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वस्तुविज्ञानसार
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क्रमबद्धपर्याय नहीं होती। जिसके ज्ञान में पुरुषार्थ का स्वीकार नहीं होता, वह अपने पुरुषार्थ को प्रारम्भ नहीं करता; इसलिए पुरुषार्थ के बिना उसे सम्यग्दर्शन और केवलज्ञान नहीं होता। ज्ञान के पुरुषार्थ को स्वीकार नहीं करनेवाले की क्रमबद्धपर्याय निर्मल नहीं होगी, किन्तु विकारी होगी। चाहे क्रमबद्ध अवस्था का निर्णय कहो या पुरुषार्थवाद कहो, वह यही है।
प्रश्न – यदि क्रमबद्धपर्याय जब जो होनी हो, तब वही होती है तो फिर विकारीभाव भी जब होना हों, तभी तो होते हैं?
उत्तर - अरे भाई! तेरा प्रश्न विपरीतता को लेकर उपस्थित हुआ है। विकार को जाननेवाले को ज्ञान की रुचि है या विकार की? विकार को यथार्थतया जानने का काम करनेवाला वीर्य / पुरुषार्थ तो अपने ज्ञान का है और उस ज्ञान का वीर्य, विकार से हटकर स्वभाव की ओर जा रहा है; स्वभावसन्मुख ज्ञान, विकार की या पर की रुचि में कदापि नहीं अटकता, अपितु स्वभाव के बल से अल्पकाल में ही विंकार का क्षय करता है। जिसे विकार की रुचि है, उसकी दृष्टि का बल विकार की ओर जाता है। जो होनी होती है वही होती है, मैं ज्ञाता हूँ' इस प्रकार किसका वीर्य स्वीकार करता है ? यह स्वीकार करनेवाले के वीर्य में, पर में सुखबुद्धि नहीं होती किन्तु स्वभाव में ही सन्तोष होता है, ज्ञान की प्रतीति होती है।
जैसे किसी बड़े आदमी के यहाँ शादी का अवसर हो और वह सब को आचूल निमन्त्रण देकर विविध प्रकार के मिष्ठान्न जिमाये, इसी प्रकार यहाँ सर्वज्ञदेव के घर में आचूल निमन्त्रण है; 'मुक्ति के मण्डप में' सबको आमन्त्रण है, समस्त विश्व को आमन्त्रण है।