाहावइपुत्ताण वा जाव मोतियं ।२६ गाहावइस्स जाव तस्स ४६ गोहाण जाव मक्खायं ३८० चम्मपक्खीणं जाव मक्खायं ३१८१ चाउद्दसट्ठमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा ७२१ ३१७६ ७.२० २।१४ १।२० १०२६-३१ १२६ १७ २१३२ वृत्ति २१५८ २६ २।२४ ४।५ ३१८०,२ ३८१,२ ७१२० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ३१८६-६२ ३२७६ ३३७६ ३१३-२१ २११२ २१५५ ओ० सू० १६३ ४।१६ २१२१ २।२३ રૂર २७७ २१७७ जहा अगणीणं तहा भाणियव्वा चत्तारिगमा ३६३-६६ जहा उरपरिसप्पाणं तहा भाणियव्वं जाव सारूविकडं ३१८० जहा उरपरिसप्पाणं नाणतं ३१८१ जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारिगमा अज्झारोहणवि तहेव, तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियब्वा एक्केक्के ३१२४-४२ जहा मित्तदोसवत्तिए जाव अहिते २।५८ जावज्जीवाए जाव जे यावण्णे २०६३ जावज्जीवाए जाव सव्वाओ २१५८ जीवणिकाहि जाव कारवेइ ४।१६ झामेइ जाव झामतं २।२६ झामेइ जाव समणुजाभइ २०२८ जाणागंधा जाब णाणाविह. ३५ जाणापण्णा जाव गाणाझवसाण० रा७७ जाणापण्णे जाव णाणाझवसाण. २।७७ जाणावण्णा जात ते जीवा ३४ णाणावण्णा णाव भवंति ३७६ णाणादण्णा जाव मक्खायं ३॥६-६,२२,२३,४३,७७-७६, ८२,८५-८६,६७ णाणाविहजोणिया जाव कम्म० ३.८५,८६,९३,९७ जो पाराए जाव सेयंसि ११८ तं चेव जाव अगारं वएज्जा ७.१६ तं चेव जाव उवट्ठावेत्तए ७१६ तालिजमाणा वा जाव उद्दविज्जमाणा ४.२१ ते तसा'ने चिर जाव अपि भेदे से... ७.२६ दंडगं वा जाव चम्मछेयणगं २०३० दंडणाणं जाव नो बहूर्ण રાહ दंडेण वा जाव कवालेण ११५६;४।२१ दुक्खइ वा जाव परितत्पइ दुक्खंतु वा जाव मा मे परितप्पंतु दुक्खामि वा जाव परितप्पामि १२४३ धम्माणं जाव णाणाझवसाण. ર૭૭ ३.२ श२ ३८२ ७१८ ७.१८ १९५६ ७२० રા २१७८ ११४२ ११४२ १४२ २७७ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७१ ओ० सू० १६१ २०६३ ओ० सू० १६१ ७.२० श२१,२२ ७.१६ ११२३-२५ ११५६ ओ० सू० १७१ ११४७ ११४७ धम्माणुया जाव एग्गच्चाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया २४ धम्माणुया जाव धम्मेणं २०७१ धम्माणुया जाव सव्वाओ ७२३ धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं १६३ पउमवरपोंडरीयं जाव सव्वं परिग्गहं १११० पच्चक्खाइस्सामो जाव सव्वं परिग्गहं ७१२१ पत्तियमाणा जाव इति २३०,३१ परियाए जाव णो धोयाउए ७३० पवालाणं जाव बीयाण ३१५ पाईण वा जाव सुयक्खाते २३२-३४,३६-४१ पाणाइवाए जाव परिग्गहे ४।३ पाणाइवायाओ जाव विरए १५५६ पाणा जाव सत्ता ११५६,५७,२।७८ पाणा जाव सत्वे ४.२१ पाणाणं जाव सत्ताण ४।१७ पाणाणं जाव सम्वेसि ४।५,६,१७ पाणावि जाव अयं....... ७।२६ पाणावि जाव अयं पिभे..... ७।२६ पाणा वि जाव अय पिभेदे ... ७.२६ पासादिए जाव पडिरूवे ११३ पासादीया जाव पडिरूवा पुढविकाइया जाव तसकाइया ४१३,२१ पूढविकाइया जाव वणस्सइकाइया ४।१७ पुढविकाए जाव तसकाए ११५६ पुढविकाए जाव पुढविमेव १३३४ पुढविसंभवा जाव कम्म ३।२२ पुढविसंभवा जाव गाणाविह ३।१० पुढविसरीरं जाव संतं ३।२२.२३,४३,७७-७६ ८१,८२,८५-८६, १७ पुढविसरीरं जाव सारूविकड ३६,७,८,७६ पुढवीणं जाव सूरकताणं ३१६७ पुरिसत्ताए जाव विउट्ट ति ३७८ परिसस्स जाव एत्थ णं मेहणे एवं तं चेव नाणत्तं ३७६ ११४७ ७१२० ७२० કાર ११ ७५ १।१ ११५६ ठाणं ७।७३ ११३४ ३०२ ३३२ ३।६७ ३१७६ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ११३४ ११३४ १॥३४ ७२२७ ७१३४ ७।२६ २०१६ ३१७७ श३४ ११३४ ११३४ ७१६ ७।३४ ७.२० २११६ पष्ण०१ २०७३,७४ २१६६ ७४२० २१२५,३० ७१२८ २१२२,२३,२४,२६ ३.६ ३९ २।६९,७० २०६६ ७१६ २०१६ ७१६ १११६ ३३५ पुरिसादिया जाव अभिभूय पुरिसादिया जाव चिट्ठति पुरिसादिया जाब पुरिसमेव बहुयरगा जाव णो णेयाउए बोहिए जाव उवधारियाणं भवित्ता जाव पव्वइत्तए भेत्ता जाव इति मच्छाणं जाव सुंमुमाराणं महज्जुइएसु जाव महासोक्खेस सेसं तहेव जाव एस ढाणे आयरिए जाव एगंतसम्मे महज्जुझ्या जाव महासोक्खा महया""जं णं तुम्भे वयह त चेव जाव अयं महया जाव उवक्खाइत्ता महया जाव णो णेयाउए मह्या जाव भवति मूलत्ताए जाव बीयत्ताए मूलाणं जाव बीयाणं रुइला जाव पडिरूवा वुच्चंति जाव अयं दूच्चंति जाव णो णेयाउए वुच्चंति ते तसा ए महा ते चिर ते बहुतरगा आयाणसो इती से महता जेणं तुम्भे णो णेयाउए समणुजाणइ"""1 समणोवासगस्स जाव णोणेयाउए सरीरं जाव सारूविकडं सव्वपाणेहि जाव सत्तेहिं सव्वपाणेहि जाव सव्वसत्तेहिं सिज्झिस्संति जाव सन्ध० सिणेहमाहारेंति जाव अवरे सिणेहमाहारति जाव ते जीवा सिया जाव उदगमेव सिया जाव पुढविमेव सेए जाव विसपणे ७२१ ७।२३,२४,२५ ७।२० ७/२० ७.२० २।१६ ७.२२ २१२७ ७।२६ ३१५ ७११८, ७.१८,२६ २१७६ २२ ११४७ १२४७ २१८० ३२ ३२२ ३।१० ११३४ १३४ ११३४ १।३४ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेए जान सेयंसि सेसा तिणि आलावा जहा उदगाणं सोयण जाव परितप्पण सोयाओ जाव फासाओ सोयामि वा जाव परितप्पामि तव्वा जाव ण उद्दवेयव्वा हंतव्वा जाव कालमासे हंता जाव आहार हंता जाव उवक्खाइत्ता अवाइत्ता भवति जाव जधावाती अगारातो जाब पव्यतिते अट्ठ एवं नेव अड्डाई जाव बहुजणस्स terereमाणे जाव अणभिलस माणे अणुत्तरे जाय केवलवर० अणुतरे जाव समुप अत्तरे जाव समुपपणे अणुसोतचारी जाव सवणारी अतिय जाव समुप्पणे अपढमसमयणेरतिता एवं जाव अपढम० अपढमस मयणेरर्तिता जाव अपठमसमयदेवा अभोवगमियो जाव सम्म अमण्णा सद्दा जाव फासा अमण जान साइमे अमुछिए [ते) जाय अणभोववणे अयगोलसमाणे जाव सीसगोल ० अरहंतेहि व अरहा जाव अर्थ अवटुले जाव दव्वओ अवलेहणित जाव देवेसु अविसेस जाव पुब्वविदेहे १७ 815 ३११० १२,१८-१०० ४/१७ ११५२ ११५६ ४२१ ७१२५ २।१६ २।१६.२० ठाणं ७२६ ४४५० ८६६ ८ १० ४:४५१ ५२६७ ६।१०५ १०।१०३ ५।१६६ ७२ १०५ २०१० १० १५३ ४/४५१ १० १४० ८४२ ३१३६२४।४३४ ४१५४६ ३।८५ १०११०६ ५११७४ ४२८२ २१२७० ११६ ३१६६-६६ ४।१७ ११५२ ११४२ ११५६ २।१४ २१६ २१६ ७ २८ ३५२३ ८६५ वृत्ति ४।४५० ८४ ५/६४ १०।१०३ ५।१९९ ७२ ५ १७५ ५।१७५ ४.४५१ ५.५ ६४२ ३।३६२ ४५४६ ३/८१ ५।१९५१०११०६ ५।१७० ४२८२ २२६८ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविसेसमणाणत्ता जाव सद्दावाती असावज्जे जाव अभूताभिसंक असिपत्तसमाणे जाव कलंवचीरिया० अवसितेवि एमेव असुरकुमाराणं वयणा चडवीसं दंडओ आव एगा असोमवणं जाव चूयवर्ण अहासुतं जाव अणुपालिता आउक्साए जाव ता आगमे जान जोते आगमेणं जाव जीतेणं आपवत्ता जाव ठाया आडात जाव बहु आधाकम्मितं वा जाव हरित भोयणं अभिनिवोहिवणाणावरणिजे जान केवल ० अहासुतं जान आराहिया अहीणस्सरे जाव मणामस्सरे ८८१० आउकाइओगाहणा जाव वणस्सइकाइओगाहणा २०११ ८१० आभिणित्रोहिय ( त ] णाणी जाव केवल ० आमलग महुरफलसमाणे जाव खंडमहुर० आयारं जाव दिट्टिवाय आरंभिता जाब मिच्छादंसणवत्तिता आलोएज्जा जाव अस्थि आलोएज्जा जाव पडिवज्जेज्जा आलोयणारिहे जाव अणवट्टप्पारिहे आलोयणारि जाव मूलारि आवले जाव पुक्खलावती आसपुरा जाब बीतसोगा १५ २।२७४ ७।१३३ ४|५४८ २११०३ १।१४३-१६३ ४३४० ८१०४ ७११३९४१:१० १५१ ५१२४ ५।१२४ ३१८७ ८1१० ६/६२ ५२१६ ६।११, ८/१०६ ४४११ १०११०३ ५।११७ ८१० २।२४२, २४३०११० १०१७३ ६४२ ८६६ ८७५ २२७२ ७ १३१ ४।५४८ २।१०२ २।३५४-३६२,४।३६६ ४/३३६ ७।१३ वृति' ८१० ७१३ ८1१० ५।१२४ ५१२४ ३१८७ ८१० હાદુર ५।२१६ ५।२१८ ४४११ समवाओ १२ १. सभेने ते ३१३ महानुतं वारकरणात महात्मात महामहाकप्पं सम्म कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया प्राराहिया ति ( पत्र ३६८ ) 1८।१०४ - 'अहमुत्ता ग्रहाकप्पा महामाना महातच्या सम्म कारण कासिया पालिया सोहिया गौरिया किट्टिया बाराहिया' इति यादव अनुपात (पत्र ४१७) २१४१-सूतं यथाकल्प वामार्थ यावं सम्पन्न सुष्टा पालिता शोभित तीरिता कीर्तितः बाराधिता चापि भोलि ४३०) १०/१५१ – पहात वावर करणात् ग्रहाअत्थं ग्रहातच्च ग्रहामागं महाकप्पं सम्यक्कायेन, फातिया फालिया शोधिता शोभिता वा तीरिया कीर्तिता अराधिता भवति (पत्र ४६२ ) । ५।११२ ८1१० ३२/३३८ ९४२ ८२० २१३४० २।३४१ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ४।४५० ४।४५० ४।४५० ४।४५० ४१४५० १०७२ १०११०५ १०.२६ १४ ५२२० ५।१०५,१०६ ४१४३४ १०.१४ १०११४६ हा६२ ४६५६ ४४ ४।४५० पा१८ ४।५७८ ५॥२२३ है।३ ५।१६ ५।१०४ ४१४३४ १०११३ २।३८०-३८४ वृत्ति ४१६५४ ४१४ आसाएइ [ति जाव अभिलस ति आसाएमाणे जाव अभिलसमाणे आसाएमाणे जाव मणं आहारवं जाव अवातदंसी आहारसण्णा जाव परिग हसण्णा इदा जाव महाभोगा इ दियाई जाव णिज्झा इत्ता इदेथावरकाताधिपती जाव पातावच्चे इच्चेतेहिं जाव णो धरेज्जा इच्चेतेहि जाव संचातेति इरिताऽसमिती जाव उच्चार० ईसाणे जाव अच्चुते उज्जलं जाव दुरहियासं उत्तरासाढा एवं चेव उण्णए णाम उण्णत्तावत्तसमाणं माणं एवं चेव गूढावत्तसमाणं मातमेवं चेव उप्पण्णाण जाव जाणति उप्पायणविसोहि जाव सारक्खणविसोहि उम्मीवीची जाव पडिबुद्धे उरगजाति पुच्छा उवचिण जाव णिज्जरा उरि जाव पडिबुद्ध उवहिअसंकिले से जाव चरित्त० एगिदितेहिंतो वा जाव पंचिदिय० एगिदियत्ताते वा जाव पंचिदियत्ताते एगिदियअसंजमे जाव पंचिदिय० एगिदियणिवित्तिते जाव पंचिदिय० एगिदियसंजमे जाव पंचिदिय० एगिदिया जाव पंचिंदिया एते चेव एते तिण्णि आलावगा भाणितव्वा ४१६५३ ७७८ १०८५ १०११०३ ४।५१४ ८।१२६६७२ १०।१०३ १०॥८७ ५।२०५ ५।२०५ ५११४५ ५२२३८ ५११४४ श१८०,२०४।६।११ ५॥१७६ १०।