Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 129
________________ 116 वस्तुविज्ञानसार और यह स्वाधीनता से प्रगट होनेवाला विशेष ही पूर्ण विशेषरूप केवलज्ञान का कारण है। जो विशेष प्रगट होता है, वह पूर्ण को प्रत्यक्ष करता हुआ प्रगट होता है। प्रश्न - वर्तमान अंश में पूर्ण' प्रत्यक्ष कैसे होता है? उत्तर - जहाँ विशेष को पर का अवलम्बन नहीं रहता और अपने सामान्यस्वभाव का अवलम्बन रहता है, वहाँ 'पूर्ण' प्रत्यक्ष होता है। जहाँ निमित्त अथवा विकाररहित मात्र सामान्यस्वभाव का अवलम्बन है, वहाँ विशेष प्रत्यक्ष ही होता है, अंश में पूर्ण प्रत्यक्ष होता है। यदि अंश में पूर्ण प्रत्यक्ष न हो तो अंश ही सिद्ध न हो। 'यह इसका अंश है' यह तभी निश्चय हो सकता है, जब अंशी प्रत्यक्ष हो । यदि अंशी अर्थात् 'पूर्ण प्रत्यक्ष न हो तो अंश भी सिद्ध नहीं हो सकता। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी जब स्वसन्मुख होते हैं, तब प्रत्यक्ष हैं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष तो 'पर को जानते समय इन्द्रिय का निमित्त है' इस अपेक्षा से कहा है। इस प्रकार निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का ज्ञान करने के लिए वह कथन किया है किन्तु स्व को जानते समय तो वह ज्ञान भी प्रत्यक्ष ही है। परावलम्बनरहित सामान्य के अवलम्बन से मेरा विशेष ज्ञान होता है, इस प्रकार जिसके सामान्यस्वभाव की प्रतीति जम गयी, उसका विशेषज्ञान, दूसरे को जानते समय भी स्वाधीनता की प्रतीतिसहित जानता है। पर को जानते हुए भी पर का अवलम्बन नहीं मानता। जिस ज्ञान में यह निश्चय किया कि यह ख भे का एक छोर है' उस ज्ञान में सारा ख भा ध्यान में आ ही गया है; जहाँ यह निश्चय

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