Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 127
________________ 114 - वस्तुविज्ञानसार यही बात है; आत्मा का वह वर्तमान आनन्द यदि पैसा इत्यादि पर के कारण से परिणमन करे तो उस समय आनन्दगुण ने स्वयं वर्तमान में कौन सा कार्य किया? यदि पर से आनन्द प्रगट हुआ तो उस समय आनन्दगुण का विशेष कार्य कहाँ गया? अज्ञानी ने पर में आनन्द माना, उस समय भी उसका आनन्द गुण स्वाधीनतापूर्वक कार्य करता है। अज्ञानी ने आनन्द का वर्तमान कार्य पर से माना; अतः आनन्द गुण का विशेष उसे दुःखरूप परिणमित होता है। आनन्द पर से प्रगट नहीं होता, किन्तु संयोग और निमित्त के बिना आनन्द नाम के सामान्यगुण के अवलम्बन से वर्तमान आनन्द प्रगट होता है, इसे समझ लेने पर स्वभाव के प्रति लक्ष्य जाता है और उसके अवलम्बन से विशेषरूप आनन्ददशा प्रगट होती है। सामान्य आनन्दस्वभाव के अवलम्बन से प्रगट हुआ आनन्द का अंश, पूर्ण आनन्द की प्रतीति को लेकर प्रगट होता है। यदि आनन्द के अंश में पूर्ण आनन्द की प्रतीति नहीं हो तो वह अंश किसका? चारित्र, वीर्य इत्यादि सर्व गुणों की स्वाधीनता इसी प्रकार चारित्र, वीर्य इत्यादि समस्त गुणों का विशेष / कार्य सामान्य के अवलम्बन से ही होता है। आत्मा का पुरुषार्थ यदि निमित्त के अवलम्बन से कार्य करता हो तो अन्तरङ्ग के सामान्य पुरुषार्थ स्वभाव ने क्या किया? क्या सामान्यस्वभाव, विशेष के बिना ही रहा? विशेष के बिना सामान्य नहीं रह सकता। प्रत्येक गुण का वर्तमान अर्थात् विशेषअवस्थारूप कार्य, सामान्यस्वभाव के आश्रय से प्रगट होता है। अतः कर्म पुरुषार्थ रोकता है, यह बात मिथ्या होने से खण्डित हो गयी।

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