१५६ २।१६८ २२५६ ५११६५ १०८४ १०११०३ ४।५१४ ३१५४० १०।१०३ १०१८६ भ० २११३६ भ० २।१३६ भ० २।१३६ भ० २।१३६ भ० २।१३६ भ० २।१३६ ५१७८ १०।१५६ २।१६७ २।२५५ एवं Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० २१४६२ ३१३२२ ३१४७५ २।४६१ ३१३२१ ३१४७४ एवं ६३८ ६।३५ २।१० ३।४२२ ४११६६-२१० २।८४ एवं अग्गिच्चावि एवं रिट्ठावि ६.३६,३७ एवं अजोगिभवत्थकेवलणाणे वि २।६१ एवं अणुण्णवेत्तए उवाइणित्तए ३१४२३,४२४ एवं अजरूवे अज्जमणे अज्जसंकप्पे अज्जपण्णे अज्जदिट्ठी अज्जसीलाचारे अज्जववहारे अज्जपरक्कमे अज्ज वित्ती अज्जजाती अज्जभासी अज्जओभासी अज्जसंवी अज्जपरियाए अज्जपरियाले एवं सत्तरस्स आलावगा जहा दीणेण भणिया तहा अजेण वि भाणियब्वा । ४।२१३-२२७ एवं अणभिग्गहितमिच्छादसणे वि रा८५ एवं असंकिलेसे वि एवमतिक्कमे वि वइक्कमे वि अइयारे वि अणायारे वि ३।४३६-४४३ एवं असंयमो वि भाणितव्यो १०१२३ एवं आगंता णामेगे सुमणे भवति ३ एमीतेगे सु३ एस्सामीति एगे सुमणे भवति ३।१९५-१९७ एव उवसंपया एवं विजहणा ३।३५३,३५४ एवं एएणं अभिलावेणं-- संगहणी-गाहा गंता य अगता य, आगंता खलु तहा अणागंता । चिद्वित्तमचिद्वित्ता', णिसितिता' चेव णो चेव ॥१॥ हता य अहंता य, छिदित्ता खलु तहा अछिदित्ता। बुतित्ता अबुत्तिता, भासित्ता चेव णो चेव ।।२।। 'दच्चा य अदच्चा" य, जित्ता खलु तहा अभुंजित्ता। लभित्ता अलभित्ता, पिबइत्ता' चेव णो चेव ॥३॥ ३१४३८ १०१२२ ३।१८६-१६१ ३२३५१ १. चिट्टित्त न चिट्ठित्ता (क) । २. णिसिंतत्ता (क, ख)। ३. दत्ता प्रदत्ता (क) ! ४. पिवइत्ता (क, ग); पिइता (क्व) । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ सुतित्ता असुतित्ता, जुज्झित्ता खलु तहा अजुज्झिता । जतित्ता अजयिता य, पराजिणित्ता चेव णो चेव ||४|| सद्दा रूवा 'गंधा, रसा य" फासा तहेव ठाणा य । णिस्सीलस्स गरहिता, पसत्था पुण सीलवंतस्स || ५ || एवमिahar तिथिण उ तिष्णि उ आलावगा भाणियब्वा । एवं एसा गाहा फासेतव्वा, जावससरीरी चेव असरीरी चैव सिद्धसइंदियकाए, जोगे वेए कसाय लेसा य । णाणुवओगाहारे, भासग चरिमे य ससरीरी ॥ १ ॥ एवं ओप्पणीए नवरं पण्णत्ते आगमिस्सा उस्सप्पिणीए भविस्सति एवं कंता पिया मणुण्णा मणामा एवं कुलसंपणेण य बलसंपणेण य कुलसंपणेण य रूवसंपणेण य कुलसंपण्णेण य जयसंपण्णेण य एवं कुलेण य रूवेण य कुलेण य सुतेण य कुलेण त सीलेण य कुलेण य चरितेण य एवं गंधाई रसाई फासाई जाव सव्वेण वि एवं गंधा रसा फासा एवमिक्किवके छ-छ आलावगा भाणियव्वा एवं भंगो एवं चक्कवट्टिवसा दसारवंसा एवं चक्वट्टी एवं बलदेवा एवं वासुदेवा जाव उपज्जिस्संति एवं चिति एस दंडओ एवं चिणिस्संति एस दंडओ एवमेतेणं तिष्णि दंडगा एवं चेव एवं चैव एवं चेव एवं चेव एवं चैव १. रसगंधा (ग) 1 ३।१६८- ९८४ २४१० ३१११०,१११ २/२३३ ४१४७४-४७६ ४१३६७-४०० १०१३ २१२३०-२३८ ४:२५० २।३१०,३११ २।३१३-३१५ ४१६३, ६४ ३१४८४ ४४२७ ४६१७ ४१६१६ ५:१६१ संग्रहणी-गाहा; ३।१८६-१९४ संग्रहणी - गाहा ३|१०६ २२३२ ४/४७१-४७३ ३।३६६ १०।३२।२०३,२०४ २।२३४ ४२५० २।३०६ २३१२ ४६२ ३२४८३ ४४२६ ४२६१७ ४:६१८ ५११५६ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६।२५ ८१४८ का१२३ ४१४८३ ६२८१ ५1८४ ६।२५ एवं चेव ५।१६२ एवं चेव ६२६ एव चेव ८.४६,५० एवं चेव का१२४ एवं चेव १०१६४ एवं चेव एवं तिरियलोए वि ४१४८४,४८५ एवं चेव एवं फासामातो वि ६८१ एवं चेव एवमेतेणं आभिलावेणं इमातो गाहातो अणुगंतव्वातो-- पउमप्पभस्स चित्ता, मूले पुण होइ पुप्फदंतस्स । पुवाइं आसाढा, सीयलस्सुसर विमलस्स भद्दवता ॥१॥ रेवतित अणंतजिणो, पूसो धम्मस्स संतिणो भरणी। कुंथुस्स कत्तियाओ, अरस्स तह रेवतीतो य ॥२॥ मुणिसुब्वयस्स सवणो, आसिणी णमिणो य णेमिणो चित्ता। पासस्स विसाहाओ, पंच य हत्यूत्तरे वीरो ॥३॥ १८६-६६ एवं चेव जाव छच्च ६१२७ एवं चेव णवर खेत्तओ लोगालोग्गपमाणमिते मुणतो अवगाहणागुणे सेसं तं चेव ५११७२ एवं चेव णवर गुणतो ठाणगुणे ५।१७१ एवं चेद णवर दवओणं जीवस्थिगाते अणंताई दवाइं अरूवि जीवे गुणतो उवओगगुणे सेसं तं चेव ५।१७३ एवं चेव मणस्सावि ४।६१५ एवं छप्पि समाओ भाणियवाओ जाव दूसमदूसमा ३.६० एवं छप्पि समाओ भाणियव्वाओ जाव सुसमसुसमा ३१६२ एवं जधा अटुट्ठाणे जाव खते १०७१ एवं जधा छुट्टाणे जाव जीवा ८।१४ एवं जधा पंचट्ठाणे जाव आयरिय एवं जघा पंचट्ठाणे जाव बाहिं ७८१ एवं जहण्णोगाहणगाणं उक्कोसोगाहणगाणं अजहणुक्कोसोगाहणगाणं जहण्णठितियाणं उक्कस्सटुितियाणं अजहण्णुक्कोसठितियाणं ५।१७० ५।१७० ४१६१४ १।१२८-१३३ १११३५-१४० ८.१६ ५४८ ५।१६६ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ १२३८-२४६ ११२३५.२३७ ४।१२-२१ ४॥२.११ ३।२७ ३।२६ ४१३७६-३७८ ४।३७२-३७४ ४।४४२-४४६ ३७६-८६ ५१५७ ३१७० ३७१ जहण्णगुणकालगाणं उक्कस्सगुणकालगाणं अजहष्णुक्कस्सगुणकालगाणं एवं जहा उण्णत पणतेहिं गमो तहा उज्जु वकेहि वि भाणियव्यो जाव परक्कमे एवं जहा गरहा तहा पच्चक्खाणे वि दो आलावगा एवं जहा जाणेण चत्तारि आलावगा तहा जग्गेणवि पडिवेक्खो तहेव पूरिसजाया जाब सोभेति एवं जहा तिट्राणे जाव लोगतिता देवा माणुस्सं लोग हव्वमागच्छेज्जा तं जहा अर इंतेहिं जायमाणेहिं जाव अरहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु एवं जहा पंचट्ठाणे जाव किण्णरे एवं जहा विज्जुतारं तहेव थणियसपि एवं जहा हयाणं तहा गयाणं वि भाणियव्वं पडिवेक्खो तहेब पुरिसजाया एवं जाइस्सामीतगे सुमण भवति एवं जातीते य रूवेण य चत्तारि आलावगा एवं जातीते य सुएण य एव जातीते य सीलेण य एवं जातीते य चरित्तेण य एवं जाव अपढमसमयपंचिदिता एवं जाव एगा एवं जाव कम्मगसरीरे एवं जाव काउलेसाणं एवं जाव केवलणाणं एवं जाव घोसमहाघोसाणं णेयव्वं एवं जाव जहा से एवं जाव तिणिस० एवं जाव दुविहा एवं जाव पच्चुप्पणाणं एवं जाव फासाई एवं जाव फासामतेणं एवं जाव फासामातो एवं जाव फासामातो ४।३८५-३८७ ३११६१ ४।३८१-३८३ ३॥१८६ ४१३६२-३६५ १०।१५२ १२१६-२२६ ५।२७-३० २।१६८ २१५३-६२,३।१६३-१७२ ७।११७,११८ ५६१२४ ४।२८३ २११२४-१२६ ७१७ १०१४ १०१२२ ८.३३ ५।१४५ पण्ण०१ ५।२५,२६ १।१६२ २१४२.५१ ५२६२,६३ ५।१२४ ४२८२,२८३ ७७३ ७१६ १०१३ ८।३३ ६।८१ ६१८२ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५,७६ ४१७५,८० ४७५,८४ ४७५,८८ २११२४-१२७ १०३ ५११७५ समवाओ ६१ ४१३५४ ४३७२-३७४ ४१५८ एवं जाव मणपज्जवणाणं २१४०४ एवं जाव लोभे वेमाणियाणं ४७७-७६ एवं जाव लोभे वेमाणियाणं ४१८१-८३ एवं जाव लोभे देमाणियाण ४१८५-८७ एवं जाव लोभे वेमाणियाणं ४८६-६१ एवं जाव वणस्सइकाइया २११२६-१३२,१३४-१३७ १३०-१४३ एवं जाव सव्वेण वि १०१५ एवं जाब सिद्धिगती १०६६ एवं जाव सुक्कलेसाणं १११६३-१६५ एवं जाव सेलोदग ४१३५५ एवं जुत्तपरिणते जुत्तरूवे जुत्तसोभे सन्वेसि पडिवेक्खो पुरिसजाता ४३८१-३८३ एवं णिरयाउअंसि कम्मंसि अक्खीणंसि जाव जो चैव ४/५८ एवं गैरइयाणं जाव वेमाणियाणं एवं जाव मिच्छादसणसल्लाणं २०४०७ एवं सत्थियावि २।२८ एवं णो केवलं बभचेरवासमावसेज्जा णो केवलं संजमेणं संजमेज्जा णो केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा णो केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा एवं सुयणाणं ओहिणाणं मणपज्जवणाणं केवलाणं २०४४-५१ एवं तिरियलोग उड्वलोगं केवल कप्पं लोगं २।१९४-१९६ एवं तिरियलोग उनलोगं केवलकप्पं लोग २।१९८-२०० एवं तेइ दियाणं वि चरिंदियाणं वि ११८१-१८४ एवं थावरकाए वि २११६६ एवं दसणाराहणा वि चरिताराहाणा वि ३१४३६,४३७ एवं दीणजाती दीणभासी दीणोभासी ४२०५-२०७ एवं दीण मणे दीणसंकप्पे दीणपण्णे दीणदिट्री दीणसीलाचारे दीणववहारे ४.१६७-२०२ एवं दीणे णाम मेगे दीणपरियाए एवं दीणे णाममेगे दीणपरियाले सम्वत्थ चउभंगो ४।२०६,२१० १।६७-१०७:२।४०६ २१२७ २१४३ २।१६३ २११६७ १।१७६,१८० ।१६५ ३१४३५ ४११६५ ४१६५ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं देवंधगारे देवुज्जोते देवसण्णिवाते देवक्कलिता देवकहकहते एवं देवाणं भाणियव्वं एवं देवकलिया देवकहकहए एवं दोग्गतिगामिणीओ सोगतिगामिणीओ किलिट्ठाओ अकिलिद्वाओ अमणुष्णाओ माओ अविसुद्धा विसुद्धा अपसत्थाओ सत्थाओ सीतलुक्खाओ णिगुहाओ एवं पडिसति विद्धसंति एवं परिणते नाव परक्कमे एवं परिग्गहिया वि एवं परसे वि एवं पुट्टियावि एवं पुवफग्गुणी उत्तराफग्गुणी एवं रित्ताणं एवं डित्ताणं एवं संवट्ट इताणं एवं णिवट्टतिताणं एवं बलसंपणेण य रूवसंपणेण य बलसंपणेण य जयसंपण्णेण य सव्वत्थ पुरिसजाया पडिवनखो एवं बलेण य सुतेण य एवं बलेण य सीलेण य एवं बलेण य चरितेण य एवं मणुस्सावि एवं मोहे मुढा एवं मोहे मूढा एवं रज्जंति मुच्छंति गिज्भति अज्झोववज्र्ज्जति एवं रुवाई गंधाई रसाइ फासाई एक्केक छ-छ आलावगा भाणियव्वा एवं रुवाई पासइ गंधाई' अग्घाति रसाइ आसादेति फासाइ पडिसंवेदेति एवं रुवेण य सीलेण य एवं रुवेण य चरितेण य एवं वइकमाणं अतिचाराणं अणावाराणं एवं वंदति णाममेगे णो वंदावेद · २५ ४।४३७-४४१ २१५४ ३७७,७८ ३१५१७,५१८ २।२२४,२२५ ५।३६-४४ २१६ ३।५३३ २२२ २१४४५,४४६ २।३६६-४०२ ४१४७७,४७८ ४१४०२-४०४ ३/६५,६६ २४२२,४२३ ३।१७८, १७६ ५।७-१० ३।२६१-३१४ २२०२-२०५ ४१४०६, ४०७ ३।४४५-४४७ ४१११२ ४१४३५, ४३६ २।१५३ ३।७६ ३।५१५, ५१६ २२२३ ४३-११ २१५ ३१५३२ २/२१ २१४४३ २३६८ ४/४७२, ४७३ ४१४० १ ३।६३,६५ २४०१ ३।१७६ ५/६ ३१२८५-२६०,२२०२-२०५ २।