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________________ माना जा सकता है ? प्रतिभा का तारतम्य अपने-अपने युग में सदा रहा है। मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर भी हम इसी बिन्दु पर पहुंचते हैं कि अंगो की अपेक्षा भगवान् पाश्व के शासन में भी रही है, इसलिए इस अभिमत की पुष्टि में कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है कि भगवान् पाश्र्व के युग में केवल पूर्व ही थे, अंग नहीं। सामान्य ज्ञान से यही तथ्य निष्पन्न होता है। कि भगवान महावीर के शासन में पूर्वो और अंगों का युग की भाव, भाषा, जी और अपेक्षा के अनुसार नवीनीकरण हुआ । 'पूर्व' पार्श्व की परम्परा से लिए गए और 'अंग' महावीर की परम्परा में रचे गए, इस अभिमत के समर्थन में सम्भवतः कल्पना ही प्रधान रही है। ३. अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य भगवान् महावीर के अस्तित्व-काल में गौतम आदि गणवरों ने पूर्वी और अंगों की रचना की, यह सर्व विश्रुत है । क्या अन्य मुनियों ने आगम ग्रन्थों की रचना नहीं की । यह प्रश्न सहज ही उठता है । भगवान् महावीर के चौदह हजार शिष्य थे। उनमें सात सौ केवली थे, चार सौ वादी थे। उन्होंने ग्रन्थों की रचना नहीं की, ऐसा सम्भव नहीं लगता। नदी में बताया गया है कि भगवान् महावीर के शिष्यों ने चौदह हजार प्रकीर्णक बनाए थे। ये पूर्वो और अंगो से अतिरिक्त थे। उस समय अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य ऐसा वर्गीकरण हुआ, यह प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है । भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् अर्वाचीन आचार्यों ने ग्रंथ रचे तब संभव है उन्हें आगम की कोटि में रखने या न रखने की चर्चा चली और उनके प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न भी उठा। चर्चा के बाद चतुर्दश-पूर्वी और दश-पूर्वी स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगम की कोटि में रखने का निर्णय हुआ किन्तु उन्हें स्वत: प्रमाण नहीं माना गया। उनका प्रामाण्य परतः था । वे द्वादशांगी में अविरुद्ध है, इस कसौटी से कसकर उन्हें आगम की संज्ञा दी गई। उनका प्रातः प्रामाण्य था, इसीलिए उन्हें अंग-प्रविष्ट की कोटि से भिन्न रखने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इस स्थिति के सन्दर्भ में आराम की अंग बाह्य कोटि का उद्भव हुआ । जिनमद्रगणि क्षमाश्रमण ने अंग-प्रविष्ट और जंग बाह्य के भेद निरूपण में तीन हेतु प्रस्तुत किए हैं--- १. जो गणवर कृत होता है, २. जो गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित होता है १. समवाओ, समवाय १४ ० ४ । २. नन्दी, सू० ७८ : Jain Education International स्वाणि भगवद्धमाण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003558
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages365
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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