Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 135
________________ जीव का कर्त्तव्य द्रव्यदृष्टि का अभ्यास द्रव्यदृष्टि से किसी द्रव्य में विकार है ही नहीं, जीवद्रव्य में भी द्रव्यदृष्टि से विकार नहीं है । 122 पर्यायदृष्टि से जीव की अवस्था में राग-द्वेष होता है और उसमें कर्म निमित्तरूप होता है, किन्तु पर्याय को गौण करके द्रव्यदृष्टि से देखा जाए तो कर्म कोई वस्तु ही नहीं रहा क्योंकि वह तो स्कन्ध है; इसलिए द्रव्यदृष्टि से जीव के विकार का निमित्त कोई द्रव्य न रहा, अर्थात् अपनी ओर से लिया जाए तो जीवद्रव्य में विकार ही नहीं रहा। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य भिन्न है - ऐसी दृष्टि अर्थात् द्रव्यदृष्टि होने पर राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण ही नहीं रहा; अत: द्रव्यदृष्टि में वीतरागभाव की ही उत्पत्ति रही । अवस्थादृष्टि में / पर्यायदृष्टि में अथवा दो द्रव्यों के संयोगी कार्य की दृष्टि में राग-द्वेषादि भाव होते हैं । 'कर्म' अनन्त पुद्गलों का संयोग है, उस संयोग पर या संयोगीभाव का लक्ष्य किया तो राग -द्वेष होते हैं किन्तु अपने असंयोगी आत्मस्वभाव की दृष्टि करने से राग-द्वेष नहीं होते, अपितु उस दृष्टि के बल से मोक्ष ही होता है। इसलिए मुमुक्षु को द्रव्यदृष्टि का अभ्यास परम कर्तव्य है । •

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