२०१ ४/४०५ ३।४४४ ४१११ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं वाणमंतराणं एवं जोइसियाणं एवं विततेवि एवं विसोही एवं वेदेति एवं णिज्ज रेंति एवं वेयावच्चे अणुग्गहे अणुसट्ठी उवालंभे एवमेकेके तिष्णि तिण्णि आलावा जहेव उक्कमे एवं संकप्पे पण्णे दिट्ठी सोमाचारे ववहारे परक्कमे एगे पुरिसजाए afsaral afte एवं सक्कारे सम्माणेति पुएइ वाएइ पच्छिति पुच्छ वागरेति एवं सम्मद्दिट्ठि परित्ता पज्जत्तम सुहुम सण्णि भविया य एवं सव्वेसि चउभंगो भाणियव्वो एवं सामंतोवणिवाइयावि एवं सुंदरी वि एवं सुत्तेण य चरितेण य एवं मज्भोवज्जणा परियावज्जणा एवमणारंभे वि एवं सारंभे वि एवमसारंभ वि एवं समारंभे वि एवं असमारंभे वि जाव अजीवकाय असमारंभ एवमणुण्णवत्तते उवातिणित्तते एवमज्जा अज्झा अगिज्झा अड्डा अमज्झा अपएसा एवमाधारातिणिताते एवमासणाई' चलेज्जा सोहणातं करेज्जा लुक्लेव करेज्जा एवमिट्ठा जाव मणामा एवमिमी से ओसप्पिणीए जाव पण्णत्ते एवं आगमिस्साए उस्सप्पिणीए जाव भविस्सति एवमेगसमपठितिया २६ ७।१०७,१०५ २२१७ ३४३३ २/३६६, ३६७ ६।४१२-४१५ ४।६-११ ४१११३ ११६ ३।३१८ ४२०३ २/२५ ५।१६३ ४४०६ ३१५०६, ५१० ७१८५-८६ ३१४२०, ४२१ ३।३२६-३३४ ५/४६ ३८२-८४ २।२३४,२३५ २ ३१०,३११ १।२५५ ७ १०६ २२१६ ३।४३२ २४३६५ ३/४११ ४५ ४|१११ ३।३१८ ४१६५ २।२४ ५।१५६ ४/४०८ ३।५०८ ७ ८४ ३/४१६ ३।३२८ ५।४८ ३।८१ २।२३३ २३०६ ११२५४ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४१८ ५।१०८ एवमेतणं अभिलावेणं इमा गाहा अणुगंतव्वा - सवर्ण जाणे य विण्णाणे पच्चक्खाणे य संजमे । अणण्णहते तवे चेव वोदाणे अकिरिय णिव्याणे॥ जाव से णं भंते ! ३।४१८ एवमेतेणं अभिलावेणं उरपरिसप्पावि भाणियन्वा भूजपरिसप्पा वि भाणियव्वा एवं चेव ३१४२-४७ एवमेतेणं गमएणं दित्तचित्ते जक्खाति? उम्मायपत्ते ५११०८ एवमेतेणमभिलावेणं चत्तारि कसाया पंतं कोहकसाए ४ पंचकामगुणे पं तं सद्द ५ छज्जीवनिकाता पं तं पूढविकाइया जाव तसकाइया एवामेव जाब तसकाइया ६।६२ कते जाव मणामे ८।१० कंदे जाव पुप्फे १०.१५५ कक्खडे जाव लुक्खे ११८४-८९ कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेसा ६।४७,४८,७१७३ कालोभासे जाव परमकिण्हे ९६२ किण्हा जाव सुक्किला ५।२३,२२५ किण्हे जाव सुक्किले ५२६,२२८ किरियावादी जाव वेणइयावादी ४।५३१ कंडला चेव जाव रयणसंजया ८७४ कुलमतेण वा जाव इस्सरिय० १०1१२ केवली जाणइ पासई जाब गंधं ८।२५ कोहअपडिसंलोणे जाव लोभ० ४।१६१ कोहकसाई जाव लोभकसाई ५/२०८ कोहणिव्वत्तिए जाव लोभ० ४.६२५ कोहमुंडे जाव लोभमुंडे १०।६६ कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्ल. १२११५-१२५ कोहसण्णा जाव लोभसण्णा १०।१०५ कोहे जाव एगे १९७,६८ खिप्पमवेति जाव असंदिद्ध० खेमपुरी जाव पुंडरीगिणी ८७३ ६।६२ ८।१० ८।३२ ८।१३ समवाओ ६१ वृत्ति २३ ४१५३० २१३४४ ८१२१ ७१७८ ४।१६० ४/७५ ४१७५ ५३१७७ १९९७-१०७ ४/७५ ४/७५ २।३४१ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ७५६ ८।११५ ७।१३६ ४।२५२ ३१४४४ ४।३ ४।१२ ४१४५ ४१४६८ ४.६११ ७१५२ पइण्णगसमवाय सू०४५ ७१३५ ४१२८२ ३१३३८ ४३ ४११२ ४।२४ ४१४६८ ४.४५-५४ ४१२४-२६ ४२७-३३ गंगा जाव रत्ता गतिकल्लाणं जाव आगमे० गमणं जाव अणाउत्तं गोमुत्ति जाव कालं गरहेज्जा जाव पडिवज्जेज्जा चउभंगो चउभंगो चउभंगो चउभंगो चउभंगो चउभंगो एवं जहेव सुद्धेणं वत्थेणं भणित तहेव सुतिणा वि जाव परक्कमे चउभंगो एवं परिणतरूवे वत्था सपडिवक्खा चउभंगो एवं संकप्पे जाव परक्कमे चक्खुदंसणे जाव केवलदसणे चिण जाव मिज्जरा चित्तविचित्तपक्खगं जाव पडिबुद्धे चुल्ल हिमवंते जाव मंदरे जधा सालीणं जाव केवतितं जह पंचट्ठाणे जाव परिहरणोवघाते जहा दोच्चा णवरं दीहेणं परितातेणं जहेव णेसत्थियाओ जाणइ जाव हे जाणइ (ति) जाव हेउणा जाणइ जाव अहेउ जाणति जाव अहेउणा जातिणामणिहत्ताउते जाव अणुभाग० जातिसंपण्णे जाव रूवसंपण्णे जायमाणेहिं जाव तं चेव जाव केवलणाणंउप्पाडेज्जा जाव चउरिदियाणं जाव दवा जिणे जाव सव्वभावेणं जीवणिकाएहिं जाव अभिभवई ४१२४-३३ ४॥२-४ ४१५-११ ७७६ ३१५४० १०।१०३ ७१५१ ३३१२५ ५।१३१ ७१५३ १०.१०३ ७५५ ५।२०६ १०१८४ ४१ २।३०,३१ ভও ५७६,७८ ५७६,८१ ५।००,८२ ६.११७ ४२२६ ३५१ २०६४-७३ १२।१५७,१५८ २।१४६-१५० रा२८ ५/७५ ५७५ १७५ ५७५ ४।२२६ ३१७६ २।४२-५१ १।१५८,२११५६ २११४०-१४४ ५।१६५ ३३५२३ ३१५२३ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ५.१०७ ५३४ ५११०७ ५।१०३ श२२ ५११०४ आयारचूला ११२८ RREEEEE ठाणं वा जाव णातिक्कमंति ५।१०७ ठाणाइं जाव अब्भणुण्णायाई ५।३७-४२ ठाणाइजाव भवंति ५.४२,४३ ठाणेहि जाव णातिक्कमति ठाणेहिं जाव धरेज्जा ५।१०३ ठाणेहि जाव को खंभातेज्जा ५२२ ठाणेहिं जाव णो धरेज्जा ५।१०४ जगरंसि वा जाव रायहाणिसि ५।१०७ जग्गभावं जाव लद्धावलद्धवित्ती ६४६२ णमसामि जाव पज्जुवासामि णाणत्तं जाव विउवित्ता ७.२ मासि जाव णिच्चे ५१७४ णिक्कखिए जाव परिस्सहे ३३५२४ णिग्गथीण दा जाव णो समुप्प० ४।२५४ णिग्गंथीण वा जाव समुप्प० ४।२५५ णिग्गंथे जाव णातिक्कम ५१०२ णियमं जाव परति ६।१२२ णिस्संकिते जाव णो कलुससमावणे ३३५२४ णिस्संकिते जाव परिस्सहे. ३१५२४ जेरइयत्ताए वा जाव देवत्ताए ४१६१४ णेरइया जाव देवा ५।२०८ रतिआउते जाव देवाउते ४।२८६ णेरतिते जाव णो चेव ४।५८ रतियणिव्वत्तिते जाव देवणिवत्तिते ७.१५३ णेरतिय भवे जाव देवभवे ४१२८७ रतियसंसारे जाव देवसंसारे ४।२८५ णो आलोएज्जा जाव गोपडिवज्जेज्जा ३।३४०८।१० णो आसाएति जाव अभिलसति ४१४५१ णो चेव णं जाव करिस्सति ४.५१४ गो पडिक्कमेज्जा जाव णो पडिवज्जेज्जा ६।३३६८९ णो महिड्डिए जाव णो चिरद्वितिते बा१० णो महिड्डिएसु जाव णो दूरंगतितेसु ८.१० तं चेव ४॥२३८ तं चेव ४।२३६ ३१३६२ ७२ ५११७० ३३५२४ ४१२५४ ४।२५५ ५१०२ ६१११६ ३३५२३ ३१५२४ ४१६१४ ४.६०८ ४।६०८ ४१५८ ७१७१ ४।६०८ ४॥६०८ ३।३३८ ४।४५० ४१५१४ ३१३३८ ८.१० २।२७१ ४।२३ ४१२३ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० तं चेव जाव संकिण्णे ४।२४० तं चेव विवरीतं जाव मणुण्णा फासा १०।१४१ तंजहा जाव मिच्छादसणवत्तिया ५११३ तत्थेगओ जाव णातिक्कमति ५११०७ तयक्खायसमाणे जाव सारक्खायसमाणे तलवर जाव अण्णमण्ण ६६२ तहेव ४१४२८ तहेव ४।५६३ तहेव Y1 ୫୪ तहेव चउभंगो ४॥४ तहेव चत्तारिगमा ४।४२६ तहेव जाव अवहरति ५७३,७४ तहेब जाव पणते ४.२ तहेव जाव हलिद्द० ४।२८४ तित्ता जाव मधुरा ५५४,३३ तित्ते जाव मधु (हु) रे ५२६,२२८ तिरियगती जाव सिद्धिगती दरिसणावरणिज्जे कम्मे एवं चेव २।४२५ दिणयरं जाव पडिबुद्धे १०११०३ दुभिक्खंसि वा जाव महता ५१९१ दुस्समदुस्समा जाव एगा १११३६-१३६ दस्समदुस्समा जाव सुसमसुसमा ६२४ देवलोगे [ए] सु जाव अणभोववणे ३१३६२,४।४३४ दो अदाओ एवं भाणियन्वं-- संगहणी-गाहा कत्तिया रोहिणिमगसिर 'अद्दा य' पुणव्वसू अ पूसो य । तत्तोऽवि' अस्सलेसा महा य दो फरगुणीओ य ॥१॥ हत्थो चित्ता साई विसहिा तह य होति अणुराहा । जेट्ठा मूलो पुत्वाऽऽसाढा तह उत्तरा चेव ॥२॥ ४।२४० १०.१४० ५३११२ ५.१०७ ४/५६ ६।६२ ४१४२६ ४१५६३ ५५६४ ४४ ४।४२६ ५।७३ ४।२ ४१२८४,२८२ ११७६-८१ २४ ५।१७५ २।४२४ १०।१०३ ५८ १११३६-१३६ १. कत्तिय (कप)। २. अद्दाओ (क, ग)। ३. तत्तो य (क, ग)। ४. साई य (क, ख, ग)। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ अभिई सवणे धणिट्ठा, सयमसया दो य होंति भद्दवया । रेवति अस्सिणि भरणी, जेयव्वा अणुपुन्वीए ॥ ३ ॥ एवं गाहानुसारेण णेयव्वं जाव दो भरणीओ । २३२३ दोसे जाव एमे धणिट्टा जाव भरणी धम्मत्यिकांत जाव परमाणुपोग्गलं धम्मत्थिकातं जाव सद्दं धम्मत्थिकार्य जाव गंध धम्मत्थिगातं जाव वातं पउमसरं जाव पडिबुद्धे पचमवतितं जाव अचेलगं पंचाणुव्वतितं जाव सावगधम्मं पडिक्कमेज्जा जाव पडिवज्जेज्जा पढमसमयए गिदियणिव्वत्तिए जाव पंचिदियणिव्वत्तिए पढमसमयणेरतितणिव्वत्तिते जाव अपढम० पण सुहुमे जाब सिणेहसुहुमे पण्णवेति जाव उवदंसेति पण वेहिति पमिलायति जाव जोणी मिलायति जाव तेण परं पम्हकुडे जाव सोमणसे म्हे जाव सलिलावती परिताले जाव पूतासक्कारे पल्ला उत्ताणं जाव पिहियाणं पाणावायवे रमणे जाव परिग्गहवेरमण पाणातिवाए जाव एगे पाणातिवातवेरमणे जाव परिग्गह० पाणातिवाते जाव परिग्गहे पाणातिवातेणं जाव परिग्गहेणं पाणातिवायाओ जाव सव्वाती पातीणाते जाव अधाते पायत्ताणिते जाव उसभाणिते १११०२-१०४ ६।१६ ५/१६५ ६४ ७१७८८२५ १०/१०६ १०/१०३ हा६२ हा६२ ३।३४१ १०/१७३ १२६ १०१२४ १०।१०३ हा६२ ७६० ५। २०६ १०/१४५ ८।७१ ६/३३ ७६० १।११०-११२ ११६२-६४ ५:१७, १२६ १०।१४ ५१६,१२८ ५।१ ६।३८ ५/६४ संग हणीगाहा वृत्ति चंद्र० १० ११ ५।१६५ ६१४ ७७८ ८।२५ १०११०३ हा६२ ६२ ३।३३८ १०/१५२ ८१०५ ८१३५ १०।१०३ हा६२ ३।१२५ ३।१२५ ५।१५०,१५१ २/३४० ६।३२ ३।१२५ १०११३ १०।१३ १०/१३ १०।१३ १०/१३ १०।१३ ६।