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वस्तुविज्ञानसार
तेरे सामान्यस्वभाव के अवलम्बन से होती है; सामान्यस्वभाव के अवलम्बन से विशेषरूप जो मतिज्ञान प्रगट हुआ है; वह पूर्ण केवलज्ञान के साथ अभेदस्वभाववाला है। निमित्त और राग के अवलम्बन से रहित सामान्य के अवलम्बनवाला ज्ञान, स्वाधीन स्वभाववाला है। जिसके अन्तर में यह बात जम जाती है, उसे केवलज्ञान के बीच कोई विघ्न नहीं आ सकता। यह तीर्थङ्कर केवलज्ञानी की वाणी केवलज्ञान की घोषणा करती आयी है। सामान्यस्वभाव के लक्ष्य से जो अंश प्रगट हुआ है, उस अंश के साथ ही केवलज्ञान अभेद है; इस प्रकार केवलज्ञान की बात की गयी है।
केवलज्ञानी की वाणी केवलज्ञान का घोषण करती हुई आयी है और केवलज्ञान के साधक आचार्यों ने यह बात परमागम-शास्त्रों में संग्रह की है। तू भी केवलज्ञान को प्राप्त करने की तैयारी में है, तू अपने स्वभाव के बल पर हाँ कह! अपने स्वभाव की प्रतीति के बिना पूर्ण-प्रत्यक्ष का विश्वास जागृत नहीं होता।
आत्मा का ज्ञानस्वभाव स्वाधीन है, कभी भी बिना विशेष के ज्ञान नहीं होता। जिस समय विशेष में थोड़ा ज्ञान था, वह अपने से ही था और जो विशेष में पूरा होता है, वह भी अपने से ही होता है; उसमें किसी पर का कारण नहीं है। इस प्रकार जीव यदि ज्ञानसवभाव की स्वाधीनता को जान ले तो वह पर में न देखकर, अपने में ही लक्ष्य करके पूर्ण का पुरुषार्थ करने लगे।
सामान्य किसी भी समय निर्विशेष नहीं होता, प्रत्येक समय सामान्य का विशेष कार्य तो होता ही है। चाहे जितना छोटा कार्य हो तो भी वह सामान्य के परिणमन से होता है। निगोद से लेकर