Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 132
________________ वस्तु के सामान्य-विशेषरूप... 119 केवलज्ञान तक आत्मा की सर्व परिणति अपने से ही है; इस प्रकार जहाँ स्वतन्त्रता अपनी प्रतीति में आती है, वहाँ परावलम्बन दूर हो जाता है। मेरी परिणति मुझसे ही कार्य कर रही है, इस प्रकार की प्रतीति में आवरण और निमित्त के अवलम्बन का चूरा हो जाता है। आत्मा के अनन्त गुण स्वाधीनतया कार्य करते हैं। कर्ता, भोक्ता, ग्राहकता, स्वामित्व इत्यादि अनन्त गुणों की वर्तमान परिणति निमित्त और विकल्प के आश्रय के बिना अपने आप ही प्रगट होती है। मेरे ज्ञान के मति-श्रुत अंश स्वतन्त्र हैं, उन्हें किसी पर का अवलम्बन नहीं है - ऐसी प्रतीति होने पर किसी निमित्त का अथवा पर का लक्ष्य नहीं रहता; सामान्यस्वभाव की ओर ही लक्ष्य रहता है। इस सामान्यस्वभाव के बल से जीव को पूर्णता का पुरुषार्थ होता है। पहले पर के निमित्त से ज्ञान का होना माना था, तब वह ज्ञान पर लक्ष्य में अटक जाता था किन्तु स्वाधीन स्वभाव से ज्ञान होता है - ऐसी प्रतीति होने पर ज्ञान को कहीं भी रुकने का नहीं रहता। ___ मेरे ज्ञान में पर का अवलम्बन नहीं है, असाधारण ज्ञान का ही अवलम्बन है। इस प्रकार सामान्यस्वभाव के कारण जो ज्ञान परिणमित होता है, उस ज्ञानधारा को तोड़नेवाला कोई है ही नहीं अर्थात् स्वाश्रय से जो ज्ञान प्रगट हुआ है, वह केवलज्ञान की ही पुकार करता हुआ प्रगट हुआ है। वह ज्ञान, अल्पकाल में ही केवलज्ञान को अवश्य प्राप्त करेगा। ज्ञान के अवलम्बन से ज्ञान कार्य करता है – ऐसी प्रतीति में केवलज्ञान समा जाता है। पहले ज्ञान की अवस्था अल्प थी, पश्चात् जब वाणी सुनी तब ज्ञान बढ़ा किन्तु वह वाणी के सुनने से बढ़ा है - यह बात नहीं है;

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