३७ ५/६५ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायत्ताणिते जाव रधाणिते पावते जाव भूताभिसंकणे पुढविकाइएहिंतो वा जाव तस० पुढविकाइएहितो वा जाव पंचिदिए हितो पुढविकाइएत्ताए जाव पंचिदियत्ताए पुढविकाइएत्ताए वा जाव पंचिदियत्ताते पुविकाइयव्वित्तिमे जाव तस ० पुढविकाइयणिव्यत्तिते जाव पंचिदिय णिव्यत्तिते पुढविकाइया जाव तसकाइया पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया पुढविका तितअसं जने जाव तस पुढविकातित असंजमे जाव वणस्सति० पुढविकातितआरंभे जाव अजीव० पुढविकातितत्ताते वा जाव तस० पुढविका तितसंज मे जाव तस० पुढविकासित [य] संजमे जाव वनस्पति० पुष्कर जाव विमलवरे पुरिसे जाव अवहरति पुव्वासाढा एवं चैव पोतगत्ताते वा जाव उब्भिगत्ताते पोतगत्ताते वा जाव उववातितत्ताते पोतगा जाव उब्भिगा पोतजेहितो वा जाव उब्भिहितो पोततेहितो वा जाव उववातिते हितो फरिस जाव गंधाई फुसित्ता जाव विकुव्वित्ता बहुमीत जाव असंदिद्धमीहति बेइंदिया जाब पंचिदिया बेंदिता जाव पंचेंदिता भर जाव महाविदेहे भवति जाव फासामतेणं भवित्ता जाव पव्वइए [तिते ] भविता जाव पव्वयाहिति ३२ ५।५८ ७|१३४ ६/६ है। ड ६।१२ £15 ६१२८ ६७२ ६१६,८ ६१७१०११५३ ७८३ ५।१४१ ७/८४ $18 ७८२ ५।१४०,१०१८ १०/१५० ५।७४ ४६५५ ७२४ ८३ ८२ ७१४ ८३ १०/७ ७२ ६६२ ६७ १० १५३ ७५४ ६१८२ ३ । ५३२,४१,४५०; ५१६७९ ६२ हा६२ ५।५७ ७।१३२ ७१७३ ६७ ६७ ६।७ ७१७३ ६७ ७/७३ ७/७३ ७१७३ ७/७३ ७८२ ७/७३ ७७३ ७/७३ ८१०३ ५।७३ ४,६५४ ७३ ८२ ७१३ ७३ ८।२ १०/७ ७२ ६६१ ११ ११ ७५० ६८१ ३।५२३ ३१५२३ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवेत्ता जाव पव्वतिता भाषासमिती जाव पारिद्रावणियासमिती भिण्णे जाव अपरिस्साई मंडुक्कजातिआसीविसस्स पुच्छा मणअपडिललीणे जाव इंदिय० मण दुप्पणिहाणे जाव उवकरण. मणसुप्पणि हाणे जाव उवगरण. मणुस्सजाति पुच्छा मणुस्साणं वि एवं चेव मणस्सा भाभियव्वा १०२८ ५।२०३ ४१५६५ ४१५१४ ४१६३ ४११०६ ४।१०५ ४१५१४ २११६० ४.३२३,३२४,३२५,३२६ ८१७ ४१५६५ ४।५१४ ४.१६२ ४।१०४ ४११०४ ४१५१४ २१५६ ४।३२२,३२३, ३२४,६२५,३२६ २।४११ २१४१३ ५१३५ ८.१० ८.१० ५।२१ २०२७११६१ ३१३६२,४१४३४ ७२ ५।२३४ मरणाइं जाब पो णिच्च महावीरेणं जाव अब्भणण्णायाई महिड्डिए जाव चिरद्वितिते महिड्डिएसु जाव चिरट्ठितिएसु महिड्डियं जाव महासोक्खं महिड्डिया जाव महासोक्खा माताति वा जाव सुण्हाति माहणस्स वा जाव समुप्पज्जति मुंडा जाव पव्वतिता मुंडे जाव पव्वइए तिते] मुच्छिते जाव अज्झोववणे मुत्ते जाव सव्वदुक्ख० मुसाबाते जाव परिस्महे रत्ताओ जाव अट्ठउसभकूडा रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा रूवा जाव मणुण्णा लोगविजओ जाव उवहाणसुयं वंजण जाव सुरूवं वंदामि जाव पज्जुवासामि वंशीमूलकेतणासमाणा जाव अवलेह० ४।४५०,४५१६७९,१०४ ११२४६ ६।२६ ८1८४ ८.१० ८.१० २।२७१ वृत्ति सूय०१२।२१७ ७२ ३१५२३ ३१५२३ ३।३६१ वृत्ति १०११३ ८८२ ७।२४ ५१५ वृत्ति ओ०सू० १४३ ३।३६२ ४/२८२ ८.१०८ ७।१४३ ६२ ६६२ ४।४३४ ४।२८२ स्थानाङ्गवृत्ती-'पिपा इ वा भज्जा इ वा भाया इवा भगिणी इ वा पुत्ता इ वा घूया इवे' ति यावच्छब्दाक्षेपः (पत्र १३४) । 'भाया इ वा मज्जाइ वा भदणी इ वा पुत्ता ६ वा घूया इवे' त्ति यावच्छताक्षेपः (पन्न २३३)। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१८ ५।१५२,१५३ ओ०सू० १४४ २१३४१ ६।४३ ३१५२३ ४१ ६।६२ ४१४५० २।३८०-३८३ ७।२७ वणियाई जाव अब्भणुण्णायाई २१४१४ वणस्सतिकातितअसंजामे जाव अजीवकाय० १018 बदमाणे जाब विवक्कतव. ५।१३४ वसित्ता जाव पव्वाहिती ६।६२ विज्जुप्पभे जाव गंधमातणे १०११४६ वीइक्कते जाव वारसाहे ६६२ वेजयंति जाव अउज्झा ८७६ वेयड्ड..... 81५३ वेरमणं जाव सव्वतो ४११३७ संकिते जाव कलुसमावणे ३१५२३ संजमबहुले जाव तस्स गं संवच्छराई जाव बावत्तरिवासाई ६६२ संवरबहले जाव उवहाणवं ४१ संवाहण जाव गातु० ४।४५० सक्के जाव सहस्सारे ८।१०२ सत्त भयाणा पंतं हा६२ सदं सुणेत्ताणामेगे सुमणे भवति ३ एवं सुणमीति' ३ एवं सुणेस्सामीति ३ एवं असुणेत्ताणामेगे सु ३ ण सुणमीति ३ ण सुणिस्सामीति ३१२८५-२६० सद्द जाव अवहरिसु १०१७ सद्द जाव अवहरिस्सति १०१७ सह जाव उवहस्रंसु सद्द जाव उवहरिस्सति १०७ सद्द जाव गंधाई १०७ सद्दहति जाव णो से ३३५२३ सदा जाव फासा ५।१२-१५,१२५-१२७ सद्दा जाव वतिदुहता ७।१४४ सद्देहिं जाव कासेहि सभासुहम्मा जाव ववसातसभा ५१२३६ समणस्स जाव समुप्पज्जति ७२ समणेणं जाव अब्भणुण्णायाई सव्वरयणा जाव पडिबुद्धे १०।१०३ १. सुणेमाणे (ख); सुणेमोति (ग)। ३११८६-१६४ १०१७ १०७ १०७ १०७ १०७ ३१५२३ ५१५ ७।१४३ ५२३५ ७।२ ५१३४ १०११०३ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२४८ ४।४५१ ५१७३ २०७४ ५७३,७४ ७१५७ ४१ हा६१ ६।६२ ४११४१ ८५३ १०॥७५,७६,७८,७६ सव्वदीवसमुदाणं जाव अद्धंगुलगं सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स सहिस्संति जाव अहियासिस्संति सहेज्जा जाव अहियासेज्जा सिंघु जाव रत्तावती सिझति जाव मंतं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाण. सिज्झिहिंति जाव अंतं सिज्झिहिती जाव सव्वदुक्खाण. सिन्झिस्सं जाव सव्वदुक्खाण सिद्धसुग्गता जाव सुकुल. सिद्धाइं जाद सव्वदुक्ख० सिद्धाओ जाव सव्वदुक्ख० सिद्धे जाव प्पहीणे सिद्धे जाव सब्वदुक्ख. सुंबकडसमाणे जाव कंबलकड० सुक्किलपक्खगं जाव पडिबुद्धे सुभाते जाव आणुगामियत्ताए सुमिणे जाव पडिबुद्धे सुवच्छे जाव मंगलावती सुवप्पे जाव गंधिलावती सुसमसुसमा जाव एमा सुसमसुसमा जाव दूसमदूसमा से जहाणामते ...... सेलथंभसमाणे जाव तिणिस० सेसं जहा पंचट्ठाणे एवं जाव अच्चुतस्सवि तन्वं सेसं तं चेव जाव करिस्संति सेसं तहेव जाव भवणगिहेसु सेसं तहेव जाव भासं ४/४५१ ५।७२ ५७३ ५७३ ७१५३ ४१ ४१ ४१ ४१ ४।१ ४।१३६ ११२४६ १२२४६ ११२४६ ११२४६ ४१५४६ १०१०३ ५।१२ १०११०३ २१३२६ २१३२६ वृत्ति १।१२६-१३२ ६६२ ४।२८३ ४१५४६ १०।१०३ १०११०३ ८.७० ८७२ १२१२६-१३२ ६२२३ है।६२ ४१२८३ ७१२१,१२२ ४।५१४ ५२२ १०।१५६ ५१६६,६७ ४१५१४ ५२२ १०।१५४ १. वृत्तो अस्य पाठस्य पूर्ति निम्नप्रकारा विद्यते-यावदुग्रहण देव सूत्रं द्रष्टव्यम्-सबभतरए सन्बखुडुडाए बट्टे बेल्लापुयसंठाणसंठिए एगें जोयण सयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयण सयसहस्साई सोलससहस्साई दोन्नि सयाई सत्तावीसाई तिन्नि कोसा अट्टावीसं धणु सयं तेरस अंगलाई (पन्न ३३) । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६।१४ ६६८ ५।१३५ ८।११ १०.११ १०१५ १०६६ पण्ण० १५१ समवायाओ २८३ पुष्ण० १५०१ पण्ण०१५६१ १०१० पण्ण० १५१ पण्ण० १३१ पण्ण०११ पण्ण० १५१ ८५११ पण १५११ सोइंदियत्थे जाव फासिदियत्थे सोइंदियत्थोग्गहे जाव णोइंदिय० सोइंदियपडिसलीणे जाव फासिं दिय० सोइंदियसंवरे जाव फासिं दिय. सोतिदितअसंवरे जाव सूचीकुसग्ग० सोतिदितबले जाव फासिदितवले सोतिदितमुंडे जाव फासिदित. सोतिदियअपडिसंलीणे जाव फासिदिय० सोतिदियअसंजमे जाव फासिदिय. सोतिदियअसंवरे जाव काय असंवरे सौतिदियअसंवरे जाव फासिदिय० सोतिदियअसाते जाव णोइंदियअसाते सोतिदियत्थे जाव फासिदियत्थे सोतिदियमडे जाव फासिदिय० सोतिदियसंजमे जाव फासिदिय० सोतिदियसंवरे जाव फासिदिय० सोतिदियसाते जाव णोइंदिथसाते सोहम्मे जाव सहस्सारे हरिवेरुलित जाव पडिबुद्धे हव्वमागच्छति...... हिताते जाव आणुगामित[य]त्ताते हिरण्णगोलसमाणे जाव वइरगोल. हेमवए" ५।१४३ ८.१२ ५११३८,६११६ ६.१८ ५११७७ ५।१४२ ५।१३७६१५,१०११० ६१७ ८.१०१:१०।१४८ १०११०३ ३.८० ३३५२४६१३३ ४१५४७ पण्ण० १५१ पण्ण० १५१ पण्ण० १२१ पण्ण० १५१ ६।१४ २३८०-३८४ १०।१०३ ३१७६ ३२५२३ ४१५४७ ६।८३ अक्खराइं जाव एवं चरण अक्खरा जाव एवं चरण अक्खरा जाव चरण-करण अक्खराणि जाव एवं चरण अक्खराणि जाव सेत्तं समवाओ प०६५ प०६६ प०६१,६४ प० ६७,६६ प०६२ १.पण्णगसमवाय-सून्न । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ प० ८६ १६५ अ० सू० २२७ १०८६ प० ८६ प० ८६ प०६१ अ० सू०२२७ वृत्ति आवरा तंत्र जाव परित्ता प०१० अगाराओ जाव पब्वइए ६७४ अजित जच बद्धमाणे २४.१५० २२२ अणंतागमा जाव चरण-करण प०६८ अणंतागमा जाव सासया प०६३ अगुओगदारा जाव संखेज्जाओ प०६४,६५,६८,६६,१३१ अणुओगदारा संखेज्जाओ प०६७ अभिणंदण जाव पास २३१३,४ अयले जाव रामे प० २४१ अवसेसाई परिकम्माई पाढाइयाई एक्कारसविहाई पण्णत्ताई प०१०४-१०८ अस्सगीवे जाव जरासंधे प० २४६ अहासुतं जाव आराहिया ४६।१६४१८१४११००१ आधविज्जति जाव उवदंसिज्जति प०१० आपविजंति जाव एवं प०६३ आघविज्जति जाव नाया० प०६४ आपविज्जति० प० १०,६१,६३-६६,१३१ आहारय जह देसूगारयणि उ पडिपुण्णारयणी प० १६६ आहारयसरीरे समचउरंससंठाण सठिते प० १६५ उववाएणं एवं अट्ठासीइ सुत्ताणि भाणियवाणि जहा नंदीए ८८.२ एवं गतिनाम"ओगाहणानाम १० १७६ एवं चउदिसिपि नेयवं ५८४ एवं चउसुवि दिसासु नेयव्वं' ८८।४,५,६ एवं चेव दोमासिया आरोवणा सचराय दोमासिया आरोवणा एवं तेमासिया आरोवणा एवं चउमासिया आरोवणा २८१ एवं चेव मंदरस्स ८७४ प० १०१,१०२ वृत्ति वृत्ति' प० ८६ प० ८६ वृत्ति; प० ६६ प० ८६ पण्ण० २१ पण्ण० २१ पग्ण०६ नंदी १०२ प०१७६ ५८1३,५२१३ ८८.३ २८.१ ८७११ १. वृतौ किञ्चिद् भेदेन लभ्यते, यथा ---६४।१ यावत्करणात् 'महाकप्पं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया सम्म प्राणाए प्राराहियावि भवति । ५११ जाव' तिकरणाद्य थाकल्पं यथामार्ग यथातत्व समय कायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीत्तिता आज्ञयाऽऽराधितेति । २. नायव्वं (क); नातव्वं (ख, ग)। