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वस्तु के सामान्य-विशेषरूप...
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सभी गुण त्रिकाल हैं, उनका कार्य किसी निमित्त अथवा राग के अवलम्बन से ज्ञानियों के नहीं होता किन्तु अपने ही सामान्य के अवलम्बन से होता है। यह स्वाधीन स्वरूप जिसके अन्तर में जम गया, उसे पूर्ण की प्रतीतिपूर्वक गुण का अंश प्रगट होता है। जिसके पूर्ण की प्रतीतिसहित ज्ञान प्रगट होता है, उसकी अल्पकाल में मुक्ति अवश्य हो जाती है। जिस सामान्य के बल से एक अंश प्रगट हुआ, उसी सामान्य के बल से पूर्णदशा प्रगट होती है। विकल्प के कारण सामान्य की विशेष अवस्था नहीं होती। यदि विकल्प के कारण विशेष होता हो तो विकल्प का अभाव होने पर विशेष का भी अभाव हो जाएगा। वर्तमान विशेष, सामान्य से ही प्रगट होता है, विकल्प से नहीं; इसे समझना ही धर्म है।
यह प्रत्येक द्रव्य की स्वाधीनता की स्पष्ट बात है, दो और दो चार जैसी सीधी सरल बात है; इसे न समझकर, इसकी जगह यदि जीव इस प्रकार पराश्रयता माने कि सबकुछ निमित्त से होता है और एक दूसरे का कार्य करता है तो यह सब मिथ्या है, यह उसकी मूल भूल है। यदि पहले ही दो और दो तीन मानने की भूल हो गयी हो तो उसके बाद सभी भूल होती जाएँगी। इस प्रकार जिसकी मूल वस्तुस्वभाव की मान्यता में भूल हो, उसका सब मिथ्या है।
स्वाधीनता से प्रगट हुआ अंश पूर्ण को प्रत्यक्ष करता है.
जगत में परद्रव्य भले हों, परनिमित्त भले हों; जगत में तो सर्व वस्तुओं का अस्तित्व है, किन्तु वह कोई वस्तु मेरी विशेष अवस्था . करने के लिए समर्थ नहीं है। मेरे आत्मा के सामान्यस्वभाव का अवलम्बन करके मेरी विशेष अवस्था होती है, वह स्वाधीन है।