Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
परम्परा और अपरम्परा के समन्वयकारी कलासाधक हैं। वह सच्चे अर्थों में अनेकान्तवादी विचारक हैं। इसीलिए, उन्होंने जैनाम्नाय के प्रति न तो कभी दुराग्रहवादी प्रचारात्मक दृष्टिकोण अपनाया है, न ही जैनेतर आम्नायों की विकृतियों और विशेषताओं के उद्भावन में पक्षपात का प्रदर्शन किया है। कथा की ग्रथन- कला में, एक कथाकार के लिए जो निर्वैयक्तिकता या माध्यस्थ्य अपेक्षित है, संघदासगणी में वह भरपूर है और वह सही मानी में कला की तन्मयता की मधुम भूमिका में स्थित साधारणीकृत भावचेतना-लोक के कलाकार हैं । लोकसंग्रह की भावना और अगाध वैदुष्य दोनों की मणिप्रवाल- शैली के मनोहारी दर्शन इनकी युगविजयिनी कथाकृति ‘वसुदेवहिण्डी' में सदासुलभ हैं।
'बृहत्कथा' के प्राचीन रूपान्तर 'वसुदेवहिण्डी' के विषय में प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान् ऑल्सडोर्फ ' का यह अनुसन्धानात्मक दृष्टिकोण अतिशय ग्राह्य है कि गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' निःसन्देह प्राचीन भारतीय साहित्य का एक रसमय और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस लुप्त ग्रन्थ के ठीक प्रकार का निर्धारण और पुनर्घटन का कार्य अत्यन्त रोचक है । सोमदेव - कृत 'कथासरित्सागर' और क्षेमेन्द्र-कृत ‘बृहत्कथामंजरी' के रूप में इन कश्मीरी लेखकों की दो कृतियाँ जबतक विदित थीं, तबतक 'बृहत्कथा' के स्वरूप का अनुमान करना सरल था । किन्तु, जब उससे आश्चर्यजनक रीति से भिन्न ‘बृहत्कथा' का नैपाली नव्योद्भावन बुधस्वामी के 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के रूप में प्राप्त हुआ, यह समस्या कुछ कठिन हो गई। फ्रेंच विद्वान् लाकोत ने 'गुणाढ्य एवं बृहत्कथा' नामक सन् १९०८ ई. में प्रकाशित अपनी पुस्तक में इस क्लिष्ट प्रश्न को सुलझाने का प्रयत्न किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे : “अपने दो कश्मीरी नव्योद्भावनों ('कथासरित्सागर' और 'बृहत्कथामंजरी' ) में गुणा की मूल बृहत्कथा अत्यन्त विपर्यस्त एवं अव्यवस्थित रूप में उपलब्ध है । इन ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर मूल ग्रन्थ का संक्षिप्त सारोद्धार कर दिया गया है और इनमें मूल के कई अंश छोड़ भी दिये गये हैं एवं कितने ही नवीन अंश प्रक्षेप रूप में जोड़ दिये गये हैं । इस तरह मूल ग्रन्थ की वस्तु और आयोजना में बेढंगे फेरफार हो गये हैं। फलस्वरूप, इन कश्मीरी कृतियों में कई प्रकार की असंगतियाँ आ गईं और जोड़े हुए अंशों के कारण मूल ग्रन्थ का स्वरूप पर्याप्त विकृत हो गया । इसके विपरीत, बुधस्वामी के ग्रन्थ में कथावस्तु की अनुकूल आयोजना के माध्यम से मूल प्राचीन 'बृहत्कथा' का यथार्थ चित्र प्राप्त होता है । किन्तु, खेद है कि यह चित्र पूरा नहीं है; क्योंकि बुधस्वामी के ग्रन्थ का केवल चतुर्थांश ही उपलब्ध है। इसलिए, केवल उसी अंश का कश्मीरी कृतियों के साथ तुलना सम्भव है।"
प्रो. लाकोत के उपर्युक्त मत से 'हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिट्रेचर' नामक पार्यन्तिक कृति के प्रख्यात लेखक श्रीविण्टरनित्स सहमत हैं। उन्होंने अपनी उक्त पुस्तक के तृतीय भाग में, एतद्विषयक प्रसंग की सिद्धि के क्रम में बड़े पाण्डित्यपूर्ण ढंग से अपना तर्क उपस्थित किया है । किन्तु वह
१. श्री भोगीलाल ज. साण्डेसरा ने 'वसुदेवहिण्डी' के स्वीकृत गुजराती भाषान्तर की भूमिका (पृ. ९ - १३) में ऑल्सडोर्फ के ‘एइन नेवे वर्सन डेर वर्लोरिनेन बृहत्कथा डेस गुणाढ्य' ('ए न्यू वर्सन ऑव दि लॉस्ट बृहत् ऑव गुणाढ्य' ) नामक निबन्ध का गुजराती-अनुवाद उपस्थित किया है (मूल जर्मन- निबन्ध का गुजरात अनुवाद श्रीरसिकलाल पारिख ने किया था) और उसका संक्षिप्त हिन्दी-रूपान्तर डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'कथासरित्सागर' (परिषद्-संस्करण) के प्रथम खण्ड की भूमिका में अपने विवेचन के क्रम में प्रस्तुत किया है। इस शोध-ग्रन्थ में तद्विषयक वैचारिक पल्लवन दोनों सामग्री (गुजराती - हिन्दी ) के प्ररिप्रेक्ष्य में उपन्यस्त किया गया है । ले.