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं जइ मणस्स किंगभवक्कंतिय संमृच्छिम गो गब्भवक्कंतिय णो समुच्छिम ज इ गम्भवक्कंतिय किं कम्मभूमग अकम्मभूमग गो कम्मभूमग णो अकम्मभूमग जइ कम्मभूमग कि संखेज्जवासाउय असंखेज्जवासाउय गो संखेज्जवासाउय णो असंखेज्जवासाउय जइ संखेज्जवासाउय किं पज्जत्तय अपज्जत्तय गोयमा पज्जत्तय णो अपज्जत्तय जइ पज्जत्तय कि सम्म मिच्छ सम्मामिच्छ गो सम्मद्दिट्रिनो मिच्छदिछि नो सम्मामिच्छदिट्टि जइ सम्मदिदि कि संजतं असंजत संजतासंजत गो संजय णो असंजय णो संजतासंजत जति संजय किं पमत्तसंजय अपमत्तसंजय गो पमत्तसंजय णो अपमत्तसं जइ पमत्तसंजय कि इडिपत्त अणिडिपत्त गो इडिपत्त नो अनिविपत्त वयणावि भतियव्वा प०१६४ एवं थेरे वि अज्जसुहम्मे १००१५ एवं दक्खिणिल्लाओ उत्तरे ६६३ एवं दिवसोऽवि नायब्बो १२।६ एवं धणू नालिया जुगे अक्खे मुसले वि ६६।४-८ एवं पंचवि २७११ एवं पंचवि इंदिया २११ एवं पंचवि रसा २२१६ एवं पदुप्पण्णेवि अणागएवि एवं मंदरस्स पच्चस्थिमिल्लिाओ चरिमंताओ संखस्स पुरथिमिल्ले च ८७।३ एवं माणे माया लोभे १६।२२१।२ एवं संतिस्सवि ६०१३ एवं सगरे वि राया चाउरंतचक्कवट्टी एकसरि पुव्व जाव पव्वदाए कंतं वण्णं लेसं जाव णंदुत्तरवडेंस १५॥१३ कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ८६२ कालगयाई जीव सव्वदुक्ख० प०६३ कीयं आहट्ट जाव अभिक्खणं २१११ प० १६४ १००१४ ६६२ १२।८ ५२ पण्य० १५१ ठा० १.७८-१२ प० १३२ ८७१ अस्य पूतिः अत्रैव ६०१२ ७१।३ ३३२१ ८६१ ८६१ दसा० २ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ कोहविवेगे जाव लोभ २७११ चउरंसा जाव असुभा प० १४१ जातिनाम जाव ओगाहणानाम प० १७७ जूवे जाव माउया प० २४५ णितिया जाव णिच्चा ताईचेव माउया पयाणि जाव नंदावत्तं प० १०३ तिविठू य जाव कण्हे प० २४१ धम्मस्थिकाए जाव अद्धासमए प० १३७ नेरइया० प० १७३ पज्जत्तगाणं प० १५५ पडिसत्तू जाव सचक्केहिं प० २४६ पढभाए पढमं भागं जाव पण्णरसेसु पम्हलेसं जाव पम्हुत्तरवडेंसगं ६।१७ परूवेई जाव से णं प०६६ पुढवी कायसंजमे एवं जाव कायसंजमे १७१२ बलिस्स ..... १७८ बुद्धे......... १२१२ बुद्धे जाव प्पहीणे ५५३१,४,७२१३,८४१२,६५१४;प० ४० बुद्धे जाव सम्बदुक्ख० ३०१२,५११४,५०६१ बे ते चउ पंच प० १६७ भद्दवए णं मासे कित्तिए णं पोसे णं फरगुणे णं वइसाहे णं मासे २६।३-७ भवित्ता जाव पव्वइए ७११३७५०२ भवित्ता णं जाव पवइए ८३.४ भविस्सइ य जाव अवट्टिए प० १३३ भूयाणंदे जाव घोसे ३२१२ महुरा जाव हत्थिणपुरं प० २४४ मुंडे जाव पव्वइए ५६२ मुंडे जाव पव्वइया ७७१२ मुसावायाओ जाव सब्वाओ रुइल्लप्पभं जाब रुइल्लुत्तरवडेंसग १७ लोगप्पभं जाव लोगत्तरवडेंसगं १३३१४ वइरावतं जाव वइरुत्तरवडेंसगं १३।१४ वायणा जाव अंगट्टयाए १०६३ वृत्ति ५० १७६ वृत्ति प० १३३ प० १०२ वृत्ति पण. १ पषण० ३५ प०१५४ वृत्ति केवलं संख्यापूरिता ३।२१ प०६५ १७११ ठा० ४।१५१ ४२११ ४२।१ १५॥३ ४२११ ५० १६७ २६२ १६५ १६५ प० १३३ ठा० २१३५५-३६१ वृत्ति १६०५ १६५ ३२१ ३।२१ ३१२१ प०६१ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायणा जाव संखेज्जा वायणा जाव से णं विजया एवं चैव जाव वासुदेवा वीक्कते जाग सम्दुक्तप्पहीणे सकुमारे जाव पाणए सतगाए नं पुढवीए पृच्छा सवणी जाव भरणी सिज्भिस्संति जाव अंत सिस्सिति जान सब्वदुक्खाण सिखाई जाय यहीणाई सिद्धे जाव प्पहीणे सिद्धे जाय सम्बदुक्ख ० सुज्जतं जाय मुज्जुतरवडे सगं सेवा [सेविता] जाव सावासोक्व० सेहस्स जाव सेहे राइणियस्स सोइदियधारणा जाव गोदियपारणा सोइ दियनिय जाव फासि दिय० सोलिदिया जान फासिंदिया सोविदियावा जाव पोइदिवावाते हंता गोसमा - ४० प० ६१ प० ६२ ६८।४-६ दहा१ ३२/२ ५० १४३ १८६ ५।२२; ७१२३८११८ १०१२५; १३ । १७:१५ । १६ १६ १६ ३१२४;४११८, ६।१७;९ २०; ११११६; १२/२०१४।१८ १७२१:१०१८३ १६।१५ २०१७:२१:१४; २२।१७३ २३।१३ २४।१५:२५ १८ २६।११: २७।१५ २८१५:२९।१५ ३०११६ ३१।१४३२।१४:३३।१४ ४४/२ ७२८४७३।२७४११७८१२८३३ ८४४१५५; १०० ४ ४२।१ Æâ હાર ३३।१ २८/३ २७।१ २८/३ २५/३ ५० १७५ सभ्यते यथा- ४२।१ जावलिकरणात् 'बुद्धे मुते अंतगर्ड परिनिन्दुडे सञ्चदुक्खप्पहीणे 'सि दृश्यम् । किरण बुढाई मुताई अंतयलाई दुपट्टीनाइति दृश्यम् १] जातिकरणात् अंतरा सिद्धे बुद्ध मुले ति दृश्यम् । ४४ 1 प० ८६ प० ६१ ६६१-३ जं० २ ठा० २३०१-३८४ प० १४१ चंद० १० ११ ११४६ ११४६ ४२।१ ४२।१ वृत्ति' ३।२१ ६।१ दसा० ३ २८/३ २८१३ २८/३ २८/३ ५० १७५ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ आलोच्य पाठ तथा वाचनान्तर आलोच्य पाठ परियाणं [आया २२, पृ० १७] यद्यपि चूर्णो वृत्तौ च 'परियावेणं' इति पाठो व्याख्यातोऽस्ति, आदर्शेष्वपि एष एव पाठो लभ्यते । तथापि 'माया मे, पिया मे' इत्यादि पदानां अर्थप्रसंगतया 'परियारेणं' इति पाठस्थ परिकल्पना सहजमेव जायते । प्राचीन लिप्यां रकारवकारयोः सादृश्यात् एतत् परिवर्तनं नास्वाभाविकमस्ति । मानवा [आया ५/६३, पृ० ४३ ] वृत्तिकृता 'मानवा' मनुजाः इति विवृतम् । चूर्णिकृता च नैतत् पदं विवृतम् । किन्तु ' एवं थंभे मायाए वि लोभे वि जोएयव्वं' इति निर्देशः कृतः । तेन 'माणवा' इति पदस्य स्थाने 'माणओ' इति पाठस्य परिकल्पना जायते । अचिरं [आयारोमा २०, पृ० ७१] चूर्णी वृत्तौ च 'अचिरं पदं स्थानार्थे व्याख्यातमस्ति । यद्येतत् स्थानावाची स्यात् तदा 'अइर' मिति पाठ: संगच्छते । 'अजिरं प्रांगणम्' इति तस्यार्थो भवेत् । 'अइर' इति अतिरोहितार्थवाची देशीशब्दोपि विद्यते । केनापि कारणेन इकारस्य चकारो जात इति प्रतीयते । अथवा चूर्णिकारेण वैकल्पिकरूपेण कालायें अचिरशब्दस्य प्रयोगों निर्दिष्टः, सोपि युक्तः स्यात् । एस खलु भगवया सेज्जाए अक्खाए [आयारचूला ११२६, पृ० ६० ] आयारबूलाया: पाठ-संशोधने षड् आदर्शाः प्रयुक्ताः, चूर्णिवृत्तिश्च । तत्र पञ्चादशॆषु उक्त पाठस्य ये पाठ भेदास्ते तत्रैव पादटिप्पणे प्रदर्शिताः सन्ति । वृत्ती ( पत्र ३०० ) 'एस विलुंगयामो सेज्जाए' इति पाठो व्याख्यातोस्ति - " गृहस्थश्चानेनाभिसन्धानेन संस्कुर्याद्य साधुः शय्यायाः संस्कारे विधातव्ये 'विलुंगयामो' त्ति निर्ग्रन्थः अकिञ्चन इत्यतः स गृहस्थः कारणे संयतो वा स्वयमेव संस्कारयेदिति ।" अस्माभिः 'घ' प्रत्यनुसारी पाठ: स्वीकृतः । चूर्णावपि (पू० ३३२) 'एस खलु भगवया' इति पाठो लभ्यते । 'सेज्जाए अक्खाए ' ४१ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत्र दोषशब्द: अध्याहर्तव्यः । वस्तुत: उक्तपाठः व्याख्यागत: प्रतीयते । 'संथरेज्जा' इति पाठस्यानन्तरं 'तम्हा से संजए' इत्यादि पाठः स्यात्तदानीमपि स खण्डितो न प्रतिभाति । दत्तिकता उक्तपाठस्य या व्याख्या कृता, तथापि पूर्वानुमानस्य पुष्टिर्जायते । वृत्तिकारस्य सम्मुखे 'विलुंगयामो' पाठ आसीत् स केषुचिदेव आदर्शषु उपलभ्यते, नतु सर्वेषु । कप्पस्स [पइण्णगसमवाय सू० २१५, पृ० ६४१] अत्र 'कप्पस्स' इति पाठस्याशयो वृत्तिकृता कल्पभाष्यत्वेन सूचितः, वाचनान्तरे च पर्यषणाकल्पत्वेन सूचित:, यथा--'कप्पस्स समोसरण नेयवं' ति इहावसरे कल्पभाष्यक्रमेण समवसरणवक्तव्यताऽध्येया, सा चावश्यकोक्ताया न व्यतिरिच्यते, वाचनान्तरे तु पर्युषणाकल्पोक्तक्रमेणेत्यभिहितम् (वृत्ति, पत्र १४४)। पर्यषणाकल्पे समवस रणवक्तव्यता इत्थमस्ति--तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्था ॥२०१।। से केपट्टेणं भंते ! एवं दुच्चइ--समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्था ? समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे इंदभूई अणगारे गोयमे गोतेणं पंच समणसयाई वातेइ, मज्झिमे अणगारे अग्गिभूई नामेण गोयमे गोतेणं पंच समसयाई वाएइ, कणीयसे अणगारे वाउभूई नामेणं गोयमे गोत्तेण पंच समणसयाइ बाएइ, थेरे अज्ज वियत्ते भारदाये गोतेणं पंच समसयाई वाएइ, थेरे अज्जसुहम्मे अग्गिवेसायणे गोते पच समणसयाइ वाएइ, थेरे मंडियपुत्ते वासिठे गोत्तेणं अधुटाइ समणसयाई वाएइ, थेरे मोरियपुत्ते कासवगोत्तेणं अधुट्ठाई समणसयाई वाएइ, थेरे अकपिए गोयमे गोत्रेण थेरे अयनभाया हारियायणे गोत्तेणं ते दुन्नि वि थेरा तिन्नि तिन्नि समणसयाइं वाइंति, थेरे मेयज्जे थेरे य प्पभासे एए दोन्नि वि थेरा कोडिन्ना गोतेण तिन्नि तिन्नि समणसयाई वाएंति, से एतेणं अट्ठेणं अज्जो ! एवं वच्चइ---समणस्स भगवओ महाबीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्था ॥२०॥ सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्का रस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोद्दसपुस्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तिएणं अपाण एणं कालगया जाव सव्व दुक्खप्पहीणा। थेरे इंदभूई थेरे अज्जसुहम्मे सिद्धि गए महावीरे पच्छा दोन्नि वि परिनिव्वुया ॥२०३।। जे इमे अज्जत्ताते समणा निग्गंथा विहति एए णं सव्वे अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा वोच्छिन्ना ॥२०४१। कल्पसूत्र, पृ० ६०,६१ प्रस्तुताङ्गस्य उपसंहारसूत्रे ऋषि-यति-मुनि-वंशानां वर्णनस्योल्लेखोस्ति । वृत्ति कृतास्य संबन्धः पर्युषणाकल्पगतसमवसरणप्रकरणेन सहयोजितः, यथा-गणधर व्यतिरिक्ताः शेषा जिनशिष्या ऋषयस्तद्वंशप्रतिपादकत्वादषिवंश इति च तत्प्रतिपादनं चात्र पर्यषणाकल्पस्य ऋषिवंशपर्यवसानस्य समवसरणप्रक्रमेण भणितत्त्वादत एव यतिवंशो मुनिवंशश्चैतदुच्यते, यतिमुनिशब्दयोः ऋषिपर्यायत्वात् । वृत्ति, पत्र १४७, १४८ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वोक्तसमर्पणेन पर्युषणाकल्पस्य २०१ सूत्रात् २०४ पर्यन्तानां सूत्राणां ग्रहणं जायते, किन्तु वृत्तिकृता ऋषिवंशस्य यद् व्याख्यानं कृतं तेन २०१ सूत्रात् २२३ पर्यन्तानां सूत्राणां ग्रहणामावश्यकं भवति । अत्र महती समस्या वर्तते । यदि पूर्ववति समर्पणं मान्यं क्रियेत तदा ऋषिवंशस्य वर्णनं नान्यत्र क्वापि समुपलभ्यते । यदि च ऋषिवंशस्य वर्णनं समवसरणप्रक्रमेण सह संबध्यते तदा पूर्वी समस्याप्रयोजनीयता सिध्यति । वृत्तिकारेण नास्या असंगतेः कापि चर्चा कृता । किमत्र रहस्यमिति निश्चयपूर्वकं वक्तुं न शक्यते, तथापि संभाव्यते समवसरणस्य संक्षेपीकरणसमये किंचित् परिवर्तनं जातम् । ऋषिवंशवर्णनम् - समणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते णं । