Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 17
________________ सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ देखा गया वस्तुस्वरूप जिस प्रकार है, उसी प्रकार स्वयं चिन्तवन करता है। वस्तुस्वरूप ऐसा ही है; यह कोई कल्पना नहीं है, यह धर्म की बात है। जिस काल में जो होनेवाली अवस्था सर्वज्ञ भगवान ने देखी है, उस काल में वही अवस्था होती है, दूसरी नहीं होती।' इस निर्णय में एकान्तवाद या नियतवाद नहीं है, किन्तु सर्वज्ञ की प्रतीतिपूर्वक सच्चा अनेकान्तवाद और ज्ञानस्वभाव की भावना तथा ज्ञान का अनन्त पुरुषार्थ निहित है।। आत्मा, सामान्य-विशेषस्वरूप वस्तु है, वह अनादि-अनन्त ज्ञानस्वरूप है। द्रव्य सामान्य है और प्रति समय होनेवाली पर्याय विशेष है। सामान्यरूप में ध्रुव रहकर, वस्तु का विशेषरूप परिणमन होता है; उस विशेष पर्याय में यदि स्वरूप की रुचि करे तो प्रति समय विशेष में शुद्धता होती है और यदि उस विशेष पर्याय में ऐसी विपरीत रुचि करे कि 'जो रागादि व देहादि है, वह मैं हूँ' तो विशेष में अशुद्धता होती है। जिसे स्वरूप की रुचि है, उसे शुद्धपर्याय क्रमबद्ध प्रगट होती है और जिसे विकार की-पर की रुचि है, उसे अशुद्धपर्याय क्रमबद्ध प्रगट होती है। चैतन्य की क्रमबद्धपर्याय में अन्तर नहीं पड़ता, किन्तु क्रमबद्ध का ऐसा नियम है कि जीव जिस ओर की रुचि करता है, उस ओर की क्रमबद्ध दशा होती है।। __ जिसे ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा व रुचि होती है, उसकी पर्याय शुद्ध होती है; सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान के अनुसार क्रमबद्धपर्याय होती है, उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इतना निश्चय करने में तो ज्ञानस्वभावी द्रव्य की ओर का अनन्त पुरुषार्थ आ जाता है। यहाँ पर्याय का क्रम नहीं बदलना है, किन्तु अपनी ओर रुचि करनी है। रुचि के अनुसार पर्याय होती है। .

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