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[ १६ ] है और वाचक आपकी श्रुत श्रद्धा के प्रति पद-पद पर श्रद्धावनत हो जाता है । ग्यारह अंगों का परिचय प्राप्त करने के लिए तो ये सज्झायें बड़ी ही उपयोगी हैं। अन्तिम सझाय में कवि लिखता है कि'पसरी अंग इग्यार नी सहेली हे, मुझ मन मंडप वेलि कि । सांचू नेह रसइ करी सहेली हे, अनुभव रस नी रेलि कि ।।२।। हेजधरी जे सभिलइ सहेली हे, कुण बूढा कुण बाल कि । तउ ते फल लहै फूटरा सहेली हे, स्वादई अतिहि रसाल कि ॥३॥ ___ कविवर ने प्रकृति-सौन्दर्य को भी जिस सरसता से वर्णन किया है वह अपने ढंग का अनूठा है-'श्रीरहनेमि राजीमति स्वाध्याय तथा श्री स्थूलिभद्र बारहमासा' में छः ऋतुओं का वर्णन प्रकृति की सौन्दर्य सुषमा तथा जन-मन में उठता हुआ उल्लास नव रसों के प्रवाह का कवि ने जिस सजीवता से वणन किया है उसका रसास्वादन कराने के लिए कुछ पद्य यहाँ उद्धृत करते हैं :
रहेनमि राजिमती स्वाध्याय
वर्षा--- सजि बुंदसारी, हर्षकारी भूमि नारी हेत । भरलाय निझर झरत झरझर सजल जलद असेत ॥ घन घटा गर्जित छटा तर्जित भये जर्जित गेह । टब टबकि टबकत झबकि झबकत बिचिबिचि बीजकि रेह ॥२॥ 'हग श्याम बादर देखि दादुर रटत रस भरि रइन । वन-मोर बोलइ पिच्छ डोलइ द्विरद खोलइ पुनि नइन ॥ ३ ॥
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