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स कासवगोत्तस्स अज्जम्मे थेरे अंतेवासी अग्निवे सायणसगोते । थेरस्स णं अज्जसुहम्मस्स अग्गिवेसायणसगोत्तस्स अज्जजंबुना थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । थेरस्स णं अज्जजंबुनामस्स कासवगोत्तस्स अज्जप्पभवे थेरे अंतेवासी कच्चायगसगोते । थेरस्स णं अज्जप्पभवस्स कच्चायणसगोत्तस्स अज्जसेज्जंभवे थेरे अंतेवासी मणगपिया वच्छसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जसेज्जंभवस्स मणगपिउणो वच्छगोत्तस्स अज्जजसभद्दे थेरे अंतेवासी तुंगियायणसगोत्ते ॥२०५॥ संखितवायणाए अज्जजसभद्दाओ अग्गओ एवं थेरावली भणिया, तं० थेरस्स णं अज्जजसभइस्स तुंगियायणगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा - थेरे अज्जसंभूयविजए माढरसंगांते, थेरे अज्जभद्दबाहु पाइणसगोते । थेरस्स णं अज्जसंभूयविजयस्स माढरसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जथूलभद्दे गोयमसगोते । थेरस्स णं अज्जथूलभद्दस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा - थेरे अज्जमहागिरी एलावच्छगोते थेरे अज्जसुहत्थी वासिसमोत्ते । थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा - मुट्ठियसुपडिबुद्धा कोडियकाकंदना बग्घावच्चसगोत्ता । श्रेराणं सुट्ठियसुपडिबुद्धाणं कोडियकाकदगाणं वग्धावच्चसगोत्ताणं अंतेवासी थेरे अज्जइददिन्ने कोसियमोत्ते । थेरस्स णं अज्जइददिन्नस्स को सियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जदिन्ने गोयमसगोते । थेरस्स णं अज्जदिन्नस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जसीमिरी जाइस्सरे कोसियगोत्ते । थेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जातिसरस्स को सियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरे गोयमसगोते । थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोयमसगोतस्स अंतेवासी चत्तारि थेरा-थेरे अज्जनाइले थेरे अज्जपोगिले थेरे अज्जजयंते थेरे अज्जतावसे । थेराओ अज्जनाइलाओ अज्जनाइला साहा निम्ग्गया, थेराओ अज्जपोगिलाओ अज्जपोगिला साहा निम्गया, थेराओ अज्जजयंताओं अज्जजयंती साहा निग्गया, थेराओ अज्जतावसाओ अज्जतावसी साहा निम्म्या इति ॥ २०६॥ वित्थरवायणाए पुण अज्जजसभद्दाओ परओ थेरावली एवं पलोइज्जइ, तं जहा -थेरस्स णं अज्जजसभद्दस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तं जहा - थेरे अज्जभद्दवाहू पाईणसगोत्ते, थेरे अज्जसंभूयविजये माढरसगोते । थेरस्स णं अज्जभद्दबाहुस्स पाईणगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्या, तं० धेरे गोदासे थेरे अग्गिदत्ते थेरे जण्णदत्ते थेरे सोमदत्ते कासवगोत्ते णं । थेरेहितो णं गोदासे हितो कासवगोत्तेहितो Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत्थ णं गोदासगणे नामं गणे निग्गए, तस्स ण इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जंति, तं जहातामलित्तिया कोडीवरिसिया पोंडवद्धणिया दासी खब्बडिया ॥२०७॥ थेरस्स णं अज्जसंभूयविजयम्स माढरसगोत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं जहा--- नंदणभद्दे उवनंदभद्द तह तीसभद्द जसभद्दे । थेरे य सुमिणभद्दे मणिभद्दे य पुन्नभद्दे य ॥११॥ थेरे य थूलभद्दे उज्जुमती जबुनामधेज्जे य । थेरे य दीहभद्दे थेरे तह पंडुभद्दे य ॥२॥ थेरस्स णं अज्जसंभूइविजयस्स माढरस गोत्तस्स इमाओ सत्त अंतेवासिणीओ अहावच्चाओ अभिन्नाताओ होत्था, तं जहा जक्खा य जक्खदिन्ना भूया तह होइ भूयदिन्ना य । सेणा वेणा रणा भगिणीओ थूलभद्दस्स ॥१॥ ॥२०८।। थेरस्स णं अज्जथूलभहस्स गोयगोत्तस्स इमे दो थेरा अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तं जहाथेरे अज्जमहागिरी एलावच्छसगात्ते, थेरे अज्जसुहत्थी वासिट्टसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जमहागिरिस्स एलावच्छसगोत्तस्स इमे अट्ट थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्या, तं०-थेरे उत्तरे थेरे बलिस्सहे थेरे धण थेरे सिरिड थेरे कोडिन्ने थेरे नागे थेरे नागमित्त थेरे छलुए रोहगुत्ते कोसिए गोत्तेणं। थेरेहितो गं छलुएहितो रोहगुत्तेहिंतो कोसियगोत्तेहितो तत्थ णं तेरासिया निग्गया। थेरेहिंतो णं उत्तरबलिस्सहेहितो तत्थ गं उत्तरबलिस्सहगणे नाम गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जति, तं जहा- कोसंबिया सोतित्तिया कोडवाणी चंदनागरी ।।२०६॥ थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिट्टसगोत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तं जहा-- थेरे स्थ अज्जरोहण भद्दज से मेहगणी य कामिड्ढी। सुट्ठियसुप्पडिबुद्धे रक्खिय तह रोहगुत्ते य ॥१॥ इसिगुत्ते सिरिगुत्ते गणी य बंभे गणी य तह सोमे । दस दो य गणहा खलु एए सीसा सुहत्थिस्स ॥२॥ ॥२१॥ थेरेहितो णं अज्जरोहणेहितो कासयतेहितो तत्थ णं उद्देहगणे नामं गणे निग्गए। तस्सिमाओ चत्तारि साहाओ निग्गयाओ छच्च कुलाइएवमाहिज्जति । से कि तं साहाओ? एवमाहिज्जंति --उदंबरिज्जिया मासपूरिया मतिपत्तिया सुवन्नपत्तिया, से तं सहाओ से किं तं कुलाइ ? एवमाहिज्जति, तं जहा पढमं च नागभूयं बीयं पुण सोमभूइयं होइ । अह उल्लगच्छ तइयं चउत्थयं हथिलिज्ज तु ॥१॥ पंचमगं नंदिज्जं छ8 पुण पारिहासियं होइ । उद्देहगणस्सेते छच्च कुला होति नायव्वा ॥२॥ ॥२११॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ थेरेहितो गं सिरिगुत्तेहितो णं हारियसगोत्तेहितो एस्थ णं चारणगणे नामं गणे निग्गए तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ सत्त य कुलाई एवमाहिज्जति । से कि तं साहातो? एवमाहिज्जंति, तं जहा - हारिय'मालागारी संकासिया गवेधूया वज्जनागरी, से तं साहाओ। से किं तं कुलाइं? एवमाहिज्जंति, तं जहा पढमेत्थ वत्थलिग्जं बीयं पुण वीचिधम्मक होइ । तइयं पुण हालिज्ज चउत्थगं पूसमित्तेजं ॥१॥ पंचमग मालिज्जं शुद्धं पूण अज्जवेडयं होई। सत्तमग कण्हसह सत्त कुला चारणगणस्स ॥२॥ ॥२१२॥ थेरेहितो भहजसे हितो भारद्दायसगोत्तेहितो एस्थ णं उड़वाडियगणे नामं गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ तिन्नि कुलाई एवमाहिज्जति । से किं तं साहाओ ? एवमाहिअंति, तं०- चंपिज्जिया भद्दिज्जिया काकदिया मेहलिज्जिया, से तं साहाओ से कि तं कलाई ? एवमाहिज्जति-- भहज सियं तह भद्द गुत्तियं तइयं च होइ जसभई । एयाई उडुवाडियगणस्स तिन्नेव य कुलाइं॥१॥ ॥२१३।। थेरेहितो णं कामिड्ढिहितो कुंडिल सगोत्तेहितो एत्थ णं वेसवाडियगणे नामं गणे निग्गए । तस्स णं इमाओ चत्तारि सहाओ चत्तारि कुलाइ एवमाहिज्जति । से किं तं साहाओ? एव०सावत्थिया रज्जपालिया अन्तरिज्जिया खेमलिज्जिया, से तं साहाओ। से कि तं कूलाई? एव० गणिय मेहिय कामड्ढियं च तह होइ इदपुरग च । एयाई वेसवाडियगणस्स चत्तारि उकुलाइ ॥१॥ ॥२१४।। थेराहतो णं इसिगोत्तेहितो णं काकदएहितो वासिट्रसगोत्तेहितो एत्थ णं माणवगणे नामं गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ तिण्णि य कुलाइ एव० । से कि तं साहायो ? साहाओ एवमाहिति-कास विज्जिया गोयमिज्जिया वासिट्रिया सोरट्रिया, से तं साहाओ। से किं तं कुलाई? २ एवमाहिज्जंति, तं जहा-- इसिगोत्तियऽत्थ पढम, बिइयं इसिदत्तियं मूणेयध्वं । तइयं च अभिजसंत तिन्नि कुला माणवगणस्स ॥१॥ ॥२१॥ थेरेहितो णं सुट्ठियसुप्पडिबुद्धेहितो कोडियकाकंदिरहितो वग्घावच्चसगोत्तेहितो एत्थ णं कोडियगणे नामं गणे निग्गए । तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ चत्तारि कुलाइएव० ! से कि तं साहाओ ? २ एवमाहिज्जंति, तं जहा~ उच्चानागरि विज्जाहरी य वइरी य मज्झिमिल्ला य । कोडियगणस्स एया, हवंति चत्तारि साहाओ ।।१।। से किं तं कुलाइ? २ एव० तं जहा पढमेत्थ बंभलिज्जं बितियं नामेण वच्छलिज्जंतु । ततियं पूण वाणिज्ज चउत्थयं पन्नवाहणयं ॥१॥ ॥२१६॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थेराणं सुट्टियसुपडिबुद्धाणं कोडियकाकंदाणं वग्धावच्चसगोत्ताणं इमे पंच थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्या तं जहा-थेरे अज्जइंददिन्ने थेरे पियगथे थेरे विज्जाहरगोवाले कासवगोत्ते णं थेरे इसिदते थेरे अरहदत्ते। थेरेहिंतो गं पियगंथेहितो एत्थ ण मज्झिमा माहा निग्गया । थेरेहितो णं विजाहरगोवाहितो तत्थ ण विज्जाहरी साहा निम्मया ॥