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वस्तुविज्ञानसार
लेकिन जहाँ ज्ञान की अवस्था बढ़ी, वहाँ ज्ञान ही अपने पुरुषार्थ से कषाय को कम करके विशेषरूप में हुआ है अर्थात् अपने कारण से ही ज्ञान हुआ है - ऐसी प्रतीति होने पर स्वतन्त्र ज्ञानस्वभाव के बल से पूर्णज्ञान का पुरुषार्थ होता है। - ज्ञानियों को स्वतन्त्र ज्ञानस्वभाव की प्रतीति के बल से वर्तमान अल्पदशा में भी केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, केवलज्ञान प्रतीति में आ गया है। ___अज्ञानी को स्वतन्त्र ज्ञानस्वभाव की प्रतीति नहीं होती; इसलिए उसे यह ज्ञान नहीं होता कि पूरी अवस्था कैसी होती है तथा उसे पूर्ण शक्ति की भी प्रतीति नहीं होती। अनेक प्रकार के निमित्त बदलते जाते हैं और उसने निमित्त का अवलम्बन माना है, इसलिए उसके निमित्त का लक्ष्य बना रहता है तथा स्वतन्त्र ज्ञान की प्रत्यक्षता की श्रद्धा उसके नहीं जमती। मेरा वर्तमान मुझसे होता है, मेरी शक्ति पूर्ण है और इस पूर्ण शक्ति के आश्रयरूप पुरुषार्थ के द्वारा पूर्ण ज्ञान प्रगट होता है।' ज्ञानी को इस प्रकार की प्रतीति है।
जिस ज्ञान के अंश से ज्ञानस्वभाव की प्रतीति की, वह ज्ञान केवलज्ञान को प्रत्यक्ष करता हुआ प्रगट हुआ है, इस प्रकार सामान्य ज्ञानस्वभाव की प्रतीति करने पर पूर्ण को लक्ष्य में लेता हुआ जो विशेष ज्ञान प्रगट हुआ है, वह बीच के भेद को (मति और केवलज्ञान के बीच के भेद को) उड़ाता हुआ पूर्ण के साथ ही अभेदभाव को करता हुआ प्रगट हुआ है। बीच में एक भी भव नहीं है। ज्ञान में अवतार कैसा? केवलज्ञान की प्रतीति में भव का निषेध है। आचार्यदेव ने अविच्छिन्न धारा से केवलज्ञान की बात कही है। यह बात जिसके अन्तर में जम जाती है, उसे भव का अन्त होकर केवलज्ञान होता है। .