२६७।। थेरस्त णं अज्जइंददिन्नस्स कासवगोत्तस्स अज्जदिन्ने थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते थेरस्स णं अज्जदिन्नस्स गोयमसगोत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया वि होत्या, तं०-थेरे अज्जसंतिमेणिर माढरसगोते थेरे अज्जसीहगिरी जाइस्सरे कोसियगोते । थेरेहितो ए अज्जसतिसेणिएहितो णं माढरसगोत्तेहितो एत्थ ण उच्चानागरी साहा निग्गया ॥२१८।। थेरस्स ण अज्ससंतिसेणियस्स माढरसगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्या, तं० ---थेरे अज्जसे णिए थेरे अज्जतावसे थेरे अज्जकुबेरे येरे अज्जकुबेरे थेरे अज्जइसिपालिते । थेरेहिनो णं अज्जसेणितेहिंतो एत्थ णं अज्जोणिया साहा निग्गया। थेरेहितो णं अज्जतावसे हिनो एत्य णं अज्जतावासी साहा निग्गया। थेरेहितो णं अज्ज कुबेरेहितो एत्थ णं अज्ज कुवेरा साहा निग्गया । थेरेहितो णं अज्जइसिपालेहितो एत्थ णं अज्जइसिपालिया साहा निग्गया ॥२१॥ थेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जातीसरस्स कोसियगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं० ----थेरे धणगिरी थेरे अज्जवइरे थेरे अज्जसमिए थेरे अरहदिन्ने । थेरेहितोपं अज्जसमिएहितो एत्थ णं बंभदेवीया साहा निग्गया। थेरेहितो णं अज्जवहरेहितो गोयमसगोत्तेहितो एत्थ णं अज्जव इरा साहा निग्गया ॥२२॥ थेरस्स अज्जवइरस्स गोत्तमसगोत्तमस्स इमे तिन्नि थेरा अंतेवासी अहाबच्चा अभिन्नाया होत्था, तं० ----थेरे अज्जवइरसेणिए थेरे अज्जपउमे थेरे अज्जरहे । थेरेहितो णं अज्जवइरसेणिहितो एत्थ णं अज्जनाइली साहा निग्गया । थेरेहितो णं अज्जपउमेहितो एत्थ णं अज्जपउमा साहा निग्गया। थेरेहिंतो णं अज्जरहेहितो एत्य णं अज्जजयंती साहा निम्मया ॥२२१।। थेरस्म णं अज्जरहरा बच्छसगोत्तस्स अज्जपूसगिरी थेरे अंतेवासी कोसियगोत्ते । थेररस णं अज्जयूस गिरिरस कोसियगोत्तस्स अज्जफरगुमित्ते थेरे अंतेवासी गायमसगुत्ते ।।२२२॥ वंदामि फरगुमित्तं च गोयपं धणगिरि च वासिटुं । कोच्छि सिवभूइ पि य कोसिय दोज्जितकंटे य॥१॥ त वंदिऊण सिरसा चित्तं वदामि कासवं गोत्त । णक्खं कासवगोत्तं रक्खं पि य कासवं वदे ।।२।। वंदामि अज्जनागं च गोयम जेहिलं च वासिदें। विण्ठं माढरगोतं कालगवि गोयमं वंदे ॥३॥ गोयमगोत्तभारं सप्पलयं तह य भयं वंदे। थेरं च संघवालियकासवगोत्तं पणिक्यामि ॥४॥ वंदामि अज्ज हत्थिं च कासवं खंतिसागरं धीरं । गिम्हाण' पढममासे कालगयं चेतसुद्धस्स ॥५॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदामि अज्जधम्मं च सुव्वयं सीसलद्धिसंपन्न । जस्स निक्खमणे देवो छत्तं वरमुत्तमं वहइ ॥६॥ हत्थं कासवगोतं धम्म सिवसाहगं पणिवयामि । सीहं कासवगोतं धम पि य कासवं बंदे ॥७॥ सुत्तत्यरयणभरिए खमदममद्दव गुणेहि संपन्ने । देविडिढखमासमणे कासवगोत्ते पणिवयामि ॥ ॥२२३॥ कल्पभाष्ये समवसरणवक्तव्यता--- गाथा १९७७-१२१७ वृहत्कल्पसूत्र, भाग २, पृ० ३६६-३७७ आवश्यकनियुक्ती समवसरणवक्तव्यता---गा० ५४५-६५८ आवश्यकनियुक्तिमलयगिरीया वृत्ति, पत्र ३०१-३३६ वाचनान्तर [आयारचूला १५॥३५ के पश्चात् प० २४०] स्थानाङ्गसूधे महापद्मप्रकरणे (६२) वृत्तिकारप्रदर्शिते वाचनान्तरे "कंसपाईव मुक्कतोए जहा भावणाए जान सुहुपहुयास गेति व तेयसा जले।” इति पाठे आया रचूलाया भावनाध्ययनस्य समर्पणं सूचितमस्ति। वृत्तिकृता श्रीमदभय देव (रिणाऽपि एत। संवादि समुल्लिखितम्-"यया भाबनायामाचाराद्वितीयश्रुतस्कन्ध-पञ्चदशाध्ययने तथा अयं वर्णको व.'च्य इति भावः, कियदरं यावदित्याह-'जाव सुहुये' त्यादि" (वृत्ति, पत्र ४४०)। औपपातिकसूत्रे (सूत्राङ्क २७, वृत्ति पृष्ठ ६६) “वरमाणपदानां च भावनाध्ययनायुक्ते इमे संग्रहगाथे-- कसे सखे जीवे, गयणे वाए य सारए सलिले ।। पुक्खरपत्ते कुम्मे, विहगे खग्गे य भारडे । कुंजर बसहे सोहे, नगराया चेव सागरमखोहे । चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चेव मुहुयहुए ॥" इति वृत्तिकृता भावनाध्ययनगतसंग्रहगाश्रयोः सूचनं कृतमस्ति । एतयोद्वयोः समर्पण-सूचनयोः सन्दर्भ भावनाध्ययनं दृष्टं तदा क्वापि समर्पितः पाठो नोपलल्यः । भावनाध्ययनस्य वृत्तिरत्यन्तं संक्षिप्ताऽसि, तत्र तस्य पाठय नास्ति कोपि संकेत: आदर्शषु चापि जस्थानपलब्धिरेव । चुगौं उक्तपाठस्य व्याख्या समुपलब्धा तेनेति निर्णयः कर्तुं शक्यते---णिव्याख्याताज पाठात् आदर्शतः पाठो भिन्नोस्ति । अयं वाचनाभेदः चूर्णिकारस्य समक्षमासीन्नवेति नानुमान क किञ्चित् साधन लभ्यते । स्थानाङ्गस्य वाचनान्तर-पाठे भावनाध्ययनस्य समर्षणमस्ति तस्यं सम्बन्धः चण्यं नुसारीपाटेनव विद्यते, तथैव औपपातिकवृत्तेः सूचनस्यापि सम्बन्धस्तेनैव । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ I स्थानाङ्ग महापद्मप्रकरणे एव स्वीकृतपाठेपि 'जहा भावणाते' इति समर्पणमस्ति । तस्यापि सम्बन्धचूर्ण्यनुसारिपाटन विद्यते । आलोच्य मानपाठः किञ्चिद् भेदेनानेकेषु आगमेषु लभ्यते । तस्य तुलनात्मकमध्ययनमंत्र प्रस्तूयते । आचाराङ्गचूर्णी पूर्णः पाठो विवृतो नास्ति । स स्थानाङ्गस्य, कल्पसूत्रस्य, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तेः, आचाराङ्गचूर्णेश्च सम्बन्ध - समीक्षा-पूर्वकं संयोजितः । स च इत्थं सम्भाव्यते- संयोजित पाठः तणं से भगवं अणगारे जाए इरियासमिए भासासमिए जाव गुत्तबंभयारी अममे अचिणे छिन्नसोते निरुपलेवे कंसपाईव मुक्कतोए संखो इव निरंगणे जीवो विव अप्पडियगई जच्चकणगं पिव जावे आदर सफलगे इव पागडभावे कुमो इव गुत्तिदिए पुखरपत्तं वनिरुवले वे गमणमिव निरालंबणे अणिजो इव निरालए चंदो इव सोमलेसे सूरो इव दित्ततेए सागरो इव गंभीरे विहग इव सव्वओ विमुक्के मंदरो इव अप्पकंपे सारयसलिलं व सुद्ध हियए खग्गविसाणं व एगजाए भार उपक्खी व अप्पमत्ते कुंजरो इव सोंडीरे वसभे इव जायत्थामे सीहो इव दुद्ध रिसे वसुंधरा इव सव्वभासविसहे सुहास इव तेयसा जलते । [ कंसे संखे जीवे, गगणे वाते य सारए सलिले । पुक्खरपते कुम्मे, विहगे खग्गे य भारंडे ॥१॥ कुंजर वसहे सोहे, नगराया चेव चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चैव सागरमखोहे | सुहुहुए ||२||] नस्थि णं तस्स भगवंतस्त्र कत्थद पडिबंधे भवइ । से य पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते, तंजहाअंडए वा पोयएइ वा उग्गहेइ वा पग्गहिएइ वा, जं णं जं गं दिसं इच्छइ तं णं तं णं दिसं अपडिबद्धे सुचिभूए लहुभूए अणुप्पगंथे संजमेण अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं अणुतरेणं दंसणेणं अणुतरेण चरितेणं एवं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खंतीए मुत्तीए सक्च- संजम-तव-गुण- सुचरिय-सोचि य-फलपरिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अनंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणेकसि पडिपुणे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने । तर गं से भगवं अरहे जिथे जाए केवली सव्दन्नू सव्वदरिसी सनेरइयतिरियन रामरस्स लोगस्स पज्जेव जाणइ पासइ, तं जहा - आगति गति ठिति चयणं उववायं तक्कं मणोमाणसियं भुत्तं कडं परिसेवियं आवीकम्म रहोकम्मं अरहा अरहस्स भागी, तं तं कालं मणसवयसकाएहि जोगेहि माणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावे अजीवाण य जाणमाणे पासमाणे विहरइ । तए णं से भगवं तेणं अणुत्तरेणं केवलवरनाणदंसणेणं सदेवमणुयासुरं लोगं अभिसमिच्चा समणाणं निग्गंथाणं पंचमहन्वयाई सभावणाई छजीवनिकाए धम्मं अक्खा [ देसमा बिहरइ ], तंज हा -- पुढविकाए आउकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नानाङ्ग (६।६२): तस्स णं भगवंतस्स' साइरेगाई दुवालसवासाइं निच्चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जिहिति तं दिव्वा वा माणसा वा तिरिक्खजोणिया वा, ते सव्वे सम्म सहिस्सइ खमिस्सइ तितिक्खिस्स इ अहियासिस्सइ।। तए णं से भगवं अणगारे भविस्सइ इरियासमिए, भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंधाणपारिद्वावणियासमिए, मणगुत्ते, वय गुत्ते, काय गत्ते, गुत्ते, गतिदिए गूतबंभयारी अममे अकिंचणे छिन्नगंथे [.पा. किन्नगंथे] निरुपलेवे कंसपाईव मुक्कतोए जहा भावणाए जाव सुहयद्यासणे तिव तेयसा जलते। कसे संखे जीवे, गगणे वाते य सारए सलिले । पुक्खरपत्ते कुम्मे विहगे खग्गे य भारंडे ॥१॥ कंजर वसहे सीहे, नगराया चेव सागरमखोहे। चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चेव सुहुयहुए ॥२॥ नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबधे भविस्सई, सेय पडिबधे घउब्विहे पन्नत्ते, तंजहाअंडएइ वा पोयएइ वा उम्गहेइ वा पग्गहिएइ वा, जं णं जं णं दिसं इच्छइ तं गं तं गं दिसं अपडिबद्धे सुचिभूए लहुभूए अणुप्पगंथे संजमेणं अप्पाणं भावेमाणे विरिस्सइ, तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेण अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुत्तरेण चरित्तेणं एवं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खंतिए मुत्तीए गुत्तीए सच्च-संजम-तव-गुण-सुचरिय-सोय-विय-[चिय ?]-फल-परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाण भावेमाणस्स झागंतरियाए वट्टमाणस्स अणते अणुतरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदसणे समुप्पज्जिहिति । तए णं से भगवं अरहे जिणे भविस्सति, केवली सव्वण्णसव्वदरिसी सदेवमणआसूरस्स लोगस्स परियागं जाणइ पासुइ सबलोर सव्व जीवाणं आगई गति ठियं चयणं उववाय तक्क मणोमाणसियं भूतं कडं परिसेवियं आवीकम्म रहोकम्मं अरहा अरहस्स भागी तं तं कालं मणसवयसकाइए जोगे वट्टमाणाणं सञ्चलोहे सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ ।। तए णं से भगवं तेण अणुत्तरेणं केवलवरनाणदसणेणं सदेवमणुआसुरं लोगं अभिसमिच्चा समणाण निगथाण सणेरइए जाव पंचमहत्वयाइ सभावणाई छजीवनिकाया धम्म देसेमाणे विहरिस्सति । कल्पमूत्र : तए णं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए इरियासभिए, भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभडमत्तनिवखेवणासमिए, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिए, मणसमिए, वइसमिए, कायसमिए, मणगुते, वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुते, गुत्तिदिए, गुत्तबंभयारी, अकोहे, अमाणे, अमाए, अलोभे, संते, पसंते, उवसते परिनिव्वुडे, अणासवे, अममे, अकिंचणे, छिन्नगंथे निरुवलेवे, कंसपाई इव मुक्कतोये १, संखो इव निरंजणे २, जीवो इव अप्पडिहयाई ३, गगणं पिव निरालंबणे ४, १. अस्य स्थाने से णं भगवं' युज्यते । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायुरिव अप्पडिबद्धे ५, सारयसलिलं व सुद्धहियए ६, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवे ७, कुम्मो इव गुक्ति दिए ८, खग्गि विसाणं व एगजाए ६, विहग इव विप्पमुक्के १०, भारुडपक्खी इव अप्पमत्ते ११, कुंजरो इव सोंडीरे १२, वसभो इव जायथामे १३, सीहो इव दुद्धरिसे १४, मंदरो इव अप्पकंपे १५, सागरो इव गभीरे १६, चंदो इव सोमलेसे १७, सूरो इव दित्तनेए १८, जच्चकणगं व जायस्वे १६, वसुंधरा इव सब्वभासविसहे २०, सुहुयहुयासणी इव तेयसा जलंते २१ । एतेसि पदाणं इमातो दुन्नि संघयणगाहाओ कंसे संखे जीवे, गगणे वायू य सरयसलिले य । पुक्खरपत्ते कुम्मे, विहगे खग्गे य भारडे ॥१॥ कंजरे बसभे सीहे, णगराया चेव सागरमखोभे ।। चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चेव हूयवहे ॥२॥ नत्थि णं तरस भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधो भवति । से य पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ खेत्तओ कालो भावओ। दवओ णं सचित्ताचित्तमीसिएसु दन्वेसु । खेत्तओ ण गामे वा नगरे वा अरणे वा खित्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा णहे वा । कालओ णं समए वा आवलियाए वा आणापाणुए वा थोवे वा खणे वा लवे वा मुहत्ते वा अहोरते वा पक्खे वा मासे वा उवा अयणे वा संवच्छरे वा अन्नयरे वा दीहकालसंजोगे वा । भावओ णं कोहे वा माणे वा मायारा वा लोभे या भये वा हासे वा पेज्जे वा दोसे वा कलहे वा अन्भक्खाणे वा पेसन्ने वा परपरिवाए वा अरतिरती वा मायामोसे वा मिच्छादसणसल्ले वा। तस्स गं भगवंतस्स नो एवं भव। से णं भगवं वामावासवज्जं अट्ट गिम्हहेमंतिए मासे गामे एगराईए वाचीचंदणसमाणकप्पे समतिणमणिलेढुकचणे समदुवखसुहे इहलोगपरलोगअपडिवद्ध जीवियमरणे रिवकखे संसारपागामी कम्पसंगनिग्घायणट्टाए अब्भुट्टिए एवं च णं विपरइ । तस्स णं भगवंतस्स अणु त्तरेणं नाणेणं अणुत्तरेणं दसणेणं अणुत्तरेण चरित्तेरेणं अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं अणुतरेणं वोरिएणं अणुत्तरेणं अज्जवेणं अणुत्तरेण महवेणं अणत्तरेणं लाघवेणं अणुत्तराए खंतीए अणु त्तराए मुत्तीए अणुत्तराए गुत्तीए अणुत्तराए तुवीए अणत्तरेणं सच्चसंजमतवसुचिरियसोवचक्ष्यफलपरिनिव्वाण मग्गेणं अप्पाणं भावेमाणरस दुवालस संवच्छराई विइक्कताइ। तेरसमस संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दोच्चे मासे चउत्थे पवखे वसाहमुद्धे तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमीए पक्खेणं पाईणगामिणीए छायाए पोरिसीए अभिभिवटाए पमाणपत्ताए सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं जंभियगामस्स नगरस्स बहिया उजवालियाए नईए तीरे वियावत्तस्म चेईयस्स अदूरसामंते सामागस्स गाहावइस्स कट्रकरणसि सालपायवस्स अहे गोदोहियाए उक्कुडुयनिसिज्जाए आयावणाए आयावेमाणस्स छद्रेणं भत्तेणं अपाणएणं हत्युत्तराहि नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवल वरनाणदसणे समुन्पने । । तए णं से भगवं अरहा जाए जिणे केवली सम्वन्नू सव्वदरिसी सदेवमणयासुररस लोगस्स परियायं जाणइ पासइ, सव्यलोए सव्वजीवाणं आगई गई लिइ चवणं उववायं तवक मणो Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणसियं भुत्तं कडं पडिसेवियं आविकम्म रहोकम्म अरहा अरहस्सभागी तं तं कालं मणवयणकायजोगे वट्टमाणाणं सब्वलोए सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्ष २ (पत्र १४६) तए णं से भगवं समणे जाए इरिआसमिए जाव परिट्ठावणिआसमिए मणसमिए क्यसमिए कायसमिए मण गुत्ते जाव गुत्तबंभयारी अकोहे जाव अलोहे संते पसंते उवसते परिणिबुडे छिण्णसोए निरुवलेवे संखमिव निरंजणे जच्चकणगं व जायरूवे आदरिसपडिभागे इव पागड भावे कम्मो इव गुत्तिदिए प्रक्खरपत्तमिव निरुवलेवे गगणमिव निरालंबणे अणिले इव णिरालए चंदो इव सोमदंसणे सुरो इव तेअंसी विहग इव अपडिबद्धगामी सागरो इव गंभीरे मंदरो इव अपे पूढवी विव सब्वफासविसहे जीवो विव अप्पडिहयगइत्ति । णत्थि णं तस्स भगवंतस्स कधइ पडिबंधे, से पडिवंबे चउविहे भवंति, तंजहा-दवओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओ इह खलु माया मे माया मे भगिणी में जाव संगथसंथुआ मे हिरणं मे सुवण्णं मे जाव उवगरणं मे, अहवा समासओ सचित्ते वा अचित्ते वा मीसए वा दव्वजाए सेवं तस्स ण भवइ, खित्तओ गामे वा णगरे वा अरण्णे वा खेत्ते वा खले वा गेहे वा अंगणे वा एवं तस्स ण भवइ, कालओ थोवे वा लवे वा मुहत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा उऊए वा अयणे वा संवच्छरे वा अन्नयरे वा अन्नयरे वा दीहकालपडिबंधे एवं, तस्स ण भवइ, भावओ कोहे वा जाव लोहे वा भए वा हासे वा एवं तस्स न भवइ, से णं भगवं वासावासवज्ज हेमंतगिम्हासु गामे एगराइए णगरे पंचराइए ववगयहा ससोगअरइभवपरित्तासे णिम्भमे णिरहंकारे लहुभूए अगंथे वासीतच्छणं अट्ठठे चंदणाणुलेवणे अरत्ते लेटेठुमि कंत्रणमि असमे इह लोए अपडिवद्ध जीवियमरणे निरवकंखे संसारपारगामी कम्मसंगणिग्घायणाए अन्भुदुिए विहरइ। तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्य एगे वाससहस्से विइकते समाणे पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ सगडमुहंसि उज्जाणंसि णि गोहवरपायवस्स अहे झाणंतरिआए वटमाणस्स फग्गुणबहुलस्स इक्कारसिए पुवण्ह कालसमयंसि अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं उत्तरासाढाणक्खत्तेणं जोगमुवागएणं अणुत्तरेणं ताणेणं जाव चरित्तेणं अणुत्तरेण तवेणं बलेणं वीरिएणं आलएण विहारेणं भावणाए खंतीए गुत्तीरा मुत्तीए तुदीए अज्जवेणं महवेणं लाघवेणं सुचरिअसोवचिअफलनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणंते अणत्तरे णिव्वाधाए णिरावरणे कसिणे पडिपणे केवल-वरनाणदंसणे समुप्पण्णे जिणे जाए केवली सव्वन्नू सव्वदरिसी सरइअतिरियनरामरस्स लोग्गरस पज्जवे जाणइ पासइ, तंजहा-आगई गई टिइं उबवायं भूतं कडं पडिसेविअं आवीकम्म रहोकम्मं तं तं कालं मणवयकायजोगे एयमादी जीवाणवि सव्वभावे अजीवाणवि सव्वभावे मोक्खमग म्स विसुद्धतराए भावे जाणमाणे पासमाणे एस खलु मोक्खमयो मम अण्णेसि च जीवाणं हियसुहणिस्सेसकरे सव्वदुक्खविमोक्खणे परम सुहसमाणणे भविग्सइ । तते णं से भगवं समणाणं निग्गंथाणं य णीगंथीण य पंच महब्वयाइ सभावणगाई छच्च जीवणिकाए धम्म देसेमाणे विहरति, तंजहापूढविकाइए भावणागमेणं पंच महव्वाईसभावणागाई भाणिअव्वाइति । सुत्रकृतांगे (२१६४-६६) प्रश्नव्याकरणे (संवरद्वार ५।११) रायपसेणइयसूत्रे (सुत्रांक ८१३८१६) औपणातिकसूत्रे (सूत्र २७-२६, १५२,१५३,१६४,१६५) चालोच्यमानपाठेनांशिकी क्वचिच्च तदधिकापि तुलना जायते। किन्तु एतेषां सूत्राणां पाठा: अनगार-वर्णन-संबद्धाः सन्ति, ततः पूर्णा तुलना प्रस्तुतपाठेन न नाम जायते । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १३ १५ १६ २१ ४२ ४५ ४८ ५२ ५५ ६५ ७१ ५४ ८६ ६१ १०३ ११५ १६४ १७४ १७८ १८१ १८७ २६६ ३४८ ३४८ ३६३ ५३७ ६२२ ६५२ ८६५ २६६ ३१० ३२० ३२१ ४०० ४३४ ==== पंक्ति १ २७ 22 " १८ २२ १७ १५ "1 ६ १ १ १८ १५ १० १६ ७ पा० २६ २ २६ २१ ११ १८ १२ " २१ ६ ३ १५ १२ १२ १७ ११ २३ وا १ शुद्धि-पत्र अशुद्ध मंदस सत्थ नियंति जाणे पाव समण० णियाणाओ निज्मोसदत्ता णियद्वैति तितिक्खा ० X X भुज्जियं अणासेविय पट्टणसि जणआ उवाणिमतेज्जा ज अणतणिज्जं विषण पहाए पण सोर्स परक्कमण्ण गंधमंत मारत्धा मच्छा-पदं अलमंथ मु निगर० पाठान्तर विधीत समक्खाय आय तेज अतोमतेण पत शुद्ध मंदस्स सत्यं वयंति जाण पावं समणु० णियाणओ णिज्कोस इता विट्टति तितिक्खा 'उवगरण-पदं पाओवगमण-पदं भुज्जियं अणा से वियं पट्टणंसि जाणेज्जा उवणिमंतेज्जा जं अणेस णिज्जं वियडेण पेहाए पुण सोसं परक्कमण्ण गंधमतं गारत्था मुच्छा-पदं अलमंथू मुंडे नगर० विधंति समस्वातं आयं तेउ अतोमतेणं धृतं Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education temational For Priyale & Personal use only www.jalnelibrary.org